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शनिवार, 16 मार्च 2019
श्री कस्तूरीलाल तागरा की दो लघुकथाएं
1)
गुलाब के लिए
माली ने जैसे ही बगीचे में प्रवेश किया , कुछ पौधे उल्लास से तो कुछ तनाव से भर गये ।
माली ने अपनी खुरपी संभाली । गुलाब के इर्द-गिर्द उग आई घास को खोद-खोद कर क्यारी के बाहर फेंकने लगा । उसके बाद उसने मिटटी में खाद डाली और क्यारी को पानी से भर दिया ।
क्यारी के बाहर एक तरफ घायल पड़े घास को माली इस समय जल्लाद जैसा लग रहा था । पर वह बेचारा कर क्या सकता था ।
ठीक इसी समय घास को बगीचे के बाहर वाली सड़क से ऊँची-ऊँची आवाज़ें सुनाई देने लगी –मजदूर एकता ज़िंदाबाद... मजदूर एकता ज़िंदाबाद ...
आवाज़ें और ऊँची होती चली गईं । थोड़ी देर में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज शुरू कर दिया । आंदोलनकारी इधर-उधर भागने लगे । चीख पुकार मच गई । चोट खाये कुछ लोग बचने के लिए बगीचे की ओर भागे । पुलिस लाठियां भांजते हुए वहां भी पहुँच गई ।
गुलाब ने कोलाहल सुना तो पास पड़ी घास से इठलाते हुए पूछा –" अबे घास ! यह सब क्या हो रहा है ? "
घास ने तिलमिला कर जवाब दिया –" कुछ ख़ास नहीं , बस किसी गुलाब के लिए घास उखाड़ी जा रही है "
-0-
2)
लेकिन ज़िन्दगी
पहले वह माफिया डॉन था । बाद में नेता बन गया । बीती रात वह किराये पर लाये गए एक अद्भुत सौंदर्य के साथ जम कर सोया । महंगी विदेशी शराब भी पिलाई उसे । खुद भी छक के पी । सुबह जब थकान से आँखें भारी होने लगी तो सौंदर्य से पूछा--' कैसे आई तुम इस धंधे में ? '
वह पहले उदास हो गई। फिर आँखों में खून भर कर बोली-- 'अपना मर्द ही नीच निकला ...'
माहौल में चुप्पी छा गई।
कुछ देर बाद नेता ने सवाल किया -- 'एजेंट को कितना परसेंट देना पड़ता है ?'
वह फट पड़ी -' कमाई का आधा ही मिलता है मुझे । कभी-कभी तो उसमें भी बेईमानी कर जाता है कमीना दलाल ।'
नेता गुस्से से बोला- ' ये दल्ले साले होते ही ऐसे हैं । लो बताओ , ऐसे काम में भी डंडी मार जाते हैं ...कीड़े पड़ेंगे इन हरामिओं के शरीर में । '
नेता के इस नैतिक भाषण पर वह व्यंग से मुस्कुराने लगी। नेता झेंप गया । और झेंप मिटाने के लिए नकली हँसी हँसने लगा । फिर बात बदलते हुए बोला- ' मैंने तुम से तुम्हारा नाम तो पूछा ही नहीं '
'अब याद आई आपको मेरे नाम की । क्या करेंगे नाम जान के साहब ?... रात आप बहुत से नामों से प्यार कर रहे थे मुझे । उन्हीं में से कोई एक नाम समझ लो ।' और वह अपना निचला होंठ रोमांटिक अंदाज़ से काटने लगी।
नेता उसकी इस अदा पर बौरा-सा गया । लरजती आवाज़ में बोला --' बेबी डॉल ! तुम तो हमें मार ही डालोगी ।'
वह तुरन्त बोली -- 'अरे हां ! याद आया , बेबी डॉल ही तो है मेरा नाम '
नेता ने जोर से ठहाका लगाया और उसे अपने और नजदीक कर लिया ।
थोड़ी देर बाद वह पेशवर चतुराई से पलंग से उठी । तुरंत कपड़ों को व्यवस्थित किया और दरवाजे की चिटकनी खोलते हुये बोली --' मेरा टाइम हो गया साहब ... अब चलती हूँ ... सलाम '
नेता ने चौंक कर पूछा --' तुम मुसलमान हो ? '
जवाब में वह बोली -- ' जय राम जी की '
और कमरे से बाहर निकल गई ।
- कस्तूरीलाल तागरा
गुलाब के लिए
माली ने जैसे ही बगीचे में प्रवेश किया , कुछ पौधे उल्लास से तो कुछ तनाव से भर गये ।
माली ने अपनी खुरपी संभाली । गुलाब के इर्द-गिर्द उग आई घास को खोद-खोद कर क्यारी के बाहर फेंकने लगा । उसके बाद उसने मिटटी में खाद डाली और क्यारी को पानी से भर दिया ।
क्यारी के बाहर एक तरफ घायल पड़े घास को माली इस समय जल्लाद जैसा लग रहा था । पर वह बेचारा कर क्या सकता था ।
ठीक इसी समय घास को बगीचे के बाहर वाली सड़क से ऊँची-ऊँची आवाज़ें सुनाई देने लगी –मजदूर एकता ज़िंदाबाद... मजदूर एकता ज़िंदाबाद ...
आवाज़ें और ऊँची होती चली गईं । थोड़ी देर में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज शुरू कर दिया । आंदोलनकारी इधर-उधर भागने लगे । चीख पुकार मच गई । चोट खाये कुछ लोग बचने के लिए बगीचे की ओर भागे । पुलिस लाठियां भांजते हुए वहां भी पहुँच गई ।
गुलाब ने कोलाहल सुना तो पास पड़ी घास से इठलाते हुए पूछा –" अबे घास ! यह सब क्या हो रहा है ? "
घास ने तिलमिला कर जवाब दिया –" कुछ ख़ास नहीं , बस किसी गुलाब के लिए घास उखाड़ी जा रही है "
-0-
2)
लेकिन ज़िन्दगी
पहले वह माफिया डॉन था । बाद में नेता बन गया । बीती रात वह किराये पर लाये गए एक अद्भुत सौंदर्य के साथ जम कर सोया । महंगी विदेशी शराब भी पिलाई उसे । खुद भी छक के पी । सुबह जब थकान से आँखें भारी होने लगी तो सौंदर्य से पूछा--' कैसे आई तुम इस धंधे में ? '
वह पहले उदास हो गई। फिर आँखों में खून भर कर बोली-- 'अपना मर्द ही नीच निकला ...'
माहौल में चुप्पी छा गई।
कुछ देर बाद नेता ने सवाल किया -- 'एजेंट को कितना परसेंट देना पड़ता है ?'
वह फट पड़ी -' कमाई का आधा ही मिलता है मुझे । कभी-कभी तो उसमें भी बेईमानी कर जाता है कमीना दलाल ।'
नेता गुस्से से बोला- ' ये दल्ले साले होते ही ऐसे हैं । लो बताओ , ऐसे काम में भी डंडी मार जाते हैं ...कीड़े पड़ेंगे इन हरामिओं के शरीर में । '
नेता के इस नैतिक भाषण पर वह व्यंग से मुस्कुराने लगी। नेता झेंप गया । और झेंप मिटाने के लिए नकली हँसी हँसने लगा । फिर बात बदलते हुए बोला- ' मैंने तुम से तुम्हारा नाम तो पूछा ही नहीं '
'अब याद आई आपको मेरे नाम की । क्या करेंगे नाम जान के साहब ?... रात आप बहुत से नामों से प्यार कर रहे थे मुझे । उन्हीं में से कोई एक नाम समझ लो ।' और वह अपना निचला होंठ रोमांटिक अंदाज़ से काटने लगी।
नेता उसकी इस अदा पर बौरा-सा गया । लरजती आवाज़ में बोला --' बेबी डॉल ! तुम तो हमें मार ही डालोगी ।'
वह तुरन्त बोली -- 'अरे हां ! याद आया , बेबी डॉल ही तो है मेरा नाम '
नेता ने जोर से ठहाका लगाया और उसे अपने और नजदीक कर लिया ।
थोड़ी देर बाद वह पेशवर चतुराई से पलंग से उठी । तुरंत कपड़ों को व्यवस्थित किया और दरवाजे की चिटकनी खोलते हुये बोली --' मेरा टाइम हो गया साहब ... अब चलती हूँ ... सलाम '
नेता ने चौंक कर पूछा --' तुम मुसलमान हो ? '
जवाब में वह बोली -- ' जय राम जी की '
और कमरे से बाहर निकल गई ।
- कस्तूरीलाल तागरा
शुक्रवार, 15 मार्च 2019
लेख: लघुकथा क्षेत्र बुद्धि वंचित बौनों का कैसे बना अभयारण्य | श्याम बिहारी श्यामल
हिन्दी में लघुकथा की भी बुनियाद हमारे भाषा-साहित्य के जनक भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के साहित्य में ही खोजी गई है। बाद के दौर में अनेक बड़े नामों के खाते में भी लघुकथाएं दर्ज हैं। इनमें प्रतिनिधि तौर पर अयोध्या प्रसाद गोयलीय, रामधारी सिंह 'दिनकर', जानकी वल्लभ शास्त्री, दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी, भवभूति मिश्र, विष्णु प्रभाकर, कमलेश्वर, रावी, राजेंद्र यादव से लेकर संजीव और बलराम आदि जैसे कथाकार यहां तत्काल याद आ रहे हैं किंतु अस्सी के दशक में इसे विधा के रूप में उगाने और सींचने का श्रेय ' सारिका ' के तत्कालीन संपादक प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर को जाता है।
अपने समय की सबसे महत्वपूर्ण कथा पत्रिका ( सारिका ) में तरजीह और कमलेश्वर जैसे रचनाकार व्यक्तित्व का संरक्षण पाकर लघुकथा बेशक खूब पनपी-फैली। नए-नए रचनाकार आए तो कई महत्वपूर्ण पुराने भी आकृष्ट हुए। 'सारिका' ने तब से लेकर बाद में अवध नारायण मुद्गल के संपादन-काल तक इस विधा के लिए खास तवज्जो जारी रखी। यहां लघुकथा फीलर के रूप में नहीं, बल्कि विधा के तौर पर अपने नियत फॉर्मेट में प्रतिष्ठित तरीके से छापी जाती रही। उसके कई 'लघुकथा विशेषांक' आए जिन्होंने इसे बतौर विधा बार-बार प्रस्तावित किया। इससे अनेक लघु पत्रिकाओं की भी दृष्टि बदली और 'लघु आघात' ( संपादक : विक्रम सोनी ), 'पुन:' ( संपादक : कृणानंद कृष्ण ), ' साम्प्रत ' व 'लघुकथा टाइम्स' ( दोनों का संपादक इन्हीं पंक्तियों का लेखक ) और 'लघुकथा साहित्य' ( प्रधान संपादक : अशोक लव, संपादक : सुरेश अशोक लव जांगिड़ 'उदय' ) जैसी कुछ लघुकथा केंद्रित पत्रिकाएं भी निकलीं। शंकर पुणतांबेकर, रमेश बत्तरा, कमल चोपड़ा, भगवती प्रसाद द्विवेदी, जगदीश कश्यप, सतीश दूबे, अशोक लव, बलराम अग्रवाल, कमलेश भारतीय, सतीश राठी, अशोक मिश्र, विक्रम सोनी, कमलेश भारतीय, सत्यनारायण नाटे और सुरेंद्र मंथन आदि जैसे कथाकारों की पहचान कायम हुई तो डा. व्रजकिशोर पाठक और चंद्रेश्वर कर्ण जैसे आलोचक सामने आए। महत्वपूर्ण लेखन का माहौल अभी बन ही रहा था कि इसी बीच एक अजीब स्थिति पैदा हो गई।
अचानक देखते ही देखते संजीदा लेखकों ने 'लघुकथा' से किनाराकशी शुरू कर दी। उन्होंने इस ओर से ऐसा मुंह मोड़ा कि फिर किसी ने मुड़कर व्रज किशोर पाठक पीछे ताकना तक मुनासिब नहीं समझा। क्यों ? कारण हैं इस क्षेत्र में पैठे कुछ अगंभीर तत्वों की बेजा हरकतें। 'लघुकथा' को कुछ अर्द्धार्द्ध लेखक-धंधेबाजों की नजर लग गई। एक तो उन्होंने इसे आसान विधा मानकर -लघुकथा के नाम पर ताबड़तोड़ उल्टी-उबकाई शुरू कर दी, दूसरे अपने छापने-बेचने के मंदे धंधे को गति पकड़ाने के लिए औने-पौने लेखकों से रुपये ऐंठ-ऐंठकर उनकी जैसी-तैसी रचनाएं छापने और अपना धंधा चलाने में जुट गए। इस क्रम में वे कचरे का पहाड़ खड़ा करने लगे। जाहिरन उनकी ऐसी तिजारती और शरारती गतिविधियां सृजनधर्मिता के सामान्य मानक-मूल्यों तक की धज्जियां उड़ाने वाली थीं। साथ-साथ यह व्यक्त करने वाली भी कि ऐसे तत्व वस्तुत: कलम-कागज प्रदेश के बुद्धि-जीवी नागरिक नहीं, बल्िक हेराफरी और उलटफेर वाले इलाकों के शातिर 'बुद्धि-वंचित बौने' थे। ऐसे तत्व जिनका लक्ष्य ही था लेखन-प्रकाशन के नाम पर भोंडा आत्मरंजन और सहयोगी आधार पर प्रकाशन करने व हर साल उल्टे-सीधे दावों के साथ अंट-शंट सम्मेलन के बहाने उन्मुक्त उगाही और मुद्रामोचन। उनकी तिजारत कैसी चली या पटना-मेरठ में छापने-बेचने का उनका लड़खड़ाता धंधा किस गति को प्राप्त हुआ यह तो नहीं पता चला किंतु दशकों बाद हिन्दी के कथा-साहित्य में किसी सर्जनात्मक आंदोलन के रूप में उगने वाली अपार सृजन-संभावनाओं वाली 'लघुकथा' उनकी हरकतों से कौड़ी का तीन होकर रह गई।
तभी से वे अपने नकार-डकार में तल्लीन हैं। तीन तिलंगे जुटकर कभी पटना में कोई 'राष्ट्रीय सम्मेलन' ठोंक देते हैं तो कभी चार चौकड़ी एकत्र हो अन्यत्र कोई 'अन्तर्राज्यीय सम्मेलन'। ऐसी हरकतों से जो हश्र स्वाभाविक है, वही सामने है। लघुकथा क्षेत्र अंतत: हिन्दी साहित्य का एक ऐसा इलाका होकर रह गया है जिसे अब 'बुद्धि वंचित बौनों का अभयारण्य' माना जाने लगा है। यहां आम तौर पर न कोई प्रयोगधर्मी लेखन दिख रहा है, न सतत् रचनारत कोई संजीदा नाम। दो दशकों से यह विधा संदिग्ध होने का संताप झेल रही है। इस बीच हास्यास्पद ढंग से बार-बार 'सम्मेलन' की कोई न कोई निष्प्रभ सूचना अक्सर कहीं झलक जाती है, जो वैधव्य-सिसकन जैसा आभास देती है। ले-देकर एक अकेला शख्स सुकेश साहनी है जिसके कुछ प्रयास उम्मीद की लौ को जिलाए हुए हैं। पुस्तक प्रकाशन और वेबदुनिया में 'लघुकथा डॉट कॉम' साइट के रूप में वह सतत् अलख जलाए हुए है, किंतु वह भी करें तो क्या ! लघुकथा में ऐसा कोई लेखन प्रयास ही संभव नहीं हो पा रहा जो एक चमक-कौंध के साथ पूरे हिन्दी साहित्य का ध्यान अपनी ओर खींच और इस विधा को विश्वसनीय आधार प्रदान कर सके।
Source:
http://shyambiharishyamal.blogspot.com/2012/10/blog-post.html
अपने समय की सबसे महत्वपूर्ण कथा पत्रिका ( सारिका ) में तरजीह और कमलेश्वर जैसे रचनाकार व्यक्तित्व का संरक्षण पाकर लघुकथा बेशक खूब पनपी-फैली। नए-नए रचनाकार आए तो कई महत्वपूर्ण पुराने भी आकृष्ट हुए। 'सारिका' ने तब से लेकर बाद में अवध नारायण मुद्गल के संपादन-काल तक इस विधा के लिए खास तवज्जो जारी रखी। यहां लघुकथा फीलर के रूप में नहीं, बल्कि विधा के तौर पर अपने नियत फॉर्मेट में प्रतिष्ठित तरीके से छापी जाती रही। उसके कई 'लघुकथा विशेषांक' आए जिन्होंने इसे बतौर विधा बार-बार प्रस्तावित किया। इससे अनेक लघु पत्रिकाओं की भी दृष्टि बदली और 'लघु आघात' ( संपादक : विक्रम सोनी ), 'पुन:' ( संपादक : कृणानंद कृष्ण ), ' साम्प्रत ' व 'लघुकथा टाइम्स' ( दोनों का संपादक इन्हीं पंक्तियों का लेखक ) और 'लघुकथा साहित्य' ( प्रधान संपादक : अशोक लव, संपादक : सुरेश अशोक लव जांगिड़ 'उदय' ) जैसी कुछ लघुकथा केंद्रित पत्रिकाएं भी निकलीं। शंकर पुणतांबेकर, रमेश बत्तरा, कमल चोपड़ा, भगवती प्रसाद द्विवेदी, जगदीश कश्यप, सतीश दूबे, अशोक लव, बलराम अग्रवाल, कमलेश भारतीय, सतीश राठी, अशोक मिश्र, विक्रम सोनी, कमलेश भारतीय, सत्यनारायण नाटे और सुरेंद्र मंथन आदि जैसे कथाकारों की पहचान कायम हुई तो डा. व्रजकिशोर पाठक और चंद्रेश्वर कर्ण जैसे आलोचक सामने आए। महत्वपूर्ण लेखन का माहौल अभी बन ही रहा था कि इसी बीच एक अजीब स्थिति पैदा हो गई।
अचानक देखते ही देखते संजीदा लेखकों ने 'लघुकथा' से किनाराकशी शुरू कर दी। उन्होंने इस ओर से ऐसा मुंह मोड़ा कि फिर किसी ने मुड़कर व्रज किशोर पाठक पीछे ताकना तक मुनासिब नहीं समझा। क्यों ? कारण हैं इस क्षेत्र में पैठे कुछ अगंभीर तत्वों की बेजा हरकतें। 'लघुकथा' को कुछ अर्द्धार्द्ध लेखक-धंधेबाजों की नजर लग गई। एक तो उन्होंने इसे आसान विधा मानकर -लघुकथा के नाम पर ताबड़तोड़ उल्टी-उबकाई शुरू कर दी, दूसरे अपने छापने-बेचने के मंदे धंधे को गति पकड़ाने के लिए औने-पौने लेखकों से रुपये ऐंठ-ऐंठकर उनकी जैसी-तैसी रचनाएं छापने और अपना धंधा चलाने में जुट गए। इस क्रम में वे कचरे का पहाड़ खड़ा करने लगे। जाहिरन उनकी ऐसी तिजारती और शरारती गतिविधियां सृजनधर्मिता के सामान्य मानक-मूल्यों तक की धज्जियां उड़ाने वाली थीं। साथ-साथ यह व्यक्त करने वाली भी कि ऐसे तत्व वस्तुत: कलम-कागज प्रदेश के बुद्धि-जीवी नागरिक नहीं, बल्िक हेराफरी और उलटफेर वाले इलाकों के शातिर 'बुद्धि-वंचित बौने' थे। ऐसे तत्व जिनका लक्ष्य ही था लेखन-प्रकाशन के नाम पर भोंडा आत्मरंजन और सहयोगी आधार पर प्रकाशन करने व हर साल उल्टे-सीधे दावों के साथ अंट-शंट सम्मेलन के बहाने उन्मुक्त उगाही और मुद्रामोचन। उनकी तिजारत कैसी चली या पटना-मेरठ में छापने-बेचने का उनका लड़खड़ाता धंधा किस गति को प्राप्त हुआ यह तो नहीं पता चला किंतु दशकों बाद हिन्दी के कथा-साहित्य में किसी सर्जनात्मक आंदोलन के रूप में उगने वाली अपार सृजन-संभावनाओं वाली 'लघुकथा' उनकी हरकतों से कौड़ी का तीन होकर रह गई।
तभी से वे अपने नकार-डकार में तल्लीन हैं। तीन तिलंगे जुटकर कभी पटना में कोई 'राष्ट्रीय सम्मेलन' ठोंक देते हैं तो कभी चार चौकड़ी एकत्र हो अन्यत्र कोई 'अन्तर्राज्यीय सम्मेलन'। ऐसी हरकतों से जो हश्र स्वाभाविक है, वही सामने है। लघुकथा क्षेत्र अंतत: हिन्दी साहित्य का एक ऐसा इलाका होकर रह गया है जिसे अब 'बुद्धि वंचित बौनों का अभयारण्य' माना जाने लगा है। यहां आम तौर पर न कोई प्रयोगधर्मी लेखन दिख रहा है, न सतत् रचनारत कोई संजीदा नाम। दो दशकों से यह विधा संदिग्ध होने का संताप झेल रही है। इस बीच हास्यास्पद ढंग से बार-बार 'सम्मेलन' की कोई न कोई निष्प्रभ सूचना अक्सर कहीं झलक जाती है, जो वैधव्य-सिसकन जैसा आभास देती है। ले-देकर एक अकेला शख्स सुकेश साहनी है जिसके कुछ प्रयास उम्मीद की लौ को जिलाए हुए हैं। पुस्तक प्रकाशन और वेबदुनिया में 'लघुकथा डॉट कॉम' साइट के रूप में वह सतत् अलख जलाए हुए है, किंतु वह भी करें तो क्या ! लघुकथा में ऐसा कोई लेखन प्रयास ही संभव नहीं हो पा रहा जो एक चमक-कौंध के साथ पूरे हिन्दी साहित्य का ध्यान अपनी ओर खींच और इस विधा को विश्वसनीय आधार प्रदान कर सके।
Source:
http://shyambiharishyamal.blogspot.com/2012/10/blog-post.html
गुरुवार, 14 मार्च 2019
NIOS कक्षा 12वीं के हिन्दी पाठ्यक्रम में तीन लघुकथाएं
डा. बलराम द्वारा संपादित विश्व लघुकथा कोश के आठ खंडों में से दूसरे खंड से NIOS पाठ्यक्रम के लिए चयनित तीन लघुकथाएँ अन्य भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनुवादित की गई है। पहली तमिल लघुकथा ’’कवि और लोहार‘‘, दूसरी लघुकथा ’’क्या नहीं कर सकता‘‘ मणिपुरी तथा तीसरी लघुकथा ’’सड़क का आदमी‘‘ बांग्ला भाषा से हिन्दी में अनूदित की गयी है। आइये पढ़ते हैं:
Source:
http://visionpointnios.co.in/courses/301/33.pdf
Source:
http://visionpointnios.co.in/courses/301/33.pdf
बुधवार, 13 मार्च 2019
शोध पत्र: राधावल्लभ त्रिपाठी रचित लघुकथा "एकं रुप्यकम" की समीक्षा | डॉ. ज्वाला प्रसाद
International Journal of Multidisciplinary Research and Development
Online ISSN: 2349-4182, Print ISSN: 2349-5979, Impact Factor: RJIF 5.72
Volume 4; Issue 2; February 2017; Page No. 97-98
Source:
http://www.allsubjectjournal.com/download/2855/4-2-24-857.pdf
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