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गुरुवार, 14 मार्च 2019

NIOS कक्षा 12वीं के हिन्दी पाठ्यक्रम में तीन लघुकथाएं

डा. बलराम द्वारा संपादित विश्व लघुकथा कोश के आठ खंडों में से दूसरे खंड से NIOS पाठ्यक्रम के लिए चयनित तीन लघुकथाएँ अन्य भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनुवादित की गई है। पहली तमिल लघुकथा ’’कवि और लोहार‘‘, दूसरी लघुकथा ’’क्या नहीं कर सकता‘‘ मणिपुरी तथा तीसरी लघुकथा ’’सड़क का आदमी‘‘ बांग्ला भाषा से हिन्दी में अनूदित की गयी है। आइये पढ़ते हैं:



Source:
http://visionpointnios.co.in/courses/301/33.pdf

मंगलवार, 12 मार्च 2019

लघुकथा | नेक काम | राजकुमार कांदु

गाँव में एक बार फिर हड़कंप मचा हुआ था । मुखिया के बेटे ने आज फिर एक शिकार किया था 'मुनिया' का । दबी जुबान से चर्चा शुरू थी मुनिया से हुए बलात्कार की लेकिन किसकी मजाल थी कि मुखिया या उसके लड़के के खिलाफ कोई शिकायत करता?

कुछ दिनों बाद कल्लू  के यहाँ आयी उसके दूर के एक रेिश्तेदार की लड़की ' रूबी ' शौच के लिए जाते हुए मुखिया के बेटे और उसके साथियों को दिखी। गाँव के बाहर शौच से वापस आते हुए रूबी का घात लगाकर बैठे मुखिया के बेटे और उसके तीन साथियों ने शिकार कर लिया। चारों ने जमकर अपनी मर्दानगी दिखाई उस अबला पर। लेकिन यह क्या ? इतने अत्याचार के बावजूद वह हँस रही थी। उन दरिंदों की उम्मीद के विपरीत उसका हँसना उन्हें अखर गया। एक लड़के ने पूछ ही लिया इसका कारण और जवाब सुनकर उनके पैरों तले जमीन खिसक गई । जवाब था
"मैं कल्लू की कोई रिश्तेदार विश्तेदार नहीं, सोनागाछी से आई एक वेश्या हूँ। एड्स की वजह से मेरा अंत नजदीक है, सोचा जाते-जाते कोई नेक काम करती जाऊँ। तुमने मेरा नहीं, मैंने तुम लोगों का शिकार करके इन गाँववालों को तुम्हारे अत्याचारों से मुक्ति दिला दी है। अब तुम सब अपनी जिंदगी के दिन गिनना शुरू कर दो।"


- राजकुमार कांदु

समीक्षा ब्लेसिंग: | मनोज कुमार | समीक्षाकार: परशुराम राय


रचनाकार के अन्दर धधकती संवेदना को पाठक के पास और पाठक की अनुभूति की गरमी को रचनाकार के पास पहुँचाना आँच का उद्धेश्य है। आँच के इस अंक में लघुकथा विधा पर विचार किया गया है। आँच के इस अंक के लिए लिया गया है- मनोज कुमार की लघुकथा ‘ब्लेसिंग’।

लघुकथा कथा-साहित्य की अर्वाचीनतम विधा है। लघुकथा का साहित्यशास्त्रीय विवेचन कम ही देखने को मिलता है। कहानी विधा के अंगों की तरह इसके भी अंग समान है, यथा कथावस्तु, पात्र, संवाद, संदेश आदि। इसकी कथावस्तु की भी चार अवस्थाएँ होती हैं- प्रारम्भ, विकास, चरमोत्कर्ष और अन्त। सीमित पात्रों की उपस्थिति, उनके चरित्र का मूल्यांकन या चरित्र-चित्रण कहानी की भाँति ही है। संवाद का पैनापन और संदेश की मुखरता आदि बिल्कुल कहानी-साहित्य की तरह ही हैं। तो अब विचारणीय प्रश्न यह है कि कहानी से लघुकथा को अलग कैसे किया जाय अथवा आधुनिकता के नाम का टीका लगाकर इति श्री कर दी जाय।

जहाँ तक साहित्यविदों से बातचीत हुई है और मैंने समझा है, उसके अनुसार कहानी और लघुकथा में केवल अन्तर काल का है, अर्थात् जो अन्तर कहानी और उपन्यास में है, वही अन्तर लघुकथा और कहानी में है। कहानी की अपेक्षा उपन्यास में घटनाओं की बहुलता होती है, और यह मुख्य पात्र के जीवन के आदि से अन्त तक की प्रमुख घटनाओं के तान-बाने से बना होता है। जब कि कहानी में जीवन की एक घटना और उससे जुड़े तारों को उपन्यास की अपेक्षाकृत कम पात्रों के माध्यम से अभीप्सित संदेश दिया जाता है। वैसे ही, लघुकथा में एक क्षणिक घटना के द्वारा कहानी की अपेक्षा काफी कम समय की घटना को पैने और पात्रानुकूल संवाद द्वारा सीमित और उचित पात्रों के माध्यम से संदेश सम्प्रेषित करना होता है।

आँच के इस भाग में इस ब्लाग पर प्रकाशित ‘ब्लेसिंग’ नामक लघुकथा पर समीक्षात्मक चर्चा की गयी है। यदि उपर्युक्त दूसरे अनुच्छेद में वर्णित को लघुकथा के लिए यार्ड स्टिक मान लें तो ‘ब्लेसिंग’ एक आदर्श लघुकथा है। जो कार्यालय में अधिकारी और उसी कार्यालय के मातहत कर्मचारी के बीच 15 मिनट से आधे घंटे के बीच हुई बातचीत के दौरान समाप्त हो जाती है।

‘ब्लेसिंग’ की भाषा बड़ी ही स्वाभाविक और पात्रों के अनुकूल है। हिन्दी और मिश्रित भाषा के संवाद है जैसे कि आजकल कार्यालयों में सुनने को मिलते हैं।

लघुकथा के लिया चुना गया परिवेश कोई बहुत खास नहीं है, बहुत सामान्य है। अधिकारी अपने कार्यलय में बैठे हुए फाइलों को निपटा रहा है। इसी बीच उसका एक अधीनस्थ कर्मचारी उसके कार्यलय में प्रवेश करता है, जिसे देखते ही अधिकारी बोल पड़ता है- ‘क्या बात है? आपके ट्रांसफर के बारे में मुझे कुछ नहीं सुनना है।’ यहीं से कथानक का प्रारंभ होता है। इतना सुनते ही कर्मचारी बताता है कि वह ट्रांसफर के बारे मे बात करने नहीं, बल्कि उनकी कार (खटारा) बीस हजार रूपये में खरीद कर, उसमें अपने पिता को कोलकाता शहर घुमाने के लिए उनकी ब्लेसिंग लेने आया है। यहीं से कथानक विकास की ओर अग्रसर होता है। थोड़ी बातचीत गाड़ी की कंडीशन के बारे में होती है और अन्त में बात पट जाती है। अधिकारी भी समझता है कि कबाड़ी के यहाँ किलो के भाव बिकने वाली केवल शो पीस बनी खटारा गाड़ी के बीस हजार रूपये मिल रहे हैं, बहुत हैं। कर्मचारी वस्तुपरक है। पांच हजार की भी न बिकने वाली गाड़ी की कीमत बीस हजार उसने यों ही नही लगाई है। अन्ततः वह अपने मन्तव्य में सफल होता है, वांछित ब्लेसिंग पाकर। बॉस खुश होकर उससे कहता है कि जाते समय ट्रांसफर वाली फाइल भिजवा दे। यहीं कथानक चरमोत्कर्ष पर भी पहुँचता है और पाठक को चमकृत करता हुआ यहीं अन्त भी हो जाता है।

इसे पढ़कर लगा है कि किसी बड़े ही मजे हुए लघुकथाकार के द्वारा लिखी गयी लघुकथा है। खटारा गाड़ी खरीदकर ट्रांसफर की ब्लेसिंग लेना और गाड़ी बेचकर ट्रांसफर की ब्लेसिंग देना व्यंजित करती ब्लेसिंग्स लघुकथा शब्द-संयम, समय-संयम, घटना-संयम, संवाद-संयम और पात्र-संयम समेटे पाठक को चमत्कृत करने का शॉक देकर आनन्दित करती है। ब्लेसिंग वास्तव में पाठक के लिए भी ब्लेसिंग है।

इस लघुकथा में कथानक का उत्कर्ष और अन्त अंतिम एक वाक्य में होने से एक प्रेरणा मिली, लघुकथा को पुनः परिभाषित करने की और कहानी से अलग करने की कि कथानक के उत्कर्ष और अन्त का एक बिन्दु होना लघुकथा के आवश्यक अंग के रूप में लिया जाय।

- परशुराम राय

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लघुकथा: ब्लेसिंग | मनोज कुमार


“में आई कम-इन सर?”

“यस कम इन।”

“गुड मार्निंग सर।”

“मार्निंग”

“कैन आई सिट सर?”

“ओह यस-यस प्लीज ।..................अरे तुम ? अगर तुम अपने ट्रांसफर की बात करने आए हो, तो सॉरी, तुम जा सकते हो।”

“नहीं सर मैं तो...आपके...........।”

“देखो तुम जब से इस नौकरी में हो, यहीं, इसी मुख्यालय में ही काम करते रहे हो। तुम्हारे कैरियर के भले के लिए तुम्हें अन्य कार्यालय में भी काम करना चाहिए। और गोविन्दपुर में जो हमारा नया ऑफिस खुला है , उसके लिए हमें एक अनुभवी स्टाफ की आवश्यकता थी। हमें तुमसे बेहतर कोई नहीं लगा।”

“सर मैं तो इस विषय पर बात ही नहीं करने आया। मैं तो उसी दिन समझ गया था जिस दिन ट्रांसफर ऑर्डर निकला था – कि आपने जो भी किया है मेरी भलाई के लिए ही किया है। मैं तो कुछ और ही बात करने आया हूँ।”

“ओ.के. देन ... बोलो...............।”

“सर वो,.............थोड़ा लाल बत्ती जला देते । कोई बीच में न आ जाए। ”

“देखो तुम घूम-फिर कर कहीं ट्रांसफर वाली बात तो नहीं करोगे। ”

“नहीं सर। बिल्कुल नहीं। कुछ पर्सनल है सर।”

“क्या?”

“सर मेरे पिता जी काफी बूढ़े हो गए हैं। उनकी इच्छा थी कि मैं एक गाड़ी खरीदूँ और उन्हें उस गाड़ी में इस पूरे महानगर में घुमाऊँ।”

“तो इसमें मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ ?”

“सर ! बस आपकी ब्लेसिंग चाहिए। आप तो इसी महीने के अन्त में सेवानिवृत होकर चले जाएंगे। सुना है आपके पास एक गाड़ी है।”

“हां है तो। वो 80 मॉडल गाड़ी हमेशा गराज में पड़ी रहती है।”

“सर उसे .....आप ............।”

“अरे बेवकूफ वो तुम्हारे किस काम आएगी। पिछले चार सालों में उसकी झाड़-पोछ भी नहीं की गई है। उसे तो कोई पांच हजार में भी नहीं खरीदेगा। उससे ज़्यादा तो उसे मुझे अपने होमटाउन ले जाने का भाड़ा लग जाएगा। मैं तो उसे यहीं छोड़................।”

“सर मैं खरीदूंगा सर। आप बीस हजार में उसे मुझे बेच दीजिए।”

“पर...................लेकिन .......गराज..........नहीं ...नहीं।”

“सर। प्जीज सर। नई गाड़ी तो मेरी औकात के बाहर है। कम से कम इससे मैं अपने माता-पिता का सपना उनके प्राण-पेखरू उड़ने के पहले पूरा तो कर लूंगा।”

“यू आर टू सेंटिमेंटल टूवार्डस योर पैरेंट्स। आई शुड रिस्पेक्ट इट। ओ.के. ... डन। आज से, नहीं-नहीं अभी से गाड़ी तुम्हारी।”

“थैंक्यू सर।... पर एक प्रॉब्लम है सर।”

“क्या?”

“आपकों तो मालूम है कि मैं गाड़ी चलाना ठीक से नहीं जानता। नया-नया सीखा हूं। अब मेरे घर, माधोपुर से तो इस ऑफिस तक का रास्ता बड़ा ठीक-ठाक है, भीड़-भाड़ भी नहीं रहती, किसी तरह आ जाऊंगा। पर सर आप तो जानते ही हैं कि गोविन्दपुर का रास्ता....................... वहां तो शायद मैं इस कार को नहीं ले जा पाऊँगा।”

“दैट्स ट्रू। ब्लडी दैट एरिया इज भेरी बैड। पूरा रास्ता टूटा-फूटा है। उस पर से भीड़ भाड़, .... यू हैव ए प्वाईंट।...............मिस जुली.......जरा इस्टेब्लिशमेंट के बड़ा बाबू को ट्रांसफर ऑर्डर वाली फाईल के साथ बुलाइए।”

“थैंक्यू सर। गुड डे सर।”

Source:
http://manojiofs.blogspot.com/2010/02/blog-post_11.html

लघुकथा | प्राइस टेग | दिलीप भाटिया


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कैलाश और उसका परिवार रिश्ता जोड़ने के उद्देश्य से कला के घर आया था। हालांकि बातचीत में तिलक-दहेज की वही रुकावटें एवं नकारात्मक विचार।

अगले दिन कैलाश को व्हाट्सएप्प पर कला का मैसेज मिला - तुम कल 5 लाख का प्राइस टेग लगाकर आए। मैं स्वयं शिक्षिका हूँ, पापा को कष्ट नहीं दूँगी, तुम्हें खरीद सकती हूँ। हालांकि तुम स्वयं आत्मनिर्भर होकर क्यों इतना सा अहसान ले रहे हो? स्वयं को पहचानो तो अनमोल हो तुम। शिक्षित भी हो ही। कुछ महीनों की बचत से इतना जोड़ने में सक्षम भी हो। विचार करना। तुम्हारे निर्णय के बाद ही अपना निर्णय सूचित करूँगी।

कैलाश ने विचार कर उत्तर दिया - मुझे एक नई राह दिखाने के लिए धन्यवाद। मैनें अपना प्राइस टेग हटा दिया है।

कला का उत्तर  - प्रिय जीवन साथी, कला अब कैलाश की ही है।

- दिलीप भाटिया 
रावतभाटा राजस्थान

सोमवार, 11 मार्च 2019

लेख: हिमाचल का लघुकथा संसार : रतन चंद 'रत्नेश'

लघुकथा आज हाशिये से निकलकर साहित्य की एक सशक्त विधा के रूप में दर्ज होने के बावजूद विसंगति यह देखने में आ रही है कि इसे अंतरंगता में समझने में अभी भी कई त्रुटियाँ हो रही हैं। अंग्रेजी में जहां हिन्दी की कहानी विधा को ‘शार्ट स्टोरी’ कहा जाता है वहीं कई लोग लघुकथा को ही ‘शार्ट स्टोरी’ की संज्ञा दे देते हैं। बीसवीं सदी की शुरूआत में जब हिन्दी साहित्य में कहानी अपनी जड़ें जमा रही थीं तब कुछ लेखकों ने आकार में कई छोटी कहानियां लिखीं पर उस दौरान अलग से लघुकथा एक अलग विधा के रूप में अस्तित्व में नहीं आई थी। देश-विदेश की अन्य कई भाषाओं में भी समय- समय पर कथ्य के फलक के अनुसार छोटी कहानियां लिखी गई हैं जिसमें भरपूर कथारस है। अपितु आठवें दशक के बाद लघुकथा ने धीरे-धीरे अपनी अलग पहचान बनानी शुरू की और अनगिनत लघुकथाकार उभर कर सामने आये।

अन्य भाषाओं में भी लघुकथा को नयी पहचान मिली। पंजाबी में इसे मिनी कहानियां कहा गया तो बांग्ला में अनुगल्प। कथा सम्राट मुंशी प्रेम चन्द और रवीन्द्र नाथ टैगोर जैसे स्वनामधन्य लेखकों की भी कई ऐसी लघुकथाएं हैं, हालांकि उनमें से कई लघुकथा के विद्वानों के अनुसार उस दायरे में नहीं आती। बहरहाल यह एक अलग मुद्दा है, पर यह कहना गलत नहीं होगा कि आज लघुकथा का अपना अलग रंग-रूप है, अपनी प्रासंगिकताहै। इसकी अनेक सृजनात्मक विशिष्टताएं, विधागत सामर्थ्य और रचनात्मक स्वरूप है। जिस प्रकार एक वृक्ष, एक पौधे और तृण का अपना अस्तित्व है, इसी तरह लघुकथा का उपन्यास , कहानी के बावजूद अपना एक धर्म है। अपने इसी धर्म के कारण यह बेजोड़ प्रभाव छोड़ती है।

उदाहरण के रूप मेंसआदत हसन मंटो की कई लघुकथाओं को लिया जा सकता है जो उनकी कहानियों से उन्नीस नहीं ठहरतीं। यह कहना गलत होगा कि इस विधा ने कई लेखकों को स्थापित किया और पहचान दिलायी। लघुकथा के सिंद्धात और भाषा पक्ष पर गंभीरतापूर्वक कार्य करने वाले नागेन्द्र सिंह के अनुसार लघुकथा लघुकथात्मक प्रस्तुति है। इसमें एक मितव्ययी बुद्धिमान की तरह कम से कम वक्यों में कथा को प्रभावी, सार्थक और सोद्देश्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करना होता है। स्व० रमेश बतरा लघुकथा की शक्ति और सीमा को पहचानने पर जोर दिया करते थे। उनका मानना था कि इन दो तत्वों की जानकारी होने पर लघुकथाकार तय कर सकता है कि लघुकथा के ढांचे में चीजों को कहाँ तक और किस तरह ते जाया जाय। उनके अनुसार लघुकथा किखना कहानी लिखने से भी अधिक कठिन है। एक अच्छी लघुकथा लेखन के लिए विधा को बारीकी से जानने और उसे सलीके से बुनने की आवश्यकता है। ...लघुकथा में छोटे फलक पर जटिल अनुभवों के तनावों की अभिव्यक्ति व्यंजना की तीक्ष्ण धार से की जा सकती है. लघुकथा घटना नहीं, बल्कि उसी घटना घटनात्मकता में से प्रस्फुटित विचार है। लघुकथाकार और समीक्षक डॉ. बालेंदु शेखर तिवारी की मानें तो लघुकथा छोटे आकार की वह कथा-केंद्रित विधा है जिसमें समझ और अनुभव की संभवत: सर्वाधिक संश्लिष्ट और सूक्ष्म अभिव्यक्ति संभव है। हिमाचल प्रदेश में ऐसे कई लेखक हैं जिन्होंने अन्य विधाओं में लेखन के साथ-साथ लघुकथाओं में भी हाथ आजमाया। कई कवि, कथाकार, व्यंग्यकार और उपन्यासकार ऐसे हैं जिन्होंने शुरूआती दौर में लघुकथाएं लिखीं, पर आगे चलकर इससे पूर्णत: किनारा कर लिया और यह सिलसिला ‘उसने कहा था’ कहानी से चर्चित हुए पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के समय से चला आ रहा है। वैसे यह कहना गलत नहीं होगा कि बीती सदी के उत्तरार्द्ध में लघुकथा विधा पर जितनी गंभीरता से लिखा गया, उसका प्रभाव हिमाचल के लेखकों में भी बहुत पड़ा और कई अच्छे लघुकथाकार उभर कर सामने आये। आज उनमें से कई लघुकथाएं क्यों नहीं लिख रहे या फिर नाममात्र का ही लिख रहे यह अलग से शोध का विषय हो सकता है। जो लघुकथाकार समर्पित भाव से लघुकथा लेखन में सक्रिय थे, उन्होंने भी या तो लघुकथा लेखन नाममात्र का कर दिया अथवा लेखन से विरक्त हो गये। अगर आज भी हिमाचल में पच्चीस से अधिक लघुकथाएं लिखने वाले लघुकथाकारों की सूची बनायी जाये तो वे पन्द्रह से अधिक नहीं ठहरेंगे। यही कारण है कि मेरे यानी कि रतन चन्द ‘रत्नेश’ द्वारा सम्पादित और 1998 मे प्रकाशित ‘हिमाचल की श्रेष्ठ लघुकथाएं’ के बाद कोई भी ऐसा लघुकथा-संग्रह प्रकाश में नहीं आया जिसमें हिमाचल के लघुकथाकारों को प्रतिनिधित्व मिला हो। हालांकि बलराम ने देश के विभिन्न राज्यों की लघुकथाओं के कई कोष प्रकाशित किए पर उनमें भी उन लघुकथाकारों को स्थान नहीं मिल पाया जिन्होंने वास्तव में लघुकथा के साहित्यिक दायरे में अच्छी और चर्चित लघुकथाएं लिखीं। उनसे किसी कारणवश कई ऐसे लघुकथाकार छूट गये जिनकी लघुकथाओं को राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में स्थान मिला और कई का अन्य प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। पंजाब से निकलने वाली तथा श्याम सुन्दर अग्रवाल, श्याम सुन्दर दीप्ति और विक्रमजीत सिंह नूर द्वारा सम्पादित ‘मिन्नी’ के प्रयास से समय- समय पर विभिन्न विशेषांकों में हिमाचल प्रदेश की लघुकथाओं को पंजाबी अनुवाद के सौजन्य से स्थान मिलता रहा है। यहां तक कि लघुकथा के शोधपूर्ण लेखों में भी पंजाब के विद्वानों ने हिमाचल के लघुकथाकारों को शिद्दत से याद किया है। अन्य कई लघुकथा संग्रहों और पत्रिकाओं-विशेषांकों में भी हिमाचल के कुछ लघुकथाकारों को समय-समय पर प्रतिनिधित्व मिला है। हिमाचल में लघुकथा लेखन में आज जो सबसे अधिक सक्रिय हैं, उनमें सुदर्शन भाटिया का नाम सर्वोपरि है। यहां तक कि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगर कि देश भर में यही एक ऐसे लघुकथाकार हैं जिनकी पच्चीस से भी अधिक लघुकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उन पुस्तकों के नाम हैं----- ‘तूफान’, ‘खंडहर’, ‘सिसकियाँ’, ‘काली लड़की’, ‘घरौंदे में घोंसला’, ‘पश्चाताप की आग’, ‘कुंवारी विधवा’, ‘शिलालेख’, ‘धत्त तेरे की’, ‘मिटटी का माधो’, ‘यू आर गुड’, ‘सॉरी सर’, ‘गुस्ताखी माफ’, ‘काटो तो खून नहीं’, ‘उत्तराधिकारी’, ‘लौटा दो पालकी’, ‘रथ का पहिया’, ‘संकल्प में शक्ति’, ‘कलियुग की लघुकथाएं’, ‘सुविधा शुल्क’, ‘अपना हाथ जगन्नाथ’, ‘मजदूरों के मसीहा’, ‘तो ये बात है’, ‘दूध का दूध- पानी का पानी’, ‘विश्व गुरु भारत’, ‘आत्मिक शांति’, तथा हाल में प्रकाशित ‘आधुनिक समाज की लघुकथाएं’, ‘इन्द्रधनुषी लघुकथाएं’ और ‘पौराणिक-एतिहासिक लघुकथाएं’।. यहाँ यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि सुदर्शन भाटिया भी वही गलती करते आ रहे हैं और हर छोटी रचना, चाहे वह पौराणिक कथा ही क्यों न हो, उसे लघुकथा मान लेते हैं।

भगवान देव चैतन्य की भी लघुकथाएं अकसर पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती रहती हैं। इस विधा के मिजाज से वे अच्छी तरह वाकिफ हैं। शायद इसीलिए इनकी लघुकथाएं घाव करे गंभीर की उक्ति को चरितार्थ करने में सक्षम हैं। कहानी-संग्रह और उपन्यास के अलावा उनके तीन लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं----- ‘शब्द-शब्द सोच’, ‘मुर्दे की लकड़ी’ और हाल ही में प्रकाशित ‘कोख का दर्द’। चैतन्य की हिमाचल की मंडियाली बोली में भी एक लघुकथ-संग्रह आया है----- ‘उच्ची धारा रा धुप । जाने-माने लघुकथाकारों में कृष्ण चन्द्र महादेविया का एक लघुकथा संग्रह सन् 1992 में प्रकाशित हुआ था। ‘उग्रवादी’ नामक इस लघुकथा संग्रह में कुल 41 लघुकथाएं हैं। इनके अलावा रोशन विक्षिप्त और अनिल कटोच के भी लघुकथा संग्रह उन्हीं दिनों प्रकाशित हुए थे और लघुकथाकार के रूप में स्थापित भी हुए। इन दोनों ने लघुकथा को ही अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया पर आज ये दोनों नििष्क्रय हैं और एक तरह से कहा जाये तो इन्होंने लेखन कार्य ही छोड़ रखा है। बेकारी के दिनों में इन्होंने खूब लघुकथाएं लिखीं पर नौकरी मिलते ही उसी में खप गये। रत्न चन्द निर्झर की लघुकथाएं भी मारक हैं। कभी खूब लिखते थे, अब सिर्फ़ पढ़ने का शौक रखा है। कभी-कभी उनके अन्तरमन से कविताएं फूट पड़ती हैं। लघुकथाओं का प्लाट लेकर घूमते रहते हैं, यार-दोस्तों को सुना भी देते हैं पर लिखने में सुस्ती दिखा जाते हैं ।

देश के विभिन्न प्रांतों से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओ और पुस्तकों में जिन लेखकों की लघुकथाओं को समय-समय पर स्थान मिला, उनमें स्व. डा०मनोहर लाल, सुदर्शन वशिष्ठ, आशा शैली, उषा मेहता दीपा, रतन चन्द ‘रत्नेश’, रत्न चन्द निर्झर, श्रीनिवास जोशी, भगवान देव चैतन्य, कृष्ण चन्द्र महादेविया आदि नाम उल्लेखनीय हैं। सही मायने में देखा जाये तो जिनकी लघुकथाओं ने कभी ध्यान बरबस खींचा है और जिन्होंने इस विधा को गंभीरता से लिया वे हैं रजनीकांत, भगवान देव चैतन्य, अनिल कटोच, आशा शैली, उषा मेहता दीपा, रोशन विक्षिप्त, कृष्ण चन्द्र महादेविया, रत्न चंद ’निर्झर’, हिमेन्द्र बाली हिम, मनोहर लाल अवस्थी इत्यादि। इनके अलावा श्रीनिवास जोशी, साधू राम दर्शक, मदन गुप्ता सपाटू, गिरिधर योगेश्वर, प्रभात कुमार, सुरेश कुमार प्रेम, नरेश कुमार उदास, प्रकाश चंद्र धीमान, मोहन साहिल, ओमप्रकाश भारद्वाज, राजकुमार कमल, कमलेश ठाकुर चम्बावाला, डॉ. प्रत्युष गुलेरी, मंजीत सहगल, विधि चंद्र विद्यार्थी, डॉ. लेख राम शर्मा, संतोष जसवाल, कुल राजीव पन्त, अमिन शेख चिस्ती, मधु गुप्ता, डॉ. राकेश गुप्ता, अरुण जीत ठाकुर, ने भी अन्य विधाओं के साथ यदा-कद लघुकथा–लेखन कार्य किया है।

इधर कुछेक वर्षो से जो लेखक संजीदगी से लघुकथा लिख रहे हैं, वे हैं विजय उपाध्याय, शबनम शर्मा, विजय रानी बंसल, विनोद ध्रब्याल राही, अनंत आलोक  और रामकृष्ण कांगड़िया। इनके अलावा सत्येन्द्र, अवतार सिंह वाजवा, विनय कौशल, प्रताप अरनोट, अरुण गौतम, स्वर्ण दीपक रैणा, हीरा सिंह कौशल, राजीव त्रिगर्ति,  अशोक दर्द, कुलदीप चन्देल आदि भी ध्यान खींचने वाली लघुकथाएं लिख रहे हैं। यहां यह कहना भी उचित होगा कि कई लेखक लघुकथा के गुण- धर्म को जाने बिना लघुकथाएं लिखे जा रहे हैं। बोधकथा, प्रेरक प्रसंग, पौराणिक एवं धार्मिक कथाएं लघु रूप में लघुकथाएं नहीं होतीं। दुर्भाग्य यह है कि पत्र-पत्रिकाओं के कई सम्पादक भी लघुकथा के मर्म से अनभिज्ञ हैं। फलस्वरूप इस विधा को नुकसान पहुंचाने में उनका भी हाथ रहा है।
 - रतन चंद 'रत्नेश'

Source:
http://ratanchandratnesh.blogspot.com/2010/04/blog-post_31.html