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रविवार, 10 फ़रवरी 2019

लघुकथा संग्रह "सहोदरी लघुकथा 2" की समीक्षा अंकु श्री जी द्वारा

मोटे-मोटे उपन्यास और लंबी-लंबी कहानियां पढ़ने के लिये समय निकाल पाना सबके लिये संभव नहीं है। बेषक इसमें समय अधिक लगता है। कुछ ऐसे ही दौर से गुजरते हुए पाठकों के लिये लघुकथा विधा का विकास और विस्तार हुआ। वस्तुतः लघुकथा-लेखन कोई सोची-समझी व्यवस्था नहीं, एक स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया थी। वैसे तो यह बहुत पुरानी विधा है, मगर उन्नीस सौ अस्सी के दषक में लघुकथा-लेखन में बहुत तेजी आयी। इस विधा की दर्जनों स्वतंत्र पत्रिकाओं का प्रकाषन शुरू हुआ. लघुकथा के सैकड़ों संकलन छप चुके हैं। यही नहीं, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी लघुकथा को स्थान मिलने लगा और आज भी मिल रहा है। वर्ष 2018 में एक बहुंत ही उम्दा लघुंकथा संकलन हाथ में आया है, जिसका नाम है ‘सहोदरी लघुकथा-2’।
‘भाषा सहोदरी-हिंदी’ द्वारा प्रकाषित इस पुस्तक में उन्हत्तर लघुकथाकारों की करीब तीन सौ लघुकथाएं संकलित हैं, जो विभिन्न विषयों को समेटे हुए हैं। प्रायः ऐसा देखने में आता है कि लघुकथा संकलनों में कई-कई आलेख छपे होते हैं। मगर प्रस्तुत संकलन में सिर्फ लघुकथाएं छपी हैं, जो इसकी विषिष्टता लगी, क्योंकि आलेखों से संकलन भर जाने के कारण अच्छे लघुकथाकारों को भी समेटना कठिन हो जाता है। 304 पृष्ठों के इस संकलन का गेटअप बहुत आकर्षक और बाइन्डिंग काफी मजबूत है।
उन्हत्तर लघुकथाकारों की करीब तीन सौ लघुंकथाओं को एक साथ पढ़ना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। इसमें लघुकथाकारों ने अनेक विषयों पर अपनी कलम चलायी है। लघुकथा की विषेषता है कम शब्दों में किसी बात को रोचकपूर्वक कह देना। यह सभी जानते हैं कि अपने ही हाथ की पांचों अंगुलियां बराबर नहीं होतीं। संकलन की तीन सौ लघुकथाओं में भिन्नता तो रहेंगी ही। इनमें से कुछ लघुकथाएं जुबान पर चढ़ कर बोलती-सी लगती हैं।
‘भाषा सहोदरी-हिंदी’ का छठा अंतर्राष्ट्रीय महाधिवेषन के यादगार अवसर पर 24 और 25 अक्तूबर, 2018 को ‘हंसराज काॅलेज’, दिल्ली में पधारे सैकड़ों साहित्यकार और साहित्य-प्रेमी इस संकलन के लोकार्पण समारोह के साक्षी बने।
प्रस्तुत संकलन की अनेक लघुकथाएं बहुत अच्छी हैं, जबकि कुछ बेशक नव-लेखन के प्रमाण हैं। इस संकलन को पढ़ने से एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात स्पष्ट होती है कि पुराने लेखकों की भी सभी रचनाएं अच्छी नहीं होतीं। एक-दो लघुकथाएं ऐसी भी हैं, जिनके लेखक को विष्वास नहीं है कि पाठक उसे समझ पायेंगे और इसलिये उन्होंने लघुकथा के अंत में ‘नोट’ लिख दिया है। एक लेखिका द्वारा अपनी लघुकथाओं के अंत में ‘सीख’ दी गयी है, जैसे वह पुरानी बालकथा लिख रही हों। कुछ लेखकों द्वारा अपनी लघुकथा के शीर्षक इन्भर्टेड काॅमा में दिये गये हैं और कुछ ने शीर्षक के बाद - - (डैश-डैश) लगा दिया है। एक लेखक ने अपनी हर लघुकथा के अंत में - - (डैश-डैश) लगा दिया है, जिससे लगता है कि लेखक और कुछ कहना चाहता है और कह नहीं पाया है, जिसे पाठक स्वयं संमझ ले। आमूद-पठन में थोड़ी कमी झलकती है। ऐसा लगता है कि इन बातों की ओर संपादकीय दृष्टि नहीं पड़ पायी है। बेषक संकलन की लघुकथाएं हर साहित्यकार का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। संकलन की कुछ अच्छी लघुकथाओं और उसके लेखक का वर्णन आवष्यक लगता है, जो निम्नवत है,
‘अपना-अपना हिन्दुस्तान’ और ‘गांव की धूल’ (अंकुश्री), ‘आहट’ (अनु पाण्डेय), शेरनी (अपर्णा गुप्ता), ‘स्त्रीत्व’ और ‘बदलते दृष्टिकोण’ (डा0 उपमा शर्मा), ‘श्रेय’ (ऋचा वर्मा), ‘खामोषी बोलती है’ (कामिनी गोलवलकर), ‘आग’ (गुंजन खण्डेलवाल), ‘बरसात’ और ‘षिकायत का स्पर्ष’ (पंकज जोषी), ‘छोटू’ (पम्पी सडाना), ‘फैसला’ (पूनम आनंद), ‘जुर्माना’ (मनमोहन भाटिया), ‘जिन्दगी’ और ‘एक संघर्ष नया’ (मनीषा जोबन देसाई), ‘निर्णय’, ‘इंसानियत’ और ‘पावन बंधन’ (मणिबेन द्विवेदी), ‘चिट्ठी-पत्तरी’, ‘पत्थर पर दूब’ और ‘होड़’ (मिनी मिश्रा), ‘टंगटुट्टा’ और ‘हेल्मेट’ (मृणाल आषुतोष), ‘अहसास’, ‘पहचान’, ‘बहराना साहिब‘, ‘आवष्यकता’ और ‘मोतियाबिन्द’ (लीला कृपलानी), ‘श्रवण कुमार’ (डा0 लीला मोरे), ‘भरोसा’ (वन्दना पुणतांबेकर), ‘दोहरा मापदंड’ (संजय कुमार ‘संज’), ‘आश्रम’ और ‘बस’ (सौरभ वाचस्पति ‘रेणु’), ‘बदलती नजरें’, ‘अच्छा हुआ’ और ‘स्पष्टीकरण’ (संतोष सुपेकर), ‘रिमोट वाली गुड़िया’, ‘डिलीट एकाउन्ट्स’ और ‘अनोखी चमक’ (सुरेष बाबू मिश्रा), ‘जख्म’ (सतीेष खनगवाल), ‘निपुणता’, ‘योग्यता’, ‘तीर्थाटन’ और ‘अस्थि के फूल’ (संजय पठाडे ‘षेष’), ‘वृद्धा आश्रम’ और ‘विदुषी’ (सुधा मोदी), ‘भलाई का जमाना’, ‘चोरी’ और ‘एहसास’ (सदानंद कविष्वर), ‘परीक्षा की चिंता’ और ‘हिम्मत’ (सीमा भाटिया), ‘पापा’ और ‘उत्साहवर्द्धन’ (संजीव आहूजा), ‘मुस्कान’ और ‘अनदेखा’ (सागरिका राय), ‘जाल’ और ‘नुस्खा’ (सविता इन्द्र गुप्ता)। यह एक संक्षिप्त सूची है, जिसे अंतिम नहीं माना जा सकता।
लेखक को आसपास की घटनाओं, अध्ययन और विचारों से बहुत सारे कथ्य मिल जाते हैं। उसके आधार पर कथानक का ताना-बाना बुन कर लेखक द्वारा कथा या लघुकथा लिखी जाती है। कथानक और षिल्प के अनुसार कथा अच्छी या साधारण बन जाती है। कुछ रचनाएं साधारण से भी निम्न बन कर रह जाती हैं। इस संकलन में भी कुछ लघुकथाओं के कथ्य अच्छा होते हुए भी कमजोर कथानक और षिल्प के कारण वे अच्छे ढ़ंग से पल्लवित-पुष्पित नहीं हो पायी हैं। शब्दों की मितव्ययिता लघुकथा की महत्वपूर्ण शर्त है। संकलन से गुजरते हुए कहीं-कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि मन में आने वाले हर शब्द को कागज पर उतारने के लिये कलम को स्वतंत्र छोड़ देने से लघुकथा खराब हो जाती है।
कुछ लघुकथाओं में भूमिका देकर उसे समझाने का प्रयास किया गया है। कुछ लघुकथाओं के अंत में उपसंहार के तौर पर लेखक द्वारा अपना मत अंकित कर दिया गया है, जो उपदेषात्मक लग रहा है। कहीं-कहीं चलती हुई लघुकथा के बीच में अचानक लेखक ‘‘मैं’’ के रूप में प्रकट हो गया है। कुछ लघुकथाएं घटना प्रधान होती हैं, जिनमें कथात्मकता के अभाव के कारण वे साहित्य नहीं रह कर समाचार लगने लगती हैं। लघुकथाओं के ऐसे उदाहरण भी इस संकलन में हैं। इस संकलन की मुख्य विषेषता इसकी विविधता है।
कथाकार जब सीधी नज़र से देखता है तो उसे गहरी और विस्तृत बातें दिखाई देती हैं, जिससे कहानी का सृजन होता है। मगर उसी बात को तिरछी नज़र से देखने पर उसमें गहराई तो रहती है लेकिन विस्तार का अभाव हो जाता है, जिससे लघुकथा का सृजन होता है। किसी कृति के वास्तविक समीक्षक पाठक होते हैं। इसलिये संकलन मंगा कर पढ़ने पर ही इसमें प्रकाषित तीन सौ लघुकथाओं का एक साथ मजा मिल पायेगा और आज लिखी जा रही लघुकथाओं की भी सही जानकारी मिल सकेगी।
- अंकु श्री

प्रेस काॅलोनी, सिदरौल
नामकुम,रांची-834010
मो0 8809972549

शनिवार, 9 फ़रवरी 2019

लघुकथा कलश (तृतीय महाविशेषांक) की समीक्षा श्री सतीश राठी द्वारा

श्री योगराज प्रभाकर के संपादन में 'लघुकथा कलश' का तीसरा महाविशेषांक प्रकाशित हो चुका है और तकरीबन सभी लघुकथा पाठकों को प्राप्त भी हो चुका है। मुझे भी पिछले दिनों यह विशेषांक प्राप्त हो गया और इसे पूरा पढ़ने के बाद मुझे यह जरूरी लगा कि इस विशेषांक पर चर्चा जरूरी है।

इस विशेषांक के पहले भाग में डॉ अशोक भाटिया, प्रोफेसर बीएल आच्छा और रवि प्रभाकर ने श्री महेंद्र कुमार, श्री मुकेश शर्मा एवं डॉ कमल चोपड़ा की लघुकथाओं के बहाने समकालीन लघुकथा लेखन पर बातचीत की है। यह इसलिए महत्वपूर्ण कहा जा सकता है कि इसमें एक नया लघुकथाकार दो वरिष्ठ लघुकथाकारों के साथ अपनी लघुकथाओं को लेकर प्रस्तुत हुआ है और यह लघुकथाएं विधा की नई संभावनाओं की और दिशा देने वाली लघुकथाएं हैं जिसके बारे में डॉ अशोक भाटिया ने भी इंगित किया है। लघुकथाओं को देखने के बाद लघुकथाओं को लेकर कोई चिंता नहीं रखना चाहिए। बहुत सारी अच्छी लघुकथाएं विशेषांक में समाहित है। नौ आलेख इसे समृद्ध करते हैं। कल्पना भट्ट का पिता पात्रों को लेकर लिखा गया आलेख, डॉ ध्रुव कुमार का लघुकथा के शीर्षक पर आलेख, लघुकथा की परंपरा और आधुनिकता पर डॉक्टर पुरुषोत्तम दुबे ,लघुकथा के द्वितीय काल परिदृश्य पर डॉ रामकुमार घोटड, लघुकथा के भाषिक प्रयोगों पर श्री रामेश्वर कांबोज, खलील जिब्रान की लघुकथाओं पर डॉक्टर वीरेंद्र कुमार भारद्वाज, लघुकथा के अतीत पर डॉक्टर सतीशराज पुष्करणा और राजेंद्र यादव की लघुकथा पर सुकेश साहनी, इनके साथ में तीन साक्षात्कार जो मुझसे,  डॉ कमल चोपड़ा एवं डॉ श्याम सुंदर दीप्ति से लिए गए हैं, कुछ पुस्तकों की समीक्षा, कुछ गतिविधियों की जानकारी, दिवंगत लघुकथाकारों को श्रद्धांजलि, कुछ गतिविधियों का जिक्र और 177 हिंदी लघुकथाओं के साथ नेपाली, पंजाबी, सिंधी भाषा के विभिन्न लघुकथाकारों की लघुकथाएं इतना सब एकत्र कर प्रस्तुत करने के पीछे भाई योगराज प्रभाकर की कड़ी मेहनत हमारे सामने आती है। ऐसे काम जुनून से ही पूरे होते हैं और वह जुनून इस विशेषांक में दृष्टिगत होता है। पाठक यदि इस विधा को लेकर कोई प्रश्न खड़े करते हैं तो उसका जवाब भी उन्हें इस तरह के विशेषांक में प्राप्त हो जाता है। मैं श्री योगराज प्रभाकर जी की पूरी टीम को विशिष्ट उपलब्धि के लिए बहुत-बहुत बधाई देता हूं। पिछले दोनों अंको से और आगे जाकर यह तीसरा अंक सामने आया है और यह आश्वस्ति देता है कि चौथा अंक और अधिक समृद्ध साहित्य के साथ में हम सबके सामने प्रस्तुत होगा। पुनः बधाई।

- सतीश राठी

लघुकथा वीडियो: बिखरने से पहले - शोभना श्याम

"बिखरने से पहले कुछ दिन और एक-दूसरे की पंखुड़ियों को संभाल लिया जाये।" - इस वीडियो से 

बिखरने से पहले फूल एक-दूसरे की पंखुड़ियाँ संभाल नहीं सकते, लेकिन ईश्वर ने हम इन्सानों को तो उन अहसासों से समृद्ध किया है जहां हम दूसरों को अपने साथ से ही बिखरने से रोक सकते हैं। उम्र की लंबाई नापती हुई जिंदगी के हाथों से स्केल छीन कर पेंसिल ही पकड़ा दी जाये तो कितनी ही बार दिल को टटोलता हुआ स्टेस्थेस्कोप गले के लय से लय मिलाकर गाना भी शुरू कर सकता है

कुछ ऐसे ही भावों के साथ रची यह लघु फिल्म शोभना श्याम जी की लघुकथा "बिखरने से पहले" पर आधारित है। इसे एक बार ज़रूर देखिये और समझिए भी। इस रचना का विस्तार केवल बुजुर्गों तक या उनके अकेलेपन तक ही नहीं बल्कि हम मे से अधिकतर के अंदर कहीं न कहीं छिपे खालीपन तक भी है।

- चंद्रेश कुमार छतलानी




शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019

लघुकथा वीडियो - लघुकथा इज्ज़त - लघुकथाकारा सविता मिश्रा

सविता मिश्रा जी द्वारा सृजित एक तीक्ष्ण कटाक्ष करती लघुकथा - इज्ज़त


लघुकथा वीडियो - जाति - हरीशंकर परसाई

जाति न पूछो व्यभिचार की

यह तो हम में से अधिकतर ने पढ़ा-सुना होगा ही कि, जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।  अर्थात सज्जन व्यक्ति की जाति की बजाय उसके ज्ञान को महत्व देना चाहिए। जैसे मूल्यवान तलवार होती है ना कि म्यान। हालांकि समय बदला, आज की नई पीढ़ी भी जाति के बजाय मानवता को महत्व दे रही है लेकिन फिर भी जाति तो जाति ही है। जाति के नाम पर वोट, जाति पर आरक्षण, जाति के अनुसार संबंध, मित्रता (कटुता भी) आदि को कम करने का प्रयास नहीं किया जा रहा, उल्टे कई जगहों पर बढ़ावा दिया जा रहा है। खैर, परसाई जी ने अपनी लघुकथा जाति में जो कटाक्ष किया है उसमें उन्होने ऐसी मानसिकता को उजागर किया है जो "जाति न पूछो साधु की" के बजाय "जाति न पूछो व्यभिचार की" को भी महत्व देने को तैयार हैं। वेलेंटाइन वीक में आइये सुनते हैं शिखा त्रिपाठी जी के स्वर में लघुकथा जाति


गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

लघुकथा वीडियो: तेजवीर सिंह 'तेज' जी की लघुकथा "जन्मदिन का केक"

Vibhor विभोर चैनल पर "बोलती लघुकथाएँ" में तेजवीर सिंह 'तेज' जी की लघुकथा "जन्मदिन का केक"

तेजवीर सिंह 'तेज' जी की पहली लघुकथा 13 जुलाई 2015 को ओपन बुक्स ऑनलाइन (OBO) पर प्रकाशित हुई थी। प्रस्तुत लघुकथा "जन्मदिन का केक" में एक बूढ़े पिता की व्यथा को प्रदर्शित किया गया है। बेटा उसे अपनी कोठी में बने आउट हाउस में रखता है, एक शाम कर्नल बेटे के घर में पार्टी चल रही होती है तो बूढ़े पिता को खाना देना ही भूल जाते हैं । अगले दिन अर्दली से पता चलता है की रात को जन्मदिन की पार्टी थी तो स्मृति में उसे अपना जन्मदिन याद आता है, ख़ुशी होती है, लेकिन जैसे ही बूढ़े पिता को पता चलता है कि जन्मदिन की पार्टी तो बेटा अपने कुत्ते की मना रहा था तो उसको मीठा केक भी कड़वा लगने लगता है|


लघुकथा वीडियो: मधुदीप गुप्ता जी की लघुकथा "हिस्से का दूध" और अनिल शूर आज़ाद जी की लघुकथा "डंडा"

Vibhor विभोर यूट्यूब चैनल पर आदरणीय मधुदीप गुप्ता जी के "हिस्से का दूध" और आदरणीय अनिल शूर आज़ाद जी का "डंडा"

मधुदीप गुप्ता जी ने अपनी लघुकथा "हिस्से का दूध" के माध्यम से सामाजिक परिवेश में परिवार के महत्त्व यानि कि एक दूसरे के ख्याल रखने के साथ साथ आने वाले मेहमान की खातिरदारी का भी ख्याल रखने की भारतीय परम्परा को उकेरा है। अनिल शूर आज़ाद जी ने अपनी लघुकथा में "डंडा" शराबी पिता से डरने के बावजूद अभावों को झेलता हुआ बालक पढाई कर रहा है।