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शनिवार, 12 अक्टूबर 2019

मेरी एक लघुकथा उत्तराखंड मिरर में

जीत / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



“यह मार्मिक छायाचित्र हमारे देश के उच्च कोटि के फोटोग्राफर रोशन बाबू ने लिया है, इसमें पंछियों के जोड़े में से एक की मृत्यु हो गयी है और दूसरा चीत्कार कर रहा है।“

नेपथ्य से आती आवाज़ के साथ मंच में पीछे रखी बड़ी सी स्क्रीन पर रोते हुए एक पंछी का चित्र दिखाई देने लगा जिसका साथी मरा हुआ पड़ा था।

अब फिर से आवाज़ गूंजी, “मित्रों, यह लव-बर्ड हैं, इनके जोड़े में से जब कोई भी एक पंछी मर जाता है, तो दूसरा भी जीवित नहीं रह सकता। एक सच्चा कलाकार ही इस दर्द का चित्रण कर सकता है। निर्णायकों द्वारा इसी चित्र को इस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ छायाचित्र घोषित किया गया है। रोशन बाबू को बहुत बधाई।”

घोषणा होते ही पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान हो उठा, रोशन बाबू का पिछले कई वर्षों का सपना पूरा हो गया था, और उनकी ख़ुशी का पारावार नहीं था।

हॉल में पहली पंक्ति पर बैठा रोशन बाबू के परिवार के हर सदस्य का चेहरा खिल उठा था, लेकिन वह चित्र देखते ही वहीँ बैठी उनकी बेटी की भी रुलाई छूट गयी। तीन महीने तक वह उन पंछियों के साथ खेली थी, और एक दिन रोशन बाबू ने उनमें से एक का गला घोंट दिया।

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Source:
http://www.uttarakhandmirror.com/literature/prose-collection/win/

गुरुवार, 10 अक्टूबर 2019

लघुकथा: जंगल की इज्जत | मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

सारा आदिवासी समुदाय फ़ॉरेस्ट ऑफिसर के अत्याचारों से कराह रहा था । वो जब भी जंगल में राउंड मारने आता, तब ही उसे एक नई लड़की चाहिए होती। जंगल की इज्ज़त खतरे में पड़ गई । इस बार उसकी नजर हिरनो पर पड़ी । हिरनो साँवली जरूर थी, पर उसके जैसा सुंदर - भरा हुआ बदन शायद ही पूरे आदिवासी समुदाय की किसी लड़की का हो । उसकी सुंदरता पर लट्टू होकर ही फिल्मनिर्माता रघुवर कपूर ने उसे अपनी आगामी फिल्म ऑफर की थी, परन्तु हिरनो अपना गाँव नहीं छोड़ना चाहती थी और इसी वजह से उसने रघुवर कपूर का ऑफर ठुकरा दिया । खैर रघुवर कपूर अपना प्रोजेक्ट पूरा करके मुंबई चले गये और जाते-जाते अपना कार्ड दे गये, ताकि जब कभी हिरनो का मन फिरे तो वह सीधे मुंबई चली आये । लेकिन हिरनो का मन कभी फिरा नहीं ।

देर रात चार-पाँच जल्लाद खाकी पहने, नकाब से चेहरा ढके हिरनो की झोपड़ी में कूद गये और उसे जबरन उठाकर फोरेस्ट अॉफीसर के सामने पटक दिया । सारी रात सरकारी गैस्ट हाउस हिरनो की दर्दभरी चीखों से गूंजता रहा । सुबह उसकी लाश झरने के पानी में तैरती हुई देखी गई... ।

पुलिस रिकार्ड के अनुसार, हिरनो जब झरने से पानी लेने गई होगी तब उसका पैर फिसल गया होगा और वो गहरे पानी में चली गई होगी । इसतरह पानी में डूबने से उसकी मृत्यु हो गई । और इसी के साथ हिरनो की फाइल बंद हो गई । न जाने ऐसी कितनी अनगिनत हिरनो सरकारी फाइलों में दबकर दफन हो चुकी हैं । 

लेकिन जंगल की इज्जत के साथ यह खेल आज भी अनवरत चल रहा है और पता नहीं ये कब तक चलता रहेगा... ।

- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा, 283111

मंगलवार, 8 अक्टूबर 2019

दशहरा विशेष दो लघुकथाएं | डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी


1)
रावण का चेहरा / डॉ०  चंद्रेश कुमार छतलानी 

हर साल की तरह इस साल भी वह रावण का पुतला बना रहा था। विशेष रंगों का प्रयोग कर उसने उस पुतले के चेहरे को जीवंत जैसा कर दिया था। लगभग पूरा बन चुके पुतले को निहारते हुए उसके चेहरे पर हल्की सी दर्द भरी मुस्कान आ गयी और उसने उस पुतले की बांह टटोलते हुए कहा, "इतनी मेहनत से तुझे ज़िन्दा करता हूँ... ताकि दो दिनों बाद तू जल कर खत्म हो जाये! कुछ ही क्षणों की जिंदगी है तेरी..."

कहकर वह मुड़ने ही वाला था कि उसके कान बजने लगे, आवाज़ आई,
"कुछ क्षण?"
वह एक भारी स्वर था जो उसके कान में गुंजायमान हो रहा था, वह जानता था कि यह स्वर उसके अंदर ही से आ रहा है। वह आँखें मूँद कर यूं ही खड़ा रहा, ताकि स्वर को ध्यान से सुन सके। फिर वही स्वर गूंजा, "तू क्या समझता है कि मैं मर जाऊँगा?"

वह भी मन ही मन बोला, "हाँ! मरेगा! समय बदल गया है, अब तो कोई अपने बच्चों का नाम भी रावण नहीं रखता।"

उसके अंदर स्वर फिर गूंजा, "तो क्या हो गया? रावण नहीं, अब राम नाम वाले सन्यासी के वेश में आते हैं और सीताओं का हरण करते हैं... नाम राम है लेकिन हैं मुझसे भी गिरे हुए..."

उसकी बंद आँखें विचलित होने लगीं और हृदय की गति तेज़ हो गयी उसने गहरी श्वास भरी, उसे कुछ सूझ नहीं रहा था, स्वर फिर गूंजा, "भूल गया तू, कोई कारण हो लेकिन मैनें सीता को हाथ भी नहीं लगाया था और किसी राम नाम वाले बहरूपिये साधू ने तेरी ही बेटी..."

"बस...!!" वह कानों पर हाथ रख कर चिल्ला पड़ा।

और उसने देखा कि जिस पुतले का जीवंत चेहरा वह बना रहा था, वह चेहरा रावण का नहीं बल्कि किसी ढोंगी साधू का था।
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2)

दंगे की जड़ / डॉ०  चंद्रेश कुमार छतलानी 

आखिर उस आतंकवादी को पकड़ ही लिया गया, जिसने दूसरे धर्म का होकर भी रावण दहन के दिन रावण को आग लगा दी थी। उस कृत्य के कुछ ही घंटो बाद पूरे शहर में दंगे भड़क उठे थे।

आतंकवादी के पकड़ा जाने का पता चलते ही पुलिस स्टेशन में कुछ राजनीतिक दलों के नेता अपने दल-बल सहित आ गये, एक कह रहा था कि उस आतंकवादी को हमारे हवाले करो, हम उसे जनता को सौंप कर सज़ा देंगे तो दूसरा उसे न्यायालय द्वारा कड़ी सजा देने पक्षधर था, वहीँ तीसरा उस आतंकवादी से बात करने को उत्सुक था।

शहर के दंगे ख़त्म होने की स्थिति में थे, लेकिन राजनीतिक दलों के यह रुख देखकर पुलिस ने फिर से दंगे फैलने के डर से न्यायालय द्वारा उस आतंकवादी को दूसरे शहर में भेजने का आदेश करवा दिया और उसके मुंह पर कपड़ा बाँध, छिपा कर बाहर निकालने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि एक राजनीतिक दल के लोगों ने उन्हें पकड़ लिया।

उनका नेता भागता हुआ आया, और उस आतंकवादी से चिल्ला कर पूछा, "क्यों बे! रावण तूने ही जलाया था?" कहते हुए उसने उसके मुंह से कपड़ा हटा दिया।

कपड़ा हटते ही उसने देखा लगभग बारह-तेरह वर्ष का एक लड़का खड़ा था, जो चेहरे से ही मंदबुद्धि लग रहा था।

और वह लड़का आँखें और मुंह टेड़े कर के चेहरे के सामने हाथ की अंगुलियाँ घुमाते हुए हकलाते हुए बोला,
"
हाँ...! मैनें जलाया है... रावन को, क्यों...क्या मैं... राम नहीं बन सकता?"
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सोमवार, 7 अक्टूबर 2019

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा की दो लघुकथाएं : 1. कसक 2. अंगद का पांव

1)
कसक / सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 



दिन ढले काफी देर हो चुकी थी ।

शाम, रात की बाहों में सिमटने को मजबूर थी । वो कमरे में अकेला था । सोफे का इस्तमाल बैड की तरह कर लिया था उसने आदतन अपने मोबाईल पर पुरानी फिल्मों के गाने सुनकर रात के बिखरे  अन्धेरे में उसे  मासूमियत पसरी सी लगी । वो उन गानों के सुरीलेपन के बीच अपने तल्ख हुए सुरीले अतीत में खो गया । मस्तिष्क के कोटरो में वे कोमल और संगीतमय पल फिर से जीवन्त हो उठे जो उसने , उसके साथ पूरे समर्पण भाव से गुजारे थे । वो बड़ी शीद्द्त से उसकी क्रिया पर अपनी ओर से सकारत्मक और ह्रदय में उतर जाने वाली प्रतिक्रिया देती थी । उन दिनो उसे  कभी लगता ही नहीं था कि जीवन में वो उससे कभी अलग भी हो सकता है । 

कहते हैं न कि समय कभी स्थिर रह पाता तो फिर प्रक्रती के काल चक्र को हर कोई अपनी मुट्ठियों में ही कैद  कर बैठ जाता । 

हालात कुछ एसे अनहोने बने कि उसकी लाख कोशिशों के बाद भी वो उससे अलग हुई और एसी अलग हुई कि फिर उसने कभी वापस मुड़कर उसकी नजरों का सामना नहीं किया । 

वो जल बिन मछली की तरह छटपटा कर रह गया  ।

समय के साथ भले ही उसकी छपटाहट  में कुछ कमी आ गयी  पर अलगाव के इतने सारे साल बीत जाने के बाद भी उसे बहुत बार लगता कि  बीते हुए ये साल  उसके जहन पर  परत दर परत  किसी बोझ में ही बदलते रहे हैं । 

इसलिये जब कभी वो जिन्दगी की भागमभाग  से हट कर अपने करीब आता तो खुद को फिर उसी के करीब पाता । उसके अन्दर का  हर कोश उससे मिलने या कम से कम उससे  बात करने के लिये बेताब हो जाता , जबकी वो जानता था कि इसमें से कुछ भी मुमकिन नहीं है । वो बड़ी कसक के साथ अपने आप से पूछता , " कभी - कभी समय अगर बेहद  कोमल और संगीतमय होता है तो वही समय खुद को बदल कर इतना कठोर और क्रूर कैसे  हो जाता है ! " 

उसके पास अपने ही सवाल , फिर से सवाल बन कर उससे टकरा जाते । 
आज की शाम , जो   रात की तरफ पहले ही  बढ़ चुकी थी , और पुराने गानों में उसे नहला भी चुकी थी , ने उसके ह्रदय की कसक को एक बार फिर से छू दिया । उसने मोबाईल में से संदेश वाला आपशन निकाल कर उसका नम्बर निकाला और लिखा , " ये आदमी तुम्हें जीवन की अन्तिम सांस तक वैसे ही याद करता रहेगा जैसे कभी तुम किया करती थीं । " 
उसने लिख तो दिया पर जब उसकी अंगुलियां ओ के वाले बटन की तरफ बढिं तो ठिठक गयीं । 

उसने मोबाईल का मेसेज बाक्स हटाया और कमरे में घिर आये अन्धेरे को उजाले में बदलने के लिये बिजली के  स्विच की तरफ अपने हाथ को बढ़ा दिया ।

कमरे में रोशनी ने अपनी जगह बना ली थी । कमरे में टंगे कलंडर में समुंदर के किनारे खड़ा बच्चा दूर छितिज को देखते हुए मुस्कुरा रहा था ।
उसकी ओर देख कर उसकी इच्छा हुई कि उसे भी मुस्कुराना चाहिये । 

उसने अपनी हथेलियों पर नजर दौडाई , वहां कुछ लकीरें  पहले की तरह  अब भी स्थिर थीं ।
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2)

अंगद का पांव / सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 


उसे अपने बन रहे घर की चौखट के लिये लकड़ी चाहिये थी । वह लकड़ीयों के बाजार में आ गया । दुकानों की लम्बी कतार थी जिन पर लकड़ीयां ही लकड़ीयां सलीके से  सजी थी । उसे एक  दुकान ठीक - ठाक सी लगी जहां एक बुजुर्ग सज्जन दुकान की आरामदायी सीट पर विराजमान थे और  उनके सामने दो - तीन नौ जवान किस्म के लोग   बैठे थे । वह दुकान के अन्दर जाने से पहले तो झिझका । उसे लगा कि दुकान और उसमें रखा माल उसकी आर्थिक  पहुँच  से बाहर है पर उसे लकड़ी तो हर हाल में लेनी ही थी । नहीं तो बन रहे मकान का काम रुक जाता । फिर  उसने सोचा ये नव युवक भी ग्राहक ही  होंगे और उनको इस बुजुर्ग दूकानदार ने कितनी इज्जत से बिठा रखा है और कितनी संजीदगी से अपने माल की खूबियों से अवगत करवा  रहा है । 
वो हिम्मत बटोर कर दुकान में प्रवेश कर गया  । प्रवेश करते ही उसके कानों में बुजुर्ग दूकानदार के शब्द पड़े । वे नौजवान ग्राह्को को कह रहे थे , "  ग्राहक मेरे लिये मेरे भगवान से कम नहीं है । इसी सोच के कारण हमारी दुकान पिछ्ले पचास  साल से इस बाजार में अंगद के पांव की तरह जमी  हुई है जबकि बहुत से सूरमा आये , बैठे पर  उखड़कर जमीन पर बिखर गये । "
" सर जी , आपका माल भी आपके व्यवहार जैसा ही होगा । हमें यकीन है । " एक नव युवक बीच में बोल पड़ा ।
" कहा न  बेटा कि बहुत कमा भी लिया और खा भी लिया । अब इस ऊमर में झूठ बोलने की क्या जरुरत है , मेरे लिये दूकानदारी अब एक पूजा बन चुकी है जहां ग्राहक हमारे लिये हमारे भगवान की तरह है । " 
उसे लगा वो बिल्कुल ठीक जगह पर आ गया है। वो निश्चिंत होकर अपने घर की चौखट के लिये यहां से लकड़ी के लट्ठे ले जा सकता है । यहां उसे उसकी पसंद का माल वाजिब कीमत पर ही मिलेगा ।
इस बीच दूकानदार महोदय उससे मुखातिब हो कर बोले , " जी ! आपको क्या चाहिये ? "
" जी , दो चौख्टों के लिये लकड़ी चाहिये । " उसने भी अदब से ही अपनी जरुरत बताई ।
" हाँ - हां ! क्यों नहीं । आइये बैठिये और बताईये , हम आपको  किस तरह की लकड़ी दें ? " 
" मजबूत और टिकाऊ जिसे दीमक वगैरह न लगे । और कीमत भी वाजिब हो ।" उसमें अब तक बात करने की हिम्मत आ चुकी थी ।
" समझ गया , जरुर मिलेगी । " 
" अकबर , जा इन साहब को पक्की और लाल  शीशम का माल दिखा ।" उन्होनें नौकर को आवाज लगायी ।
अकबर उसे साथ लेकर गोदाम में अन्दर चल पड़ा । वे अकबर के साथ अन्दर गये ही थे कि अकबर उनसे बोला , " सर जी आप इन लट्ठों में अपने हिसाब का कोई लट्ठ देख लें , मैं अभी आया । " 
इतना कहकर वह गोदाम से निकल कर अपने मालिक के  पास जाकर बोला , " साब जी , शीशम की कटाई और बिकवाली तो कब की बन्द हो चुकी है , इस ग्राहक को शीशम की लकड़ी  दिखाने के लिये कौन से गोदाम में ले जाउँ ? " 
यह सुनते ही बुजुर्ग दुकानदार का दिमाग क्रोध से भन्ना गया , " अबे नाजायज टाईम की औलाद जो कुछ भी गोदाम में पड़ा है , हरेक को शीशम की  बता और जितने पैसे देने की  उसकी औकात हो उसके हिसाब से किसी लट्ठ को  इम्पोर्टेड शीशम बताकर पेल दे । जानता है न कि तुझे जो  पगार देता हूँ वो इसी काम के बदले में देता हूँ । जा अपना काम कर । " 
उनकी अपने नौकर को ये हिदायत उस नौजवान के कानों से भी जा टकराई जो थोड़ी देर पहले तक उनसे जान चुका था कि उनके लिये ग्राहक ही भगवान होता है पर ये क्या ये तो अपने ग्राहक को ही ठग रहे हैं । 
नौजवान का दिमाग चकरा गया । वह स्वयं पर नियन्त्रण खो बैठा , " बाबू जी ,  क्या आप  अपने भगवान को भी इसी तरह ठगते  हैं ? और  इसी वजह से इस बाजार में आपका पांव लंका में  अंगद के पांव की तरह टिका हुआ है ? " 
" बरखुरदार , हमेशा बाल की खाल नहीं निकाला  करते । ग्राहक को संतुष्ट करना दूकानदारी का उसूल है ।" एक बेशर्म हंसीं के साथ उन्होनें अपनी लिखी इबारत पढ़ी  और फिर अकबर को लगभग  डाटते हुए बोले , " अबे तू यहां कौन सी तकरीर सुन रहा है ? जा ग्राहक को उसकी जरुरत का  माल दिखा ।
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रविवार, 6 अक्टूबर 2019

लघुकथा-2020: नए लेखकों की नजर में


सम्माननीय साहित्यकार,

सादर नमस्कार।

लगभग तीन महीनों पश्चात् वर्ष 2020 का आगमन होने को है। लघुकथा विधा में भी कितने ही साहित्यकार 2020 में प्रवेश करते हुए अपनी लेखनी के चमत्कार दिखाने को तैयार हैं। वरिष्ठ लघुकथाकारों के साक्षात्कार तो होते ही रहते हैंजो नवोदितों का मार्गदर्शन करते हैं। लेकिन लघुकथा दुनियालघुकथा के प्रति नए रचनाकारों के विचारों को समझने हेतु2020 के नवोदित लघुकथाकारों के लिए 20 प्रश्न लाया है।

यदि आप 01 जनवरी 2011 या उसके बाद से लघुकथा लिख रहे हैं तो संलग्न प्रश्नावली (तीनों भागों - अब तथा स) के उत्तर देने की आपसे प्रार्थना है। चूँकि विधा का भविष्य आपके हाथों में भी है अतः आपके विचारों को प्रकाशित कर हमें अति प्रसन्नता होगी। यह सन्देश आपके अन्य साथियों को भी प्रसारित करने का निवेदन है।


अपने उत्तर आपके चित्र सहित laghukathaduniya@gmail.com पर 31 अक्टूबर 2019 तक ईमेल करने का कष्ट करें। ईमेल में विषय "लघुकथा-2020: नए लेखकों की नजर में" ही रखें। इस योजना के अपडेट पाने एवं लघुकथा सम्बन्धी सामग्री पढ़ने हेतु लघुकथा दुनिया को फॉलो एवं सब्सक्राइब ज़रूर करें।


यदि आप 01 जनवरी 2011 के पूर्व से लघुकथा लिख रहे हैं तो यह सन्देश उपयुक्त रचनाकारों तक प्रसारित करने का निवेदन है।

साभार,


डॉ0 चन्द्रेश कुमार छतलानी
लघुकथा दुनिया