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सोमवार, 7 अक्टूबर 2019

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा की दो लघुकथाएं : 1. कसक 2. अंगद का पांव

1)
कसक / सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 



दिन ढले काफी देर हो चुकी थी ।

शाम, रात की बाहों में सिमटने को मजबूर थी । वो कमरे में अकेला था । सोफे का इस्तमाल बैड की तरह कर लिया था उसने आदतन अपने मोबाईल पर पुरानी फिल्मों के गाने सुनकर रात के बिखरे  अन्धेरे में उसे  मासूमियत पसरी सी लगी । वो उन गानों के सुरीलेपन के बीच अपने तल्ख हुए सुरीले अतीत में खो गया । मस्तिष्क के कोटरो में वे कोमल और संगीतमय पल फिर से जीवन्त हो उठे जो उसने , उसके साथ पूरे समर्पण भाव से गुजारे थे । वो बड़ी शीद्द्त से उसकी क्रिया पर अपनी ओर से सकारत्मक और ह्रदय में उतर जाने वाली प्रतिक्रिया देती थी । उन दिनो उसे  कभी लगता ही नहीं था कि जीवन में वो उससे कभी अलग भी हो सकता है । 

कहते हैं न कि समय कभी स्थिर रह पाता तो फिर प्रक्रती के काल चक्र को हर कोई अपनी मुट्ठियों में ही कैद  कर बैठ जाता । 

हालात कुछ एसे अनहोने बने कि उसकी लाख कोशिशों के बाद भी वो उससे अलग हुई और एसी अलग हुई कि फिर उसने कभी वापस मुड़कर उसकी नजरों का सामना नहीं किया । 

वो जल बिन मछली की तरह छटपटा कर रह गया  ।

समय के साथ भले ही उसकी छपटाहट  में कुछ कमी आ गयी  पर अलगाव के इतने सारे साल बीत जाने के बाद भी उसे बहुत बार लगता कि  बीते हुए ये साल  उसके जहन पर  परत दर परत  किसी बोझ में ही बदलते रहे हैं । 

इसलिये जब कभी वो जिन्दगी की भागमभाग  से हट कर अपने करीब आता तो खुद को फिर उसी के करीब पाता । उसके अन्दर का  हर कोश उससे मिलने या कम से कम उससे  बात करने के लिये बेताब हो जाता , जबकी वो जानता था कि इसमें से कुछ भी मुमकिन नहीं है । वो बड़ी कसक के साथ अपने आप से पूछता , " कभी - कभी समय अगर बेहद  कोमल और संगीतमय होता है तो वही समय खुद को बदल कर इतना कठोर और क्रूर कैसे  हो जाता है ! " 

उसके पास अपने ही सवाल , फिर से सवाल बन कर उससे टकरा जाते । 
आज की शाम , जो   रात की तरफ पहले ही  बढ़ चुकी थी , और पुराने गानों में उसे नहला भी चुकी थी , ने उसके ह्रदय की कसक को एक बार फिर से छू दिया । उसने मोबाईल में से संदेश वाला आपशन निकाल कर उसका नम्बर निकाला और लिखा , " ये आदमी तुम्हें जीवन की अन्तिम सांस तक वैसे ही याद करता रहेगा जैसे कभी तुम किया करती थीं । " 
उसने लिख तो दिया पर जब उसकी अंगुलियां ओ के वाले बटन की तरफ बढिं तो ठिठक गयीं । 

उसने मोबाईल का मेसेज बाक्स हटाया और कमरे में घिर आये अन्धेरे को उजाले में बदलने के लिये बिजली के  स्विच की तरफ अपने हाथ को बढ़ा दिया ।

कमरे में रोशनी ने अपनी जगह बना ली थी । कमरे में टंगे कलंडर में समुंदर के किनारे खड़ा बच्चा दूर छितिज को देखते हुए मुस्कुरा रहा था ।
उसकी ओर देख कर उसकी इच्छा हुई कि उसे भी मुस्कुराना चाहिये । 

उसने अपनी हथेलियों पर नजर दौडाई , वहां कुछ लकीरें  पहले की तरह  अब भी स्थिर थीं ।
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2)

अंगद का पांव / सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 


उसे अपने बन रहे घर की चौखट के लिये लकड़ी चाहिये थी । वह लकड़ीयों के बाजार में आ गया । दुकानों की लम्बी कतार थी जिन पर लकड़ीयां ही लकड़ीयां सलीके से  सजी थी । उसे एक  दुकान ठीक - ठाक सी लगी जहां एक बुजुर्ग सज्जन दुकान की आरामदायी सीट पर विराजमान थे और  उनके सामने दो - तीन नौ जवान किस्म के लोग   बैठे थे । वह दुकान के अन्दर जाने से पहले तो झिझका । उसे लगा कि दुकान और उसमें रखा माल उसकी आर्थिक  पहुँच  से बाहर है पर उसे लकड़ी तो हर हाल में लेनी ही थी । नहीं तो बन रहे मकान का काम रुक जाता । फिर  उसने सोचा ये नव युवक भी ग्राहक ही  होंगे और उनको इस बुजुर्ग दूकानदार ने कितनी इज्जत से बिठा रखा है और कितनी संजीदगी से अपने माल की खूबियों से अवगत करवा  रहा है । 
वो हिम्मत बटोर कर दुकान में प्रवेश कर गया  । प्रवेश करते ही उसके कानों में बुजुर्ग दूकानदार के शब्द पड़े । वे नौजवान ग्राह्को को कह रहे थे , "  ग्राहक मेरे लिये मेरे भगवान से कम नहीं है । इसी सोच के कारण हमारी दुकान पिछ्ले पचास  साल से इस बाजार में अंगद के पांव की तरह जमी  हुई है जबकि बहुत से सूरमा आये , बैठे पर  उखड़कर जमीन पर बिखर गये । "
" सर जी , आपका माल भी आपके व्यवहार जैसा ही होगा । हमें यकीन है । " एक नव युवक बीच में बोल पड़ा ।
" कहा न  बेटा कि बहुत कमा भी लिया और खा भी लिया । अब इस ऊमर में झूठ बोलने की क्या जरुरत है , मेरे लिये दूकानदारी अब एक पूजा बन चुकी है जहां ग्राहक हमारे लिये हमारे भगवान की तरह है । " 
उसे लगा वो बिल्कुल ठीक जगह पर आ गया है। वो निश्चिंत होकर अपने घर की चौखट के लिये यहां से लकड़ी के लट्ठे ले जा सकता है । यहां उसे उसकी पसंद का माल वाजिब कीमत पर ही मिलेगा ।
इस बीच दूकानदार महोदय उससे मुखातिब हो कर बोले , " जी ! आपको क्या चाहिये ? "
" जी , दो चौख्टों के लिये लकड़ी चाहिये । " उसने भी अदब से ही अपनी जरुरत बताई ।
" हाँ - हां ! क्यों नहीं । आइये बैठिये और बताईये , हम आपको  किस तरह की लकड़ी दें ? " 
" मजबूत और टिकाऊ जिसे दीमक वगैरह न लगे । और कीमत भी वाजिब हो ।" उसमें अब तक बात करने की हिम्मत आ चुकी थी ।
" समझ गया , जरुर मिलेगी । " 
" अकबर , जा इन साहब को पक्की और लाल  शीशम का माल दिखा ।" उन्होनें नौकर को आवाज लगायी ।
अकबर उसे साथ लेकर गोदाम में अन्दर चल पड़ा । वे अकबर के साथ अन्दर गये ही थे कि अकबर उनसे बोला , " सर जी आप इन लट्ठों में अपने हिसाब का कोई लट्ठ देख लें , मैं अभी आया । " 
इतना कहकर वह गोदाम से निकल कर अपने मालिक के  पास जाकर बोला , " साब जी , शीशम की कटाई और बिकवाली तो कब की बन्द हो चुकी है , इस ग्राहक को शीशम की लकड़ी  दिखाने के लिये कौन से गोदाम में ले जाउँ ? " 
यह सुनते ही बुजुर्ग दुकानदार का दिमाग क्रोध से भन्ना गया , " अबे नाजायज टाईम की औलाद जो कुछ भी गोदाम में पड़ा है , हरेक को शीशम की  बता और जितने पैसे देने की  उसकी औकात हो उसके हिसाब से किसी लट्ठ को  इम्पोर्टेड शीशम बताकर पेल दे । जानता है न कि तुझे जो  पगार देता हूँ वो इसी काम के बदले में देता हूँ । जा अपना काम कर । " 
उनकी अपने नौकर को ये हिदायत उस नौजवान के कानों से भी जा टकराई जो थोड़ी देर पहले तक उनसे जान चुका था कि उनके लिये ग्राहक ही भगवान होता है पर ये क्या ये तो अपने ग्राहक को ही ठग रहे हैं । 
नौजवान का दिमाग चकरा गया । वह स्वयं पर नियन्त्रण खो बैठा , " बाबू जी ,  क्या आप  अपने भगवान को भी इसी तरह ठगते  हैं ? और  इसी वजह से इस बाजार में आपका पांव लंका में  अंगद के पांव की तरह टिका हुआ है ? " 
" बरखुरदार , हमेशा बाल की खाल नहीं निकाला  करते । ग्राहक को संतुष्ट करना दूकानदारी का उसूल है ।" एक बेशर्म हंसीं के साथ उन्होनें अपनी लिखी इबारत पढ़ी  और फिर अकबर को लगभग  डाटते हुए बोले , " अबे तू यहां कौन सी तकरीर सुन रहा है ? जा ग्राहक को उसकी जरुरत का  माल दिखा ।
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रविवार, 6 अक्टूबर 2019

लघुकथा-2020: नए लेखकों की नजर में


सम्माननीय साहित्यकार,

सादर नमस्कार।

लगभग तीन महीनों पश्चात् वर्ष 2020 का आगमन होने को है। लघुकथा विधा में भी कितने ही साहित्यकार 2020 में प्रवेश करते हुए अपनी लेखनी के चमत्कार दिखाने को तैयार हैं। वरिष्ठ लघुकथाकारों के साक्षात्कार तो होते ही रहते हैंजो नवोदितों का मार्गदर्शन करते हैं। लेकिन लघुकथा दुनियालघुकथा के प्रति नए रचनाकारों के विचारों को समझने हेतु2020 के नवोदित लघुकथाकारों के लिए 20 प्रश्न लाया है।

यदि आप 01 जनवरी 2011 या उसके बाद से लघुकथा लिख रहे हैं तो संलग्न प्रश्नावली (तीनों भागों - अब तथा स) के उत्तर देने की आपसे प्रार्थना है। चूँकि विधा का भविष्य आपके हाथों में भी है अतः आपके विचारों को प्रकाशित कर हमें अति प्रसन्नता होगी। यह सन्देश आपके अन्य साथियों को भी प्रसारित करने का निवेदन है।


अपने उत्तर आपके चित्र सहित laghukathaduniya@gmail.com पर 31 अक्टूबर 2019 तक ईमेल करने का कष्ट करें। ईमेल में विषय "लघुकथा-2020: नए लेखकों की नजर में" ही रखें। इस योजना के अपडेट पाने एवं लघुकथा सम्बन्धी सामग्री पढ़ने हेतु लघुकथा दुनिया को फॉलो एवं सब्सक्राइब ज़रूर करें।


यदि आप 01 जनवरी 2011 के पूर्व से लघुकथा लिख रहे हैं तो यह सन्देश उपयुक्त रचनाकारों तक प्रसारित करने का निवेदन है।

साभार,


डॉ0 चन्द्रेश कुमार छतलानी
लघुकथा दुनिया

गुरुवार, 3 अक्टूबर 2019

साहित्य संगम संस्थान की 'संगम सवेरा' (मासिक ई पत्रिका) के वर्ष 3 अंक 3 | अक्टूबर 2019 अंक में मेरी दो लघुकथाएं


1)


धर्म-प्रदूषण / डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी 

उस विशेष विद्यालय के आखिरी घंटे में शिक्षक ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए, गिने-चुने विद्यार्थियों से कहा, "काफिरों को खत्म करना ही हमारा मक़सद है, इसके लिये अपनी ज़िन्दगी तक कुर्बान कर देनी पड़े तो पड़े, और कोई भी आदमी या औरत, चाहे वह हमारी ही कौम के ही क्यों न हों, अगर काफिरों का साथ दे रहे हैं तो उन्हें भी खत्म कर देना। ज़्यादा सोचना मत, वरना जन्नत के दरवाज़े तुम्हारे लिये बंद हो सकते हैं, यही हमारे मज़हब की किताबों में लिखा है।"

"लेकिन हमारी किताबों में तो क़ुरबानी पर ज़ोर दिया है, दूसरों का खून बहाने के लिये कहाँ लिखा है?" एक विद्यार्थी ने उत्सुक होकर पूछा।

"लिखा है... बहुत जगहों पर, सात सौ से ज़्यादा बार हर किताब पढ़ चुका हूँ, हर एक हर्फ़ को देख पाता हूँ।" 

"लेकिन यह सब तो काफिरों की किताबों में भी है, खून बहाने का काम वक्त आने पर अपने खानदान और कौम की सलामती के लिए करना चाहिए। चाहे हमारी हो या उनकी, सब किताबें एक ही बात तो कहती हैं..."

"यह सब तूने कहाँ पढ़ लिया?" 

वह विद्यार्थी सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा, उसके चेहरे पर असंतुष्टि के भाव स्पष्ट थे।

"चल छोड़ सब बातें..." अब उस शिक्षक की आवाज़ में नरमी आ गयी, "तू एक काम कर, अपनी कौम को आगे बढ़ा, घर बसा और सुन, शादीयां काफिरों की बेटियों से ही करना..."

"लेकिन वो तो काफिर हैं, उनकी बेटियों से हम पाक लोग शादी कैसे कर सकते हैं?"

शिक्षक उसके इस सवाल पर चुप रहा, उसके दिमाग़ में यह विचार आ रहा था कि “है तो नहीं लेकिन फिर भी कल मज़हबी किताबों में यह लिखा हुआ बताना है कि, ‘उनके लिखे पर सवाल उठाने वाला नामर्द करार दे दिया जायेगा’।”

2)

विरोध का सच / डॉ .चंद्रेश कुमार छतलानी 
"अंग्रेजी नववर्ष नहीं मनेगा....देश का धर्म नहीं बदलेगा..." जुलूस पूरे जोश में था। देखते ही वह राष्ट्रभक्त समझ गया कि जुलूस का उद्देश्य देशप्रेम और स्वदेशी के प्रति जागरूकता फैलाना है और वह भी उसमें शामिल होकर नारे लगाते हुए चलने लगा।

उसके साथ के दो व्यक्ति बातें कर रहे थे,
"बच्चे को इस वर्ष विद्यालय में प्रवेश दिलाना है। कौनसा ठीक रहेगा?"
"यदि अच्छा भविष्य चाहिये तो शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवा दो।"

उसने उन्हें तिरस्कारपूर्वक देखा और नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां भी दो व्यक्तियों की बातें सुनीं,
"शाम का प्रोग्राम तो पक्का है?"
"हाँ! मैं स्कॉच लाऊंगा, चाइनीज़ और कोल्डड्रिंक की जिम्मेदारी तुम्हारी।"

उसे क्रोध आ गया, वह और जोर से नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां उसे फुसफुसाहट सुनाईं दीं,
"बेटी नयी जीन्स की रट लगाये हुए है..."
"तो क्या आजकल के बच्चों को ओल्ड फेशन सलवार-कुर्ता पहनाओगे?"

उत्तर सुनते ही वह हड़बड़ा गया। अब वह सबसे आगे पहुँच गया था, जहाँ खादी पहने एक हिंदी विद्यालय के शाकाहारी प्राचार्य जुलूस की अगुवाई कर रहे थे। वह उनके साथ और अधिक जोश में नारे लगाने लगा। 

तभी प्राचार्य का फ़ोन बजा, एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फ़ोन पर वह बात करने लगे। उसने सुना वह कह रहे थे, "हाँ हुज़ूर, सब ठीक है, लेकिन इस बार रुपया नहीं डॉलर चाहिये, बेटे से मिलने अमेरिका जाना है।"

सुनकर वह चुपचाप वहीँ खड़ा हो गया। जुलूस आगे निकल गया, लेकिन उसके मन में नारों की आवाज़ बंद नहीं हो रही थी। उसने अपनी जेब से बुखार की अंग्रेजी दवाई निकाली, उसे कुछ क्षणों तक देखा फिर उसके चेहरे पर मजबूरी के भाव आये और उसने फिर से दवाई अपनी जेब में रख दी।

बुधवार, 2 अक्टूबर 2019

दो पुस्तकें: लघुकथा रचना-प्रक्रिया तथा पल-पल बदलती ज़िन्दगी’ (पंजाबी लघुकथा संग्रह) | योगराज प्रभाकर



वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर  की फेसबुक पोस्ट से 


Yograj Prabhakar is with Ravi Prabhakar.

(1). पुस्तक का नाम: 
लघुकथा रचना-प्रक्रिया
संपादक: योगराज प्रभाकर
पृष्ठ संख्या: 264
आकार: डिमाई
प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला. 
अंकित मूल्य: 400 रुपये
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‘लघुकथा रचना-प्रक्रिया’ का विमोचन दिनांक 6 अक्टूबर को सिरसा के आखिल भारतीय लघुकथा सम्मलेन में होगा. यह पुस्तक लघुकथा रचना-प्रक्रिया से सम्बंधित एक परिचर्चा पर आधारित है जिसमे मुझ द्वारा पूछे गए 20 प्रश्नों पर नई व पुरानी पीढ़ी के निम्नलिखित 55 मर्मज्ञों के विशद उत्तर शामिल किए गए है:
डॉ० अनिल शूर 'आज़ाद, डॉ० अनीता राकेश, डॉ० अशोक भाटिया, श्री अशोक वर्मा, सुश्री आभा सिंह, डॉ० उमेश महादोषी, श्री एकदेव अधिकारी, डॉ० कमल चोपड़ा, श्री कमलेश भारतीय, सुश्री कल्पना भट्ट, डॉ० कुँवर प्रेमिल, श्री कुमार नरेंद्र, कृष्णा वर्मा (कनाडा), श्री खेमकरण सोमन, डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी, डॉ० जगदीश कुलरियाँ, डॉ० जसबीर चावला, श्री तारिक असलम तसनीम, श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला, डॉ० धर्मपाल साहिल, डॉ० ध्रुव कुमार, सुश्री पवित्रा अग्रवाल, डॉ० पुरुषोत्तम दुबे, स० प्रताप सिंह सोढी, डॉ० प्रद्युम्न भल्ला, श्री प्रबोध कुमार गोविल, डॉ० बलराम अग्रवाल, श्री बालकृष्ण गुप्ता 'गुरुजी', प्रो० बी.एल आच्छा, श्री भागीरथ परिहार, श्री मधुदीप, श्री माधव नागदा, श्री मार्टिन जॉन, डॉ० योगेन्द्र शुक्ल, श्री रवि प्रभाकर, श्री राजेन्द्रमोहन बंधु त्रिवेदी, डॉ० राधेश्याम भारतीय, स्व० रामकुमार आत्रेय, डॉ० रामकुमार घोटड़, डॉ० रामनिवास मानव, श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, प्रो० रूप देवगुण, सुश्री विभारानी श्रीवास्तव, डॉ० वीरेन्द्र भारद्वाज, डॉ० शील कौशिक, श्री श्यामसुंदर अग्रवाल, डॉ० श्यामसुन्दर दीप्ति, श्री सतीश राठी, डॉ० सतीशराज पुष्करणा, श्री सिद्धेश्वर, श्री सुकेश साहनी, सुश्री सुदर्शन रत्नाकर, श्री सुभाष नीरव, श्री सूर्यकांत नागर व स० हरभजन खेमकरनी.
लघुकथा प्रेमियों के लिए यह पुस्तक मात्र 300 रूपये में उपलब्ध होगी. पुस्तक प्राप्ति हेतु कृपया पे.टी.एम नम्बर 7340772712 पर भुगतान करके मुझे सूचित करें.
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(2). पुस्तक का नाम: 
‘पल-पल बदलती ज़िन्दगी’ (पंजाबी लघुकथा संग्रह) 
मूल लेखक: निरंजन बोहा
हिंदी अनुवाद: योगराज प्रभाकर
पृष्ठ संख्या: 104
आकार: डिमाई
प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला.
अंकित मूल्य: 150 रुपये
‘पल-पल बदलती ज़िन्दगी’ पंजाबी के मूर्धन्य साहित्यकार निरंजन बोहा द्वारा लघुकथा संग्रह है. इस संग्रह में लेखक की 62 प्रतिनिधि लघुकथाएँ शामिल हैं.
लघुकथा प्रेमियों के लिए यह पुस्तक मात्र 100 रूपये में उपलब्ध होगी. पुस्तक प्राप्ति हेतु कृपया पे.टी.एम नम्बर 7340772712 पर भुगतान करके मुझे सूचित करें.

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समाज्ञा में आज गांधी जयंती पर मेरी एक लघुकथा




सत्याग्रह नहीं सत्यादेश / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

सौलह-सत्रह वर्ष की एक लड़की दौड़ती हुई उस बाग़ में गांधी जी की प्रतिमा के पीछे जा छिपी। कुछ क्षणों तक हाँफने के बाद उसने गांधीजी प्रतिमा की तरफ देखा, लाठी के सहारे खड़े गांधीजी मुस्कुरा रहे थे। अपनी चुन्नी को सीधे करते हुए उसने उसी से अपने चेहरे को ढका और मन ही मन बुदबुदाई, "गांधीजी, पूरे देश को बचाया... आज मुझे भी बचा लो।"

उसका बुदबुदाना था कि गांधीजी की प्रतिमा में जैसे प्राण आ गए और वह प्रतिमा बोली, 
"क्या हुआ बेटी?"

आवाज़ सुनते ही वह घबरा गयी, उसने चारों तरफ नजरें दौड़ाई और देखा कि उस प्रतिमा के होंठ हिल रहे थे, वह आश्चर्यचकित हो उठी, उसी स्थिति में उसने कहा, "कुछ दरिन्दे मेरी इज्ज़त..."

वह आगे नहीं कह पाई, फिर प्रतिमा ने पूछा "कहाँ रहती हो?
"यहीं पास में।" 

"कौन-कौन है घर में?"
"पिताजी, भाई, माँ और मैं।"

"घर से बाहर कितना निकलती हो?"
"बहुत कम, आज महीनों बाद अकेली निकली थी और ये..."

"घर में क्या करती हो?"
"खाना बनाना, सफाई करना, पानी भरना..."

"कुछ खेलती हो?"
"घर के कामों से समय ही नहीं मिलता।"

"क्या तुम से और तुम्हारे भाई से अलग-अलग व्यवहार होता है?"
"वो तो लड़का है इसलिए..."

"कभी मार पड़ती है?"
"बहुत बार, जनम होने से पहले से... मुझे मारना चाहा था... लेकिन बच गयी।" 

"कभी विरोध किया?"
"नहीं..."

"अहिंसात्मक विरोध करो बेटी, कितनी पढ़ी हो?” प्रतिमा के होंठ मुस्कुरा रहे थे।
"आठवीं तक, फिर घरवालों ने नहीं भेजा... अब घर पर ही थोड़ा-बहुत..." 

यह सुनते ही गांधीजी की प्रतिमा के होंठ भींच गए और उसने अपनी लाठी लड़की की तरफ बढ़ा कर कहा,
“इसे लो... पहले पढ़ो... तुम्हें गांधी की नहीं लाठी की ज़रूरत है।"
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