यह ब्लॉग खोजें

शनिवार, 26 अक्तूबर 2024

जिनकी लघुकथाएं दिल में उतरती हैं । योगेश योगी किसान (योगेश राजमणि लोधी) । पुस्तक समीक्षा


 


    सफर की दूरियों को कम करती इस बार हाथ लगी पुस्तक "घरों को ढोते लोग" जिसमें किसानों, मजदूरों, कामगारों, कामवाली बाई आदि पर केंद्रित 71 लघुकथाएं संग्रहित हैं।इन्हें पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है मानो लेखकों ने बहुत नजदीक से इनकी समस्याओं को देखा हो।आजकल के इस दौर में भला इन पर कौन लिखना चाहता है। मैं इस लघुकथा संग्रह के सभी लेखकों को साधुवाद देता हूं, जिनकी लघुकथाएं दिल में उतरती हैं और एक चुभन छोड़ देती हैं।

     रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु' की काकभगोड़ा जिसमें किसान अपनी फसलों को बचाने के लिए नेता जी का पुतला ले आता है। रतन चंद्र रत्नेश की "बराबरी" जिसमें एक किसान जो अक्सर उच्च अधिकारी की पत्नी को सब्जी बेचता है और जब उसका लड़का टॉप करता है तो वह किसान मिठाई का डिब्बा लेकर मैडम के पास जाता है और उनके पूछे जाने पर कि लड़के को क्या बनाओगे जब बड़ा होगा तो उसका जवाब यह कि आप लोगों जैसा बड़ा अधिकारी। किसान के जाने के बाद मैडम द्वारा मिठाई का डिब्बा कूड़ेदान में फेंकना कहीं न कहीं उस सामंती सोच को दर्शाता है जो सोचती है कि उसके आगे कोई बड़ा न बन जाए ताकि उसके बने ताने-बाने में सब उलझे रहें।

      राजेंद्र वर्मा की लघुकथा में 'मजबूरी का फैसला' जिसमें किसान सिंचाई के पानी में भ्रष्टाचार के कारण सोचता है कि इतनी कम जमीन से कुछ होता नहीं लागत ज्यादा लगती है, 20- 25 लाख मिल जाएंगे जिसके ब्याज से घर तो चलेगा और वह पांव की बेड़ी यानी जमीन बेचने पर मजबूर हो जाता है।

      डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी की देशबंदी जिसमें किसान तीन काले कानूनों से परेशान होकर खेतबंदी करता है लेकिन उसका कोई हल नहीं निकलता।

        सुकेश साहनी की लघुकथा 'धूप-छांव' जिसमें किसान के माथे पर लकीरें हैं कि पिछली बार की तरह सूखा पड़ जाएगा तो वह बर्बाद हो जाएगा। वहीं कृषि अधिकारी की पत्नी सोचती है की सूखा पड़े जिससे पति भ्रष्टाचार करके पैसे लाए और वह किचन का सामान खरीद सके।

प्रेरणा गुप्ता की 'यक्ष प्रश्न' जिसमें मजदूर का होनहार बेटा कहता है कि सब पढ़-लिख जायेंगे तो आप लोगों के मकान कौन बनाएगा।

      डॉक्टर लता अग्रवाल 'तुलजा' की 'धूल भरी पगडंडी' में गरीब मजदूर पन्नू का बेटा विदेश से यह सोचकर वापस आता है कि गांव से कोई पलायन न कर सके। सब लघुकथाएं बेहतरीन हैं

       एक अच्छी पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य मिला। धन्यवाद लघुकथाकार संपादक महोदय सुरेश सौरभ जी। 

---

पुस्तक-घरों को ढोते लोग (साझा लघुकथा संग्रह) 

संपादक- सुरेश सौरभ

प्रशाशन- समृद्धि पब्लिकेशन शाहदरा नई दिल्ली 

मूल्य-₹245 

वर्ष-2024

-0-


समीक्षक-योगेश योगी किसान (योगेश राजमणि लोधी)

पता-342 ख पुरानी बस्ती ग्राम पोस्ट सेमरवारा तहसील नागौद जिला सतना मप्र 485446

फोन -9755454999

बुधवार, 23 अक्तूबर 2024

साक्षात्कार । लघुकथा: चिंतन और चुनौतियां । साक्षात्कारकर्ता : नेतराम भारती

'वर्तमान समय निरर्थक सर्जन पर अंकुश लगाने का समय'-चन्द्रेश कुमार छतलानी 


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! मेरा पहला प्रश्न है लघुकथा आपकी नज़र में क्या है ? 

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- चूँकि आपने नव-लघुकथाकारों के लिए प्रश्न किया है तो एक पंक्ति में ही कहना चाहूँगा। मेरे अनुसार भाई जी, लघुकथा का अर्थ है - न्यूनतम शब्दों में रचित एकांगी गुण की कथात्मक विधा। साथ ही यह न भूलें कि सर्जन में जितने शब्द कम उतना अधिक श्रम।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! आजकल कई प्रकार के लेखक हमें लघुकथा के क्षेत्र में देखने को मिल रहे हैं। जैसे कुछ , मात्र अपने ज्ञान , अपने पांडित्य- प्रदर्शन के लिए लिखते हैं, कतिपय समूह- विशेष को खुश करने के लिए लिखते हैं या पुरस्कार- लालसा के लिए लिख रहे हैं । वहीं, कुछ ऐसे भी लघुकथाकार हैं जो लघुकथा - लेखन को सरल विधा मान बैठे हैं जिसके कारण उनकी रचनाओं में न कोई शिल्प होता है और न ही कोई गांभीर्य। तो ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि साहित्य सर्जन का उद्देश्य क्या है?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- भाई जी, मेरे अनुसार तो जहाँ साहित्य होता है, वहां कोरा लालसा-लेखन निष्प्राण होता है और जहाँ लालसायुक्त-लेखन होता है, वहां साहित्य के लिए कोई स्थान नहीं। लघुकथा के प्रथम शोधग्रन्थ, जो डॉ. शकुन्तला 'किरण' द्वारा किया गया था, में लघुकथा को गंभीर विधा माना है। इसके लेखन में कहीं न कहीं गंभीर सामयिक विषय समाहित होने ही चाहियें, जिनके द्वारा समाज के हित की बात कही जाए। साहित्य के मुख्य उद्देश्य में सर्वहित समाहित है, जिसे स्वहित समझने वाले सिर्फ लेखन कर रहे हैं, किसी अन्य स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से। ऐसे लेखन एक समय के बाद किसी को याद नहीं रहते। 


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! मैं जानना चाहता हूंँ कि आप लघुकथा में भाषा के किस प्रयोग के पक्षपाती हैं?

चन्द्रेश कुमार छतलानी:- मैं कथानक, वातावरण, स्थान और पात्रों के अनुसार भाषा का पक्षधर हूँ। चित्रा मुद्गल जी की कितनी ही रचनाओं में स्थानीय भाषाओं का बहुत सुंदर प्रयोग किया गया है, लेकिन हिंदी पाठकों को समझ में आने तक। उदाहरणस्वरुप हम यदि किसी कॉर्पोरेट के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स की मीटिंग के कथानक को चुनते हैं तो संवादों की भाषा में अंग्रेजी का प्रयोग होना खलेगा नहीं, बल्कि अधिकतर बार क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग असामान्य प्रतीत हो सकता है। विपरीत इसके यदि किसी हिंदी सेवी व्यक्ति के उद्बोधन पर रचना है तो उसमें जनसामान्य की भाषा की बजाय अपेक्षाकृत उच्च कोटि की होनी लाज़मी है। साथ ही इसका ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि भाषा की क्लिष्टता के कारण यदि रचना समझ से परे हो रही है तो वह रचना अर्थहीन है। निःसंदेह टारगेट पाठकवर्ग का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। एक अन्य आवश्यक बात यह है कि नरेशन में लेखक की भाषा होती है, वह ऐसी हो कि जो साहित्य का सम्मान भी रख सके और ढंग से संप्रेषित भी हो पाए। कुल मिलाकर साहित्य की किसी भी विधा में शब्दों की भाषा का चयन बहुत मेहनत का कार्य है। एक उदाहरण और दूंगा, हमारे विश्वविद्यालय के संस्थापक मनीषी पंडित जनार्दनराय नागर स्वयं एक ख्यातनाम साहित्यकार थे। उन्होने कई ऐसे सृजन किए जो साहित्य में मील के पत्थर समान हैं। एक बार हमारे आज के वरिष्ठ लेखाधिकारी, जिनकी उस समय नई-नई नौकरी एक क्लर्क के रूप में लगी थी, पंडित नागर के घर पर बैठे थे। वहीं पंडित नागर ने उन्हें स्नेहवश अपनी एक कविता पढ़ाई और पूछा कि, "कैसी है? कोई कमी तो नहीं।" यूं तो हमारे वरिष्ठ लेखाधिकारी विद्वान पुरुष हैं लेकिन वे कभी साहित्य के विद्यार्थी नहीं रहे, तो पढ़ कर उन्होने अपना मत रखा कि, "कविता तो अच्छी है लेकिन भाषा थोड़ी क्लिष्ट है - आम आदमी को समझ आने में मुश्किल होगी।" यह सुनते ही पंडित नागर तिलमिला उठे, लेकिन अगले चार-पाँच क्षणों में ही उन्होने अपने आप को संयत कर लिया और बोले, "यह साहित्य है प्रिय पुत्र! कोई सामान्य उपन्यास नहीं, इसे ना तो सब लोग पढ़ते हैं और ना ही मैं सभी को पढ़ने देता हूँ।"  

कुल मिलाकर, यह कुछ इस तरह है कि, वैदिक काल में संस्कृत के भी दो प्रकार थे - वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत। वैदिक संस्कृत साहित्य की भाषा थी और लौकिक संस्कृत जन सामान्य की। बावजूद उसके भी उस समय के साहित्य को जो लोकप्रियता प्राप्त हुई, उससे सामयिक साहित्य अछूता ही है।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी! अब लघुकथा की शब्द सीमा को लेकर पूर्व की भांति सीमांकन नहीं है बल्कि एक लचीलापन देखने में आ रहा है । अब आकार की अपेक्षा कथ्य की संप्रेषणीयता पर अधिक बल है। आप इसे किस रूप में देखते हैं ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- लम्बी या यूं कहें कि अधिक शब्दों की लघुकथाओं में अक्सर यह देखने को भी मिलता है कि वे, लघुकथा के मानकों के अनुरूप होते हुए भी, अपेक्षाकृत कम शब्दों वाली रचना से रुचिकर कम ही हो जाती हैं। हम रचना के कथ्य के अनुरूप रचना की लम्बाई निर्धारित करते हैं, तो साथ ही पाठकों के लिए रुचिकर भी हो, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। कम से कम पाठक उबें तो नहीं। इस प्रकार के निर्वहण में काफी समय लगता है। हालांकि कम शब्दों वाली रचना में भी यही निर्वहण करना पड़ता है, लेकिन कम शब्दों को पाठक जल्दी पढ़ लेते हैं, और यही तो लघुकथा के पाठक संख्या में निरंतर वृद्धि होने का एक कारण भी है।कुल मिलाकर, रचना सर्जन की शुरुआत में ही हमें रचना की सहजता को प्राथमिकता देते हुए, इस बात को भी ध्यान में रखा जा सकता है कि हमारा लेखकीय उद्देश्य क्या है? सामान्य पाठक वर्ग तक पहुँच, प्रबुद्ध पाठक वर्ग तक पहुँच, स्वांतसुखाय या अन्य साहित्यिक-गैरसाहित्यिक उद्देश्य। पुनः कहूँगा पाठक, जिन तक रचना पहुंचनी है, उबें नहीं। हालांकि, वावजूद इसके, बेहतर तो रचना का सहज सर्जन ही है। तब शब्द सीमा वाली बात स्वतः ही गौण हो जाती है। कला पक्ष व रचना की प्रभावित करने की क्षमता को ध्यान में रखते हुए, रचना में काट-छांट के समय हम शब्द सीमा पर भी विचार कर सकते हैं।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! कई बार लघुकथा पर सतही और घटना- प्रधान होने के आरोप लगते रहे हैं , इससे कैसे बचा जाए ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- किसी के रचनाकर्म को आरोपित करना तो उचित नहीं आलोचना कर लीजिए, सम्यक दृष्टि रख कर। मेरा मानना है भाई जी, कि कोई लघुकथा यदि मानकों से यदि थोड़ी सी विचलित भी है और अन्य किसी विधा में प्रवेश नहीं कर रही है तो उसे लघुकथा स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं। हालाँकि, उसे अच्छी रचना तभी कह सकते हैं, जब वह प्रभावित कर रही हो। दूसरे, हर वर्ग को एक ही रचना उचित लगे, यह हो भी नहीं सकता। आज के दल-प्रधान युग में संख्या को अधिक दृष्टिगत किया जाता है, गुणवत्ता को कम। यदि कोई आलोचक किसी एक राजनितिक दल विशेष से सम्बंधित हो और रचना उस दल के विचारों के विपरीत, तो आज के परिप्रेक्ष्य में उस रचना पर आरोप लगने के या खारिज तक होने की संभावना अधिक है। इस तरह के पक्षपाती विचारों में लघुकथा का सतही होना या लेखक विहीन न होना जैसे आरोप आसानी से लगाए जा सकते हैं। जबकि, सतही रचना भी यदि लघुकथा के मानकों का अनुसारण कर रही है तो उसे विधा को तो स्वीकारना पड़ेगा ही, वो बात और है कि कुछ पाठक वर्गों को या सभी पाठकों को वह प्रभावित न कर पाए। ऐसी रचनाएं किसी शोकेस में लघुकथा के नाम से रह सकती हैं ।रही बात आरोपों से बचने की तो, जिस रचना पर जितने अधिक कपड़े फटें, वह सफल भी उतनी ही है। एक शर्त यह ज़रूर है कि वह राष्ट्र, समाज, मानव और प्रकृति के विरोध में न हो।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! लघुकथा में लेखकों की संख्या लगातार बढ़ रही है परंतु उस अनुपात में समीक्षक- आलोचक दिखाई नहीं देते। यह चिंता की बात नहीं है?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- समीक्षा करना आसान कार्य नहीं है। हालाँकि लेखक से पहले पाठक और पठनीय-समीक्षक बनना आवश्यक है। अपनी पढ़ाई के पश्चात् जब मैंने सॉफ्टवेयर डवलपमेंट का कार्य प्रारम्भ करने की सोची थी, तो सॉफ्टवेयर निर्माण से पहले उसकी टेस्टिंग सीखी और की भी। तब यह समझ में आया कि बग्स (गलतियां) कहाँ-कहाँ हो सकती हैं। कैसे हो सकती हैं और उन्हें कैसे हटाया जाए – ये बाद की बातें थीं, जब मुझे सॉफ्टवेयर निर्माण करने थे। बहरहाल, इतनी ही अल्फा टेस्टिंग एक लेखक को आनी ही चाहिए, ताकि वह अपनी रचना में कुछ हद तक खुद परिमार्जन कर सके । 

अब यदि बात अन्य रचनाकारों की रचनाओं की समीक्षा करने की करें तो एक समय के गूढ़ अध्ययन के पश्चात् जब लघुकथाएं ढंग से समझ में आ जाती हैं, तो लेखक/लेखिका इस योग्य हो ही जाते हैं कि वे समीक्षा और संपादन कर सकें। लेकिन इस स्तर पर आने में वर्षों की साधना तो ज़रूरी है ही और साथ ही ज़रूरी है निष्पक्ष विश्लेषण, यहाँ तक कि खुद को भी अलग रखकर। कहीं पढ़ा था कि (सही) समीक्षक वही है जो रचनाकार के जूतों को खुदके पैरों में पहनने की क्षमता रखता हो। 

तीसरी बात जो मुझे यह दिखाई देती है कि, प्रकाशित करने से पूर्व कोई लघुकथा लिखकर हम अन्य रचनाकारों से संपर्क करते हैं और उनसे रचनाओं का परिमार्जन करवाते हैं। इस तरह हम खुद ही रचनाकारों को समीक्षक बना रहे हैं, लेकिन अघोषित तरीके से। आपके प्रश्न से थोड़ा अलग हट कर, यह भी समझने वाली बात है कि इस प्रकार कुछ लोगों द्वारा मिलजुल कर सर्जित की रचनाओं में लघुकथा के मूल तत्व तो बहुत अच्छे से उभर जाते हैं, रचना प्रभावित भी करती है लेकिन मौलिकता? ‘मौलिकता’ चर्चा का विषय है।

बहरहाल, आपने जो चिंता व्यक्त की, वह विचारणीय है ही कि ‘विधा के विस्तार के लिए, स्वस्थ विमर्श और कुशल विमर्शकारों का आगे न आना चिंता की बात तो नहीं है?’ – जी बिलकुल है। जब तक कुशल निष्पक्ष समीक्षा और स्वस्थ चर्चा नहीं होगी विधा की प्रगति धीमी गति से ही होगी। यह तभी हो पाएगा, जब लघुकथा अन्य विधाओं के समान ही वरिष्ठ साहित्यकारों के मस्तिष्क में पैठ बना पाए। फिलवक्त इसे पाठकीय प्रेम तो मिल रहा है, लेकिन साहित्यिक प्रेम इसके कद से कम। 


नेतराम भारती : - चन्द्रेश जी ! गुटबंदी, खेमेबंदी की बातें आजकल कोई दबे स्वर में तो कोई मुखर होकर कर रहा है । क्या वास्तव में लघुकथा में खेमे तन गए हैं ? निश्चित रूप से आप जैसे लघुकथा के शुभचिंतकों के लिए यह बहुत पीड़ाजनक है । आप इस पर क्या कहना चाहेंगे ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- गुटबंदी जाने क्यों साहित्य का स्वभाव जैसी प्रतीत होती रहती है। बावजूद इसके भी गुटबंदी साहित्य का स्वभाव ही नहीं साहित्य का अभाव ही है। हम जिस विसंगति पर लिखते हैं और वही हमने खुदने पाल रखी है तो उस विसंगति विशेष के लिए संवेदनशीलता का स्थान हमारे हृदय में होना असंभव ही है। ऐसा लेखन मृतप्रायः है। हालाँकि, यह भी विचारने योग्य है कि, जो खेमेबंदी के विरोध की बातें कर रहे हैं, कहीं वे भी तो तम्बू ताने नहीं बैठे हैं? ‘तेरे तम्बू में मेंरे तम्बू से ज़्यादा बम्बू कैसे!’ जैसी सोच वाले गुटबंदी को बुरा कहें भी तो उससे केवल ईर्ष्या झलकती है – गुटबंदी का विरोध नहीं। 


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! पाठकों तक लघुकथा की अधिकाधिक पहुँच और उनमें इसके प्रति जुड़ाव और जिज्ञासा को बढ़ाने के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- लघुकथा को पाठकों का प्रेम मिल ही रहा है। मुझे विश्वास है कि आपके पास भी पाठकों के सन्देश आते होंगे, जो आपके लेखन के फैन्स हैं। हालाँकि इसे शोध और अकादमिक में सही स्थान नहीं मिला है। मुझे लगता है कि, लघुकथा प्रकाशन से पूर्व खुद रचनाकार द्वारा ही लघुकथा की ढंग से अपनी क्षमतानुसार पड़ताल बहुत ज़रूरी है। फिलवक्त समाचार पत्रों से लेकर नामी गिरामी साहित्यिक पत्रिकाओं में लघुकथा के नाम पर कभी प्रेरक प्रसंग तो कभी छोटी कहानी तक भी प्रकाशित हो रही है। कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रूफ रीडिंग और सम्पादन का स्तर उस पत्र-पत्रिका के स्तर से बहुत छोटा है। पाठकों में भ्रम पैदा करने के लिए इतना काफी है और तिस पर पैबंद यह कि कुछ भी प्रकाशित होने को हम इसलिए बेहतर मानते हैं कि उसमें हमारा नाम है। न्यून स्तर की रचनाओं/सम्पादन को लेखकीय सरंक्षण मिल रहा है। यह आज तक नहीं देखा कि, वरिष्ठ/कनिष्ठ किसी की भी रचना प्रकाशित हुई हो, और उन्होंने विरोध में कहा हो कि, यह पुस्तक/पत्रिका/पत्र सही प्रकाशित नहीं कर रहा। मुआफी सहित, यह दुर्भाग्य है कि हम गलत को गलत नहीं कह पाते क्योंकि वे हमें जोड़ देते हैं। दूसरे, लघुकथाओं का सोशल व अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सही-सही प्रचार ज़रूरी है। फिलहाल फेसबुक से बाहर लघुकथा का प्रसार बहुत अधिक नहीं है। हमें यदि इसे भविष्य में अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करना है तो उस पीढ़ी तक इसे प्रसारित करना ही होगा। विकिपीडिया तक में एक समय लघुकथा को छोटी कहानी बताया जा रहा था। मुझे इसे ही सही करवाने के लिए कुछ संघर्ष तो करना ही पड़ा। इसके अलावा, Quora, LinkedIn, Instagram, Pinterest, Twitter जैसी लोकप्रिय साइट्स का प्रयोग करना चाहिए, उन पर लघुकथा के प्रति पाठकीय प्रेम और जागरूकता हेतु कार्य भी करना चाहिए, यह लेखकीय तो नहीं लेकिन विधा की उन्नति के प्रति हमारा दायित्व है ही।

आने वाले वक्त में ईबुक्स, ऑडियोबुक्स की मांग और भी बढ़ने की संभावना है। इन फोर्मेट्स में भी हमें अपनी पुस्तकों को तैयार रखना चाहिए। समय के साथ चलेंगे तो भविष्य में लघुकथा सर्वाधिक लोकप्रिय विधा हो ही सकती है।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी! लघुकथा के ऐसे कौन-से क्षेत्र हैं जिन्हें देखकर आपको लगता है कि अभी भी इनपर और काम करने की आवश्यकता है ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- विषय। सबसे पहले सामयिक विषयों पर ध्यान देना आवश्यक है। ग्लोबल वॉर्मिंग, पेयजल में हो रही कमी, सड़क सुरक्षा, वित्त या अर्थव्यवस्था सम्बंधित, साइबर सुरक्षा, गामीण विकास, ऑर्गेनिक खेती, सांस्कृतिक परिवर्तन आदि ऐसे विषय हैं, जिन पर लेखन न के बराबर हो रहा है। मेरे कहने का अर्थ यह है कि साहित्य हमेशा सामयिक विषयों पर केन्द्रित होना चाहिए। जब लड़की का पिता उतना लाचार नहीं रहा, जितना आज से 50 वर्ष पहले था, तो दहेज़ न दे पाने के लिए गिड़गिड़ाने सरीखे विषयों को सामयिक बता कर साहित्य सृजन क्या ठीक होगा? 

खेतिहारों की हालत देख कर तुलसी ने कहा था कि, "कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिन्नु अन्न दुखीं सब लोग मरै।।" यह पढ़ते ही तुलसी के समय की एक समस्या की जानकारी हो जाती है और यह साहित्य का दायित्व है। 

चीन में रिझाओ नामक शहर एक ऐसा पहला शहर बन गया है जो पूरा का पूरा सौर ऊर्जा से संचालित है। खंगालिए वहाँ के साहित्य को, किसी न किसी ने तो इसका सपना देखा होगा, इस पर लिखा होगा, तब जाकर यह मूर्त रूप ले पाया। यह साहित्य की शक्ति है।

यदि साहित्य को साधना है तो उसकी वो भक्ति करनी होगी, जिस भक्ति में व्यक्तिगत मुक्ति ही न हो बल्कि अपने समय की अमानवीयता से संघर्ष की युक्ति भी हो और निर्बल के लिए शक्ति भी।

विषय के अतिरिक्त हमें भाषा की उन्नति पर भी काम करना चाहिए। पुराने कितने ही मुहावरे व कहावतें ऐसी हैं, जिन्हें आज की पीढ़ी प्रयोग में नहीं ले रही, ले भी नहीं सकती। एक मुहावरा है, "न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।" हम में से कितने हैं, जो एक मन में कितने लीटर होते हैं, यह बता सके? 

इसी प्रकार सोलह आने सच में ‘आने’ का अर्थ आज की पीढ़ी को पता नहीं है। यह मुहावरा बदला होगा सौ टका सच से, लेकिन टके का मतलब भी नहीं जानते फिर यह मुहावरा बदला सौ फीसदी सच और अब इसे सौ प्रतिशत सच कहा जा रहा है। ऐसे बदलाव भाषा को सामयिक बनाते हैं। निःसंदेह यह बात गौर करने की है कि लघुकथा इस प्रकार के बदलाव के लिए बहुत उपयोगी है।

साहित्यकार का दायित्व भविष्य की अच्छाई लिखना भी हो जाता है। क्योंकि ऐसा साहित्य ही समाज को दिशा देता है। उन विषयों पर कार्य करें जो अनसुलझे हैं और अपनी कल्पना से भविष्य के विषयों का सृजन भी करें।

लघुकथा को वैश्विक स्तर पर जाने के लिए अनुवाद की भी बहुत आवश्यकता है। फिलवक्त कुछ विद्वान् अनुवाद कर रहे हैं लेकिन या तो सीमित तौर पर या फिर मित्रतास्वरुप। ख़ास तौर पर लघुकथाओं का विदेशी भाषाओं में अनुवाद जब तक नहीं होगा यह अन्य देशों की सीमाओं के भीतर कैसे जा पाएगी?

एक आखिरी बात मैं कहना चाहूंगा भाई जी कि, लघुकथा में लघुकथा के लिए लघुकथा के द्वारा ही काम हो सकता है। लोकतंत्र की अवधारणा जैसी पंक्ति का इसलिए उल्लेख कर रहा हूँ क्योंकि किसी लोकतांत्रिक प्रणाली की तरह ही कुछ व्यक्ति तो इसका उचित दिशा में लेखन/सम्पादन/प्रकाशन कर रहे हैं और कुछ नहीं भी। जो कुछ भी ठीक नहीं हो रहा, उस पर अंकुश कैसे लग सकता है, यह कहना मेरे लिए बहुत मुश्किल है, लेकिन उस अंकुश की ज़रूरत है। क्योंकि, यही विधा को कमज़ोर बना रहा है।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! आज भी लघुकथा में अक्सर कालखंड को लेकर बातें चलती रहती हैं,कालखंड दोष को लेकर विद्वानों में मतैक्य देखने में नहीं आता है । लघुकथा अध्येता को कभी इसकी शास्त्रीय व्याख्या सुनने को मिलती है तो कभी सीधे-सीधे लघुकथा ही ख़ारिज कर दी जाती है । उसे इस दुविधा और भ्रम से निकालते हुए सरल शब्दों में बताएं कि यह कालखंड दोष क्या है और इससे कैसे बचा जा सकता है ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- हम सभी जानते हैं भाई जी कि लघुकथा का विशेष गुण एकांगी स्वभाव है। लघुकथा यदि किन्हीं कारणों से एकांगी नहीं हो पा रही है तो वह कहानी में तब्दील हो सकती है। यदि लेखक इस तब्दीली को एक ही घटनाक्रम में नहीं ले पा रहा तो रचना एक से अधिक कालखंडों में विभक्त हो छोटी कहानी की तरफ मुड़ सकती है। हालांकि, इसमें कोई दोष नहीं और रचनाकार को रचना की सहजता के साथ समझौता करना भी नहीं चाहिए। असहज लघुकथा से सहज कहानी बेहतर।

हाँ! अपने लेखकीय कौशल से कोई रचनाकार रचना को एकांगी बना कर रख सकता है। एक उदाहरण देना चाहूँगा, मानव विकासक्रम का चित्र हम बचपन ही से किताबों में देखते आए हैं। इसमें शताब्दियों को एक ही चित्र में चित्रकार ने बहुत ही कुशलता से दर्शाया है। चौपाये से विकसित हो, दो पैरों पर खड़ा पर थोड़ा झुका हुआ पशु, झुके हुए पशु से सीधा खड़ा हुआ पशु, फिर चेहरे का विकास और अंत में आज का मानव खड़ा है। लाखों वर्षों को एक ही चित्र में समेट दिया जाना इतना आसान नहीं था, लेकिन चित्रकार ने यह कार्य बखूबी कर दिखाया है। इस चित्र के एकांगी स्वरुप पर विचार करें तो यह कहा जा सकता है कि इसमें केवल ‘मानव विकासक्रम’ ही मौजूद है। अब सोचिये, इस पर एक लघुकथा कहनी हो तो आप कैसे कहेंगे?


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! 'श्री 420' का एक लोकप्रिय गीत है-'प्यार हुआ, इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल।' इसके अंतरे की एक पंक्ति 'रातें दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियाँ' पर संगीतकार जयकिशन ने आपत्ति की। उनका खयाल था कि दर्शक 'चार दिशाएँ' तो समझ सकते हैं-'दस दिशाएँ' नहीं। लेकिन शैलेंद्र परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुए। उनका दृढ़ मंतव्य था कि दर्शकों की रुचि की आड़ में हमें उथलेपन को उन पर नहीं थोपना चाहिए। कलाकार का यह कर्तव्य भी है कि वह उपभोक्ता की रुचियों का परिष्कार करने का प्रयत्न करे। क्या एक लघुकथाकार के लिए भी यह बात सटीक नहीं बैठती?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- इसी उदाहरण पर दो अन्य उदाहरणों का जिक्र करना चाहूँगा। परिंदे पत्रिका के फरवरी-मार्च 2019 के लघुकथा केन्द्रित अंक में वरिष्ठ लघुकथाकार बलराम ने अपने साक्षात्कार में एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि "समाज के सब लोग साहित्य नहीं पढ़ते।" 

दूसरा उदाहरण हमारे विश्वविद्यालय के संस्थापक मनीषी पंडित जनार्दनराय नागर का मैं पूर्व भाषा वाले प्रश्न में दे ही चुका हूँ कि उन्होंने कहा था कि "यह साहित्य है प्रिय पुत्र! कोई सामान्य उपन्यास नहीं, इसे ना तो सब लोग पढ़ते हैं और ना ही मैं सभी को पढ़ने देता हूँ।"

पंडित नागर का यह वृतांत और बलराम जी द्वारा कही हुई बात दोनों एक ही सी प्रतीत होती हैं। हालांकि साहित्य कितना समृद्ध है, उसके पाठक कैसे होते हैं और उसकी सक्षमता क्या हो? ये प्रश्न मेरे अनुसार कुछ ऐसे हैं जिन पर चर्चा करना बहुत आवश्यक है और यही महत्वपूर्ण प्रश्न आपने भी किया है। एक तो जिस बात में समाज का हित छिपा हो वो कई वर्षों से इस तरह से सृजित हो रही है, कि आम पाठक नहीं जुड़ पा रहा और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है जिसे पंडित नागर ने इशारों ही इशारों में कहा कि आम पाठक से जुडने के लिए एक अलग किस्म का साहित्य लिखना पड़ता है। लेकिन वैसा अलग किस्म का साहित्य समाज को कैसी दिशा दे रहा है, इससे हम अनभिज्ञ नहीं है। हालांकि, मेरे अनुसार इन सभी बातों का समाधान है – सामयिक भाषा में कथ्य के अनुसार तथ्य कहना। दिशाएं दस ही होती हैं लेकिन मुख्यतः चार होती हैं। यह दो-आयामी और त्रिआयामी दृष्टिकोण की तरह ही तो है। इन दोनों दृष्टिकोणों में से किसी का भी महत्व कम नहीं है। हम अपनी बात किस तरह समझा सकते हैं, यह लेखकीय निर्णय है।

इस निर्णय से पूर्व, उथलेपन को स्वपरिभाषित करना भी ज़रूरी है। इसके लिए रचनाकर्म से पूर्व कथ्य और विषय में निहित तथ्य को जानना आवश्यक है। एक फिल्म के ही गीत की पंक्ति //शोर नहीं बाबा सोर// में सही शब्द क्या है और उथला कौनसा, इस पर विचार करते हैं। एक सामान्य भाषा की दृष्टि से सही है तो दूसरा आंचलिक भाषा की दृष्टि से। रचनाकार जिस दृष्टि से रचना कह रहा है, उसमें ‘सोर’ कहीं भी अनुचित नहीं। हालाँकि, सर्जन से पूर्व उसके मस्तिष्क में शोर भी था और सोर भी। यही होना चाहिए।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! असल में प्रयोग है क्या ? लोग प्रयोग के नाम पर प्रयोग तो कर रहे हैं ,पर क्या वास्तव में वे प्रयोग हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि अंधेरे में ही तीर चलाया जा रहा है l अगर ऐसा है ,तो निशाना तो दूर की बात नुकसान होने की संभावना अधिक है l आप इसपर क्या कहना चाहेंगे ? साहित्य में सार्थक प्रयोग किस प्रकार किया जाए ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- सार्थक प्रयोग का उदाहरण बल्ब की इजाद है, भाई जी। थॉमस अल्वा एडिसन के हज़ार बार असफल होने के बाद फिर कहीं जाकर बल्ब बन पाया। लेकिन उन्होंने ही कहा था कि इससे पिछले हज़ार असफल प्रयोगों का महत्व कम नहीं हो गया, क्योंकि उन्हें ही दिमाग में रखकर, उन प्रयोगों को दुहराया नहीं गया। प्रयोग हैं तो सार्थकता अधिकतर बार बहुत सारी असफलताओं के बाद ही आएगी। 1880 के बल्ब निर्माण के प्रयोगों से आज 2023 में भी सीख नहीं ले पाएं, हम इतने तो आलसी नहीं।

लघुकथा के अनुसार प्रयोगों की बात करें तो, लघुकथा के हर तत्व पर और तत्वों के आपस में युग्म व मिश्रण पर प्रयोग हो सकता है। सार्थक और निरर्थक की परवाह किये बिना प्रयोग करने चाहिए, और निरर्थक-असफल प्रयोगों को डस्टबिन की बजाय वहां रखना चाहिए, जहाँ सभी यह देख पाएं कि इस प्रयोग को दुहराना नहीं है। यह बिलकुल उसी प्रकार है, जैसा कोई वैज्ञानिक विश्लेषण होता है। उसमें हाइपोथीसिस होता है, जिसका यह पता लगाया जाता है कि वह स्वीकृत रेंज में है अथवा अस्वीकृत। यदि अस्वीकृत रेंज में है तो भी शोध का महत्व कम नहीं होता। प्रयोग करते समय, प्रयोगों की असफलता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी सफलता। हाँ! बाद में, सफल प्रयोगों पर ही रचनाकर्म होगा और असफल पर नहीं।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! कुछ साहित्यकार लघुकथा को लेखक-विहीन विधा कहते हैं परंतु लेखक तो किसी भी विधा के प्रत्येक शब्द- भाव में उपस्थित रहता ही है , फिर ऐसा कहना विधा के प्रति नकारात्मक भाव को पोषण देना नहीं है ? इस पर आपका क्या विचार है ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- आपका कहना सत्य है l प्रत्येक शब्द और भाव में रचनाकार उपस्थित रहता ही है। मैं यह समझता हूँ कि लेखक-विहीन सर्जन का अर्थ यह है कि अपना निर्णय पाठकों पर न थोपनाl इसे विस्तृत करूं तो, हम सभी के अपने-अपने व्यक्तिगत विचार होते हैंl उदाहरणस्वरुप, यदि मैं किसी एक विशेष राजनैतिक दल का पक्षधर हूँ और उसे प्रोमोट भी करता हूँl यह व्यक्तिगत रूप से तो ठीक है, लेकिन मेरे लेखन में उसी दल और विचारों का गुणगान है और अन्य दलों के सही विचारों का भी विरोध, तो ऐसा लेखन चाटुकारिता और मेरी मूढ़ता के अतिरिक्त कुछ नहींl मैं उस लेखन से अपने दल को बढ़ावा दे रहा हूँ, साहित्य को नहींl जबकि, उचित यह है कि, अपने व्यक्तिगत विचार यदि किसी अन्य के भी सही विचारों से टकरा रहे हों, तो इस स्थिति में तटस्थ लेखन हो और पाठकों के विवेक पर छोड़ दिया जाएl लेखन किसी लेखक का अधिकार व दायित्व ही नहीं, बल्कि धर्म भी है और लेखकीय धर्म कभी भी समाज के हित से विचलित नहीं होने देताl हालांकि, किसी विशेष समुदाय में फैली विसंगतियों या उनके उत्थान की बात करने में कोई बुराई नहीं क्योंकि यह उस समुदाय विशेष को सर्वसमाज के साथ आगे बढाने के उद्देश्य से कही गई हैl किसी बुराई का विरोध करना भी ज़रूरी है, रुढियों का परिष्करण भी आवश्यक है, लेकिन किसी अन्य व्यक्ति से लेकर समुदाय को अकारण किसी भी तरह से कमतर करने की बात कही जाए, वह साहित्य नहीं, केवल किसी प्रकार के स्वार्थ या कुंठा से निहित लेखन हैl


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! सिद्ध लघुकथाकारों को पढ़ना नए लघुकथाकारों के लिए आप कितना जरूरी समझते हैं , जरूरी है भी या नहीं ? क्योंकि कुछ विद्वान कहते हैं कि यदि आप पुराने लेखकों को पढ़ते हैं तो आप उनकी लेखन शैली से प्रभावित हो सकते हैं और आपके लेखन में उनकी शैली का प्रतिबिंब उभर सकता है जो आपकी मौलिकता को प्रभावित कर सकती है l इस पर आपका दृष्टिकोण क्या है?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- मैं पूरी तरह सहमत हूँ l प्रारम्भिक लेखन में शैली तो प्रभावित होगी ही l स्वयं की शैली बनने में समय लगता है l मेरे अनुसार, यदि इससे बचना है तो एक से अधिक रचनाकारों को समान रूप से पढ़ें l हालाँकि मेरा मानना है कि यदि प्रारम्भिक लेखन के समय शैली पर किन्हीं सिद्ध रचनाकारों का प्रभाव आ रहा है तो इस अभ्यास में अधिक बुराई नहींl लेखन शैली में मौलिकता समय के साथ परिपक्वता आने पर आ ही जाती है l उस समय तक अध्ययन भी विस्तृत हो जाता है l भारतेंदु हरिशचंद्र की इन पंक्तियों को यदि आपकी इस बात से जोड़ें तो

"लीक-लीक गाड़ी चलै, लीकहि चले कपूत।

लीक छोड़ तीनूं चलै, सायर, सिंघ, सपूत।।"

जब तक हम कपूत (नौसिखिए) हैं या केवल गाड़ी चलानी है तो किसी की बनाई लीक पर चलते रहें, हमें अगर सपूत या सिद्ध बनना है तो लीक छोड़नी पड़ेगी।


नेतराम भारती :- अंतिम प्रश्न :- चन्द्रेश जी ! यदि आपसे यह पूछा जाए कि आने वाले दस सालों में लघुकथा को आप कहाँ देखते हैं ,तो आपका उत्तर क्या होगा ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- भाई जी, कुछ दिनों पूर्व ही एक कार्यक्रम में यह प्रश्न उठा कि लघुकथा में शोध की क्या संभावनाएं हैं। उत्तर देने वाले वरिष्ठ साहित्यकार व शिक्षाविद थे, उन्होंने कुछ ऐसा कहा कि, “शोध किसी लोकप्रिय विधा में ही हो तो सही है। फिलहाल लघुकथा उपयुक्त नहीं।“

मैं इस बात से न केवल चौंका बल्कि आहत हुआ, जो स्वाभाविक ही था कि लघुकथा और अलोकप्रिय?, फिर मुझे समझ में आया कि वे साहित्य की उस दुनिया की बात कर रहे थे, जिन पर वरिष्ठता का तमगा लगा है और जिन्होंने लघुकथाओं को हमेशा उपविधा या निम्न विधा माना। 

खैर, जब यदि आगामी दस सालों की बात करें तो यह मानसिकता विपरीत होगी, ऐसा मेरा विश्वास है और साथ ही शोध में लघुकथा का एक सम्मानजनक स्थान होगा, यह भी मुझे प्रतीत होता है।

इनके अतिरिक्त दस वर्षों में ऐसे लघुकथाकार ज़्यादा हो सकते हैं जो पारिवारिक और सामाजिक मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय और वैश्विक मुद्दों पर भी सर्जन करने में सक्षम होंl लघुकथा में कुछ स्वतंत्र आलोचक भी आ जाने चाहिएंl

विधा की उन्नति की बात करें तो नए शिल्प, नए कथ्य, सामयिक भाषा और लघुता के लिए नए मुहावरे और कहावतों के साथ सर्जन होना प्रारम्भ हो जाए l

राजस्थानी में एक लोकोक्ति है – “गज सूं उतर गधे नहीं चढस्याँ” अर्थात हाथी से उतर कर गधे पर नहीं चढ़ते l इसी के अनुसार मैं यह प्रार्थना करूंगा, लघुकथा हाथी पर सवार है और उसी पर सवार ही रहे l ज़रूरी हो तो, गधे को, हाथी पर बैठ कर देख लिया जाए, उस पर सवारी न करेंl

-0-


सोमवार, 21 अक्तूबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 9 । रोजगार पर सर्जन

आदरणीय मित्रों,

वैश्विक मुद्दों के इन आलेखों को पढ़ने पर प्रारम्भ में आप इसे अकादमिक बातों से जुड़ा हुआ पा सकते हैं। हालाँकि, वे बातें मुद्दों पर कुछ सामयिक चर्चाएँ हैं, जो साझा करने का प्रयास किया गया है। विषय को समझने पर ही हमारा मस्तिष्क खुलता है और साहित्यिक समझ के व्यक्तियों के विचारों में रचना जन्म ले सकती है। वैसे भी, जब हम यह चाहते हैं कि हमारी रचनाएं अकादमिक रूप से भी प्रभावित करें तो, उस क्षेत्र में हमें एकाध कदम रखना पड़ेगा ही।

इस आलेख में रोजगार के बारे में चर्चा की गई है, जो कि एक ऐसा विषय है, जिससे हम सभी जुड़े हुए हैं। हम ही नहीं बल्कि पूरा विश्व जुड़ा हुआ है। कई भ्रांतियां भी हैं और कई बाधाएं भी। कहीं अच्छे रोजगार के अवसर नहीं हैं तो कहीं दिशा। कहीं भाई-भतीजावाद है तो कहीं गॉडफादर वाद।

कुल मिलाकर, वैश्विक रोजगार के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं, प्रौद्योगिकी में तेज़ी से हो रहे बदलाव, वैश्वीकरण और आर्थिक अस्थिरता के कारण नौकरी के बाज़ार प्रभावित हो रहे हैं। विशेष रूप से कम कौशल वाली नौकरियों में कामगारों की संख्या कम हो रही है, जिससे नौकरी की सुरक्षा को लेकर व्यापक चिंताएँ पैदा हो रही हैं।

इनके साथ ही, जलवायु परिवर्तन और राजनीतिक तनाव जैसे परिवर्तन भी आर्थिक अनिश्चितता में योगदान दे रहे हैं, जिसके फलस्वरूप कई क्षेत्रों में नौकरी के अवसर सीमित हो रहे हैं। यह विकासशील देशों में विशेष रूप से होता है, जहाँ कार्यबल या जनसंख्या बढ़ रही है, लेकिन नौकरियाँ उस गति से नहीं बढ़ रही हैं, जिससे गरीबी और असमानता बढ़ती है।

सबसे बड़ा मुद्दा युवा बेरोज़गारी का है, क्योंकि कई युवा रोज़गार हासिल करने के लिए आवश्यक कौशल या अवसरों के बिना नौकरी चाह रहे हैं। अविकसित उद्योग, शिक्षा की कमी और प्रौद्योगिकी तक सीमित पहुँच जैसे संरचनात्मक कारक उपलब्ध नौकरियों की संख्या और काम की तलाश करने वाले लोगों की संख्या के बीच के अंतर को और बढ़ाते हैं। इसके अलावा, रोज़गार में लैंगिक असमानताएँ, जिसमें महिलाओं को वेतन असमानता और कम नौकरी की संभावनाओं जैसी अतिरिक्त बाधाओं का सामना करना पड़ता है, और ये मुद्दे रोज़गार संकट में जटिलता की एक और परत जोड़ते हैं।

इन दिनों के मुख्य मुद्दें, Artificial Intelligence और Robotics की बात करें तो, आने वाले कुछ ही वर्षों में यह बहुत कुछ बदलने वाले हैं और इनसे एक भय भी उत्पन्न हो रहा है कि, कई रोजगार चले जाएंगे। हालाँकि यह भय उस लुडाइट हिस्टीरिया की तरह ही है, जब 19 वीं सदी के कपड़ा मजदूरों ने रोजगार छीन जाने के भय के कारण कपड़ा बनाने वाली मशीनों को नष्ट कर दिया था। आज के समय में यह हास्यास्पद लग सकता है कि जब उद्योगों का मशीनों के बिना अस्तित्व ही नहीं है तो पहले के मजदूरों ने यह धारणा कैसे बनाई? बिलकुल यही धारणा आज भी है। यह सच है कि मशीनें या प्रोद्योगिकी जब भी उन्नत होती हैं, हमारी कार्य दक्षता बढ़ती है और उन कार्यों को करने वालों के मानवों को यह चिंता होती ही है कि कहीं उनके रोजगार पर संकट तो नहीं आएगा! यह भी सच है कि - आएगा। लेकिन उसके साथ ही, मशीनें अपने साथ नए रोजगार लाती हैं, जो अधिकतर बार संख्या में अधिक होते हैं और मानदेय (सैलरी) में भी, क्योंकि जब अधिक दक्षता से कार्य होगा तब परिणामस्वरुप कार्य का मूल्य भी बढ़ेगा ही। अतः, यह कह सकते हैं कि, जब भी प्रोद्योगिकी उन्नत हो रही हो, उसे सीखना हमारी उन्नति का भी द्योतक है।

बेरोजगारी पर पुनः आते हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार, वैश्विक बेरोजगारी दर अनुमानित र्रोप से 200 मिलियन से अधिक है। 2023 में, वैश्विक बेरोजगारी दर लगभग 5.3% थी, जिसमें विकासशील देशों में सबसे अधिक समस्या थी। युवा बेरोजगारी, विशेष रूप से उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया जैसे क्षेत्रों में, वैश्विक औसत से काफी अधिक बनी हुई है, कुछ देशों में दरें 20% से अधिक तक पहुँच गई हैं। 

COVID-19 महामारी ने इन संख्याओं को और बढ़ा दिया, जिससे लाखों लोग बेरोजगार हो गए और दुनिया भर में आर्थिक अस्थिरता बढ़ गई। यह भी है कि, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में कुछ सुधार के बावजूद, रोजगार सृजन धीमा ही बना हुआ है, जिसमें अल्परोजगार और अनौपचारिक कार्य भी अतिरिक्त चुनौतियाँ हैं।

कुछ उल्लेखनीय गणमान्य व्यक्तियों के बेरोजगारी पर उद्धरण निम्नानुसार हैं:

फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट - "हमारी प्रगति की परीक्षा यह नहीं है कि हम उन लोगों की समृद्धि में और वृद्धि करते हैं या नहीं, बल्कि यह है कि हम उन लोगों के लिए पर्याप्त प्रदान करते हैं या नहीं जिनके पास बहुत कम है।"

बराक ओबामा - "हम दीर्घकालिक बेरोजगारी की समस्या से तब तक नहीं निपट सकते जब तक हम लोगों को फिर से काम पर नहीं लगाते, एक ऐसी अर्थव्यवस्था का निर्माण नहीं करते जो हर अमेरिकी को अवसर प्रदान करे।"

बान की-मून - "युवा बेरोजगारी एक वैश्विक चुनौती है। तत्काल उपायों के बिना, हम प्रतिभा, नवाचार और गतिशीलता से 'खोई हुई पीढ़ी' बनाने का जोखिम उठा रहे हैं।"

नेल्सन मंडेला - "गरीबी पर काबू पाना दान का इशारा नहीं है, यह न्याय का कार्य है। यह मानव का एक मौलिक अधिकार, उसकी गरिमा और सभ्य जीवन के अधिकार की सुरक्षा है।"

कोफी अन्नान - "यदि एक बेहतर और सुरक्षित दुनिया बनाने की हमारी उम्मीदें केवल कल्पना से अधिक होनी चाहिए, तो हमें कार्यबल में अधिक लोगों की भागीदारी की आवश्यकता होगी, जिनके पास उचित नौकरियां और बेहतर अवसर हों।"

रोजगार समस्या को हल करने के तरीकों पर विचारें तो सबसे पहले विचार आता है कौशल विकास और शिक्षा का। आवश्यक कौशल से लैस करने के लिए शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण में निवेश करना आवश्यक है।

इसके पश्चात सरकारों को नवाचार और उद्यमिता को बढ़ावा देना चाहिए। छोटे व्यवसायों और स्टार्टअप को प्रोत्साहित करने से नए रोजगार के अवसर पैदा हो सकते हैं, विशेषकर वंचित क्षेत्रों में।

सामाजिक सुरक्षा को मजबूत करना भी आवश्यक है। बेरोजगारी भत्ता, आर्थिक संकट के समय स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं तक आसान पहुँच मानव सुरक्षा में मदद कर सकता है।

समान वेतन, मातृत्व लाभ और उचित अवसरों के माध्यम से महिलाओं को सशक्त बनाना रोजगार में लैंगिक असमानताओं को दूर कर सकता है।

इनके साथ ही सरकारों को रोजगार सृजन के लिए दीर्घकालिक रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

बेरोजगारी पर साहित्य सर्जन

बेरोजगारी पर सबसे प्रभावशाली साहित्य में जॉन मेनार्ड कीन्स की 'द जनरल थ्योरी ऑफ़ एम्प्लॉयमेंट, इंटरेस्ट, एंड मनी' जैसी रचनाएँ शामिल हैं, जो आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में बेरोजगारी की एक आधारभूत समझ प्रदान करती हैं। कीन्स ने तर्क दिया कि बेरोजगारी अक्सर वस्तुओं और सेवाओं की अपर्याप्त मांग के कारण होती है, वे आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए सरकारी हस्तक्षेप पर भी जोर देते हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण योगदान डेल मोर्टेंसन और क्रिस्टोफर पिसाराइड्स द्वारा 'जॉब क्रिएशन एंड डिस्ट्रक्शन' है, जो श्रम बाजारों की गतिशीलता और श्रमिकों और नौकरियों के बीच दक्षता/कार्य-कुशलता की जांच करता है।

बेरोजगारी पर लघुकथा सर्जन

बेरोजगारी पर लघुकथा सर्जन बहुतायत में हुआ है। सबसे पहली लघुकथा उन रचनाकार की है, जिन्होंने बहुत कम समय में लघुकथा विधा को ऊँचाइयों पर पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। COVID ने उन्हें हमसे छीन लिया, अन्यथा वे विधा के लिए और भी काफी कार्य करते। मैं बात कर रहा हूँ, मेरे अग्रज स्वरूप श्री रवि प्रभाकर की। उनकी रचना पढ़ते हैं

एक बड़ा हादसा / कीर्तिशेष रवि प्रभाकर (Ravi Prabhakar)

फैक्ट्री में हुए एक भयानक हादसे में उसे अपनी दोनों टाँगे गंवानी पड़ गई, जबकि उसके तीन साथियों को जान से हाथ धोना पड़ा था.

"तुम्हें ठीक होनें में तो अभी बहुत समय लगेगा, जबकि एक महीने के बाद ही तुम्हारी रिटायरमेंट है। इसलिए मैनेजमेंट ने फैसला किया है कि तुम्हें एक महीना पहले ही रिटायर कर दिया जाए।”  उसका हाल चाल पूछने आए सहकर्मियों में से एक ने उसे सूचित किया

“चलो कोई बात नहीं यार, भगवान का शुकर मनायो कि जान बच गई।” दूसरे ने दिलासा देते हुए कहा.

"हमारे उन तीन साथियों का क्या हुआ जिनकी मौत हो गई थी ?" उसने उदास स्वर में पूछा

"उन सब के बेटों को नौकरी दे दी गई है." उत्तर मिला

कोने में बैठे अपने बेरोजगार बेटे और उसके तीन बच्चों को देख आज उसे अपने ज़िंदा बच जाने का बेहद अफ़सोस हो रहा था।

-0-

- रवि प्रभाकर (कीर्तिशेष)


अगली एक रचना श्री बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’ की है। इसे पढ़िए,

प्रसाद/ बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’

लंबी बेरोजगारी से परेशान चार युवकों के चेहरों पर अब नौकरी लग जाने से संतुष्टि के भाव थे। चारों खुश थे और इसी खुशी में अपनी नौकरी के पीछे का रहस्य बता रहे थे।

पहला युवक – “मैंने सीधे बड़े साहब से बात की, ताकि चूक की कोई गुंजाइश ही न रहे। बात पूरे दो लाख में बनी।”

दूसरा युवक – “मैंने छोटे साहब से बात की। वे स्थापना विभाग के प्रभारी थे, इसलिए चूकने की आशंका नहीं थी। मैंने लाख रुपए में बात पक्की की थी।”

तीसरा युवक – “मैंने डीलिंग क्लर्क से बात की थी। हस्ताक्षर होने के बाद भी सूची में बीच में एक–दो नाम डालने की योग्यता उसमें थी ही। वह पचास हजार में ही मान गया।”

चौथा युवक – “मैंने किसी को रुपए नहीं दिए, मेरा काम मुफ्त में हो गया।” 

बाकी तीनों युवक एक स्वर में बोले – “सफेद झूठ!”

चौथे युवक ने राज खोला – “मैंने चार अन्य बेरोजगार युवकों से साहब को रुपए दिलवाए, तो प्रसाद के रूप में मुझे नौकरी मिल गई।”

-0-

- बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’


श्री कपिश चन्द्र श्रीवास्तव की लघुकथा विडम्बना भी महत्वपूर्ण बात कह जाती है,

विडम्बना / कपिश चन्द्र श्रीवास्तव 

(सामान्य सम्पादन पश्चात)

चप्पल घिस-घिस कर आधे रह गए थे सूरज शर्मा के। पिछले 3 साल से अपनी मास्टर  डिग्री की फ़ाइल प्लास्टिक के थैले में रखे नौकरी की तलाश में  जगह-जगह धक्के और ठोकरें खाते घूम जो रहा था। मई महीने की दोपहरी थी। दैनिक पत्रिका के 'वान्टेड' वाले पृष्ठ में कई जगह पेन से गोल घेरा लगाए  सूरज पिछले चार घंटे से शहर के चक्कर लगाते भूख-प्यास से बेहाल हो चुका था। शाम तक  दो-तीन इंटरव्यू और देने थे। बची-खुची हिम्मत जुटा, सिटी बस पकड़ने वो दौड़ पडा। सड़क पर पहुँचते-पहुँचते सहसा चकराकर गिर पड़ा और  विपरीत दिशा से आता एक ट्रक उसके बाएं पैर को कुचलते  निकल गया।

देखते-देखते भीड़ लग गयी । बेहोश हो चुके सूरज को लोगों ने अस्पताल पहुंचाया। होश आने पर सूरज ने देखा उसका बायाँ पैर घुटने के ऊपर से काटा जा चुका है। मन पीड़ा और अपने अपाहिज हो जाने के अहसास से तड़प उठा।

सहसा उसे ध्यान आया 'वांटेड' वाले पृष्ठ में शायद किसी बैंक का विज्ञापन था 'केवल विकलांगों के लिए सीधी भर्ती'। उसका दिल अपने दोनों पैरों से बाल्लियों उछलने लगा  और उसके उदास चेहरे पर एक  विद्रूप सी मुस्कराहट उभर आई।

-0-

- कपीश चन्द्र श्रीवास्तव

साहित्य के ये सर्जनात्मक कार्य समकालीन अध्ययनों के साथ, वैश्विक बेरोजगारी के कारणों और संभावित समाधानों दोनों में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।

सादर,

चंद्रेश कुमार छतलानी

9928544748


शनिवार, 19 अक्तूबर 2024

पुस्तक समीक्षा । घरों को ढोते लोग । सत्य प्रकाश 'शिक्षक'

हाशिये पर जी रहे लोगों का सजीव चित्रण करती लघुकथाएं 



       'घरों को ढोते लोग' विख्यात लेखक एवं संपादक सुरेश सौरभ के संपादन में संग्रहित 71 लघुकथाओं का अप्रितम संकलन है। ये लघुकथाएं हर वर्ग तथा प्रत्येक क्षेत्र में शोषित वंचित लोगों की बात को,उनके दर्द को एक शिद्दत से बयां करती हैं। सुरेश सौरभ कुशल संपादक के साथ-साथ एक श्रेष्ठ लेखक भी हैं, यह गुण उनके हर संग्रह में दिखाई देता है। संग्रह की अंतिम दो लघुकथाएं 'कैमरे' और 'हींगवटी' सुरेश सौरभ द्वारा लिखी गई हैं, जो बालश्रम पर करारा प्रहार करतीं हुई दिखाई पड़ती हैं। चुनाव हो या शादी बारात इन जगहों पर काम करने वाले बच्चों के साथ अनहोनी घटनाएं घट जाए, तो इसकी परवाह कोई नहीं करता। 

     योगराज प्रभाकर की लघुकथा 'अपनी-अपनी भूख' में जहां गरीबों के बच्चों को भरपेट भोजन नहीं मिलता वहीं अमीरों के बच्चों की भूख खोलने के लिए इलाज किया जाता हैं। मनोरमा पंत की लघुकथा 'बदलते रिश्ते' करुणा भरी, गहन वात्सल्य से ओतप्रोत कथा है। प्रत्येक लघुकथा का नायक चाहे, वह रिक्शा वाला हो या ड्राइवर हो या अन्य, सभी अपने कंधों पर घर की जिम्मेदारियों का बोझ ढोए हुए दौड़ लगा रहे हैं। मार्टिन जॉन की शीर्षक लघुकथा 'घरों को ढोते लोग' में कोई पेट की आग बुझाने के लिए घर ढो रहा है तो कोई सुख सुविधा बढ़ाने के लिए जुटा है। समाज के कटु सत्य को परोसती लघुकथा कबाड़ में रश्मि चौधरी की नायिका गृहणी, घर का कबाड़ बिना पैसे लिए कबाड़ी को दे देती है जबकि कबाडी पैसे देने के लिए लगातार बोलता रहता है। 

     भीषण गर्मी के बाद बरसात का मौसम जहां साधन संपन्न लोगों के लिए खुशनुमा पल होते हैं, वहीं यशोधरा भटनागर की लघुकथा 'कम्मो' में, कम्मो जब अपने घर पहुंचती है तो टपकती छत से भीग चुकी गीली लकड़ियों से पेट की आग बुझाना मुश्किल हो जाता है। इसी प्रकार डॉ.मिथिलेश दीक्षित की लघुकथा 'सलोनी' में कामवाली बाई का मार्मिक चित्रण है। अरविंद असर, अविनाश अग्निहोत्री, रश्मि लहर, सेवा सदन प्रसाद, गुलजार हुसैन, हर भगवान चावला, सुकेश साहनी बलराम अग्रवाल, डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी, मीरा जैन, विजयानंद जैसे सभी प्रतिष्ठित लघुकथाकारों की कथाएं संग्रह को बहुत ही मार्मिक और हार्दिक बनातीं हैं, पुस्तक की सभी लघुकथाएं सटीक और अर्थपूर्ण हैं। सार्थक एवं स्तरीय लघुकथाओं के लिए सभी रचनाकार बधाई के पात्र हैं। भूमिका प्रसिद्ध कथाकार सुधा जुगरान ने लिखी है, जिससे संग्रह और भी पठनीय बन पड़ा है। संपादक सुरेश सौरभ लघुकथा जगत में विशिष्ट स्थान बनाएं इन्हीं शुभकामनाओं के साथ हार्दिक बधाई। 


पुस्तक-घरों को ढोते लोग (साझा लघुकथा संग्रह) 

संपादक-सुरेश सौरभ 

प्रकाशन वर्ष-2024 

मूल्य- 245₹

प्रकाशन- समृद्धि पब्लिकेशन नई दिल्ली। 

-0-


समीक्षक-

सत्य प्रकाश शिक्षक 

लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 8 । आपदा पर सर्जन

आदरणीय मित्रों,

प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों ही आपदाएँ आज की परस्पर जुड़ी हुई दुनिया में निरंतर और अपेक्षाकृत अधिक विनाशकारी हो गई हैं। भूकंप, सुनामी, तूफान, बाढ़ और जंगल की आग जैसी प्राकृतिक आपदाएँ तबाही मचाती रहती हैं, मानवों, बिल्डिंग्स व अन्य संसाधनों को नष्ट करती हैं और बड़े पैमाने पर जानमाल का नुकसान करती हैं। ये आपदाएँ अक्सर जलवायु परिवर्तन के कारण और भी बढ़ जाती हैं, जिससे मौसमी घटनाओं की संख्या और गंभीरता बढ़ सकती है। प्राकृतिक आपदाओं के अलावा, औद्योगिक दुर्घटनाएँ, तेल रिसाव और परमाणु आपदाएँ जैसी मानव निर्मित आपदाएँ भी पारिस्थितिकी तंत्र और मानव सहित सभी जीवों के लिए गंभीर खतरा पैदा करती हैं। आपदाओं का वैश्विक प्रभाव बहुआयामी है, जो न केवल सीधे तौर पर प्रभावित लोगों से जुड़ा होता है, बल्कि वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्थाओं को भी प्रभावित करता है और दीर्घकालिक पर्यावरणीय समस्याएं भी उत्पन्न करता है।

इन आपदाओं के सामाजिक और आर्थिक परिणाम बहुत गंभीर हैं। विकासशील देशों में, जहाँ संसाधन सीमित हैं, आपदाएँ पूरे क्षेत्र में गरीबी और खाद्य असुरक्षा की अधिकता उत्पन्न कर सकती हैं। इसके विपरीत, विकसित देशों में, बड़े स्तर पर आर्थिक नुकसान हो सकता है, और उससे वैश्विक बाज़ार प्रभावित होते हैं। आपदाओं से हर साल लाखों लोग विस्थापित होते हैं, और कइयों पर लंबे समय तक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है।

आपदाओं के समय कई लोग फायदा उठाने की फिराक में भी रहते हैं। सब्ज़ी और फलों से लेकर दवाइयों और रक्षा प्रणालियों की कीमतों में वृद्धि हो जाती है और गुणवत्ता में कमी। बाजारों से खाद्य सामग्री सबसे पहले गायब हो जाती हैं और उनका भंडारण किया जाता है। कई लोग सेवा के नाम पर लूटने के उद्देश्य से भी आपदा प्रभावित क्षेत्रों में पहुंच जाते हैं। हमारे देश भारत में भुज के भूकंप, हिमालय में बाढ़, COVID19 महामारी के समय में यह सब देखा गया है। जबकि होना उल्टा चाहिए। आपदा के समय निःशुल्क भोजन व दवाई वितरण तथा क्षेत्र के नागरिकों की जान-माल की आवश्यक सुरक्षा की जानी चाहिए, जो प्रैक्टिकली उतनी नहीं हो पाती, जितनी ज़रूरी है।

इनसे निपटने के लिए वैश्विक रूप से प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की पूर्व तैयारी और आपदा पश्चात उनके प्रभावों को कम करने के लिए देशों के समन्वित प्रयास आवश्यक हैं।

आपातकालीन घटना डेटाबेस (EM-DAT) जैसे वैश्विक आपदा डेटाबेस के अनुसार, पिछले दो दशकों में, प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और गंभीरता दोनों में काफी वृद्धि हुई है। अकेले 2023 में, दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रभावित करने वाली सैकड़ों बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ दर्ज की गईं। एशिया के देश, विशेष रूप से फिलीपींस और इंडोनेशिया जैसे भूकंप और उष्णकटिबंधीय तूफानों से ग्रस्त क्षेत्र, सबसे अधिक प्रभावित हैं। वैश्विक आपदाओं से आर्थिक कष्ट भी  बढ़ गए हैं, अनुमान है कि यह सालाना सैकड़ों अरब डॉलर तक पहुँच सकती है। विश्व बैंक की रिपोर्ट है कि आपदाएँ हर साल अतिरिक्त 26 मिलियन लोगों को गरीबी में धकेलती हैं। ये आपदाओं के गहरे और स्थायी परिणाम हैं। जलवायु परिवर्तन आपदाओं का एक कारक है। बढ़ते तापमान और अनियमित मौसम पैटर्न पूरे विश्व में आपदाओं को बढ़ा रहे हैं।

अतः कहना न होगा कि, आपदा प्रबंधन बहुत ज़रूरी है जो आपदा से पूर्व तैयारी, आपदा के समय प्रतिक्रिया तथा आपदा पश्चात पुनर्प्राप्ति और समस्याओं के शमन के माध्यम से आपदाओं के कुप्रभावों को कम करने पर केंद्रित है। प्रभावी आपदा प्रबंधन के लिए सरकारों, अंतरराष्ट्रीय संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) और स्थानीय समुदायों को शामिल करते हुए एक समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसमें आपदा का आकलन, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली, विभिन्न योजनाएं और लचीले infrastructure का निर्माण शामिल है। वैश्विक स्तर पर, आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (यूएनडीआरआर) जैसी संस्थाएँ और रेड क्रॉस और रेड क्रिसेंट सोसाइटीज़ (आईएफआरसी) जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन आपदा जोखिम न्यूनीकरण रणनीतियों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

इनके अतिरिक्त, आपदा जोखिम न्यूनीकरण 2015-2030 के लिए सेंडाई फ्रेमवर्क जैसे वैश्विक फ्रेमवर्क राष्ट्रों को जीवन, आजीविका और पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के उपायों को लागू करने में मार्गदर्शन करते रहते हैं। उपग्रहों द्वारा निगरानी और डेटा विश्लेषण सहित तकनीकी प्रगति भी आपदाओं का पूर्वानुमान लगाने और उनसे निपटने की क्षमता में सुधार कर रही है, लेकिन आपदा प्रबंधन की सफलता अंततः सामुदायिक जुड़ाव, शिक्षा और निवारक उपायों में निवेश करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर भी निर्भर करती है।

आपदाओं पर साहित्य

कई साहित्यिक कृतियों ने आपदाओं के मानवीय अनुभव को दर्शाया है। कॉर्मैक मैकार्थी द्वारा लिखित "द रोड" सर्वनाशकारी दुनिया का एक भयावह चित्रण है, जहाँ एक पिता और पुत्र आपदा के बाद जीवित रहने के लिए संघर्ष करते हैं। जॉन हर्सी की "हिरोशिमा" एक और कृति है जो परमाणु बम के बचे लोगों की व्यक्तिगत कहानियों को बयां करती है। यह परमाणु आपदा के मानवीय प्रभाव का एक गहरा मार्मिक विवरण दर्शाती है।

जॉन स्टीनबेक द्वारा लिखित "द ग्रेप्स ऑफ़ रैथ" डस्ट बाउल की पारिस्थितिक आपदा और महामंदी के दौरान अमेरिकी किसानों पर इसके प्रभावों पर प्रकाश डालती है, जो पर्यावरणीय आपदाओं के मानवीयता पर कुप्रभाव को दर्शाती है। 

फणीश्वर नाथ 'रेणु' की रचना "परती परिकथा" में बिहार की बाढ़ की त्रासदी का सजीव चित्रण है। यह बाढ़ से प्रभावित ग्रामीण जीवन, उनकी तकलीफें और संघर्ष को बखूबी दर्शाती है।

महाश्वेता देवी की कहानी "जंगल के दावेदार" आदिवासी समाज पर प्राकृतिक आपदाओं और उनकी ज़मीन छिन जाने के बाद के संघर्षों पर आधारित है। यह रचना सरकार के उदासीन रवैये के कारण उत्पन्न सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को उजागर करती है।

कुछ लघुकथाएं भी प्रस्तुत हैं:

योजना । कमलेश भारतीय

-भाई साहब,  यह बाढ क्या आई , हमारी तो मुसीबत ही हो गयी ।

-मुसीबत ? कैसी मुसीबत ?

-अपने गांव की पक्की सड़क ही बह गयी ।

-फिर क्या ? सरकार युद्ध स्तर पर काम में लगी तो है ।

-किस काम में ?

-बाढ राहत, पुनर्वास और निर्माण में ।

-यही तो अफसोस है ।

-काहे का अफसोस ?

-सरकार सब कुछ कर रही है पर बिना योजना के ।

-वह कैसे ?

-अब सडक ही लो ।

- हां क्या हुआ सड़क को ?

-बाढ के बाद तीन बार बनाई लेकिन तीनों बार टूट गयी ।

-तीनों बार टूट गयी ? यह कैसे ?

- हर बार बारिश के आसपास सड़क जो बनाई।

- हूं , इसके बावजूद कहते हो कि योजना से काम नहीं होता ?

-इसे और क्या कहेंगे ?

-बेवकूफ,  महकमे की यही तो योजना है ।

-क्या ?

- सड़क बनती रहे , टूटती रहे । जा आराम से बैठने दे ।

बडा आया फिक्रमंद।


- कमलेश भारतीय

-0-

एक अन्य मार्मिक लघुकथा है,

मौत / कृष्ण मनु

सहकर्मियों के कहने पर बिना सोचे-समझे अपना बसेरा छोड़कर इस तरह तपती दोपहरिया में ऊपर सूरज की आग और नीचे सड़क की गर्मी के बीच पिघलता हुआ वह अब पछता रहा था।

जख्मी पैरों को घसीटते हुए भूखा- प्यासा वह कहां जा रहा है? सैंकड़ों मिल दूर स्थित अपना गांव । पर गांव में भी क्या धरा है? दो रोटी भी मयस्सर नहीं।

भूख मिटाने की कोई जुगत होती अगर गांव में तो वह शहर आता ही क्यों? माना कि कोरोना महामारी में कारखाना बंद हो गया। नौकरी छूट गई और भूखों मरने की नौबत आ गई। तो भाग कर भी क्या मिल रहा? क्या वहां सरकारी व्यवस्था या दानियों द्वारा खाना नहीं मिलता? कोई और नहीं तो अड़ोसी-पड़ोसी भूख से मरने नहीं देते।

धौकता सीना, पीठ से लगा पेट। प्यास से पपड़ी पड़े होठ। उसे लगा जीवन डोर अब टूटने वाला है।

उसने पपड़ी पड़े होठ पर जीभ फेरते हुए सूरज की ओर देखा। सहसा उसकी आँखों के आगे चिंगारियां फूट पड़ीं, सांस ने साथ छोड़ दिया और वह कटे वृक्ष सा सड़क पर गिर कर चेतनाशून्य हो गया।

साथ चल रहे मजदूरों ने देखा। उनके सूखे चेहरे और सूनी आंखें पाषाण में तब्दील हो चुके थे। उनमें किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं हुई। वे आगे बढ़ गए।

उस मजदूर के साथ मानवीय संवेदना की भी मृत्यु हो चुकी थी।


- कृष्ण मनु

-0-

असली कीमत /  राहिला आसिफ 

उस जबरदस्त भूकंप के शांत होने पर शुभा ने खुद को अपनी नन्ही बिटिया के साथ जाने कितने ही नीचे मलवे में दबा पाया।भाग्य से छत का एक बड़ा सा हिस्सा कुछ ऐसे गिरा कि एक गार सी बन गयी।और चंद सांसे उधार मिल गयी ।दोनों सहमी सी ,आपस में सिमटी हुई मदद की उम्मीद में एक दूसरे का सहारा बनी हुई थीं।लेकिन जब काफी समय गुजर गया और किसी का हाथ मदद के लिए आता नहीं दिखाई पड़ा तो घोर निराशा ,डर और सामने बाहें फैलाये मौत को देख कर आंखों से बेबसी बरस पड़ी । "मम्मा!भूख लगी है।"नन्ही रिया ने उस का ध्यान खींचा। "हां बेटा अभी देती हूँ।"आदतन उसके मुंह से निकल गया।परन्तुअगले ही पल यथार्थ को देख,वह रो पड़ी और रिया को कस कर कलेजे से लगा लिया।तभी उसकी निगाह कोने में पड़े कचड़े के डिब्बे पर पड़ी ,सुबह रसोई में ही तो थी जब ये हादसा हुआ ।याद आया उसने रात का बचा हुआ कुछ खाना डाला था इसमें।लपक कर उसने डिब्बे को खोला ।कुछ रोटियां ही थीं जो खराब नहीं हुई थीं । पूरे दो दिन तक उन बासी रोटीयों का एक -एक निवाला अमृत बन कर रिया को जीवन देता रहा ।अंत में मदद की रोशनी ने जैसे ही उस ज़िंदा कब्र में प्रवेश किया ,तो खुशी से पूरी तरह लस्त और बेहाल शुभा अपनी सारी शक्ति बटोर कर चिल्लाई। "हेल्प...हेल्प..।" और आख़िरकार ज़िन्दगी जीत गयी। "ये कोई कहानी नहीं ,बल्कि मेरी आपबीती है।मैं शर्मिंदा हूँ अन्न के हर उस कण से,जिसको मैंने कचरे के डिब्बे में डाल कर अपमान किया था ।उस एक -एक अन्न के कण की असली कीमत मुझे उस दिन पता चली ।जिसकी बदौलत आज मेरी बच्ची मेरे पास सही सलामत है वरना....!" कहते -कहते हाथ में पकड़ा हुआ रूमाल आँखों की नमी को सोखने लगा । "तो इसलिए आपने इस विशेष कुकिंग क्लासेज की शुरुआत की?" "जी हाँ!तब ही से मैंने सोच लिया था कि किसी भी हालत में बचा हुआ खाना ना फैंकूँगी और ना ही फैंकने दूंगी।बस इसी दिशा में शुरुआत हो गयी बचे खाने से नये-नये व्यंजन बनाने की कुकिंग क्लास की। " एक साक्षात्कार के दौरान शुभा ने पत्रकार से कहा।


- राहिला आसिफ

-0-

यह लघुकथा भी काफी अच्छी है, पढ़िए:

विस्थापन / डॉ. दिलीप बच्चानी

लंच टाइम पर ऑफिस के सभी सहकर्मी एक ही टेबल पर अपने अपने टिफिन लेकर बैठे थे, सामने टीवी पर जोशीमठ से जुड़ी खबरे दिखाई जा रही थी।

कुछ परिवारों को विस्थापित कर दूसरी जगह भेजने की बात चल रही थी तो कुछ मकानों और होटलों को ध्वस्त करने की।

इन खबरों को देख स्वाति कुछ खो सी गई उसकी आँखों मे गीलापन मगसूस किया जा सकता था।

बगल में बैठी सहकर्मी ने स्वाति की ओर देखा।

अरे!स्वाति क्या हुआ तू क्यों उदास हो रही है,तू जोशीमठ में नही गुरुग्राम में है।

स्वाति गला साफ करते हुए बोली,कुछ नही बस बचपन याद आ गया।

हमारा परिवार भी टिहरी गढ़वाल से ऐसे ही विस्थापित किया गया था, अपना सब कुछ पीछे छोड़ कर मुठ्ठीभर सरकारी मदद के सहारे हमे नए शहर में रहने को मजबूर कर दिया गया।

विस्थापन चाहे सामाजिक हो,आर्थिक,हो,राजनीतिक हो या फिर प्राकृतिक होता बहुत ही पीड़ादायक है।

विस्थापन से केवल किसी का एड्रेस नही बदलता बल्कि उसका पूरा सामाजिक तानाबाना और संस्कृति बदल जाती है।

इन जोशीमठ वालो की पीड़ा या मैं महसूस कर सकती हूँ या फिर कौल साहब।स्वाति ने कौल साहब की तरफ इशारा करते हुए कहा इन्होंने भी कश्मीर जैसी स्वर्ग समान धरती को मजबूरन छोड़ा है।

कौल साहब कुछ कह न सके,उन्होंने स्नेह पूर्वक स्वाति के सर पर हाथ फेरा।

सामने की तरफ बैठे ललवाणी साहब की आँखे भी नम हो चली।

उन्हें भी बंटवारे और सिंध से विस्थापन से जुड़ी कहानियां जो उनके दादा जी सुनाते थे याद आ गई थी।


- डॉ. दिलीप बच्चानी

-0-

ये और ऐसी ही अन्य कृतियाँ पाठकों को एक अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं कि व्यक्ति और समाज आपदाओं द्वारा किए गए विनाश से कैसे निपटते हैं।

- चंद्रेश कुमार छ्तलानी 



सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 7 । भ्रष्टाचार

आदरणीय मित्रों,

किसी भी विषय पर रचनाकर्म करने से पहले उस विषय की जानकारी होना बहुत ज़रूरी है। यह श्रृंखला इसीलिए ही प्रारंभ की थी, ताकि वैश्विक मुद्दों की लघुकथाओं के सर्जन के कुछ विषयों की जानकारी हम सभी को प्राप्त हो सके। मैं भी पढ़ रहा हूं और आप सभी के साथ सीखने की कोशिश भी कर रहा हूं। इसमें ऐसा कोई दावा नहीं है कि आपको हर जानकारी मिल जाएगी, लेकिन शायद कुछ जागरूकता ज़रूर प्राप्त हो सके।

बिना जानकारी के गद्य सर्जन का अर्थ तो कुछ इस प्रकार है जैसे बिना बीज के खेती करना, बिना fuel के गाड़ी चलाना या फिर बिना भाषा ज्ञान के उस भाषा की किताब पढ़ने को उठा लेना।

इस श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए, आज इस पोस्ट में भ्रष्टाचार पर बात करते हैं। यह तो सभी जानते हैं कि भ्रष्टाचार सबसे व्यापक और महत्वपूर्ण वैश्विक चुनौतियों में से एक है, जो सभी क्षेत्रों और हर तरह की आर्थिक स्थितियों वाले देशों को प्रभावित करता है। यह रिश्वतखोरी, गबन और भाई-भतीजावाद से लेकर प्रभाव-व्यापार और ज़मीनों पर कब्ज़ा करने तक विभिन्न कपटीपनो के रूपों में विद्यमान है। भ्रष्टाचार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को अशक्त करता है, शासन व तंत्र में विश्वास को कम करता है और हाशिए पर पड़े कमज़ोर लोगों के समय से लेकर जीवन तक की कीमत पर शक्तिशाली लोगों को सिस्टम में हेरफेर करने की अनुमति देकर असमानता को बढ़ाता है।

विकासशील देशों में, भ्रष्टाचार शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और infrastructure जैसी आवश्यक सेवाओं से आवश्यक संसाधनों को कम कर देता है, जबकि विकसित देशों में, यह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को नष्ट करता है और बाज़ार की प्रतिस्पर्धा को विकृत करता है।

कहना न होगा कि, भ्रष्टाचार के परिणाम सीमाओं से परे हैं, जो वैश्विक आर्थिक स्थिरता, सुरक्षा और सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं। अपराध को बढ़ावा देने के साथ ही यह राजनीतिक अस्थिरता को भी बढ़ावा देता है और जलवायु परिवर्तन व मानवाधिकारों के हनन जैसे वैश्विक मुद्दों से निपटने के प्रयासों को भी बाधित करता है।

भ्रष्टाचार न केवल मानवों, जंतुओं और प्रकृति को निष्पक्षता से वंचित करता है, बल्कि गरीबी उन्मूलन और सतत विकास जैसे मुद्दों पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग को भी कहीं कम तो कहीं न्यूनतम करवा देता है। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए व्यापक सुधार, शासन में पारदर्शिता और नेताओं व प्रशासन को जवाबदेह ठहराने के लिए नागरिक समाज के सशक्तिकरण की आवश्यकता है।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल जैसे संगठनों द्वारा ट्रैक किए गए भ्रष्टाचार पर वैश्विक डेटा से यह संकेत मिलता है कि दुनिया के अधिकांश हिस्सों में भ्रष्टाचार एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक (CPI) 180 देशों और क्षेत्रों को उनके सार्वजनिक क्षेत्र के भ्रष्टाचार के स्तरों के आधार पर रैंक करता है। हाल के वर्षों में, डेनमार्क, फ़िनलैंड और न्यूज़ीलैंड जैसे देशों को लगातार सबसे कम भ्रष्ट के रूप में स्थान दिया गया है, जबकि सोमालिया, सीरिया और दक्षिण सूडान जैसे राष्ट्र अक्सर सबसे भ्रष्ट देशों में सूचीबद्ध होते हैं। यह डेटा इस बात पर प्रकाश डालता है कि उच्च रैंक वाले देशों में भी, भ्रष्टाचार के जोखिम मौजूद हैं, विशेष रूप से राजनीति पर कॉरपोरेट प्रभाव और वित्तीय पारदर्शिता की कमी जैसे क्षेत्रों में यह काफी फैला हुआ है। इसके अलावा, COVID-19 महामारी के दौरान, वैश्विक स्तर पर भ्रष्टाचार के मामले बढ़ गए, क्योंकि कई देशों में आपातकालीन खरीद और राहत निधि का दुरुपयोग किया गया।

यह कहा जा सकता है कि आपदा, आपातकाल या समस्या के समय भ्रष्टाचार के लिए अवसर होते हैं और यही अवसर भ्रष्टाचार उस हर स्थान पर ढूंढ लेता है, जहां धन का लेनदेन हो रहा हो।

भ्रष्टाचार पर साहित्य

ऐसे साहित्य बहुतायत में है जो विभिन्न दृष्टिकोणों से भ्रष्टाचार की जटिलताओं को दर्शाते हैं। रे फिसमैन और मिरियम ए. गोल्डन द्वारा लिखित "Corruption: What Everyone Needs to Know" भ्रष्टाचार के कारणों, प्रभावों और संभावित समाधानों का एक व्यापक, सुलभ अवलोकन प्रदान करता है। सुसान रोज़ एकरमैन की "Corruption and Government: Causes, Consequences, and Reform" को एक आधारभूत कार्य माना जाता है जो भ्रष्टाचार के आर्थिक और राजनीतिक दोनों आयामों में गहराई से उतरता है। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भों में रुचि रखने वालों के लिए, ग्राहम ग्रीन द्वारा लिखित "The Quiet American" एक ऐसा उपन्यास है जो वियतनाम संघर्ष की पृष्ठभूमि में भ्रष्टाचार, शक्ति और नैतिक अस्पष्टता के विषयों पर आधारित है। इसके अतिरिक्त, डेरॉन ऐसमोग्लू और जेम्स ए. रॉबिन्सन द्वारा लिखित "Why Nations Fail" इस बात की पड़ताल करता है कि भ्रष्टाचार राष्ट्रों की सफलता या विफलता में कैसे योगदान देता है, यह कृति राजनीतिक संस्थाओं और शासन कार्य हेतु भी गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करती है। अतः , यह स्पष्ट है कि कई साहित्यिक कृतियां भ्रष्टाचार की बहुआयामी समस्या को समझने और उसका समाधान करने के लिए महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान कर रही हैं।

प्रेमचंद की कहानियाँ जैसे "नमक का दरोगा" भी भ्रष्टाचार और ईमानदारी के संघर्ष को दर्शाती हैं। श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास "राग दरबारी" ग्रामीण राजनीति और प्रशासनिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार का जीवंत चित्रण करता है।  इसके अलावा, हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाएँ भी भ्रष्टाचार के विभिन्न रूपों पर तीखा कटाक्ष करती हैं, जैसे "विकलांग श्रृद्धा का दौर", जिसमें समाज में व्याप्त अनैतिकता और भ्रष्टाचार पर प्रहार किया गया है।

इस विषय पर लघुकथा विधा में भी बहुत रचनाकर्म हुआ है। इनमें से कुछ यहां प्रस्तुत हैं:

तंत्र / कमल चोपड़ा  

       बाजार में बंद पड़ी एक दुकान के फट्टे पर चढ़कर एक युवक बोलने लगा, ‘‘खल्क-खुदा की। हुक्म बादशाह का। तंत्र प्रजा का। वेश फकीर का। चेहरा प्रधान का। चरित्र तानाशाह का। इच्छा पूँजी नाथ की। इशारे कम्पनियों के। खून हमारा। पसीना हमारा। मेहनत हमारी। शक्ति हमारी। सत्ता उनकी। पावर उनकी। मल्कियत उनकी। पहाड़ उनके। जमीन उनकी। इमारतें उनकी। कारखाने उनके। माइन्स उनकी। खजाने उनके। अफसर उनके। सिपाई उनके। डंडे उनके? मुल्क हमारा। भूख हमारी। बेरोजगारी हमारी। अभाव हमारे। कंगाली हमारी। विवशता हमारी। फिर भी हमारा राज। हमारे द्वारा, हमारे लिए । वह जो दिए थे तुमने अपने हाथ काटकर। वही जो दिया था वोट? अब भुगतो……? बनाया सेवक? हुआ कब्जा? हमने पाला हमीं को भौं-भौं। हमारी जूती ….? हमारे डन्डे? हमारे सर?

       राज है जिसका वह राजा है भूखा। राजा है नंगा। राजा है बेघर। मांगेगा जो रोटी कपड़ा और रोजगार। माना जाएगा उसे गद्दार। गद्दी पर है चौकीदार। उसे हासिल है सेठ का दुलार। करवाए प्रचार। समझे सिर्फ सेठ का अधिकार। उसे पसंद नहीं चींख पुकार। करेगा जो हाहाकार होगी आंसू गैस लाठीचार्ज और गोलियों की बौछार। करो जय-जय कार, बार-बार, हर बार। यही सरकार। यही सरकार। ये नहीं तो वो सरकार वो नहीं तो ये सरकार। करो जय-जय कार। करो जय-जय कार।

       बाअदब-बामुलाहिजा होश्यार! होश्यार ! बनो होश्यार! रहो होश्यार। रहो होश्यार!

       ‘‘यह है जुमलेबाजी। अच्छे-अच्छे बोल-ढोल की पोल। कट गए हैं हाथ बाकी है जान। सलामत है जुबान। करेगी जमीनी हकीकत बयान। सुनेगा जहान करता रहा मेरा दादा उम्र भर घाटे का सौदा। उगाता रहा अनाज। नहीं की थीं उसने आत्महत्या। सरकारी नीतियों, लालों-दलालों ने की थी उसकी हत्या। कम्पनी को चाहिए हमारी जमीन। सरकार ने हमारी जमीन अधिग्रहण करके दे दी कम्पनी को। मेरे पिता बैठे विरोध में धरने पर। विरोध में खानी पड़ी उन्हें गोली।

       जिन्हें हमने बिठाया सिर पर। उन्होंने मारी गोली आँसू गैस और डन्डे? कैसे हमारा राज। हमारे द्वारा। हमारे लिए?’’

       वहाँ जुट आए कुछ लोगों ने उसे पकड़ लिया। “ साला हमारे बादशाह को झूठा कहता है। मारो साले को!” भीड़ ने मार-मार कर उसे अधमरा कर दिया। वह नीचे गिर कर बेहोश हो गया।

       भीड़ में से एक बुजुर्ग महिला ने आगे आकर कहा, ‘‘मत मारो बेचारे को। बेचारा अपना मानसिक संतुलन खो चुका है। इसकी माँ ने लोगों के घर बर्तन माँज-माँजकर और कुछ इधर-उधर से कर्जा लेकर इसे उच्च शिक्षा दिलाई।         

      लेकिन नौकरी नहीं लग पाई। सरकार ने कहा पूड़ी-पकौड़े की रेहड़ी लगाओ। इसने इधर-उधर से कर्ज लेकर पकौड़े की रेहड़ी लगाई। एक दिन कमेटी वाले आए और इसके बर्तन रेहड़ी गाड़ी में लादकर ले गए। यह छुड़वाने गया, तो उन्होंने पाँच हजार का चालान या चार हजार रिश्वत भरने को कहा। कहाँ से देता? कोई चारा नहीं था इसके पास। यह जाकर बेरोजगारों के धरने जुलूस में शामिल हो गया। फिर पुलिस का एक डण्डा इसके सिर पर लगा और यह तब से अपना मानसिक संतुलन खो बैठा है। कहता है- राज मेरा है। मेरे द्वारा है। मेरे लिए है फिर भी ……?’’


- कमल चोपड़ा  

-0-


एक अन्य अच्छी रचना पढ़िए,

छब्बीस जनवरी / मृणाल आशुतोष

आज वोट का दिन था। मंगरू और चन्दर दोनों तेज़ी से मिडिल स्कूल की ओर जा रहे थे।

" अरे ससुरा, तेज़ी से चलो न! देर हो जाएगा।"

" भाय, वोट के कारण सवेरे से काम में भिड़ गए थे। ठीक से खाना भी नहीं खा पाये।"

स्कूल पर पहुँचते ही देखा कि पोलिंग वाले बाबू सब जाने की तैयारी कर रहे हैं।

"मालिक, पेटी सब काहे समेट रहे हैं?" चन्दर ने हिम्मत दिखाया।

"वोट खत्म हो गया तो अब यहाँ घर बाँध लें क्या?"

"लेकिन अभी तो पाँच नहीं बजा है। रेडियो में सुने थे कि...."

" रेडियो-तेडीओ कम सुना करो और काम पर ध्यान दो। समझे।

" जी मालिक। पर पाँच साल में एक बार तो मौका मिलता है हम गरीब को, अपने मन की बात...

"तुमको ज्यादा नेतागिरी समझ में आने लगा है क्या?" सफेद चकचक धोती पहने गाँव के ही एक बाबू साहेब पीछे से गरजे।"

"चल रे मंगरु। लगता है कि इस बार भी अपना वोट गिर गया है!"

" भाय, एक चीज़ समझ में नहीं आता है कि हम निचला टोले वाले का वोट हमरे आने से पहले कैसे गिर जाता है?"

इससे पहले कि वह कुछ जबाब देता, पुरबा हवा बहने लगी और उसके अंदर से दर्द की गहरी टीस उठी।,"आह !"

- मृणाल आशुतोष

-0-


और तीसरी अच्छी लघुकथा भी प्रस्तुत है,


सत्य की अग्नि परीक्षा / डॉ. लता अग्रवाल

"अरे भाई कौन हो तुम और शहर से दूर यहाँ जंगल में ...इस झोपड़े में क्या कर रहे हो ? " युधिष्ठिर ने वन में भ्रमण करते हुए एक झोपड़े के बाहर बैठे उदास , लाचार से दिख रहे उस व्यक्ति से पूछा।

 "मैं सत्य हूँ ,आज कल यहीं रहता हूँ । यही मेरा झोपड़ा है ।"

"आश्चर्य है तुम यहाँ हो ,..तुम्हें लोगों के दिलों में रहना चाहिए...। "

" वहाँ तो धर्मराज , झूठ ने अपना स्थायी निवास बना लिया है और मुझे खोटे सिक्के की तरह बाहर निकाल फैंका है।"

" ओह ! यह तो बुरी खबर है तो तुम समाज में रह सकते हो ।"

"वहाँ सब मुझसे नफरत करते हैं । "

"इसकी कोई वजह होगी। "

"हाँ ! वजह है मैं आईने की भांति लोगों को उनकी सही सूरत दिखाता हूँ। "

"तो उसमें हर्ज क्या है ? यह तो अच्छी बात है। "

"धर्मराज ! आज भ्रष्टाचार, चार सौ बीसी, रिश्वत खोरी आदि के इतने खतरनाक कॉस्मेटिक्स के लेप बाजार में आ गये हैं, जिनके प्रयोग से लोगों के चेहरे इतने भयावह हो गए हैं कि वे अपना चेहरा देखना पसंद नहीं करते । "

"तो कार्यालयों में चले जाओ वहाँ तो तुम्हारा होना बहुत आवश्यक है। "

"गया था धर्मराज ...मगर एक ही पल में उठाकर कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया।"

"ओह ! तब तो पक्का तुम्हें राजनीति में जाना चाहिए।"

" राजनीति ...! तो अब देश में कहीं बची नहीं । कूटनीति का ही सर्वत्र साम्राज्य है। और कूटनीति को तो सदा ही से मुझसे परहेज रहा है।"

" बड़े आश्चर्य की बात है मैं तो सत्य की पताका लेकर ही स्वर्ग तक पहुंचा था।"

" आप भूल रहे हैं धर्मराज, वह द्वापर युग था आज कलयुग है।"

"तब तो पक्का तुम संचार विभाग (मीडिया) में चले जाओ वहाँ लोग तुम्हें सिर माथे बैठाएंगे । "

 " वहाँ मेरे लिए नो एंट्री का बोर्ड लगा है धर्मराज।"

"ऐसा क्यों भला...? "

"क्योंकि मैं उन्हें विज्ञापन शुल्क जो नहीं दे पाता।"

- डॉ. लता अग्रवाल

-0-


उम्मीद है यह पोस्ट और रचनाएं विषय पर कुछ प्रकाश डालने में सफल रही होगी।

- चंद्रेश कुमार छ्तलानी

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 6 । लैंगिक समानता पर लघुकथा सर्जन

आदरणीय मित्रों,


वैश्विक मुद्दों पर लघुकथा सर्जन के इस भाग में लैंगिक समानता (Gender Equality) पर चर्चा कर रहे हैं। लैंगिक समानता एक महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दा है जो किसी भी देश के आर्थिक विकास से लेकर सामाजिक स्थिरता और व्यक्तिगत विकास तक समाज के हर पहलू को प्रभावित करता है। अधिकारों, अवसरों और संसाधनों तक पहुँच के मामले में पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर कई देशों में प्रगति में बाधा बन रहा है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की 2023 ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के अनुसार, यदि वर्तमान गति से प्रगति चलती रहे तो भी पूरी दुनिया में लैंगिक अंतर को पाटने में अनुमानित 131 साल लगेंगे। कार्यालयों व व्यवसायों में नेतृत्व करने में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है, दुनिया भर में केवल 28% प्रबंधकीय पद महिलाओं के पास हैं। प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और वित्त जैसे क्षेत्रों में, असमानता और भी अधिक स्पष्ट है। लिंग आधारित हिंसा, असमान वेतन व शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक सीमित पहुँच महिलाओं को प्रभावित करते ही हैं, विशेषकर कम आय वाले और संघर्षग्रस्त देशों में।

हालांकि आज की महाशक्ति और एक विकसित देश चीन की ही बात करें तो जनसंख्या नियंत्रण के लिए वहां की सरकार ने जब एक ही बच्चे का नियम बनाया था तो भ्रूण हत्याएं बहुत बढ़ गईं और तब लैंगिक असमानता भी काफी बढ़ी। जितना मुझे याद है उस वक्त शायद 1100 लड़कों पर 1000 लड़कियां रह गईं थीं। तब, इसके दुष्परिणामों को देखते हुए सरकार ने वह नियम समाप्त कर दिया और बाद में उचित शिक्षा देकर जनसंख्या नियंत्रण पुनः प्रारंभ किया। शिक्षा का बहुत प्रभाव पड़ा। सच है कि लैंगिक असमानता को संबोधित करना न केवल मानवाधिकार का मुद्दा है, बल्कि सामाजिक सौहार्द के वातावरण के लिए भी महत्वपूर्ण है।

लैंगिक असमानता की सबसे महत्वपूर्ण विसंगतियों में से एक शिक्षा और रोजगार के अवसरों तक महिलाओं की पहुँच सीमित होना है, जो समग्र आर्थिक विकास में बाधक है। मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अनुसार, human resource में लैंगिक अंतर को कम करने से 2025 तक वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में $12 ट्रिलियन की वृद्धि हो सकती है और आज की स्थिति हम समझ ही सकते हैं। इसके अलावा, लैंगिक असमानता गरीबी और हिंसा को भी बढ़ावा देती है; महिलाओं को घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न का सामना करने की संभावना अधिक होती है, जो न केवल उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि कार्यबल सहित कई स्थानों पर उनकी भागीदारी को भी सीमित करता है और रूढ़िवादिता को भी बढ़ावा मिल सकता है। असमानता तब एक चक्र में घूमती रहती है।

समकालीन डेटा भी लैंगिक असमानता की गंभीरता को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, जैसे कि इस लेख में पूर्व में भी दर्शाया है कि विश्व आर्थिक मंच की 2023 वैश्विक लैंगिक अंतर रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक स्तर पर प्रबंधकीय पदों पर महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 28% है। इसके अतिरिक्त यूएन महिला रिपोर्ट से पता चलता है कि तीन में से एक महिला अपने जीवनकाल में शारीरिक या यौन हिंसा का अनुभव करती है। साथ ही पुरुषों की तुलना में महिलाओं का वेतन भी प्रत्येक डॉलर के लिए लगभग 77 सेंट है (देसी भाषा में सौ रुपए पर 77 रुपए), जो उनकी आर्थिक स्वतंत्रता में बाधक है।

हालांकि, सिक्के का एक पहलू यह भी है कि, लैंगिक असमानता या महिला सशक्तिकरण के नाम पर महिला के प्राकृतिक गुणों पर भी प्रहार किए गए हैं। नारी को पुरुष की तरह बनाने की होड़ में नारी सुलभ गुण, पुरुषों की प्रकृति की तरफ मुड़ सकते (रहे) हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखे जाने की ज़रूरत है कि कहीं ईश्वर प्रदत्त गुण नष्ट तो नहीं हो रहे। स्त्री, कई बातों में पुरुष से उच्च है, जैसे ममत्व, सहन शक्ति, स्वर का मृदु होना, सभी से प्रेम और सबसे बढ़कर जनन की शक्ति होना। इनके सरंक्षण की भी आवश्यकता है। इस बात पर एक कविता कही थी,


दोनों / चंद्रेश छ्तलानी

पुरुष रोता नहीं,

पुरुष लिख लेता है।


स्त्री रो लेती है,

लिख भी लेती है।


स्त्री के आंसुओं में शब्द होते हैं।


और, पुरुष शब्दों की कमी के साथ जीता है।


स्त्री के शब्द बह जाते हैं।


पुरुष के गुबार के शब्दों की कोई भाषा नहीं, लिपि नहीं।


दोनों भावबद्ध हैं। 

एक के पास लगातार भावनाएं हैं,

दूसरे के पास कठोरता।


कठोर जल्दी टूट जाता है,

खत्म हो जाता है।

कठोरता का अस्तित्व हमेशा लचीलेपन से कम होता है।


इसलिए पुरुष को सीख लेना चाहिए, स्त्री से, स्त्री सा रोना।


लेकिन, हो रहा है उल्टा,

अब 

स्त्री पुरुष दोनों कठोर हैं।

स्वार्थ जो द्विआयामी हो चुका है।

-0-


साथियों,

इन असमानताओं को संबोधित करने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें समान वेतन को बढ़ावा देने वाली नीतियों को लागू करना, सस्ती चाइल्डकैअर प्रदान करना आदि शामिल हैं। लेकिन, शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षित महिलाएँ पुरुषों के समान, और अधिक भी, आर्थिक और सामाजिक रूप से सक्षम हो सकती हैं।

 साहित्य में लैंगिक असमानता पर लेखन

जागरूकता को बढ़ावा देने और सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करने के लिए साहित्य में लैंगिक असमानता को निरंतर संबोधित किया जा रहा है। साहित्य सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने, हाशिए पर पड़ी आवाज़ों को उच्च करने और लैंगिक मुद्दों पर आलोचनात्मक चर्चाओं के लिए एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में कार्य कर सकता है। महिलाओं के अनुभवों और लैंगिक भेदभाव के परिणामों को प्रदर्शित करके, साहित्य, उनके प्रति केवल सहानुभूति ही नहीं बल्कि सही समझ को भी उत्पन्न कर सकता है। मार्गरेट एटवुड की "द हैंडमेड्स टेल" और ऐलिस वॉकर की "द कलर पर्पल" जैसी कृतियाँ लैंगिक उत्पीड़न के गहन प्रभावों को दर्शाती हैं।

इसी प्रकार चिमामांडा नगोजी अदिची का Essay and TED talk, "वी शुड ऑल बी फेमिनिस्ट", लैंगिक समानता पर महत्वपूर्ण कार्य हैं। साहित्य के माध्यम से लैंगिक असमानता को संबोधित करके, लेखक विभिन्न कार्रवाई को भी प्रेरित कर सकते हैं और अधिक न्यायसंगत समाज के लिए अपना योगदान दे सकते हैं। 

इस विषय पर लघुकथाएं

वरिष्ठ लघुकथाकार सुकेश साहनी जी  की लघुकथा 'तृष्णा' लैंगिक असमानता को दर्शाने में पूरी तरह सफल है, यह लघुकथा इस प्रकार है -

तृष्णा / सुकेश साहनी

पेड़ों से उड़कर आए सूखे पत्ते हल्की खड़खड़ाहट के साथ गलियारों में इधर-उधर सरक रहे थे। हादसे वाले दिन से रोहित को प्राइवेट वार्ड के गलियारे सांय-सांय करते मालूम देते थे और चारों ओर दिखाई देता था उकता देने वाला सन्नाटा---रिक्तता---शून्य---

उसकी नज़र लॉन की धूप में चटाई बिछाकर बैठी उस वृद्धा पर पड़ी, जिसकी गोद में एक खूबसूरत नवजात शिशु पड़ा सो रहा था। उसने बड़ी हसरत भरी नज़रों से उस गोल-मटोल बच्चे को देखा और धीरे-धीरे चलता हुआ उसके काफी नज़दीक आ गया। नज़दीक से बच्चे को देखते हुए उसे अपना बच्चा याद आ गया और उसकी आंखें भर आईं।

भइया, कौन से नम्बर के साथ हो? उसे अपने पास उदास मुद्रा में खड़े देख वृद्धा ने उससे पूछ लिया। तेरह नम्बर के साथ माँजी। ---कितनी अमूल्य देन है ईश्वर की---बुढ़िया की गोद में लेटी बच्ची को प्यार भरी नज़रों से देखते हुए उसने सोचा।

जच्चा बच्चा ठीक तो हैं?

जच्चा तो अब ठीक है पर--- बच्चा तो दो दिन बाद ही न जाने कैसे गुज़र गया था! कहते हुए उसकी आवाज़ भर्रा गई।

लड़का हुआ था कि लड़की? वृद्धा ने जल्दी से पूछा।

लड़का--- बुढ़िया की गोद में लेटा बच्चा नींद में मुस्कराया। रोहित को बच्चे के माँ-बाप से ईर्ष्या-सी हुई। काश ऐसा बच्चा उसकी गोद में भी---

च्च---च---च राम-राम! बहुत बुरा हुआ यह तो--- लड़का था, जभी तो रुका नहीं! अब देखो, मेरी बहू ने यह तीसरी लौंडिया जनी है!!--- दो क्या कम थीं बाप की छाती पर मूँग दलने के लिए--- भला बताओ--- इसकी क्या ज़रूरत थी ---यह तो न मरी ससुरी---

तभी बुढ़िया की गोद में लेटी बच्ची ने अँगड़ाई लेकर आँखें खोल दीं और बड़े ध्यान से टकटकी लगाकर वृद्धा की तरफ देखने लगी।

- सुकेश साहनी

******

एक और सशक्त लघुकथा प्रस्तुत है, 'मर्दानी' इसके लेखक हैं, श्री सुनील वर्मा।

मर्दानी / सुनील वर्मा

एक ही गर्भ में पल रही दो बच्चियों का पहला परिचय होने पर दोनों एक दूसरे की तरफ देखकर मुस्कुरायीं। पहली ने दूसरी से कहा "ओह, तो आप मेरी बहन हो।"

'हाँ, शायद भगवान ने हमें जुड़वाँ बनाया है।' दूसरी ने खुशी जताते हुए जवाब दिया।

'कहते हैं जब तक कोई नवजात अन्न नही खाता उसे पिछले जनम का सब कुछ याद रहता है। आपको कुछ याद है ?' पहली ने बात जारी रखने की गरज से आगे पूछा।

'हाँ, पिछले जनम में भी मैं एक लड़की ही थी और तुम?' दूसरी ने संक्षिप्त सा जवाब देकर प्रतिप्रश्न किया।

'मैं अपने पिछले जनम में एक लड़का थी। दिन भर बस मौज मस्ती होती थी। जिंदगी मजे से चल रही थी। एक दिन शराब के नशे में तेज रफ्तार से कार चलाते वक्त दुर्घटना हुई और अब लड़की का जनम लेकर तुम्हारे सामने हूँ।' पहली लड़की ने अफसोस जताते हुए कहा और दूसरी की तरफ देखते हुए पूछा 'और तुम, तुम कैसे मरी ?'

'मैं तो जन्म से पूर्व ही कोख में मार दी गयी थी। मरते वक्त भी मैंने ईश्वर से यही माँगा था कि 'भगवान अगले जनम में भी मुझे लड़की ही बनाना।'

'लड़की !! लड़की ही क्यूँ ?' पहली ने चौंकते हुए पूछा।

'क्यूँकि लड़कियाँ बहुत बहादुर होती हैं।' दूसरी ने गर्व जताते हुए कहा।

'लड़कियाँ कब से बहादुर होने लगी ?' पहली ने जवाब सुनकर हँसते हुए पूछा।

दूसरी लड़की उसे कोई जवाब देती उससे पहले ही उसने गर्भ में एक जानी पहचानी चुभन महसूस की। अपनी आरामगाह में धारदार हथियार के प्रवेश से दोनों लड़कियाँ सुन्न थी। पहली लड़की की आँखों में जहाँ डर नजर आ रहा था दूसरी ने शांत होकर अपना सिर गर्भ की दीवार पर टिका दिया। उसे यूँ शांत देखकर पहली ने हैरत से पूछा 'मौत हमारे सामने है, तुम्हें डर नही लग रहा ?'

दूसरी ने एक गहरी साँस ली और कहा 'नही, मैं तो पिछले जनम में भी लड़की ही थी...और लड़कियाँ तो बहादुर होती है न...'


-सुनील वर्मा, जयपुर

-0-


लैंगिक असमानता को दर्शाती इन रचनाओं से मेरा मानना है कि आपका हृदय ज़रूर द्रवित हुआ होगा। इस विषय पर "उचित" रचनाकर्म ज़रूर करें। हालांकि आप कर ही रहे होंगे।


सादर,

-चंद्रेश कुमार छ्तलानी