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बुधवार, 25 दिसंबर 2019

सुकेश साहनी की लघुकथाएँ नहीं पढ़नी चाहिए... | रवि प्रभाकर

सुकेश साहनी जी का लघुकथा संग्रह ‘साइबरमैन‘ और भगीरथ परिहार जी रचित ‘कथाशिल्पी सुकेश साहनी की सृजन-संचेतना‘ का परिचय रवि प्रभाकर जी ने अलग ही अंदाज में दिया है। रवि जी अपनी विस्तृत समीक्षा के लिए जाने जाते हैं, अपने अनूठे अंदाज से उन्होंने इन पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया है। आइये पढ़ते हैं:

सुकेश साहनी की लघुकथाएँ नहीं पढ़नी चाहिए... | रवि प्रभाकर 

दिनांक 6 दिसंबर को आदरणीय सुकेश साहनी जी द्वारा भेजी पुस्तकें ‘साइबरमैन‘ और भगीरथ परिहार रचित ‘कथाशिल्पी सुकेश साहनी की सृजन-संचेतना‘ प्राप्त हुईं। अपरिहार्य कारणों के चलते घर से बाहर जाना पड़ा और 4-5 दिन पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य नहीं मिला। मुझे याद है जब सातवीं या आठवीं कक्षा में था तब पिताजी ने नया लाल रंग का ‘जैंकी‘ साइकिल दिलवाया था। रात आठ बजे साइकल मिला था, सुबह तक इंतज़ार करना भारी हो गया था कि कब सुबह हो और कब साईकल   चलाऊं। लगभग साढ़े तीन दशक बाद वही बेचैनी और रोमांच महसूस हुआ जब ‘साइबरमैन‘ घर थी और मैं उसे पढ़ नहीं पा रहा था। ख़ुदा ख़ुदा करके दिन निकले और मैं घर वापिस आया। ‘अथ उलूक कथा‘ (प्रकाशन मार्च 1987) से लेकर ‘चिड़िया‘ (साहनी जी की नवीनतम कृति) तक सभी लघुकथाएँ और प्रो. बी.एल. आच्छा द्वारा लिखित ‘लघुकथा के धरातल और शिल्प की नवोन्मेषी ललक‘ पढ़ते-पढ़ते एक सप्ताह कैसे निकला पता ही नहीं चला। इन लघुकथाओं का ख़ुमार अभी तक है। ‘साइबरमैन‘ पढ़ने के बाद जो विचार सबसे पहले मन में आया वो है ‘सुकेश साहनी की लघुकथाएँ नहीं पढ़नी चाहिए।‘ क्योंकि साहनी जी को पढ़ने के बाद कोई सतही लघुकथाएँ पचा नहीं सकता। इन लघुकथाओं को पढ़ते-पढ़ते आप मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। भाषायी आडम्बर से कोसों दूर, शिल्प के प्रति कोई विशेष आग्रह नहीं और सबसे बड़ी बात- इन लघुकथाओं के शीर्षक, कमाल! कमाल! कमाल! पृष्ठ 90 पर प्रकाशित ‘मरुस्थल‘ पढ़ने के बाद दिल से एक आह निकलने के साथ-साथ निकला ‘सुकेश साहनी जिन्दाबाद‘। 21 वर्ष पूर्व प्रकाशित लघुकथा ‘राजपथ‘ (प्रकाशन ‘हंस‘ अक्तूबर 98) पढ़कर कोई नहीं कह सकता कि ये आज के हालात पर लिखी नवीनतम लघुकथा है। यानी आज भी प्रासंगिक है। पृष्ठ 20 पर अंकित ‘ओएसिस‘ को पढ़कर समझ में आ जाता है कि लघुकथा सरीखी विधा में शीर्षक का क्या महत्त्व है। इस संकलन में 50 लघुकथाएँ शामिल है, जिन्हें पढ़ना अपने आपमें एक सीख है। सुकेश साहनी लघुकथा का ‘स्कूल‘ नहीं अपितु विश्वविद्यालय हैं। भगवान आपको दीर्घायु और आपकी कलम को बल बख़्शे।

हिन्दी साहित्य निकेतन, 16, साहित्य विहार, बिजनौर (उ.प्र.) द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य मात्र 250 रुपये है। हर लघुकथा अनुरागी के पास यह पुस्तक होनी ही चाहिए।

प्रस्तुत हैं इस संकलन में प्रकाशित दो लघुकथाएँ:

राजपथ
प्रजा बेहाल थी। दैवीय आपदाओं के साथ साथ अत्याचार, कुव्यवस्था एवं भूख से सैकड़ों लोग रोज़ मर रहे थे, पर राजा के कान पर तक नहीं रेंग रही थी। अंततः जनता राजा के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आई। राजा और उसके मंत्रियों के पुतले फूंकती, 'मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!!' के नारे लगाती उग्र भीड़ राजमहल की ओर बढ़ रही थी। राजमार्ग को रौंदते क़दमों की धमक से राजमहल की दीवारें सूखे पत्ते-सी काँप रही थीं। ऐसा लग रहा था कि भीड़ आज राजमहल की ईंट से ईंट बजा देगी।
तभी अप्रत्याशित बात हुई। गगनभेदी विस्फोट से एकबारगी भीड़ के कान बहरे हो गए, आँखें चौंधिया गईं। कई विमान आकाश को चीरते चले गए, ख़तरे का सायरन बजने लगा। राजा के सिपहसालार पड़ोसी देश द्वारा एकाएक आक्रमण कर दिए जाने की घोषणा के साथ लोगों को सुरक्षित स्थानों में छिप जाने के निर्देश देने लगे।
भीड़ में भगदड़ मच गई। राजमार्ग के आसपास खुदी खाइयों में शरण लेते हुए लोग हैरान थे कि अचानक इतनी खाइयाँ कहाँ से प्रकट हो गईं।
सामान्य स्थिति की घोषणा होते ही लोग खाइयों से बाहर आ गए। उनके चेहरे देशभक्ति की भावना से दमक रहे थे, बाँहें फड़क रही थीं। अब वे सब देश के लिए मर-मिटने को तैयार थे। राष्ट्रहित में उन्होंने राजा के ख़िलाफ़ अभियान स्थगित कर दिया था। देशप्रेम के नारे लगाते वे सब घरों को लौटने लगे थे।
राजमहल की दीवारें पहले की तरह स्थिर हो गई थीं। रातोंरात राजमार्ग के इर्द-गिर्द खाइयाँ खोदनेवालों को राजा द्वारा पुरस्कृत किया जा रहा था।
(हंस, अक्टूबर 98)

मरुस्थल
'जमना, तू क्या कहना चाह रही है?' 'मौसी, जे जो गिराहक आया है, इसे किसी और के संग मत भेजियो।'
'जमना, जे तू के रई हय? इत्ती पुरानी होके। हमारे लिए किसी एक गिराक से आशनाई ठीक नई।'
'अरे मौसी, तू मुझे गलत समझ रई है। मैं कोई बच्ची तो नहीं, तू किसी बात की चिंता कर। पर इसे मैं ही बिठाऊँगी।'
'वजह भी तो जानूँ?'
'वो बात जे है कि...कि...' एकाएक जमना का पीला चेहरा और फीका हो गया, आँखें झुक गईं, 'इसकी शक्ल मेरे सुरगवाली मरद से बहुत मिलती है। जब इसे बिठाती हूँ, तो थोड़ी देर के वास्ते ऐसा लगे है, जैसे मैं धंधे में नहीं अपने मरद के साथ घर में हूँ।'
'पर...पर...आज तो वह तेरे साथ बैठनाई नहीं चाह रिया, उसे तो बारह-चौदह साल की चइए।' 
(कथादेश, जनवरी 2019)




मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

मैं कहानी कैसे लिखता हूँ | मुंशी प्रेमचंद

मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानी लेखन की रचना प्रक्रिया के बारे में बताया है। यह लघुकथाकारों के लिए महत्वपूर्ण इसलिए हो जाती हैं क्योंकि कमोबेश इसे हम लघुकथा रचना से जोड़ सकते हैं। आइये पढ़ते हैं :

प्रेमचंद की रचना प्रक्रिया

मेरे किस्से प्राय: किसी-न-किसी प्रेरणा अथवा अनुभव पर आधारित होते हैं, उसमें मैं नाटक का रंग भरने की कोशिश करता हूं मगर घटना-मात्र का वर्णन करने के लिए मैं कहानियां नहीं लिखता । मैं उसमें किसी दार्शनिक और भावनात्मक सत्य को प्रकट करना चाहता हूँ । जब तक इस प्रकार का कोई आधार नहीं मिलता, मेरी कलम ही नहीं उठती । आधार मिल जाने पर मैं पात्रों का निर्माण करता हूँ । कई बार इतिहास के अध्ययन से भी प्लाट मिल जाते हैं । लेकिन कोई घटना कहानी नहीं होती, जब तक कि वह किसी मनोवैज्ञानिक सत्य को व्यक्त न करे ।

मैं जब तक कोई कहानी आदि से अन्त तक जेहन में न जमा लूं, लिखने नही बैठता। पात्रों का निर्माण इस दृष्टि से करता हूँ कि वे इस कहानी के अनुकूल हों । मैं इसकी जरुरत नहीं समझता कि कहानी का आधार किसी रोचक घटना को बनाऊं मगर किसी कहानी में मनोवैज्ञानिक पराकाष्ठा (Climax) हो, और चाहे वह किसी भी घटना से सम्बन्धित हो, मैं इसकी परवाह नहीं करता । अभी मैंने हिन्दी में एक कहानी लिखी है, जिसका नाम है, 'दिल की रानी' । मैंने मुस्लिम इतिहास में तैमूर के जीवन की एक घटना पड़ी थी, जिसमें हमीदा बेगम से उसके विवाह का उल्लेख था । मुझे तुरन्त इस ऐतिहासिक घटना के नाटकीय पहलू का ख्याल आया। इतिहास में क्लाइमैक्स कैसे उत्पन्न हो, इसकी चिन्ता हुई । हमीदा बेगम ने बचपन में अपने पिता से शस्त्र-विद्या सीखी थी और रणभूमि में कुछ अनुभव भी प्राप्त किए थे । तैमूरने हजारों तुर्कों का वध किया था । ऐसे प्रतिपक्षी पर एक तुर्क स्त्री किस प्रकार अनुरक्त हुई, इस समस्या का हल होने से क्लाइमैक्स निकल आता था । तैमूर रूपवान न था, इसलिए जरूरत हुई कि उसमें ऐसे नैतिक और भावनात्मक गुण उत्पन्न किए जाएं, जो एक श्रेष्ठ स्त्री को उसकी ओर खींच सकें । इस प्रकार वह कहानी तैयार हो गई ।

कभी-कभी सुनी-सुनाई घटनाएं ऐसी होती हैं कि उन पर आसानी से कहानी की नींव रखी जा सकती है । कोई घटना, महज सुन्दर और चुस्त शब्दावली और शैली का चमत्कार दिखाकर ही कहानी नहीं बन जाती; मैं उसमें क्लाइमैक्स लाज़िमी चीज़ समझता हूँ, और वह भी मनोवैज्ञानिक । यह भी जरूरी है कि कहानी इस क्रम से आगे चले कि क्लाइमैक्स निकटतम आता जाए । जब कोई ऐसा अवसर आ जाता है, जहां तबीयत पर जोर डालकर साहित्यिक और काव्यात्मक रंग उत्पन्न किया जा सकता है, तो मैं उस अवसर से अवश्य लाभ उठाने का प्रयत्न करता हूँ । यही रंग कहानी की जान है ।

मैं कम भी लिखता हूँ। महीनेभर में शायद मैंने कभी दो कहानियों से अधिक नहीं लिखी । कई बार तो महीनों कोई कहानी नहीं लिखता । घटना और पात्र तो मिल जाते हैं; लेकिन मनोवैज्ञानिक आधार कठिनता से मिलता है । यह समस्या हल हो जाने के बाद कहानी लिखने में देर नहीं लगती । मगर इन थोड़ी सी पंक्तियों में कहानी-कला के तत्व वर्णन नहीं कर सकता । यह एक मानसिक वस्तु है । सीखने से भी लोग कहानीकार बन जाते हैं, लेकिन कविता की तरह इसके लिए भी, और साहित्य के प्रत्येक विषय के लिए, कुछ प्राकृतिक लगाव आवश्यक है । प्रकृति आपसे-आप प्लाट बनाती है, नाटकीय रंग पैदा करती है, ओज लाती है, साहित्यिक गुण जुटाती है, अनजाने आप ही आप सब कुछ होता रहता है । हाँ, कहानी समाप्त हो जाने के बाद मैं खुद उसे पढता हूँ । अगर उसमें मुझे नयापन, बुद्धि का कुछ चमत्कार, कुछ यथार्थ की ताजगी, कुछ गति उत्पन्न करने की शक्ति का एहसास होता है तो मैं उसे सफल कहानी समझता हूँ वरना समझता हूँ फेल हो गया । फेल और पास दोनों कहानियां छप जाती हैं और प्राय: ऐसा होता है कि जिस कहानी को मैंने फेल समझा था, उसे 'मित्रों' ने बहुत सराहा । इसलिए मैं अपनी परख पर अधिक विश्वास नहीं करता ।

Basic Source:
https://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/literature/668/how-i-write-story-premchand.html

रविवार, 22 दिसंबर 2019

लघुकथा समाचार: फेसबुक पर लघुकथा आयोजन 2020


नमस्ते!!!

साहित्य की अपेक्षाकृत नवीन विधा लघुकथा शीघ्रता से अपने पंख फैलाते हुये व्योम की ऊँचाई को छूने का प्रयास कर रही है। इसमें लघुकथा के तमाम पुरोधाओं के साथ सभी समूहों का योगदान है और सब अपने अपने तरीके से यथासम्भव लघुकथा के विकास हेतु प्रतिबद्ध हैं।

हम (दिव्या राकेश शर्मा,  चित्रा राणा राघव, कुमार गौरव, वीरेंद्र वीर मेहता, नेहा शर्मा और मृणाल आशुतोष) समस्त लघुकथा परिवार की ओर से एक वृहद आयोजन लेकर आप सबके समक्ष उपस्थित हुये हैं जिसमें हम सभी समूहों की सामुहिक भागीदारी सुनिश्चित हो। इस आयोजन को हमने
#लघुकथा_आयोजन_2020 की संज्ञा दी है।

आयोजन का लक्ष्य अधिकाधिक लघुकथाप्रेमियों तक  पहुँचने का प्रयास है और आयोजन में आयी श्रेष्ठ लघुकथाओं का चयन करना है।

वरिष्ठ लेखक अगर इस आयोजन का हिस्सा बनें तो हमें अति प्रसन्नता होगी और इससे आयोजन की महत्ता बढ़ेगी।

श्रेष्ठ रचनाओ के चयन हेतु कुछ नियम निर्धारित किये गए हैं जिनका अनुपालन अनिवार्य है।

1.रचना मौलिक, स्वरचित, अप्रकाशित और अप्रसारित होनी चाहिए। सोशल साइट्स, वेबसाइट आदि पर प्रकाशित रचना भी कतई मान्य नहीं होंगी।

2.आयोजन का समय भारतीय समयानुसार 1 जनवरी 2020 प्रातः 8 बजे से  20 जनवरी 2020 रात्रि10 बजे तक रहेगा।

3. एक रचनाकार दो और अधिकतम दो रचना आयोजन में भेज सकते हैं। वह किसी भी समूह में पोस्ट कर सकते हैं। एक समूह में केवल एक ही रचना पोस्ट कर सकते हैं। अन्यथा रचनाकार आयोजन से पृथक माने जाएंगे।

4. रचना के शीर्ष में #लघुकथा_आयोजन_2020
नाम शहर का नाम एवम मौलिक, स्वरचित, अप्रकाशित और अप्रसारित अंकित करना नितांत अनिवार्य है। आयोजन में पोस्ट की हुई रचना  परिणाम आने तक आयोजन के इतर रचना कहीं न तो पोस्ट की जा सकती है और न ही कहीं पत्र-पत्रिका/वेबसाइट में भेजी जा सकती है।  अन्यथा वह रचना आयोजन का हिस्सा नहीं बन सकेगी।

5.रचना पटल पर डालने के पश्चात न तो संपादित(एडीट) और न ही डिलिट की जा सकती है ऐसा करने पर रचनाकार आयोजन  से बाहर हो माने जाएंगे एवम यदि उसकी जगह दूसरी रचना प्रेषित करने का प्रयास किया गया तो आयोजन समिति को रचना स्वीकृत (अप्रूव) न करने एवम डिलिट करने का सम्पूर्ण अधिकार होगा।

6 20 जनवरी के पश्चात 30 जनवरी 2020 तक प्रत्येक समूह के एडमिन समिति अपने समूह से न्यूनतम 5 अधिकतम 10 श्रेष्ठ रचनाओं का चयन कर हम आयोजन मंडल को देंगे। समूह से एक लेखक की एक और केवल एक ही रचना का चयन किया जा सकता है। यहाँ समूह के एडमिन के लघुकथा के प्रति प्रतिबद्धता सामने आयेगी।

7 एडमिन अपने समूह में रचना भेजने से वंचित रहेंगे। वह दूसरे समूह में अपनी रचना भेज सकते हैं।

8 जो लेखक किसी भी समूह में सक्रिय नहीं है किंतु इस आयोजन में भाग लेना चाहते हैं तो वह अपने वाल पर आयोजन के अन्य सभी नियमो का पालन करते हुये आयोजन का हिस्सा बन सकते हैं। इस आयोजन हेतु पोस्ट किए रचना पर इस आयोजन मंडल के दो सदस्यों को मेंशन जरूर करें।

9. रचनाकारों से सविनय निवेदन है कि रचना पोस्ट करने से पहले नियमावली को ध्यानपूर्वक पढ़े। तदुपरांत ही रचना पोस्ट करें।

10. सभी समूह से रचना प्राप्त होने के पश्चात रचनाओं को लघुकथा के दो मर्मज्ञ के पास निर्णय  हेतु भेजा जायेगा।

11. #प्रथम_पुरस्कार-3100 ₹ और मधुदीप निर्देशित पड़ाव पड़ताल के पांच खण्ड
#द्वितीय_पुरस्कार- 2100₹ और पड़ाव पड़ताल के पांच खण्ड
#तृतीय_पुरस्कार -1100₹ और पड़ाव पड़ताल के पांच खण्ड
इसके अतिरिक्त सात अन्य लेखकों को प्रोत्साहन पुरस्कार के रूप में लघुकथा की दो प्रतिष्ठित पुस्तक दी जाएगी।

12. सभी समूहों के एडमिन से विनम्र निवेदन है कि इस आयोजन में सहभागी बनें और अपने आपको इस पोस्ट में टैग समझें। इस पोस्ट को अपने समूह में पोस्ट करें और इसे पिन कर लें। तथा आयोजन के अंतराल में रचनाकारों को रचना पोस्ट में मार्गदर्शन करें।

13. इन नियमों के विरुद्ध जाने पर उत्पन्न वाद विवाद  पर आयोजन मंडल का निर्णय ही अंतिम और सर्वोमान्य होगा। इसे किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।

सभी मित्रों से निवेदन है कि इस पोस्ट को कॉपी पेस्ट कर अपने वाल पर स्थान दें ताकि अधिकाधिक लघुकथाकार इस आयोजन का हिस्सा बन सकें।

कोई भी संस्था या व्यक्ति पुरस्कार का प्रायोजक बनना चाहते हैं तो आयोजन मंडल से सम्पर्क कर सकते हैं

■■■
◆लघुकथा के परिंदे
◆साहित्य संवेद
◆नया लेखन और नया दस्तखत
◆साहित्य प्रहरी
◆साहित्य अर्पण
◆लघुकथा:गागर में सागर
◆सार्थक साहित्य मंच
◆शब्दशः
◆ज़िन्दगीनामा: लघुकथाओं का सफ़र
◆अनुपम साहित्य
◆चिकीर्षा- ग़ज़ल एवम् लघुकथा को समर्पित एक प्रयास
◆क्षितिज
◆फलक (फेसबुक लघुकथाएं)
◆आधुनिक लघुकथाएं

उपर्युक्त समूहों की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है।
इनमे रचनाकार अपनी रचना पोस्ट कर सकते हैं।
नियमावली को एक बार ध्यान से पढ़ लीजिए।

जैसे जैसे अन्य समूह की स्वीकृति आती जाएगी, साझा किया जाएगा।

■■■(साथियो,
पुरस्कार की राशि मे बढोत्तरी हुई है।
अब प्रथम पुरस्कार 3100₹ और मधुदीप संपादित पड़ाव-पड़ताल के पांच खण्ड
द्वितीय पुरस्कार 2100₹ और मधुदीप संपादित पड़ाव-पड़ताल के पांच खण्ड
तृतीय पुरस्कार 1100₹ और मधुदीप संपादित पड़ाव-पड़ताल के पांच खण्ड

आयोजन की सफलता के बाद इसे एक पुस्तक रूप देने का और विजेताओं को  पुरुस्कार एक समारोह में देने का भी विचार है।

Source:

https://www.facebook.com/groups/437133820382776/permalink/591733908256099/

लघुकथा बनाम कहानी | कृष्ण मनु

आजकल महज वार्तालाप , सपाट घटना वर्णन, चुटकुलेनुमा गद्याअंश जिससे कथातत्व सिरे से नदारत हो, को लघुकथा के शीर्षक तले लिखा और छापा जा रहा है। मैं यहां असहमत हूं। (इसी पोस्ट से )

- कृष्ण मनु

लघुकथा  बनाम कहानी 

वस्तुतः लघुकथा और कहानी कथाविधा की दो सगी बहनें  हैं -एक का विस्तार फलक काफी बड़ा है, दूसरी का बिल्कुल छोटा। एक अपने पात्र के पूरे जीवनचक्र घटनाओं प्रति घटनाओं की शृंखला के  माध्यम से व्यक्त करती है तो दूसरी अपने पात्र के साथ घटित एकमात्र हादसे (घटना) को इतने प्रभाव पूर्ण ढंग से प्रस्तुत करती है कि पाठक मन झंकृत हो उठता है।

एक कहानी में  कई लघुकथाएं शामिल हो सकती हैं जब कि एक लघुकथा  का विस्तार कर कहानी का रूप नहीं दिया जा सकता है।

कथा तत्व दोनो विधाओं में एक जैसा हैं। हां, प्रस्तुति/ट्रीटमेंट में भिन्नता हो सकती है। यह रचनाकार पर निर्भर है। कथाकार जहां कहानी की शुरुआत भूमिका सहित करते हुए धीरे-धीरे  कथा विस्तार करता जाता है, वहीं एक लघुकथा लेखक एक-ब-एक मूल बिंदु पर पहुंच जाता है।

अनावश्यक चित्रण,  वर्णन, भूमिका की गुंजाइश उसके (लघुकथा लेखक के) पास नहीं होती शब्द जाल मेंं पाठकों को उलझाना एक लघुकथा शिल्पी की प्रकृति में नहीं जबकि कहानीकार को खुली छूट है।

जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूं कि 'कथा' का लघुकथा और कहानी दोनो मेें  समावेश है,अतएव मेरा व्यक्तिगत मानना है, लघुकथा में कथातत्व/कथानक अवश्य हो, जबकि आजकल महज वार्तालाप , सपाट घटना वर्णन, चुटकुलेनुमा गद्याअंश जिससे कथातत्व सिरे से नदारत हो, को लघुकथा के शीर्षक तले लिखा और छापा जा रहा है। मैं यहां असहमत हूं।

जहां तक  लघुकथा मेें शब्द सीमा निर्धारण का प्रश्न है, मैं इसके खिलाफ हूं। चूंकि लघुकथा का सृजन मात्र एक घटना-बिंदु के इर्दगिर्द बुने शब्दों से होता है, अतएव वह आवश्यक शब्द स्वतः निर्धारित कर लेता है। लेखक की अभिव्यक्ति पूर्ण हो जाती है। शब्द सीमा का निर्धारण सीधे-सीधे अभिव्यक्ति का गला घोंटना हुआ।

मान लीजिए आप  एक बिंदु और एक शून्य की आकृति दे रहे हैं तो बिंदु स्वतः खुद जितना चाहिए जगह ले लेगी और शून्य को जितनी जगह चाहिए वह स्वयं ग्रहण कर लेगा। हम आप जगह का निर्धारण करने वाले कौन होते हैं कि शून्य को इतनी जगह देनी है और बिंदु को इतनी।

- कृष्ण मनु

Source:
https://www.facebook.com/100004390897888/posts/1507622059394143/

गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

रामकुमार आत्रेय : काँटों में से राह बनाने वाले साहित्यकार | राधेश्याम भारतीय

रामकुमार आत्रेय जी का राधेश्याम भारतीय जी द्वारा लिया गया साक्षात्कार | लघुकथा डॉट कॉम पर 
(हरियाणा सरकार द्वारा रामकुमार आत्रेय जी को बाल मुकुन्द गुप्त पुरस्कार  दिए जाने के अवसर पर राधे श्याम भारतीय द्वारा उनसे लिया गया साक्षात्कार)



रामकुमार आत्रेय 
हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ कवि एवं कथाकार रामकुमार आत्रेय को हरियाणा साहित्य अकादमी की ओर से बालमुकुन्द गुप्त पुरस्कार मिलने पर मैं उन्हें बधाई देने उनके घर पहुँचा। रामकुमार कुमार आत्रेय का व्यक्तित्व जितना अनुकरणीय है, उतना ही उनका साहित्य। वे केवल साहित्य में ही आदर्शवाद की बातें नहीं करते बल्कि वे स्वयं उनका पालन करने वाले भी हैं। आज साहित्य क्षेत्र में जिस तरह गुटबाजी कायम है, वे उससे कोसों दूर रहे हैं। आज देश की ऐसी कोई पत्रिका नहीं है ,जिनमें इनकी रचनाएँ  ससम्मान प्रकाशित न होती हों। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र के बी.ए.प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में इनकी कविताएँ  (हरियाणी बोली) में  पढ़ाई जा रही हैं। प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत्त होने पर भी खुद को साक्षर मानते हैं। पिछले कई वर्षों से इनकी नेत्रदृष्टि बिल्कुल साथ छोड़ गई है। इसके बावजूद ये साहित्यिक -साधना में रत हैं और उसी साधना के बल पर इन्होंने  हिन्दी एवं हरियाणवी भाषा में 15 पुस्तकें पाठकों को देकर एक अनुपम कार्य किया है। अनुपम इसलिए क्योंकि जिन विकट परिस्थितियों में आम आदमी हार मान बैठता है, ऐसे में आत्रेय जी लड़ते रहे और अपनी लेखनी से अपने मन के भावों एवं आम आदमी की पीड़ा को शब्दों में पिरोकर समाज को एक नई राह दिखाने को प्रयासरत हैं। आत्रेय जी मूलतः स्वयं को कवि मानते हैं। मैं समझता हूँ कि इनके मन में काव्य के उपजने के पीछे कहीं न कहीं वेदना का प्रभाव रहा है, क्योंकि 6 वर्ष की आयु में जिनके सिर सेे पिता का साया उठ गया हो । घर में एकमात्र पुत्र होने के कारण परिवार का सारा बोझ जिनके कंधों पर आ पड़ा हो और आगे चलकर 30 वर्ष की अवधि में जिनकी धर्मपत्नी छोटे- छोटे बच्चों को छोड़कर इस लौकिक संसार से विदा हो गई हो तो ऐसे में मन दुखों से भर ही जाता है। संसार मिथ्या नजर आता है, और फिर पीड़ित मन संसार के यथार्थ की खोज में भटकने लगता। वहीं से कल्पना लोक में विचरते मन से उपजने लगती है कविता। सुमित्रानंदन पंत की वे काव्य पंक्तियाँ  –

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।।

आत्रेय जी पर सटीक बैठती प्रतीत होती हैं; आइए , आत्रेय जी के व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व से रू-ब-रू होते हैं-

राधेश्याम भारतीय


राधेश्याम भारतीय: आत्रेयजी, आपने साहित्य की अनेक विधाओं में लिखा है। लिखा ही नहीं बल्कि उस साहित्य ने हिंदी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान भी बनाई है। आप स्वयं को मूलतः कवि मानते हैं । आपके कवि बनने के पीछे क्या कारण रहे हैं ?

रामकुमार आत्रेय: मेरे कवि बनने में मेरी माँ की भूमिका विशेष रही है। साहित्यिक जीवन की शुरूआती दिनों में जब मैं जे.बी.टी का कोर्स कर रहा था, तो पुण्डरी कैथल में फौजी की एक दुकान थी। जिस पर 25 पैसे में नॉवल किराए पर मिलते थे । मैंने नॉवल किराये पर लेने शुरू कर दिए। विष्णु प्रभाकर और रामधारी सिंह दिनकर का साहित्य पढ़ डाला। मुझे विष्णु प्रभाकर के नाटकों में और रामधारी सिंह दिनकर की कविताएँ  में बड़ा आनन्द आता था और दिनकर की कविताओं से प्रेरित हो मेरे मन में काव्य के अंकुर फूटने लगे। वैसे ये अंकुर बचपन में ही फूटने लगे थे । जब मेरी माँ और दादी सोते वक्त मुझे कहानियाँ सुनाया करती थी। उनमें से अधिकतर पौराणिक संदर्भो पर आधारित होती थीं। कुछ कहानियाँ बिल्कुल कपोल -कल्पित होती थीं। जिनमें परियाँ और राक्षसों के आश्चर्यजनक कारनामों का वर्णन होता था। परन्तु उन सब में नैतिक मूल्यों को प्राथमिकता अवश्य दी जाती थी। बस, वहीं से मैं अपना दुख- दर्द भूलकर दूसरों के दुख-दर्द को समझने, जूझने, थकने तथा टूटने लगा और अन्तःकरण से फूटने लगी कविता।

राधेश्याम भारतीय: क्या आप कवि ही बनना चाहते थे ,या साहित्य की अन्य विधाओं में भी रूचि थी?

रामकुमार आत्रेय: भारतीय जी, मैं एक कवि एवं कथाकार तो बन गया पर, एक नाटककार न बन सका यह टीस मेरे मन में रही। मुझे धर्मवीर भारती के नाटक ‘अन्धायुग’ ने इतना अधिक प्रभावित किया कि उनकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। बाद में निराला जी से प्रभावित हुआ और उनकी शैली का अनुसरण करते हुए मैं मुक्त छंद में कविता करने लगा। बस, अब तो मैं स्वयं को कवि कहलवाना अधिक प्रसन्द करता हूँ।

राधेश्याम भारतीय:आप साहित्य से जुड़ाव के शुरूआती दिनों के बारे कुछ बताइए ?

रामकुमार आत्रेय: मुझे रचना लिखने की सीख 1980 में आई। पर, मैं गाँव में रहने वाला व्यक्ति किसी वरिष्ठ साहित्यकार के सम्पर्क में नहीं आया इसलिए परिस्थितियों से अकेला ही जूझता रहा । मैं अपनी रचनाएँ  धर्मवीर भारती की पत्रिका ‘धर्मयुग’ में भेजता रहा । रचनाएँ  न छपी । इंतजार करता रहा। एक दिन एक पत्रिका पढ़ी । उसमें लिखा था कि यदि किसी साहित्यकार को अपनी रद्द हुई रचनाओं बारे पता करना हो तो जवाबी लिफाफा साथ में भेजें । मैंने भी ऐसा ही किया।

एक दिन धर्मवीर भारती का पत्र आया कि आपकी रचना हमें मिल चुकी हैं, हम रचना के बारे सूचित नहीं करते और उसके बावजूद रचनाएँ  भेजता रहा फिर रचनाएँ  छपने लगी। मैं तो इतना ही भेजें कि हमने साहित्य में अपना स्थान यूं ही नहीं बनाया बल्कि साहित्य की उबड़ -खाबड़ राहों से गुजरे हैं…हरियाणवी में कहूँ तो ‘‘हाम् तो वो राही सै जिनहै डल्यां म्ह तै राह बणाई सै।’’ उसके बाद कविताएँ  ‘पंजाब केसरी और ‘वीर प्रताप’में छपने लगीं।

राधेश्याम भारतीय:- 1987 में आपका प्रथम काव्य संग्रह ‘बुझी मशालों का जुलूस ’ प्रकाशित हुआ । उसके बाद‘ बूढ़ी होती बच्ची’, ‘आंधियों के खिलाफ’, ‘रास्ता बदलता ईश्वर’ और सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह ‘ नींद में एक घरेलू स्त्री’ आदि काव्य संग्रह। आप अपनी कविताओं के बारे कुछ बताएँ ?

रामकुमार आत्रेय-इन संग्रहों में संकलित कविताएँ  मेरी अपनी अनुभूतियॉँ हैं और अनुभूतियाँ कभी असत्य नहीं होती । बचपन से ही इतनी विपदाएँ , विषमताएँ  एवं कटुताएँ  झेली कि मैं यथार्थ का पुजारी होते हुए भी अपने आपको भावुकता में डूबने से बचा नहीं पाया। एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि भावुकता के आवेश में चाहे मेरा मन आकाश में उड़ता रहा हो लेकिन अपने पाँवों को मैंने कभी धरातल से ऊपर नहीं उठने दिया। इसलिए इस धरती का दर्द, धरती पर ‘धरती’बनकर जीने वाले लोगों का दुखदर्द भी मेरा अपना ही दुख दर्द रहा है । इसी दुख दर्द को मैंने अपनी वाणी देने का प्रयत्न किया है । मैं नहीं जानता कि मैं कहाँ तक सफल हुआ हूँ । संभवतः एक यही कारण है कि मेरी ये कविताएँ  बिना किसी आडम्बर के सीधी-सरल भाषा में लिखी गई हैं । हो सकता हो इसीलिए इन पर सपाट-बयानी का आरोप लगाया जाए। मात्र कला के नाम पर लिखी गई कविताओं में भाषा की जटिलता और सर्वथा अप्रचलित बिम्बों की बोझिलता एक गुण हो सकती है, लेकिन दुख-दर्द की भाषा किसी आडम्बर की मुहताज नहीं होती। फिर मैं तो उस कविता को कविता नहीं मानता जो पाठक को दण्ड पेलने पर भी उसकी समझ में न आए।

राधेश्याम भारतीय:- आप लघुकथा लेखक के रूप में भी अपनी एक विशेष पहचान रखते हैं? अभी तक आपके चार लघुकथा संग्रह- ‘इक्कीस जूते’ (1993), ‘आँखों वाले अंधे’(1999) ‘छोटी-सी बात’ (2006) और (2011) में बिन शीशों का चश्मा’ प्रकाशित हो चुके हैं। मैं समझता हूँ कि इस विधा पर इतना कार्य हरियाणा में शायद ही किसी ने किया हो। आप लघुकथा बारे बताइए ?

रामकुमार आत्रेय– प्रथम लघुकथा संग्रह ‘इक्कीस जूते ’ हरियाणा साहित्य अकादमी के अनुदान से प्रकाशित हुआ है। लघुकथा का स्तरीय रूप टेढ़ा काम है। जितना इसमें लाघव है उतना ही टेढ़ापन ; जिसे साधना कठिन है। कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा सार्थक बात कहना ही लघुकथा की विशेषता है। लेकिन जब रचनाकार शब्दों से खेलने लगता है और सिर्फ कहन मानकर ही रचना का रूप दे देता है। इससे उसकी गम्भीरता एवं सार्थकता पर आघात पहुँचता है।

इसके बावजूद हिन्दी लघुकथा पर बहुत अधिक कार्य हो रहा है। इसके पीछे पाठकों द्वारा लघुकथा को महत्व दिया जाना है क्योंकि आज पाठक के पास लम्बे-चौड़े उपन्यास या लम्बी कहानियाँ पढ़ने का समय नहीं है। इसलिए वे लघुकथा में ही उपन्यास और कहानी का आस्वादन लेते हैं। आज लघुकथा के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, जो उत्साहवर्धक तो हैं ही, भविष्य के प्रति आश्वस्त भी करते हैं। लघुकथा एक अचूक शस्त्र बनकर वर्तमान में व्याप्त बुराइयों पर बड़ी सार्थकता के साथ आक्रमण कर रही है। इस प्रकार लघुकथा का भविष्य उज्ज्वल है। भविष्य में निश्चित ही एक प्रतिष्ठित विधा के रुप में इसका अध्ययन एवं अध्यापन होगा।

राधेश्याम भारतीय:- किसी रचना का आधार क्या होना चाहिए?

रामकुमार आत्रेय– किसी रचना का आधार यथार्थ होना चाहिए । पर, उसमें कल्पना से परहेज नहीं करना चाहिए। यथार्थ-बोध का मतलब यह नहीं है कि कैमरा उठाया और फोटो खींच लिया। यथार्थ यथार्थ लगे इसके लिए सूत्रों के योजक से कल्पना का सहारा लिया जा सकता है। और वह कल्पना से रचना को नीरस होने से बचाया जा सकता है।

राधेश्याम भारतीय:- लघुकथा की शब्द संख्या बारे विद्वानों के विभिन्न मत रहे हैं , आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

रामकुमार आत्रेय– कोई रचना शब्दों में नहीं बांधी जा सकती है क्योंकि रचना कोई गणित नहीं होती । गणित की अपनी एक सीमा होती है । रचना संवेदना होती है; भावना होती है और भावना, संवेदना को शब्द सीमा में बांधना उसकी आत्मा को मार देना है। लघुकथा में लघु विशेषण जुड़ा है इसलिए इसमें शब्द सीमा संख्या कम से कम हो। और कम से कम की भी कोई सीमा नहीं हो सकती।

राधेश्याम भारतीय– अच्छा यह बताइए ,आपकी पहली कहानी कब और किस पत्रिका में छपी?

रामकुमार आत्रेय:-वैसे तो मैं कहानियाँ आठवें दशक के मध्य में ही लिखने लगा था। लेकिन वे सभी कहानियाँ  सर्वथा काल्पनिक और भावुकता की चाश्नी में लिपटी होती थीं। आठवें दशक के उत्तरार्ध में एक कहानी ‘टपकती जहरीली लारें’ चंडीगढ़ से प्रकाशित होने वाली जागृति नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी के प्रकाशन से मुझे 50 रूपये पारिश्रमिक के रूप में प्राप्त हुए थे। परन्तु इस कहानी को मैंने बाद में नष्ट कर दिया था क्योंकि यह भी सर्वथा काल्पनिक और भावुकता की चाशनी में लिपटी थी।

राधेश्याम भारतीयः– आप कहानियाँ क्यों लिखते हैं?

रामकुमार आत्रेय:-मेरी अपनी जिंदगी आपदाओं और असफलताओं से घिरी रही है। दुर्भाग्य मुझे हमेशा ठुकराता रहा है इसलिए व्यक्ति के जीवन के अभाव ,उसकी असफलताएँ , उसका दर्द और संघर्ष मुझे आकर्षित करते रहे हैं। किसी भी दुखी व्यक्ति का दर्द अपना बनाकर मैं कहानी के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाता रहा हूं। ऐसा करने से मुझे लगता है कि मैंने किसी के दुख दर्द को बंटाकर उसे किसी हद तक कम करने में सहायता की है।

राधेश्याम भारतीय:- अब तक छपी कहानियों में कौनसी कहानी आपको अधिक प्रिय है। क्यों?

रामकुमार आत्रेय:-इस प्रश्न का उत्तर देना बहुत ही कठिन है। मेरी हर कहानी अनुभव की गहन आंच के बीच से निकली है। कहानी लिखने के उपरांत एक लम्बे समय तक मैं उस आंच में तपता रहा हूं। फिर भी प्रश्न का उत्तर यदि देना ही है तो मैं कहूंगा कि ‘आग, फूल और पानी’ कहानी सर्वप्रथम हंस पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। राजेन्द्र जी ने इसे लघुकथा कहकर प्रकाशित किया था। इसी नाम से मेरा एक कथा-संग्रह ‘बोधि प्रकाशन’ जयपुर से प्रकाशित हुआ है। वैसे‘पिलूरे’ कहानी को दैनिक भास्कर की रचना पर्व प्रतियोगिता में तीसरा स्थान प्राप्त हुआ था। और अब तक का सबसे ज्यादा पारिश्रमिक दिलाने वाली यही कहानी है।

राधेश्याम भारतीय-क्या लेखन के कारण आपको व्यक्तिगत जीवन में कभी संघर्ष का सामना करना पड़ा? कोई अविस्मरणीय घटना?

रामकुमार आत्रेय- लेखन की वजह से जीवन में कोई संघर्ष तो नहीं करना पड़ा। परन्तु कहानी लिखते समय मैं पात्रों के साथ इतना अधिक जुड़ जाता हूं कि मैं टेंस हो उठता हूं। कई बार कहानी में सुधार करने के लिए उसे बार-बार लिखना पड़ता है। ऐसे में दुखी होकर उन पात्रों से पीछा छुड़ाने के लिए कहानी को अलविदा कहना पड़ता है। यही कारण है कि वर्ष भर में 2-3 कहानियाँ  ही लिख पाता हूँ।

राधेश्याम भारतीयः- नए कहानीकारों की कुछ उल्लेखनीय कहानियों के साथ कथाकारों के नाम भी बताइए अपनी दृष्टि से?

रामकुमार आत्रेय- मैं हर वर्ष नई से नई पत्रिकाएँ  पढ़ता और देखता रहता था। परन्तु 2008 में आंखों में फंगल इंफैक्शन हो जाने पर मेरी बाईं आँख को हटकार उसकी जगह नई आँख लगाई गई। लेकिन मेरी देह ने इसे स्वीकार नहीं किया। और फलतः 6’6 देखने वाली आँख एकदम अंधेरे में बदल गई। चिकित्सकों के अनुसार फंगल इंफैक्शन को तो निकाल दिया पर वे दृष्टि को नहीं बचा सके। दाईं आँख में लैंस डालकर उसे धूंप-छांव देखने के लायक बनाया गया। परिणाम यह हुआ कि मेरा पढ़ना पूरी तरह से बंद हो गया। अब मैं दूसरों की दया पर आश्रित हूँ। थोड़ा-थोड़ा लिखने का प्रयास अवश्य करता हूं।जो कि काफी कठिनाई भरा एवं मंहगा पड़ता है। अतः नए कहानीकारों की कहानी सिर्फ एक आध ही सुन पाता हूं। वैसे संजीव, उदय प्रकाश, स्वदेश दीपक, राकेश वत्स और बहुत से रचनाकार है जिनकी कहानियाँ  मुझे यदा-कदा कचोटती रहती हैं।

राधेश्याम भारतीयः– कहानियों में कथ्य और कलात्मक संतुलन की कोई सीमा तय होनी चाहिए या कहानी कथ्य प्रधान होनी चाहिए?

रामकुमार आत्रेय:-कहानी बिना कथ्य के तो लिखी ही नहीं जा सकती। कथ्य होगा तो कहानी होगी। लेखक कथ्य में जितना अधिक डूबकर लिखेगा, उतना ही कथारस उस रचना में उत्पन्न होगा। कथारस की उत्पत्ति के साथ-साथ कलात्मकता अपने आप उसी में गुंथकर प्रकट होती रहती है। सच कहूं तो मैं कलात्मकता के विषय में ज्यादा कुछ जानता नहीं हूं। सिर्फ कहानी कहने की कोशिश करता हूं। जिसे कभी-कभी पाठक पसंद भी कर लेते हैं। यहाँ मैं आठवें दशक में दैनिक पंजाब केसरी में प्रकाशित मेरी एक कहानी का जिक्र करना चाहूंगा। दुर्भाग्यवश उस कहानी का नाम मैं स्मरण नहीं कर पा रहा हूं। लेकिन मेरी अपनी जिंदगी में पहली बार उस कहानी पर पचास प्रशंसा पत्र प्राप्त हुए थे। एक पत्र उस समय लुधियाना शहर की महिला नगर पार्षद का भी था। पत्र लिखते समय वह इतना रोई थी कि आंसू की बूंदें पत्र के अक्षरों को फैला गई थी। उसका नाम तो मैं नहीं लूंगा लेकिन उसने कहा था कि यह कहानी मैंने उसकी असली जिंदगी से चुराई है। बाद में मैंने इस कहानी को भी नष्ट कर दिया क्योंकि वह भी भावुकता के आवेश में लिखी गई थी। कहानी की लोकप्रियता मेरे लिए कलात्मक संतुलन है। लेकिन कहानी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होनी चाहिए।

राधेश्याम भारतीय:- आत्रेय जी, आपने हरियाणवीं बोली में साहित्य रचा है उसके बारे बताएँ  ?

रामकुमार आत्रेय: हरियाणवी भाषा में एक दोहा संग्रह ‘ सच्चाई कड़वी घणी’ प्रकाशित हो चुका है। दैनिक ट्रिब्यून में खरी खोटी के नाम एक स्तम्भ रविवार को प्रकाशित होता था जिसमें उस स्तम्भ की समाप्ति पर स्तभ से मिलता-जुलता हरियाणवी भाषा में एक चुटकला दिया जाता था। अपनी बोली में बात कहने का आनंद ही कुछ और है। 

राधेश्याम भारतीय – आत्रेय जी अन्य राज्यों में उनकी क्षेत्रीय भाषा में साहित्य प्रचुर मात्रा में है परन्तु हरियाणा में इसकी कमी दिखाई पड़ती है क्यों?

रामकुमार आत्रेय: इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि किसी भी सरकार ने हरियाणवीं को महत्व नहीं दिया। स्वाभाविक बात है कि साहित्यकार भी उसी भाषा की ओर आकर्षित होते हैं जिससे सरकार महत्व देती हो। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि उसी भाषा में पुस्तक लिखने, छपवाने का लाभ होता है जिसे सरकारी आश्रय मिला हो। जब तक हरियाणा पंजाब संयुक्त थे तब तक किसी भी मुख्यमंत्री ने इस ओर ध्यान देना उचित न समझा। हरियाणा बनने के बाद अखबारों तथा सरकारी पत्रिकाओं ने हरियाणवीं रचनाओं को सिर्फ दिखावे के लिए मामूली-सा स्थान देना शुरू किया, इसलिए हरियाणवीं भाषा में काफी मात्रा में साहित्य नहीं रचा गया। दूसरे राज्य की बोलियाँ  जिन्हें भाषा के रूप में 8वीं अनुसूची में स्थान प्राप्त है वहीं उन भाषाओं में साहित्य लिखा जा रहा है। अपनी हरियाणवीं को भी 8वीं अनुसूची में लाने के प्रयास हो रहे है उसका असर अवश्य दिखाई पड़ेगा।

राधेश्याम भारतीय:-आत्रेय जी, आपने बच्चों के लिए ‘ भारतीय संस्कृति की प्रेरक कहानियाँ ‘ ‘समय का मोल’ और ‘परियाँ  झूठ नहीं बोलती’ और ‘ठोला गुरू’ आदि पुस्तकें अपने बाल पाठकों को दी है। बाल साहित्य की रचना करते समय हमें किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?

रामकुमार आत्रेयः– बाल साहित्य में रचना करते समय भाषा की सरलता, सबसे महत्वपूर्ण बात है। मतलब बच्चे के मानसिक विकास के अनुसार भाषा का उपयोग होना चाहिए। रचनाएँ  रोचक हो और इसके साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी होनी चाहिए। रचनाकार के द्वारा सीधे उपदेश झाड़ने की आदत से बचना चाहिए। आज कम्प्यूटर का युग है तो लेखकों को नई-नई जानकारी के साथ बाल साहित्य की रचना में आना चाहिए।

राधेश्याम भारतीय:- साहित्यकारों द्वारा आत्मकथा लिखी जाती रही है आप भी अपनी आत्मकथा लिखिए न?’’

रामकुमार आत्रेय: अरे भाई! हम इतने बडे़ साहित्यकार नहीं हैं। अभी तो बहुत कुछ करना बाकी हैं। आत्मकथा तो महान साहित्यकार लिखते हैं ।

राधेश्याम भारतीय:- आत्रेय जी, आप एक प्राथमिक शिक्षक से लेकर प्रधानाचार्य के पद पर रहकर बड़ी ही कर्तव्यनिष्ठा से अघ्यापन कार्य किया है और आपके पढ़ाएँ  विद्यार्थी जो ज्यादातर उन्हीं के गॉव (करोड़ा, जिला कैथल ) के हैं, जो उच्चपदो पर विराजमान हैं। इसके बावजूद आप खुद को साक्षर मात्र मानते हैं। क्यों ?

रामकुमार आत्रेय: राधेश्याम जी, इंसान सारी उम्र सीखता है। मैं भी सीख रहा हूँ। और अन्त तक सीखता रहूँगा। अब भला सिखने वाला खुद को शिक्षित कैसे मान सकता है। और बात पढ़ाएँ  छात्रों का उच्च पदों पर सेवा करना तो, मैंने कर्म को पूजा समझकर किया है। मैंने कभी नहीं चाहा कि दुनिया मेरे काम की तारीफ करें। मैं निस्वार्थ भाव से अपने काम में लगा रहा। मैं समझता हूँ अब मेरे कर्म का फल मुझे मिल रहा है क्योंकि जब मेरा पढ़ाया कोई विद्यार्थी मेरे पास आकर कहता है कि गु रुजी मैं इस पद पर कार्य कर रहा हूँ तो आत्मिक सुख का अनुभव होता है। मैं तो इतना ही कहूँगा कि हर शिक्षक को मन लगाकर पढ़ाना चाहिए ,क्योंकि उनके पढ़ाएँ  विद्यार्थी ही देश के सच्चे नागरिक बनेंगे, वे राष्ट्र का नाम रोशन करेंगे और उनका भीे। एक शिक्षक के लिए यही सबसें बड़ा पुरस्कार होगा।

राधेश्याम भारतीयः– आप साहित्य से जुड़े रहे हैं ,कोई ऐसी साहित्यिक घटना जो आपकों बार-बार याद आती हो ?

रामकुमार आत्रेयः-‘‘ नहीं, ऐसी तो कोई खास नहीं पर, एक बार अपनी नासमझी कहँू या अप्रत्याशित होने के कारण यादगार बनी। मेरी एक कविता ‘मुफ्त में ठगी’ ‘अक्षरपर्व’ पत्रिका में प्रकाशित हुई । वह कविता केरल में पढ़ी गई । उस कविता में क्या ताकत थी कि एस.सी. ई. आर.टी की तत्कालीन निर्देशिका ने उस कविता को पढ़ा, समझा और दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में प्रकाशित करने की अनुमति चाही। लेखक तो चाहता यही है कि उसकी रचना का आस्वाद अधिक से अधिक पाठक ले और मैंने अनुमति प्रदान कर दी। महीने भर में ही उनका फोन आया कि आप फाइव थाउजैंड़ की पावती रसीद भेजे। मैने कहा, मैडम मैं पॉच सौ रूपये की रसीद भेज देता हूँ। उन्होंने पुनः कहा, पाँच सौ की नहीं; फाइव थाउजैंड यानी पॉच हजार की। यह सुनकर एक बार तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि मेरी एक रचना के पॉच हजार मिल रहे हैं पर विश्वास करना पड़ा। यह घटना मुझे अक्सर याद आ जाती है……..’’

राधेश्याम भारतीय: आपकी नेत्रदृष्टि आपका साथ छोड़ गई हैं ऐसे में आपका लेखन कार्य कैसे चलता है ?

रामकुमार आत्रेय: नेत्रदृष्टि जाने के बाद लेखन कार्य में बड़ी बाधा आती है। जब मेरे मन काव्य संबंधी विचार उमड़ते हैं तो मैं कागज पर टेढे़-मेढे़ रूप में लिख लेता हूँ और बाद में अपने पोते विकास से उन्हें लेखनीबद्ध करा लेता हूँ।

राधेश्याम भारतीय:- नव लेखकों के लिए कोई संदेश ?

रामकुमार आत्रेय- वे अधिक से अधिक पढ़े और निरन्तर लिखते जाए। साहित्यकार बनने का कोई शॉर्टकट नहीं है। साहित्य साधना की मांग करता है। और जो साधना करते हैं वे जीवन में अवश्य सफल होते हैं।