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रविवार, 22 दिसंबर 2019

लघुकथा बनाम कहानी | कृष्ण मनु

आजकल महज वार्तालाप , सपाट घटना वर्णन, चुटकुलेनुमा गद्याअंश जिससे कथातत्व सिरे से नदारत हो, को लघुकथा के शीर्षक तले लिखा और छापा जा रहा है। मैं यहां असहमत हूं। (इसी पोस्ट से )

- कृष्ण मनु

लघुकथा  बनाम कहानी 

वस्तुतः लघुकथा और कहानी कथाविधा की दो सगी बहनें  हैं -एक का विस्तार फलक काफी बड़ा है, दूसरी का बिल्कुल छोटा। एक अपने पात्र के पूरे जीवनचक्र घटनाओं प्रति घटनाओं की शृंखला के  माध्यम से व्यक्त करती है तो दूसरी अपने पात्र के साथ घटित एकमात्र हादसे (घटना) को इतने प्रभाव पूर्ण ढंग से प्रस्तुत करती है कि पाठक मन झंकृत हो उठता है।

एक कहानी में  कई लघुकथाएं शामिल हो सकती हैं जब कि एक लघुकथा  का विस्तार कर कहानी का रूप नहीं दिया जा सकता है।

कथा तत्व दोनो विधाओं में एक जैसा हैं। हां, प्रस्तुति/ट्रीटमेंट में भिन्नता हो सकती है। यह रचनाकार पर निर्भर है। कथाकार जहां कहानी की शुरुआत भूमिका सहित करते हुए धीरे-धीरे  कथा विस्तार करता जाता है, वहीं एक लघुकथा लेखक एक-ब-एक मूल बिंदु पर पहुंच जाता है।

अनावश्यक चित्रण,  वर्णन, भूमिका की गुंजाइश उसके (लघुकथा लेखक के) पास नहीं होती शब्द जाल मेंं पाठकों को उलझाना एक लघुकथा शिल्पी की प्रकृति में नहीं जबकि कहानीकार को खुली छूट है।

जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूं कि 'कथा' का लघुकथा और कहानी दोनो मेें  समावेश है,अतएव मेरा व्यक्तिगत मानना है, लघुकथा में कथातत्व/कथानक अवश्य हो, जबकि आजकल महज वार्तालाप , सपाट घटना वर्णन, चुटकुलेनुमा गद्याअंश जिससे कथातत्व सिरे से नदारत हो, को लघुकथा के शीर्षक तले लिखा और छापा जा रहा है। मैं यहां असहमत हूं।

जहां तक  लघुकथा मेें शब्द सीमा निर्धारण का प्रश्न है, मैं इसके खिलाफ हूं। चूंकि लघुकथा का सृजन मात्र एक घटना-बिंदु के इर्दगिर्द बुने शब्दों से होता है, अतएव वह आवश्यक शब्द स्वतः निर्धारित कर लेता है। लेखक की अभिव्यक्ति पूर्ण हो जाती है। शब्द सीमा का निर्धारण सीधे-सीधे अभिव्यक्ति का गला घोंटना हुआ।

मान लीजिए आप  एक बिंदु और एक शून्य की आकृति दे रहे हैं तो बिंदु स्वतः खुद जितना चाहिए जगह ले लेगी और शून्य को जितनी जगह चाहिए वह स्वयं ग्रहण कर लेगा। हम आप जगह का निर्धारण करने वाले कौन होते हैं कि शून्य को इतनी जगह देनी है और बिंदु को इतनी।

- कृष्ण मनु

Source:
https://www.facebook.com/100004390897888/posts/1507622059394143/

गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

रामकुमार आत्रेय : काँटों में से राह बनाने वाले साहित्यकार | राधेश्याम भारतीय

रामकुमार आत्रेय जी का राधेश्याम भारतीय जी द्वारा लिया गया साक्षात्कार | लघुकथा डॉट कॉम पर 
(हरियाणा सरकार द्वारा रामकुमार आत्रेय जी को बाल मुकुन्द गुप्त पुरस्कार  दिए जाने के अवसर पर राधे श्याम भारतीय द्वारा उनसे लिया गया साक्षात्कार)



रामकुमार आत्रेय 
हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ कवि एवं कथाकार रामकुमार आत्रेय को हरियाणा साहित्य अकादमी की ओर से बालमुकुन्द गुप्त पुरस्कार मिलने पर मैं उन्हें बधाई देने उनके घर पहुँचा। रामकुमार कुमार आत्रेय का व्यक्तित्व जितना अनुकरणीय है, उतना ही उनका साहित्य। वे केवल साहित्य में ही आदर्शवाद की बातें नहीं करते बल्कि वे स्वयं उनका पालन करने वाले भी हैं। आज साहित्य क्षेत्र में जिस तरह गुटबाजी कायम है, वे उससे कोसों दूर रहे हैं। आज देश की ऐसी कोई पत्रिका नहीं है ,जिनमें इनकी रचनाएँ  ससम्मान प्रकाशित न होती हों। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र के बी.ए.प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में इनकी कविताएँ  (हरियाणी बोली) में  पढ़ाई जा रही हैं। प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत्त होने पर भी खुद को साक्षर मानते हैं। पिछले कई वर्षों से इनकी नेत्रदृष्टि बिल्कुल साथ छोड़ गई है। इसके बावजूद ये साहित्यिक -साधना में रत हैं और उसी साधना के बल पर इन्होंने  हिन्दी एवं हरियाणवी भाषा में 15 पुस्तकें पाठकों को देकर एक अनुपम कार्य किया है। अनुपम इसलिए क्योंकि जिन विकट परिस्थितियों में आम आदमी हार मान बैठता है, ऐसे में आत्रेय जी लड़ते रहे और अपनी लेखनी से अपने मन के भावों एवं आम आदमी की पीड़ा को शब्दों में पिरोकर समाज को एक नई राह दिखाने को प्रयासरत हैं। आत्रेय जी मूलतः स्वयं को कवि मानते हैं। मैं समझता हूँ कि इनके मन में काव्य के उपजने के पीछे कहीं न कहीं वेदना का प्रभाव रहा है, क्योंकि 6 वर्ष की आयु में जिनके सिर सेे पिता का साया उठ गया हो । घर में एकमात्र पुत्र होने के कारण परिवार का सारा बोझ जिनके कंधों पर आ पड़ा हो और आगे चलकर 30 वर्ष की अवधि में जिनकी धर्मपत्नी छोटे- छोटे बच्चों को छोड़कर इस लौकिक संसार से विदा हो गई हो तो ऐसे में मन दुखों से भर ही जाता है। संसार मिथ्या नजर आता है, और फिर पीड़ित मन संसार के यथार्थ की खोज में भटकने लगता। वहीं से कल्पना लोक में विचरते मन से उपजने लगती है कविता। सुमित्रानंदन पंत की वे काव्य पंक्तियाँ  –

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।।

आत्रेय जी पर सटीक बैठती प्रतीत होती हैं; आइए , आत्रेय जी के व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व से रू-ब-रू होते हैं-

राधेश्याम भारतीय


राधेश्याम भारतीय: आत्रेयजी, आपने साहित्य की अनेक विधाओं में लिखा है। लिखा ही नहीं बल्कि उस साहित्य ने हिंदी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान भी बनाई है। आप स्वयं को मूलतः कवि मानते हैं । आपके कवि बनने के पीछे क्या कारण रहे हैं ?

रामकुमार आत्रेय: मेरे कवि बनने में मेरी माँ की भूमिका विशेष रही है। साहित्यिक जीवन की शुरूआती दिनों में जब मैं जे.बी.टी का कोर्स कर रहा था, तो पुण्डरी कैथल में फौजी की एक दुकान थी। जिस पर 25 पैसे में नॉवल किराए पर मिलते थे । मैंने नॉवल किराये पर लेने शुरू कर दिए। विष्णु प्रभाकर और रामधारी सिंह दिनकर का साहित्य पढ़ डाला। मुझे विष्णु प्रभाकर के नाटकों में और रामधारी सिंह दिनकर की कविताएँ  में बड़ा आनन्द आता था और दिनकर की कविताओं से प्रेरित हो मेरे मन में काव्य के अंकुर फूटने लगे। वैसे ये अंकुर बचपन में ही फूटने लगे थे । जब मेरी माँ और दादी सोते वक्त मुझे कहानियाँ सुनाया करती थी। उनमें से अधिकतर पौराणिक संदर्भो पर आधारित होती थीं। कुछ कहानियाँ बिल्कुल कपोल -कल्पित होती थीं। जिनमें परियाँ और राक्षसों के आश्चर्यजनक कारनामों का वर्णन होता था। परन्तु उन सब में नैतिक मूल्यों को प्राथमिकता अवश्य दी जाती थी। बस, वहीं से मैं अपना दुख- दर्द भूलकर दूसरों के दुख-दर्द को समझने, जूझने, थकने तथा टूटने लगा और अन्तःकरण से फूटने लगी कविता।

राधेश्याम भारतीय: क्या आप कवि ही बनना चाहते थे ,या साहित्य की अन्य विधाओं में भी रूचि थी?

रामकुमार आत्रेय: भारतीय जी, मैं एक कवि एवं कथाकार तो बन गया पर, एक नाटककार न बन सका यह टीस मेरे मन में रही। मुझे धर्मवीर भारती के नाटक ‘अन्धायुग’ ने इतना अधिक प्रभावित किया कि उनकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। बाद में निराला जी से प्रभावित हुआ और उनकी शैली का अनुसरण करते हुए मैं मुक्त छंद में कविता करने लगा। बस, अब तो मैं स्वयं को कवि कहलवाना अधिक प्रसन्द करता हूँ।

राधेश्याम भारतीय:आप साहित्य से जुड़ाव के शुरूआती दिनों के बारे कुछ बताइए ?

रामकुमार आत्रेय: मुझे रचना लिखने की सीख 1980 में आई। पर, मैं गाँव में रहने वाला व्यक्ति किसी वरिष्ठ साहित्यकार के सम्पर्क में नहीं आया इसलिए परिस्थितियों से अकेला ही जूझता रहा । मैं अपनी रचनाएँ  धर्मवीर भारती की पत्रिका ‘धर्मयुग’ में भेजता रहा । रचनाएँ  न छपी । इंतजार करता रहा। एक दिन एक पत्रिका पढ़ी । उसमें लिखा था कि यदि किसी साहित्यकार को अपनी रद्द हुई रचनाओं बारे पता करना हो तो जवाबी लिफाफा साथ में भेजें । मैंने भी ऐसा ही किया।

एक दिन धर्मवीर भारती का पत्र आया कि आपकी रचना हमें मिल चुकी हैं, हम रचना के बारे सूचित नहीं करते और उसके बावजूद रचनाएँ  भेजता रहा फिर रचनाएँ  छपने लगी। मैं तो इतना ही भेजें कि हमने साहित्य में अपना स्थान यूं ही नहीं बनाया बल्कि साहित्य की उबड़ -खाबड़ राहों से गुजरे हैं…हरियाणवी में कहूँ तो ‘‘हाम् तो वो राही सै जिनहै डल्यां म्ह तै राह बणाई सै।’’ उसके बाद कविताएँ  ‘पंजाब केसरी और ‘वीर प्रताप’में छपने लगीं।

राधेश्याम भारतीय:- 1987 में आपका प्रथम काव्य संग्रह ‘बुझी मशालों का जुलूस ’ प्रकाशित हुआ । उसके बाद‘ बूढ़ी होती बच्ची’, ‘आंधियों के खिलाफ’, ‘रास्ता बदलता ईश्वर’ और सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह ‘ नींद में एक घरेलू स्त्री’ आदि काव्य संग्रह। आप अपनी कविताओं के बारे कुछ बताएँ ?

रामकुमार आत्रेय-इन संग्रहों में संकलित कविताएँ  मेरी अपनी अनुभूतियॉँ हैं और अनुभूतियाँ कभी असत्य नहीं होती । बचपन से ही इतनी विपदाएँ , विषमताएँ  एवं कटुताएँ  झेली कि मैं यथार्थ का पुजारी होते हुए भी अपने आपको भावुकता में डूबने से बचा नहीं पाया। एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि भावुकता के आवेश में चाहे मेरा मन आकाश में उड़ता रहा हो लेकिन अपने पाँवों को मैंने कभी धरातल से ऊपर नहीं उठने दिया। इसलिए इस धरती का दर्द, धरती पर ‘धरती’बनकर जीने वाले लोगों का दुखदर्द भी मेरा अपना ही दुख दर्द रहा है । इसी दुख दर्द को मैंने अपनी वाणी देने का प्रयत्न किया है । मैं नहीं जानता कि मैं कहाँ तक सफल हुआ हूँ । संभवतः एक यही कारण है कि मेरी ये कविताएँ  बिना किसी आडम्बर के सीधी-सरल भाषा में लिखी गई हैं । हो सकता हो इसीलिए इन पर सपाट-बयानी का आरोप लगाया जाए। मात्र कला के नाम पर लिखी गई कविताओं में भाषा की जटिलता और सर्वथा अप्रचलित बिम्बों की बोझिलता एक गुण हो सकती है, लेकिन दुख-दर्द की भाषा किसी आडम्बर की मुहताज नहीं होती। फिर मैं तो उस कविता को कविता नहीं मानता जो पाठक को दण्ड पेलने पर भी उसकी समझ में न आए।

राधेश्याम भारतीय:- आप लघुकथा लेखक के रूप में भी अपनी एक विशेष पहचान रखते हैं? अभी तक आपके चार लघुकथा संग्रह- ‘इक्कीस जूते’ (1993), ‘आँखों वाले अंधे’(1999) ‘छोटी-सी बात’ (2006) और (2011) में बिन शीशों का चश्मा’ प्रकाशित हो चुके हैं। मैं समझता हूँ कि इस विधा पर इतना कार्य हरियाणा में शायद ही किसी ने किया हो। आप लघुकथा बारे बताइए ?

रामकुमार आत्रेय– प्रथम लघुकथा संग्रह ‘इक्कीस जूते ’ हरियाणा साहित्य अकादमी के अनुदान से प्रकाशित हुआ है। लघुकथा का स्तरीय रूप टेढ़ा काम है। जितना इसमें लाघव है उतना ही टेढ़ापन ; जिसे साधना कठिन है। कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा सार्थक बात कहना ही लघुकथा की विशेषता है। लेकिन जब रचनाकार शब्दों से खेलने लगता है और सिर्फ कहन मानकर ही रचना का रूप दे देता है। इससे उसकी गम्भीरता एवं सार्थकता पर आघात पहुँचता है।

इसके बावजूद हिन्दी लघुकथा पर बहुत अधिक कार्य हो रहा है। इसके पीछे पाठकों द्वारा लघुकथा को महत्व दिया जाना है क्योंकि आज पाठक के पास लम्बे-चौड़े उपन्यास या लम्बी कहानियाँ पढ़ने का समय नहीं है। इसलिए वे लघुकथा में ही उपन्यास और कहानी का आस्वादन लेते हैं। आज लघुकथा के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, जो उत्साहवर्धक तो हैं ही, भविष्य के प्रति आश्वस्त भी करते हैं। लघुकथा एक अचूक शस्त्र बनकर वर्तमान में व्याप्त बुराइयों पर बड़ी सार्थकता के साथ आक्रमण कर रही है। इस प्रकार लघुकथा का भविष्य उज्ज्वल है। भविष्य में निश्चित ही एक प्रतिष्ठित विधा के रुप में इसका अध्ययन एवं अध्यापन होगा।

राधेश्याम भारतीय:- किसी रचना का आधार क्या होना चाहिए?

रामकुमार आत्रेय– किसी रचना का आधार यथार्थ होना चाहिए । पर, उसमें कल्पना से परहेज नहीं करना चाहिए। यथार्थ-बोध का मतलब यह नहीं है कि कैमरा उठाया और फोटो खींच लिया। यथार्थ यथार्थ लगे इसके लिए सूत्रों के योजक से कल्पना का सहारा लिया जा सकता है। और वह कल्पना से रचना को नीरस होने से बचाया जा सकता है।

राधेश्याम भारतीय:- लघुकथा की शब्द संख्या बारे विद्वानों के विभिन्न मत रहे हैं , आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

रामकुमार आत्रेय– कोई रचना शब्दों में नहीं बांधी जा सकती है क्योंकि रचना कोई गणित नहीं होती । गणित की अपनी एक सीमा होती है । रचना संवेदना होती है; भावना होती है और भावना, संवेदना को शब्द सीमा में बांधना उसकी आत्मा को मार देना है। लघुकथा में लघु विशेषण जुड़ा है इसलिए इसमें शब्द सीमा संख्या कम से कम हो। और कम से कम की भी कोई सीमा नहीं हो सकती।

राधेश्याम भारतीय– अच्छा यह बताइए ,आपकी पहली कहानी कब और किस पत्रिका में छपी?

रामकुमार आत्रेय:-वैसे तो मैं कहानियाँ आठवें दशक के मध्य में ही लिखने लगा था। लेकिन वे सभी कहानियाँ  सर्वथा काल्पनिक और भावुकता की चाश्नी में लिपटी होती थीं। आठवें दशक के उत्तरार्ध में एक कहानी ‘टपकती जहरीली लारें’ चंडीगढ़ से प्रकाशित होने वाली जागृति नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी के प्रकाशन से मुझे 50 रूपये पारिश्रमिक के रूप में प्राप्त हुए थे। परन्तु इस कहानी को मैंने बाद में नष्ट कर दिया था क्योंकि यह भी सर्वथा काल्पनिक और भावुकता की चाशनी में लिपटी थी।

राधेश्याम भारतीयः– आप कहानियाँ क्यों लिखते हैं?

रामकुमार आत्रेय:-मेरी अपनी जिंदगी आपदाओं और असफलताओं से घिरी रही है। दुर्भाग्य मुझे हमेशा ठुकराता रहा है इसलिए व्यक्ति के जीवन के अभाव ,उसकी असफलताएँ , उसका दर्द और संघर्ष मुझे आकर्षित करते रहे हैं। किसी भी दुखी व्यक्ति का दर्द अपना बनाकर मैं कहानी के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाता रहा हूं। ऐसा करने से मुझे लगता है कि मैंने किसी के दुख दर्द को बंटाकर उसे किसी हद तक कम करने में सहायता की है।

राधेश्याम भारतीय:- अब तक छपी कहानियों में कौनसी कहानी आपको अधिक प्रिय है। क्यों?

रामकुमार आत्रेय:-इस प्रश्न का उत्तर देना बहुत ही कठिन है। मेरी हर कहानी अनुभव की गहन आंच के बीच से निकली है। कहानी लिखने के उपरांत एक लम्बे समय तक मैं उस आंच में तपता रहा हूं। फिर भी प्रश्न का उत्तर यदि देना ही है तो मैं कहूंगा कि ‘आग, फूल और पानी’ कहानी सर्वप्रथम हंस पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। राजेन्द्र जी ने इसे लघुकथा कहकर प्रकाशित किया था। इसी नाम से मेरा एक कथा-संग्रह ‘बोधि प्रकाशन’ जयपुर से प्रकाशित हुआ है। वैसे‘पिलूरे’ कहानी को दैनिक भास्कर की रचना पर्व प्रतियोगिता में तीसरा स्थान प्राप्त हुआ था। और अब तक का सबसे ज्यादा पारिश्रमिक दिलाने वाली यही कहानी है।

राधेश्याम भारतीय-क्या लेखन के कारण आपको व्यक्तिगत जीवन में कभी संघर्ष का सामना करना पड़ा? कोई अविस्मरणीय घटना?

रामकुमार आत्रेय- लेखन की वजह से जीवन में कोई संघर्ष तो नहीं करना पड़ा। परन्तु कहानी लिखते समय मैं पात्रों के साथ इतना अधिक जुड़ जाता हूं कि मैं टेंस हो उठता हूं। कई बार कहानी में सुधार करने के लिए उसे बार-बार लिखना पड़ता है। ऐसे में दुखी होकर उन पात्रों से पीछा छुड़ाने के लिए कहानी को अलविदा कहना पड़ता है। यही कारण है कि वर्ष भर में 2-3 कहानियाँ  ही लिख पाता हूँ।

राधेश्याम भारतीयः- नए कहानीकारों की कुछ उल्लेखनीय कहानियों के साथ कथाकारों के नाम भी बताइए अपनी दृष्टि से?

रामकुमार आत्रेय- मैं हर वर्ष नई से नई पत्रिकाएँ  पढ़ता और देखता रहता था। परन्तु 2008 में आंखों में फंगल इंफैक्शन हो जाने पर मेरी बाईं आँख को हटकार उसकी जगह नई आँख लगाई गई। लेकिन मेरी देह ने इसे स्वीकार नहीं किया। और फलतः 6’6 देखने वाली आँख एकदम अंधेरे में बदल गई। चिकित्सकों के अनुसार फंगल इंफैक्शन को तो निकाल दिया पर वे दृष्टि को नहीं बचा सके। दाईं आँख में लैंस डालकर उसे धूंप-छांव देखने के लायक बनाया गया। परिणाम यह हुआ कि मेरा पढ़ना पूरी तरह से बंद हो गया। अब मैं दूसरों की दया पर आश्रित हूँ। थोड़ा-थोड़ा लिखने का प्रयास अवश्य करता हूं।जो कि काफी कठिनाई भरा एवं मंहगा पड़ता है। अतः नए कहानीकारों की कहानी सिर्फ एक आध ही सुन पाता हूं। वैसे संजीव, उदय प्रकाश, स्वदेश दीपक, राकेश वत्स और बहुत से रचनाकार है जिनकी कहानियाँ  मुझे यदा-कदा कचोटती रहती हैं।

राधेश्याम भारतीयः– कहानियों में कथ्य और कलात्मक संतुलन की कोई सीमा तय होनी चाहिए या कहानी कथ्य प्रधान होनी चाहिए?

रामकुमार आत्रेय:-कहानी बिना कथ्य के तो लिखी ही नहीं जा सकती। कथ्य होगा तो कहानी होगी। लेखक कथ्य में जितना अधिक डूबकर लिखेगा, उतना ही कथारस उस रचना में उत्पन्न होगा। कथारस की उत्पत्ति के साथ-साथ कलात्मकता अपने आप उसी में गुंथकर प्रकट होती रहती है। सच कहूं तो मैं कलात्मकता के विषय में ज्यादा कुछ जानता नहीं हूं। सिर्फ कहानी कहने की कोशिश करता हूं। जिसे कभी-कभी पाठक पसंद भी कर लेते हैं। यहाँ मैं आठवें दशक में दैनिक पंजाब केसरी में प्रकाशित मेरी एक कहानी का जिक्र करना चाहूंगा। दुर्भाग्यवश उस कहानी का नाम मैं स्मरण नहीं कर पा रहा हूं। लेकिन मेरी अपनी जिंदगी में पहली बार उस कहानी पर पचास प्रशंसा पत्र प्राप्त हुए थे। एक पत्र उस समय लुधियाना शहर की महिला नगर पार्षद का भी था। पत्र लिखते समय वह इतना रोई थी कि आंसू की बूंदें पत्र के अक्षरों को फैला गई थी। उसका नाम तो मैं नहीं लूंगा लेकिन उसने कहा था कि यह कहानी मैंने उसकी असली जिंदगी से चुराई है। बाद में मैंने इस कहानी को भी नष्ट कर दिया क्योंकि वह भी भावुकता के आवेश में लिखी गई थी। कहानी की लोकप्रियता मेरे लिए कलात्मक संतुलन है। लेकिन कहानी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होनी चाहिए।

राधेश्याम भारतीय:- आत्रेय जी, आपने हरियाणवीं बोली में साहित्य रचा है उसके बारे बताएँ  ?

रामकुमार आत्रेय: हरियाणवी भाषा में एक दोहा संग्रह ‘ सच्चाई कड़वी घणी’ प्रकाशित हो चुका है। दैनिक ट्रिब्यून में खरी खोटी के नाम एक स्तम्भ रविवार को प्रकाशित होता था जिसमें उस स्तम्भ की समाप्ति पर स्तभ से मिलता-जुलता हरियाणवी भाषा में एक चुटकला दिया जाता था। अपनी बोली में बात कहने का आनंद ही कुछ और है। 

राधेश्याम भारतीय – आत्रेय जी अन्य राज्यों में उनकी क्षेत्रीय भाषा में साहित्य प्रचुर मात्रा में है परन्तु हरियाणा में इसकी कमी दिखाई पड़ती है क्यों?

रामकुमार आत्रेय: इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि किसी भी सरकार ने हरियाणवीं को महत्व नहीं दिया। स्वाभाविक बात है कि साहित्यकार भी उसी भाषा की ओर आकर्षित होते हैं जिससे सरकार महत्व देती हो। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि उसी भाषा में पुस्तक लिखने, छपवाने का लाभ होता है जिसे सरकारी आश्रय मिला हो। जब तक हरियाणा पंजाब संयुक्त थे तब तक किसी भी मुख्यमंत्री ने इस ओर ध्यान देना उचित न समझा। हरियाणा बनने के बाद अखबारों तथा सरकारी पत्रिकाओं ने हरियाणवीं रचनाओं को सिर्फ दिखावे के लिए मामूली-सा स्थान देना शुरू किया, इसलिए हरियाणवीं भाषा में काफी मात्रा में साहित्य नहीं रचा गया। दूसरे राज्य की बोलियाँ  जिन्हें भाषा के रूप में 8वीं अनुसूची में स्थान प्राप्त है वहीं उन भाषाओं में साहित्य लिखा जा रहा है। अपनी हरियाणवीं को भी 8वीं अनुसूची में लाने के प्रयास हो रहे है उसका असर अवश्य दिखाई पड़ेगा।

राधेश्याम भारतीय:-आत्रेय जी, आपने बच्चों के लिए ‘ भारतीय संस्कृति की प्रेरक कहानियाँ ‘ ‘समय का मोल’ और ‘परियाँ  झूठ नहीं बोलती’ और ‘ठोला गुरू’ आदि पुस्तकें अपने बाल पाठकों को दी है। बाल साहित्य की रचना करते समय हमें किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?

रामकुमार आत्रेयः– बाल साहित्य में रचना करते समय भाषा की सरलता, सबसे महत्वपूर्ण बात है। मतलब बच्चे के मानसिक विकास के अनुसार भाषा का उपयोग होना चाहिए। रचनाएँ  रोचक हो और इसके साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी होनी चाहिए। रचनाकार के द्वारा सीधे उपदेश झाड़ने की आदत से बचना चाहिए। आज कम्प्यूटर का युग है तो लेखकों को नई-नई जानकारी के साथ बाल साहित्य की रचना में आना चाहिए।

राधेश्याम भारतीय:- साहित्यकारों द्वारा आत्मकथा लिखी जाती रही है आप भी अपनी आत्मकथा लिखिए न?’’

रामकुमार आत्रेय: अरे भाई! हम इतने बडे़ साहित्यकार नहीं हैं। अभी तो बहुत कुछ करना बाकी हैं। आत्मकथा तो महान साहित्यकार लिखते हैं ।

राधेश्याम भारतीय:- आत्रेय जी, आप एक प्राथमिक शिक्षक से लेकर प्रधानाचार्य के पद पर रहकर बड़ी ही कर्तव्यनिष्ठा से अघ्यापन कार्य किया है और आपके पढ़ाएँ  विद्यार्थी जो ज्यादातर उन्हीं के गॉव (करोड़ा, जिला कैथल ) के हैं, जो उच्चपदो पर विराजमान हैं। इसके बावजूद आप खुद को साक्षर मात्र मानते हैं। क्यों ?

रामकुमार आत्रेय: राधेश्याम जी, इंसान सारी उम्र सीखता है। मैं भी सीख रहा हूँ। और अन्त तक सीखता रहूँगा। अब भला सिखने वाला खुद को शिक्षित कैसे मान सकता है। और बात पढ़ाएँ  छात्रों का उच्च पदों पर सेवा करना तो, मैंने कर्म को पूजा समझकर किया है। मैंने कभी नहीं चाहा कि दुनिया मेरे काम की तारीफ करें। मैं निस्वार्थ भाव से अपने काम में लगा रहा। मैं समझता हूँ अब मेरे कर्म का फल मुझे मिल रहा है क्योंकि जब मेरा पढ़ाया कोई विद्यार्थी मेरे पास आकर कहता है कि गु रुजी मैं इस पद पर कार्य कर रहा हूँ तो आत्मिक सुख का अनुभव होता है। मैं तो इतना ही कहूँगा कि हर शिक्षक को मन लगाकर पढ़ाना चाहिए ,क्योंकि उनके पढ़ाएँ  विद्यार्थी ही देश के सच्चे नागरिक बनेंगे, वे राष्ट्र का नाम रोशन करेंगे और उनका भीे। एक शिक्षक के लिए यही सबसें बड़ा पुरस्कार होगा।

राधेश्याम भारतीयः– आप साहित्य से जुड़े रहे हैं ,कोई ऐसी साहित्यिक घटना जो आपकों बार-बार याद आती हो ?

रामकुमार आत्रेयः-‘‘ नहीं, ऐसी तो कोई खास नहीं पर, एक बार अपनी नासमझी कहँू या अप्रत्याशित होने के कारण यादगार बनी। मेरी एक कविता ‘मुफ्त में ठगी’ ‘अक्षरपर्व’ पत्रिका में प्रकाशित हुई । वह कविता केरल में पढ़ी गई । उस कविता में क्या ताकत थी कि एस.सी. ई. आर.टी की तत्कालीन निर्देशिका ने उस कविता को पढ़ा, समझा और दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में प्रकाशित करने की अनुमति चाही। लेखक तो चाहता यही है कि उसकी रचना का आस्वाद अधिक से अधिक पाठक ले और मैंने अनुमति प्रदान कर दी। महीने भर में ही उनका फोन आया कि आप फाइव थाउजैंड़ की पावती रसीद भेजे। मैने कहा, मैडम मैं पॉच सौ रूपये की रसीद भेज देता हूँ। उन्होंने पुनः कहा, पाँच सौ की नहीं; फाइव थाउजैंड यानी पॉच हजार की। यह सुनकर एक बार तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि मेरी एक रचना के पॉच हजार मिल रहे हैं पर विश्वास करना पड़ा। यह घटना मुझे अक्सर याद आ जाती है……..’’

राधेश्याम भारतीय: आपकी नेत्रदृष्टि आपका साथ छोड़ गई हैं ऐसे में आपका लेखन कार्य कैसे चलता है ?

रामकुमार आत्रेय: नेत्रदृष्टि जाने के बाद लेखन कार्य में बड़ी बाधा आती है। जब मेरे मन काव्य संबंधी विचार उमड़ते हैं तो मैं कागज पर टेढे़-मेढे़ रूप में लिख लेता हूँ और बाद में अपने पोते विकास से उन्हें लेखनीबद्ध करा लेता हूँ।

राधेश्याम भारतीय:- नव लेखकों के लिए कोई संदेश ?

रामकुमार आत्रेय- वे अधिक से अधिक पढ़े और निरन्तर लिखते जाए। साहित्यकार बनने का कोई शॉर्टकट नहीं है। साहित्य साधना की मांग करता है। और जो साधना करते हैं वे जीवन में अवश्य सफल होते हैं।

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

समीक्षा : लघुकथा कलश का चौथा अंक | महेंद्र कुमार

कई लोगों ने अपनी रचना प्रक्रिया में अपनी लघुकथा को प्राप्त हुए पुरस्कारों का भी वर्णन किया है जो पूर्णतः अनुचित है। इसी प्रकार कुछ लोग अपनी रचना प्रक्रिया में इस पर भी गर्व करते हुए पाए गए कि उन्होंने अपनी लघुकथा पर किसी से भी विचार-विमर्श नहीं किया है। मुझे नहीं लगता कि इसमें गर्व करने जैसी कोई भी चीज़ है।
महेंद्र कुमार (इस समीक्षा से)

लघुकथा को पूर्णतः समर्पित अर्द्धवार्षिक पत्रिका लघुकथा कलश का चौथा अंक (जुलाई-दिसम्बर 2019) इस मआनी में अनूठा है कि इसमें लघुकथाओं के साथ-साथ उनके बनने की कहानियाँ भी दी गयी हैं जिनसे अक्सर पाठक अनजान ही रह जाता है। रचना प्रक्रिया पर आधारित यह अंक जैसे ही मेरे हाथ में आया मैं इसे पढ़ गया, तीन दिनों के अन्दर। फिर पाठकीय प्रतिक्रिया देने में इतनी देर क्यों? अल्जीरियाई दार्शनिक अलबैर् कामू ने कभी कहा था, "हर कलाकार के हृदय की गहराइयों में कहीं एक दरिया बहता है और जब तक वह जीता है अपने इसी दरिया के पानी से प्यास बुझाता है। जब भी उसका यह दरिया सूखता है, तब हम उसके लेखन की धरती में उभरती हुई दरारों को समझ पाते हैं।" मैं एक लेखक तो नहीं पर एक पाठक ज़रूर हूँ और दरिया सिर्फ़ लेखकों का ही नहीं बल्कि पाठकों के हृदय का भी सूखता है। कई बार इसी वजह से वो पाठकीय प्रतिक्रिया तक नहीं दे पाता। वैसे ये दरिया सूखता ही क्यों है? और इससे जो दरारें उभर कर आती हैं वो कितनी गहरी होती हैं? शायद ऐसे ही सवालों को समझने के लिए जीवनियाँ लिखी जाती हैं। कई बार इस दरिया में पानी वापस आ जाता है तो कई बार नहीं भी आ पाता। कितना आता है, सवाल यह भी है। ख़ैर, पूर्व अंकों की भांति इस रचना प्रक्रिया विशेषांक में भी प्रचुर सामग्री मौजूद है जो आपके हृदय में बहने वाले दरिया में पानी की मात्रा को बढ़ाएगी ही। उदाहरण के लिए, पत्रिका में शामिल सामग्री की एक संक्षिप्त सूची इस प्रकार है :

(1) 04 विशिष्ट लघुकथाकार (जसबीर चावला, प्रताप सिंह सोढ़ी, रूप देवगुण व हरभजन खेमकरणी) और उनकी रचना प्रक्रिया।
(2) 06 पुस्तकों (मेरी प्रिय लघुकथाएँ - प्रताप सिंह सोढ़ी, माटी कहे कुम्हार से - डॉ. चंद्रा सायता, गुलाबी छाया नीले रंग - आशीष दलाल, किन्नर समाज की लघुकथाएँ - डॉ. रामकुमार घोटड़, डॉ. लता अग्रवाल, कितना कारावास - मुरलीधर वैष्णव, सब ख़ैरियत है - मार्टिन जॉन) की समीक्षाएँ क्रमशः प्रो. बी.एल. आच्छा, अंतरा करवड़े, रजनीश दीक्षित, कल्पना भट्ट, प्रो. बी.एल. आच्छा और रवि प्रभाकर द्वारा।
(3) लघुकथा कलश के तृतीय अंक की समीक्षाएँ – मृणाल आशुतोष, कल्पना भट्ट, दिव्य राकेश शर्मा, लाजपत राय गर्ग, डॉ. नीरज सुधांशु और डॉ. ध्रुव कुमार द्वारा।
(4) 126 लेखकों की लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया।
(5) 08 नेपाली लेखकों – खेमराज पोखरेल, टीकाराम रेगमी, नारायण प्रसाद निरौला, राजन सिलवाल, राजू क्षेत्री 'अपूरो', रामकुमार पण्डित क्षत्री, रामहरि पौड्याल तथा लक्ष्मण अर्याल – की रचना प्रक्रिया सहित कुल नौ लघुकथाएँ।


इस पत्रिका का जो स्तम्भ मैं सबसे पहले पढ़ता हूँ वो इसका सम्पादकीय है और इसकी वजह हैं इसके सम्पादक योगराज प्रभाकर। इन्होंने न केवल मुझे लघुकथा का ककहरा सिखाया है बल्कि प्रोत्साहित भी किया है। पर सम्पादकीय पढ़ने की वजह यह नहीं है बल्कि यह है कि ये बेहद सरल भाषा में अपनी बात कहते हैं और वो भी पूरी साफ़गोई से। यह साफ़गोई ही है जो कई बार लोगों को पसन्द नहीं आती। इस पर हफ़ीज़ मेरठी का एक शे'र है जो मुझे याद आ रहा है, रात को रात कह दिया मैंने, सुनते ही बौखला गयी दुनिया।

सम्पादकीय से तीन महत्त्वपूर्ण बातें उभर कर आती हैं जो क्रमशः शिल्प, कथानक और शीर्षक से सम्बन्धित हैं :

1. सत्य घटना और लघुकथा में अन्तर होता है और ये अन्तर उतना ही होता है जितना कि एक मकड़ी और उसके जाले में। इस बात को आप इस अंक की कई रचना प्रक्रियाओं में महसूस कर सकते हैं जहाँ लघुकथा लघुकथा कम और घटना ज़ियादा प्रतीत होती है। इसके पीछे का प्रमुख कारण यह है कि लोग इस पर तो ध्यान देते हैं कि उन्हें 'क्या कहना है', मगर इस पर नहीं कि 'कैसे कहना है'। मधुदीप गुप्ता के शब्दों में, "किसी भी घटना को तुरन्त लिख देना पत्रकारिता की श्रेणी में आता है और वह सृजनात्मक लेखन नहीं होता।" सृजनात्मक लेखन के लिए कल्पनाशीलता अहम है। यह कल्पनाशीलता ही है जो किसी मिट्टी को अलग-अलग रूप दे कर बाज़ार को समृद्ध करती है।

2. दूसरी महत्त्वपूर्ण बात 'क्या कहना है' से सम्बन्धित है। निश्चित तौर पर लोग कथानक चयन पर ध्यान देते हैं पर कई बार वो आत्म-मोह से ग्रसित भी हो जाते हैं जिसकी वजह से उनकी रचनाएँ उनके जीवन-अनुभवों के आस-पास तक ही सीमित हो कर रह जाती हैं। हाँ, अगर किसी के अनुभवों का फ़लक विस्तृत हो तो यह बुरा नहीं है पर अक्सर ऐसा होता नहीं। वैसे तो यह बात पुरुष और महिला दोनों लघुकथाकारों पर समान रूप से लागू होती है पर सम्पादक ने यहाँ पर महिला लघुकथाकारों को विशेष रूप से इंगित किया है। उन्हीं के शब्दों में, "मैं महिला लघुकथाकारों से करबद्ध प्रार्थना करना चाहूँगा कि भगवान के लिए! अब भिंडी-तोरई, आलू-मेथी, तड़का-छौंक, चाय-पकौड़े, सास-बहू, ननद-जेठानी आदि से बाहर निकलें। लघुकथा इन विषयों से कहीं आगे पहुँच चुकी है, अतः वे भी अब रसोई की दुनिया से बाहर झाँकना शुरू करें।" ऊपर मैंने जिस साफ़गोई की बात की है आप उसे साफ़-साफ़ यहाँ पर देख सकते हैं। सम्पादकीय का शीर्षक 'दिल दिआँ गल्लाँ' इस अर्थ में बिल्कुल सटीक है। फ़िलहाल मैं सम्पादक की इस बात से ख़ुद को सहमत होने से नहीं रोक पा रहा हूँ कारण यह है कि मैंने स्वयं अधिकांश (सभी नहीं और इनमें से कुछ इस अंक में शामिल भी हैं) महिला लघुकथाकारों की रचनाएँ इन्हीं विषयों पर केन्द्रित देखी हैं। सम्पादक की इस बात को कई लोगों ने अन्यथा ले लिया जो सर्वथा अनुचित है। भावनाओं के ज्वार में बह कर यह कहना कि बिना रसोई के किसी का काम ही नहीं चल सकता इसलिए हम इसी पर लिखेंगे से कई गुना बेहतर है कि हम अपनी बात तार्किक रूप से ठोस तथ्यों के आधार पर कहें। यहाँ पर मैं अरुंधति रॉय का नाम लेना चाहूँगा जिनसे न सिर्फ़ महिला बल्कि पुरुष लघुकथाकार भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।

3. सम्पादकीय से उभर कर आने वाली तीसरी महत्त्वपूर्ण बात शीर्षक चयन से सम्बन्धित है। वैसे इस मामले में मेरा हाथ भी तंग ही है। शीर्षक की बात चली है तो मैं ये बताना चाहूँगा कि इस अंक में तीन लघुकथाएँ एक ही शीर्षक (बोहनी) से मौजूद हैं जो निश्चित रूप से उस चिन्ता को बल देती हैं जो सम्पादकीय में व्यक्त की गयी है। शीर्षक सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण बातें हमें विभिन्न रचना प्रक्रियाओं में भी देखने को मिल जाती हैं जैसे शीर्षक का चयन कब करना चाहिए, लिखने से पहले या लिखने के बाद? कुछ लोग शीर्षक पर लघुकथा लिखने से पहले ही विचार कर लेते हैं जैसे अरुण धर्मावत और नीना छिब्बर वहीं कुछ लोग लघुकथा लिखने के बाद शीर्षक पर विचार करते हैं जैसे कि चंद्रेश कुमार छतलानी।

यूँ तो लगभग सभी की लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया पठनीय हैं फिर भी अशोक भाटिया, बलराम अग्रवाल, मधुदीप गुप्ता, माधव नागदा, योगराज प्रभाकर, रवि प्रभाकर, रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु', सतीशराज पुष्करणा, सुकेश साहनी और सूर्यकांत नागर की रचना प्रक्रिया विशेष दर्शनीय हैं। यदि पुस्तक समीक्षाओं की बात की जाए तो मुझे रवि प्रभाकर की समीक्षा ने विशेष प्रभावित किया। योगराज प्रभाकर द्वारा अशोक भाटिया की पुस्तक 'बालकांड' की काव्यात्मक समीक्षा अलग होने के कारण विशिष्ट लगी।

पत्रिका को पढ़ने के क्रम में मैं जब मुकेश शर्मा की लघुकथाएँ पढ़ रहा था तो एक चीज़ मुझे खटकी और वो था उनकी दोनों लघुकथाओं में एक ही वाक्य का अक्षरशः प्रयोग – "अँधा क्या चाहे, दो आँखें।" यह कोई बड़ा दोष नहीं है पर मुझे लगता है कि इससे बचा जा सकता था। बाकी हल्के-फुल्के अन्दाज़ में लिखी गयीं उनकी दोनों लघुकथाएँ मज़ेदार हैं। 'दिल की दुनिया' में अक्सर लोगों के 'प्यार का एकाउण्ट' क्लोज़ हो जाता है भले उस खाते में कितना ही एमाउण्ट क्यों न हो। रही बात जन धन खाते वालों की तो उन्हें इससे दूर ही रहना चाहिए। इसी प्रकार, रामनिवास 'मानव' जहाँ एक ओर अपनी लघुकथा 'टॉलरेन्स' की रचना प्रक्रिया में यह कहते हैं कि "हमने कोई फ़िल्म देखी थी, शायद किसी क्रान्तिकारी पर आधारित 'शहीद' फ़िल्म थी।" वहीं अपनी लघुकथा में यह भी लिखते हैं कि "भगत सिंह के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है।" ऐसा कैसा हो सकता है कि आपको लघुकथा में तो नाम पता हो किन्तु रचना प्रक्रिया में आप नाम भूल जाएँ? निश्चित ही यह टंकण त्रुटी है पर इस स्तर पर थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए।

लेखकों की रचना प्रक्रिया से कई बातें निकल कर आती हैं। जैसे लघुकथा कथानक आते ही लिख लेना चाहिए या उसे काग़ज़ पर तब उतारना चाहिए जब वो पूरी तरह मस्तिष्क में पक जाए? तारिक़ असलम तस्नीम पहली तरह के लेखक हैं। वो न सिर्फ़ किसी रचना के सृजन से पहले ही उसके आरम्भ से अन्त तक की रूपरेखा सुनिश्चित करने को गैरज़रूरी मानते हैं बल्कि यह भी कहते हैं कि यदि ऐसा होता है तो वह रचना सकारात्मक कम आत्माभिव्यक्ति अधिक सिद्ध होगी। निरंजण बोहा दूसरे तरीके के समर्थक हैं। उन्हीं के शब्दों में, "मैं सदैव लघुकथा के लिए कोई विषय सूझने और उसे काग़ज़ पर उतारने के मध्य एक उचित अन्तराल अवश्य रखता हूँ।" इस दूसरी क़तार में रवि प्रभाकर भी आते हैं। यही कारण है कि उन्होंने लघुकथा को दीर्घ साधना कहा है।

लघुकथा क्या है? इसे समझाने के लिए कई परिभाषाएँ दी जाती हैं। एक ऐसी ही परिभाषा मनु मनस्वी ने भी दी है। उनके अनुसार, "लघुकथा हाइकु की भांति हो, संक्षिप्ततम और पूर्ण, जिसमें कोई भी ऐसा शब्द न आए, जिसके बिना भी बात कही जा सकती हो।" हाइकु जापानी कविता की एक विधा है जिसमें संक्षिप्तता का विशेष ध्यान रखा गया है। संक्षिप्तता की यही ख़ूबी लघुकथा में भी पायी जाती है। पर लघुकथा में सबकुछ लघु नहीं होता। अक्षय तूणीर की इस बात से मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ कि लघुकथा का आकार तो लघु हो सकता है किन्तु चिन्तन नहीं। अगर चिन्तन को ही लघुकथा का केन्द्रीय तत्त्व कहा जाए तो गलत नहीं होगा। निरंजण बोहा के शब्दों में, "लघुकथा लिखते हुए मैं सबसे अधिक महत्त्व 'विचार' को देता हूँ, अतः मैं अपनी उन्हीं लघुकथाओं को सफल मानता हूँ जिनमें निहित विचार अथवा दर्शन का मानवोत्थान में कोई योगदान हो।" छोटी चीज़ों को तुच्छ समझना हमारे समाज की ख़ास विशेषता रही है। यही कारण है कि बहुतेरे पाठक लघुकथा में 'लघु' शब्द पर विशेष ज़ोर देते हुए इसे साहित्य की एक छोटी विधा मान लेने की भूल कर बैठते हैं। कुछ लघुकथाकारों द्वारा स्वयं को लघुकथाकार न कहलवाने की इच्छा के पीछे का प्रमुख कारण भी यही है।

जितना ज़रूरी लघुकथा का प्रभावशाली अन्त करना होता है उतना ही ज़रूरी उसकी अच्छी शुरुआत करना भी है। लघुकथा की शुरुआत कहाँ से करनी चाहिए और कहाँ पर उसका अन्त, इसका एक अच्छा उदाहरण है मिर्ज़ा हाफ़िज़ बेग़ की लघुकथा 'बोहनी' और उसकी रचना प्रक्रिया। लिखने के बाद लिखे हुए को प्रकाशित करवाने की बारी आती है जहाँ अक्सर नवोदित जल्दबाज़ी कर बैठते हैं। उन्हें चेतावनी देते हुए रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु' कहते हैं कि "अगम्भीर लेखक लिखते ही लघुकथा को कहीं-न-कहीं भेजकर मुक्ति पाना चाहता है। उसमें अपनी ही रचना को दुबारा पढ़ने का धैर्य नहीं है, जबकि अपनी रचना से दुबारा गुज़रना सधे हुए लेखक के लिए ज़रूरी है।" इसी तरह वो लोग जिन्हें लगता है कि उनकी हर रचना कालजयी होती है को सविता इन्द्र गुप्ता की बात याद रखनी चाहिए। वो कहती हैं, "एक मुकम्मल लघुकथा लिखना सम्भव कहाँ होता है? लेखकों की सारी उम्र बीत जाती है, तब वे दो-तीन कालजयी और सात-आठ मुकम्मल लघुकथाएँ रचने में सफल हो पाते हैं।"

कई लोगों ने अपनी रचना प्रक्रिया में अपनी लघुकथा को प्राप्त हुए पुरस्कारों का भी वर्णन किया है जो पूर्णतः अनुचित है। इसी प्रकार कुछ लोग अपनी रचना प्रक्रिया में इस पर भी गर्व करते हुए पाए गए कि उन्होंने अपनी लघुकथा पर किसी से भी विचार-विमर्श नहीं किया है। मुझे नहीं लगता कि इसमें गर्व करने जैसी कोई भी चीज़ है। अगर आप कहानियाँ लिखते हों और आपके पास विचार-विमर्श के लिए मंटो मौजूद हों, तो? क्या आप उनसे चर्चा-परिचर्चा नहीं करेंगे? हमें यह याद रखना चाहिए कि जितना गौरवपूर्ण किसी से विचार-विमर्श न करना है उससे कहीं ज़ियादा दुर्भाग्यपूर्ण है किसी ऐसे का अपने आस-पास न होना जिसके साथ हम साहित्यिक और बौद्धिक चर्चा कर सकें। किसी भी क़िले को बिना किसी मदद के अकेले फ़तह करना अच्छी बात है पर उसका डंका हमें ख़ुद नहीं पीटना चाहिए।

इस अंक में नाचीज़ की भी दो लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया शामिल हैं। कई लोगों को लगता है कि मैं बहुत कठिन लिखता हूँ। यह स्थिति किसी भी लेखक के लिए गर्व की बात नहीं है जब तक कि वो ग़ालिब न हो। वो लोग जिन्हें ऐसा लगता है कि मैं कठिन लिखता हूँ से अनुरोध है कि वो इन दोनों लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया को पढ़ कर अपने अमूल्य मत से अवगत कराएँ जिससे कि अपेक्षित सुधार किया जा सके। ये दोनों लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया इस पोस्ट (Facebook Post: https://www.facebook.com/idrmkr/posts/2630671406979322) में संलग्न हैं। अपनी बात मैं ख़ुद को उस शे'र से अलग करते हुए ख़त्म करना चाहूँगा जो ग़ालिब ने अपने लेखन में मआनी न होने पर कहा था, न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा, गर नहीं है मिरे अशआर में मअ'नी न सही।

- महेंद्र कुमार 

सोमवार, 16 दिसंबर 2019

साक्षात्कार : संदीप तोमर | द्वारा : डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


एक आदर्श अध्यापक और एक धर्म परायण माता के पुत्र पेशे से अध्यापक होने के साथ-साथ स्तरीय लेखक, समीक्षक, आलोचक और समालोचक श्री सन्दीप तोमर का जन्म 7 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के जिला मुज़फ्फरनगर के गंगधाड़ी नामक गाँव में हुआ था। 

चार भाई बहनों में सबसे छोटे सन्दीप तोमर विज्ञान विषय में स्नातक कर दिल्ली विश्वविद्यालय पढ़ने आ गए। बी.एड, एम.एड के बाद एम.एस सी. (गणित), एम.ए. (समाजशास्त्र व भूगोल) एम.फिल. (शिक्षा-शास्त्र) की शिक्षा ग्रहण की। यूं तो सातवीं कक्षा से ही सन्दीप जी का झुकाव लेखन के प्रति था, दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्ययन करते-करते यह रूचि विस्तृत हो गयी। आपने कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचना, नज़्म, ग़ज़ल के साथ साथ उपन्यास विधा में लेखन कर्म किया है। सन्दीप तोमर का पहला कविता संग्रह 'सच के आस पास' 2003 में प्रकाशित हुआ।उसके बाद एक कहानी सँग्रह 'टुकड़ा टुकड़ा परछाई' 2005 में आया, शिक्षा और समाज (लेखों का संकलन शोध-प्रबंध) का प्रकाशन वर्ष 2010 में हुआ। इसी बीच लघुकथा सँग्रह 'कामरेड संजय' 2011 में प्रकाशित हुआ। आपने 'महक अभी बाकी है' नाम से कविता संकलन का संपादन भी किया। 2017 में प्रकाशित 'थ्री गर्ल्सफ्रेंड्स' उपन्यास ने सन्दीप तोमर को चर्चित उपन्यासकार के रूप में स्थापित कर दिया। 2018 में आपकी आत्मकथा 'एक अपाहिज की डायरी' का विमोचन नेपाल की धरती पर हुआ। आप प्रारंभ, मुक्ति, प्रिय मित्र, अनवरत अविराम इत्यादि साझा संकलनों में बतौर कवि सम्मलित हो चुके हैं। सृजन व नई जंग त्रैमासिक पत्रिकाओं में बतौर सह-संपादक सहयोग करते रहे। फिलवक्त श्री तोमर की कई पुस्तकें प्रकाशन हेतु कतार में हैं, जिनमे 'समय पर दस्तक' और 'लिव इन रिलेशन' लघुकथा संग्रह, 'ये कैसा प्रायश्चित' तथा 'दीपशिखा' उपन्यास के साथ 'यंगर्स लव' कहानी संग्रह और 'परम ज्योति' कविता संग्रह प्रमुख हैं। 

हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा निबन्ध व कविता लेखन के लिए 'सच के आस पास' काव्य कृति के लिये 'तुलसी स्मृति सम्मान' काव्य लेखन के लिए 'युवा राष्ट्रीय प्रतिभा' सम्मान, साहित्यिक सांस्कृतिक कला संगम अकादमी द्वारा 'साहित्य श्री' सम्मान, अजय प्रकाशन रामनगर वर्धा (महा.) द्वारा 'साहित्य सृजन' सम्मान, मानव मैत्री मंच द्वारा काव्य लेखन के लिए सम्मान सहित कई बड़ी संस्थाओं द्वारा समय- समय पर आपको सम्मानित किया गया है। आप 2011-12 में स्कूल स्तर पर तत्कालीन विधायक के हाथों बेस्ट टीचर अवार्ड तथा 2012 में प्राइवेट और सरकारी अध्यापक संघ के तत्वाधान में तत्कालीन संसदीय मन्त्री हरीश रावत के कर कमलों से दिल्ली के बेस्ट टीचर के रूप में भी सम्मानित हो चुके हैं। आपको 'औरत की आज़ादी: कितनी हुई पूरी, कितनी रही अधूरी?' विषय पर अगस्त 2016 में आयोजित परिचर्चा संगोष्ठी में विशेष रूप से सम्मानित किया गया। भारतीय समता समाज की ओर से आपको समता अवार्ड 2017 से सम्मानित किया गया। साहित्य-संस्कृति मंच अटेली, महेंद्र गढ़ (हरियाणा) द्वारा साहित्य-गौरव सम्मान (2018), छठवा सोशल मिडिया मैत्री सम्मलेन में नेपाल की भूमि पर वरिष्ठ प्रतिभा के अंतर्गत साहित्य के क्षेत्र में सतत वा सराहनीय योगदान के लिए 'साहित्य सृजन' (2018), इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र एवम्‌ हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी द्वारा शिक्षक प्रकोष्ठ में सहभागिता प्रमाण पत्र दिया गया। पाथेय साहित्य कला अकादमी, जबलपुर/दिल्ली द्वारा सितम्बर 2018 में कथा गौरव सम्मान से नवाज़ा गया। साथ ही दिसंबर 2018 में ही नव सृजन साहित्य एवं संस्कृति न्यास, दिल्ली नामक संस्था द्वारा हिन्दी रत्न सम्मान दिया गया।सितम्बर 2019 में पत्रकार देवेन्द्र यादव मेमोरियल ट्रस्ट, दौसा एवम अभिनव सेवा संस्थान, दौसा द्वारा साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया गया। नवम्बर 2019 में अभिमंच द्वारा उपन्यास लेखन पर प्रेमचंद सम्मान-2019 से विभूषित किया गया है।

श्री तोमर ने इस साक्षात्कार में भी बेबाकी से ईमानदार उत्तर दिए हैं। आपके उत्तरों में लघुकथा विधा की उन्नति की कामनाएं सहज ही परिलक्षित हो रही हैं। इस प्रश्नोत्तरी में वरिष्ठ लघुकथाकारों को उद्धृत करने के साथ-साथ मध्यम स्थापित और नवोदित रचनाकारों यथा सुश्री शोभना श्याम, सुश्री सीमा सिंह, सुश्री मेघा राठी,श्री दिलीप कुमार, सुश्री पूजा अग्निहोत्री, सुश्री दिव्या शर्मा, श्री कुमार गौरव, श्री मृणाल आशुतोष, श्री हेमंत राणा, सुश्री अंतरा करवड़े, सुश्री अनघा जोगलेकर, सुश्री उपमा शर्मा आदि की प्रशंसा भी खुले मन से की है, जो कि उनके विस्तृत अध्ययन का परिचायक है। आइए पढ़ते हैं:


लघुकथा लेखक को प्रयोगधर्मी भी होना होगा और समाज को कुछ सन्देशप्रद लेखन देकर अपनी भूमिका का उचित निर्वाह भी करना होगा।

रुरी है कि नयी पीढ़ी खेमेबाजी से किनारा करे, और किसी एक वरिष्ठ पुरुष की बात को पकडकर न बैठे, साहित्य में कोई राम बाण या लक्ष्मण रेखा नहीं होती, अपनी राह खुद तलाशनी होती है...
(इसी साक्षात्कार से) - सन्दीप तोमर



चंद्रेश छतलानी :  सन्दीप जी,अपनी लघुकथा सृजन यात्रा के बारे में कुछ खुलकर बताइये।

सन्दीप तोमर: 1986 में सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था, तब ‘पेड़-पौधो’ और ‘भूत-प्रेतों’ को माध्यम बनाकर कहानीनुमा कुछ छोटी रचनाएँ लिखी थी जो अमर उजाला में प्रकाशित जरुर हुई थी लेकिन उन पर किसी सहपाठी का नाम प्रकाशित होता था, हालाकि उनमें लघुता थी और कथा भी अवश्य थी फिर भी मैं उन रचनाओं को लघुकथा नहीं कह सकता, अब वो सब विस्मृति का हिस्सा हैं, जिसे लेखन माना जाए उस फ्रेम में 2001 में लिखना शुरू हुआ, इस मायने में पहली प्रकाशित रचना “समझदार थी, जिसमें एक विद्यालय निरीक्षक और अध्यापक का संवाद है, इसे “कथा संसार” पत्रिका के 2003 के स्कूल विशेषांक अंक में स्थान मिला, उससे बाद तो लगातार देश के अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन होता रहा। 'कामरेड संजय' लघुकथा संग्रह भी आया था लेकिन प्रकाशक की कारगुजारियों के चलते उनकी कोई प्रति मेरे पास नहीं है।  वर्ष 2020 के आरम्भ में दो संग्रह क्रमशः 'समय पर दस्तक' और 'लिव इन रिलेशन' पाठकों के बीच होंगे।


चंद्रेश छतलानी:  क्या लघुकथा की कोई ऐसी विशेष शैली है, जो आपको बहुत प्रभावित करती हो?

सन्दीप तोमर: अधिकांश लोग विवरणात्मक शैली और आत्मकथायात्मक शैली को अधिक अपनाये हुए हैं, जिसे मैं लघुकथा के विस्तार में कुछ हद तक बाधक मानता हूँ, लघुकथा लेखक को अन्य शैलियों को भी अपनाना चाहिए। साहित्य की शैलियों में एक उपशैली है- ‘कामेडी’, जिसमें बहुत कम लघुकथाएं लिखी गयी हैं। लघुकथाओं में ‘डायरी शैली’ में भी लघुकथा लिखने का चलन अभी नहीं आया है। मुझे ये दोनों ही शैलियाँ अधिक प्रभावित और आकर्षित करती हैं।

लघुकथा में आत्मकथ्यात्मक शैली में रचनाकार कई बार कथा-सर्जन करता है, यह एक बहुत ही मुश्किल शैली है जिसमें रचनाकार जानकारी के अभाव में स्वयं को नायक के तौर पर प्रदर्शित करता है जबकि इस शैली में ऐसा नहीं करना होता, अधिकांश लेखक यहाँ चूक कर जाने के  कारण आत्म-विवेचना का शिकार हो जाते हैं। मोनोलॉग शैली (स्वयं से बात) में भी लघुकथा लिखते हुए रचनाकार वही गलती दोहरा देता है। कहा जा सकता है कि इसमें अक्सर लेखक पक्षपाती हो जाता है। यहीं से लेखन में लेखकीय प्रवेश होता है, लेखक को इससे बचना होगा,  कुछ रचनाकार तो इन दोनों में अंतर को भी नहीं समझते। आत्मकथ्यात्मक शैली या मोनोलोग को लेखक को बहुत अधिक आवश्यक होने पर ही अपनाया जाना चाहिए। लेखकीय प्रवेश न हो इसका भी प्रयास किया जाना चाहिए।


चंद्रेश छतलानी: क्या लघुकथा में नए मुहावरे गढ़े जा सकते हैं? किसी उदाहरण से समझाइये।

सन्दीप तोमर: चंद्रेश छतलानी जी, साहित्य नया कुछ गढ़ते रहने से ही समृद्ध होगा, यहाँ दो बातें हैं एक नया दूसरा मुहावरा, मेरी समझ से लघुकथा लेखन में दोनों की ही भरपूर सम्भावना है। अजय अमिताभ सुमन की एक लघुकथा है ”फटा हुआ ईमान” यह शीर्षक अपने आप में एक नया मुहावरा है, जिसे बहुत अधिक चिन्तन मनन के उत्पन्न किया गया हो ऐसा भी मुझे नहीं लगता, इसका जन्म रचना-प्रक्रिया के साथ ही हुआ लगता है।


चंद्रेश छतलानी: आजकल कई रचनाओं को इसलिए भी खारिज कर दिया जाता है क्योंकि वे तीन-चार (कम) पंक्तियों की होती हैं और उनसे कुछ अधिक पंक्तियों की रचनाओं की तरह स्पष्ट कथ्य का सम्प्रेषण नहीं कर पातीं। मेरा प्रश्न यह है कि रचना यदि कथ्य का संकेत तो दे रही है, लेकिन कथ्य स्पष्ट नहीं कहा गया, तब क्या उसे बदलना या खारिज कर देना चाहिए?


सन्दीप तोमर:चंद्रेश छतलानी जी पहली बात ये ही सही नहीं कि रचनाओं को इसलिए खारिज कर दिया जाएँ क्योंकि वे तीन-चार (कम) पंक्तियों की हैं, सवाल ये है कि ख़ारिज करने के मापदण्ड किसने बनाये? अभी कुछ समय पहले डॉ अशोक भाटिया जी का एक लेख काफी सुर्ख़ियों में रहा, मुद्दा था लघुकथा की शब्द सीमा को लेकर, उक्त के प्रतिउत्तर में अनिल शूर का ‘लघुवादी लघुकथा’ पर लेख आया और इस तरह पूरा लघुकथा जगत दो खेमो में बंट गया, एक खेमे में डॉ अशोक भाटिया के समर्थन में लोग थे तो दूसरे अनिल शूर के पक्षधर बने, हाँ कुछ मेरे और सुभाष नीरव जैसे लोग भी थे जिनका मानना था कि रचना अपनी शब्दसीमा खुद तय करती है, लघुकथा में शब्दों की कोई सीमा निर्धारित करना इसके साथ अत्यचार ही है। हमें ‘मंटो’ और ‘खलील जिब्रान’ की लघुकथाओ को नहीं भूलना चाहिए जो आकार में छोटी होकर भी मुकम्मल लघुकथाएं हैं। मैंने भी अतिलघु आकार की लघुकथाएं लिखी हैं। अब आते हैं आपके मूल प्रश्न पर- कथ्य का सम्प्रेषण पंक्तियों की संख्या पर नहीं रचना की बुनावट पर निर्भर करता है, आज कितनी ही लम्बे आकार की, यूँ कहो अधिक पंक्तियों की रचनाएँ भी कथ्य को उभार नहीं पाती कारण(?), इनकी बुनावट में कसावट नहीं होती, अत्यधिक शब्द खर्च करके भी वहाँ रचनाकार का हित सिद्ध नहीं होता। फिर किसी भी रचना में सुधार की गुन्जायिश हमेशा बनी रहती है, यदि कथ्य का संकेत मिल रहा है लेकिन कथ्य उभरकर नहीं आया तो रचनाकार उस पर पुनः काम करे, ख़ारिज करने का अधिकार भी अंततः रचनकार का ही है, आलोचक रचना पर अपनी राय प्रकट कर सकता है, आलोचक भी रचना के विश्लेषण का अंतिम अधिकारी नहीं, पाठक की राय सर्वोपरी है। फिर रचनाकार लिख किसके लिए रहा है ये भी महत्वपूर्ण है।


चंद्रेश छतलानी:  समकालीन लघुकथा में व्यंग्य किस हद तक ढाला जा सकता है?


सन्दीप तोमर: जब ये कहा जाता है कि लघुकथा का जन्म विसंगति से होता है तो यह भी महत्वपूर्ण है कि व्यंग्य का जन्म तो होता ही विसंगति से है। लघुकथा में शिल्प का महत्व अन्य विधाओ से कहीं अधिक है। समय-दर-समय शिल्पगत कसाव और विधागत संप्रेषणीयता से लघुकथा का महत्व उभरकर सामने आया है। संभवतः यही कारण था कि अपने-अपने समय के प्रबुद्ध रचनाकारों ने लघुकथा पर कलम चलाई और उन्होंने ‘व्यंग्य’ को शैली की तरह इस्तेमाल किया है, जिसे ‘व्यंग्यात्मक शैली’ कहा जाता है, मेरी समझ से लघुकथा में सीधे-सीधे व्यंग्य का प्रयोग विधागत न होकर इसे शैली के रूप में ही अपनाया जाए। अशोक भटिया, अशोक विश्नोई, भगवत दुबे, आभा पूर्वें, कमल चोपड़ा, कमलकांत सक्सेना, कालीचरण प्रेमी, किशोर श्रीवास्तव, चंद्रशेखर दुबे, जगदीशचन्द्र ठाकुर, हरनाम शर्मा. अनिल शूर जैसे कितने ही नाम हैं जिन्होंने व्यंग्यात्मक शैली को अपनाकर लघुकथाएं लिखी हैं। मैंने भी इस शैली को कई दफा अपनाया है। इन व्यंग्य लघुकथा लेखकों ने समाज में परिलक्षित विषमताओं, विद्रूपताओं तथा राजनीतिक व सामाजिक आडंबरों को निशाना बनाया है।

अशोक भाटिया की एक लघुकथा कम शब्दों यानि दो-तीन पंक्ति की लघुकथा है, 

अपनों की गुलामी-

सड़क के दोनों ओर खड़े गरीब लोगों के ठेले लाठियाँ मार-मारकर हटाए जा रहे थे। किसी को बंद किया जा रहा था। कारण ज्ञात हुआ, बात बस इतनी सी थी कि अगले दिन 15 अगस्त है—अर्थात् स्वतन्त्रता दिवस।

यह लघुकथा अपने आपमें एक स्वतंत्र व्यंग्य भी है और इसमें शिल्पगत अनुप्रयोग भी आप देख सकते हैं। यह विधा के मानको पर भी खरी उतरती है।

चंद्रेश छतलानी:  इन दिनों आप किस तरह की ऐसी लघुकथाएं पढ़/देख पा रहे हैं, जिन पर अंकुश लगना चाहिए?


सन्दीप तोमर: इस सवाल के जवाब से पहले मैं अधिकांश महिला रचनाकारो की मन:स्थिति पर आपका ध्यान ले जाना चाहूँगा, जब महिला साथियों ने लिखना शुरू किया या करती हैं उस समय उनके सामने नारी की सामाजिक स्थिति का फलक होता हैं जाहिर हैं कथानक भी उसी पृष्ठभूमि से आते हैं, शुरुआती लेखन तक ये सब ठीक है लेकिन कुछ अपवाद छोड़ दूँ तो अधिकांश उस पृष्ठभूमि से इतर अपनी दृष्टि को ले जाने में जाने कौन सा जोखिम  मानती हैं। शोभना श्याम, सीमा सिंह, मेघा राठी जैसी रचनाकार इस मिथ को तोडती हैं तो लघुकथा विधा की समृद्धि में उनका योगदान दर्ज होता है, जो व्यापक दृष्टि के साथ सृजन करेगा वो आगे तक जायेगा।


एक बात और है, लघुकथा विधा में जो मुझे इसके विकास में बाधक लगती है वह है विषय या चित्र देकर लिखवाना। रचना सार्थकता तभी पा सकती है जब वह अनुभव और अवलोकन का हिस्सा बने, इस तरह का लेखन तो सरासर कृत्रिमता है, जब तक लेखक स्वयं रचना से नहीं जुड़ेगा, उसका सामान्यीकरण नहीं करेगा तो पाठक रचना से अपना जुडाव कैसे महसूस करेगा, इसका तात्पर्य ये नहीं कि अपवाद से रचना का जन्म नहीं हो सकता, अपवाद से भी मुकम्मल रचनाओ का जन्म हुआ है / होता भी है लेकिन प्रतिशतता कम है। मेरे विचार से ये कृत्रिम लेखन बंद होना चाहिए। 


चंद्रेश छतलानी: समकालीन लघुकथाओं में जिस तरह के विषय उठाये जा रहे हैं, क्या उससे आप संतुष्ट हैं?


सन्दीप तोमर: दो टूक शब्दों में कहूँ तो एकदम संतुष्ट नहीं हूँ, विषयों में मुझे विविधता दिखाई नहीं देती और अलग विषय कुछ अलग होते भी हैं तो या तो रचनाकार का ट्रीटमेंट लचर होता है या अत्यधिक लिखने की चाह में दोहराव का शिकार हो जाते हैं। अभी कुछ लोगो ने पौराणिक पात्रों पर भी कुछ लघुकथाएं लिखी हैं लेकिन वहाँ भी पूर्ववर्ती लेखको को ही कॉपी किया गया है। बस थोड़ी अलग रचना दिखाने की चाह में फेरबदल अवश्य किया जाता है। जबकि होना ये चाहिए था कि नए पात्रों की रचना की जाती, या इतिहास के कुछ अनछुए पहलुओं को केंद्र में रखकर नया काम किया जाता। असल में लघुकथा लेखक शिल्पगत प्रयोग तो कर रहा है लेकिन ऐतिहासिक पात्रों की रचना करने या नूतन पौराणिक पात्रों की रचना करने में खुद को असमर्थ पाता है।


मेरी दृष्टि में अंचल विशेष यानि ‘आंचलिक पात्रों’ को आधार बनाकर भी बहुत कम लघुकथाओं की रचना हुई है, और ‘दिव्यांग व्यक्तियों’ की समस्याओं पर भी बहुत कम लिखा गया है। मुझे लगता है इन विषयों पर अधिक लिखे जाने की जरुरत है। ‘थर्ड जेंडर’ पर कुछ काम हुआ तो मन को अच्छा लगा, ऐसी ही और भी समस्याएँ हैं जिन पर लिखा जाना चहिये।


चंद्रेश छतलानी जी मुझे एक बात और महसूस होती हैं, अधिकांश रचनाकार पारिवारिक रिश्तो, परवरिश, ओल्ड ऐज होम की जरुरत इत्यादि समस्याओं पर भी लिख रहे हैं लेकिन इन विषयों पर बहुत नकारात्मक लिखा जा रहा है, आप लेखक से बात करें तो जवाब मिलता है कि यही यथार्थ है, मैं ऐसे लेखकों से पूछना चाहता हूँ क्या समस्याओं का रहस्योद्घाटन करना ही रचनाकार का एक मात्र उद्देश्य है? फिर रचनाकार उसमें कहाँ हैं, उसके दायित्व क्या हैं? होना ये चाहिये कि रचनाकार इन विषयों पर अपनी कलम से समाधान भी सुझाये या फिर ऐसा कुछ रचे जो नयी पीढ़ी के लिए प्रेरणास्पद हो। हाल ही में परिवार में बच्चो के दुर्व्यवहार के कारण माता-पिता को ओल्ड ऐज होम चले जाने या कमरा किराये पर लेने जैसी नसीहत की रचनाएँ पढ़कर मन खिन्न हुआ, मैंने सुभाष नीरव जी से वायदा किया कि इसके उलट लिखकर कोई संदेशपरक रचना दूँगा, तब “संस्कार” लघुकथा लिखी जिसे सतीश राठी जी ने ‘क्षितिज’ पत्रिका में स्थान दिया, तो लघुकथा लेखक को प्रयोगधर्मी भी होना होगा और समाज को कुछ सन्देशप्रद लेखन देकर अपनी भूमिका का उचित निर्वाह भी करना होगा।  




चंद्रेश छतलानी: आपके अनुसार लघुकथाओं का अपने पाठकों तक सम्प्रेषण हेतु निम्न तीनों में से बेहतरीन माध्यम क्या और क्यों है? प्रिंट, डिजिटल टेक्स्ट (सोशल मीडिया, ब्लॉग, वेबसाइट आदि पर) अथवा ऑडियो-वीडियो।


सन्दीप तोमर: साहित्य की चाहे कोई भी विधा हो, रचना अगर दमदार है तो वह अपना पाठक वर्ग खुद तलाश कर लेती है। निसंदेह प्रिंट मिडिया एक एतिहासिक दस्तावेज होता है, उसका अपना एक विस्तृत पाठक वर्ग है, अगर ऐसा नहीं होता तो लघुपत्रिकाओ की इतनी बाढ़ न आती। वर्तमान में डिजिटल टेक्स्ट ने भी अपना एक व्यापक पाठक वर्ग तैयार किया है लेकिन सोशल मिडिया की एक समस्या है - अधिकांश पाठक वही है जो या तो लेखक हैं या फिर लेखक बनने की होड़ में शामिल हैं। अगर इन दोनों माध्यमो की तुलना करूँ तो मैं प्रिंट मिडिया को अधिक महत्व दूँगा उसका कारण है इसका सर्वकालिक होना, जो एक बार प्रकाशित हुआ वह सर्वकालिक हुआ, जबकि डिजिटल के साथ समस्या है, इसकी अवधि बहुत लम्बी नहीं है, एक दिन या तो लेखक ही उससे उकता जाता है या फिर पाठक किनारा कर सकता है। इन दोनों से इतर जो तीसरे माध्यम की बात आपने की है, ऑडियो- वीडियों इसका प्रभाव छोटे फॉर्मेट की विधा में ज्यादा कारगर है। लघुकथा को यूट्यूब पर लाने में ‘ललित मिश्र’ ने शुरुआती काम किया, तदुपरांत मैंने “अफसाने साहित्य के” चैनल शुरू किया, उसके बाद सुना है रवि यादव ने भी इस क्षेत्र में कुछ काम किया है, अन्य चैनल भी होंगे लेकिन ये बाद के प्रयास हैं।

अगर दोटूक शब्दों में कहूँ तो तीनो का महत्व समय के हिसाब से हैं। अभी तो सही हो या गलत डिजिटल सबके सिर चढ़कर बोल रहा है।


चंद्रेश छतलानी : आपके अनुसार यदि पूर्व पीढ़ी से तुलना करें तो समकालीन लघुकथा के लिए लेखकों, समीक्षकों, प्रकाशकों और पाठकों की कौनसी प्रवृत्ति हितकारी है और कौनसी अहितकारी?


संदीप तोमर: चंद्रेश छतलानी जी मैं हमेशा से दो बातों का विरोध करता रहा हूँ , एक- खेमेबाजी, दूसरा सहयोग राशि से छपने वाले संकलन, ये दोनों ही लघुकथा जैसी सशक्त और आधुनिक विधा के विकास में बाधक होती हैं। इनसे गुणात्मकता में तो बेतहासा वृद्धि हुई है लेकिन इससे गुणात्मकता अधिक प्रभावित है, हमें गुणात्मकता पर अधिक ध्यान देना चाहिए। अच्छा ये है कि इसी भीड़ से कुछ क्रीम भी निकल कर आ रही है, दिलीप कुमार, पूजा अग्निहोत्री, दिव्या शर्मा, कुमार गौरव, मृणाल आशुतोष, हेमंत राणा, अंतरा करवड़े, अनघा जोगलेकर, उपमा शर्मा, इसी भीड़ से निकलकर आये हैं, और समुचित योगदान दे रहे हैं। बस अपनी लय को बनाये रखने की जरुरत है।


चंद्रेश छतलानी:  उचित अध्ययन तो हर लघुकथाकार को करना ही चाहिए, अच्छी पुस्तकें भी पढ़नी चाहिए। इस बात के अतिरिक्त नए लघुकथाकारों के लिए कोई सन्देश देना चाहेंगे?


सन्दीप तोमर: देखिये, एक समय तक पढना विधा के अंगोपांग को समझने के लिए जरुरी है, उसके बाद पढना भी बहुत मायने रखता हो ऐसा मुझे नहीं लगता, हाँ, अगर आप एक अच्छे पाठक हैं तो ये अच्छी बात है, कई बार देखने में आता है कि अधिक पढने से खुद का लेखन भी प्रभावित होने लगता है, कुछ नवरचनाकार किसी लेखक से इतने प्रभावित होते हैं कि उनकी शैली को ही अपनाने लगते हैं।


जरुरी है कि नयी पीढ़ी खेमेबाजी से किनारा करे, और किसी एक वरिष्ठ पुरुष की बात को पकडकर न बैठे, साहित्य में कोई राम बाण या लक्ष्मण रेखा नहीं होती, अपनी राह खुद तलाशनी होती है, अपनी बात कुछ यूँ कहकर समाप्त करूँगा –

हे अहिल्या-
खुद की राह बना
यहाँ उद्धार करने
राम न आएंगे।

रविवार, 15 दिसंबर 2019

लघुकथा वीडियो : लाजवन्ती | लेखन: सुभाष नीरव | स्वर: अंजू खरबंदा

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुभाष नीरव के विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर लघुकथाकारा अंजू खरबंदा जी द्वारा उनकी लघुकथा का वाचन