लघुकथा: इतिहास गवाह है | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
“योर ऑनर, सच्चाई यह है कि महाराणा ने युद्ध जीता था... इसलिए युद्धभूमि का नाम अब महाराणा के नाम पर ही होना चाहिए”, न्यायालय के एक खचाखच भरे कक्ष में पहले वकील ने पुरजोर शब्दों में दलील दी।
“माफ़ी चाहता हूँ योर ऑनर, लेकिन मेरे विद्वान मित्र सच नहीं कह रहे। युद्ध शहंशाह ने जीता था, इतिहास गवाह है...” दूसरे वकील ने अंतिम तीन शब्दों पर ज़ोर देते हुए कहा।
पहले वकील ने मुस्कुराते हुए प्रत्युत्तर दिया, “अगर मेरे दोस्त का कहना सच है कि इतिहास गवाह है... तो योर ऑनर उन्हें यह आदेश फरमाएं, कि बुला लें इतिहास को गवाही के लिए...”
सुनते ही कोर्ट रूम में बैठे ज़्यादातर लोग हँसने लगे, यहाँ तक कि जज भी मुस्कुराने से बच नहीं सके।
पीछे बैठा एक व्यक्ति शरारत से चिल्लाया, “इतिहास हाज़िर होsss”
लेकिन जब तक कोई चिल्लाने वाले व्यक्ति की शक्ल भी देख पाता, कटघरे के नीचे से धुएँ का एक गुबार उठा और कटघरा धुएँ से भर गया।
वहीँ से एक गंभीर स्वर गूंजा, “मैं वर्तमान और भविष्य की कसम खा कर कहता हूँ कि मैं कभी झूठ नहीं बोलता, मेरे नाम से लोग झूठ बोलते हैं।”
कोर्ट रूम में बैठे सभी व्यक्ति हतप्रभ रह गए, कटघरे में धुंए के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। जज हडबडाये स्वर में बोला, “कौन है वहां?”
स्वर गूंजा, “इतिहास...”
दोनों वकीलों के हलक सूख गए। पहले वकील ने किसी तरह खुदको सम्भाल कर अपनी आँखे धुएँ में गाड़ने का असफल प्रयास करते हुए पूछा, “युद्ध... महाराणा... ने ही...” बाकी शब्द उसके कंठ में ही अटक गए।
स्वर गूंजा, “नहीं...”
यह सुनकर दूसरे वकील की जान में जैसे प्राण आ गये, वह बोला, “मतलब… शहंशाह ने जीता...”
स्वर फिर गूंजा, “नहीं...”
“तो फिर?” जज ने पूछा, हालाँकि उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह प्रश्न कर किससे रहा है।
“युद्ध जीता था - नफरत ने।” स्वर तीक्ष्ण था।
जज ने अब उत्सुकतापूर्ण स्वर में अगला प्रश्न पूछा, “लेकिन हम कैसे मान लें कि तुम इतिहास हो?”
और अगले ही क्षण धुएँ का गुबार छंट गया। कटघरा खाली था...
कहीं से वही स्वर आया, “मुझे पहचान नहीं सकते तो कटघरे में खड़ा कैसे कर सकते हो?”
कोर्ट रूम में फिर खामोशी छा गयी।
ख़ामोशी उसी स्वर ने तोड़ी,
“उस ज़मीन का नाम मोहब्बत रख देना – आपको आपके भविष्य की कसम...”
और इस बार स्वर भर्राया हुआ था।
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चित्र: साभार गूगल