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रविवार, 24 मार्च 2019
शनिवार, 23 मार्च 2019
पहली महिला लघुकथा-लेखिका
हरियाणा - 'आधुनिक हिंदी लघुकथा' के प्रतिष्ठित केंद्रों में एक है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि पहली महिला लघुकथा-लेखिका भी हरियाणा से ही रही हैं। जी हां, यहां हरियाणा के फतेहाबाद में 12नवम्बर 1913 को जन्मी लेखिका श्रीमती इंद्रा स्वप्न की बात की जा रही है। इन्होंने सत्तर के दशक में दर्जनों बढ़िया लघुकथाएं लिखी थीं। इनमें अनेक तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुई। ग्रामीण परिवेश की आम गृहिणी होते हुए इन्होंने बाईस उपन्यास, तीन कहानी- संग्रह तथा चालीस से अधिक बालसाहित्य की कृतियों की भी रचना की थी।
इनका पहला लघुकथा-संग्रह इनकी मृत्यु के बीस वर्ष के पश्चात वर्ष 2017 में, जानेमाने साहित्यकार डॉ मधुकांत के साथ संयुक्त रूप में "101 प्रतिनिधि लघुकथाएं" शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसमें इंद्रा जी की पचास लघुकथाएं शामिल हैं।
पाठकों के संदर्भ के लिए यहां, इनकी एक लघुकथा प्रस्तुत की जा रही है।
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_लघुकथा _
शिक्षा
*इंद्रा स्वप्न
"देखो बेटा, सिगरेट पीना बहुत बुरा है..अच्छे बच्चे ऐसी गंदी वस्तुओं को हाथ नहीं लगाते।" हरीश ने अपने भतीजे बब्बू को समझातेे हुए कहा, " मैंने तुम्हें कभी सिगरेट पीते देखा तो अच्छा नहीं होगा।"
"समझ गया चाचाजी, सचमुच गंदे मनुष्य ही सिगरेट पीते हैं।" कहते बब्बू चला गया।
दूसरे दिन हरीश सिगरेट पीने अपने कमरे में पहुंचा, मेज पर सिगरेट की डिब्बी नहीं थी। एक कागज का टुकड़ा पड़ा था, जिसपर लिखा था "चाचाजी, सिगरेट गंदे मनुष्य पीते हैं अच्छे नहीं..इसलिए आपकी सिगरेट की डिब्बी सिगरेटों सहित कूड़ेदान में फेंक दी है।"
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आधुनिक हिंदी लघुकथा शोधपीठ, नई दिल्ली के सौजन्य से प्रस्तुत। संपर्क : अनिल शूर आज़ाद - 9871357136
Source: https://www.facebook.com/photo.php?fbid=519966321742670&set=a.167832916956014&type=3&theater
शुक्रवार, 22 मार्च 2019
पुस्तक समीक्षा: आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार एवं विश्लेषण | रूप देवगुण | समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क
लघुकथा विधा पर विचार करती महत्वपूर्ण कृति
पुस्तक - आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार एवं विश्लेषण
लेखक - रूप देवगुण
प्रकाशन - सुकीर्ति प्रकाशन, कैथल
पृष्ठ - 216
कीमत - 450 / - ( सजिल्द )
लघुकथा विधा के रूप में कब शुरू हुई, प्रथम लघुकथा कौन-सी है, लघुकथा का विकास क्रम क्या है और इसके प्रमुख तत्व कौन से हैं, यह प्रश्न अभी तक अनुत्तरित हैं । अलग-अलग विद्वानों के मत अलग-अलग हैं, लेकिन इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने के प्रयास जारी हैं । रूप देवगुण जी की कृति " आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार एवं विश्लेषण " इसी दिशा में किया गया महत्त्वपूर्ण प्रयास है, जिसे पढ़कर इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने में शोधार्थियों को काफ़ी मदद मिलेगी ।
इस कृति में रूप देवगुण ने पत्रात्मक साक्षात्कार को आधार बनाया है । इसके लिए उन्होंने 61 लघुकथाकारों का साक्षात्कार पत्रों के माध्यम से लिया है, जिनमें एक तरफ वे स्थापित लघुकथाकार हैं, जो वर्षों से इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं, जैसे - मधुदीप, मधुकांत, डॉ. बलराम अग्रवाल, डॉ. शील कौशिक, डॉ. रामनिवास मानव, डॉ. प्रद्युम्न भल्ला, सुरेश जांगिड, अमृतलाल मदान, घमंडीलाल अग्रवाल, श्याम सखा श्याम, नरेंद्र गौड़ आदि तो दूसरी तरफ हरीश सेठी जैसे कुछ नई पीढ़ी के लघुकथाकार भी हैं । लघुकथाकारों से उनकी प्रथम लघुकथा, प्रथम प्रकाशित लघुकथा, लघुकथा संकलनों में हिस्सेदारी, एकल लघुकथा संग्रह, लघुकथा और लघुकथा-संग्रह पर मिले पुरस्कार, सम्मान, लघुकथाओं के मंचन, लघुकथाकारों के साक्षात्कारों या अपने साक्षात्कार, शोध, पत्रिकाओं के प्रकाशन, अनुवाद, आलेख के प्रकाशन आदि से संबंधित प्रश्न पूछे गए हैं । इन प्रश्नों के उत्तर को उन्होंने आधार सामग्री के रूप में लेते हुए इनके विश्लेष्ण से लघुकथा के क्षेत्र में योगदान देने वाले लघुकथाकारों, पत्रिकाओं और संस्थाओं संबंधी प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध करवाई है।
लघुकथा के प्रारम्भ के बारे में वे लिखते हैं कि इसका वास्तविक प्रारम्भ आठवें दशक से माना जाता है लेकिन उनका मानना है कि इससे पूर्व में प्रेमचन्द और जयशंकर प्रसाद की कहानियों का शोध करके इनमें लघुकथा के तत्वों को देखा जाना चाहिए । इस प्रकार वे लघुकथा का प्रारम्भ चौथे-पांचवें दशक से देखते हुए शोधार्थियों को इस विषय पर शोध करने को कहते हैं।
लघुकथा के स्वरूप के बारे में भी वे अपना मत रखते हैं -
" आधुनिक हिंदी लघुकथा में लघुता, एक घटना, कसाव, मारक व प्रभावशाली अंत का होना अनिवार्य है तथा ऐसी लघुकथा में कालदोष भी नहीं होना चाहिए । आधुनिक हिंदी लघुकथा में भाषा-शैली का भी अलग स्वरूप है । आज की लघुकथा के विषय भी समाज, परिवार तथा समसामयिक वातावरण के खोजे जाते हैं । इसके पात्र केवल मनुष्य होते हैं, पशु-पक्षी, वृक्ष आदि ।"
संक्षेप में, यह लघुकथा से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण कृति हैं जिसमें न सिर्फ लघुकथाकारों के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती हैं, अपितु लघुकथा के क्षेत्र में हो रहे विभिन्न आयोजनों का भी पता चलता है । लघुकथा को शोध का विषय बनाने वालों के लिए तो यह कृति विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध होगी ।
- दिलबागसिंह विर्क
Source:
http://dsvirk.blogspot.com/2017/07/blog-post.html
लघुकथा वीडियो : सरोज दहिया की लघुकथाएं
दो लघुकथाएँ: 1. विजातिय और 2. आज भी नारी | सरोज दहिया
लघुकथा: शाख | सरोज दहिया
गुरुवार, 21 मार्च 2019
लघुकथाकार निर्देशिका
श्री मधुदीप गुप्ता की फेसबुक वॉल से
लघुकथाकार निर्देशिका का प्रकाशन प्रस्तावित
आप अपना नाम, जन्म तिथि, पूरा डाक पता, मोबाइल नम्बर और ईमेल आईडी लिखकर भेज सकते हैं, फोटो नहीं।
सम्पर्क :
मधुदीप,
दिशा प्रकाशन ,
138/16 त्रिनगर, ओंकार नगर-बी, दिल्ली-110035
मोबाइल : 93124 00709
जानकारी रजिस्टर्ड डाक से ही भिजवानी है ।
इस सूचना को अपने उन मित्रों तक अवश्य पहुंचायें जो फेस बुक पर नहीं हैं ।
Source:
https://www.facebook.com/madhudeep.gupta/posts/1258813127617771
लघुकथाकार निर्देशिका का प्रकाशन प्रस्तावित
आप अपना नाम, जन्म तिथि, पूरा डाक पता, मोबाइल नम्बर और ईमेल आईडी लिखकर भेज सकते हैं, फोटो नहीं।
सम्पर्क :
मधुदीप,
दिशा प्रकाशन ,
138/16 त्रिनगर, ओंकार नगर-बी, दिल्ली-110035
मोबाइल : 93124 00709
जानकारी रजिस्टर्ड डाक से ही भिजवानी है ।
इस सूचना को अपने उन मित्रों तक अवश्य पहुंचायें जो फेस बुक पर नहीं हैं ।
Source:
https://www.facebook.com/madhudeep.gupta/posts/1258813127617771
शोध ग्रंथ प्रस्तावना: हिंदी लघुकथा का विकास | डॉ. अंजलि शर्मा
लघुकथा हिंदी साहित्य की नवीनतम् विधा है । इसका श्रीगणेश छत्तीसगढ़ के प्रथम पत्रकार और कथाकार माधव राव सप्रे के 'एक टोकरी भर मिट्टी से होता है' । हिंदी के अन्य सभी विधाओं की तुलना में अधिक लघुआकार होने के कारण यह समकालीन पाठकों के ज्यादा करीब है और सिर्फ़ इतना ही नहीं यह अपनी विधागत सरोकार की दृष्टि से भी एक पूर्ण विधा के रूप में हिदीं जगत् में समादृत हो रही है । इसे स्थापित करने में जितना हाथ लघुकथाकारों का रहा है उतना ही कमलेश्वर , राजेन्द्र यादव, बलराम, आदि संपादकों का भी रहा है । खास कर लघुपत्रिकाओं के संपादकों का ।हमने अपने प्रिय पाठकों के लिए पहली बार हिंदी लघुकथा के विकास पर किसी शोध ग्रंथ को धारावाहिक रूप से छापने का निर्णय लिया है ताकि इस लघु किंतु गुरुतर विधा से सारी दुनिया के रचनाकार और पाठक भी अवगत हो सकें ।
हमें खुशी है रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर, छत्तीसगढ़ के शोध छात्रा और हिदीं के प्राध्यापक डॉ. अंजलि शर्मा जी की सहमति से संपूर्ण शोध कृति अंतरजाल पर प्रकाशित हो रहा है, जिस पर उन्हें पी-एच.ड़ी की उपाधि मिल चुकी है । हिंदी अंतरजाल के इतिहास में शायद पहला अवसर है कि कोई शोध कृति धारावाहिक प्रकाशित हो रही है । - संपादक
प्रस्तावना
हिन्दी में जब कहानी एक स्वतंत्र विधा के रुप में अस्तित्व में आयी, तब वह अंग्रेजी के ‘शार्ट स्टोरी’ के समानान्तर उभरी और छोटी कहानी के नाम से प्रचलित हुई । आगे चलकर हिन्दी में कहानी शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में होने लगा और छोटी विशेषण लुप्त हो गई । इसके अनन्तर निर्धारित सांचे ढांचे से अलगाने के लिये हिन्दी कहानीकारों में एक अन्य प्रवृत्ति भी दिखाई दी, जिसे लंबी कहानी के नाम से अभिहित किया गया । एक बार पुनः कहानी का सांचा टूटा और हिंदी कहानी का नवीन रुप सामने आया जो कहानी और लंबी कहानी से अलग थी, उसे लघुकथा नाम से ख्याति मिली । जिस प्रकार लंबी कहानी को संक्षिप्त करके कहानी की रचना नहीं की जा सकती और न कहानी को बढ़ाकर लम्बी बनायी जा सकती, उसी प्रकार छोटी कहानी का आकार कम करके लघुकथा और लघुकथा का आकार बढ़ाकर कहानी का सृजन नहीं किया जा सकता । यह स्पष्ट है कि कहानी, लंबी कहानी और लघुकथा नाम से कहानी के तीन प्रमुख मोड़ है, जिनका अलग-अलग अस्तित्व और सांचा-ढांचा है, जिनसे इस विधा का क्रमिक विकास स्पष्ट होता है ।यद्यपि विगत दो दशकों में लघुकथाओं के लेखन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, तथापि इसके बीज जहां वेद, उपनिषद से लेकर पुराण पर्यन्त तथा पंचतंत्र हितोपदेश आदि कथाओं में संस्थित है, वहीं पारंपरिक लोककथाओं में निहित प्रागैतिहासिक काल से लेकर महापर्यन्त जीवन के स्पंदनों से प्रमाणित है । इस दृष्टि से हिन्दी लघुकथा एवं विकास का अध्ययन मौलिक उद्भावना का प्रतीक है । यह परंपरा वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, बौद्ध एवं जातक कथाओं में प्राप्त होती है । कुछ विद्वानों का मत है लघुकथा बीसवीं शताब्दी की देन है । आकार की दृष्टि से लघुकथा प्राचीन हो सकती है, लेकिन वैचारिक धरातल पर आज की लघुकथाओं और प्राचीन लघुकथाओं में पर्याप्त अंतर है, इस विशाल ब्रह्माण्ड में लघु पृथ्वी की हैसियत नगण्य है, फिर भी उसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता । ठीक यही बात लघुकथा के लिए उचित प्रतीत होती है । लघुकथा विस्फोटक के साथ-साथ प्रस्फुटित हुई विधा है । यह किसी व्यक्ति की महानता में बोले जाने वाला लच्छेदार भाषण नहीं वरन शोषण और शोषक के खिलाफ एक क्रांति है ।लघुकथाओं में जहां सूक्तियों का समीकरण जीवन की विद्रुपताओं और विषमताओं का समाहार है, वहीं व्यंग्य की पैनीधार, कथा का श्रृंगार और संवादों के माध्यम से नाटकीयता का स्वीकार है । यायावर मन के बीच घटने वाली क्षणिक घटनाओं में जीवन की विराट व्याख्या छिपी रहती है । इस विराट कथ्य का बिंबों में बांध लेना ही लघुकथा सर्जक का उपक्रम है । संक्षिप्तता इसकी पहचान है । मन को आंदोलित करने वाली अनुभूति को डाइल्यूट किये बिना कहना लघुकथा की विशेषता है । यही कारण है कि जिस तल्खी, तीखापन, सटीकता, संक्षिप्तता और चुभन की प्रखरता से आर्थिक विषमता, सामाजिक विसंगतियां, राजनैतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार, व्यक्ति और समाज की विडम्बना, मानवीय संबंधों का खोखलनापन, संघर्ष और शोषण को लघुकथा के माध्यम से उजागर किया जा सकता है, उतना साहित्य के किसी अन्य माध्यम से नहीं ।
लघुकथा एक साथ लघु भी है, और कथा भी । यह न लघुता को छोड़ सकता है, न कथा को ही । लघुकथा में कथानक की लघुता के माध्यम से कथ्य को धारदार रुप में पाठक तक पहुंचाना होता है । लघुकलेवर में प्रभाव पैदा करने के लिए लघुकथाकार को अपने कथानक और कथ्य के चयन में इससे साथ ही भाषिक स्तर पर शब्द योजना और वाक्य विन्यास के विषय में बहुत सतर्क रहना होता है । लघुकथाकार को भाषा की समाहार शक्ति से काम लेना होता है। लघुकथाकार को थोड़े में अधिक कहने की कलाकार क्षमता अर्जित करनी होती है, आकार की यह लघुता महत्तम कलात्मक अपेक्षा रखनी है ।लघुकथा की आकारगत लघुता इस विधा की उपरी पहचान है, और भीतरी शक्ति भी है । इसमें एक ही केंद्रीय प्रसंग होता है, जो पांच सात पंक्तियां चलकर ही अपने उत्कर्ष की चरम पर पहुंच जाती है, यह उत्कर्ष लघुकथा का नाटकीय मोड़ होता है । इस मोड़ पर ही कथ्य संदर्भ के माध्यम से पूरी उर्जो के साथ व्यक्त होता है। इस प्रकार लघुकथा के लघुप्रसंग में एक नाटकीय भंगिमा अवश्य रहती है, जो स्थिति की विडम्बना का एक झटके के साथ पर्दाफाश करती है ।
लघुकथा के लघु कलेवर में एक-दो पात्र ही समा सकते हैं, वे भी व्यक्तित्व के वाहक न होकर किसी विशेष प्रवृत्ति के पर्याय होते हैं । लघुकथा के संक्षिप्त कथानक में पात्रों के व्यक्तित्व के विकास की गुंजाइश नहीं होती। व्यक्तित्व के आयामों के विकास के लिए सम-विषम प्रकृति के अनेक प्रसंगों की आवश्यकता होती है, लेकिन लघुकथा की लघुता एक से अधिक प्रसंग गवारा नहीं कर सकती । मानव जीवन की विकृतियों पर प्रहार करते हुए उसे संस्कृति की स्वस्थ दिशा में प्रेरित करना ही लघुकथा लेखक का मुख्य लक्ष्य होता है । कथ्य अपने आप में महत्वपूर्ण होते हुए भी जब तक संदर्भगत संवेदना और भाषा के सहारे सशक्त सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का रुप नहीं ले पाती, तब तक सपाट बयानी के स्तर से उपर नहीं उठ सकती । लघुकथा न बोधकथा है, न नीतिकथा, न ही विचारकथा वरन लघुकथा आज के व्यस्ततम युग की मांग के अनुरुप सृजनधर्मी मानस और विविध विसंगत संदर्भों की टकराहट के बीच से उपजी एक समर्थ विधा है, जो देखने में छोटी होते हुए भी अपनी प्रभाववत्ता में कहानी से कम नहीं है ।सामान्यतः आलोचक कहानी के अंतर्गत लंबी कहानी का विवेचन करते रहे, और लघुकथाओं को अश्पृश्य मानकर उसे पूर्णतः उपेक्षित करते रहे । पाठकों की स्थिति ठीक इसके विपरीत है । उनके लिये लघुकथा प्रिय विधा है और उसकी लोकप्रियता शनैः-शनैः बढ़ते ही जा रही है ।
किसी भी साहित्यिक विधा का अस्तित्व पाठकों पर सर्वाधिक निर्भर करता है, क्योंकि रचनाकार केवल सृजन करता है, जबकि पाठक रचना और रचनाकार का विस्तार ही नहीं करता, उसके लिए साहित्य में स्थान भी सुरक्षित करता है । उल्लेखनीय है कि लघुकथा को पाठकों का संबल मिल गया है । इस विधा की ओर युवा कथाकार अधिक आकृष्ट हुए हैं, वहीं वयोवृद्ध कथाकारों ने भी इसे अपनाया है । अखरने वाली बात यह है कि हिन्दी के आलोचक इस विधा की शक्ति और क्षमता से अपरिचित एवं उदासीन हैं । इसका प्रमाण है कि किसी भी आलोचक ने इस विधा पर लेखनी ही नहीं चलायी है ।मैं यह मानती हूँ कि लघुकथा एक साहित्यिक विधा है, जो कथा साहित्य के अंतर्गत एक प्रयोग के रुप में हमारे सामने आयी पर अब एक चुनौती बन गई है । यह चुनौती रचनाकार के लिए भी है और आलोचक के लिये भी । रचनाकार के लिये कथ्य के चयन से लेकर अभिव्यक्ति तक अनेक चुनौतीपूर्ण आह्वान है । आलोचकों के लिए विकट समस्या यह है कि जिन तत्वों पर कहानी की आलोचना होती है, वे क्या लघुकथा के लिए पर्याप्त हैं ? लघुकथा में रचनात्मक क्षमता है, पर आवश्यकता इस बात की है कि इस विधा को अपनाने वाले रचनाकारों में रचनात्मक क्षमता हो । इस विधा की रचनात्मक क्षमता की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता । पूर्वोक्त विवेचन के आधार पर यह प्रश्न बेमानी हो जाती है कि लघुकथा की विधा में सामयिक सार्थकता है, या नहीं ? अगर ऐसा न होता तो अपनी 50 वर्षों से अधिक लंबी यात्रा में कैसे टिक सकती थी ? अर्थात् यह समय की परीक्षा में खरी उतरी है, आठवें और नवे दशकों में पर्याप्त सफलता हासिल करके दसवें दशक में प्रवेश कर चुकी है । किसी भी रचना की सार्थकता के आधार इस प्रकार हो सकते हैं, उसमें रचनात्मक सौष्ठव हो, उसमें व्यापक जीवन समेटा गया हो, अभिव्यक्ति में नवीनता एवं मौलिक उद्भावनाएं हों, स्वस्थ जीवन दृष्टि के साथ-साथ वैचारिकता और समकालीनता की झलक हो तथा वह समाज को आगे ले जाये इस प्रकार कृतित्व और श्रेष्ठता एवं प्रासंगिकता मिलकर रचना की सार्थकता को प्रतिपादित करती हैं । कहा जा सकता है कि लघुकथा में सार्थकता के सभी आधार विद्यमान हो सकते हैं और सार्थक लघुकथाओं में विद्यमान रहते हैं ।
लघुकथा का रुप क्या है, और वह मुख्य रुप से कहानी से किस हद तक अलग है, जिसे प्रस्तुत करने के अनेक तरीके अपनाये जाते हैं। इसके लिये कथा का आधार आधुनिक या प्राचीन जीवन से लिया जाता है। उसमें पशु पक्षी आदि के संस्कार से विषय लेकर फेंटेसी के माध्यम से अभिव्यक्ति की जाती है। लघुकथाओं में नीति बोधकथा को नवीन संदर्भों में अभिव्यक्ति देकर जहां वह सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति करती है, वहीं तीखे व्यंग्य का बाहक बनती है। लघुकथा में किसी नियोजित कथावस्तु के निर्वाह की गुंजाइश नहीं होती और पात्रों का चरित्र चित्रण भी उसकी निर्धारित सीमा से बाहर होता है, फिर भी लघुकथा का सूत्र कितना भी सूक्ष्म क्यों न हो, उसमें पात्र की मानसिकता को उधेड़ती हुई कलाकार की दृष्टि उसके वास्तविक स्वरुप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है। अतः लघुकथा में व्यक्ति का बाहरी संसार ही उजागर नहीं होता, बल्कि भीतरी संसार भी प्रत्यक्ष हो जाता है। लघुकथाएं समय के सत्य का वाहक बनकर हमारे सामने आती हैं। हिंदी लघुकथा के संदर्भ में व्यप्त भ्रांतियों को दूर करके मैंने विविध विंदुओं पर दूसरे स्वरुप को सुस्पष्ट करने का प्रयास किया है। उपयुक्त तथ्य विविध लघुकथाकारों से चर्चा प्रश्नावली के माध्यम से निदान और लघुकथाकारों के अध्ययन अनुशीलन के अनंतर शोध की नूतन सृष्टि और मौलिकता की दृष्टि का प्रतीक है। हिंदी लघुकथाकारों के स्वरुप और विकास पर अनेक आलोचकों व लघुकथाकारों ने समय-समय पर विचार भी किये हैं तथा कुछ महत्वपूर्ण शोध भी समक्ष प्रस्तुत हुए हैं लेकिन प्रस्तुत शोध प्रबंध के विषय के अनुरुप इसका आंकलन वे व्यवस्थित विचार अभी तक उपलब्ध नहीं था। विचार विच्छिन्न थे और आलोचना को एकांगी और अपरिभाषित संसार ही हमारे समक्ष था।
लघुकथाओं के इस कुज्झटिकाच्छन स्थिति में सत्यान्वेषण के आलोक बतौर यह शोध प्रबंध यदि कुछ दे पाये, तो यह मेरे श्रम की सार्थकता होगी।प्रस्तुत विषय की पूर्णता हेतु जहां मुझे दूसरे विकास क्रम हेतु पत्र-पत्रिकाओं और संग्रहों का संकलन करना पड़ा, वहीं समीक्षा को ढूंढना पड़ा। इसके साथ ही लघुकथाकारों से संपर्क, चर्चा व पत्रों के माध्यम से विचार बिन्दु प्राप्त कर इसके स्वरुप और विकास को व्यवस्थित रखने का विनम्र प्रयास करना पड़ा । समय-सीमा और एक नारी होने की सामाजिक मर्यादा बंधन को स्वीकारते हुए मैंने जो कुछ भी लिखा, यही शोध का गंतव्य और अध्ययन का महत्व है ।मैंने प्रस्तुत विषय को विविध दस अध्यायों में विभक्त कर हिन्दी लघुकथा उद्भव एवं विकास को विवेचित किया है।
प्रथम अध्याय में कथा की परिभाषा एवं कथा का विकासात्मक अध्ययन करते हुए कथा एवं लघुकथा के अंतरों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । कथा एवं लघुकथा में रचना प्रक्रिया के अंतर के साथ ही वैचारिक दृष्टिकोणों में मूलभूत अंतर है । साथ ही लघुकथा के संबंध में अनेक विद्वानों को रखते हुए मैंने लघुकथा की विशेषताओं को आंकने का प्रयास किया है ।
द्वितीय अध्याय- ‘लघुकथा का क्रमिक विकास’ शीर्षक में लघुकथा के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत करने के लिए अध्ययन की दृष्टि से दो स्थूल रूपों में काल विभाजन किया है प्राचीन युग एवं नवीन युग । प्राचीन काल की लघुकथाओं में वैदिक युगीन लघुकथाओं को प्रथम सूत्र में पिरोया है । इस युग की लघुकथाओं में आध्यात्मिक एवं अलौकिक रहस्यों की व्याख्या की गई है, जैसा कि ऋग्वेद और अर्थववेद में मिलता है । उदाहरणार्थ यम और यमी की कथा । रामायण और महाभारत में भी लंबी कथा से जुड़ी रहकर लघुकथा का स्वतंत्र रुप प्राप्त होता है । रामायण कालीन न्याय व्यवस्था का स्वरुप वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में गिद्धराज और उल्लू की लड़ाई झगड़े की कथा प्राप्त होती है । लघुकथा का नवीन रुप माखन लाल चतुर्वेदी की लघुकथा ‘बिल्ली और बुखार’ को हिन्दी साहित्य की सर्वप्रथम लघुकथा मानी जा सकती है । आठवाँ दशक लघुकथा के विकास का काल है । इस दशक में लघुकथा को स्वतंत्र मौलिक विधा के रुप में स्थापित करने का स्वर प्रबल रहा । सन् 1974 में मेरठ विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग ने इसे स्वतंत्र मौलिक विधा घोषित करके विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रमों में स्थान दिया । इसी अध्याय में लघुकथा के ऐतिहासिक सोपानों को स्पष्ट किया गया है ।
तृतीय अध्याय- में लघुकथा के स्वरुपगत और भाषागत वैशिष्टय को स्पष्ट किया है । लघुकथा के आकारगत वैशिष्ट्य, सुगठित शिल्प एवं सशक्त भाषा के कारण लघुकथा लोकप्रिय हुई । हिन्दी साहित्य की सश्क्त एवं लोकप्रिय विधा लघुकथा का अत्यंत अल्पकाल में इतना विकास हुआ कि अब तक इसकी सर्वमान्य परिभाषा नहीं है । अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि लघुकथा वास्तविक जीवन की क्षणिक घटना का रेखांकन है, जो छोटी होते हुए भी स्वतः पूर्ण और सुगठित होती है । प्रायः यही परिभाषा कहानी की भी दी जा सकती है, किन्तु लघुकथा और कहानी में बहुत अंतर है । साधारणतः लोग यही समझते हैं कि यदि घटना-क्रम को विस्तार से बड़े आकार में लिखा जाय, तो उसे कहानी कहेंगे और उसी आकार को लघु कर दिया जाये तो लघुकथा कहेंगे, किन्तु यह भ्रांति है । कहानी और रचना में मूलभूत अंतर है । यह अंतर केवल आकार प्रकार का नहीं, आत्मा का भी होता है ।लघुकथा के स्वरुप के संबंध में उसके आकार को लेकर भी विवाद है । वस्तुतः आकार की लघुता लघुकथा की अनिवार्य विशेषता है, जो उसके नाम में ही समाहित है । लघुकथा कितने शब्दों और पृष्ठों की होनी चाहिए । यह कोई व्यवहारिक मुद्दा नहीं है और नहीं कोई बंधन है। यह कहा जा सकता है कि लघुकथा में एक भी शब्द अनावश्यक न हो । दरअसल कम से कम शब्दों में अधिक कह देने के सामर्थ्य में ही लघुकथा का सारा कौशल निहित है ।अतः संक्षिप्तता और कसावट के निर्वाह के लिये लघुकथा की संवेदना के दायरे को समझ लेना चाहिए यदि लघुकथा की तुलना कहानी के साथ करें तो यह बेमानी है, कारण दोनों कही अपने-अपने ढंग से अपने समय के सच को पूरी प्रमाणिकता के साथ व्यक्त करती है । फर्क केवल इतना है कि लघुकथा उस तकतीर की तरह सीधे जाती है, जबकि कहानी विभिन्न स्थितियों का समाकलन करती हुई उस सच को पैदा करने वाली स्थितियों को भी उजागर करती है, तथा अंत में उन स्थितियों के खिलाफ पाठक को सोचने के लिये उत्तेजित करती है । लघुकथा और कहानी में एक बहुत बड़ा फर्क यही है । लघुकथा अपनी संपूर्णता में पाठकों उत्तेजित करने में उतनी सफल नहीं हुई, शायद इसके पीछे लघुकथा के साथ जाने अनजाने जुड़ा हुआ चुटकुला का स्वरुप भी है । अपनी संपूर्ण और ईमानदार कोशिशों के बावजूद लघुकथाकार इस भ्रम को दूर नहीं कर पाये हैं, और जब एक यह भ्रम दूर नहीं होगा उसका प्राप्य उपलब्ध नहीं होगा ।
चतुर्थ अध्याय - में हिन्दी लघुकथा साहित्य की विशेषताओं एवं न्यूनताओं को रेखांकित किया गया है ।
पंचम अध्याय में लघुकथा के शैलीगत वैशिष्टय के अंतर्गत लघुकथा में प्रयुक्त विभिन्न शैलियों का वर्णन किया गया है । लघुकथा की शैली के संबंध में यह प्रश्न उठता है कि क्या व्यंग्य लघुकथा के लिये अनिवार्य तत्व हैं ? यह सही भी है कि सस्ता हास्य लघुकथा के लिये सर्वथा वर्ज्य है किंतु व्यंग्य का अर्थ हास्य, कदापि नहीं है। व्यंग्य की एक शैली है, एक भंगिमा है, एक शक्ति है, जो हमारी चेतना को उद्वेलित करने में अमिधात्मक शैली से अधिक समर्थ होती है।
षष्ठ अध्याय में लघुकथाओं की वैचारिक पृष्ठ भूमि एवं संप्रेषणीयता के प्रश्नों की उद्घाटित करने की चेष्ठा की गई है। अपने लघुआकार में लघुकथा व्याप्क संप्रेषणीयता व प्रभावोत्पादकता के लिये अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। लघुकथा के आकारगत वैशिष्टय, सुगंठित शिल्प एवं सशक्त भाषा के कारण लघुकथा लोकप्रिय हुई ।
सप्तम् अध्याय- आठवें दशक की लघुकथाओं में समकालीनता के अंतर्गत आठवें दशक की लघुकथा की विशेषताओं को उजागर करने का प्रयास किया गया है। हिंदी लघुकथा के विकास के संदर्भ में आठवों दशक को नवोन्मेष काल कहा जा सकता है। स्पष्ट है कि पारंपरिक आदर्शों एवं उपदेशों में गुम्फित लघुकथा का यथार्थ के धरातल पर अवतरण हुआ।
अष्टम अध्याय- आठवें अध्याय में हिंदी के श्रेष्ठ लघुकथाकारों की प्रमुख लघुकथाओं की विशेषताओं को रेखांकित करने के साथ ही लघुकथाकारों का परिचय भी दिया गया है।
नवम अध्याय- ‘नवें दशक की लघुकथाओं में समकालीनता’ के अंतर्गत नवें दशक के लघुकथाकारों की लघुकथाओं पर दृष्टि डालने का प्रयास किया है। नवम अध्याय में हिंदी के श्रेष्ठ लघुकथाकारों का प्रदेय एवं मूल्यांकन की ईमानदार कोशिश की गई है।
दशम अध्याय- ‘उपसंहार के अंतर्गत समग्र लघुकथाओं तथा उसके भविष्य की संभावनाओं पर विचार करने के पश्चात निष्कर्षतः सार संक्षेप को प्रस्तुत किया गया है।लघुकथा अपने परिचय से लेकर संघर्ष करने तक की जोखिम भरी तमाम स्थितियों से गुजरकर आठवों दशक में स्वतंत्र विधा के रुप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हुई। लघुकथा के कथ्य शिल्प का निर्वाह ईमानदारी से किया जा रहा है। आज की लघुकथाओं में अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह शिल्प रचनाधर्मिता के संबंध में गुण तत्व के रुप में समाहित है। लघुकथाएं सम-सामियकता से जुड़ी हुई तथा प्रभाव संप्रेषण की दृष्टि से असीम क्षमता युक्त है। जहां इसकी महता लघुकथाकार के द्वारा नये मूल्यों की स्थापना है, वहीं अपने उत्तरदायित्व की पूरी तरह एहसास कराने में भी, निःसंकोच कहा जा सकता है कि आज की लघुकथाओं में यथार्थ के धरातल और समय की आवाज को मुखर करने को एक ईमानदार कोशिश के अमिट चिन्ह परिलक्षित होते हैं।
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डॉ. अंजलि शर्मा
सहायक प्राध्यापक
शासकीय स्नातकोत्तर कला एवं वाणिज्य महा'जरहाभाटा,
बिलासपुर, छत्तीसगढ
Source:
http://hindilaghukathaa.blogspot.com/2007/09/blog-post.html
स्त्रोत पर प्रकाशन दिनांक: September 25, 2007
हमें खुशी है रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर, छत्तीसगढ़ के शोध छात्रा और हिदीं के प्राध्यापक डॉ. अंजलि शर्मा जी की सहमति से संपूर्ण शोध कृति अंतरजाल पर प्रकाशित हो रहा है, जिस पर उन्हें पी-एच.ड़ी की उपाधि मिल चुकी है । हिंदी अंतरजाल के इतिहास में शायद पहला अवसर है कि कोई शोध कृति धारावाहिक प्रकाशित हो रही है । - संपादक
प्रस्तावना
हिन्दी में जब कहानी एक स्वतंत्र विधा के रुप में अस्तित्व में आयी, तब वह अंग्रेजी के ‘शार्ट स्टोरी’ के समानान्तर उभरी और छोटी कहानी के नाम से प्रचलित हुई । आगे चलकर हिन्दी में कहानी शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में होने लगा और छोटी विशेषण लुप्त हो गई । इसके अनन्तर निर्धारित सांचे ढांचे से अलगाने के लिये हिन्दी कहानीकारों में एक अन्य प्रवृत्ति भी दिखाई दी, जिसे लंबी कहानी के नाम से अभिहित किया गया । एक बार पुनः कहानी का सांचा टूटा और हिंदी कहानी का नवीन रुप सामने आया जो कहानी और लंबी कहानी से अलग थी, उसे लघुकथा नाम से ख्याति मिली । जिस प्रकार लंबी कहानी को संक्षिप्त करके कहानी की रचना नहीं की जा सकती और न कहानी को बढ़ाकर लम्बी बनायी जा सकती, उसी प्रकार छोटी कहानी का आकार कम करके लघुकथा और लघुकथा का आकार बढ़ाकर कहानी का सृजन नहीं किया जा सकता । यह स्पष्ट है कि कहानी, लंबी कहानी और लघुकथा नाम से कहानी के तीन प्रमुख मोड़ है, जिनका अलग-अलग अस्तित्व और सांचा-ढांचा है, जिनसे इस विधा का क्रमिक विकास स्पष्ट होता है ।यद्यपि विगत दो दशकों में लघुकथाओं के लेखन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, तथापि इसके बीज जहां वेद, उपनिषद से लेकर पुराण पर्यन्त तथा पंचतंत्र हितोपदेश आदि कथाओं में संस्थित है, वहीं पारंपरिक लोककथाओं में निहित प्रागैतिहासिक काल से लेकर महापर्यन्त जीवन के स्पंदनों से प्रमाणित है । इस दृष्टि से हिन्दी लघुकथा एवं विकास का अध्ययन मौलिक उद्भावना का प्रतीक है । यह परंपरा वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, बौद्ध एवं जातक कथाओं में प्राप्त होती है । कुछ विद्वानों का मत है लघुकथा बीसवीं शताब्दी की देन है । आकार की दृष्टि से लघुकथा प्राचीन हो सकती है, लेकिन वैचारिक धरातल पर आज की लघुकथाओं और प्राचीन लघुकथाओं में पर्याप्त अंतर है, इस विशाल ब्रह्माण्ड में लघु पृथ्वी की हैसियत नगण्य है, फिर भी उसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता । ठीक यही बात लघुकथा के लिए उचित प्रतीत होती है । लघुकथा विस्फोटक के साथ-साथ प्रस्फुटित हुई विधा है । यह किसी व्यक्ति की महानता में बोले जाने वाला लच्छेदार भाषण नहीं वरन शोषण और शोषक के खिलाफ एक क्रांति है ।लघुकथाओं में जहां सूक्तियों का समीकरण जीवन की विद्रुपताओं और विषमताओं का समाहार है, वहीं व्यंग्य की पैनीधार, कथा का श्रृंगार और संवादों के माध्यम से नाटकीयता का स्वीकार है । यायावर मन के बीच घटने वाली क्षणिक घटनाओं में जीवन की विराट व्याख्या छिपी रहती है । इस विराट कथ्य का बिंबों में बांध लेना ही लघुकथा सर्जक का उपक्रम है । संक्षिप्तता इसकी पहचान है । मन को आंदोलित करने वाली अनुभूति को डाइल्यूट किये बिना कहना लघुकथा की विशेषता है । यही कारण है कि जिस तल्खी, तीखापन, सटीकता, संक्षिप्तता और चुभन की प्रखरता से आर्थिक विषमता, सामाजिक विसंगतियां, राजनैतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार, व्यक्ति और समाज की विडम्बना, मानवीय संबंधों का खोखलनापन, संघर्ष और शोषण को लघुकथा के माध्यम से उजागर किया जा सकता है, उतना साहित्य के किसी अन्य माध्यम से नहीं ।
लघुकथा एक साथ लघु भी है, और कथा भी । यह न लघुता को छोड़ सकता है, न कथा को ही । लघुकथा में कथानक की लघुता के माध्यम से कथ्य को धारदार रुप में पाठक तक पहुंचाना होता है । लघुकलेवर में प्रभाव पैदा करने के लिए लघुकथाकार को अपने कथानक और कथ्य के चयन में इससे साथ ही भाषिक स्तर पर शब्द योजना और वाक्य विन्यास के विषय में बहुत सतर्क रहना होता है । लघुकथाकार को भाषा की समाहार शक्ति से काम लेना होता है। लघुकथाकार को थोड़े में अधिक कहने की कलाकार क्षमता अर्जित करनी होती है, आकार की यह लघुता महत्तम कलात्मक अपेक्षा रखनी है ।लघुकथा की आकारगत लघुता इस विधा की उपरी पहचान है, और भीतरी शक्ति भी है । इसमें एक ही केंद्रीय प्रसंग होता है, जो पांच सात पंक्तियां चलकर ही अपने उत्कर्ष की चरम पर पहुंच जाती है, यह उत्कर्ष लघुकथा का नाटकीय मोड़ होता है । इस मोड़ पर ही कथ्य संदर्भ के माध्यम से पूरी उर्जो के साथ व्यक्त होता है। इस प्रकार लघुकथा के लघुप्रसंग में एक नाटकीय भंगिमा अवश्य रहती है, जो स्थिति की विडम्बना का एक झटके के साथ पर्दाफाश करती है ।
लघुकथा के लघु कलेवर में एक-दो पात्र ही समा सकते हैं, वे भी व्यक्तित्व के वाहक न होकर किसी विशेष प्रवृत्ति के पर्याय होते हैं । लघुकथा के संक्षिप्त कथानक में पात्रों के व्यक्तित्व के विकास की गुंजाइश नहीं होती। व्यक्तित्व के आयामों के विकास के लिए सम-विषम प्रकृति के अनेक प्रसंगों की आवश्यकता होती है, लेकिन लघुकथा की लघुता एक से अधिक प्रसंग गवारा नहीं कर सकती । मानव जीवन की विकृतियों पर प्रहार करते हुए उसे संस्कृति की स्वस्थ दिशा में प्रेरित करना ही लघुकथा लेखक का मुख्य लक्ष्य होता है । कथ्य अपने आप में महत्वपूर्ण होते हुए भी जब तक संदर्भगत संवेदना और भाषा के सहारे सशक्त सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का रुप नहीं ले पाती, तब तक सपाट बयानी के स्तर से उपर नहीं उठ सकती । लघुकथा न बोधकथा है, न नीतिकथा, न ही विचारकथा वरन लघुकथा आज के व्यस्ततम युग की मांग के अनुरुप सृजनधर्मी मानस और विविध विसंगत संदर्भों की टकराहट के बीच से उपजी एक समर्थ विधा है, जो देखने में छोटी होते हुए भी अपनी प्रभाववत्ता में कहानी से कम नहीं है ।सामान्यतः आलोचक कहानी के अंतर्गत लंबी कहानी का विवेचन करते रहे, और लघुकथाओं को अश्पृश्य मानकर उसे पूर्णतः उपेक्षित करते रहे । पाठकों की स्थिति ठीक इसके विपरीत है । उनके लिये लघुकथा प्रिय विधा है और उसकी लोकप्रियता शनैः-शनैः बढ़ते ही जा रही है ।
किसी भी साहित्यिक विधा का अस्तित्व पाठकों पर सर्वाधिक निर्भर करता है, क्योंकि रचनाकार केवल सृजन करता है, जबकि पाठक रचना और रचनाकार का विस्तार ही नहीं करता, उसके लिए साहित्य में स्थान भी सुरक्षित करता है । उल्लेखनीय है कि लघुकथा को पाठकों का संबल मिल गया है । इस विधा की ओर युवा कथाकार अधिक आकृष्ट हुए हैं, वहीं वयोवृद्ध कथाकारों ने भी इसे अपनाया है । अखरने वाली बात यह है कि हिन्दी के आलोचक इस विधा की शक्ति और क्षमता से अपरिचित एवं उदासीन हैं । इसका प्रमाण है कि किसी भी आलोचक ने इस विधा पर लेखनी ही नहीं चलायी है ।मैं यह मानती हूँ कि लघुकथा एक साहित्यिक विधा है, जो कथा साहित्य के अंतर्गत एक प्रयोग के रुप में हमारे सामने आयी पर अब एक चुनौती बन गई है । यह चुनौती रचनाकार के लिए भी है और आलोचक के लिये भी । रचनाकार के लिये कथ्य के चयन से लेकर अभिव्यक्ति तक अनेक चुनौतीपूर्ण आह्वान है । आलोचकों के लिए विकट समस्या यह है कि जिन तत्वों पर कहानी की आलोचना होती है, वे क्या लघुकथा के लिए पर्याप्त हैं ? लघुकथा में रचनात्मक क्षमता है, पर आवश्यकता इस बात की है कि इस विधा को अपनाने वाले रचनाकारों में रचनात्मक क्षमता हो । इस विधा की रचनात्मक क्षमता की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता । पूर्वोक्त विवेचन के आधार पर यह प्रश्न बेमानी हो जाती है कि लघुकथा की विधा में सामयिक सार्थकता है, या नहीं ? अगर ऐसा न होता तो अपनी 50 वर्षों से अधिक लंबी यात्रा में कैसे टिक सकती थी ? अर्थात् यह समय की परीक्षा में खरी उतरी है, आठवें और नवे दशकों में पर्याप्त सफलता हासिल करके दसवें दशक में प्रवेश कर चुकी है । किसी भी रचना की सार्थकता के आधार इस प्रकार हो सकते हैं, उसमें रचनात्मक सौष्ठव हो, उसमें व्यापक जीवन समेटा गया हो, अभिव्यक्ति में नवीनता एवं मौलिक उद्भावनाएं हों, स्वस्थ जीवन दृष्टि के साथ-साथ वैचारिकता और समकालीनता की झलक हो तथा वह समाज को आगे ले जाये इस प्रकार कृतित्व और श्रेष्ठता एवं प्रासंगिकता मिलकर रचना की सार्थकता को प्रतिपादित करती हैं । कहा जा सकता है कि लघुकथा में सार्थकता के सभी आधार विद्यमान हो सकते हैं और सार्थक लघुकथाओं में विद्यमान रहते हैं ।
लघुकथा का रुप क्या है, और वह मुख्य रुप से कहानी से किस हद तक अलग है, जिसे प्रस्तुत करने के अनेक तरीके अपनाये जाते हैं। इसके लिये कथा का आधार आधुनिक या प्राचीन जीवन से लिया जाता है। उसमें पशु पक्षी आदि के संस्कार से विषय लेकर फेंटेसी के माध्यम से अभिव्यक्ति की जाती है। लघुकथाओं में नीति बोधकथा को नवीन संदर्भों में अभिव्यक्ति देकर जहां वह सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति करती है, वहीं तीखे व्यंग्य का बाहक बनती है। लघुकथा में किसी नियोजित कथावस्तु के निर्वाह की गुंजाइश नहीं होती और पात्रों का चरित्र चित्रण भी उसकी निर्धारित सीमा से बाहर होता है, फिर भी लघुकथा का सूत्र कितना भी सूक्ष्म क्यों न हो, उसमें पात्र की मानसिकता को उधेड़ती हुई कलाकार की दृष्टि उसके वास्तविक स्वरुप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है। अतः लघुकथा में व्यक्ति का बाहरी संसार ही उजागर नहीं होता, बल्कि भीतरी संसार भी प्रत्यक्ष हो जाता है। लघुकथाएं समय के सत्य का वाहक बनकर हमारे सामने आती हैं। हिंदी लघुकथा के संदर्भ में व्यप्त भ्रांतियों को दूर करके मैंने विविध विंदुओं पर दूसरे स्वरुप को सुस्पष्ट करने का प्रयास किया है। उपयुक्त तथ्य विविध लघुकथाकारों से चर्चा प्रश्नावली के माध्यम से निदान और लघुकथाकारों के अध्ययन अनुशीलन के अनंतर शोध की नूतन सृष्टि और मौलिकता की दृष्टि का प्रतीक है। हिंदी लघुकथाकारों के स्वरुप और विकास पर अनेक आलोचकों व लघुकथाकारों ने समय-समय पर विचार भी किये हैं तथा कुछ महत्वपूर्ण शोध भी समक्ष प्रस्तुत हुए हैं लेकिन प्रस्तुत शोध प्रबंध के विषय के अनुरुप इसका आंकलन वे व्यवस्थित विचार अभी तक उपलब्ध नहीं था। विचार विच्छिन्न थे और आलोचना को एकांगी और अपरिभाषित संसार ही हमारे समक्ष था।
लघुकथाओं के इस कुज्झटिकाच्छन स्थिति में सत्यान्वेषण के आलोक बतौर यह शोध प्रबंध यदि कुछ दे पाये, तो यह मेरे श्रम की सार्थकता होगी।प्रस्तुत विषय की पूर्णता हेतु जहां मुझे दूसरे विकास क्रम हेतु पत्र-पत्रिकाओं और संग्रहों का संकलन करना पड़ा, वहीं समीक्षा को ढूंढना पड़ा। इसके साथ ही लघुकथाकारों से संपर्क, चर्चा व पत्रों के माध्यम से विचार बिन्दु प्राप्त कर इसके स्वरुप और विकास को व्यवस्थित रखने का विनम्र प्रयास करना पड़ा । समय-सीमा और एक नारी होने की सामाजिक मर्यादा बंधन को स्वीकारते हुए मैंने जो कुछ भी लिखा, यही शोध का गंतव्य और अध्ययन का महत्व है ।मैंने प्रस्तुत विषय को विविध दस अध्यायों में विभक्त कर हिन्दी लघुकथा उद्भव एवं विकास को विवेचित किया है।
प्रथम अध्याय में कथा की परिभाषा एवं कथा का विकासात्मक अध्ययन करते हुए कथा एवं लघुकथा के अंतरों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । कथा एवं लघुकथा में रचना प्रक्रिया के अंतर के साथ ही वैचारिक दृष्टिकोणों में मूलभूत अंतर है । साथ ही लघुकथा के संबंध में अनेक विद्वानों को रखते हुए मैंने लघुकथा की विशेषताओं को आंकने का प्रयास किया है ।
द्वितीय अध्याय- ‘लघुकथा का क्रमिक विकास’ शीर्षक में लघुकथा के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत करने के लिए अध्ययन की दृष्टि से दो स्थूल रूपों में काल विभाजन किया है प्राचीन युग एवं नवीन युग । प्राचीन काल की लघुकथाओं में वैदिक युगीन लघुकथाओं को प्रथम सूत्र में पिरोया है । इस युग की लघुकथाओं में आध्यात्मिक एवं अलौकिक रहस्यों की व्याख्या की गई है, जैसा कि ऋग्वेद और अर्थववेद में मिलता है । उदाहरणार्थ यम और यमी की कथा । रामायण और महाभारत में भी लंबी कथा से जुड़ी रहकर लघुकथा का स्वतंत्र रुप प्राप्त होता है । रामायण कालीन न्याय व्यवस्था का स्वरुप वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में गिद्धराज और उल्लू की लड़ाई झगड़े की कथा प्राप्त होती है । लघुकथा का नवीन रुप माखन लाल चतुर्वेदी की लघुकथा ‘बिल्ली और बुखार’ को हिन्दी साहित्य की सर्वप्रथम लघुकथा मानी जा सकती है । आठवाँ दशक लघुकथा के विकास का काल है । इस दशक में लघुकथा को स्वतंत्र मौलिक विधा के रुप में स्थापित करने का स्वर प्रबल रहा । सन् 1974 में मेरठ विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग ने इसे स्वतंत्र मौलिक विधा घोषित करके विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रमों में स्थान दिया । इसी अध्याय में लघुकथा के ऐतिहासिक सोपानों को स्पष्ट किया गया है ।
तृतीय अध्याय- में लघुकथा के स्वरुपगत और भाषागत वैशिष्टय को स्पष्ट किया है । लघुकथा के आकारगत वैशिष्ट्य, सुगठित शिल्प एवं सशक्त भाषा के कारण लघुकथा लोकप्रिय हुई । हिन्दी साहित्य की सश्क्त एवं लोकप्रिय विधा लघुकथा का अत्यंत अल्पकाल में इतना विकास हुआ कि अब तक इसकी सर्वमान्य परिभाषा नहीं है । अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि लघुकथा वास्तविक जीवन की क्षणिक घटना का रेखांकन है, जो छोटी होते हुए भी स्वतः पूर्ण और सुगठित होती है । प्रायः यही परिभाषा कहानी की भी दी जा सकती है, किन्तु लघुकथा और कहानी में बहुत अंतर है । साधारणतः लोग यही समझते हैं कि यदि घटना-क्रम को विस्तार से बड़े आकार में लिखा जाय, तो उसे कहानी कहेंगे और उसी आकार को लघु कर दिया जाये तो लघुकथा कहेंगे, किन्तु यह भ्रांति है । कहानी और रचना में मूलभूत अंतर है । यह अंतर केवल आकार प्रकार का नहीं, आत्मा का भी होता है ।लघुकथा के स्वरुप के संबंध में उसके आकार को लेकर भी विवाद है । वस्तुतः आकार की लघुता लघुकथा की अनिवार्य विशेषता है, जो उसके नाम में ही समाहित है । लघुकथा कितने शब्दों और पृष्ठों की होनी चाहिए । यह कोई व्यवहारिक मुद्दा नहीं है और नहीं कोई बंधन है। यह कहा जा सकता है कि लघुकथा में एक भी शब्द अनावश्यक न हो । दरअसल कम से कम शब्दों में अधिक कह देने के सामर्थ्य में ही लघुकथा का सारा कौशल निहित है ।अतः संक्षिप्तता और कसावट के निर्वाह के लिये लघुकथा की संवेदना के दायरे को समझ लेना चाहिए यदि लघुकथा की तुलना कहानी के साथ करें तो यह बेमानी है, कारण दोनों कही अपने-अपने ढंग से अपने समय के सच को पूरी प्रमाणिकता के साथ व्यक्त करती है । फर्क केवल इतना है कि लघुकथा उस तकतीर की तरह सीधे जाती है, जबकि कहानी विभिन्न स्थितियों का समाकलन करती हुई उस सच को पैदा करने वाली स्थितियों को भी उजागर करती है, तथा अंत में उन स्थितियों के खिलाफ पाठक को सोचने के लिये उत्तेजित करती है । लघुकथा और कहानी में एक बहुत बड़ा फर्क यही है । लघुकथा अपनी संपूर्णता में पाठकों उत्तेजित करने में उतनी सफल नहीं हुई, शायद इसके पीछे लघुकथा के साथ जाने अनजाने जुड़ा हुआ चुटकुला का स्वरुप भी है । अपनी संपूर्ण और ईमानदार कोशिशों के बावजूद लघुकथाकार इस भ्रम को दूर नहीं कर पाये हैं, और जब एक यह भ्रम दूर नहीं होगा उसका प्राप्य उपलब्ध नहीं होगा ।
चतुर्थ अध्याय - में हिन्दी लघुकथा साहित्य की विशेषताओं एवं न्यूनताओं को रेखांकित किया गया है ।
पंचम अध्याय में लघुकथा के शैलीगत वैशिष्टय के अंतर्गत लघुकथा में प्रयुक्त विभिन्न शैलियों का वर्णन किया गया है । लघुकथा की शैली के संबंध में यह प्रश्न उठता है कि क्या व्यंग्य लघुकथा के लिये अनिवार्य तत्व हैं ? यह सही भी है कि सस्ता हास्य लघुकथा के लिये सर्वथा वर्ज्य है किंतु व्यंग्य का अर्थ हास्य, कदापि नहीं है। व्यंग्य की एक शैली है, एक भंगिमा है, एक शक्ति है, जो हमारी चेतना को उद्वेलित करने में अमिधात्मक शैली से अधिक समर्थ होती है।
षष्ठ अध्याय में लघुकथाओं की वैचारिक पृष्ठ भूमि एवं संप्रेषणीयता के प्रश्नों की उद्घाटित करने की चेष्ठा की गई है। अपने लघुआकार में लघुकथा व्याप्क संप्रेषणीयता व प्रभावोत्पादकता के लिये अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। लघुकथा के आकारगत वैशिष्टय, सुगंठित शिल्प एवं सशक्त भाषा के कारण लघुकथा लोकप्रिय हुई ।
सप्तम् अध्याय- आठवें दशक की लघुकथाओं में समकालीनता के अंतर्गत आठवें दशक की लघुकथा की विशेषताओं को उजागर करने का प्रयास किया गया है। हिंदी लघुकथा के विकास के संदर्भ में आठवों दशक को नवोन्मेष काल कहा जा सकता है। स्पष्ट है कि पारंपरिक आदर्शों एवं उपदेशों में गुम्फित लघुकथा का यथार्थ के धरातल पर अवतरण हुआ।
अष्टम अध्याय- आठवें अध्याय में हिंदी के श्रेष्ठ लघुकथाकारों की प्रमुख लघुकथाओं की विशेषताओं को रेखांकित करने के साथ ही लघुकथाकारों का परिचय भी दिया गया है।
नवम अध्याय- ‘नवें दशक की लघुकथाओं में समकालीनता’ के अंतर्गत नवें दशक के लघुकथाकारों की लघुकथाओं पर दृष्टि डालने का प्रयास किया है। नवम अध्याय में हिंदी के श्रेष्ठ लघुकथाकारों का प्रदेय एवं मूल्यांकन की ईमानदार कोशिश की गई है।
दशम अध्याय- ‘उपसंहार के अंतर्गत समग्र लघुकथाओं तथा उसके भविष्य की संभावनाओं पर विचार करने के पश्चात निष्कर्षतः सार संक्षेप को प्रस्तुत किया गया है।लघुकथा अपने परिचय से लेकर संघर्ष करने तक की जोखिम भरी तमाम स्थितियों से गुजरकर आठवों दशक में स्वतंत्र विधा के रुप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हुई। लघुकथा के कथ्य शिल्प का निर्वाह ईमानदारी से किया जा रहा है। आज की लघुकथाओं में अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह शिल्प रचनाधर्मिता के संबंध में गुण तत्व के रुप में समाहित है। लघुकथाएं सम-सामियकता से जुड़ी हुई तथा प्रभाव संप्रेषण की दृष्टि से असीम क्षमता युक्त है। जहां इसकी महता लघुकथाकार के द्वारा नये मूल्यों की स्थापना है, वहीं अपने उत्तरदायित्व की पूरी तरह एहसास कराने में भी, निःसंकोच कहा जा सकता है कि आज की लघुकथाओं में यथार्थ के धरातल और समय की आवाज को मुखर करने को एक ईमानदार कोशिश के अमिट चिन्ह परिलक्षित होते हैं।
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डॉ. अंजलि शर्मा
सहायक प्राध्यापक
शासकीय स्नातकोत्तर कला एवं वाणिज्य महा'जरहाभाटा,
बिलासपुर, छत्तीसगढ
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http://hindilaghukathaa.blogspot.com/2007/09/blog-post.html
स्त्रोत पर प्रकाशन दिनांक: September 25, 2007
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