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शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

लघुकथा : सद्भाव | लेखक: डॉ. सतीश राज पुष्करणा | समीक्षा : कल्पना भट्ट

रचनाकाल- 1975 - 1980 के आसपास
लघुकथा: सद्भाव  / डॉ. सतीश राज पुष्करणा 

आधुनिक विचारों की मीता की शादी हुई तो उसने न तो सिन्दूर लगाया और न ही साड़ी, सलवार-कमीज आदि पहनना स्वीकार किया| वह कुँवारेपन की तरह जीन्स एवं टी-शर्ट ही पहनती|
ससुराल में सभी उसे अजीब नजरों से देखते| मोहल्ले टोले में उसका सिन्दूर न लगाना और उसका जीन्स एवं टी-शर्ट पहनना, चर्चा का विषय बन गया| मीता सुनती किन्तु उसे कभी किसी की भी परवाह नहीं थी| वह कुँवारेपन की तरह ही समय परोफ्फिस जाती और समय पर घर लौट आती|
एक दिन वह आई और सीधे पलंग पर लेट गयी | सास ने बहुत वात्सल्य भाव से पुछा,"क्या बात है बेटे? क्या तबियत खराब है?"
"हाँ ! कुछ बुखार-सा लग रहा है...सिर आदि में भी बहुत दर्द है|"
सास अभी उसकी तबियत के बारे में समझ ही रही थी कि उसके ससुर डॉक्टर ले आये|"
डॉक्टर ने ठीक से देखा और दावा लिख कर चले गए|
ऑफिस से लौटकर सत्यम अभी घर में प्रवेश कर ही रहा थे कि डॉक्टर को घर से निकलते देख सत्यम परेशान हो गया| उसने साथ चल रहे पिता से पूछा, "क्या हुआ? किसकी तबियत खराब है?"
"मीता की... चिंता की कोई बात नहीं|"
इतना सुनते ही सत्यम लपककर मीता के पास पहुँचा, “क्या हुआ मीते?” चिंता की रेखाएँ सत्यम के चेहरे पर स्पष्ट थीं, जिन्हें मीता ने पढ़ लिया|
सत्यम तुरंत पिटा की ओर बढ़ा, “ पापा! प्रेसक्रिप्शन कहाँ है? दीजिये मैं दवाएँ ले आता हूँ|”
“बेटा! मैं जब जा ही रहा हूँ तो तू क्यों परेशान होता है?”
“नहीं पापा! आप लोग मीता को देखें... ,मैं दवा लेकर आता हूँ|” यह कहकर वह बाईक पर स्वर हुआ और बाज़ार की ओर बढ़ गया|”
मीता सोचने लगी! अरे यह कैसा परिवार है ज़रा-सा बुखार होने पर सबने जमीन-आस्मां एक कर दिया| इतना प्यार मुझसे... ख़ुशी से उसकी आँखें छलछला आयीं|
आँखों में पानी देखकर सास ने कहा, “बेटे! तू चिंता न कर, तू जल्दी ठीक हो जायेगी| ले ! तब तक तू चाय पी ले...सत्यम दवा लेकर आता ही होगा|”
“माँ-जी ! मुझे हुआ ही क्या है? ... बुखार एकाध दिन में उतर जायेगा|”
“हिल नहीं बेटा! चुपचाप आराम से पड़ी रहो|”
मीता कुछ नहीं बोली| सत्यम दवाएँ ले आया... जिन्हें खाकर वह सो गयी| दो-तीन दिन बाद जब वह तैयार होकर ऑफिस जाने लगी तो सबके आश्चर्य की सीमा न रही| आज उसकी माँग में सिन्दूर भी था और बदन साड़ी और ब्लाउज से भी ढका था| सास-ससुर के चरण-स्पर्श करके बहु ऑफिस जाने हेतु अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गयी|
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समीक्षा / 
कल्पना भट्ट
जनरेशन गैप की बात हो चाहे आधुनिकता की, पश्च्यात संस्कृति हावी होती दिखाई पड़ती है, आधुनिकता को लेकर लोगों की अपनी अपनी समझ है, जिसपर वह अमल करते है, समय बदलता है, काल बदलता है, तभी प्रगति संभव होती है, प्रगतिशील होना यह एक स्वाभाविक गुण है, आधुनिकता को लेकर हर इन्सान की अपनी सोच और अपना विवेक होता है| आधुनिक होना बुरा नहीं, पर आधुनिकता के लिए जिद करना कहाँ तक उचित होता है, इसी विषय को लेकर डॉ सतीशराज पुष्करणा जी इस विषय को लेकर अपनी कुशल कलम का परिचय एक बार और दिया है| आप बहुत ही सहजता से गूढ़ बात को कह देते हैं, यह सिर्फ एक वरिष्ठ और तजुर्बेकार व्यक्ति ही कर सकता है|
‘सद्भाव’ एक ऐसी ही आधुनिक लड़की पर आधारित लघुकथा है : ‘ आधुनिक विचारों की मीता की शादी हुई तो उसने न तो सिन्दूर लगाया और न ही साड़ी, सलवार- कमीज़ आदि पहनना स्वीकार नहीं किया वह कुंवारेपन की तरह जीन्स एवं टी-शर्ट ही पहनती|
इससे साफ़ झलक रहा है कि मीता से ससुराल वालों ने साड़ी पहनने को कहा गया होगा, पर उसने उनकी बातों को नज़रंदाज़ कर दिया, मीता ऑफिस जाती है, परिवार में किसीको कोई परेशानी नहीं हो रही उसकी नौकरी करने के निर्णय से, परिवार की सोच आधुनिक प्रतीत हो रही है, विकासशील सोच है|
‘एक दिन वह आयी और सीधे पलंग पर लेट गयी| सास ने बहुत वात्सल्य भाव से पूछा, “ क्या बात है? क्या तबियत ख़राब है?”
मीता अपने ससुराल वालों की बातों को नहीं मानती पर उसकी सास का वात्सल्य भाव उनकी उदारता दर्शा रहा है, सास और बहु का रिश्ता ज्यादातर नकारत्मक दृष्टि से देखा जाता है पर इस लघुकथा के माध्यम से रचनाकार ने इस रिश्ते को सकारत्मक दिखा कर एक समाज में आ रहे बदलाव को दिखाया है और आपसी रिश्तों में बढ़ रही दूरियों को करीब लाने का प्रयास किया है, लघुकथा के लिए यह कहा गया है कि यह विधा या तो मनो-उत्थान के लिए लिखी जाती है या समाज-उत्थान के लिए, इस लघुकथा में सास की उदारता दोनों की मकसद को पूरा करने में सफल हो रही है, एक तरफ से मीता को अपने बर्ताव और सोच पर पुनः विचार करने पर प्रेरित कर रहा है, वहीँ समाज में सास-बहु के रिश्ते को नकारत्मक सोच को एक सकारात्मक दिशा प्रदान कर रही है|
“हाँ, बुखार सा लग रहा है... सिर आदि में भी बहुत दर्द है|” मीता को बुखार आ रहा है सुनकर उसकी सास उसको आराम करने की सलाह देती है और अपने पति से डॉक्टर को बुलाने को कहती हैं, मीता के ससुरजी पहले ही डॉक्टर को लेने चले जाते है, डॉक्टर मीता की जांच करते है और दवाई लिख कर देते है, ससुरजी बाज़ार जाकर दवाई लाने के घर से बाहर जाने के लिए खड़े होते है, यहाँ एक और परंपरा टूटती नज़र आती है, समाज में एक प्रचलन है, बहु और बेटी में फर्क किया जाता रहा है, इससे विपरीत यहाँ मीता ( नायिका) के सास-ससुर अपनी बहु की सेवा में लगे हुए हैं| इस बीच सत्यम, मीता का पति ऑफिस से घर आ जाता है और अपने पिता से कहता है, “ आप दोनों मीता के पास रहे और प्रिस्क्रिप्शन मुझे दे दीजिये , दवाई मैं लेकर आता हूँ| “ और वह अपनी बाईक पर बैठकर बाज़ार चला जाता है|
पति सत्यम को अपने माता-पिता के प्रति आदर और अपनी पत्नी के प्रति प्रेम, उसके कर्त्तव्य को निभाने में वह कहीं भी चूकता नहीं है| दवाई खाकर मीता सो जाती है, इस बीच पलंग पर लेटे हुए उसको अपनी गलती का एहसास होता है, जब वह अपने सास- ससुर को अपने लिए खड़े पाँव देखती है, और उनके बड़प्पन पर वह नतमस्तक हो जाती है, सिर्फ बुखार ही तो है, पर इस दौरान भी यह मेरी कितनी सेवा कर रहें हैं| दो-तीन दिन के बाद जब वह ठीक हो जाती है, वह साडी में आती है, और माथे पर सिन्दूर लगा लेती है, यह देख उसके घरवालों को ख़ुशी होती है और कहते हैं न सुबह का भूला ‘गर शाम को घर लौट आये तो उसको भूला नहीं कहते| बिकुल ऐसा ही तो मीता के साथ हुआ, आधुनिकता के लिए जो उसकी जो गलत सोच थी उसपर से काला पर्दा हट जाता है और वह अपने कर्तव्यों को और परम्पराओं के बीच बैलेंस करना सीख जाती है|
‘सद्भावना’ शीर्षक इस लघुकथा के लिए सार्थक सिद्ध हो रहा है, इस लघुकथा में संवाद, रचना को सहज और सजीव बना रहे हैं, कथानक और भाषा शैली दोनों ही बहुत सुंदर और सक्षम सिद्ध हो रहे हैं, इस लघुकथा में कुछ दिनों में घटित घटनाक्रम है जो कालखंड के होने का संशय पैदा कर रही है, पर कथा की मांग के चलते इसको गर नज़रंदाज़ कर दिया जाए तो यह लघुकथा एक सार्थक और सकारत्मक सन्देश देने में सफल रही है | समाज में बुराई और अच्छाई दोनों ही देखने को मिलती है, बस देखने का दृष्टिकोण बदलने से घर परिवार में सुख-शांति लायी जा सकती है| इस सुंदर और सार्थक रचना के लिए डॉ सतीशराज पुष्करणा जी को हार्दिक बधाई|

गुरुवार, 7 नवंबर 2019

डॉ. सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा 'दिखावा' 17 भाषाओँ में | कल्पना भट्ट


आदरणीया कल्पना भट्ट जी (Kalpana Bhatt) की फेसबुक पोस्ट से 

दिशा प्रकाशन से प्रकाशित आदरणीय मधुदीप गुप्ता जी के संपादन में 
पड़ाव और पड़ताल खण्ड 22 "डॉ सतीशराज पुष्करणा की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल" से

मूल लघुकथा



दिखावा
एक कॉफ़ी हाउस के बाहर बरामदे में लगी मेज-कुर्सियों पर बैठे कुछ युवक कॉफ़ी पीने के साथ-साथ कुछ ऊँचे स्वर में किसी विषय पर बहस भी कर रहे थे| बाहर मेन रोड पर एक भिखारी हाथ में कटोरा लिए भीख के उद्देश्य से खड़ा था| उन युवकों में से एक युवक, जो कुर्ता-पैजामा पहने था,एक सफारी सूट पहने युवक से कहने लगा, “तुम पूंजीपति लोग गरीबों को देखना पसंद नहीं करते हो|” जबकि इन्हीं गरीबों की वजह से तुम लोग इस ठाठ-बाट से रहते हो| वरना...|”

“देखो! तुम गलत समझ रहे हो| बात ऐसी नहीं है|”

“तो फिर”
“यदि वाकई ऐसी बात है, तो सामने भीख माँग रहे भिखारी को जाकर गले लगाकर दिखाओ|”
“उसे मैं भीख तो दे सकता हूँ, किन्तु इस गंदे भिखारी को अपने गले किसी कीमत पर नहीं लगा सकता| तुम चाहो तो जाकर उससे गले मिलो| या...”
इतना सुनते ही वह कुर्ताधारी युवक लपककर उस भिखारी कि ओर बढ़ गया और जाते ही उसे अपनी बाँहों में भरकर गले से लगा लिया|
इस प्रकार युवक को अपने गले लगते देख पहले तो भिखारी कुछ घबराया, किन्तु फिर कुछ सँभलते हुए बोला, “ बाबु! पेट गले लगाने से नहीं रोटी से भरता है... और रोटी के लिए पैसा चाहिए|”
डॉ. सतीशराज पुष्करणा

2) 

सादर धन्यवाद आदरणीय योगराज प्रभाकर सर! आपने इस लघुकथा का पंजाबी और उर्दू में भावानुवाद कर के भेजा | नमन आपको | दिनांक 4 नवम्बर, 2019 

(ਪੰਜਾਬੀ ਅਨੁਵਾਦ)
ਮਿੰਨੀ ਕਹਾਣੀ: ਦਿਖਾਵਾ
(ਡਾ. ਸਤੀਸ਼ਰਾਜ ਪੁਸ਼ਕਰਣਾ)

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ਇੱਕ ਕਾਫ਼ੀ ਹਾਊਸ ਦੇ ਬਾਹਰ ਵਰਾਂਡੇ ਵਿਚ ਪਏ ਕੁਰਸੀ-ਮੇਜ਼ਾਂ ਤੇ ਬੈਠੇ ਕੁਝ ਨੌਜਵਾਨ ਕਾਫੀ ਪੀਂਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਕਿਸੇ ਮੁੱਦੇ ਤੇ ਉੱਚੀ-ਉੱਚੀ ਬਹਿਸ ਵੀ ਕਰ ਰਹੇ ਸਨ. ਬਾਹਰ ਸੜਕ 'ਤੇ ਇੱਕ ਮੰਗਤਾ ਹੱਥ 'ਚ ਕੌਲਾ ਫੜੀ ਭੀਖ ਮੰਗਣ ਲਈ ਖਲੋਤਾ ਸੀ. ਉਨ੍ਹਾਂ 'ਚੋਂ ਇੱਕ ਨੌਜਵਾਨ ਜਿਸਨੇ ਕੁਰਤਾ-ਪਜਾਮਾ ਪਾਇਆ ਹੋਇਆ ਸੀ, ਇੱਕ ਸਫ਼ਾਰੀ ਸੂਟ ਵਾਲੇ ਨੌਜਵਾਨ ਨੂੰ ਕਹਿਣ ਲੱਗਾ,
"ਤੁਸੀਂ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਲੋਕ ਗਰੀਬਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖਣਾ ਵੀ ਪਸੰਦ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ। ਹਾਲਾਂਕਿ ਇਨ੍ਹਾਂ ਗਰੀਬਾਂ ਦੀ ਵਜ੍ਹਾ ਤੋਂ ਹੀ ਤੁਸੀਂ ਐਨੇ ਠਾਠ-ਬਾਠ ਨਾਲ ਰਹਿੰਦੇ ਹੋ."
"ਦੇਖ, ਤੂੰ ਗ਼ਲਤ ਸਮਝ ਰਿਹੈਂ। ਅਜਿਹੀ ਕੋਈ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਹੈਂ.."
"ਤੇ ਫੇਰ...? ਜੇਕਰ ਅਜਿਹੀ ਕੋਈ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਭੀਖ ਮੰਗ ਰਹੇ ਮੰਗਤੇ ਨੂੰ ਗਲ ਲਾ ਕੇ ਵਿਖਾ।"
"ਮੈਂ ਉਸਨੂੰ ਭੀਖ ਤਾਂ ਦੇ ਸਕਦਾਂ, ਪਰ ਇਸ ਗੰਦੇ ਮੰਗਤੇ ਨੂੰ ਕਿਸੀ ਕੀਮਤ ਤੇ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਲਾ ਸਕਦਾ। ਤੂੰ ਚਾਹੇਂ ਤਾਂ ਉਸਨੂੰ ਗਲ ਲਾ ਸਕਦੈਂ .. ਜਾਂ..."
ਇਹ ਸੁਣਦਿਆਂ ਹੀ ਕੁਰਤੇ ਵਾਲਾ ਨੌਜਵਾਨ ਮੰਗਤੇ ਵੱਲ ਵਧਿਆ ਅਤੇ ਉਸਨੂੰ ਗਲਵੱਕੜੀ ਪਾ ਲਈ. 
ਨੌਜਵਾਨ ਨੂੰ ਇੰਝ ਗਲਵੱਕੜੀ ਪਾਉਂਦਿਆਂ ਵੇਖ ਪਹਿਲਾਂ ਤਾਂ ਮੰਗਤਾ ਕੁਝ ਘਾਬਰ ਜਿਹਾ ਗਿਆ, ਫੇਰ ਕੁਝ ਸੰਭਲਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਬੋਲਿਆ, 
"ਬਾਊ ਜੀ, ਢਿੱਡ ਗਲਵੱਕੜੀ ਨਾਲ ਨੀ, ਰੋਟੀ ਨਾਲ ਭਰਦਾ ਹੈ... 'ਤੇ ਰੋਟੀ ਲਈ ਪੈਸੇ ਚਾਹੀਦੇ ਹੁੰਦੇ ਨੇ."
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(اردو ترجمہ)
3)
افسانچہ :دکھاوا
(ڈاکٹرستیش راج پشکرنا)
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ایک کوفی
ہاؤس کے باہر پڑے کرسی-میزوں پر بیٹھے چند نوجوان کافی پیتے ہوئے کسی موجو پر اونچی آواز میں بحس بھی کر رہے تھے . باہر سڈک پر ایک فقیر ہاتھ میں کاسہ پکڑے خیرات مانگنے کی غرض سے کھڈا تھا. انمیں سے ایک نوجوان جو کرتے-پیجاے میں ملبوص تھا، ایک سفارے سوٹ والے نوجوان سے بولا،
"تم سرمایادار لوگ مفلسوں کو دیکھنا بھی پسند نہیں کرتے ہو. تاہم ان مفلسوں کی وجہ سے ہی تم لوگ اتنے ٹھاٹھ-باٹ کی زندگی بسر کر رہے ہو."
" دیکھو،تم غلت سمجھ رہے ہو. ایسی کوئی بات نہیں ہے."
"تو پھر..؟ اگر ایسی کوئی بات نہیں ہے تو اس فقیر کو گلے سے لگاکر دکھاؤ ."
"میں اسکو خیرات تو دے سکتا ہوں، پر اس غلیز فقیر کو گلے نہیں لگا سکتا. تم چاہو تو اسے گلے لگا سکتے ہو...یا..."
یہ سنتے ہی کرتے والا نوجوان فقیر کی جانب بڑھا اور اسکو گلے لگا لیا. نوجوان کو یوں گلے سے لگاتے دیکھ فقیر پہلے تو کچھ گھبرایا، پھر خود کو سمھلتے ہوئے بولا،
بابو! پیٹ گلے لگانے سے نہیں روٹی سے بھرتا ہے، اور روٹی کے لئے پیسہ درکار ہوتا ہے."
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4) 
Pretense (Laghuktha) English 3rd nov, 2019 

Outside a Coffee-House, some of the youth were seated on the chairs and tables thus so arranged in the lobby. Along with having some coffee, they were arguing on some topic in a loud voice. A beggar with an intention to get some Alms, was standing outside on the main road, carrying a bowl in his hand. A young men in kurta-pajama angrily said to another young men who was in Safari suit, “ You Aristocrats! You don’t even like to look at the poor, although it is because of them only that you are able to have a luxurious life.”
“Noway ! This is not true. You are taking it wrongly.”
“Oh yeah! Really!”
“ If you really say so , then why don’t you go to that beggar and embrace him.”
“I will surely offer him Alms, but no any circumstances can embrace him. Instead if you so feel, you are free to do so. Else…”
As soon as he had finished saying this, the young men in kurta-pajama moved forward towards the beggar and immediately took him into his arms.
Astonished with such a sudden act of the youth, the beggar at first felt a bit hesitant, but then he gathered some confidence and said, “ Sir, One cannot fill his stomach by embracing anyone, rather only food can satisfy his hunger, and for this Money is must,”

Originally written by Dr. Satish Raj Pushkarna

Translated by Kalpana Bhatt
Dated: 3rd Nov, 2019

5) 
નાટક (લઘુકથા) ગુજરાતી

એક કોફી હોઉસે ની બહાર ની પોર્ચ માં સજાવેલ, કુર્સી અને ટેબલો ઉપર અમુક નવ-યુવક બેસેલ હતા તેઓ કોફી પીતાં-પીતાં કોઈ મુદ્દા પર જોર-જોર થી ચર્ચા કરી રહ્યા હતા,.બહાર મેન રોડ પર ભીખ મેળવાના ઉદ્દેશ્ય થી એક ભિખારી પોતાના હાથ માં એક વાટકો લઇને ઉભો હતો. તેમાં થી એક નવ-યુવક જેણે કુર્તા-પજામા પેહરેલ હતાં એ સફારી પેહરેલ એક બીજા નવ-યુવક ને કહ્યું," તમે પૂંજીપતિ લોકો! તમને તો ગરીબો તરફ જોવુંએ ન ગમે, જયારે આ ગરીબો ની મારફતજ તમે આવી જાહો-જલાલી માં રહી શકો છો. અન્યથા તો.."
"જો ભાઈ! આવું કયીંજ નથી, આ ધારણા તારી તદ્દન ખોટી છે."
"અચ્છા!"
"જો તું તારી વાત પર કાયમ છો તો સામે ઉભેલ ભિખારી ને આલિંગન કરીને દેખાડ ."
"એને હૂં નાણા આપી શકું, પરંતુ આવા ગંદા ભિખારી ને કોઈ પણ પરિસ્થિતિ માં આલિંગન તો ન જ કરી શકું. તારી ઈચ્છા હોય તો તું કરી આવ. અથવા તો..."
આ સાંભળતાંજ કુર્તા પેહરેલ નવ-યુવક લપકી ને એ ભિખારી પાસે ગયો અને એને પોતાના હૃદય થી લગાડી લીધું.
આવા પ્રકારતી આલિંગન થયેલ ભિખારી પેહલા તો થોડો ઘભ્રાયો, પણ થોડાજ ક્ષણોમાં એણે સ્વયમ ને સાંભળી લીધું અને એને કહ્યું, " સાહેબ , આલિંગન કરીને કોઈ દિવસ પેટ ભરાતું નથી, એની માટે રોટલો જોઈએ, અને રોટલા માટે નાણા જોઈએ."

મૂળ લઘુકથાકાર : દર. સતીશ રાજ પુષ્કરણા
અનુવાદ : કલ્પના ભટ્ટ
ભોપાલ

6) 
दिखावा (बृज भाषा)

एक कॉफी हॉउस के बाहर के बरामदा में कछु छोराएं वहाँ बिछी कुर्सी-टेबल पर बैठे हते। कॉफी पीते भये अमुक मुद्दा पे उनकी जोर-जोर सूं बहस भी चल रही हतीँ। बाहर मुख्य सड़क पे, भीख माँगवे काजे एक भिखमंगो हाथ में कटोरा लिये खड़ो हतो। कुर्ता-पजामा पहने भए एक छोरा ने सूट-बूट पहने भए छोरा सु कहन लग्यो," तुम्हारे जैसे पैसा वाले लोग, तुमलोग गरीबन कु देखनो भी पसन्द नही करो हो, जबकी इन्हींकी वजह सूं तुम सबरे इत्ते ठाठ-बाट सूं रह सकत हो। अन्यथा तो.."
"देखो! जे बात तो तुम्हारी बिलकुल जूठी है, ऐसो कछु नहीं है।"
"अच्छो! तो फिर।"
"जो तू साँची कह रह्यो है तो जा वा भिखमंगे कू गले लगाय आ। नहीं तो..."
"मैं वाकु पैसा भीख में दे सकूँ, पर वाकु गले तो कभी भी नहीं लगा सकूँगो। तेरी इच्छा होय तो तू ही लगा ले वाकू अपने गले।"
ये सुनते ही वो कृता वालो छोरा उठ्यो और लपकके वा भिखारी कू गले लगा लियो।
या प्रकार सूं गले लगावतो देख पहले तो वो भिखारी तनिक डर गयो पर कछु देर बाद वाने खुद कु संभलयों और वा कुर्ता वाले छोरा सूं कह्यी," बाबू! ऐसे गले लगावे सूं पेट कोइको पेट नहीँ भरे, वाके लिये रोटी चहिये, और रोटी के लानी पैसा चहिये।"
अनुवाद : कल्पना भट्ट

7 ) 
दिखावा (लघुकथा) (ढोंग)---दिनांक : ५ नोव्हेंबर २०१९ 

कॉफी-हाऊसच्या बाहेर लागलेल्या टेबल आणि खुर्च्यांवर काही तरुण कॉफी घेत मोठ्याने कुठल्या तरी विषयांवर वादविवाद करत होते. बाहेरच एक भिकारी हातात वाडगा धरुन भीक मागत उभा होता. त्या तरुणां मधे एक तरुण ज्याने साधारण कुर्ता पायजामा घातला होता, एक कोट-पेंट घातलेल्या दुस-या तरुणाला म्हणाला " तुम्ही भांडवलदार ह्या गरीब लोकांकडे पहाणे देखिल पसंत करत नाही." खरं तर तुम्ही ह्या लोकां मुळेच थाटात राहाता.
" हे बघ! ही तुझी चुकीची समजूत आहे."
"तर मग"
"जर तू खरा आहेस तर एक काम कर, त्या समोरच्या भिका-याला एक घट्ट मिठी मारुन दाखव."
"नाही! मी त्याला भीक घालिन पण कोणत्या ही परिस्थितीत मिठी ..अशक्य आहे हे. अरे! असे कर तूच घे ना त्याला मिठीत.."
हे ऐकता क्षणी कुर्ता-पायजामामधील तरुण धावत त्या भिकारी कडे गेला आणी आपले बाहू पसरून त्याला मिठीत घेतले.
एक क्षण तर तो भिकारी घाबरलाच, पण लगेच स्वत:ला सावरत म्हणाला.." बाबू! पोट मिठीत घेतल्याने नाही तर भाकरी च्या तुकड्याने भरत.. त्या करिता पैसा लागतो.
मूळ रचनाकार: डॉ सतीश राज पुष्करणा
अनुवाद: नयना(आरती)कानिटकर

8)

दिखावा(लघुकथा) दिनांक ५ नवम्बर २०१९
मगही अनुवाद- अभिलाषा सिंह (पटना)
एगो कॉफी हाउस के बाहर ओसारा में लगल मेज कुर्सियन पर बइठल कुछ युवक सब कॉफी पिये के साथे -साथे तनी जोर -जोर अवाज में कौनों विषय पर बहसो कर राहलखिन हल। बाहर में रोडबा पर एगो भिखारी हाथ में कटोरा ले के भीख ला खड़ा हलय। ऊ युवकवन में से एगो जे कुरता पैजामा पहिनले हलय ,ऊ सफारी-सूट पहनले युवकबा से कहे लगलै "तोहनी पूंजीपति लोग सब गरीबन के देखेला न चाहहु, जबकी इहे गरीबन के चलते तोहनी ई ठाट -बाट से रह हो,नैय त.…....
"देख अ!तू गलत समझ रहल ह ,बात अइसन नय है"
"त फेर?"अगर सच में अइसन बात नैय है त सामने भीख माँग रहल भिखारी के जाके गला से लगाके देखाब त।"
"ओकरा हम भीख तो दे सकलिओ ह,लेकिन ई घिनाएल
भिखरिया के अप्पन गला से कौनो कीमत पर नैय लगा सकलिओ ह।तू चाह ह त जाके ओकरा से गला मिल ल।"
एतना सुनते ही ऊ कुरता वाला युवक लपकके ऊ भिखारी दने बढ़ गेलै ।जैते ही ओकरा अप्पन
बाजू में भरके गले से लगा लेलकै।
ऊ युवकवा के ऐसे अप्पन गला से लगते देख के पहिले तो भिखरिया तनी घबरा गेलै,बाकी फेर तनी सँभलते कहलकै-"बाबू,पेटबा तो गला लगाबे से नैय, रोटी से भरतय ......आ रोटी लागी त पैसा चाही न।

9) 

मैथली भाषा

पड़ाव आ पड़ताल खण्ड 22
डॉ सतीशराज पुष्करणाक 66 लघुकथा आ हुनक पड़ताल सँ
लघुकथा क्रमांक -2 पेज 48
अभ्यासक्रम -०१ डॉ. सतीशराज पुष्करणा जीक लघुकथा सभ पर
दिखावा (लघुकथा)

एकटा कॉफ़ी हाउसक बाहर बरंडा मे लागल मेज-कुर्सी पर बैसल किछ युवक कॉफ़ी पीलाक संग-संग किछ ऊँच स्वर मे कोनो विषय पर बहस सेहो क' रहल छलाह। बाहर मेन रोड पर एकटा भिखमंगा हाथ मे कटोरा लेने भीखक उद्देश्य सँ ठाड़ छल| ओहि युवक सभ मे सँ एकटा युवक, जे कुर्ता-पैजामा पहिरने छला,एक सफारी सूट पहिरने युवक सँ कह' लागल, “तु पूंजीपति सभ गरीब-गुरबा केँ' देखनाय पसंद नहि करैत छ'|” जखन कि यैह गरीबक कारणेँ तु सभ एहि ठाठ-बाट सँ रहै छैं| नहि त'...|”
“देख! तु गलत बुझि रहल छैं | बात ऐहन नहि छैक|”
“तखन फेर”
“जौं सही मे एहन बात अछि, त' सोझा मे भीख माँगि रहल भिखमंगा केँ जा क' गरदनि सँ लगा क' देखा”
“ओकरा हम भीख त' द' सकैत छी, मुदा एहि मैल भिखारी केँ अपन गरदनि सँ कोनो कीमत पर नहि लगा सकै छी| तु चाहै छैं त' जा केँ ओकरा गरदनि सँ लगा| या...”
एतेक सुनिते कुर्ताधारी युवक लपकि क' ओहि भिखमंगा दिस बढि गेल आ जाइते ओकरा अपन बाँहि मे भरि गरदनि सँ लगा लेलक|
एहि तरहें युवक केँ अपन गरदनि लागैत देख पहिने त' भिखारी किछ डरा गेल, मुदा फेर किछ सम्हरैत बाजल, “ बाबु! पेट गरदनि लगेला सँ नहि रोटी सँ भरैत अछि... आ रोटी कलेल पाय चाही|”

डॉ. सतीशराज पुष्करणा
Originally written by Dr. Satish Raj Pushkarna
Translated by Shri Shivam Jha in Maithali

१०) 

भारत की एक और बोली है कच्छी जिसकी लिपि गुजराती ही होती है, इस भाषा में भी यह मेरा प्रथम प्रयास है

દેખાવો (લઘુકથા)
હકડે કોફી હોઉસ જી બાર જી લોબી મેં કુર્સી-ટેબલ સરખા ગોઠવાયેલા વા, હેન મત્થે અમુક યુવાન કોફી પીંધે-પીંધે અમુક વિષય તે વદડે અવાઝ
માં ચર્ચા કર્ધા વા. બાર મેન રોડ તે હકડો ભિખારી પોતેજે હથ મેં હકડો વાટકો પકડી ને ભીક મન્ગેલાય ઉભો વો. હેન મળે યુવાનો મેં હકડો સાધારણ જબ્ભે-પય્જામે વો ,હેનજી સામે હકડો પૈસા વાળો યુવાન સફારી મેં વો, પેલ્લો ગુસ્સે થી બોલ્યો,' આયીં મળે પૈસા વાળા ગરીબ સામે નેરેલાય કડે પણ તૈયાર નાથા થિયો, આયીં મળે ભૂલી વનોતા કે ગરીબ જેજ લીધે આયી મળે ઠાઠ થી રયી શકો તા.હી ન હોત તો...'
'ના, હેડો નાય, તું જે વિચારેતો ઈ તદ્દન ખોટો આય.'
'સચ્ચે! તો પછી કેડો આય?'
'જો તું સચ્ચો અયીયે તો હુડા વનીને ઉ ભિખારી કે બચ્ચી ભરીને અચ.'
'નેર , આઉ હેનકે ભીખ ડયી સકા, પણ હેટલે ગંદે ભિખારી કે બચ્ચી ન ભરી શકા.તું છુટ્ટો અયીએ, તોકે કરનું હોય તો કરી અચ, મૂંજી છૂટ આય, નયીતો..'
હેટલો સુણી ને જબ્ભો વાળો યુવાન ઉઠ્યો અને હેન ભિખારી પાસે વનીને બચ્ચી ભરયી.
એકદમ ઓચિંતો હેડો નેરીને ઉ ભિખારી પેલા તો થોડો ધારજી વ્યો પણ પછી પોતે કે સંભાળી ગણયી, અને બોલ્યો,' ભા, બચ્ચી ભરીને પેટ ના ભરાય, હેન લાય ખાધે જો ખપ્પે, રોટલા ખપ્પન, અને ખાદેલાય, પૈહ્યા ખપ્પન.'

મૂળ લેખક : ડોક્ટર. સતીશ રાજ પુષ્કરના
અનુવાદ; કલ્પના ભટ્ટ

11) 
दिनांक 5 नवम्बर 2019
* मूल लेखक डा.सतीश राज पुष्करणा
भोजपुरी अनुवाद नीतू सुदीप्ति 'नित्या'

'देखावा'

एगो कॉफी हॉउस के बहरी बरमदा में लागल टेबुल -कुरसी प बइठल कुछ नौजवान युवक कॉफी पीये के जवरे कुछु तेज आवाज में कवनो विषय प बहस करत रहन जा ।
बहरी सड़क प एगो भिखारी हाथ में कटोरा लेले भीख मांगे खातिर खाड़ रहे ।
ओह युवक में से एगो युवक जवन कुरता - पैजामा पहिनले रहे एगो सफारी सूट पहिनले युवक से कहल, "तू पूंजीपति लोग गरीबन के देखल तनिको ना पसन करेल जा । जबकि इहे गरीब लोग के चलते तू लोग एतना ठाठ - बाट से रहेल । ना त ...।"
"देख s, तू गलत समुझत बाड़ s । बात अइसन नइखे ।"
" त फिरू ।"
" जदी सच में अइसन बात बा, त सोझा भीख मांगत ऊ भिखारी के जाके गला लगा के देखाव s।"
"हम ओकरा के भीख दे सकत बानी, बाकिर एह गंदा भिखारी के अपना गला कवनो कीमत प नइखी लगा सकत । तू चाहत बाड़ s त जाके ओकरा गला मिल ल s । भा ...।
एतना सुनते ऊ कुरता पहिनल युवक लपक के ओह भिखारी के ओर बढ़ल आ जाते ही ओकरा के आपन बाँहि में भरि के गला से लगा लेलस ।
एह तरह युवक के अपना गला लगते देख पहिले त भिखारी कुछु घबराइल, बाकिर फेनु कुछु समहरते बोलल, "बाबू, पेट गला लागे से ना रोटी से भरेला ...। आ रोटी खातिर पइसा चाहीं ।"

12. 
in malyalam dated 5th nov 2019
കാണിക്കുക
ഒരു കോഫി ഹൗസിന് പുറത്ത്, വരാന്തയിലെ മേശക്കസേരയിൽ ഇരിക്കുന്ന ചില യുവാക്കൾ കാപ്പി കുടിക്കുന്നതിനൊപ്പം ചില വിഷയങ്ങളിൽ ഉച്ചത്തിലുള്ള ശബ്ദത്തിൽ തർക്കിച്ചുകൊണ്ടിരുന്നു. മെയിൻ റോഡിന് പുറത്ത്, ഭിക്ഷാടനത്തിനായി ഒരു ഭിക്ഷക്കാരൻ കയ്യിൽ ഒരു പാത്രവുമായി നിന്നു. കുർത്ത-പൈജാമ ധരിച്ച ഒരു യുവാവ് സഫാരി സ്യൂട്ട് ധരിച്ച യുവാവിനോട് പറഞ്ഞു, "മുതലാളിത്ത ജനങ്ങളേ നിങ്ങൾ ദരിദ്രരെ കാണാൻ ഇഷ്ടപ്പെടുന്നില്ല." ആകുക അല്ലെങ്കിൽ… ”
"നോക്കൂ! നിങ്ങൾ അത് തെറ്റായി മനസ്സിലാക്കുന്നു. ഇത് അങ്ങനെയല്ല. "
"പിന്നെ"
"ശരിക്കും അങ്ങനെയാണെങ്കിൽ, പോയി ഭിക്ഷക്കാരൻ നിങ്ങളുടെ മുൻപിൽ യാചിക്കുന്നത് കാണിക്കുക."
"എനിക്ക് അദ്ദേഹത്തിന് ദാനം നൽകാം, പക്ഷേ ഈ വൃത്തികെട്ട ഭിക്ഷക്കാരനെ എനിക്ക് എന്ത് വിലകൊടുത്തും സ്വീകരിക്കാൻ കഴിയില്ല. നിങ്ങൾക്ക് വേണമെങ്കിൽ പോയി അവനെ കെട്ടിപ്പിടിക്കുക. അല്ലെങ്കിൽ… ”
ഇതുകേട്ട കുർത്തയുമായി യുവാവ് ഭിക്ഷക്കാരന്റെ അടുത്തേക്ക് ഓടിക്കയറി കൈകളിൽ നിറച്ച് പോകുമ്പോൾ കെട്ടിപ്പിടിച്ചു.
അങ്ങനെ, യുവാവ് അവനെ കെട്ടിപ്പിടിക്കുന്നത് ആദ്യം കണ്ടപ്പോൾ യാചകന് അല്പം പരിഭ്രാന്തി വന്നു, പക്ഷേ അയാൾ "ബാബു! ആലിംഗനം അല്ല, ആമാശയം അപ്പം നിറയ്ക്കുന്നു ... ബ്രെഡിന് പണം ആവശ്യമാണ്.

13)
in Kannada dated 5th Nov 2019

ಪ್ರದರ್ಶಿಸಿ
ಕಾಫಿ ಮನೆಯ ಹೊರಗೆ, ವರಾಂಡಾದಲ್ಲಿ ಟೇಬಲ್-ಚೇರ್ಗಳ ಮೇಲೆ ಕುಳಿತಿದ್ದ ಕೆಲವು ಯುವಕರು ಕಾಫಿ ಕುಡಿಯುವುದರ ಜೊತೆಗೆ ಕೆಲವು ವಿಷಯದ ಬಗ್ಗೆ ದೊಡ್ಡ ಧ್ವನಿಯಲ್ಲಿ ವಾದಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. ಮುಖ್ಯ ರಸ್ತೆಯ ಹೊರಗೆ, ಭಿಕ್ಷುಕನ ಉದ್ದೇಶಕ್ಕಾಗಿ ಭಿಕ್ಷುಕನು ಕೈಯಲ್ಲಿ ಬಟ್ಟಲಿನೊಂದಿಗೆ ನಿಂತನು. ಕುರ್ತಾ-ಪೈಜಾಮ ಧರಿಸಿದ ಯುವಕರೊಬ್ಬರು, ಸಫಾರಿ ಸೂಟ್ ಧರಿಸಿದ ಯುವಕನಿಗೆ, "ನೀವು ಬೂರ್ಜ್ವಾಸಿ ಬಡವರನ್ನು ನೋಡಲು ಇಷ್ಟಪಡುವುದಿಲ್ಲ" ಎಂದು ಹೇಳಿದರು. ಆದರೆ ಈ ಬಡ ಜನರ ಕಾರಣದಿಂದಾಗಿ ನೀವು ಈ ಚಿಕ್ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ವಾಸಿಸುತ್ತಿದ್ದೀರಿ ಬಿ ಇಲ್ಲದಿದ್ದರೆ… ”
"ನೋಡಿ! ನೀವು ಅದನ್ನು ತಪ್ಪಾಗಿ ಪಡೆಯುತ್ತಿದ್ದೀರಿ. ಈ ರೀತಿಯಾಗಿಲ್ಲ. "
"ನಂತರ"
"ಅದು ನಿಜವಾಗಿದ್ದರೆ, ಹೋಗಿ ಭಿಕ್ಷುಕ ಭಿಕ್ಷಾಟನೆಯನ್ನು ನಿಮ್ಮ ಮುಂದೆ ತೋರಿಸಿ."
"ನಾನು ಅವನಿಗೆ ಭಿಕ್ಷೆ ನೀಡಬಲ್ಲೆ, ಆದರೆ ಈ ಕೊಳಕು ಭಿಕ್ಷುಕನನ್ನು ನಾನು ಯಾವುದೇ ವೆಚ್ಚದಲ್ಲಿ ಸ್ವೀಕರಿಸಲು ಸಾಧ್ಯವಿಲ್ಲ. ನಿಮಗೆ ಬೇಕಾದರೆ, ಹೋಗಿ ಅವನನ್ನು ತಬ್ಬಿಕೊಳ್ಳಿ. ಅಥವಾ… ”
ಇದನ್ನು ಕೇಳಿದ ಕುರ್ತಾ ಹೊಂದಿದ್ದ ಯುವಕ ಭಿಕ್ಷುಕನ ಕಡೆಗೆ ಧಾವಿಸಿ ಅದನ್ನು ತನ್ನ ತೋಳುಗಳಲ್ಲಿ ತುಂಬಿಸಿ ಅವನು ಹೋಗುತ್ತಿದ್ದಂತೆ ತಬ್ಬಿಕೊಂಡನು.
ಹೀಗೆ, ಮೊದಲು ಯುವಕನು ಅವನನ್ನು ತಬ್ಬಿಕೊಳ್ಳುವುದನ್ನು ನೋಡಿದ ಭಿಕ್ಷುಕನಿಗೆ ಸ್ವಲ್ಪ ಬೇಸರವಾಯಿತು, ಆದರೆ ನಂತರ ಅವನು "ಬಾಬು! ಹೊಟ್ಟೆಯು ಬ್ರೆಡ್ನಿಂದ ತುಂಬುತ್ತದೆ, ತಬ್ಬಿಕೊಳ್ಳುವುದರಿಂದ ಅಲ್ಲ ... ಮತ್ತು ಬ್ರೆಡ್ಗೆ ಹಣದ ಅಗತ್ಯವಿದೆ. "

14 
in Tamil

காட்டு
ஒரு காபி ஹவுஸுக்கு வெளியே, வராண்டாவில் மேஜை நாற்காலிகளில் அமர்ந்திருந்த சில இளைஞர்கள் காபி குடித்துக்கொண்டிருந்தார்கள், அதே போல் ஏதோ ஒரு தலைப்பில் உரத்த குரலில் வாதிட்டனர். பிரதான சாலையில் வெளியே, ஒரு பிச்சைக்காரன் பிச்சை எடுக்கும் நோக்கத்திற்காக கையில் ஒரு கிண்ணத்துடன் நின்றான். குர்தா-பைஜாமா அணிந்திருந்த இளைஞர்களில் ஒருவர், சஃபாரி சூட் அணிந்த இளைஞரிடம், "நீங்கள் முதலாளித்துவ மக்கள் ஏழைகளைப் பார்க்க விரும்பவில்லை" என்று கூறினார். உள்ளன | இல்லையென்றால்… ”
"பாருங்கள்! நீங்கள் அதை தவறாகப் பெறுகிறீர்கள். இது அப்படி இல்லை. "
"பின்னர்"
"உண்மையில் அப்படி இருந்தால், போய் பிச்சைக்காரன் உங்கள் முன் பிச்சை எடுப்பதைக் காட்டு."
"நான் அவருக்கு பிச்சை கொடுக்க முடியும், ஆனால் இந்த அழுக்கு பிச்சைக்காரனை எந்த விலையிலும் என்னால் தழுவ முடியாது. நீங்கள் விரும்பினால், சென்று அவரை அணைத்துக்கொள்ளுங்கள். அல்லது… ”
இதைக் கேட்டதும், குர்தாவுடன் வந்த இளைஞன் பிச்சைக்காரனை நோக்கி விரைந்து வந்து அதை தன் கைகளில் நிரப்பி அவன் போகும்போது கட்டிப்பிடித்தான்.
இவ்வாறு, முதலில் அந்த இளைஞன் அவரைக் கட்டிப்பிடிப்பதைப் பார்த்ததும், பிச்சைக்காரன் கொஞ்சம் பதற்றமடைந்தான், ஆனால் பின்னர் அவன், “பாபு! கட்டிப்பிடிப்பதன் மூலம் அல்ல, வயிற்றை ரொட்டியால் நிரப்புகிறது ... மேலும் ரொட்டிக்கு பணம் தேவைப்படுகிறது

15)
In Telugu

చూపించు

ఒక కాఫీ హౌస్ వెలుపల, వరండాలోని టేబుల్-కుర్చీలపై కూర్చున్న కొంతమంది యువకులు కాఫీ తాగుతూ, కొన్ని అంశాలపై పెద్ద గొంతులో వాదిస్తున్నారు. ప్రధాన రహదారి వెలుపల, యాచించే ఉద్దేశ్యంతో ఒక బిచ్చగాడు చేతిలో ఒక గిన్నెతో నిలబడ్డాడు. కుర్తా-పైజామా ధరించిన యువకులలో ఒకరు సఫారీ సూట్ ధరించిన యువకుడితో, "మీరు బూర్జువా పేదలను చూడటం ఇష్టం లేదు" అని అన్నారు. అయితే ఈ పేద ప్రజల కారణంగా మీరు ఈ చిక్ పద్ధతిలో నివసించారు ఉన్నాయి | లేకపోతే… ”
"చూడండి! మీరు తప్పు చేస్తున్నారు. ఇది అలా కాదు. "
"అప్పుడు"
"అది నిజంగా అలా అయితే, వెళ్లి మీ ముందు బిచ్చగాడు యాచించడాన్ని చూపించు."
"నేను అతనికి భిక్ష ఇవ్వగలను, కాని నేను ఈ మురికి బిచ్చగాడిని ఏ ధరనైనా స్వీకరించలేను. మీకు కావాలంటే, వెళ్లి అతన్ని కౌగిలించుకోండి. లేదా… ”
ఇది విన్న కుర్తాతో ఉన్న యువకుడు బిచ్చగాడి వైపు పరుగెత్తుకుంటూ చేతుల్లో నింపి వెళ్ళేటప్పుడు కౌగిలించుకున్నాడు.
ఆ విధంగా, మొదట ఆ యువకుడు తనను కౌగిలించుకోవడం చూసి, బిచ్చగాడు కొంచెం భయపడ్డాడు, కాని అప్పుడు అతను "బాబు! కడుపు రొట్టెతో నింపుతుంది, కౌగిలించుకోవడం ద్వారా కాదు ... రొట్టెకి డబ్బు అవసరం. "

16) 
दिखावा लघुकथा (हरियाणवी) 


एक बै दो छोरे एक ढ़ाबे पै चाय पीण लाग रे थे अर जोर जोर त बहस कर रे थे। अर ढ़ाबे के साम्ही ही एक भीख मांगल आळा खड़ा था। बिचारा भीख की आस में था। 
उन दोनों छोरां ने उस भिखारी को देख्या अर आपस में कहण लागे... 
एक छोरा जो सादा-भोला दिख्ये था अपणे कपड़े लत्ते ते वो बोल्या दूसरे छोरे ते जो अपटूडेट बण रह्या था सूट-बूट पहण के - के भाई तम बड़े लोग(यानी पींस्यां आळे लोग) ते इन गरीब आदमियां ने देख के कति राज्जी कोन्या जबकि ये ही गरीब लोग थारे कारखाने में काम करके तमने बड़े साहब बणावं हैं। 
उसकी बात सुणके वो सूट-बूट आळा छोरा बोल्या - दखे भाई इसी बात ना से। 
त फैर किसी बात सै भाई - कुड़ता पजामे आळा छोरा बोल्या .. जै इसी बात ना सै त उस भिखारी कै जा के गले मिल के दिखा। 
सूट-बूट आळा बोल्या- भाई देख, मैं उसने भीख दे सकूं हूं पर इन गंदे कपड़्यां में अपने गले ना ला सकता। तनै गले मिलना से तो जा कै मिल ले भाई। 
इतणी सुणते ही कुड़ते-पजामे आळा छोरा भाजकै उस भिखारी कै गले लाग्या। भिखारी पहलां तै थोड़ा डरग्या फैर बोल्या - ओ बाबू जी.. गले मिलकै म्हारा पेट कोन्या भरैगा, पेट भरण तईं पईसा चाहिए सै। 

डॉ़ सतीशराज पुष्करणा जी ( लिखने वाले) 
हरियाणवी में रूपांतरित करण आळी प्रवीन मलिक बेबे

17)

बंगला अनुवाद
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একটি কাফী হাউসের বারান্দার আগে রাখা কুর্সি আর টেবিলে বোসে অনেক যুবক জোর জোর করে কিছু টপিক উওপর চর্চা করছিলেন।
হঠাৎ বাইরে মেন রোড উপরের একটি ভিখারী হাথে বাটি নিয়ে ভিক্ষার উদেশায় দাড়িয়ে ছিলো।
সেই যুবককে মধায় এক যুবক কুর্তা পায়জামা পড়ে ছিলো, এক সাফারী সুট পড়া যুবক কে বলে,", তোর মতন ক্যাপিটালিস্ট লোগ গরীব জন কে দেখতে চাও না "।
তোমরা এই গরীব লোকের জন্য হী খুব আরাম করে থাকো বর্না,,,, ।
অন্ন বন্দু বলেন "দেখো! তুমি আমাকে ভুল বুঝছো। ইমানী কিছু ব্যাপার নয়"।
"তো"
"যদি কোনো কোথায় নেই, তো সামনে দাঁড়িয়ে ভিখারী কে হাক করতে পারেন।
না আমি কোনও কোস্ট গলা লাগতে পারবো কিন্তু যদি তুমি চাও তুম ওকে হাক কর যা,,,"
হঠাৎ উর কথা সুনে কুর্তা পায়জামা পড়ে জে যুবক টি ছিলো সে ঊঠ জয়ে আর ভিখারীর কাছে যায় আর ওকে ধরে নিয়ে নিজের আলিঙ্গন পাশে বন্ধে রাখে । কুর্তা পড়ে যুবক কে আলিঙ্গন করতে দেখে ভিখারী ভয় পেয়ে গেল আর মুখ সমলিয় বলে,",

বাবু! আমার পেট গলা জড়িয়ে লাগলে ভরবে না,,, আমকে রুটি জন্য পৌয়েশা চাই।"

संजू शरण (पटना)

बुधवार, 6 नवंबर 2019

वेबदुनिया पर मेरी छः लघुकथाएं






लघुकथा : बदले का हस्ताक्षर / चंद्रेश कुमार छतलानी

पिताजी का हृदयाघात से निधन होने से पूर्व उनके कहे हुए ये शब्द आज उसके जेहन में जैसे हथौड़े मार रहे थे, 'अकाउंट्स के बाबू ने मेरे जमा कराए हुए रुपयों की बिना हस्ताक्षर की जाली रसीद दे दी और झूठ बोल दिया कि रुपए जमा नहीं कराए।
मेरी जगह तुझे नौकरी मिलेगी, उसे जवाब जरूर देना...।'

अपने पिताजी को तो उसने पहले ही सच्चा साबित कर दिया था और आज जवाब देने का समय आ गया था, वही बाबू उसके सामने हाथ जोड़े अपनी पेंशन और ग्रेच्युटी के अंजाम को सोच डरा हुआ खड़ा था।

उसने दराज से फाइल निकाली और एक चेक पर हस्ताक्षर कर उसे दे दिया। चेक को देख उस बाबू की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, वो पूरी राशि का था।

बाबू ने उसके पैर छू लिए और कहा, 'सर, आपने मुझे माफ कर दिया... आप हस्ताक्षर न करते तो मैं और मेरा परिवार भूखो मर जाता।'

'मेरे पिताजी ने मुझे किसी को गलत तरीके से मारने के संस्कार नहीं दिए, मेरा यह हस्ताक्षर ही उनका प्रत्युत्तर है।' यह कहकर वो चला गया।

और बाबू वहीं खड़ा बदला लेने का अर्थ समझने की कोशिश करने लगा। 
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Source:
https://hindi.webdunia.com/hindi-stories/short-story-laghukatha-115122400060_1.html


लघुकथा : कीमत / चंद्रेश कुमार छतलानी  

दिन उगते ही अखबार वाला हमेशा की तरह अखबार फेंककर चला गया। देखते ही लॉन में बैठे घर के मालिक ने अपने हाथ की किताब को टेबल पर रखा और अखबार उठाकर पढ़ने लगा। चाय का स्वाद अखबार के समाचारों के साथ अधिक स्वादिष्ट लग रहा था। लंबे-चौड़े अखबार ने गर्वभरी मुस्कान के साथ छोटी-सी किताब को देखा, किताब ने चुपचाप आंखें झुका लीं।

घर के मालिक ने अखबार पढ़कर वहीं रख दिया, इतने में अंदर से घर की मालकिन आई और अखबार को पढ़ने लगी, उसने किताब की तरफ देखा भी नहीं। अखबार घर वालों का ऐसा व्यवहार देखकर फूलकर कुप्पा नहीं समा रहा था। हवा से हल्की धूल किताब पर गिरती जा रही थी।

घर की मालकिन के बाद घर के बेटे और उसकी पत्नी ने भी अखबार को पढ़ा। शाम तक अखबार लगभग घर के हर प्राणी के हाथ से गुजरते हुए स्वयं को सफल और उपेक्षित किताब को असफल मान रहा था।

किताब चुपचाप थी कि घर का मालिक आया और किताब से धूल झाड़कर उसे निर्धारित स्थान पर रख ही रहा था कि किताब को पास ही में से कुछ खाने की खुशबू आई, जो उसी अखबार के एक पृष्ठ में लपेटे हुए थी और घर का सबसे छोटा बच्चा अखबार के दूसरे पृष्ठ को फेंककर कह रहा था, 'दादाजी, इससे बनी नाव तो पानी में तैरती ही नहीं, डूब जाती है।'
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Source:
https://hindi.webdunia.com/article/116021200036_1.html



लघुकथा : सिर्फ चाय / चंद्रेश कुमार छतलानी

'सवेरे गुड़िया के कारण देर हो गई, बेटा होता तो तैयार होने में इतना समय थोड़े ही लगाता। दिन में भी इसी परेशानी से काम में गड़बड़ हो गई और बॉस की बातें सुननी पड़ीं, पूरे दिन में सिर्फ तीन बार चाय पी है, खाना खाने का भी समय नहीं मिला। अब ठंड इतनी हो रही है और गर्म टोपी और दस्ताने भी भूल गया।'
सर्द सांझ में थरथराते हुए अपनी इन सोचों में गुम वो जा रहा था कि अनदेखी के कारण अचानक उसकी मोटरसाइकल एक छोटे से गड्ढे में जाकर उछल गई और वो गिर पड़ा। हालांकि न तो मोटरसाइकल और न ही उसे चोट आई, लेकिन उसके क्रोध में वृद्धि होना स्वाभाविक ही था।

घर पहुंचते ही उसने गाड़ी पटक कर रखी, आंखें गुस्से में लाल हो रही थीं, घंटी भी अपेक्षाकृत अधिक बार बजाई। दरवाजा उसकी बेटी ने खोला, देखते ही उसका चेहरा तमतमा उठा।

लेकिन अपने पिता को देखकर बेटी उछल पड़ी और उसके गले लगकर कहा, 'डैडी, आज मैंने चाय बनाना सीख ली। आप बैठो, मैं सबसे पहले आपको ही चाय पिलाऊंगी।'

और अचानक से उसके नथूने चाय की गंध से महकने लगे।
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https://hindi.webdunia.com/hindi-stories/laghu-katha-115122400058_1.html


लघुकथा : नश्वर से प्रेम / चंद्रेश कुमार छतलानी

'अंधकार अब तू जा...' उगते हुए सूर्य ने गर्व से कहा।

अंधकार खामोश और स्थिर रहा।

'मेरी रोशनी तुझे खत्म कर देगी...।'

'.........'

सूर्य की किरणें अंधेरे को चीरते हुए आगे बढ़ीं, लेकिन रास्ते में जो कोई वस्तु-व्यक्ति आया उनसे टकराकर खत्म हो गईं और उनकी छाया में दिखाई दे रहा अंधकार अपने अमरत्व पर मुस्कुरा रहा था।


लेकिन कई इंसानों की आंखें तब भी रोशनी की तलाश कर रही थीं।
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Source:
https://hindi.webdunia.com/hindi-stories/surya-or-andhera-116021200037_1.html


लघुकथा : आत्ममुग्धता / चंद्रेश कुमार छतलानी

एक सेमिनार में विद्यार्थियों के समक्ष एक विशेषज्ञ ने कांच के तीन गिलास लिए। एक गिलास में मोमबत्ती जलाई, दूसरे में थोड़ी शराब डाल कर उसमें पानी और बर्फ के दो टुकड़े डाल दिए और तीसरे में मिट्टी में लगाया हुआ एक छोटा सा पौधा रख दिया।

फिर सभी की तरफ हाथ से इशारा कर पूछा, "आप सभी बताइए, इनमें से सबसे अच्छा क्या है?"
अधिकतर ने एक स्वर में कहा, "पौधा..."
"क्यों?"
"क्योंकि प्रकृति सबसे अच्छी है" विद्यार्थियों में से किसी ने उत्तर दिया

उसने फिर पूछा, "और इनमें से सबसे बुरी चीज क्या है?"

अधिकतर ने फिर एक साथ कहा, "शराब" 
"क्यों?">
"क्योंकि नशा करती है" कुछ विद्यार्थी खड़े हो गए।


"और सबसे अधिक समर्पित?"> 
"मोमबत्ती.." इस बार स्वर अपेक्षाकृत उच्च था।

वह दो क्षण चुप रहा, फिर कहा, "सबसे अधिक समर्पित है शराब..."
सुनते ही सभा में निस्तब्धता छा गई, उसने आगे कहा, "क्योंकि यह किसी के आनंद के लिए स्वयं को पूरी तरह नष्ट करने हेतु तैयार है।"

फिर दो क्षण चुप रहकर उसने कहा "और सबसे अधिक अच्छी है मोमबत्ती, क्योंकि उसकी रौशनी हमें सभी रंग दिखाने की क्षमता रखती है। पूर्ण समर्पित इसलिए नहीं, क्योंकि इसके नष्ट होने में समाप्ति के बाद अच्छा कहलवाने की आकांक्षा छिपी है।"

सभा में विद्यार्थी अगली बात कहने से पूर्व ही समझ कर स्तब्ध हो रहे थे, और आखिर प्रोफेसर ने कह ही दिया, "इन तीनों में से सबसे बुरी चीज है यह पौधा... सभी ने इसकी प्रशंसा की... जबकि यह अधूरा है, पानी नहीं मिलेगा तो सूख जाएगा। "

"लेकिन इसमें बुरा क्या है?" एक विद्यार्थी ने प्रश्न किया

"अधूरेपन को भूलकर, केवल प्रशंसा सुनकर स्वयं को पूर्ण समझना।" प्रोफेसर ने पौधे की झूमती पत्तियों को देखकर कहा।

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Source:
https://hindi.webdunia.com/hindi-stories/short-story-116041200044_1.html


बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

लघुकथा: बहादुरी | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




विद्यालय में प्रार्थना के बाद पहला कालांश प्रारंभ होने ही वाला था कि वह इधर-उधर देखता हुआ शौचालय में गया। अंदर जाकर कर भी उसने चारों तरफ नज़र घुमाई, किसी को न पा कर, अपनी जेब में हाथ डाला और अस्थमा का पम्प निकाल कर वो पफ लेने ही वाला था कि बाहर आहट हुई, उसने जल्दी से पम्प फिर से जेब में डाल दिया।

शौचालय में उसी की कक्षा का एक विद्यार्थी रोहन आ रहा था, कई दिनों बाद रोहन को देख वह एकदम पहचान नहीं पाया, उसने ध्यान से देखा, रोहन के पीले पड़े चेहरे पर कई सारे दाग भी हो गये थे और काफी बाल भी झड़ गये थे। उसने चिंतित स्वर में पूछा, "यह क्या हुआ तुझे?"
"बहुत बीमार हो गया था।"
"ओह, लेकिन इस तरह स्कूल में आया है? कम से कम कैप तो लगा लेता।"
"क्यों? जैसा मैं हूँ वैसा दिखने में शर्म कैसी?"
यह शब्द सुनते ही कुछ क्षण वह हतप्रभ सा रह गया, और फिर लगभग भागता हुआ शौचालय से बाहर मैदान में गया, अस्थमा का पम्प जेब से निकाल कर पहली बार सबके सामने पफ लिया और खुली हवा में ज़ोर की सांस ली।
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हिंदी लेखनी पर मेरी दो लघुकथाएं


हिंदी लेखनी (hindilekhani.com) मेरी दो लघुकथाओं अदृश्य जीत औरआतंकवादी का धर्म  को स्थान मिला है।  इन्हें हिंदी लेखनी के निम्न लिंक पर पढ़ा जा सकता है:

अदृश्य जीत / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
https://www.hindilekhani.com/23409/

आतंकवादी का धर्म  / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
https://www.hindilekhani.com/22679/


इन लघुकथाओं को लघुकथा दुनिया पर भी पढ़ सकते हैं:

आतंकवादी का धर्म

वो चारों यूं तो अलग-अलग सम्प्रदायों से थे, लेकिन उन्हें सिखाया गया था कि उनका धर्म लोगों को मारना-काटना ही है। आज भी वो चारों एक साथ इसी इरादे से निकले। 

मार-काट करते हुए आगे बढ़ ही रहे थे कि एक का धर्म-स्थल आया, उसने वहां मार-काट करने के लिये मना किया तो बाकी तीन ने उसी को काट कर वहाँ मार-काट मचा दी। 

फिर कुछ और आगे बढे तो दूसरे का पूजा-घर आया, उसने मना किया तो बाकी दो ने उसकी हत्या कर वहाँ मार-काट की।

थोड़ा और आगे जाने पर तीसरे का प्रार्थना-स्थल आया, उसने मना किया तो चौथे ने उसका गला काट कर अकेले ही वहाँ मार-काट कर दी।

चौथा और आगे बढ़ा तो उसका अपना धार्मिक-स्थल आया, वो वहाँ से चुपचाप सिर झुका कर आगे निकल ही रहा था कि पीछे से एक गोली चली और उसकी पीठ के रास्ते सीने में धंस गयी।

मरते-मरते उसने पीछे देखा तो उसकी आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयी, उसे गोली मारने वाला एक राजनेता था, जिसे उसने हर धार्मिक-स्थल पर सबसे पहले भागते हुए देखा था।
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अदृश्य जीत को यहाँ पर क्लिक / टैप कर पढ़ा जा सकता है:
https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/06/blog-post_20.html