छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में 16,17 फरवरी 2008 , दो दिन का एक सुनहरा ऐतिहासिक स्मरणीय कुंभ रहा जहाँ पर विश्व के हर देश से साहित्यकार भाग लेकर लघुकथा की विषय-वस्तु, उसके शिल्प, कला-कौशल, आकार-प्रकार, वर्तमान और भविष्य की बारीकी को जानते और परखते रहे। ।श्री केसरीनाथ त्रिपाठी के हाथों दीप प्रज्ज्वलन के साथ हुआ साथ में मंच की शोभा बढ़ाते रहे थे जाने-माने आलोचक व लघुकथा के प्रथम व्याकरणाचार्य श्री कमल किशोर गोयनका, विशिष्ट अतिथि थे फ़िराक़ गोरखपुरी के नाती, वरिष्ठ कवि व छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिर्देशक श्री विश्वरंजन, श्री विश्वनाथ सचदेव, संपादक नवनीत- मुंबई से, श्री मोहनदास नैमिशराय-मेरठ से, सुश्री पूर्णिमा वर्मन-शारजाह से, श्री कुमुद अधिकारी नेपाल से, श्री रोहित कुमार हैपी न्यूजीलैंड से, मै, देवी नागरानी न्यू जर्सी से, और सृजन-सम्मान के अध्यक्ष व पूर्व शिक्षामंत्री श्री सत्यनारायण शर्मा। मुख्यअतिथि श्री केसरीनाथ त्रिपाठी ने दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए कहा कि "पहले कभी साहित्य का गढ़ इलाहाबाद और दिल्ली हुआ करता था । सृजन-सम्मान ने विगत 6 आयोजनों और अपनी सतत् क्रियाशीलता से छत्तीसगढ़ और रायपुर को साहित्य का गढ़ बना दिया है."
यह शीर्षक "लघुकथा" सिर्फ़ शीर्षक नहीं एक सूत्र भी है ' ब्राह्म वाक़्य भी है. रायपुर में 16-17 फरवरी 2008 में, इन दो जुड़वा दिनों में विस्तार से लघुकथा पर केंद्रित जो चर्चा हुई, वह तो सागर की गागर में एक प्रविष्ट थी; जिसका डेफ़ीनेशन बीज वक्तव्य देते हुए श्री जय प्रकाश मानस जी के शब्दों में "लघु और कथा एक दूसरे के पूरक है लघुता ही उसकी पूर्णता है, लघुता ही उसकी प्रभुता है. लघुकथा जीवन का साक्षात्कार है, गध्य और शिल्प निजी व्यवहार है और लेखक का परिचय भी.”
यह सच है कि इस विषय पर पूर्ण रूप से जानना और उसकी शैली को प्रस्तुत करने का सफ़र मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं. इस सुनहरे ऐतिहासिक स्मरणीय कुंभ में जहाँ पर विश्व की कई दिशाओं से साहित्यकार भाग लेकर लघुकथा की विषय-वस्तु, कला- कौशल, आकर-प्रकार,वर्तमान और भविष्य की बारीकियों को जानते रहे एवम वाद विवाद से परखते भी रहे, जिससे कई बातें स्पष्ट होती रहीं. इस पर गौरव पूर्ण रूप से रोशनी डालते अपने भाव व्यक्त करते हुए श्री कमल किशोर गोयनका जी ने कहा "इतना बड़ा सम्मेलन पहली बार इतने बड़े पैमाने पर आयोजित करने की कल्पना का साकार स्वरूप एक महान उपलब्द्धि है. हमारे समाज की गरिमा बनाये रखने का यहा एक अंतराष्ट्रीय स्तर पर सफल प्रयास है.”
"छत्तीसगढ़ अब साहित्य का भी गढ़ है" यह केसरीनाथ त्रिपाठी जी का मानना है , इसमें कोई अतिशययोक्ति नहीं. अलग-अलग ढंग से प्रमुख लघुकथाकारों ने अपने अपने दृष्टिकोण से विस्तुत वर्णन किया. श्री केसरीनाथ जी के शब्दो में "कविता, लेख, लघुकताएँ, आलोचनाएँ सब हिन्दी भाषा की धाराए है." लघुकता का वर्तमान, इस विधा की कलात्मक सुज़नता के साथ आने वाले कल की नींव रख रहा है. इस विषय के जाने माने माहिर लघुकथाकार कर्नाल के श्री अशोक भाटिया जी का कहना है "रचना वही है जो हमारे साथ-साथ यात्रा करे. रचनाकार में अगर संवेदना नहीं है तो उसकी रचना में जान नहीं आ सकती” श्री सुकेश साहनी जी के शब्दों में "रचनाकार का एक चिंतन होता है, जो अपने आप को व्यक्त करता है, साहित्य तो बहता हुआ पानी है जो अपना रास्ता खुद तय करता है. "
राजस्थान के अजमेर जिले की निवासी डा॰ शकुन्तला किरण द्वारा जयपुर विश्वविद्यालय से आठवें दशक की 'हिन्दी लघुकथा' पर केन्द्रित शोध-कार्य के अवसर पर हिन्दी लघुकथा की रचनात्मक-पड़ताल के लिये उनकी दृष्टि-पटल पर देश ही नहीं, विदेश की परम्परा भी बीज-रूप में विद्यमान रही है। साहित्य-जगत में अपना विधागत मुकाम हासिल करने में लघुकथा भले ही अब कामयाब हो सकी हो, किन्तु डा0 शकुन्तला किरण आठवें दशक में उपलब्ध साहित्य के साक्ष्य में एक पारखी शोधार्थी के नाते ऐसी स्थापना को बहुत पहले शब्द दे चुकी थीं---"आठवें दशक में उदित आधुनिक हिन्दी लघुकथा ने अपनी विशिष्टताओं, क्षमताओं एवं उपयोगिताओं के कारण अभिव्यक्ति के एक नये व प्रभावशाली माध्यम के रूप में अपनी स्वतन्त्र पहचान दी…।"
लघुकथा की रचना क्यों होनी चाहिए?
लघुकथा-लघु का अर्थ दर्शाते हुए अपना अर्थ विस्तार अनंत की ओर ले जाती है. कथा यानी कहानी -छोटी सी कथा जिसका स्ट्रक्चर (stucture) और टेक्सचर (texture) उसकी निजी मान्यता है. है लघु सी ये कथा, विस्तार जिसका है बड़ा गद्य औ' फिर शिल्प उसकी कह रहा है लघुकथा. लघुकथा की लघुता पर विस्तार पूर्वक विशेषण शब्दो से सजाए हुए अनेक परिभाषाएँ सामने आने लगते है, जिससे यही लगता है- जीवन के छोटे छोटे जिये जाने वाले पल ही लघुकथा है. शायद यहीं हम लघुकथा का निर्माण करते है, जिसकी व्याख्यान की सीमा असीमित है. हद और सरहद के बीच का फासला तय करना ही इसकी लघुता है. सच तो यह है कि लघुकथा का लघुपन ही उसका कथा तत्व है. जब लघुकथा का निर्माण होता है तो मानव जीवन इसका विस्तार हो जाता है और परिधि भी. यह एक नया पाठकीय अस्वाद है, एक अनूठी अद्धभूत विध्या है, लेखक विहीन विध्या जिसमें लेखक अद्रश्य रहता है. हाँ लघुकथा की कला में वह उपस्थित रहता है. कथा अपनी लघुता में प्रवेश करके संवाद करती है. यह छोटे सी कथा अपने आकर और रूप द्वारा लघुकथा का प्रभाव प्रस्तुत करती है. महत्व प्रभाव का है, कलाकार की कलाकृति से उसकी माहिरता झाँकती है. उसके आँचल में सामयिकता, सार्वजनीनता, वैचारिक उत्कँण्ठा, बौधिक प्रहार, तथा मानसिक उद्वेलन समाया हुआ होता है. एक आम आदमी की जिंदगी में पेश आए हुए रोज़मर्रा की जिंदगी की अनुभूतियाँ इसमें शामिल रहती हैं, जिनमें प्रेरकता तथा प्रेरणात्मकता के अनेक गुण और दोष उभरकर सामने आते है-जिनके द्वारा वो जिए गये तजुर्बात एक तस्वीर बनकर स्पष्ट रूप धारण करते है. विडंबनाओं तथा विविश्ताओं को शब्दाँकन करने के साथ-साथ रचना को सकारात्मक मोड़ पर ला खड़ा करना भी लघुकथा की एक विशेषता है.
लघुकथा हर साहित्य के क्षेत्र में कई पड़ावों से गुजर कर अपना अधिकृत स्थान पाने में सफल हो रही है. विषय भी अनंत है और मानव-जीवन इसकी विराटता. दीर्घता इसकी दुश्मन, लघुता इसकी दोस्त. लघुकथा तब ही जीवित होकर साँसे लेती है जब वह पाठकों तक पहुंचती है, उनके हृदय को टटोल कर उनके मनोभावों को झंझोर कर रख देती है, फिर चाहे उसमें चुटकीलापन ही क्यों न हो, चुलबुलापन हो या आत्मीयता, जीवन की हर शैली को अपनी लघुता में प्रदर्शित करने-कराने की क्षमता रखती हो- जहाँ पर लघुकथाकार दृश्य न रहकर पात्रों के रूप में अपनी बात कर पाने में समर्थ हो. लघुकथा जीवन के दृष्टांतों को लेकर मानव समाज को सही राह चुनने का अवसर देती है. जब तक कोई लेखक समाज से रू-ब-रू नहीं होगा, संवाद का कोई भी माध्यम उसकी संवेदना को जगाए नहीं रख सकता। साहित्य अगर समाज का दर्पण है तो सिर्फ इसलिए कि उसका रचयिता समाज के अन्तर्विरोधों को उसके बीच अपनी उपस्थिति बनाकर झेलता है, महसूस करता है. जितनी गहराई से वह महसूस करेगा, उतनी ही गहराई से वह प्रस्तुतीकरण भी कर पायेगा. भीतर के जगत से जुड़े बिना बाहर की हर यात्रा व्यर्थ और निरर्थक है।
लघुकथा में एक साधारण सी गुफ़्तगू का स्वरूप देखें कितना असरदार है, एक परिपुर्ण तस्वीर अंकित करने में- वह अपनी अनबोली भाषा में खुद को व्यक्त करती है.
एक: क्या करते हो
दूसरा: ख़ुद को ढूँढता हूँ
एक: कहाँ पर
दूसरा: किसी साफ आईने में
मन की हल- चल, अस्थिरता, संक्षिप्त गुफ्तगू में स्पष्ट होती है. एक कहानीकार, लघुकथाकार बन जाता है. अपनी विराटता को लघुकथा में समेट कर एक बिंदु पर ला खड़ा करना या उसमें परिवर्तित करते हुए कथनी और करनी को लयात्मक स्वरूप देना इस लोकप्रिय विधा की विशेषता भी है और पहचान भी. लघुकथा के बारे में एक प्रचलित सत्य ये भी है की लघुकथा की साइज़ जितना छोटा उतना अच्छा, मगर उसके विषय और कथ्य में समझौता नहीं होना चाहिए. यही लघुकथा का प्रभावशाली गुण है जो साहित्य में उसे इतनी मान्यता मिल रही है. लघुकथा का महत्व उसकी लघुता में है जो वह कथा को प्रदान करती है। लघुकथा सिर्फ़ बोध की बात नहीं करती, आपकी सारी चेतना को भी झिंझोड़ कर रखती है। छोटी बात से बड़े अर्थ पाए जायें यह उसकी एक ख़ासियत है और अपनी बात पैग़ाम स्वरूप कम से कम शब्दों में मानवता तक पहुचाई जाए यही लघुकथा की सफ़लता . लघु और कथा एक दूसरे के पूरक है, फिर भी लघुकता ही इसकी प्राथमिकता है. शिल्प की दृष्टि से लघुकथा किसी गद्य-गीत जैसी सुगठित होनी चाहिए। शाब्दिक गद्य और शिल्प की शिलापर टिकी उसकी लघुता में कल्पना की गुंजाइश नहीं. उसकी हस्ती अद्रुश्यता में उपस्थित होती है. शायद लघुकता की पेशगी के सलीके में शामिल होती है उसकी अपनी शैली, बुनावट, कसावट, कथ्य, शिल्प और शैली जो प्रस्तुतीकरण के दौरान कितने दिलों के मनोभावों को अपने साथ जोड़ती है, झंझोड़ती है और जागृता उत्पन करती है.
प्रत्येक कहानी में एक 'सत्व' होता है और हम इसे 'कहानी की आत्मा' कहते हैं। 'लघुकथा' 'कहानी की आत्मा' है, उसका 'सत्व' है, अत: हम कह सकते हैं कि 'लघुकथा' केवल आकारगत, शिल्पगत, शैलीगत और प्रभावगत ही नहीं, शब्दगत और सम्प्रेषणगत समस्त गुणों की कथा-रचना है। कहानी और लघुकथा के बीच अन्तर को इन स्पष्ट तत्वों के माप के द्वारा स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है। बहुत कुछ कहने के बाद बहुत कुछ सोचने के लिए पाठक के मनोभावों को उकेरना इसकी आवश्यकता है. लघुकथा और कहानी को एक दूजे से अलग कर पाना मुश्किल है "कथा किसी एक व्यक्ति के द्वारा कही गयी कोई घटना है या उसकी आत्मकथा है, पर उस विषय में कथा होनी चाहिए. जिसमें कथा न हो, वो लघुकथा कैसी?
लघुकथा एक स्वाभाविक आकर की रेखांकित की गई विधा है,. एक दृष्टिकोण है जिसका अंकुर मानव मन से अंकुरित हो कर भाषा का आधार पाकर अपने आपको प्रत्यक्ष कर पाता है. जीवन का प्रत्यक्षीकरण है लघुकथा , जहाँ हर घटना घट जाने के बाद भी अपने स्वरूप में साकार रहती है, साँस लेती है. हाँ इस बात से नकारा नहीं जा सकता की रचनाकार में अगर संवेदना नहीं है तो उसकी रचना में जान नहीं आ सकती. सहजता उसकी नीव है. कथ हृदय-स्पर्षी होने के साथ-साथ हक़ीक़तों से ताल-मेल खाती हुई रोज़मर्रा जीवन की शैली में व्यक्त की हुई हो तो ज़्यादा मन को छू पाती है. कभी कभी कल्पना से खींचा हुआ चित्र भी यतार्थ सा लगता है. एक मुकाम बनाने की चेष्टा में अपना स्रजन आप करती है लघुकथा. जैसे कोई मधुबन का माली फूलों की क्यारियों को जल से सींचता है, खाद्ध डालता है और आस-पास के सूखे पत्तों को उनसे अलग करके उनकी ताज़गी को बरकरार रखने के कोशिश करता है, ठीक उसी तरह एक रचनाकार लघुकथा लिखते वक़्त लक्ष्य को मधे-नज़र रखते हुए अपनी रचना को सोच से सींच कर शब्दों के शिल्प से तराश कर एक आकृति तैयार करता है जो अपने आप को खुद कम शब्दों में व्यक्त करती है. कम शब्दों में बहुत कुछ कहने की कला है लघुकथा, जिसका स्रजन लघुकथाकार का मन कर सकता है, जिसके मन में संवेदना है, जो अहसासों को अभिव्यक्त करने की कला से परिचित है.
यह तो आधुनिक विधा है, संक्षिप्त होते हुए भी परिपूर्णता से लदी हुई, पौराणिक साहित्य सम्रद्धि प्रदान करती हुई, जिसका संबंध रचना की आँतरिक प्रक्रुति, अंत वस्तु, रूप, बिंब, और रचनाकार की मानसिकता आदि से रूबरू कराती है. एक साहित्सिक आवश्यकता इस युग की, जिसकी शैली और लघुता जीवन की विभिन्नता को एकता का स्वरूप प्रदान करती है. इसके अनेक संकेतो में इसकी परिभाषा छुपी हुई होती है. किसी ने खूब कहा है-"लघुकथा जिंदगी का एक चित्र है, आम नागरिक के जीवन का प्रतीक है" आज कथा मनोरंजन के लिये नहीं आपितु यथार्थ - दर्शन के लिये लिखी जाती है. यही कारण है कि लघुकथा आज मानव-जीवन के किसी क्षण-विशेष का ही नहीं, उसके किसी पक्ष-विशेष का भी चित्रण करने में पूर्ण सक्षम है।
'लघुकथा' में संवादों की स्थिति क्या हो? उन्हें होना चाहिए या नहीं? होना चाहिए तो किस अनुशासन के साथ और नहीं तो क्यों? ये सवाल वैसे ही अनर्गल हैं जैसे कि इसके आकार या इसकी शब्द-संख्या के निर्धारण को लेकर अक्सर सामने आते रहते हैं। वस्तुत: लघुकथा 'लिखी' या 'कही जाती' प्रतीत न होकर 'घटित होती' प्रतीत होनी चाहिए। लघुकथा की रचना-प्रक्रिया का यह प्रमुख सूत्र है।
लघुकथा वही साकार होती है जो मानसिक पक्षों को उजगार करे. मानव मन से जुड़े भाव-दर्द, करुणा, या विरोधाभास को उजगार करे और जीवन की जटिलताओं को आप-बीती से जग- बीती के स्तर पर प्रस्तुत करने की कला का प्रयोग करे, तब कहीं जाकर लघुकथा जीवन से जुडेय हुए अनुभव रेखांकित कर पाती है, फिर मार्मिकता के कारण जीवन के निकट आती है और स्वीकारी जाती है. लघुकथा अपने समय की सच्चाइयों का जीवंत दस्तावेज़ होने के साथ ही अपनी स्वतंत्र शैली भी विकसित करती है. हक़ीक़त में आज के इस मशीनी दौर में जहाँ आम आदमी कुछ पल सुकून के ट्रेन में खड़ा होकर, कभी बस की लाइन में खड़े-खड़े अपने आपको लघुक्था के इस मध्यम से साहित्य से जोड़ पाता है, तो कहीं न कहीं इस विधा की सफलता का आभास होता है. संक्षिप्त यात्रा के बीच लघुकथा पूरे विश्व में पढ़ी जाने वाली पसंदीदा साहित्य है, जिसकी भाषा, सरल शैली से गंभीर चिंतन देती है, हर बंधन से मुक्त, पर फिर भी दाइरे में रहकर शब्द की कसावट और बुनावट द्वारा लघुकथा अपना महत्वपूर्ण कला पक्ष दर्शाती है.
यहाँ मैं डा॰ राजेंद्र सोनी और श्री जयप्रकाश मानस द्वारा संपादित "लघुकथा का गढ़ छत्तीसगढ़" को मधे नज़र रखते हुए यही कहूँगी कि इस सत्य के स्तंभ में इनका योगदान महत्वपूर्ण है. कुछ पंक्तिया अपनी जोड़ते हुए:
उसकी शैली, उसकी लघुता, उसकी परिभाषा बनी
अब स्वाभाविक प्रकट है आकर बनकर लघुकथा.
है लघु सी ये कथा, विस्तार जिसका है बड़ा
अंकुरित भाषा सी उपजै, आधार बनकर लघुकथा.
जयहिंद
- देवी नागरानी
यह शीर्षक "लघुकथा" सिर्फ़ शीर्षक नहीं एक सूत्र भी है ' ब्राह्म वाक़्य भी है. रायपुर में 16-17 फरवरी 2008 में, इन दो जुड़वा दिनों में विस्तार से लघुकथा पर केंद्रित जो चर्चा हुई, वह तो सागर की गागर में एक प्रविष्ट थी; जिसका डेफ़ीनेशन बीज वक्तव्य देते हुए श्री जय प्रकाश मानस जी के शब्दों में "लघु और कथा एक दूसरे के पूरक है लघुता ही उसकी पूर्णता है, लघुता ही उसकी प्रभुता है. लघुकथा जीवन का साक्षात्कार है, गध्य और शिल्प निजी व्यवहार है और लेखक का परिचय भी.”
यह सच है कि इस विषय पर पूर्ण रूप से जानना और उसकी शैली को प्रस्तुत करने का सफ़र मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं. इस सुनहरे ऐतिहासिक स्मरणीय कुंभ में जहाँ पर विश्व की कई दिशाओं से साहित्यकार भाग लेकर लघुकथा की विषय-वस्तु, कला- कौशल, आकर-प्रकार,वर्तमान और भविष्य की बारीकियों को जानते रहे एवम वाद विवाद से परखते भी रहे, जिससे कई बातें स्पष्ट होती रहीं. इस पर गौरव पूर्ण रूप से रोशनी डालते अपने भाव व्यक्त करते हुए श्री कमल किशोर गोयनका जी ने कहा "इतना बड़ा सम्मेलन पहली बार इतने बड़े पैमाने पर आयोजित करने की कल्पना का साकार स्वरूप एक महान उपलब्द्धि है. हमारे समाज की गरिमा बनाये रखने का यहा एक अंतराष्ट्रीय स्तर पर सफल प्रयास है.”
"छत्तीसगढ़ अब साहित्य का भी गढ़ है" यह केसरीनाथ त्रिपाठी जी का मानना है , इसमें कोई अतिशययोक्ति नहीं. अलग-अलग ढंग से प्रमुख लघुकथाकारों ने अपने अपने दृष्टिकोण से विस्तुत वर्णन किया. श्री केसरीनाथ जी के शब्दो में "कविता, लेख, लघुकताएँ, आलोचनाएँ सब हिन्दी भाषा की धाराए है." लघुकता का वर्तमान, इस विधा की कलात्मक सुज़नता के साथ आने वाले कल की नींव रख रहा है. इस विषय के जाने माने माहिर लघुकथाकार कर्नाल के श्री अशोक भाटिया जी का कहना है "रचना वही है जो हमारे साथ-साथ यात्रा करे. रचनाकार में अगर संवेदना नहीं है तो उसकी रचना में जान नहीं आ सकती” श्री सुकेश साहनी जी के शब्दों में "रचनाकार का एक चिंतन होता है, जो अपने आप को व्यक्त करता है, साहित्य तो बहता हुआ पानी है जो अपना रास्ता खुद तय करता है. "
राजस्थान के अजमेर जिले की निवासी डा॰ शकुन्तला किरण द्वारा जयपुर विश्वविद्यालय से आठवें दशक की 'हिन्दी लघुकथा' पर केन्द्रित शोध-कार्य के अवसर पर हिन्दी लघुकथा की रचनात्मक-पड़ताल के लिये उनकी दृष्टि-पटल पर देश ही नहीं, विदेश की परम्परा भी बीज-रूप में विद्यमान रही है। साहित्य-जगत में अपना विधागत मुकाम हासिल करने में लघुकथा भले ही अब कामयाब हो सकी हो, किन्तु डा0 शकुन्तला किरण आठवें दशक में उपलब्ध साहित्य के साक्ष्य में एक पारखी शोधार्थी के नाते ऐसी स्थापना को बहुत पहले शब्द दे चुकी थीं---"आठवें दशक में उदित आधुनिक हिन्दी लघुकथा ने अपनी विशिष्टताओं, क्षमताओं एवं उपयोगिताओं के कारण अभिव्यक्ति के एक नये व प्रभावशाली माध्यम के रूप में अपनी स्वतन्त्र पहचान दी…।"
लघुकथा की रचना क्यों होनी चाहिए?
लघुकथा-लघु का अर्थ दर्शाते हुए अपना अर्थ विस्तार अनंत की ओर ले जाती है. कथा यानी कहानी -छोटी सी कथा जिसका स्ट्रक्चर (stucture) और टेक्सचर (texture) उसकी निजी मान्यता है. है लघु सी ये कथा, विस्तार जिसका है बड़ा गद्य औ' फिर शिल्प उसकी कह रहा है लघुकथा. लघुकथा की लघुता पर विस्तार पूर्वक विशेषण शब्दो से सजाए हुए अनेक परिभाषाएँ सामने आने लगते है, जिससे यही लगता है- जीवन के छोटे छोटे जिये जाने वाले पल ही लघुकथा है. शायद यहीं हम लघुकथा का निर्माण करते है, जिसकी व्याख्यान की सीमा असीमित है. हद और सरहद के बीच का फासला तय करना ही इसकी लघुता है. सच तो यह है कि लघुकथा का लघुपन ही उसका कथा तत्व है. जब लघुकथा का निर्माण होता है तो मानव जीवन इसका विस्तार हो जाता है और परिधि भी. यह एक नया पाठकीय अस्वाद है, एक अनूठी अद्धभूत विध्या है, लेखक विहीन विध्या जिसमें लेखक अद्रश्य रहता है. हाँ लघुकथा की कला में वह उपस्थित रहता है. कथा अपनी लघुता में प्रवेश करके संवाद करती है. यह छोटे सी कथा अपने आकर और रूप द्वारा लघुकथा का प्रभाव प्रस्तुत करती है. महत्व प्रभाव का है, कलाकार की कलाकृति से उसकी माहिरता झाँकती है. उसके आँचल में सामयिकता, सार्वजनीनता, वैचारिक उत्कँण्ठा, बौधिक प्रहार, तथा मानसिक उद्वेलन समाया हुआ होता है. एक आम आदमी की जिंदगी में पेश आए हुए रोज़मर्रा की जिंदगी की अनुभूतियाँ इसमें शामिल रहती हैं, जिनमें प्रेरकता तथा प्रेरणात्मकता के अनेक गुण और दोष उभरकर सामने आते है-जिनके द्वारा वो जिए गये तजुर्बात एक तस्वीर बनकर स्पष्ट रूप धारण करते है. विडंबनाओं तथा विविश्ताओं को शब्दाँकन करने के साथ-साथ रचना को सकारात्मक मोड़ पर ला खड़ा करना भी लघुकथा की एक विशेषता है.
लघुकथा हर साहित्य के क्षेत्र में कई पड़ावों से गुजर कर अपना अधिकृत स्थान पाने में सफल हो रही है. विषय भी अनंत है और मानव-जीवन इसकी विराटता. दीर्घता इसकी दुश्मन, लघुता इसकी दोस्त. लघुकथा तब ही जीवित होकर साँसे लेती है जब वह पाठकों तक पहुंचती है, उनके हृदय को टटोल कर उनके मनोभावों को झंझोर कर रख देती है, फिर चाहे उसमें चुटकीलापन ही क्यों न हो, चुलबुलापन हो या आत्मीयता, जीवन की हर शैली को अपनी लघुता में प्रदर्शित करने-कराने की क्षमता रखती हो- जहाँ पर लघुकथाकार दृश्य न रहकर पात्रों के रूप में अपनी बात कर पाने में समर्थ हो. लघुकथा जीवन के दृष्टांतों को लेकर मानव समाज को सही राह चुनने का अवसर देती है. जब तक कोई लेखक समाज से रू-ब-रू नहीं होगा, संवाद का कोई भी माध्यम उसकी संवेदना को जगाए नहीं रख सकता। साहित्य अगर समाज का दर्पण है तो सिर्फ इसलिए कि उसका रचयिता समाज के अन्तर्विरोधों को उसके बीच अपनी उपस्थिति बनाकर झेलता है, महसूस करता है. जितनी गहराई से वह महसूस करेगा, उतनी ही गहराई से वह प्रस्तुतीकरण भी कर पायेगा. भीतर के जगत से जुड़े बिना बाहर की हर यात्रा व्यर्थ और निरर्थक है।
लघुकथा में एक साधारण सी गुफ़्तगू का स्वरूप देखें कितना असरदार है, एक परिपुर्ण तस्वीर अंकित करने में- वह अपनी अनबोली भाषा में खुद को व्यक्त करती है.
एक: क्या करते हो
दूसरा: ख़ुद को ढूँढता हूँ
एक: कहाँ पर
दूसरा: किसी साफ आईने में
मन की हल- चल, अस्थिरता, संक्षिप्त गुफ्तगू में स्पष्ट होती है. एक कहानीकार, लघुकथाकार बन जाता है. अपनी विराटता को लघुकथा में समेट कर एक बिंदु पर ला खड़ा करना या उसमें परिवर्तित करते हुए कथनी और करनी को लयात्मक स्वरूप देना इस लोकप्रिय विधा की विशेषता भी है और पहचान भी. लघुकथा के बारे में एक प्रचलित सत्य ये भी है की लघुकथा की साइज़ जितना छोटा उतना अच्छा, मगर उसके विषय और कथ्य में समझौता नहीं होना चाहिए. यही लघुकथा का प्रभावशाली गुण है जो साहित्य में उसे इतनी मान्यता मिल रही है. लघुकथा का महत्व उसकी लघुता में है जो वह कथा को प्रदान करती है। लघुकथा सिर्फ़ बोध की बात नहीं करती, आपकी सारी चेतना को भी झिंझोड़ कर रखती है। छोटी बात से बड़े अर्थ पाए जायें यह उसकी एक ख़ासियत है और अपनी बात पैग़ाम स्वरूप कम से कम शब्दों में मानवता तक पहुचाई जाए यही लघुकथा की सफ़लता . लघु और कथा एक दूसरे के पूरक है, फिर भी लघुकता ही इसकी प्राथमिकता है. शिल्प की दृष्टि से लघुकथा किसी गद्य-गीत जैसी सुगठित होनी चाहिए। शाब्दिक गद्य और शिल्प की शिलापर टिकी उसकी लघुता में कल्पना की गुंजाइश नहीं. उसकी हस्ती अद्रुश्यता में उपस्थित होती है. शायद लघुकता की पेशगी के सलीके में शामिल होती है उसकी अपनी शैली, बुनावट, कसावट, कथ्य, शिल्प और शैली जो प्रस्तुतीकरण के दौरान कितने दिलों के मनोभावों को अपने साथ जोड़ती है, झंझोड़ती है और जागृता उत्पन करती है.
प्रत्येक कहानी में एक 'सत्व' होता है और हम इसे 'कहानी की आत्मा' कहते हैं। 'लघुकथा' 'कहानी की आत्मा' है, उसका 'सत्व' है, अत: हम कह सकते हैं कि 'लघुकथा' केवल आकारगत, शिल्पगत, शैलीगत और प्रभावगत ही नहीं, शब्दगत और सम्प्रेषणगत समस्त गुणों की कथा-रचना है। कहानी और लघुकथा के बीच अन्तर को इन स्पष्ट तत्वों के माप के द्वारा स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है। बहुत कुछ कहने के बाद बहुत कुछ सोचने के लिए पाठक के मनोभावों को उकेरना इसकी आवश्यकता है. लघुकथा और कहानी को एक दूजे से अलग कर पाना मुश्किल है "कथा किसी एक व्यक्ति के द्वारा कही गयी कोई घटना है या उसकी आत्मकथा है, पर उस विषय में कथा होनी चाहिए. जिसमें कथा न हो, वो लघुकथा कैसी?
लघुकथा एक स्वाभाविक आकर की रेखांकित की गई विधा है,. एक दृष्टिकोण है जिसका अंकुर मानव मन से अंकुरित हो कर भाषा का आधार पाकर अपने आपको प्रत्यक्ष कर पाता है. जीवन का प्रत्यक्षीकरण है लघुकथा , जहाँ हर घटना घट जाने के बाद भी अपने स्वरूप में साकार रहती है, साँस लेती है. हाँ इस बात से नकारा नहीं जा सकता की रचनाकार में अगर संवेदना नहीं है तो उसकी रचना में जान नहीं आ सकती. सहजता उसकी नीव है. कथ हृदय-स्पर्षी होने के साथ-साथ हक़ीक़तों से ताल-मेल खाती हुई रोज़मर्रा जीवन की शैली में व्यक्त की हुई हो तो ज़्यादा मन को छू पाती है. कभी कभी कल्पना से खींचा हुआ चित्र भी यतार्थ सा लगता है. एक मुकाम बनाने की चेष्टा में अपना स्रजन आप करती है लघुकथा. जैसे कोई मधुबन का माली फूलों की क्यारियों को जल से सींचता है, खाद्ध डालता है और आस-पास के सूखे पत्तों को उनसे अलग करके उनकी ताज़गी को बरकरार रखने के कोशिश करता है, ठीक उसी तरह एक रचनाकार लघुकथा लिखते वक़्त लक्ष्य को मधे-नज़र रखते हुए अपनी रचना को सोच से सींच कर शब्दों के शिल्प से तराश कर एक आकृति तैयार करता है जो अपने आप को खुद कम शब्दों में व्यक्त करती है. कम शब्दों में बहुत कुछ कहने की कला है लघुकथा, जिसका स्रजन लघुकथाकार का मन कर सकता है, जिसके मन में संवेदना है, जो अहसासों को अभिव्यक्त करने की कला से परिचित है.
यह तो आधुनिक विधा है, संक्षिप्त होते हुए भी परिपूर्णता से लदी हुई, पौराणिक साहित्य सम्रद्धि प्रदान करती हुई, जिसका संबंध रचना की आँतरिक प्रक्रुति, अंत वस्तु, रूप, बिंब, और रचनाकार की मानसिकता आदि से रूबरू कराती है. एक साहित्सिक आवश्यकता इस युग की, जिसकी शैली और लघुता जीवन की विभिन्नता को एकता का स्वरूप प्रदान करती है. इसके अनेक संकेतो में इसकी परिभाषा छुपी हुई होती है. किसी ने खूब कहा है-"लघुकथा जिंदगी का एक चित्र है, आम नागरिक के जीवन का प्रतीक है" आज कथा मनोरंजन के लिये नहीं आपितु यथार्थ - दर्शन के लिये लिखी जाती है. यही कारण है कि लघुकथा आज मानव-जीवन के किसी क्षण-विशेष का ही नहीं, उसके किसी पक्ष-विशेष का भी चित्रण करने में पूर्ण सक्षम है।
'लघुकथा' में संवादों की स्थिति क्या हो? उन्हें होना चाहिए या नहीं? होना चाहिए तो किस अनुशासन के साथ और नहीं तो क्यों? ये सवाल वैसे ही अनर्गल हैं जैसे कि इसके आकार या इसकी शब्द-संख्या के निर्धारण को लेकर अक्सर सामने आते रहते हैं। वस्तुत: लघुकथा 'लिखी' या 'कही जाती' प्रतीत न होकर 'घटित होती' प्रतीत होनी चाहिए। लघुकथा की रचना-प्रक्रिया का यह प्रमुख सूत्र है।
लघुकथा वही साकार होती है जो मानसिक पक्षों को उजगार करे. मानव मन से जुड़े भाव-दर्द, करुणा, या विरोधाभास को उजगार करे और जीवन की जटिलताओं को आप-बीती से जग- बीती के स्तर पर प्रस्तुत करने की कला का प्रयोग करे, तब कहीं जाकर लघुकथा जीवन से जुडेय हुए अनुभव रेखांकित कर पाती है, फिर मार्मिकता के कारण जीवन के निकट आती है और स्वीकारी जाती है. लघुकथा अपने समय की सच्चाइयों का जीवंत दस्तावेज़ होने के साथ ही अपनी स्वतंत्र शैली भी विकसित करती है. हक़ीक़त में आज के इस मशीनी दौर में जहाँ आम आदमी कुछ पल सुकून के ट्रेन में खड़ा होकर, कभी बस की लाइन में खड़े-खड़े अपने आपको लघुक्था के इस मध्यम से साहित्य से जोड़ पाता है, तो कहीं न कहीं इस विधा की सफलता का आभास होता है. संक्षिप्त यात्रा के बीच लघुकथा पूरे विश्व में पढ़ी जाने वाली पसंदीदा साहित्य है, जिसकी भाषा, सरल शैली से गंभीर चिंतन देती है, हर बंधन से मुक्त, पर फिर भी दाइरे में रहकर शब्द की कसावट और बुनावट द्वारा लघुकथा अपना महत्वपूर्ण कला पक्ष दर्शाती है.
यहाँ मैं डा॰ राजेंद्र सोनी और श्री जयप्रकाश मानस द्वारा संपादित "लघुकथा का गढ़ छत्तीसगढ़" को मधे नज़र रखते हुए यही कहूँगी कि इस सत्य के स्तंभ में इनका योगदान महत्वपूर्ण है. कुछ पंक्तिया अपनी जोड़ते हुए:
उसकी शैली, उसकी लघुता, उसकी परिभाषा बनी
अब स्वाभाविक प्रकट है आकर बनकर लघुकथा.
है लघु सी ये कथा, विस्तार जिसका है बड़ा
अंकुरित भाषा सी उपजै, आधार बनकर लघुकथा.
जयहिंद
- देवी नागरानी