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शनिवार, 9 फ़रवरी 2019

लघुकथा कलश (तृतीय महाविशेषांक) की समीक्षा श्री सतीश राठी द्वारा

श्री योगराज प्रभाकर के संपादन में 'लघुकथा कलश' का तीसरा महाविशेषांक प्रकाशित हो चुका है और तकरीबन सभी लघुकथा पाठकों को प्राप्त भी हो चुका है। मुझे भी पिछले दिनों यह विशेषांक प्राप्त हो गया और इसे पूरा पढ़ने के बाद मुझे यह जरूरी लगा कि इस विशेषांक पर चर्चा जरूरी है।

इस विशेषांक के पहले भाग में डॉ अशोक भाटिया, प्रोफेसर बीएल आच्छा और रवि प्रभाकर ने श्री महेंद्र कुमार, श्री मुकेश शर्मा एवं डॉ कमल चोपड़ा की लघुकथाओं के बहाने समकालीन लघुकथा लेखन पर बातचीत की है। यह इसलिए महत्वपूर्ण कहा जा सकता है कि इसमें एक नया लघुकथाकार दो वरिष्ठ लघुकथाकारों के साथ अपनी लघुकथाओं को लेकर प्रस्तुत हुआ है और यह लघुकथाएं विधा की नई संभावनाओं की और दिशा देने वाली लघुकथाएं हैं जिसके बारे में डॉ अशोक भाटिया ने भी इंगित किया है। लघुकथाओं को देखने के बाद लघुकथाओं को लेकर कोई चिंता नहीं रखना चाहिए। बहुत सारी अच्छी लघुकथाएं विशेषांक में समाहित है। नौ आलेख इसे समृद्ध करते हैं। कल्पना भट्ट का पिता पात्रों को लेकर लिखा गया आलेख, डॉ ध्रुव कुमार का लघुकथा के शीर्षक पर आलेख, लघुकथा की परंपरा और आधुनिकता पर डॉक्टर पुरुषोत्तम दुबे ,लघुकथा के द्वितीय काल परिदृश्य पर डॉ रामकुमार घोटड, लघुकथा के भाषिक प्रयोगों पर श्री रामेश्वर कांबोज, खलील जिब्रान की लघुकथाओं पर डॉक्टर वीरेंद्र कुमार भारद्वाज, लघुकथा के अतीत पर डॉक्टर सतीशराज पुष्करणा और राजेंद्र यादव की लघुकथा पर सुकेश साहनी, इनके साथ में तीन साक्षात्कार जो मुझसे,  डॉ कमल चोपड़ा एवं डॉ श्याम सुंदर दीप्ति से लिए गए हैं, कुछ पुस्तकों की समीक्षा, कुछ गतिविधियों की जानकारी, दिवंगत लघुकथाकारों को श्रद्धांजलि, कुछ गतिविधियों का जिक्र और 177 हिंदी लघुकथाओं के साथ नेपाली, पंजाबी, सिंधी भाषा के विभिन्न लघुकथाकारों की लघुकथाएं इतना सब एकत्र कर प्रस्तुत करने के पीछे भाई योगराज प्रभाकर की कड़ी मेहनत हमारे सामने आती है। ऐसे काम जुनून से ही पूरे होते हैं और वह जुनून इस विशेषांक में दृष्टिगत होता है। पाठक यदि इस विधा को लेकर कोई प्रश्न खड़े करते हैं तो उसका जवाब भी उन्हें इस तरह के विशेषांक में प्राप्त हो जाता है। मैं श्री योगराज प्रभाकर जी की पूरी टीम को विशिष्ट उपलब्धि के लिए बहुत-बहुत बधाई देता हूं। पिछले दोनों अंको से और आगे जाकर यह तीसरा अंक सामने आया है और यह आश्वस्ति देता है कि चौथा अंक और अधिक समृद्ध साहित्य के साथ में हम सबके सामने प्रस्तुत होगा। पुनः बधाई।

- सतीश राठी

लघुकथा वीडियो: बिखरने से पहले - शोभना श्याम

"बिखरने से पहले कुछ दिन और एक-दूसरे की पंखुड़ियों को संभाल लिया जाये।" - इस वीडियो से 

बिखरने से पहले फूल एक-दूसरे की पंखुड़ियाँ संभाल नहीं सकते, लेकिन ईश्वर ने हम इन्सानों को तो उन अहसासों से समृद्ध किया है जहां हम दूसरों को अपने साथ से ही बिखरने से रोक सकते हैं। उम्र की लंबाई नापती हुई जिंदगी के हाथों से स्केल छीन कर पेंसिल ही पकड़ा दी जाये तो कितनी ही बार दिल को टटोलता हुआ स्टेस्थेस्कोप गले के लय से लय मिलाकर गाना भी शुरू कर सकता है

कुछ ऐसे ही भावों के साथ रची यह लघु फिल्म शोभना श्याम जी की लघुकथा "बिखरने से पहले" पर आधारित है। इसे एक बार ज़रूर देखिये और समझिए भी। इस रचना का विस्तार केवल बुजुर्गों तक या उनके अकेलेपन तक ही नहीं बल्कि हम मे से अधिकतर के अंदर कहीं न कहीं छिपे खालीपन तक भी है।

- चंद्रेश कुमार छतलानी




शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019

लघुकथा वीडियो - लघुकथा इज्ज़त - लघुकथाकारा सविता मिश्रा

सविता मिश्रा जी द्वारा सृजित एक तीक्ष्ण कटाक्ष करती लघुकथा - इज्ज़त


लघुकथा वीडियो - जाति - हरीशंकर परसाई

जाति न पूछो व्यभिचार की

यह तो हम में से अधिकतर ने पढ़ा-सुना होगा ही कि, जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।  अर्थात सज्जन व्यक्ति की जाति की बजाय उसके ज्ञान को महत्व देना चाहिए। जैसे मूल्यवान तलवार होती है ना कि म्यान। हालांकि समय बदला, आज की नई पीढ़ी भी जाति के बजाय मानवता को महत्व दे रही है लेकिन फिर भी जाति तो जाति ही है। जाति के नाम पर वोट, जाति पर आरक्षण, जाति के अनुसार संबंध, मित्रता (कटुता भी) आदि को कम करने का प्रयास नहीं किया जा रहा, उल्टे कई जगहों पर बढ़ावा दिया जा रहा है। खैर, परसाई जी ने अपनी लघुकथा जाति में जो कटाक्ष किया है उसमें उन्होने ऐसी मानसिकता को उजागर किया है जो "जाति न पूछो साधु की" के बजाय "जाति न पूछो व्यभिचार की" को भी महत्व देने को तैयार हैं। वेलेंटाइन वीक में आइये सुनते हैं शिखा त्रिपाठी जी के स्वर में लघुकथा जाति


गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

लघुकथा वीडियो: तेजवीर सिंह 'तेज' जी की लघुकथा "जन्मदिन का केक"

Vibhor विभोर चैनल पर "बोलती लघुकथाएँ" में तेजवीर सिंह 'तेज' जी की लघुकथा "जन्मदिन का केक"

तेजवीर सिंह 'तेज' जी की पहली लघुकथा 13 जुलाई 2015 को ओपन बुक्स ऑनलाइन (OBO) पर प्रकाशित हुई थी। प्रस्तुत लघुकथा "जन्मदिन का केक" में एक बूढ़े पिता की व्यथा को प्रदर्शित किया गया है। बेटा उसे अपनी कोठी में बने आउट हाउस में रखता है, एक शाम कर्नल बेटे के घर में पार्टी चल रही होती है तो बूढ़े पिता को खाना देना ही भूल जाते हैं । अगले दिन अर्दली से पता चलता है की रात को जन्मदिन की पार्टी थी तो स्मृति में उसे अपना जन्मदिन याद आता है, ख़ुशी होती है, लेकिन जैसे ही बूढ़े पिता को पता चलता है कि जन्मदिन की पार्टी तो बेटा अपने कुत्ते की मना रहा था तो उसको मीठा केक भी कड़वा लगने लगता है|


लघुकथा वीडियो: मधुदीप गुप्ता जी की लघुकथा "हिस्से का दूध" और अनिल शूर आज़ाद जी की लघुकथा "डंडा"

Vibhor विभोर यूट्यूब चैनल पर आदरणीय मधुदीप गुप्ता जी के "हिस्से का दूध" और आदरणीय अनिल शूर आज़ाद जी का "डंडा"

मधुदीप गुप्ता जी ने अपनी लघुकथा "हिस्से का दूध" के माध्यम से सामाजिक परिवेश में परिवार के महत्त्व यानि कि एक दूसरे के ख्याल रखने के साथ साथ आने वाले मेहमान की खातिरदारी का भी ख्याल रखने की भारतीय परम्परा को उकेरा है। अनिल शूर आज़ाद जी ने अपनी लघुकथा में "डंडा" शराबी पिता से डरने के बावजूद अभावों को झेलता हुआ बालक पढाई कर रहा है।



बुधवार, 6 फ़रवरी 2019

लघुकथा संग्रह - तैरती है पत्तियाँ - डॉ॰ बलराम अग्रवाल


लघुकथा साहित्य फेसबुक समूह में डॉ॰ बलराम अग्रवाल की पोस्ट से:

तैरती हैं पत्तियां: त्वरित पाठकीय टिप्पणी
वरिष्ठ साहित्यकार ओमप्रकाश कश्यप की कलम से

बलराम अग्रवाल के ‘तैरती हैं पत्तियां’ शीर्षक से आए लघुकथा संग्रह का पीला मुखपृष्ठ देखकर लगा कि कवर बनाने में चूक हुई है. पत्तियों का जिक्र है तो कवर को हरियाला होना चाहिए था. लेकिन पहली कहानी पढ़ते ही संशय दूर हो गया. जिन पत्तियों को मनस् में रखकर शीर्षक का गठन किया गया है, वे हरी न होकर अपना जीवन पूरा कर पीली हो, पेड़ से स्वतः छिटक गई पत्तियां हैं. छोटी-सी भूमिका में लेखक ने स्वयं कवित्वमय भाषा में इसका उल्लेख किया है. लेकिन भूमिका से गुजरकर पाठक जैसे ही पहली लघुकथा तक पहुंचता तो उसका रहा-सहा संशय भी गायब हो जाता है. संग्रह की पहली ही लघुकथा ‘समंदर: एक प्रेमकथा’ अद्भुत है. इस लघुकथा में भरपूर जीवन जी चुकी एक दादी है. साथ में है उसकी पोती. दोनों के बीच संवाद है. भरपूर जीवन अनेक लोगों के लिए पहेलीनुमा हो सकता है, लेकिन इस लघुकथा को पढ़ेंगे तो इस पहेली का अर्थ भी समझ में आएगा और पीली हो चुकी पत्तियों के प्लावन का रहस्य भी. यह वह अवस्था है जब आदमी उम्रदराज होकर भी बूढ़ा नहीं होता, पत्तियां पीली होने, डाल से छूट जाने के बाद भी मिट्टी में नहीं मिलतीं, उनमें उल्लास बना रहता है. इस कारण वे जलप्रवाह में प्लावन करती नजर आती हैं. प्लेटो ने इसे जीवन की दार्शनिक अवस्था कहा है. अध्यात्मवादी इसके दूसरे अर्थ भी निकाल सकते हैं, लेकिन मैं बस इतना कहूंगा ‘समंदर: एक प्रेमकथा’ अनुभवसिद्ध कथा है.

अभी संग्रह को पूरा नहीं पढ़ा है. शुरुआत से मात्र पंद्रह-सोलह लघुकथाएं ही पढ़ी हैं. इतनी कहानियों में ‘अपने-अपने आग्रह’, ‘अजंता में एक दिन’, ‘उजालों का मालिक’, ‘इमरान’, ‘अपने-अपने मुहाने’, ‘अपूर्णता का त्रास’ अविस्मरणीय लघुकथाएं हैं. इतनी प्रभावी कि इनका असर कम न हो, इसलिए बाकी को छोड़ देना पड़ा. ‘अपने-अपने मुहाने’, ‘अपूर्णता का त्रास’, ‘उजालों का मालिक’ में कहानीपन के साथ-साथ प्रतीकात्मक भी है, वही इन्हें बेजोड़ बनाती है. प्रतीकात्मकता के बल पर ही किसी एक पात्र का सच पूरे समाज का सच नजर आने लगा है. प्रतीकात्मकता की जरूरत व्यंग्य में भी पड़ती है. मगर इन दिनों वह प्रतीकात्मकता से कटा है. इसलिए वह अवसान की ओर अग्रसर भी है.

Image may contain: Balram Agarwal, outdoor
बलराम अग्रवाल वरिष्ठ लघुकथाकार हैं. लघुकथा को समर्पित. यूं तो बच्चों के नाटक और बड़ों के लिए कहानियां भी लिखी हैं, लेकिन इन दिनों वे लघुकथा-एक्टीविस्ट की तरह काम कर रहे हैं. अपनी विधा के प्रति ऐसा समर्पण विरलों में ही देखा जाता है....जैसा कि ऊपर बताया गया है, पुस्तक की अभी कुछ ही लघुकथाएं पढ़ी हैं, जैसे-जैसे पुस्तक आगे पढ़ी जाएगी, यह टिप्पणी भी विस्तार लेती जाएगी.