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गुरुवार, 26 सितंबर 2019

ज्योत्सना सिंह की एक लघुकथा


उसकी रचना / ज्योत्सना सिंह 


सभा ने उसका स्वागत तालियों की गड़गड़ाहट से किया और फिर  पूरे सभागार में नीम सन्नाटा पसर गया सिर्फ़ उसे सुनने के लिए।
वह जब भी मंच पर होती तो श्रोता गण बड़ी बेताबी से उसकी बारी आने की प्रतीक्षा करते क्यूँ कि जब वह अपनी रचना लोगों के समक्ष रखती तब संपूर्ण उपस्थिति में भी सन्नाटा अपने पाँव जमा लेता।

उसकी रचना समाज के हर उस पहलू को बे-नक़ाब करती जो त्रासदी,व्यभिचार लालच और नफ़रत से भरी हुई होती।

और लोग उसे साँस रोक कर सुनते शायद वह श्रोता के अंदर छुपे उस इंसान को खरोंच देती जिसे सबने ख़ुद से भी बहुत दूर कर रखा है।
लोग उसे सुनते दाद देते तालियों फूलों से उसका सम्मान बढ़ाते हुए आगे बढ़ जाते और फिर समाज ही उसे एक और तड़पता मौक़ा दे देता ऐसी ही किसी नंगी सच्चाई रचने के लिए और हम बन जाते हैं ऐसे आहत भावों का हिस्सा कभी सहते हुए तो कभी करते हुए।

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मंगलवार, 24 सितंबर 2019

फेसबुक समूह "सार्थक साहित्य मंच" प्रतियोगिता में मेरी विजेता लघुकथा


तीन संकल्प

वो दौड़ते हुए पहुँचता उससे पहले ही उसके परिवार के एक सदस्य के सामने उसकी वो ही तलवार आ गयी, जिसे हाथ में लेते ही उसने पहला संकल्प तोड़ा था कि 'वो कभी किसी की भी बुराई नहीं सुनेगा'। वो पीछे से चिल्लाया, "रुक जाओ तुम्हें तो दूसरे धर्मों के लोगों को मारना है।" लेकिन तलवार के कान कहाँ होते हैं, उसने उसके परिवार के उस सदस्य की गर्दन काट दी।

वो फिर दूसरी तरफ दौड़ा, वहाँ भी उससे पहले उसी की एक बन्दूक पहुँच गयी थी, जिसे हाथ में लेकर उसने दूसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वो कभी भी बुराई की तरफ नहीं देखेगा'। बन्दूक के सामने आकर उसने कहा, "मेरी बात मानो, देखो मैं तुम्हारा मालिक हूँ..." लेकिन बन्दूक को कुछ कहाँ दिखाई देता है, और उसने उसके परिवार के दूसरे सदस्य के ऊपर गोलियां दाग दीं।

वो फिर तीसरी दिशा में दौड़ा, लेकिन उसी का आग उगलने वाला वही हथियार पहले से पहुँच चुका था, जिसके आने पर उसने अपना तीसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वो कभी किसी को बुरा नहीं कहेगा'। वो कुछ कहता उससे पहले ही हथियार चला और उसने उसके परिवार के तीसरे सदस्य को जला दिया।

और वो स्वयं चौथी दिशा में गिर पड़ा। उसने गिरे हुए ही देखा कि एक बूढ़ा आदमी दूर से धीरे-धीरे लाठी के सहारे चलता हुआ आ रहा था, गोल चश्मा पहने, बिना बालों का वो कृशकाय बूढ़ा उसका वही गुरु था जिसने उसे मुक्ति दिला कर ये तीनों संकल्प दिलाये थे।

उस गुरु के साथ तीन वानर थे, जिन्हें देखते ही सारे हथियार लुप्त हो गये।
और उसने देखा कि उसके गुरु उसे आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं और उनकी लाठी में उसी का चेहरा झाँक रहा है, उसके मुंह से बरबस निकल गया 'हे राम!'।

कहते ही वो नींद से जाग गया।
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Source: https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1750296521770814&set=gm.913175072376522&type=3&theater

रविवार, 22 सितंबर 2019

लघुकथा कलश रचना प्रक्रिया महाविशेषांक | वीरेंद्र वीर मेहता

. . . और आख़िर 24 दिन के लंबे 'संघर्ष' के बाद पोस्ट आफिस के मक्कड़जाल से निकलकर 28 अगस्त को रजिस्टर्ड पोस्ट की गई 'लघुकथा कलश' की प्रति मेरे हाथों में पहुंच ही गई।

'थैंक्स टू इंडिया पोस्ट'. . .

लघुकथा कलश का यह चतुर्थ अंक (जुलाई - दिसंबर 2019) 'रचना-प्रक्रिया, महाविशेषांक' के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अपने पूर्व अंकों की तरह आकर्षक साज-सज्जा और बढ़िया क्वालिटी के पेपर पर छपा होने के साथ, अपने प्राकृतिक हरे रंग के खूबसूरत कवर पृष्ठ में पत्रिका सहज ही मन को आकर्षित कर रही है।

अपनी पहली नजर में पत्रिका को देखने में यही अनुभव हो रहा है कि 'रचना-प्रक्रिया' पर आधारित यह अंक अपने अंदर बहुत से गुणीजन लेखकों के लघुकथा से जुड़े अनुभवों को समेटे हुए है। पत्रिका में 360+2 कवर पृष्ठों में 126 नवोदित एवं स्थापित प्रतिष्ठित लघुकथाकारों की करीब 250 लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया एवं चार विशिष्ट लघुकथाकारों की लघुकथाओं सहित उनकी रचना प्रक्रिया को स्थान दिया गया है।
इसके अतिरिक्त छः पुस्तक समीक्षाएं और लघुकथा कलश के पूर्व अंकों से जुड़ी बेहतरीन समीक्षाएं भी इस अंक में शामिल की गई हैं। नेपाली लघुकथाओं की विशेष प्रस्तुति में आठ लघुकथाकारों की लघुकथाएं रचना प्रक्रिया सहित शामिल की गई हैं। अंत में कवर पृष्ठ पर अशोक भाटिया जी के बाल लघुकथा 'बालकांड' की योगराज प्रभाकर जी द्वारा काव्यात्मक समीक्षा भी इस अंक का एक आकर्षण बन गई है। निःसन्देह इतनी विस्तृत सामग्री के पीछे 'कलश परिवार' सहित सभी गुणीजन रचनाकारों की मेहनत का भी बहुत बड़ा योगदान है।

किसी भी पत्र-पत्रिका का संपादकीय उस कृति में सम्मलित किए गए अंशों की बानगी के संदर्भ में उसका सत्य प्रतिबिम्ब ही होता है। पत्रिका का सम्पादकीय "दिल दिआँ गल्लाँ" सहज ही रचना प्रक्रिया अंक की प्रेरणा के साथ उसके अस्तित्व में आने की कथा सामने रखता है। सम्पादकीय न केवल लघुकथाकारों को उनके लेखन के प्रति आश्वस्त करने की कोशिश करता है वरन उन्हें उनकी कमियों के प्रति ध्यानाकर्षित करने के साथ लघुकथा विधा पर और अधिक मंथन करने का आग्रह भी करता है।

"साहित्य सृजन अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफर है, जब अभिव्यक्ति का कद अभिव्यंजना के कद की बराबरी कर ले तब जाकर कोई कृति एक कलाकृति का रूप धारण करती है।" सम्पादकीय में इन शब्दों में दिए गए मंत्र से अधिक साहित्य साधना की और क्या परिभाषा हो सकती है, जिसे एक साधक को अंगीकार कर लेना चाहिए।

लघुकथा के ढांचे और आकार-प्रकार पर आए दिन होने वाले विवादों पर भी सम्पादकीय दृष्टि अपने चिर-परिचित अंदाज में अपना दृष्टिकोण रखने का प्रयास करती है।

बरहाल पत्रिका के विषय में और अधिक विचार तो संपूर्ण पत्रिका पढ़ने के बाद ही लिखे जा सकते हैं, फिलहाल तो इस अंक में शामिल मेरी दो लघुकथाओं श्राद्ध और जवाब को रचना प्रक्रिया सहित मान देने के लिए 'कलश टीम' को हार्दिक धन्यवाद। साथ ही आद: योगराज प्रभाकर सहित, कलश टीम के सभी वरिष्ठ परामर्शदाताओं और अन्य सभी सहयोगियों के साथ-साथ इसमें शामिल सभी गुणीजन रचनाकारों को भी हार्दिक बधाई सहित इस अंक के लिए सादर शुभकामनाएँ।

//वीर//

पत्रिका प्राप्ति के लिये सम्पर्क सूत्र।
MR. YOGRAJ PRABHAKAR :
+91 98725 68228

MR. RAVI PRABHAKAR
+91 98769 30229

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

लघुकथा समाचार: डॉ. लता की कृति का विमोचन


Bhaskar News NetworkSep 19, 2019, 06:51 AM IST

शहर की वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद् डॉ. लता अग्रवाल की पुस्तक लघुकथा का अंतरंग का विमोचन हाल ही में हुआ। डॉ. लता ने बताया कि इस संग्रह में 23 लघु कथाकारों से पूछे गए 589 प्रश्नों के जवाब संग्रहित हैं। संग्रह में डॉ. शकुंतला, अजातशत्रु, पत्रकार बलराम, कमल किशोर गोयनका, बलराम अग्रवाल, चित्रा मुद्गल के दुर्लभ साक्षात्कार हैं। 

Source:
https://www.bhaskar.com/news/mp-news-dr-lata39s-work-released-065126-5517011.html?utm_expid=.YYfY3_SZRPiFZGHcA1W9Bw.0&utm_referrer=https%3A%2F%2Fwww.google.com%2F

लघुकथा वीडियो: मेहनत का पैसा | लेखक : गोविन्द भारद्वाज | स्वर : मीना खत्री


गुरुवार, 19 सितंबर 2019

पूनम सिंह की दो लघुकथाएं

1)

सोन चिरैया / पूनम सिंह

"मास्टर जी आज से सोन चिरैया हमारे साथ ही पढ़ेगी" मीरा ने सोन चिरैया का हाथ पकड़े कक्षा में प्रवेश करते  ही मास्टर जी को कहा..। मास्टर जी ने आश्चर्य भरी नजरों से अपने चश्मे के भीतर से झाकते हुए  बोले..  "अरे.. ये यहाँ नहीं पढ़ सकती और तुम इसका हाथ  काहे  पकड़ी हो.. छोड़ो..।"  मास्टर जी ने थोड़ा झल्लाते हुए कहा ..। "यह तो भिखुआ की बेटी है ना इसका बाप तुम्हारे यहाँ मजूरी करता है।" "हाँ मास्टर जी वही है और आज से ये भी यही पढ़ेगी, वो इसलिए कि अगर भीखुआ के हाथ की मजदूरी का अन्न आप और मै खा सकते हैं, तो ये यहाँ पढ़ काहे नहीं सकती ??।"  मीरा ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा..।  मास्टर जी सोच में पड़ गए कि "आखिर इस मुसीबत से छुटकारा कैसे पाएँ ..। ..अगर हमने इस निम्न जाति की कन्या को स्थान दे दिया तो ऊपर में क्या जवाब देंगे ।"  तभी आगामी चुनाव के नेताओं का दल आ पहुँचा । मास्टर जी के पास बैठ  गुफ्तगू शुरू हो गई । उनके प्रस्थान के पश्चात दूसरा दल आया उसी तरह घंटों न जाने क्या  क्या बाते हुई !। ..बस इतना ही पता चला कि सोन चिरैया को स्कूल में दाखिला मिल गया ।

15 अगस्त का दिन था। स्कूल में सभी नेता अपने-अपने दल के साथ पहुँचे ।तभी उनमें से एक दल के नेता ने उठकर कहा.., "झँडा फहराने का समय हो गया है.. अब हम सबको स्टेज पर चलकर इस यादगार पल का हिस्सा बनना चाहिए ।" एक-एक करके सभी दल के मुख्य नेता ऊपर स्टेज पर पहुँचे । तभी उनमें से एक नेता ने सोन चिरैया को ऊपर स्टेज पर बुलाया और कहा.., "हमारे भावी देश के भविष्य सोन चिरैया झँडा फहराएगी .., " और बाकी दूसरे नेता की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किए बिना ही उन्होंने उसे  झँडा फहराने का आदेश दे दिया। बाकी सब के सब आवाक होकर देखते ही रह गए।

मीरा ने भागकर सोन चिरैया का हाथ पकड़कर ऊपर हवा में लहराया और कहा "तुम्हारी जीत हुई सोन चिरैया ..।"
उधर नेताओं के बीच में काना फूसी शुरू हो गई । तभी मास्टर जी ने आकर एक नेता को बधाई देते हुए  कहा.. "बधाई हो नेता जी इस बार तो आपने चुनाव में जीत की मोहर लगा दी ।"
तभी दूसरे दल के कुछ नेता एक दूसरों को यही कहते हुए पाए गए कि.. " हमने तो पहले ही कहा था समझदारी से काम लीजिए,  हर बार पैसे से ही बात नहीं बनती..। देखिए इस बार भी फिर से उसी चरवाहा छाप ने चुनाव जीतने का ठप्पा लगा लिया। ऊपर से महिला आयोग से भी सजग रहने की आवश्यकता थी आपने देखा नहीं उस सोन चिरैया को ...?।"  "तो अब क्या करें.. कोई उपाय बताओ ..!" "अब क्या बताना..जब चिड़िया चुग गई खेत...!"


2)

मैं जुलाहा / पूनम सिंह

ठक... ठक... ठक.... ठक "अरे कौन है" इतनी सुबह सुबह झल्लाते हुए रामदास ने किवाड़ खोला । 
"मैं जुलाहा" अपने सामने एक मध्यम कद वाला व्यक्ति सफेद कुर्ता पायजामा पहने लंबी सफेद दाढ़ी, तथा एक कंधे पर एक बड़ा सा थैला और दूसरे हाथ मैं एक बड़ा सा चरखा लटकाए हुए शांत भाव ओढ़े खड़ा था।

"क्या बात है बाबा किस चीज की आवश्यकता है।"  सेठ रामदास ने पूछा "मैं जुलाहा हूं और अपने चरखे पर लोगों के पसंद के मुताबिक कपड़े बुनता हूं, आप भी बनवा लीजिए।" रामदास प्रत्युत्तर में कुछ कहने ही वाला था कि तभी रामदास की पत्नी शोभा वहां आ गई उसने बीच में ही टोकते हुए विनम्रता से पूछा "क्या चाहिए बाबा?" "बिटिया मैं जुलाहा हूं और लोगो के पसंद मुताबिक कपड़े बुनता हूं। आप भी बनवा लीजिए।" शोभा ने थोड़ा अचंभित शांत मुद्रा में पूछा,  "पर बाबा हम आपसे कपड़े क्यों बनवाएंगे?! ऐसी क्या खासियत है आपकी बुनाई में?!" जुलाहा बोला "मेरे बनाए हुए कपड़ों की सूत और रंगत की दूर दूर तक चर्चा है। एक बार अपने सेवा का मौका दीजिए, आपको निराश नहीं करूंगा।" जुलाहे ने विनम्रता से निवेदन किया शोभा मन ही मन में सोचने लगी आजकल के आधुनिक तकनीकी युग मे जब सुंदर अच्छे रंगत वाले परिधान कम दाम में मिल जाते हैं फिर भ..ला..।! जुलाहा शोभा के मन की बात समझ गया और उसने तुरंत ही कहा..! "चिंता ना करो बिटिया मैं बहुत सुंदर वस्त्र बनाउँगा कोई मोल भी ना लूंगा,. यह हमारा पुश्तैनी काम है और इस कला को सहेज कर रखना चाहता हूं। इसलिए घर घर घूमकर वस्त्र बनाता हूं। ज्यादा वक्त भी ना लगेगा अल्प समय में ही पूरा कर लूंगा।" शोभा कुछ बोल पाती की रामदास पीछे से बोला "अच्छा ठीक है शोभा.. बाबा के लिए दलान पर रहने की व्यवस्था करवा दो।" जुलाहे के मन को तसल्ली मिली शोभा ने तुरंत ही कुछ कारीगरों को बुलवाकर दलान पर एक छोटी सी छावनी बनवा दी और जुलाहे को विनय पूर्वक कार्य जल्दी समाप्त करने के लिए भी कह दिया। जुलाहा भी बहुत खुशी खुशी अदब से बोला "हाँ हाँ बिटिया तुम तनिक भी चिंता ना करो मैं जल्दी निपटा लूंगा।" 
जुलाहा अपने काम मे लग गया शोभा कुछ अंतराल में आकर बाबा से कुछ खाने पीने का भी आग्रह कर जाती। पर जुलाहा विनम्रता से मुस्कुराते हुए कहता "मेरे पास खाने का पूरा प्रबंध है बिटिया जब जरूरत होगी मैं स्वयं कह दूंगा।" जुलाहा शोभा के सरल आत्मीय व्यवहार को देखकर बड़ी प्रसन्नता होती और मन ही मन उसे ढेरों आशीर्वाद से नवाजता। शोभा का ४साल का बालक था जो दलान पर खेलने आता और  और जुलाहे के पास आकर पॉकेट से चॉकलेट निकाल अपने नन्हे हाथ आगे बढ़ा तोतली आवाज में पूछता "बाबा ताओगे..।" उसकी तोतली आवाज सुनकर जुलाहे का मन पुलकित हो उठता और उसकी ठोड़ी को पकड़ ठिठोली करते हुए कहता "नहीं राम लला आप खाओ हमे अभी भूख नहीं।, इतना पूछ कर राम लला खेलने में मस्त हो जाता। 
इसी तरह दो-तीन दिन बीत गए एक सुबह रामलला जुलाहे के पास आकर पूछता "बाबा मेले तपले बन गए तया..?! " " हां राम लला बन गए।" "दिथाओ..!" बालक बोला "हां हांअभी लो दिखाते हैं।" जुलाहे ने अपने थैले में से एक बड़ा ही सुंदर छोटा सा अचकन निकालकर बालक के हाथ में थमा दिया "यह देखो तुम्हारे लिए हमने सात रंगों वाली अचकन तैयार की है।" बालक अचकन देखते ही खुशी से उछल पड़ा और जुलाहे के सामने अपने नन्हे हाथ आगे बढ़ाते हुए कहता है "बाबा यह लो तौपी ताओ..!"  "नहीं राम लला आप खाओ हमें इसकी आवश्यकता नहीं जुलाहे ने कहा!" नहीं माँ तहती है.. कोई भी चीज उदाली नई लेनी तहिये..!। बालक के मुख से ऐसी दैविक शब्दों को सुन जुलाहे का मन प्रफुल्लित हो गया और सहजता पूर्वक बालक के हाथ से मीठा ले लिया और कहा "ठीक है रामलला लाओ दे दो।" तभी वहां शोभा भी आ गई उसने शालीनता से पूछा "बाबा क्या बाकी के परिधान भी तैयार हो गए?!.. "हाँ बिटिया आपका भी तैयार हो गया है। जुलाहे ने थैले में से एक सुंदर लाल और सफेद रंगों वाली साड़ी शोभा को पकड़ा दी।... थी तो दो रंगों वाली ही पर उस पर की गई कलाकारी रंगो का भराव देख शोभा हतप्रभ रह गई मन ही मन सोचने लगे उसने ऐसी रंगो वाली अनगिनत साड़ियां पहनी होगी पर इतनी आकर्षक सुंदर कलाकारी वाली कभी नहीं,.. उसने मन ही मन जुलाहे को नमन किया और अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहने लगी:-  "बाबा मैंने अपने अभी तक के जीवन काल में ऐसी रंगो वाली साड़ी बहुत पहनी पर इतनी सुंदर आकर्षक कलाकारी, वह भी सिर्फ दो रंगो में बनी कभी नही..।" मैं इसे सहेज कर रखूँगी।" "अरे नहीं बिटिया!" जुलाहे ने तुरंत ही बीच में टोकते हुए कहा-: "यह मेरे हाथों से बनी सूत एवं रंग से बनी साड़ी है।  "तुम इसे हर रोज भी धारण करोगी तभी इसका सूत और रंग ज्यों का त्यों रहेगा। यह सुन शोभा को और आश्चर्य हुआ और वह निशब्द हो गई। शोभा ने विनम्र भाव से कहा.. मैं यह साड़ी बिना मोल नहीं लूंगी आप कुछ भी अपनी स्वेच्छा से इसका मोल ले लीजिए।" पहले तो जुलाहे ने मना किया पर शोभा के आग्रह करने पर उसने कहा-: "ठीक है अगर तुम्हारी इतनी इच्छा है तो तुम अपने मंदिर में जो फूल चढ़ाती हो उसी में से दो फूल लाकर दे देना।" ऐसी अनूठी इच्छा सुन शोभा कुछ बोल पाती कि जुलाहे ने कहा-: "इससे ज्यादा की कोई इच्छा नहीं है बिटिया बस वही दे दो...!" शोभा दौड़कर मंदिर गई माँ के चरणों से दो फूल उठा लाई और बाबा को दे दिया। 
बाबा क्या मेरे पति के परिधान भी तैयार हो गए?!.. "नहीं बिटिया बस वह भी एक-दो दिन में तैयार हो जाएगा तैयार होते ही मैं तुम्हें स्वयं खबर कर दूंगा।"  ,"ठीक है बाबा" इतना कह कर शोभा घर के भीतर चली गई।
  तीन-चार दिन बीत गए पर जुलाहे की ओर से कोई खबर ना आई फिर वह स्वयं ही कौतूहल वश जानकारी के लिए जुलाहे के पास गई और पूछा "बाबा क्या अभी तक बने नहीं?!"
“नहीं बिटिया” इस बार जुलाहे के शब्दों में थोड़ी निराशा थी उसने पास रखा एक कुर्ता उठाया और शोभा को दिखाते हुए कहने लगा “बिटिया मैंने अपनी पूरी लगन से कुर्ता बनाने का पूर्ण प्रयास किया किंतु बुनाई में अच्छी पकड़ नहीं आ रही..!  शोभा ने वह कुर्ता अपने हाथों में लेते हुए एक नजर डाली तो उसने पाया उसमें कुछ सुंदर रंगों का भराव था और आकर्षक भी उतना ही था, पर बुनाई उतनी अच्छी ना होने के कारण थोड़ा अटपटा लग रहा था।अच्छा, उसने जिज्ञासा भरे लहजे में पूछा “अब और कितना वक्त लगेगा बाबा पूर्णतया निखरने में.."। “बिटिया लगता नहीं यह और अब मुझसे बन पाएगा तुम इसे मेरा तोहफा समझ कबूल कर लो।"
शोभा समझ गई तोहफा कहकर बाबा इसका मोल नहीं लेना चाहते और उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
"बिटिया अब मैं चलता हूं अभी मुझे आगे की यात्रा तय करनी है।".....

रामदास का नन्हा बालक - - अबोध मन सांसारिक मोह माया से अनभिज्ञ पूर्ण शुद्ध था। इसलिए जुलाहे ने उसे प्रकृति के सात रंगों वाले वस्त्र तैयार करके दिए।

शोभा - -  निश्छल, समर्पित आत्मीय भाव से अपने संसार के कर्म धर्म में लगी रहती थी। यही कारण था कि जुलाहे ने उसे शुद्ध पवित्र एवं प्रेम को परिभाषित करने वाली लाल और सफेद रंग का वस्त्र दिया।

रामदास - - प्रचुर धन का मालिक था। साथ ही धार्मिक एवं दानी भी था। किंतु धन संग्रह के मोह ने उसे आंशिक रूप से घेर रखा था। यही कारण था कि जुलाहे ने उसके लिए सुंदर रंगत वाला वस्त्र तैयार किया तो पर सांसारिक लिप्सा के कारण बुनाई उतनी सही ना हो पाई।

जुलाहा रूपी ईश्वर हमारे भीतर बैठा हमारे एक एक प्रक्रिया पर उसकी नजर है और वह हमारे कर्मों के अनुरूप हमारी आत्मा को वस्त्र पहना रहा है।
मुक्ति और भुक्ती दोनों इसी संसार में निहित है।

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पूनम सिंह
एक कहानीकार, लघुकथाकार, कवित्रियी, समीक्षक हैं एवं साहित्य की सेवा में सतत संलग्न रहती हैं।
Email: ppoonam63kh@gmail.com

बुधवार, 18 सितंबर 2019

वेबदुनिया डॉट कॉम पर मेरी एक लघुकथा : मौकापरस्त मोहरे


मौकापरस्त मोहरे / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


वह तो रोज की तरह ही नींद से जागा था, लेकिन देखा कि उसके द्वारा रात में बिछाए गए शतरंज के सारे मोहरे सवेरे उजाला होते ही अपने आप चल रहे हैं। उन सभी की चालें भी बदल गई थीं। घोड़ा तिरछा चल रहा था, हाथी और ऊंट आपस में स्थान बदल रहे थे, वजीर रेंग रहा था, बादशाह ने प्यादे का मुखौटा लगा लिया था और प्यादे अलग-अलग वर्गों में बिखर रहे थे।

वह चिल्लाया, 'तुम सब मेरे मोहरे हो, ये बिसात मैंने बिछाई है, तुम मेरे अनुसार ही चलोगे।' लेकिन सारे के सारों मोहरों ने उसकी आवाज को अनसुना कर दिया। उसने शतरंज को समेटने के लिए हाथ बढ़ाया तो छू भी नहीं पाया।

वह हैरान था और इतने में शतरंज हवा में उड़ने लगा और उसके सिर के ऊपर चला गया। उसने ऊपर देखा तो शतरंज के पीछे की तरफ लिखा था- 'चुनाव के परिणाम'।

Source:
https://hindi.webdunia.com/hindi-stories/short-story-118122000044_1.html