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रविवार, 9 जून 2019

लघुकथा दुनिया ब्लॉग iBlogger की Best Hindi Literature Blogs सूची में शामिल

आदरणीय मित्रों,

यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि लघुकथा दुनिया ब्लॉग को iBlogger द्वारा Best Hindi Literature Blogs सूची में शामिल किया गया है। आप सभी लघुकथा प्रेमियों के सहयोग से ही यह संभव हो पाया। लघुकथाओं पर आधारित यह प्रथम ब्लॉग है जिसे इस सूची में स्थान मिला।

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लघुकथा-कलश तृतीय महाविशेषांक पर मेरे विचार

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फेसबुक समूह साहित्य संवेद पर आयोजित परिचर्चा

लघुकथा-कलश तृतीय महाविशेषांक पर विभा रानी श्रीवास्तव जी की समीक्षा से प्रारम्भ करना चाहूँगा, आपके शब्दों मे, "लघुकथा-कलश के तीसरे महाविशेषांक का अध्ययन करने में मुझे लगभग तीन माह से अधिक का समय लगा।" मेरे अनुसार भी इतना धैर्य और इच्छा शक्ति होनी चाहिए, तब जाकर समीक्षा में सत्य का तड़का और तथ्यों के मसाले का सही अनुपात आ सकता है। साहित्यिक परिचर्चा समीक्षा से थोड़ा सा फर्क रखती है। ईमानदार समीक्षा के लिए पुस्तक का पूरा अध्ययन चाहिए लेकिन किसी परिचर्चा में भाग लेने के लिए पूरा अध्ययन उचित ज्ञान सहित चाहिए। पता नहीं सामने वाला कौनसी किताब का कौनसा पृष्ठ पढ़ कर आया हो और कौनसी बात पूछ ले? तब परिचर्चा में भाग लेने व्यक्ति अतिरिक्त सजग हो कुछ अधिक अध्ययन कर लेता है। हालांकि परिचर्चा करने से समीक्षा का महत्व समाप्त नहीं हो जाता। इस परिचर्चा से पूर्व भी Virender Veer Mehta वीरेन्द्र वीर मेहता भाई जी ने "लघुकथा कलश" पर समीक्षा लेखन का आयोजन किया था, जिसमें बहुत अच्छी समीक्षाएं भी आईं। मैंने वे सारी समीक्षाएं पढ़ीं भी थीं और उनमें ईमानदारी का तत्व ढूँढने का प्रयास भी किया। मुझे लगता है कि मैं असफल नहीं हुआ - समीक्षाएं भी असफल नहीं हुईं। ईमानदार समीक्षा के बाद उन पर स्वस्थ परिचर्चा मेरे अनुसार एक कदम आगे बढ़ना है। अतः सबसे पहले मैं समूह के प्रशासकों को बधाई देना चाहूँगा कि एक महत्वपूर्ण परिचर्चा का आयोजन आपने किया। न केवल किया बल्कि एक विशिष्ट प्रारूप भी तय किया जो कि आप सभी की चिंतनशीलता और गंभीरता का परिचायक है। ऐसे प्रारूप परिचर्चा की दिशा तय करते हैं। मैं भी अपने अनुसार इन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूँ।

प्रस्तुत लघुकथा संग्रह की बेहतरी हेतु आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?
एक उदाहरण से प्रारम्भ करूंगा हमारे प्राचीन वेदों में निहित ज्ञान काफी समृद्ध है। ऋग्वेद के बाद यजुर्वेद, जिसके बाद शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद लिखे/कहे गए – फिर सामवेद और अथर्ववेद की रचना हुई। इनमें से कौनसा वेद बेहतर है और कौनसा वेद बेहतर हो सकता है वह बताना हर युग में असंभव ही रहा। लघुकथा कलश केवल एक पत्रिका ही नहीं बल्कि लघुकथा के एक ग्रंथ समान है। हर अंक समृद्ध ज्ञान से भरपूर और अगला अंक नए ज्ञान के साथ। एक विद्यार्थी अपनी कोर्स की पुस्तकों में भाषा-वर्तनी की कुछ छोटी-मोटी गलतियां निकाल सकता है लेकिन उससे पुस्तक का मूल भाव – उसमें निहित ज्ञान बेहतर नहीं हो सकता। ऐसे ही एक विद्यार्थी रूप में मैं स्वयं को इसकी बेहतरी के लिए बताने योग्य नहीं समझता।

हालांकि एक बात और भी है, वेदों के चार भागों में से चौथा और अंतिम भाग उपनिषद है, जिन्हें वेदान्त कहा गया और जो वेद के मूल रहस्यों को बताते हैं। इस ग्रंथ “लघुकथा कलश” के लिए उपनिषद लेखन कर हर विशेषांक का एक सार (मूल दर्शन) किसी छोटी पुस्तक (मोनोग्राफ) के रूप में लिखा जाये तो वह लघुकथा विधा के विकास में भी सहायक हो सकता है।

लघुकथाओं में निहित उद्देश्य समाज के लिए किस तरह लाभदायक हैं?
वेदों की ही बात करें तो यजुर्वेद के तैत्तिरीय उपनिषद में शिक्षावल्ली के एक मंत्र का अनुवाद है, “सत्य बोलो, धर्म के अनुसार आचरण करो, अध्ययन से प्रमाद मत करो”। इस वाक्य को लघुकथा से जोड़ें तो लघुकथा आज के समय के सत्य – समय/परिस्थिति/स्थान पर आधारित धर्म को दर्शाते हुए अध्ययन हेतु ऐसी सामग्री प्रदान करे जो प्रमाद से बची रहे – ना तो साहित्यकार प्रमाद करे और ना ही पाठक। साहित्य का अर्थ समाज के हित से ही जुड़ा हुआ है, तब लघुकथाएं इससे अछूती कैसे रह सकती हैं? हालांकि लघुकथाओं का शिल्प कैसा भी हो उसे वह विषय उठाने चाहिए जो सामयिक हों अथवा जिनका भविष्य में कुछ परिणाम हो। ऐसी लघुकथाएं जो काल-कालवित हो चुके विषयों पर आधारित हों, मेरे अनुसार अर्थहीन हैं। लघुकथा कलश के इसी अंक में विशिष्ट लघुकथाकार महेंद्र कुमार जी की रचना पढ़िये “ज़िंदा कब्रें”। कोई भी संजीदा पाठक पढ़ कर कह उठेगा वाह। तथाकथित इतिहास को लेकर प्रगतिशील विचारधारा को रोकने जैसे सामयिक विषय पर बेहतरीन रचना है यह। लेकिन इस तरह की रचनाओं को आम पाठक वर्ग में स्थान पाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि पाठकों में चिंतन करने की अनिच्छा है, वे या तो भावुक करती रचनाएँ चाहते हैं अथवा मनोरन्जन हेतु समय काटने के लिए पढ़ते हैं। लघुकथा का मूल उद्देश्य (समाज का हित) शून्य तो नहीं लेकिन फिर भी पाठकों की कमी के कारण पूरी तरह पूर्ण नहीं हो पा रहा। केवल समाचारपत्रों से बाहर आकर पाठकों को भी अच्छी पुस्तकें, चाहे वे ऑनलाइन ही क्यों न हों, पढ़नी चाहिए, तब जाकर ये समाज के लिए कुछ लाभदायक हो सकेंगी। रीडिंग हैबिट कुछ वर्षों से कम हुई है।

क्या लघुकथाओं का वर्तमान स्वरूप संतोषजनक है?
कहीं पढ़ा था,
संतोष का एक अलग ही पढ़ा पाठ गया,
मुस्कुराता हुआ बच्चा एक रोटी चार लोगों में बाँट गया।
वह बच्चा तो संतुष्ट था कि उसने चार लोगों की भूख मिटाई लेकिन उन चारों की भूख की संतुष्टि? यही साहित्य का हाल है। हालांकि मैं अपनी बात कहूँ तो मैंने आज तक एक भी लघुकथा ऐसी नहीं कही, जिससे मैं स्वयं पूरी तरह संतुष्ट हो पाया, लेकिन सच्चाई यह है कि सबसे पहले लेखकीय संतुष्टि ज़रूरी है। लघुकथाकार जिस उद्देश्य को लेकर लिख रहे हैं वह उद्देश्य उनकी नज़रों में पूर्ण होना आवश्यक है। लेखक और पाठक के बीच सम्प्रेषण की दूरी ना रहे। बाकी मान कर चलिये चार के चार लोग आपसे कभी भी संतुष्ट नहीं होंगे। हर-एक की भूख अलग-अलग है।

लघुकथा का इतिहास लगभग 100 साल पुराना है क्या आप वर्तमान स्वरूप उससे भिन्न पाते हैं?
मुझे फिर महेंद्र कुमार जी की रचना याद आई। इतिहास की तुलना में हमारा वर्तमान प्रगतिशील रहे यही उत्तम है। एक उद्धरण है – “अपनी आँखेँ अपने भविष्य में रखिए, अपने पैर वर्तमान में लेकिन अपने हाथों में अपना अतीत संभाल कर रखिए।“ अतीत से जो कुछ सीखना चाहिए वो अपने हाथों अर्थात कर्मों में होना चाहिए और यही अतीत में जो हम हारें हैं उससे जीत प्राप्त करना है। इतिहास और प्रगतिशीलता की बात करें तो गांधी जी की भी याद आती है – पतंजलि के अष्टांग योग के आठ अंगों में से पहला अंग है यम जिसके पाँच प्रकार हैं और इसका पहला प्रकार है –अहिंसा। अष्टांग योग का आठवाँ और अंतिम अंग है समाधि अर्थात ईश्वर प्राप्ति। अर्थात मूल विचार यह है कि अहिंसा से प्रारम्भ कर हमें यह योग ईश्वर प्राप्ति तक ले जाता है। यही बात भगवान बुद्ध ने भी अपनाई लेकिन गांधी जी ने अहिंसा को अंग्रेजों को भगाने की रणनीति बनाया। यह एक प्रयोग था – उस समय के इतिहास से काफी भिन्न। भगवान कृष्ण ने भी अतीत की कई अवधारणाओं को बदला उदाहरणस्वरूप इन्द्र की बजाय गोवर्धन की पूजा आदि। “लघुकथा कलश” के इसी अंक में भी डॉ. पुरुषोत्तम दुबे जी का आलेख “लघुकथा कितनी पारंपरिक कितनी आधुनिक” को पढ़ें, तो वे बताते हैं कि “आधुनिक लघुकथाएं भाषा, शिल्प, विषय-वस्तु आदि की दृष्टि से पारंपरिक लघुकथाओं से भिन्न हो सकती हैं लेकिन समाज में व्याप्त भदेस या कहें प्रदूषण के निराकरण का उद्देश्य तो दोनों ही का एक है।“ इसी विशेषांक में ही डॉ. रामकुमार जी घोटड़ ने भी अपने आलेख ‘द्वितीय हिन्दी लघुकथा-काल’ द्वारा 1921-1950 के मध्य की लघुकथाओं पर बात की है। आज की रचनाओं से डॉ. रामकुमार जी घोटड़ द्वारा बताई रचनाओं की तुलना करें तो डॉ. पुरुषोत्तम दुबे जी की बात की सत्यता स्वतः प्रमाणित हो जाती है।
एक अन्य बात जो मुझे प्रतीत हो रही है वह इस प्रश्न में निहित है। 100 वर्ष कहना क्या उचित है? पौराणिक कथाओं पंचतंत्र, बेताल बत्तीसी आदि में निहित छोटी-छोटी रचनाओं का उनके रचनाकाल के संदर्भ में विश्लेषण करें तो हो सकता है यह वर्ष बदला जाये। मैं गलत भी हो सकता हूँ लेकिन फिलहाल संतुष्ट नहीं हूँ।

लघुकथा को मानक के अनुसार ही होना चाहिए या आवश्यकतानुसार?
मेरा मानना है कि यदि मानक निर्धारित हैं तो मानकों में फिट होना ही चाहिए। नए प्रयोग भी ज़रूरी हैं जो नए मानकों का निर्धारण करते हैं। पूर्व के प्रश्न में मैंने बेताल बत्तीसी का उदाहरण दिया था, उन बत्तीस की बत्तीस रचनाओं का अंत एक प्रश्न छोड़ जाता, जैसे हम आज की बहुत सारी लघुकथाओं में भी पाते हैं। उस प्रश्न का उत्तर रचना में नहीं होता लेकिन राजा विक्रमादित्य उस प्रश्न का उत्तर देते। यह राजा के मुंह से कहलाया गया अर्थात श्रोता (पाठक) ने उत्तर बताया – रचना ने नहीं। ढूँढने पर बेताल बत्तीसी में ऐसे और भी ताल हमें मिल जाएँगे जो किसी मानक पर आधारित हैं। हालांकि बिना शोध किये कहना गलत ही होगा लेकिन फिर भी मुझे यह भी लगता है कि किसी श्रोता (पाठक) द्वारा उत्तर बताया जाना सर्वप्रथम यहीं से प्रारम्भ हुआ होगा। ऐसे प्रयोग ही मानकों का निर्धारण खुद ही कर लेते हैं।

प्रस्तुत संग्रह में आपको किस लघुकथा/आलेख/साक्षात्कार ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया और क्यों?
एक से बढ़कर एक लघुकथाएं, आलेख, साक्षात्कार, समीक्षाएं होने पर ऐसे प्रश्न पर कुछ कहना मुश्किल हो जाता है फिर भी मैं अपनी पसंद की बात कह सकता हूँ। महेंद्र कुमार जी की लघुकथा का जिक्र मैं दो बार कर ही चुका हूँ। इसके साथ मुझे ही नहीं लगभग सभी पाठकों को संपादकीय बहुत अच्छा और ज्ञानवर्धक प्रतीत हुआ है। मेरे अनुसार निशांतर जी का आलेख “लघुकथा: रचना-विधान और आलोचना के प्रतिमान” भी ऐसा है कि आने वाले समय में इस आलेख का महत्व बहुत अधिक होगा। रवि प्रभाकर जी की समीक्षा के विस्तार और अशोक भाटिया जी की समीक्षा की गूढ़ता हमेशा की तरह बहुत प्रभावित किया। बाकी लघुकथाओं पर कहना इस तरह का है जैसे समुद्र में निहित प्राकृतिक संपदा के बारे में बात करना। इतनी अधिक मात्रा में और विभिन्न प्रकार कि गुणवत्ता आधारित है कि हर एक रचना पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। यहाँ भाई Rajnish Dixit जी को मैं साधुवाद दूँगा कि उन्होने लघुकथा कलश के विशेषांकों की एक-एक रचना पर बात करने की पहल की जो अपने आप में अनूठा और विशिष्ट कार्य है।

किसी लघुकथा को बेहतर बनाये जाने हेतु आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?
कुछ लघुकथाओं में शीर्षक पर कार्य किया जा सकता है। हालांकि ज्ञानवर्धक आलेखों से समृद्ध लघुकथा कलश के तीनों अंकों को अच्छी तरह पढ़ें तो मेरा मानना है कि बेहतरी स्वतः ही ज्ञात हो सकती है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शनिवार, 8 जून 2019

आलेख: लघुकथा समीक्षा भाग-1 | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

हमारे देश में बहुत सारे शिक्षण संस्थान हैं। उनमें से कई संस्थान विशिष्ट भी हैं जैसे केंद्रीय विद्यालय, आईआईटी, एनआईटी, आईआईएम, आईआईआईटी, आदि। इन संस्थानों के अतिरिक्त कई संस्थाएं भी हैं जो अति विशिष्ट की श्रेणी में आती हैं उनके नामों का उल्लेख करें तो आई-ट्रिपल-ई, सीएसआई, आईएमएस, आदि। हालांकि अभी मुझे जो बात कहनी है उसके मद्देनजर श्रेणियाँ अभी खत्म नहीं हुई। इनके आगे कई सरकारी संस्थान हैं यथा डीएसटी, आईसीएसएसआर, आईसीएआर, एआईसीटीआई आदि-आदि। इन सभी पर नियंत्रण के लिए भी यूजीसी है, बोर्ड्स हैं और सबसे ऊपर मानव संसाधन विकास मंत्रालय है। यह वर्गीकरण मैंने अनुक्रम में नहीं किया है लेकिन फिर भी एक बात जो सबसे ज़रूरी है कि इतनी विशाल सरंचना और बुद्धिजीवियों से भरपूर हजारों समितियों के बावजूद भी हमारे देश के विश्वविद्यालय दुनिया के प्रथम 200 में भी स्थान नहीं रखते। (Source: https://www.timeshighereducation.com/student/best-universities/best-universities-world)। यह हमारी शिक्षा नीति की विफलता है या फिर हमारी अपनी, यह जानना भी ज़रूरी है। मैंने कितने ही आचार्यों को देखा है कि पीएचडी शोध ग्रंथ का मूल्यांकन करते समय केवल उसकी अनुक्रमणिका को ही पढ़ कर विवरण बना लेते हैं। यह दुख का विषय है कि ईमानदारी की कमी है, जिससे हम वैश्विक स्तर पर पिछड़ रहे हैं। साथ ही यह भी दुख का विषय है कि बहुत सारी साहित्यिक समीक्षाएं भी अनुक्रमणिका को देख कर लिख लेने का सामर्थ्य भी कितने ही साहित्य के आचार्यों में है। एक पत्रिका की समीक्षा लिखने से पूर्व उस पत्रिका को पूरा पढ़ना फिर समझना और आत्मसात करना आवश्यक है लेकिन कई बार समीक्षाएं पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ भी ईमानदारी की कमी है - लिखना जो ज़रूरी है। "लघुकथा कलश" नामक एक पत्रिका की समीक्षा करते समय ‘विभा रानी श्रीवास्तव’ जी के शब्दों मे, "लघुकथा-कलश के तीसरे महाविशेषांक का अध्ययन करने में मुझे लगभग तीन माह से अधिक का समय लगा।" मेरे अनुसार भी इतना धैर्य, संयम और इच्छा शक्ति होनी चाहिए, तब जाकर समीक्षा में सत्य का तड़का और तथ्यों के मसाले का सही अनुपात आ सकता है। एक लघुकथा लिखने में कई जितने समय की आवश्यकता होती है उसे पढ़ कर समीक्षा करने के लिए कितने अध्ययन की आवश्यकता होगी? मेरे अनुसार यह एक विचारणीय प्रश्न है। हाँ! हम हमारी पाठकीय प्रतिक्रिया तो तुरंत दे सकते हैं।

क्रमशः

शुक्रवार, 7 जून 2019

परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

समीक्षा: परिंदे पत्रिका "लघुकथा विशेषांक"


पत्रिका : परिंदे (लघुकथा केन्द्रित अंक) फरवरी-मार्च'19
अतिथि सम्पादक : कृष्ण मनु
संपादक : डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया
79-ए, दिलशाद गार्डन, नियर पोस्ट ऑफिस,
दिल्ली- 110095,
पृष्ठ संख्या: 114
मल्य- 40/-

वैसे तो हर विधा को समय के साथ संवर्धन की आवश्यकता होती है, लेकिन लघुकथा एक ऐसी क्षमतावान विधा बन कर उभर सकती है जो स्वयं ही समाज की आवश्यकता बन जाये, इसलिए इसका विकास एक अतिरिक्त एकाग्रता मांगता है। हालांकि इस हेतु न केवल नए प्रयोग करना बल्कि इसकी बुनियादी पवित्रता का सरंक्षण भी ज़रूरी है। विधा के विकास के साथ-साथ बढ़ रहे गुटों की संख्या, आपसी खींचतान में साहित्य से इतर मर्यादा तोड़ते वार्तालाप आदि लघुकथा विधा के संवर्धन हेतु चल रहे यज्ञ की अग्नि में पानी डालने के समान हैं

कुछ ऐसी ही चिंता वरिष्ठ लघुकथाकार कृष्ण मनु जी व्यक्त करते हैं अपने आलेख "तभी नई सदी में दस्तक देगी लघुकथा" में जो उन्होने बतौर अतिथि संपादक लिखा है परिंदे पत्रिका के "लघुकथा विशेषांक" में। अपने ग्यारहवें वर्ष में प्रवेश करती हुई परिंदे पत्रिका ने साहित्य की सड़कों पर लगातार बढ़ रहे लघुकथाओं के छायादार वृक्षों द्वारा अन्याय-विसंगति आदि की तपाती हुई धूप में भी प्रज्ज्वलित चाँदनी का एहसास करा पाने की क्षमता को समझ कर इस विशेषांक का संकल्प लिया होगा और उसे मूर्त रूप भी दे दिया और यही संदेश मैंने पत्रिका के आवरण पृष्ठ से भी पाया है।

अपने आलेख में कृष्ण मनु जी ने कुछ बातें और भी ऐसी कही हैं, उदाहरणस्वरूप, "विषय का चयन न केवल सावधानी पूर्वक होना चाहिए बल्कि जो भी विषय चुना हो चाहे वह पुराना ही क्यों न हो उस पर ईमानदारी से प्रस्तुतीकरण में नयापन हो - कथ्य में ताज़गी हो।", "लघुकथा के मूल लाक्षणिक गुणों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए।", आदि।

यहाँ मैं एक श्लोक उद्धृत करना चाहूँगा,
“स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्॥
अर्थात किसी व्यक्ति को आप चाहे कितनी ही सलाह दे दो किन्तु उसका मूल स्वभाव नहीं बदलता ठीक उसी तरह जैसे ठन्डे पानी को उबालने पर तो वह गर्म हो जाता है लेकिन बाद में वह पुनः ठंडा हो जाता है।“

यही बात लघुकथा पर भी लागू होती है और इस पत्रिका के अतिथि संपादक के लेख के अनुसार भी लघुकथा के मूल गुणों को सदैव लघुकथा में होना चाहिए अर्थात प्रयोग तो हों लेकिन मूलभूत गुणों से छेड़खानी ना की जाये, पानी को उबालेंगे तो वह गरम होकर ठंडा होने की प्रकृति तो रखता ही है लेकिन यदि पानी में नमक मिला देंगे तो वह खारा ही होगा जिसे पुनः प्रकृति प्रदत्त पानी बनाने के लिए मशीनों का सहारा लेना होगा हालांकि उसके बाद भी प्राकृतिक बात तो नहीं रहती। शब्दों के मूल में जाने की कोशिश करें तो अपनी यह बात श्री मनु ने कहीं-कहीं लेखन की विफलता को देखते हुए ही कही है, जिसे लघुकथाकारों को संग्यान में लेना चाहिए।

1970 से 2015 के मध्य अपने लघुकथा लेखन को प्रारम्भ करने वाले 63 लघुकथाकारों की प्रथम लघुकथा और एक अन्य अद्यतन लघुकथा (2018 की) से सुसज्जित परिंदे पत्रिका के इस अंक में प्रमुख संपादक डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया जी स्वच्छता पर अपने संपादकीय में न केवल देश में स्वच्छता की आवश्यकता पर बल दिया है बल्कि जागरूक करते हुए कुछ समाधान भी सुझाए हैं। हालांकि उन्होने लघुकथा पर बात नहीं की है लेकिन फिर भी स्वच्छता पर ही जो कुछ उन्होने लिखा है, उस पर लघुकथा सृजन हेतु विषय प्राप्त हो सकते हैं।

पत्रिका के प्रारम्भ में अनिल तिवारी जी द्वारा लिए गए दो साक्षात्कार हैं - पहला श्री बलराम का और दूसरा श्री राम अवतार बैरवा का। दोनों ही साक्षात्कार पठन योग्य हैं और चिंतन-मनन योग्य भी।

सभी लघुकथाओं से पूर्व लघुकथाकार का परिचय दिया गया है, जिसमें एक प्रश्न मुझे बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ - "लघुकथा आपकी प्रिय विधा क्यों है?" यह प्रश्न लघुकथा पर शोध कर रहे शोधार्थियों के लिए निःसन्देह उपयोगी है और यह प्रश्न पत्रिका के इस अंक का महत्व भी बढ़ा रहा है।

इस पत्रिका में दो तरह की लघुकथाएं देने का उद्देश्य मेरे अनुसार यह जानना है कि लघुकथा विधा में एक ही साहित्यकार के लेखन में कितना परिवर्तन आया है? केवल नवोदित ही नहीं बल्कि वरिष्ठ लघुकथाकारों में से भी कुछ लेखक जो चार-पाँच पंक्तियों में लघुकथा कहते थे, समय के साथ वे न केवल शब्दों की संख्या बढ़ा कर भी कथाओं की लाघवता का अनुरक्षण कर पाये बल्कि अपने कहे को और भी स्पष्ट कर पाने में समर्थ हुए हालांकि इसके विपरीत कुछ रचनाकार ऐसे भी हैं जो लघुकथा के अनुसार अधिक शब्दों में लिखते हुए कम (अर्थाव लाघव) की तरफ उन्मुख हुए। कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि सामान्यतः परिपक्वता बढ़ी है और बढ़नी चाहिए भी।

एक और विशिष्ट बात जो मुझे प्रथम और अद्यतन लघुकथाओं को पढ़ते हुए प्रतीत हुई, वह यह कि समय के साथ लघुकथाकारों ने शीर्षक पर भी सोचना प्रारम्भ कर दिया है जो कि लघुकथा लेखन में हो रहे परिष्करण का परिचायक है।

पत्रिका की छ्पाई गुणवत्तापूर्ण है, लघुकथाओं में भाषाई त्रुटियाँ भी कम हैं जो कि सफल और गंभीर सम्पादन की निशानी है। कुल मिलाकर यह एक संग्रहणीय अंक है और मैं आश्वस्त हूँ कि साहित्य, संस्कृति एवं विचार के इस द्वेमासिक के परिंदों को मिलेगी मंज़िल यक़ीनन, ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

गुरुवार, 6 जून 2019

लघुकथा वीडियो:छोटे-बड़े सपने | लेखक - रामेश्वर काम्बोज हिमांशु | स्वर- शैफाली गुप्ता | समीक्षा - डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"छोटे–बड़े सपने" वरिष्ठ लघुकथाकार रामेश्वर काम्बोज हिमांशु द्वारा रचित एक मार्मिक लघुकथा है। इस रचना में लेखक तीन बच्चों के माध्यम में समाज में फैली हुई आर्थिक असामानता को दर्शाने में पूर्णतः सफल हैं। एक विशिष्ट शैली में रचित इस रचना में तीनों बच्चे यूं तो अलग-अलग वर्गों से संबन्धित हैं और अपनी-अपनी बात रखते हैं। ये तीनों बच्चे एक साथ खेल रहे हैं। एक धनाढ्य सेठ, दूसरा बाबू का तो तीसरा एक रिक्शेवाले का बच्चा है।  हालांकि अपने से काफी कमतर वर्ग के बच्चों के साथ अपने बच्चे का खेलना माता-पिता पसंद नहीं करते। किसी धनाढ्य सेठ का बेटा एक भूखे बच्चे के साथ खेल रहा है - यह लेखक की कल्पना उस समाज को लेकर है जहां उंच-नीच ना हो और यह बात आज के समाज के अनुसार केवल बच्चों को लेकर ही दर्शाई जा सकती है।

हालांकि तीनों बच्चों के रहन-सहन में अंतर के साथ उनके विकसित होते मस्तिष्क को भी लघुकथाकार ने  दर्शाने का प्रयास किया है, जो कि लघुकथा सुनने के बाद चिंतन से अनुभव हो सकता है। बच्चों की सहज बातों से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे बच्चे जब भी बड़े होंगे तो उनकी मानसिकता कैसी हो चुकी होगी और तब अमीरी-गरीबी की खाई पाटना उनके लिए बच्चों के खेल जितना आसान नहीं होगा।

लेखक ने पात्रों के नामकरण भी बहुत सोच-समझ कर किए हैं। सेठ गणेशी लाल, नारायण बाबू और जोखू रिक्शे वाला। तीनों के बच्चे अपने–अपने सपनों के बारे में बताते है। सेठ के बेटे का सपना है–दूर नदी-पहाड़ पार कर घूमने जाना, वहीं बाबू का बेटा सपना देखता है कि वह बहुत तेज स्कूटर चला रहा, अंत में रिक्शे वाले का बेटा नमक और प्याज के साथ भरपेट खाना खाने का स्वप्न देखता रहा है और वह अपने सपने को बेहतरीन बताता है क्योंकि वह खुद भूखा है। सेठ का बेटा घूमता ही रहता है उसका यह सपना पूरा होना कोई बड़ी बात नहीं, बाबू का बेटा तेज़ स्कूटर चला सकता है लेकिन कहीं प्रतिबंध है उसके लिए स्कूटर चलाना मनोरंजन है लेकिन रिक्शेवाले का बेटा भूखा है। लेखक ने एक भूखे के स्वप्न के समक्ष बाकी के दोनों सपने बेकार बताए हैं। इस पर एक कहावत याद आ रही है कि किसी भूखे से पूछो कि दो और दो क्या होते हैं तो वह उत्तर देगा "चार रोटी" लघुकथा का अंत न केवल मार्मिक है बल्कि पाठकों को कल्पनालोक से बाहर निकालते हुए यथार्थ की पथरीली ज़मीन पर बिछे काँटों की चुभन का अहसास भी करा देता है।

आइये सुनते हैं रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी की लघुकथा छोटे-बड़े सपने शैफाली गुप्ता के स्वर में:

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




बुधवार, 5 जून 2019

पर्यावरण सरंक्षण पर लघुकथा: कटती हुई हवा | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आज विश्व पर्यावरण दिवस पर संगिनी पत्रिका का जून 2019 अंक  (पर्यावरण विशेषांक) प्राप्त हुआ। इसमें मेरी एक लघुकथा "कटती हुई हवा" को भी स्थान प्राप्त हुआ है। वृक्षों की कटाई पर आधारित यह लघुकथा आप सभी के समक्ष पेश कर रहा हूँ।

लघुकथा: 

कटती हुई हवा


पिछले लगभग दस दिनों से उस क्षेत्र के वृक्षों में चीख पुकार मची हुई थी। उस दिन सबसे आगे खड़े वृक्ष को हवा के साथ लहराती पत्तियों की सरसराहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुना, वह सरसराहट उससे कुछ दूरी पर खड़े एक दूसरे वृक्ष से आ रही थी।

सरसराहट से आवाज़ आई, "सुनो! "
फिर वह आवाज़ कुछ कांपने सी लगी, "पेड़खोर इन्सान...  यहां तक पहुंच चुका है। पहले तो उसने... हम तक पहुंचने वाले पानी को रोका और अब हमें...आssह!"

और उसी समय वृक्ष पर कुल्हाड़ी के तेज प्रहार की आवाज़ आई। सबसे आगे खड़े उस वृक्ष की जड़ें तक कांप उठीं। उसके बाद सरसराहट से एक दर्दीला स्वर आया,
"उफ्फ! हम सब पेड़ों का यह परिवार… कितना खुश और हवादार था। कितने ही बिछड़ गए और अब ये मुझ पर... आह! आह!"

तेज़ गति से कुल्हाड़ियों के वार की आवाज़ ने सरसराहट की चीखों को दबा दिया। कुछ ही समय में कट कर गिरते हुए वृक्ष की चरचराहट के स्वर के साथ सरसराहट वाली आवाज़ फिर आई, इस बार यह आवाज़ बहुत कमजोर और बिखरी हुई थी, "सुनो! मैं जा रहा हूँ। मेरे बहुत सारे बीज धरती माँ पर बिखर गए हैं। उगने पर उन्हें हवा-पानी, रोशनी और गर्मी के महत्व को समझाना… मिट्टी से प्यार करना भी। प्रार्थना करना… कि अगली बार मैं किसी ऊंचे पहाड़ पर उगूं… जहां की हवा भी ये… पेड़खोर छू नहीं पाएं। उफ्फ...मेरी जड़ें भी उखड़..."

धम्म से वृक्ष के गिरने का स्वर गूँजा और फिर चारों तरफ शांति छा गयी। सबसे आगे खड़ा वृक्ष शिकायती लहज़े में सोच रहा था, "ईश्वर, तुमने हम पेड़ों को पीड़ा तो दी, पैर क्यों नहीं दिए?"

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

मंगलवार, 4 जून 2019

मेरी लघुकथा लेखन प्रक्रिया- चंद्रेश छतलानी | ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'



कुछ वर्षों पूर्व की मेरी लघुकथा लेखन प्रक्रिया 

मार्च 2016 में ओम प्रकाश क्षत्रिय जी सर द्वारा लिया गया मेरा साक्षात्कार, वर्ष 2019 में साहित्यकुंज में पुनः प्रकाशित।

मुझे लगता है पूर्ण रूप से नए लघुकथा लेखकों के लिए यह पोस्ट कुछ लाभप्रद होनी चाहिए। मेरा यह भी मानना है कि प्रत्येक लेखक की रचना प्रक्रिया अलग होती है, किसी से तुलना करना उचित नहीं। केवल प्रारम्भ में एक स्टार्ट चाहिए होता है जो अन्य लेखकों की लेखन प्रक्रिया को जानने के बाद समझा जा सकता है। अपने अंतर में बैठे लेखक से पूछ कर अपनी लेखन प्रक्रिया स्वयं ही बनाई जाये तो उससे बेहतर कुछ भी नहीं। इसके अतिरिक्त लेखन प्रक्रिया भी समय के साथ बदलती रहती है, 2016 में जो मेरी रचना प्रक्रिया थी, आज उससे अलग है। हो सकता है बेहतर हो, हो सकता है बदतर भी हो, लेकिन समय के साथ जिस परिवर्तन की आवश्यकता होती है, मेरी लेखन प्रक्रिया में वह परिवर्तन स्वाभाविक रूप से हुआ है। इसके अलावा लेखन पर समय और परिस्थिति का भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। 


मेरी लघुकथा लेखन प्रक्रिया- चंद्रेश छतलानी

ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'


आज हम आप का परिचय एक ऐसे साहित्यकार से करवा रहे है जो लघुकथा के क्षेत्र में अपनी अनोखी रचना प्रक्रिया के लिए जाने जाते हैं। आप की लघुकथाएँ अपने-आप में पूर्ण तथा सम्पूर्ण लघुकथा के मापदंड को पूरा करने की कोशिश करती हैं। हम ने आप से जानना चाहा कि आप अपनी लघुकथा की रचना किस तरह करते है? ताकि नए रचनाकार आप की रचना प्रक्रिया से अपनी रचना प्रक्रिया की तुलना कर के अपने लेखन में सुधार ला सकें।

लघुकथा के क्षेत्र में अपना पाँव अंगद की तरह ज़माने वाले रचनाकार का नाम है आदरणीय चंद्रेश कुमार छतलानी जी। आइए जाने आप की रचना प्रक्रिया-

-ओमप्रकाश क्षत्रिय

ओमप्रकाश क्षत्रिय
चंद्रेश जी! आप की रचना प्रक्रिया किस की देन है? या यूँ कहे कि आप किस का अनुसरण कर रहे हैं? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
आदरणीय सर! हालाँकि मुझे नहीं पता कि मैं किस हद तक सही हूँ। लेकिन आदरणीय गुरूजी (योगराज जी प्रभाकर) से जो सीखने का यत्न किया है और उन के द्वारा कही गई बातों को आत्मसात कर के और उन की रचनाएँ पढ़ कर जो कुछ सीखा-समझा हूँ, उस का ही अनुसरण कर रहा हूँ।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
लघुकथा लिखने के लिए आप सब से पहले क्या-क्या करते हैं?

चंद्रेश कुमार छतलानी
सब से पहले तो विषय का चयन करता हूँ। वो कोई चित्र अथवा दिया हुआ विषय भी हो सकता है। कभी-कभी विषय का चुनाव स्वयं के अनुभव द्वारा या फिर विचारप्रक्रिया द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करता हूँ।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
विषय प्राप्त करने के बाद आप किस प्रक्रिया का पालन करते हैं? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
सब से पहले विषय पर विषय सामग्री का अध्ययन-मनन करता हूँ। कहीं से भी पढ़ता अवश्य हूँ। जहाँ भी कुछ मिल सके- किसी पुस्तक में, इन्टरनेट पर, समाचार पत्रों में, धार्मिक ग्रन्थों में या पहले से सृजित उस विषय की रचनाओं आदि को खोजता हूँ। इस में समय तो अधिक लगता है। लेकिन लाभ यह होता है कि विषय के साथ-साथ कोई न कोई संदेश मिल जाता है। 

इस में से जो अच्छा लगता है उसे अपनी रचना में देने का दिल करता है उसे मन में उतार लेता हूँ। यह जो कुछ अच्छा होता है उसे संदेश के रूप में अथवा विसंगति के रूप में जो कुछ मिलता है, जिस के बारे में लगता है कि उसे उभारा जाए तो उसे अपनी रचना में ढाल कर उभार लेता हूँ। 

ओमप्रकाश क्षत्रिय
मान लीजिए कि इतना करने के बाद भी लिखने को कुछ नहीं मिल पा रहा है तब आप क्या करते हैं?

चंद्रेश कुमार छतलानी
जब तक कुछ सूझता नहीं है, तब तक पढ़ता और मनन करता रहता हूँ। जब तक कि कुछ लिखने के लिए कुछ विसंगति या सन्देश नहीं मिल जाता। 

ओमप्रकाश क्षत्रिय
इस के बाद? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
इस विसंगति या संदेश के निश्चय के बाद मेरे लिये लिखना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है। तब कथानक पर सोचता हूँ। कथानक कैसे लिखा जाए? उस के लिए स्वयं का अनुभव, कोई प्रेरणा, अन्य रचनाकारों की रचनाएँ, नया-पुराना साहित्य, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, आदि से कोई न कोई प्रेरणा प्राप्त करता हूँ। कई बार अंतरमन से भी कुछ सूझ जाता है। उस के आधार पर पंचलाइन बना कर कथानक पर कार्य करता हूँ।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
इस प्रक्रिया में हर बार सफल हो जाते हैं?

चंद्रेश कुमार छतलानी
ऐसा नहीं होता है, कई बार इस प्रक्रिया का उल्टा भी हो जाता है। कोई कथानक अच्छा लगता है तो पहले कथानक लिख लेता हूँ और पंचलाइन बाद में सोचता हूँ। तब पंचलाइन कथानक के आधार पर होती है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
आप अपनी लघुकथा में पात्र के चयन के लिए क्या करते हैं? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
पहले कथानक को देखता हूँ। उस के आधार पर पात्रों के नाम और संख्या का चयन करता हूँ। पात्र कम से कम हों अथवा न हों। इस बात का विशेष ध्यान रखता हूँ। 

ओमप्रकाश क्षत्रिय
लघुकथा के शब्द संख्या और कसावट के बारे में कुछ बताइए? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
मैं यह प्रयास करता हूँ कि लघुकथा 300 शब्दों से कम की हो। हालाँकि प्रथम बार में जो कुछ भी कहना चाहता हूँ उसे उसी रूप में लिख लेता हूँ। वो अधिक बड़ा और कम कसावट वाला भाग होता है, लेकिन वही मेरी लघुकथा का आधार बन जाता है। कभी-कभी थोड़े से परिवर्तन के द्वारा ही वो कथानक लघुकथा के रूप में ठीक लगने लगता है। कभी-कभी उस में बहुत ज़्यादा बदलाव करना पड़ता है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
लघुकथा को लिखने का कोई तरीक़ा है जिस का आप अनुसरण करते हैं? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
प्रारूप यदि देखें तो लघुकथा सीधी ही लिखता हूँ। हाँ, दो अनुच्छेदों के बीच में एक खाली पंक्ति अवश्य छोड़ देता हूँ, ताकि पाठकों को पढ़ने में आसानी हो। यह मेरा अपना तरीक़ा है। इस के अलावा जहाँ संवाद आते हैं वहाँ हर संवाद को उद्धरण चिन्हों के मध्य रखा देता हूँ। साथ ही प्रत्येक संवाद की समाप्ति के बाद एक खाली पंक्ति छोड़ देता हूँ। यह मेरा अपना तरीक़ा है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
इस के बाद आप लघुकथा पर क्या काम करते हैं ताकि वह कसावट प्राप्त कर सके?

चंद्रेश कुमार छतलानी
इस के बाद लघुकथा को अंत में दो-चार बार पढ़ कर उस में कसावट लाने का प्रयत्न करता हूँ। मेरा यह प्रयास रहता है कि लघुकथा 300 शब्दों में पूरी हो जाए। (हालाँकि हर बार सफलता नहीं मिलती)। इस के लिए कभी किसी शब्दों/वाक्यों को हटाना पड़ता है। कभी उन्हें बदल देता हूँ। दो-चार शब्दों/वाक्यों के स्थान पर एक ही शब्द/वाक्य लाने का प्रयास करता हूँ।

कथानक पूरा होने के बाद उसे बार-बार पढ़ कर उस में से लेखन/टाइपिंग/वर्तनी/व्याकरण की अशुद्धियाँ निकालने का प्रयत्न करता हूँ। उसी समय में शीर्षक भी सोचता रहता हूँ। कोशिश करता हूँ कि शीर्षक के शब्द पंचलाइन में न हों और जो लघुकथा कहने का प्रयास कर रहा हूँ, उसका मूल अर्थ दो-चार शब्दों में आ जाए। मुझे शीर्षक का चयन सबसे अधिक कठिन लगता है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
अंत में कुछ कहना चाहेंगे? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
इस के पश्चात प्रयास यह करता हूँ कि कुछ दिनों तक रचना को रोज़ थोड़ा समय दूँ, कई बार समय की कमी से रचना के प्रकाशन करने में जल्दबाज़ी कर लेता हूँ, लेकिन अधिकतर 4 से 7 दिनों के बाद ही भेजता हूँ। इससे बहुत लाभ होता है।

यह मेरा अपना तरीक़ा है। मैं सभी लघुकथाकारों से यह कहना चाहता हूँ कि वे अपनी लघुकथा को पर्याप्त समय दें, उस पर चिंतन-मनन करें। उन्हें जब लगे कि यह अव पूरी तरह सही हो गई है तब इसे पोस्ट/प्रकाशित करें। 





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