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शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं | भाग 12 | सड़क सुरक्षा

सम्मानीय रचनाकारों,

फिलवक्त इतना तो है ही कि बहुत सारे लघुकथाकारों को अपने लेखन के लिए अपने विचारों के कम्फर्ट ज़ोन से बाहर आने की ज़रूरत है। यदि लेखन वैश्विक मुद्दों पर होगा, तभी ही आपकी रचनाएं विदेशों में उनकी अपनी भाषाओं में अनुवाद होंगी और दुनिया भर के लोग पढ़ पाएंगे। यह एक सच है कि लोग वही पढ़ते हैं, जिसमें उनकी रूची होती है। यह श्रृंखला भी इसीलिए है कि हम सभी का अध्ययन विस्तृत हो और वैश्विक हो। किसी भी विषय पर सब कुछ बताना एक लेख में संभव नहीं होता। अतः इस श्रृंखला के लेखों को केवल जागरूकता के अनुसार ही मानिए, इनके आधार पर कोई रचना सूझती है तो यह मेरा भी सौभाग्य होगा, लेकिन यदि नहीं सूझती है और विषय आपको रुचिकर लगता है तो अध्ययन के लिए पूरा जहान है, जिसमें किताबें, इन्टरनेट, आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस जैसे टूल्स उपलब्ध हैं। चलिए इस लेख के विषय ‘सड़क सुरक्षा’ पर बात करते हैं। इस विषय के बारे में बताऊँ तो लगभग डेढ़ वर्ष पहले इस विषय पर लिखी लघुकथाओं पर मैंने अध्ययन प्रारम्भ किया था, इस ध्येय के साथ कि इस पर एक शोध पत्र लिखा जाए, हालाँकि पर्याप्त संख्या में रचनाएं नहीं मिलने के कारण वह शोध नहीं हो पाया। जो रचनाएं मुझे मिलीं, उनमें से कुछ को इस लेख में बताया है। 

सड़क सुरक्षा

सड़क सुरक्षा सबसे बड़ी वैश्विक चिंताओं में से एक है, जो हर साल लाखों लोगों के जीवन को प्रभावित करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, सड़क यातायात दुर्घटनाएँ 5-29 वर्ष की आयु के व्यक्तियों की मृत्यु का प्रमुख कारण हैं। 2023 में, वार्षिक वैश्विक सड़क दुर्घटनाएँ 1.3 मिलियन से अधिक हो गई हैं, जिसमें लाखों लोग चोटों से पीड़ित हैं और उनमें से कई लोग आजीवन विकलांगता का शिकार हो गए हैं।

इन मौतों का लगभग 93% भाग निम्न और मध्यम आय वाले देशों में है, हालाँकि उनके पास दुनिया के केवल 60% वाहन हैं। यह दुखद असमानता भी सड़क सुरक्षा को बढ़ाने के लिए व्यापक वैश्विक कार्रवाई की आवश्यकता को रेखांकित करती है। किसी शायर ने इन्हें ‘उम्र से लम्बी सड़कें’ कहा था लेकिन ये किसी मासूम की उम्र को क्यों कम कर देती हैं? गलती किसी की भी हो व्यक्ति की जान की कीमत किसी गलती के सुधर जाने से नहीं मिल सकती।

सड़क दुर्घटनाओं के कारण

सड़क दुर्घटनाओं के कारणों पर विचार करें तो, कई तरह की बातें दिमाग में आती हैं, जैसे यातायात संकेतों और सड़क चिह्नों को नहीं समझना और उनका पालन नहीं करना; 

सुरक्षित तरीके से प्रतिक्रिया न करना: अन्य सड़क उपयोगकर्ताओं का सम्मान न करना, रास्ता नहीं देना और आक्रामक ड्राइविंग में शामिल होना; सीट बेल्ट, हेलमेट और अन्य सुरक्षात्मक गियर का उपयोग नहीं करना; विभिन्न सड़कों और स्थितियों के लिए निर्धारित गति सीमा के भीतर ड्राइविंग नहीं करना; वाहन चलाते समय मोबाइल फोन का उपयोग करना; अन्य सड़क उपयोगकर्ताओं को स्पष्ट रूप से मुड़ने/रुकने आदि के संकेत नहीं देना आदि-आदि। इनमें से कुछ पर चर्चा करते हैं,

तेज़ गति: अत्यधिक गति सड़क दुर्घटनाओं में सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक है, जो दुर्घटनाओं की गंभीरता को बढ़ाती है। तेज़ गति से चलने वालों को उनके आगे यदि गति सीमा के भीतर कोई गाड़ी चला रहा हो तो वे लोग भी पसंद नहीं आते हैं, ओवरटेक करने के लिए हॉर्न बजा कर और यहाँ तक कि उनके ऊपर चिल्ला कर तेज़ गति से वाहन चलाने वाले न केवल आगे चलने वालों को परेशान करते हैं, बल्कि उनका यह गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार, जिसे मैं मानसिक रोग की संज्ञा देना चाहूँगा, कई दुर्घटनाओं का भी कारण बन जाता है। अध्ययनों से पता चलता है कि गति में हर 1% की वृद्धि के लिए, दुर्घटना का जोखिम लगभग 4-5% बढ़ जाता है। कई बार मैनें देखा है कि कोई-कोई दो पहिया वाहन ऐसे चलाते हैं जैसे किसी सर्कस के मौत के कुँए में हों या फिर कोई नागिन अपने नाग की हत्या का बदला लेने जा रही हो, अर्थात लहराते हुए। जीवन इतना भी सस्ता नहीं कि बाइक को नागिन में तब्दील कर दिया जाये।

शराब और मादक पदार्थों का सेवन: नशे में गाड़ी चलाना दुर्घटनाओं का एक प्रमुख कारण है। जन जागरूकता अभियानों के बावजूद, WHO की रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि वैश्विक सड़क यातायात मौतों में से लगभग 27% शराब से संबंधित हैं।

ध्यान कहीं और होना: ड्राइविंग के समय मोबाइल उपकरणों के उपयोग ने दुर्घटनाओं को बढ़ा दिया है। टेक्स्टिंग, बात करना सड़क से ध्यान भटकाता है, जिससे अचानक आने वाली बाधाओं को संबोधित करना मुश्किल हो जाता है।

असुरक्षित सड़कें व अपर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर: अपर्याप्त या असुरक्षित सड़क इंफ्रास्ट्रक्चर, विशेष रूप से विकासशील देशों में, सड़क दुर्घटनाओं में महत्वपूर्ण रूप से वृद्धि कर देता है। पैदल यात्री मार्गों की कमी, अपर्याप्त ट्रैफ़िक सिग्नल और खराब सड़क सभी सड़क उपयोगकर्ताओं के लिए जोखिम बढ़ाती है।

सुरक्षा उपकरणों का उपयोग न करना: सीटबेल्ट या हेलमेट ना पहनने के परिणामस्वरूप अधिक दुर्घटनाएं होती हैं। उचित सुरक्षा उपकरण गंभीर चोटों और मौतों को कम करते हैं, फिर भी कई ड्राइवर और यात्री इन सावधानियों की उपेक्षा करते हैं। इसी प्रकार मैनें यह भी नोट किया है कि चाहे दो पहिया वाहन हों या चार पहिया, इंडिकेटर देने की प्रवृत्ति कम होती जा रही है। 

वाहन सुरक्षा मानक: कई कारों में एयरबैग, एंटी-लॉक ब्रेकिंग सिस्टम और इलेक्ट्रॉनिक स्थिरता कण्ट्रोल जैसी ज़रूरी सुरक्षा सुविधाएँ नहीं होती हैं, जो दुर्घटना की गंभीरता को कम कर सकती हैं।

गलत तरीकों से मुड़ना व लेन बदलना: एक अन्य प्रवृत्ति देखी है जो बहुत ज़्यादा नुकसानदायक है, वो है - ओवरटेक करने के लिए अपनी लेन  से बिना पीछे देखे और बिना इंडिकेटर दिए दूसरी लेन में चले जाना या फिर आगे चल रहे वाहन को बार-बार हॉर्न देकर लेन से हटने को मजबूर करना, चाहे वह दूसरी लेन में जाने सक्षम हो अथवा नहीं। मित्रों, यदि आगे जाना ज़रूरी है फिर भी थोड़ा इंतज़ार ज़रूर करें, आपसे आगे चलने वालों की जिंदगी भी कीमती है। लेन छोड़ने से या अपने आगे वालों को ट्रैक छोड़ने पर मजबूर करने पर ईश्वर न करे, लेकिन नुकसान हो सकता है, धैर्य रखें।

सड़क क्रॉस करने में ट्रैफिक जाम कर देना: कितनी ही बार जब सड़क क्रॉस करनी हो तो वाहन चालक सीधे आने वाले वाहनों के कम होने का इंतज़ार किये बिना अपने वाहनों को धीरे-धीरे कर सड़क के बीच में ले आते हैं, ट्रैफिक को रोकते हैं और फिर आगे निकलने की कोशिश करते हैं। ट्रैफिक जाम होने के कई बड़े कारणों में से यह भी एक कारण है। सड़क क्रॉस करने में कितनी ही बार कई वाहन चालक, जल्दी के चक्कर में, बाएं की बजाय दायें से क्रॉस कर लेते हैं, जबकि सामने से दूसरा वाहन आ रहा होता है।

यू टर्न की बजाय वी टर्न: कुछ व्यक्ति होते हैं, जो यू टर्न की बजाय वी टर्न करते हैं, उन्हीं में कुछ ऐसे भी हैं जो वी टर्न करें न करें लेकिन वी एंट्री तो करते ही हैं। किसी घर से, दूकान से या कार्यालय आदि से निकल कर चलती हुई सड़क में घुस कर वे सीधे की बजाय तिरछे चलने लगते हैं। इन्हें लक्ष्यभेदी इसलिए कहा क्योंकि उन्हें सड़क के दूसरे कोने में जाना होता है, लेकिन सीधे की बजाय तिरछे क्रॉस करते हुए। शतरंज के खेल में हाथी यदि तिरछा चलने लग जाये तो क्या वह ऊंट बन जायगा? मित्रों, वह चाल ही गलत होती है और तब खिलाड़ी, खिलाड़ी नहीं अनाड़ी कहलाता है। खेलों में चाल गलत हो तो वो गलती स्वीकारणीय है, लेकिन सड़क पर चाल गलत हो तो वह एक बड़ी दुर्घटना में भी बदल सकती है।

प्रदूषण: कुछ संगीत प्रेमी महाशय तेज़ कर्कश ध्वनी के हॉर्न बार-बार बजा कर ध्वनी प्रदूषण इतना करते हैं जैसे वे सड़क पर नहीं बल्कि किसी डीजे पर अपनी ओर्केस्ट्रा की परफॉरमेंस दे रहे हों, तो कुछ वाहन, ख़ास तौर पर ऑटो और सिटी बस, इतना अधिक धुआँ छोड़ते हैं जिससे सड़क पर चलने वाले दूसरे यात्री इस धीमे ज़हर को सांसों के जरिये अपने शरीर में लेकर स्वयं को कई बीमारियों से ग्रसित कर देते हैं।

सड़क सुरक्षा में सुधार चर्चा

मेरे अनुसार सबसे ज़्यादा दो बातें ज़रूरी हैं,

पहली यह कि सड़क से संबंधित सभी नियमों का ईमानदारी से पालन किया जाए।

और

दूसरी यह कि सड़कों की टूट फूट की तुरंत मरम्मत करवाई जाये और जहाँ सड़कें नहीं हों वहां सड़कें बनाई जाएँ, सभी चौराहे केमरों की शिनाख्त में हों और सभी राज्यों में वाहनों गति सीमा तय की जाए। एक सच यह भी है कि आप और मैं सहित बहुत सारे लोग चंद अतिरिक्त रूपये देकर अपने ड्राइविंग लाइसेंस बड़े आराम से ‘खरीद’ सकते हैं। गाड़ी चलाने हेतु कई नियम नयी-पुरानी सरकारों ने तय किये हैं उनका पालन कीजिये, आपको बहुत लाभ होगा। कुछ अन्य बातों पर ध्यान देते हैं:

गति सीमा पर ध्यान देना: कम गति सीमा को लागू करना, विशेष रूप से घनी आबादी वाले क्षेत्रों में, दुर्घटना दर को काफी कम कर सकता है। कुछ देश गति को कम रखने के लिए स्पीड कैमरे और जुर्माने का उपयोग कर रहे हैं, जबकि अन्य "सुरक्षित प्रणाली" दृष्टिकोण अपना रहे हैं जो स्वाभाविक रूप से वाहनों की गति को कम करने के लिए सड़कों को पुनः डिज़ाइन करते हैं।

शिक्षा और जागरूकता अभियान: ड्राइवरों, विशेष रूप से युवा लोगों को सुरक्षित ड्राइविंग सिस्टम्स और खराब ड्राइविंग के खतरों के बारे में शिक्षित करना जोखिम को कम कर सकता है। WHO और स्थानीय सरकारों द्वारा चलाए जाने वाले जन जागरूकता अभियान सड़क सुरक्षा को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर: विशेष रूप से विकासशील देशों में सुरक्षित सड़कें बनाने से दुर्घटना दर कम हो सकती है। इसमें पैदल यात्री मार्ग डिजाइन करना, बाइक लेन जोड़ना, बेहतर रोशनी लगाना और सड़क की गुणवत्ता बनाए रखना शामिल है। इंफ्रास्ट्रक्चर को उन्नत करना उन देशों में प्रभावी साबित हुआ है जिन्होंने ऐसे उपाय अपनाए हैं।

सुरक्षा उपकरण कानूनों में सख्ती: सीटबेल्ट और हेलमेट के उपयोग को अनिवार्य करने वाले कानून, मृत्यु दर को काफी कम कर सकते हैं। इन कानूनों को लागू करने वाले देशों में, दुर्घटनाओं की संख्या में उल्लेखनीय कमी आई है। इसकी अनुपालना नहीं करने के दंड में वृद्धि, साथ ही जागरूकता अभियान, इसे सुनिश्चित करने में सहायक हो सकते हैं।

उन्नत वाहन सुरक्षा तकनीक: स्वचालित आपातकालीन ब्रेकिंग, लेन बदलने की चेतावनी और पैदल यात्री पहचान प्रणाली जैसी तकनीक को अपनाने से दुर्घटनाओं को रोकने में मदद मिल सकती है। कार निर्माताओं को इन सुविधाओं को वैकल्पिक के बजाय आवश्यक रूप से शामिल किया जाना चाहिए।

मुड़ने के तरीके का पालन करना: मुड़िए अवश्य लेकिन 100-50 मीटर पहले गाड़ी धीमी कर, आगे-पीछे-दायें-बाएं देखते हुए, इंडिकेटर या हाथ देकर और फिर उस साइड में जाकर। चौराहे पर ही नहीं वरन् जहाँ भी कोई मोड़ आता है गाड़ी धीमी करें और ज़रूरी हो तो रुक भी जाएँ, सड़क खाली मिले तब ही मोड़ें।


सड़क सुरक्षा पर साहित्य

कई लेखकों ने कथा और कथेतर दोनों ही प्रकार के साहित्य के माध्यम से सड़क सुरक्षा पर मूल्यवान अंतर्दृष्टि का योगदान दिया है। इनमें से एक उल्लेखनीय कार्य है टॉम वेंडरबिल्ट द्वारा द्वारा सृजित "ट्रैफ़िक: व्हाई वी ड्राइव द वे वी डू (और व्हाट इट सेज़ अबाउट अस)", जो 2008 में प्रकाशित हुआ था। वेंडरबिल्ट की यह पुस्तक ड्राइविंग के मनोविज्ञान पर गहराई से नज़र डालती है, इस बात की पड़ताल करती है कि लोग सड़क पर कुछ विशेष किन परिस्थितयों में और क्यों लेते हैं और उनके विचार-व्यवहार दुर्घटनाओं की संख्या और गंभीरता में कैसे योगदान करते हैं। 

एक और प्रभावशाली कृति है डोनाल्ड शूप द्वारा "द हाई कॉस्ट ऑफ़ फ्री पार्किंग", जो शहरी नियोजन और पार्किंग पर केंद्रित है, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से चर्चा करती है कि सड़क का इंफ्रास्ट्रक्चर, ट्रैफ़िक प्रवाह और सुरक्षा को कैसे प्रभावित करता है। शूप के काम ने दुनिया भर में शहर नियोजन नीतियों में बदलाव किए हैं ताकि सुरक्षित, अधिक कुशल सड़कों को बढ़ावा दिया जा सके। इस तरह के सृजन सड़क सुरक्षा पर नवीन दृष्टिकोण देते हैं, पाठकों को अंतर्दृष्टि और व्यावहारिक अनुप्रयोग दोनों प्रदान करते हैं।


सड़क सुरक्षा पर लघुकथाएं


सरकारी सिस्टम / मुकेश शर्मा

‘‘सरपंच साब! आज सुबह गांव की मेन रोड पर लगते चौंक पर हुई सड़क दुर्घटना में फिर दो लोग मारे गए । इस चौंक पर रोजाना एक्सीडेंट होते हैं, रोज लोग मरते हैं । सरकार कुछ करती क्यों नहीं?’’ रामदीन रिरियाया।


‘‘अबे मादर ......, कौन कहता है सरकार कुछ नहीं कर रही?’’ सरपंच ने आँखें तरेरी- ‘‘सुन! उस सड़क को चौड़ा करने के लिए हमारी ग्राम पंचायत ने प्रपोजल दिया था बी.डी.पी.ओ. को । बी.डी.पी.ओ. ने उसे भेज दिया डी.डी.पी.ओ. को । डी.डी.पी.ओ. ने उसे भेज दिया एस.डी. एम. को । एस.डी.एम. ने प्रपोजल भेज दिया डी.सी को । डी.सी. ने प्रपोजल भेज दिया मुख्यालय के विभाग डायरैक्टर को ।’’


‘‘फिर?’’ रामदीन चक्कर में पड़ गया।


‘‘फिर ........ डायरैक्टर ने लिख दिया कि सड़क का जो भाग चौड़ा करना है, उस भूमि का खसरा नम्बर तो प्रपोजल में लिखा ही नहीं है ।’’ सरपंच ने समझाया।


‘‘लेकिन सरपंच साब! जब तक ये फाइल मुख्यालय पहुंची होगी, तब तक तो पाँच,छह लोग रोड-एक्सीडेंट में मर लिये होंगे?’’


‘‘अबे फुद्दू, पाँच,छह नहीं, बल्कि इससे कही ज्यादा...’’


‘‘फिर?’’


‘फिर डायरैक्टर ने फाइल भेजी डी.सी. को, डी.सी. ने एस.डी.एम. को, एस.डी.एम ने डी.डी.पी.ओ को, डी.डी.पी.ओ. ने बी.डी.पी.ओ को ......’’


‘‘तो इसमें तो बीस-पच्चीस दिन लग गए होंगें?’’


‘‘अबे फद्दड़, इसमें बीस-पच्चीस दिन नहीं, चार महीने लगे हैं!’’


सरपंच ने बीड़ी सुलगा ली ।

‘‘फिर ..... ’’ सरपंच ने बीड़ी का सुट्टा लगाया- ‘‘बी.डी.पी.ओ ने लिख दिया कि पेज नंबर फलां पर जमीन का खसरा नंबर लिखा था, जनाब देख नहीं पाये होंगे, इसलिए पेज नं. एक पर दोबारा खसरा नंबर लिखकर भेजा जा रहा है ।’’


‘‘फिर ......... ।’’


‘‘फिर बी.डी.पी.ओ. ने फाइल भेजी डी.डी.पी.ओ. को, डी. डी.पी.ओ ने एस.डी.एम को, एस.डी.एम ने डी.सी को, डी.सी ने डायरैक्टर को .....’’


‘‘तो फिर चार महीने इसमें लग गए होंगे?’’


‘‘अबे बावली बूच, चार नहीं,छह महीने लग गए।’’


‘‘लेकिन शुक्र है, फाइल तो निकली....’’


‘‘फाइल नहीं निकली.....’’ सरपंच नाक साफ करने लगा-‘‘ उस पर डायरैक्टर ने लिख दिया कि जिस सड़क को चौड़ा किया जाना है, उससे सम्बन्धित जमीन के बाज़ार भाव से अवगत करवाया जाए..’’


‘‘लेकिन तब तक तो मौतों की संख्या .....’’


‘‘ फिर फाइल आई डी.सी. को, डी.सी. से एस.डी.एम. को, एस.डी.एम से डी.डी.पी.ओ को, डी.डी.पी.ओ. से बी.डी.पी.ओ को ......’’


‘‘लेकिन काम ......’’


‘‘अबे आडू! ये मत कह कि काम नहीं हो रहा । काम तो हो ही रहा है ना? फिर ...?’’


‘‘हां, काम तो हो ही रहा है!’’ रामदीन चकरा गया।


‘‘अबे भांड! यही तो समझा रहा हूँ तुझे । फिर बी.डी.पी.ओ. ने जवाब लिखा... फिर फाइल भेजी डी.डी.पी.ओ. को, डी.डी.पी.ओ ने फाइल भेजी ........’’ सरपंच ने दूसरी बीड़ी सुलगा ली और रामदीन को समझाने लगा ।

-0-

- मुकेश शर्मा


2)

तमाशबीन / रोहिताश्व शर्मा

तेज ब्रेक लगने से गाडी के टायरों की रगड़ की तीखी आवाज करती हुई कार ने मोटर साइकिल को टक्कर मार दी। मोटर साइकिल सवार नौजवान गिर गया था। कुछ लोग अपने वाहन रोक कर एक्सीडेंट के स्थान की ओर दौड़ पड़े। कुछ ने बाहें चढ़ा ली और कार का दरवाजा खुलवाने के लिए कार पर मारने लगे। कार ड्राईवर अंदर से हाथ जोड़ रहा था। मोटर साइकिल से गिरा युवक धीरे से अपने आप खड़ा हुआ। हल्का लंगड़ाता हुआ वह कार के पास पहुँचा। कार ड्राईवर हाथ जोड़कर बोला

"भाईसाहब गलती हो गई माफ़ कर दीजिये।"

बाँह चढ़ाये युवकों ने मोटर साइकिल सवार को जोश दिलाते हुए कहा 

"बातों में आने की जरूरत नहीं है। खबर लीजिये इस कार वाले की। हम आपके साथ हैं। सड़क चलता आदमी इनको दिखाई नहीं देता।"

उनको रोकते हुए युवक बोला "भाई साहब रुकिए। गलती मेरी है मैं बिना इंडिकेटर दिए एकदम से मुड़ गया। इन भाईसाहब ने तो प्रयास कर गाडी पर पूरे ब्रेक लगाये नहीं तो बड़ी दुर्घटना हो सकती थी।" 

नौजवान की बात सुन बाँहे चढ़ाये लोग उस पर नाराज़ होते हुए अपने वाहनों की तरफ वापस मुड़ गए। कुछ लोग अब भी दुर्घटना स्थल की ओर आ रहे थे। उन्हें रोकते हुए उन्होंने कहा

"अरे कहाँ भागे जा रहे हो? कोई फायदा नहीं है वहाँ जाने का। समझदार लोगों का एक्सीडेंट है, एकदम नीरस'

-0-

- रोहिताश्व शर्मा

3)

आखिर सिर है आपका / डॉ कुमारसम्भव जोशी

रतनलाल का बेटा हॉस्पिटल में भर्ती था। पड़ोसी होने के नाते महेश मिलने पहुँचा।

“यह सब कैसे हो गया?” आईसीयू के बाहर बैठे रतनलाल से उसने पूछा।

“ये सरकार निकम्मी है। टैक्स तो हलक में हाथ डालकर खींच लेती है, मगर मूलभूत सुविधाएं भी सही नहीं देती।“ पास बैठे मंगल ने जवाब दिया।

“मैं तो कहता हूँ एक बार बच्चा सकुशल घर आ जाए, फिर कलेक्ट्रेट के सामने धरना देते हैं। सरकार को मुआवजा देना ही पड़ेगा।“ किसी तीसरे ने कहा।

“मगर हुआ क्या था? एक्सीडेंट हुआ कैसे?” महेश ने पुनः पूछा।

“वो चारभुजा वाली रोड है ना, पिछले साल ही बनी थी और इसी बारिश में उसमें गड्ढे पड़ गए।“ रतनलाल ने बताना शुरू किया।

“हम्म...” महेश ने सिर हिलाया।

“अपना पिन्टू बाईक से जा रहा था। अचानक एक गड्ढे में पहिया गया और बाइक स्लिप हो गई। गिरने से सिर में चोट आई है।“ उसने बताया।

“पिन्टू ने हेलमेट नहीं पहना था क्या?” महेश के मुँह से निकला।

“कमाल करते हो भाई! हेलमेट पहने होने से सड़क के गड्ढे भर जाते या बाइक टूटी सड़क पर भी स्लिप नहीं होती?” मंगल ने उपेक्षा और हिकारत भरी निगाह से महेश को देखा।

“ऐसा तो नहीं होता, मगर हेलमेट पहने होने से शायद सिर पर चोट न लगती।“ महेश बोला।

“मैं मानता हूँ कि सुरक्षित सड़क देना सरकार की जिम्मेदारी थी। पूरा मटेरियल डालकर अच्छी सड़क बनाना ठेकेदार की जिम्मेदारी थी। लेकिन हेलमेट पहनकर सड़क सुरक्षा नियमों का पालन हमारी भी तो जिम्मेदारी थी। हम केवल सरकारों को दोष दे रहे हैं। निस्संदेह सरकार की ग़लती है लेकिन अफसोस है कि हमने भी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई।“ महेश सकुचाते हुए बोला।

एक पल के लिए वहाँ खामोशी छा गई।

“हालांकि यह वक्त सही नहीं था कहने का, मगर महेश भाई ने बात तो सही की है।“ मंगल ने उस खामोशी को तोड़ते हुए कहा।

सभी के चेहरे पर सहमति के रूप में मौन पसर चुका था।

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- डॉ कुमारसम्भव जोशी


एक अन्य बेहतरीन रचना पढ़िए, अंतिम एक पंक्ति में कितना कुछ कह दिया गया है,


दो चार किलोमीटर / संतोष सूपेकर 

“राजीव बेटा जा रहे हो तो हेलमेट लगाकर जाओ। “ 


“क्या चाचीजी ,आप भी बिल्कुल मम्मी जैसा बोलती हैं!!”

हड़बड़ी में बाइक की किक मारता राजीव कुछ रोष से बोला, “अभी आता हूँ। यहीं पास में तो जा रहा हूँ दो- ढाई किलोमीटर !!”


“बेटा,” कोई अनहोनी याद कर चाचीजी का स्वर धीमा और उदास हो गया,

“भगवान सब अच्छा करे। लेकिन हेलमेट न लगा कर जाने वाले भी ऐसे ही दो- चार किलोमीटर दूर गए होते हैं और फिर अक्सर बहुत दूर चले जाते हैं।“

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- संतोष सूपेकर


संतोष सूपेकर जी ही की इस विषय पर कुछ अन्य रचनाएं पढ़िए,






निष्कर्ष:

कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि, जैसे-जैसे वैश्विक सड़क यातायात बढ़ता जा रहा है, सड़क सुरक्षा एक महत्वपूर्ण चिंता बनी हुई है जिसके लिए तत्काल, समन्वित कार्रवाई की आवश्यकता है। सड़क दुर्घटनाओं के मूल कारणों को समझकर और प्रभावी समाधान लागू करके, जैसे कि बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर, कानूनों का बेहतर तरीके से इम्प्लीमेंटेशन, और शैक्षिक अभियान द्वारा मृत्यु और चोटों को कम किया जा सकता है। सड़क सुरक्षा केवल एक सरकारी जिम्मेदारी नहीं है; यह एक सामूहिक सामाजिक और व्यक्तिगत कर्तव्य है। हम सभी को सुरक्षित ड्राइविंग तरीकों को बढ़ावा देने और हर सड़क उपयोगकर्ता की सुरक्षा सुनिश्चित करने में भूमिका निभानी है। निरंतर जागरूकता, नवाचार और उत्तरदायित्व के माध्यम से, हम एक ऐसे भविष्य की कल्पना कर सकते हैं जहाँ सड़क यातायात की मौतें और चोटें काफी हद तक कम हो जाएँगी।

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- चंद्रेश कुमार छ्तलानी 


बुधवार, 13 नवंबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 11 । संतोष सुपेकर की लघुकथाओं के बहाने वैश्विक मुद्दों पर सृजन चर्चा

आदरणीय स्वजन,

हमारी दुनिया वैश्विक चुनौतियों से लगातार प्रभावित रही है। चाहे जलवायु परिवर्तन हो, सामाजिक न्याय, आर्थिक असमानता हो स्वास्थ्य सम्बन्धी मुद्दे हों, कितनी ही बातें विश्व में फैली हुई हैं, जिन्हें संबोधित करने का प्रयास चल रहा है। ऐसी स्थिति में साहित्य का दायित्व हो जाता है कि उन मुद्दों पर रचनाकर्म को स्थान दे और समाज के हित पर विचार-विमर्श करने को उचित मंच भी प्रदान करे। इस आलेख में श्री संतोष सुपेकर की रचनाओं के माध्यम से वैश्विक लघुकथाओं पर चर्चा की गई है।

कहना न होगा, लघुकथाएँ, विशेष रूप से, वैश्विक मुद्दों पर चर्चा हेतु शक्तिशाली साधन हो सकती हैं, जो पाठकों को जटिल चुनौतियों पर एक संक्षिप्त किन्तु प्रभावशाली दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। लघुकथाओं में वैश्विक मुद्दों पर लिखना न केवल जागरूकता लाता है बल्कि पाठकों को चिंतन और उनके प्रति कार्य करने के लिए भी प्रोत्साहित किया जा सकता है। अपरिचित दृष्टिकोणों को उजागर कर जागरूकता उत्पन्न करने, अपने पात्रों की आँखों से किसी वैश्विक मुद्दे के परिणामों का अनुभव कर सत्य से गहरे स्तर पर जुड़ने, जटिल मुद्दों को शक्तिशाली तरीके से संबोधित करने, बदलाव के बीज बोने के लिए लघुकथा उत्तम माध्यम है।

वैश्विक मुद्दों पर सृजन

वैश्विक मुद्दों पर सृजन हेतु सबसे पहले किसी ऐसे मुद्दे पर अध्ययन कर सकते हैं जो हमें व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करता हो, चाहे वह जलवायु परिवर्तन हो, गरीबी हो, मानसिक स्वास्थ्य हो, नस्ल भेद हो या लैंगिक समानता हो। जिस विषय की आप परवाह करते हैं, उस पर लेखन आपकी रचना में प्रामाणिकता भर देगा। रचनाओं में ऐसे पात्र बनाएं, जो आपके मुद्दे का प्रतिनिधित्व कर सकें। उचित पात्र पाठक और वैश्विक समस्या के बीच की खाई को पाटते हैं। 

मेरे अनुसार पाठकों को लघुकथाएँ अक्सर तब सबसे अच्छी लगती हैं जब वे सूक्ष्मतम को उजागर करें। प्रतीकों/रूपकों का उपयोग कर जटिल मुद्दों को आसानी से प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रभावी लघुकथा में व्याख्यान/उपदेश देने के बजाय अपनी बात को किसी विशेष और प्रभावी तरीके से दिखाया जाए तो बेहतर। पाठक स्वयं उनके निष्कर्ष निकालें। स्पष्ट कथनों के बजाय घटनाओं, संवाद और पात्रों के माध्यम से वैश्विक मुद्दे को प्रस्तुत करें।

वैश्विक मुद्दे स्वाभाविक रूप से भावनात्मक रूप से समुदायों से जुड़े होते हैं, और अपनी रचनाओं में भावनाओं को शामिल करना - जैसे कि डर, आशा, निराशा आदि से पात्रों, संवादों व नरेशन द्वारा पाठकों को जोड़ा जा सकता है। कोशिश करें कि छोटी लेकिन विशिष्ट घटनाओं द्वारा वैश्विक मुद्दों के बारे में कहा जाए। ये पल एक ऐसा स्नैपशॉट पेश करते हैं जो अक्सर व्यापक चित्रण से ज़्यादा मार्मिक होता है। समुदायों को प्रभावित करने वाले वैश्विक मुद्दों के बारे में लिखते समय, विषय को सम्मानपूर्वक और जिज्ञासा के साथ समझना ज़रूरी है। रूढ़िवादिता या ग़लतफ़हमी से बचने के लिए मुद्दे पर गहन शोध भी करें। प्रामाणिकता और सम्मान एक ऐसी कुंजी है जो ना केवल यथार्थ को उजागर करती है बल्कि पाठकों को प्रभावित भी करती है।

लघुकथाएं पाठकों को ऐसे व्यक्तियों और घटनाओं से जोड़ सकती हैं, जिनका सामना उन्होंने अपने दैनिक जीवन में कभी नहीं किया होगा। लेखकों के रूप में, ऐसा सृजन एक अवसर है जो समाज को शिक्षित और प्रेरित कर सकता है। लेकिन, यह भी सच है कि, इसका प्रभाव तभी स्थायी रह सकता है - जब रचनाकर्म का उद्देश्य, सत्य की गहराई और ईमानदारी से भरा हो।

संतोष सुपेकर जी की वैश्विक मुद्दों पर लघुकथाएं 

वरिष्ठ लघुकथाकार एवं कवि संतोष सुपेकर जी लघुकथा के अतिरिक्त पत्रकारिता एवं जनसंचार क्षेत्र में सुपरिचित नाम हैं। लघुकथा में उनके विशिष्ट कार्यों में भारत सरकार को लगातार पत्र भेजकर लघुकथा को शैक्षणिक पाठ्यक्रम में लागू करने के लिए निवेदन करना सम्मिलित हैं। ‘साथ चलते हुए’, ‘हाशिए का आदमी’, ‘बंद आँखों का समाज’, 'सातवे पन्ने की खबर' ‘हँसी की चीखें’, 'Selected Laghukathas of Santosh Supekar', 'अपकेन्द्रीय बल' आदि उनके प्रमुख लघुकथा संग्रह हैं। लघुकथा विधा पर विभिन्न विद्वानों से चर्चा और समीक्षा कार्य भी उन्होंने कई बार किया है। हाल ही में आई उनकी पुस्तक 'अन्वीक्षण' उनके द्वारा किये गए समीक्षा कार्यों, आलेखों व पत्रों का संग्रह है, जो कि शोध कार्य हेतु अति उपयुक्त है। उनके लघुकथा संग्रह 'सातवे पन्ने की खबर' को साहित्य अकादमी भोपाल के द्वारा प्रादेशिक 'जैनेन्द्र कुमार जैन लघुकथा' पुरस्कार (2020) प्राप्त हुआ है। सरल काव्यांजलि संस्था के माध्यम से भी वे लघुकथा विधा के उत्थान हेतु प्रयासरत हैं। उज्जैन के लोकप्रिय हिन्दी दैनिक 'जन टाइम्स' में बतौर साहित्य सम्पादक, समकालीन लघुकथाकारों की लघुकथाएं प्रकाशित कर रहे हैं। उनकी पुस्तक 'उत्कंठा के चलते' लघुकथा विषयक साक्षात्कारों का संकलन है। उनके लघुकथा संग्रह 'अपकेन्द्रीय बल' के लिए आदरणीय योगराज जी लिखते हैं कि,"इस संग्रह से गुजरते हुए मैंने पाया कि संतोष सुपेकर की लघुकथाएँ हमारे जीवन की विसंगतियों का बहुत ही बारीकी से अन्वेषण करती हैं। यथार्थ से सजी इन लघुकथाओं में जीवन की श्वेत श्याम फोटोग्राफी है।"

उनकी कुछ ऐसी रचनाओं पर चर्चा करते हैं, जो कि वैश्विक मुद्दों को उजागर करती हैं।

श्री सुपेकर की रचना ‘ग्लोबल फिनॉमिना’ में श्री सुपेकर ने क्षेत्रवाद पर पडौस से लेकर पूरी दुनिया के व्यवहार को बताया है। रूस और क्रीमिया के मिलने से अमेरिका की और एक बड़ा प्लॉट खरीदने पर पडौस की महिला का बदला रूप ग्लोबल फिनॉमिना है। सूक्ष्मतम को उजागर करती यह रचना लघुकथा एक वैश्विक मुद्दे को इस तरह बता रही है जिससे हर तरह के पाठक जुड़ सकते हैं।

उनकी ही एक अन्य लघुकथा 'भयावह चिंता' में टेलीविज़न पर दृश्य के माध्यम से एक बच्चे को बचाने के लिए पिता सरहद की टूटी हुई बाड़ में से अपने बच्चे को दूसरे देश की सरहद में रख रहा था। लेखक द्वारा बिना कुछ कहे यह समझ में आ रहा है कि जिस देश में रह रहे हैं, वहां मार-काट होने के कारण इन लोगों को जान का खतरा है और बच्चा परेशानियां देखेगा तो सही, लेकिन कम से कम जान तो बची रहेगी, यह विचार पिता के दिमाग में है। केवल यही बात ही शान्ति का महत्व दर्शा रही है। कही भी कृत्रिमता का अनुभव हुए बिना भावनाओं को स्वाभाविक रूप से उजागर कर यह रचना श्री सुपेकर की काव्य प्रतिभा को भी गद्य से जोड़कर एक प्रयोग भी दर्शा रही है। बहुत व्यापक तौर की बजाय यह संक्षिप्त चित्रण अपेक्षाकृत अधिक मार्मिक प्रतीत होता है। यह भी प्रतीत होता है कि जैसे यह लेखक की स्वयं की पीड़ा हो। यह सत्य है कि दूसरो के दर्द को आत्मपीडा बना पाना ही सभी का हित सोच पाने वाले लेखक की संवेदनशीलता होती है।

'सभ्यताओं, सुनो' शीर्षक की लघुकथा में दो मित्रों की बातचीत में हथियार से बचाव के लिए हथियार के अपने पास होने की मानसिकता का सटीक वर्णन किया गया है। इस लघुकथा के लिए लेखक ने काफी रिसर्च की है और यह रिसर्च किसी भी लघुकथा के लिए करनी आवश्यक है भी। बुलेटप्रूफ जेकेट हमारी पूरी तरह सुरक्षा नहीं कर सकता है, यह बात भी बताती है कि हमारा समझदार मस्तिष्क वैश्विक स्तर पर किस दिशा में विचार रखता है। यदि हम बचाव का सोचते तो किसी न किसी ऐसी वास्तु का आविष्कार हो चुका होता, जो हमारे पूरे शरीर को सुरक्षा दे सकता। पात्र जब यह कहते हैं कि हम में से अधिकतर के अन्दर हत्यारा छिपा है तो एक सिहरन सी उठ जाती है। अंत में लेखक जोन्स मेकेस की रचना द्वारा यह समझाते हैं कि क्यों ना साहित्यकारों की बातें सुनी व समझी जाए!

इसी क्रम में उनकी एक रचना खामोश पढ़िए, 

खामोश !

"बेटा, तुम वैज्ञानिक तो बनना चाहते हो।" पीटीएम (शिक्षक-पालक बैठक) में उस नए शिक्षक ने एक साधारण से लड़के से कुछ व्यंग्य से पूछा, "पर ये तो सोचा होगा कि बनाओगे क्या, अविष्कार किस चीज़ का करोगे?"

"मैं, मैं.. वह इंस्ट्रूमेंट बनाना चाहता हूँ अपनी माता की ओर देखते, गोलीबारी में मारे गए व्यक्ति के दस वर्षीय पुत्र का जवाब था, "कि... कि "खामोश' कहते ही,  दुनिया 

 भर की  बन्दूकें, तोपें, रिवॉल्वर सब, सहम कर हो जाएँ, खामोश!"

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इस रचना में भी जब एक बच्चा यह कहता है कि दुनिया भर के हथियार खामोश हो जाएं, तो यह बात एक सकारात्मकता पैदा करती है। भविष्य की पीढ़ी जब ऐसी रचनाएं पढ़ेगी तो निःसंदेह ही भविष्य हमारी सोच से अधिक उज्जवल हो सकेगा। 

शांति जीवन है और कलह अजीवन। इसे मौत नहीं कह सकते, लेकिन जिस तरह प्रकृति अपने शांत रूप में ही सुंदर दिखाई देती है और बिगड़ने पर विध्वंसक, वैसे ही इंसानी स्वभाव भी है। अतः इसे मैंने 'अजीवन' कहा, जैसे प्रकृति की मृत्यु विध्वंस से नहीं होती, कलह से मानव की मृत्यु नहीं होती, लेकिन मानवीयता की तो होती ही है।

एक अन्य रचना भी पढ़िए,

भयतंत्र में एक शाम 

‘अरे!’ पैंतालीस वर्षीय सागर ने पत्नी को आते  हुए देखा तो पूछ बैठा, ‘अकेली  ही आ गई! मुझे फोन कर दिया होता, लेने आ जाता, सुनसान रास्ता था…’

‘लगाया था आपका फोन, पर लगा ही नहीं। फिर सोचा निकल ही चलूँ, और आ गई, बस्स!’

‘अरे पर…  रास्ता कितना सुनसान है और रात भी होने वाली है। तुम्हें डर नहीं लगा?’

‘डर? हां, डर तो था, बल्कि बहुत से डर ‘थे’। सुनसान रास्ते पर लुटेरों का डर,  छेड़छाड़ का डर, इज्जत का डर, आवारा कुत्तों का डर, विक्षिप्तों का डर, व्हीकल से कुचले जाने का डर, चैन स्नेचर्स का डर, मोबाइल छिन जाने का डर…’ जैसे-जैसे वह बोलती गई उसकी मुस्कान तीखी होती गई और अपने अंदर एक सिहरन-सी  महसूस करता गया सागर, ‘अकेली कहां थी मैं? इतने सारे डर जो थे मेरे साथ!

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यह रचना भी उन भयों को उजागर करती है, जो कामोबेश सभी देशों में व्याप्त हैं। यह रचना मानवीय समाज और जानवरों के बीच यह अंतर भी बिना कहे बताती है कि, जानवर रात को आराम से घूम सकते हैं लेकिन इंसान नहीं और विशेष तौर पर तो महिला तो बिलकुल नहीं। यह (अपराध) एक ऐसा वैश्विक मुद्दा है जिस पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है।

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जिन अन्य रचनाओं पर चर्चा की है, वे प्रस्तुत हैं:






कुल मिलाकर, यह कहने में कतई अतिशयोक्ति नहीं है कि, संतोष सुपेकर जी और उनकी तरह ही लिखने वालों ने विषय को समझने में जो अध्ययन किया है और जिस कलात्मकता और भावात्मकता का अपनी रचनाओं में परिचय दिया है, वह निःसंदेह सराहनीय है, पठनीय है और हमारी धरती और उस पर बसे हम सभी के लिए उपयुक्त एवं उपयोगी भी।
- चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 10 नवंबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 10 । साइबर सुरक्षा पर सृजन

आदरणीय मित्रों,

साइबर सुरक्षा एक महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दा बनकर उभरा हुआ है, जो सरकारों, व्यवसायों और व्यक्तियों को समान रूप से प्रभावित कर रहा है। अर्थव्यवस्थाओं और समाजों के बढ़ते डिजिटलीकरण के साथ, साइबर खतरों से जुड़े जोखिम बढ़ गए हैं। हैकिंग, फ़िशिंग, रैनसमवेयर और डेटा चोरी सहित साइबर हमले, संवेदनशील जानकारियों, वित्तीय प्रणालियों आदि को निशाना बनाते हैं। ये हमले न केवल महत्वपूर्ण वित्तीय नुकसान का कारण बनते हैं, बल्कि डिजिटल प्लेटफॉर्म और सेवाओं में विश्वास को भी कम करते हैं। उदाहरण के लिए, 2017 में कुख्यात WannaCry रैनसमवेयर हमले ने दुनिया भर में अस्पताल के संचालन को बाधित कर दिया। कनेक्टेड डिवाइस के उदय, जिसे इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स (IoT) के रूप में जाना जाता है, ने साइबर अपराधियों के लिए हमले की सतह का विस्तार किया है, जिससे ऊर्जा, परिवहन और स्वास्थ्य सेवा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र अधिक असुरक्षित हो गए हैं। साइबर सुरक्षा जैसे संवेदनशील मुद्दों को संबोधित करने के लिए समन्वित अन्तरराष्ट्रीय प्रयासों, तकनीकी नवाचारों, और गोपनीयता की सुरक्षा के लिए व्यापक नीतियों की आवश्यकता है। कुछ मामलों में, साइबर हमले राष्ट्रीय सुरक्षा तक को भी खतरे में डाल सकते हैं, सार्वजनिक सेवाओं को बाधित कर सकते हैं और यहां तक कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी कमजोर कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों में साइबर हमलों के माध्यम से चुनाव में हस्तक्षेप ने लोकतांत्रिक संस्थाओं की अखंडता के बारे में चिंताएँ बढ़ा दी हैं। विकासशील राष्ट्र, जिनमें अक्सर मजबूत साइबर सुरक्षा सम्बन्धी संसाधानोम की कमी होती है, इन हमलों के लिए विशेष रूप से असुरक्षित हैं। साथ ही, दुनिया भर के व्यवसाय साइबर खतरों की बदलती प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। COVID-19 महामारी के दौरान वैश्विक कार्यबल के दूरस्थ कार्य में बदलाव ने इन जोखिमों को और बढ़ा दिया है, व्यक्तिगत और कॉर्पोरेट सिस्टम पर साइबर हमलों में वृद्धि के साथ। सरकारों, निगमों और व्यक्तियों को साइबर खतरों के जोखिमों को कम करने के लिए एन्क्रिप्शन, मल्टी-फैक्टर प्रमाणीकरण और नियमित सॉफ़्टवेयर अपडेट सहित मजबूत सुरक्षा उपाय अपनाने चाहिए।

वैश्विक साइबर सुरक्षा परिदृश्य साइबर हमलों में अभूतपूर्व वृद्धि देख रहा है। साइबरसिक्यूरिटी वेंचर्स के अनुसार, साइबर अपराध से दुनिया को 2025 तक सालाना 10.5 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान होने का अनुमान है, जो 2015 में 3 ट्रिलियन डॉलर था, जो इसे वैश्विक स्तर पर सबसे बड़ी आर्थिक चुनौतियों में से एक बनाता है। विश्व आर्थिक मंच के 2023 वैश्विक साइबर सुरक्षा आउटलुक की रिपोर्ट के अनुसार, साइबर सुरक्षा के 95% मुद्दे मानवीय भूल के कारण हो सकते हैं, जो बेहतर साइबर सुरक्षा प्रशिक्षण और जागरूकता की आवश्यकता पर बल देता है। IBM सुरक्षा द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 2023 में डेटा उल्लंघन की औसत लागत $4.45 मिलियन थी, जिसमें स्वास्थ्य सेवा सबसे अधिक लक्षित उद्योग था। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और ब्लॉकचेन जैसी उभरती हुई प्रौद्योगिकियाँ साइबर सुरक्षा को बढ़ाने के नए तरीके प्रदान करती हैं, लेकिन वे परिष्कृत साइबर अपराधियों के लिए उपकरण भी बन रही हैं। जैसे-जैसे साइबर खतरे विकसित होते हैं, राष्ट्र साइबर सुरक्षा ढाँचों में भारी निवेश कर रहे हैं; हालाँकि, एक महत्वपूर्ण कौशल अंतर बना हुआ है, 2023 में वैश्विक स्तर पर अनुमानित 3.4 मिलियन साइबर सुरक्षा नौकरियाँ खाली हैं।

साइबर सुरक्षा पर कुछ प्रख्यात गणमान्य व्यक्तियों के उद्धरण निम्नानुसार हैं:

नरेंद्र मोदी – "साइबर सुरक्षा अर्थव्यवस्था, हमारे नागरिकों की सुरक्षा और हमारी संप्रभुता की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।"

बराक ओबामा – "साइबर खतरे संयुक्त राज्य अमेरिका के सामने सबसे गंभीर राष्ट्रीय सुरक्षा खतरों में से एक हैं।"

एंटोनियो गुटेरेस (संयुक्त राष्ट्र महासचिव) – "साइबर सुरक्षा न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार, विकास और शांति का भी प्रश्न है।"

थेरेसा मे – "वैश्विक अर्थव्यवस्था और समाज को साइबर हमलों से बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय भागीदारों के साथ काम करना जारी रखेगा।"

बिल गेट्स – "प्रौद्योगिकी की उन्नति को आप नोटिस करें न करें, यह आपकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है। और, साइबर सुरक्षा सभी देशों के लिए एक सक्रिय और लगातार विकसित होती प्राथमिकता होनी चाहिए।"

एंजेला मर्केल – "हमें इस तथ्य का सामना करना होगा कि साइबर खतरे वास्तविक जिंदगी को प्रभावित करते हैं - व्यक्तियों से लेकर सरकारों तक। सामूहिक कार्रवाई ही आगे बढ़ने का रास्ता है।"

इन्हें समझा जाए तो ये उद्धरण वैश्विक परिप्रेक्ष्य में साइबर सुरक्षा के महत्व पर प्रकाश डालते हैं तथा सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और व्यक्तिगत अधिकारों के लिए इसकी प्रासंगिकता पर बल देते हैं।

साइबर सुरक्षा पर साहित्य

साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में कई मौलिक कार्य उभरते खतरे के परिदृश्य और शमन के लिए रणनीतियों में गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। "साइबर सुरक्षा और साइबर युद्ध: हर किसी को क्या जानना चाहिए" पी.डब्ल्यू. सिंगर और एलन फ्राइडमैन द्वारा लिखित पुस्तक साइबर खतरों की जटिल दुनिया और साइबर हमलों के वैश्विक प्रभावों के लिए एक सुलभ लेकिन व्यापक मार्गदर्शिका है। केविन मिटनिक द्वारा लिखित "द आर्ट ऑफ़ इनविज़िबिलिटी" एक और महत्वपूर्ण कार्य है, जो डिजिटल युग में गोपनीयता बनाए रखने और साइबर खतरों से खुद को बचाने के बारे में व्यावहारिक सलाह प्रदान करता है। रॉन डीबर्ट द्वारा लिखित "ब्लैक कोड: इनसाइड द बैटल फ़ॉर साइबरस्पेस" साइबर जासूसी के वैश्विक प्रभाव और सरकारें और निगम सूचना को नियंत्रित करने के लिए इंटरनेट का उपयोग कैसे करते हैं, इस पर चर्चा करता है। रॉस एंडरसन द्वारा लिखित "सिक्योरिटी इंजीनियरिंग: ए गाइड टू बिल्डिंग डिपेंडेबल डिस्ट्रिब्यूटेड सिस्टम्स" एक और प्रभावशाली पुस्तक है जो सुरक्षा इंजीनियरिंग और सुरक्षित प्रणालियों के डिज़ाइन में गहराई से उतरती है। ये कार्य न केवल साइबर सुरक्षा पर अकादमिक चर्चा में योगदान करते हैं बल्कि आज की परस्पर जुड़ी दुनिया में साइबर खतरों से निपटने के लिए व्यावहारिक समाधान भी प्रदान करते हैं।

साइबर सुरक्षा पर लघुकथाएं

इस विषय पर हिंदी लघुकथाएं तलाश करने में बहुत वक्त लगा। आदरणीया अंजू निगम जी का मैं दिल से बहुत शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने इस विषय में रचनाकर्म किया और करते ही मुझे रचना भेज दी। लघुकथा विधा के समुदाय में भामाशाह की तरह कोई व्यक्ति अपनी पूँजी  (अप्रकाशित लघुकथा) यूं ही विधा को समृद्ध करने के लिए खर्च कर दे तो उनके प्रति विधा को भी कृतज्ञ रहना चाहिए। एक अंग्रेज़ी लघुकथा मुझे इन्टरनेट पर प्राप्त हुई है, ब्रूस स्टर्लिंग  नाम लेखक की 'द क्लिक', लेकिन मैं इन लेखक की रचनाओं से बहुत अधिक वाकिफ नहीं हूँ, अतः यह रचनाकर्म इन्हीं का है अथवा नहीं, इसकी पुष्टि नहीं करता। मुझे जैसे प्राप्त हुई, वैसे ही उसका हिंदी अनुवाद कर यहाँ पोस्ट की है। अपनी कोई रचना मैं इस श्रृंखला के लेखों में नहीं देना चाह रहा था, लेकिन चूँकि अन्य रचनाएं मेरे सीमित अध्ययन के कारण एक महीने से भी अधिक समय तक नहीं ढूंढ पाया, अतः अपनी ही एक रचना भी इसमें दी है। ये रचनाएं कुछ इस प्रकार हैं:

1. द क्लिक / ब्रूस स्टर्लिंग 

उसने बिना सोचे-समझे लिंक दबा दिया। वह सोच रहा था कि, "यह तो बस एक और पॉप-अप है - इससे क्या नुकसान हो सकता है?" 

लेकिन जैसे ही उसने क्लिक किया, कम्प्यूटर की स्क्रीन काली हो गई। कुछ सेकंड बाद, उसका फ़ोन बज उठा: "तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था।" उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। तभी उसके सोशल मीडिया अकाउंट को हाईजैक कर लिया गया, और उसके बैंक अकाउंट से भी रुपये निकलने लग रहे थे। 

उसके द्वारा भेजे गए हर संदेश को हैकर द्वारा ट्रैक किया जा रहा था, हर कॉल को रीरूट किया जा रहा था। कोई तो था, जो उसे देख रहा था, अपनी छाया से उसके जीवन को नियंत्रित कर रहा था। 

उसने इसे ठीक करने की कोशिश की - मॉडेम को रीसेट किया, तकनीकी सहायता से संपर्क किया - लेकिन बहुत देर हो चुकी थी। उसने जो कुछ भी ऑनलाइन बनाया था, वह सब शून्य में समा गया था।

और, यह सब एक लापरवाह क्लिक की वजह से हुआ।

2. सावधान!आगे खतरा है / अंजू निगम 

" लो, दामिनी का फोन है। कह रही थी तुम्हें दो-तीन बार कॉल किया मगर तुमने फोन ही नहीं उठाया।" बादल के स्वर में नाराजगी थी।

"रिंग टोन कम रखी है इसलिए सुनाई नहीं दिया होगा।" मानसी को भी लगा ही कि दामिनी का दो-तीन बार कॉल आना मतलब मामला कुछ गंभीर है। दामिनी से बात करने के बाद मानसी भी परेशान लगी।

"क्या हुआ ? कुछ परेशानी ?" बादल का स्वर थोड़ा नरम था।

" शायद मेरा मोबाइल हैक कर लिया गया है।"

"कैसे ?"

 "दामिनी कह रही थी कि किसी ने मेरे मोबाइल नंबर से दामिनी से पैसे माँगे है। कहा कि बेटी के एडमिशन के लिये थोड़े पैसे कम पड़ रहे है। एक हफ्ते में लौटाने की भी बात कही।"

" तुमने कोई अनजान नंबर या समूह तो नहीं ऐड किया था अभी ?" बादल मसले की तह तक जाना चाह रहे थे।

 " हाँ, एक काव्य समूह से कल ही जुड़ी थी।"

" किसी को जानती हो उस समूह में?"

" नहीं मैं नहीं जानती। मुझे तो ऐड हो जाने के बाद मालूम पड़ा।"

" जिसने तुम्हें ऐड किया वह ग्रुप का एडमिन होगा। उससे पूछो।" बादल.ने सुझाया।

" कर चुकी। उसे नहीं मालूम कुछ। हो सकता है इस नये ग्रुप का कोई हो जिसे मैं नहीं जानती।" मानसी ने कयास लगाया।

" सबसे परेशानी वाली बात ये रही कि दामिनी ने मुझे बताये बिना पैसे दे दिये।"

" क्या ! कितने दे दिये ?" बादल सकते में था।

" करीब दस हजार।"

"दस हजार ! ये जानते हुये भी कि आजकल इस तरह के कितने गोरखधंधे चल रहे है।"

" दामिनी बता रही थी कि फोन करने वाला बहुत जल्दी में दिखा और दामिनी को सोचने-समझने तक का मौका नहीं दिया।"

" वह तो जल्दी करेंगा ही। कैसे पेमेंट किया ? गुगल पे किया तो कुछ नंबर तो दिया होगा।" बादल सारे लूपहोल तलाश रहे थे।

" जिस नंबर पर गुगल पे किया, वह अब बंद आ रहा है।"

"उसने कोई विकल्प नहीं छोड़ा। पहले भी जाने कितने लोगों को बेवकूफ बनाया होगा। इसकी रिपोर्ट साइबर क्राइम में लिखवानी पड़ेगी। पहले तुम्हारे अकाउंट फ्रीज करवाने पड़ेंगे फिर मोबाइल नंबर बदलना होगा।

 वैसे तो ये पता करना मुश्किल होता है कि मोबाइल हैक हुआ या नहीं लेकिन अगर तुम्हारे नंबर से पैसे मांगे गये तो ऐसा सोचा जा सकता है। मोबाइल कंपनी भी अब स्पैम नंबर को इंगित करती है। ऐसे स्पैम नंबर को कभी अटैंड न करो। अननोन नंबर को पहले ट्रूकॉलर से चैक करो। कभी कोई बेवजह ओ.टी.पी मांगे तो मत दो। कभी किसी समान की खरीदारी पर बिल बनाते समय तुम्हारा मोबाइल नंबर मांगा जायें तो मत ही दो। ये सावधानियां रखनी बहुत जरूरी है।" बादल ने कहा।

"  मैं समझ रही हूं सारी बातें। वैसे क्या मुझे दामिनी को पैसे देने चाहिए ?"

"प्रैक्टिकली देखें तो नहीं देने चाहिए क्योंकि पैसे देने से पहले उसने तुमसे पूछा नहीं था और अगर भावनाओं में बह कर सोचें तो देना चाहिए। तुम चाहो तो किसी और तरीके से उसके नुकसान की भरपाई कर सकती हो।"

"हां, ये ठीक रहेगा।" मानसी ने गहरी सांस लेते हुए कहा।

" अपने को तो तुम्हें भी टटोलना पड़ेगा, मानसी। मोबाइल यूं ही हैक नहीं हो जाते। किसी भी वजह से तुम्हारा पासवर्ड या थम्स इंप्रेशन मिले, तभी मोबाइल हैक किया जा सकता है। ऐसे किसी लूपहोल को टटोलो और आगे से सावधान रहो।" 

बादल के सावधानी भरी बातें सुनकर दामिनी सोच में पड़ गई।

अंजू निगम 

नई दिल्ली

3. इंटरनेट ऑफ बींग्स (Internet of Beings) / चंद्रेश कुमार छतलानी

उसका नाम सामनि था। सरगम के पहले, मध्यम और आखिरी स्वरों पर उसके संगीतकार पिता ने यह अजीबोगरीब नाम रखा था। लेकिन वह खुद को ज़िन्दगी कहती थी। साथ ही यह भी कहती थी, “ज़िन्दगी गाने के लिए नहीं है, गुनगुनाने के लिए है और गुनगुनाने के लिए सरगम के तीन स्वर काफी हैं।“ 

मैं तकनीक का व्यक्ति हूँ, इंटरनेट ऑफ थिंग्स पर काम करता हूँ। वह कहती थी कि इंटरनेट ऑफ थिंग्स की बजाय इंटरनेट ऑफ बींग्स पर दुनिया काम क्यों नहीं करती! कहती थी, काश! ऐसी एक चिप होती जो रोज़ रात को ठीक ग्यारह बजे उसके शरीर को शिथिल कर देती, दिमाग को शांत और आँखों में नींद भर देती। 

प्रेमिका तो नहीं, वह केवल एक दोस्त थी। सच कहूं तो मुझे बहुत पसन्द थी, एक दिन मैंने उससे शादी का प्रस्ताव भी रखा, हँसते हुए बोली, "ज़िन्दगी को छूना नहीं चाहिए, ज़िन्दगी को अपने इंटरनेट की तरह ही मानो… जीने का अर्थ ही आभासी होना है।"

एक दिन तेज़ बारिश में भीगी हुई वह मेरे घर आई। कुछ सामान लेने गई थी कि बारिश हो गई। मैंने उसे पहनने को अपने कपड़े दिए और कमरे से बाहर चला गया। उसने दरवाज़ा बंद किया। मैं घर पर अकेला ही था। दिल का दानव दिमाग तक पहुंचा और मैंने दरवाज़े के की-होल से उसे कपड़े बदलते हुए भरपूर देखा। देखा क्या, बस अपनी स्मृति में हमेशा के लिए बसा लिया।

वह बेखबर बाहर आई, हम दोनों के लिए चाय बनाई और हम पीते रहे। वह चाय पीती रही और मैं… न जाने क्या?

उस बात को लगभग एक साल गुज़र गया है। आज शाम उसने खुद्कुशी कर ली।

देर रात मैं उसके घर गया तो पता चला कि किसी ने उसके कपड़े बदलने का वीडियो बना लिया था और उसे इंटरनेट की किसी वेबसाईट पर अपलोड कर दिया। सुनते ही मुझे याद आया कि उस दिन मेरा लैपटॉप भी तो ऑन ही था, इंटरनेट भी चल रहा था और… लैपटॉप का कैमरा भी… हाँ-हाँ कैमरा भी तो ऑन था।  शायद उसी वक्त मेरी तरह ही किसी और ने भी इंटरनेट के जरिये... मेरे लैपटॉप को हैक कर... उसे अपनी स्थायी मेमोरी में बसा लिया था। लेकिन सिर्फ बसाया ही नहीं, उजाड़ भी दिया उस उज्जड़ ने।

दिमागी हलचल पैरों तक पहुँची, मैं उसके घर से भागा। अपने घर पहुंच कर अपने कमरे में गया। लैपटॉप आज भी ऑन था। उसे बंद किया तो कुछ चैन सा मिला। मैं अपने कमरे से निकल आया और दरवाज़ा बंद कर दिया। डाईनिंग रूम में जाकर बैठ गया और आँखें बंद कर लीं। इस तरह जैसे ज़िन्दगी को कभी देखा ही नहीं हो। आज भी घर में मैं अकेला था। रात के ग्यारह बज रहे थे। मेरा पूरा शरीर शिथिल होने लगा, आँखें चाह कर भी खोल नहीं पा रहा था, जैसे डार्क वेब के किसी हैकर ने आँखें हर ली हों।

और उसी वक्त पता नहीं कैसे पूरा डाईनिंग रूम चाय की खूश्बू से महक उठा!

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चंद्रेश कुमार छतलानी


4. डेबिट कार्ड / सविता मिश्रा ‘अक्षजा'

“माँ..,” रुँधे गले से इस एक शब्द को फोन पर सुनते ही शैली ने बेटे की घबराहट को भांप लिया। अब शैली उस आवाज के माध्यम से अपने बेटे की रोती आँखें साफ-साफ देख पा रही थी। अपने को संयमित करके बोली,

“रोओ नहीं बेटा, क्या हुआ बताओ तो?”

न जाने कितने दुर्विचार शैली के सामने से चलचित्र की भांति दौड़ने लगे। पुनः साहस जुटाकर बोली, “मैं हूँ न! बताओ तो...!"

"माँ, एक नम्बर आया होगा, पूछकर, किसी ने बैंक खाते में... पड़े सारे रुपए... उड़ा लिए। सुबह आठ बजे... मैं नींद में था... तभी फोन आया, और... और सेकेंड भर में... सारे रुपये..! पापा... गुस्सा करेंगे... न माँ..."

रुँधे गले से अटक-अटककर किसी तरह वाक्य पूरा हुआ था।

मन किया कि चीखे-चिल्लाये उस पर, इतनी लापरवाही, सोने के चक्कर में होश खो बैठा था क्या? ओटीपी नंबर बता दिया! कल ही तेरे ग्रेजुएशन की फीस को जमा किए पूरे दो लाख रुपए लुटा बैठा तू...! सहसा आँखों के सामने वे घटनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं, जिसमें बच्चे साइबर क्राइम का शिकार होकर, माता-पिता की डांट के डर से आत्महत्या कर बैठे थे।

उसने अपने को सायास वर्तमान में धकेला और आवाज में लचीलापन लाकर बोली, “बेटा, गलतियाँ हर किसी से हो जाती हैं, परन्तु सीख भी दे जाती हैं। आगे से सावधानी रखना| वरना येन-केन-प्रकारेण सारी मेहनत की कमाई ये कार्ड चूस लेगा, क्योंकि इसकी तो आँखें हैं नहीं, बस सुरसा रूपी मुँह-ही-मुँह है।”

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सविता मिश्रा ‘अक्षजा’

आगरा


शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

जिनकी लघुकथाएं दिल में उतरती हैं । योगेश योगी किसान (योगेश राजमणि लोधी) । पुस्तक समीक्षा


 


    सफर की दूरियों को कम करती इस बार हाथ लगी पुस्तक "घरों को ढोते लोग" जिसमें किसानों, मजदूरों, कामगारों, कामवाली बाई आदि पर केंद्रित 71 लघुकथाएं संग्रहित हैं।इन्हें पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है मानो लेखकों ने बहुत नजदीक से इनकी समस्याओं को देखा हो।आजकल के इस दौर में भला इन पर कौन लिखना चाहता है। मैं इस लघुकथा संग्रह के सभी लेखकों को साधुवाद देता हूं, जिनकी लघुकथाएं दिल में उतरती हैं और एक चुभन छोड़ देती हैं।

     रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु' की काकभगोड़ा जिसमें किसान अपनी फसलों को बचाने के लिए नेता जी का पुतला ले आता है। रतन चंद्र रत्नेश की "बराबरी" जिसमें एक किसान जो अक्सर उच्च अधिकारी की पत्नी को सब्जी बेचता है और जब उसका लड़का टॉप करता है तो वह किसान मिठाई का डिब्बा लेकर मैडम के पास जाता है और उनके पूछे जाने पर कि लड़के को क्या बनाओगे जब बड़ा होगा तो उसका जवाब यह कि आप लोगों जैसा बड़ा अधिकारी। किसान के जाने के बाद मैडम द्वारा मिठाई का डिब्बा कूड़ेदान में फेंकना कहीं न कहीं उस सामंती सोच को दर्शाता है जो सोचती है कि उसके आगे कोई बड़ा न बन जाए ताकि उसके बने ताने-बाने में सब उलझे रहें।

      राजेंद्र वर्मा की लघुकथा में 'मजबूरी का फैसला' जिसमें किसान सिंचाई के पानी में भ्रष्टाचार के कारण सोचता है कि इतनी कम जमीन से कुछ होता नहीं लागत ज्यादा लगती है, 20- 25 लाख मिल जाएंगे जिसके ब्याज से घर तो चलेगा और वह पांव की बेड़ी यानी जमीन बेचने पर मजबूर हो जाता है।

      डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी की देशबंदी जिसमें किसान तीन काले कानूनों से परेशान होकर खेतबंदी करता है लेकिन उसका कोई हल नहीं निकलता।

        सुकेश साहनी की लघुकथा 'धूप-छांव' जिसमें किसान के माथे पर लकीरें हैं कि पिछली बार की तरह सूखा पड़ जाएगा तो वह बर्बाद हो जाएगा। वहीं कृषि अधिकारी की पत्नी सोचती है की सूखा पड़े जिससे पति भ्रष्टाचार करके पैसे लाए और वह किचन का सामान खरीद सके।

प्रेरणा गुप्ता की 'यक्ष प्रश्न' जिसमें मजदूर का होनहार बेटा कहता है कि सब पढ़-लिख जायेंगे तो आप लोगों के मकान कौन बनाएगा।

      डॉक्टर लता अग्रवाल 'तुलजा' की 'धूल भरी पगडंडी' में गरीब मजदूर पन्नू का बेटा विदेश से यह सोचकर वापस आता है कि गांव से कोई पलायन न कर सके। सब लघुकथाएं बेहतरीन हैं

       एक अच्छी पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य मिला। धन्यवाद लघुकथाकार संपादक महोदय सुरेश सौरभ जी। 

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पुस्तक-घरों को ढोते लोग (साझा लघुकथा संग्रह) 

संपादक- सुरेश सौरभ

प्रशाशन- समृद्धि पब्लिकेशन शाहदरा नई दिल्ली 

मूल्य-₹245 

वर्ष-2024

-0-


समीक्षक-योगेश योगी किसान (योगेश राजमणि लोधी)

पता-342 ख पुरानी बस्ती ग्राम पोस्ट सेमरवारा तहसील नागौद जिला सतना मप्र 485446

फोन -9755454999

बुधवार, 23 अक्टूबर 2024

साक्षात्कार । लघुकथा: चिंतन और चुनौतियां । साक्षात्कारकर्ता : नेतराम भारती

'वर्तमान समय निरर्थक सर्जन पर अंकुश लगाने का समय'-चन्द्रेश कुमार छतलानी 


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! मेरा पहला प्रश्न है लघुकथा आपकी नज़र में क्या है ? 

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- चूँकि आपने नव-लघुकथाकारों के लिए प्रश्न किया है तो एक पंक्ति में ही कहना चाहूँगा। मेरे अनुसार भाई जी, लघुकथा का अर्थ है - न्यूनतम शब्दों में रचित एकांगी गुण की कथात्मक विधा। साथ ही यह न भूलें कि सर्जन में जितने शब्द कम उतना अधिक श्रम।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! आजकल कई प्रकार के लेखक हमें लघुकथा के क्षेत्र में देखने को मिल रहे हैं। जैसे कुछ , मात्र अपने ज्ञान , अपने पांडित्य- प्रदर्शन के लिए लिखते हैं, कतिपय समूह- विशेष को खुश करने के लिए लिखते हैं या पुरस्कार- लालसा के लिए लिख रहे हैं । वहीं, कुछ ऐसे भी लघुकथाकार हैं जो लघुकथा - लेखन को सरल विधा मान बैठे हैं जिसके कारण उनकी रचनाओं में न कोई शिल्प होता है और न ही कोई गांभीर्य। तो ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि साहित्य सर्जन का उद्देश्य क्या है?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- भाई जी, मेरे अनुसार तो जहाँ साहित्य होता है, वहां कोरा लालसा-लेखन निष्प्राण होता है और जहाँ लालसायुक्त-लेखन होता है, वहां साहित्य के लिए कोई स्थान नहीं। लघुकथा के प्रथम शोधग्रन्थ, जो डॉ. शकुन्तला 'किरण' द्वारा किया गया था, में लघुकथा को गंभीर विधा माना है। इसके लेखन में कहीं न कहीं गंभीर सामयिक विषय समाहित होने ही चाहियें, जिनके द्वारा समाज के हित की बात कही जाए। साहित्य के मुख्य उद्देश्य में सर्वहित समाहित है, जिसे स्वहित समझने वाले सिर्फ लेखन कर रहे हैं, किसी अन्य स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से। ऐसे लेखन एक समय के बाद किसी को याद नहीं रहते। 


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! मैं जानना चाहता हूंँ कि आप लघुकथा में भाषा के किस प्रयोग के पक्षपाती हैं?

चन्द्रेश कुमार छतलानी:- मैं कथानक, वातावरण, स्थान और पात्रों के अनुसार भाषा का पक्षधर हूँ। चित्रा मुद्गल जी की कितनी ही रचनाओं में स्थानीय भाषाओं का बहुत सुंदर प्रयोग किया गया है, लेकिन हिंदी पाठकों को समझ में आने तक। उदाहरणस्वरुप हम यदि किसी कॉर्पोरेट के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स की मीटिंग के कथानक को चुनते हैं तो संवादों की भाषा में अंग्रेजी का प्रयोग होना खलेगा नहीं, बल्कि अधिकतर बार क्लिष्ट हिंदी का प्रयोग असामान्य प्रतीत हो सकता है। विपरीत इसके यदि किसी हिंदी सेवी व्यक्ति के उद्बोधन पर रचना है तो उसमें जनसामान्य की भाषा की बजाय अपेक्षाकृत उच्च कोटि की होनी लाज़मी है। साथ ही इसका ध्यान रखना भी ज़रूरी है कि भाषा की क्लिष्टता के कारण यदि रचना समझ से परे हो रही है तो वह रचना अर्थहीन है। निःसंदेह टारगेट पाठकवर्ग का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। एक अन्य आवश्यक बात यह है कि नरेशन में लेखक की भाषा होती है, वह ऐसी हो कि जो साहित्य का सम्मान भी रख सके और ढंग से संप्रेषित भी हो पाए। कुल मिलाकर साहित्य की किसी भी विधा में शब्दों की भाषा का चयन बहुत मेहनत का कार्य है। एक उदाहरण और दूंगा, हमारे विश्वविद्यालय के संस्थापक मनीषी पंडित जनार्दनराय नागर स्वयं एक ख्यातनाम साहित्यकार थे। उन्होने कई ऐसे सृजन किए जो साहित्य में मील के पत्थर समान हैं। एक बार हमारे आज के वरिष्ठ लेखाधिकारी, जिनकी उस समय नई-नई नौकरी एक क्लर्क के रूप में लगी थी, पंडित नागर के घर पर बैठे थे। वहीं पंडित नागर ने उन्हें स्नेहवश अपनी एक कविता पढ़ाई और पूछा कि, "कैसी है? कोई कमी तो नहीं।" यूं तो हमारे वरिष्ठ लेखाधिकारी विद्वान पुरुष हैं लेकिन वे कभी साहित्य के विद्यार्थी नहीं रहे, तो पढ़ कर उन्होने अपना मत रखा कि, "कविता तो अच्छी है लेकिन भाषा थोड़ी क्लिष्ट है - आम आदमी को समझ आने में मुश्किल होगी।" यह सुनते ही पंडित नागर तिलमिला उठे, लेकिन अगले चार-पाँच क्षणों में ही उन्होने अपने आप को संयत कर लिया और बोले, "यह साहित्य है प्रिय पुत्र! कोई सामान्य उपन्यास नहीं, इसे ना तो सब लोग पढ़ते हैं और ना ही मैं सभी को पढ़ने देता हूँ।"  

कुल मिलाकर, यह कुछ इस तरह है कि, वैदिक काल में संस्कृत के भी दो प्रकार थे - वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत। वैदिक संस्कृत साहित्य की भाषा थी और लौकिक संस्कृत जन सामान्य की। बावजूद उसके भी उस समय के साहित्य को जो लोकप्रियता प्राप्त हुई, उससे सामयिक साहित्य अछूता ही है।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी! अब लघुकथा की शब्द सीमा को लेकर पूर्व की भांति सीमांकन नहीं है बल्कि एक लचीलापन देखने में आ रहा है । अब आकार की अपेक्षा कथ्य की संप्रेषणीयता पर अधिक बल है। आप इसे किस रूप में देखते हैं ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- लम्बी या यूं कहें कि अधिक शब्दों की लघुकथाओं में अक्सर यह देखने को भी मिलता है कि वे, लघुकथा के मानकों के अनुरूप होते हुए भी, अपेक्षाकृत कम शब्दों वाली रचना से रुचिकर कम ही हो जाती हैं। हम रचना के कथ्य के अनुरूप रचना की लम्बाई निर्धारित करते हैं, तो साथ ही पाठकों के लिए रुचिकर भी हो, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। कम से कम पाठक उबें तो नहीं। इस प्रकार के निर्वहण में काफी समय लगता है। हालांकि कम शब्दों वाली रचना में भी यही निर्वहण करना पड़ता है, लेकिन कम शब्दों को पाठक जल्दी पढ़ लेते हैं, और यही तो लघुकथा के पाठक संख्या में निरंतर वृद्धि होने का एक कारण भी है।कुल मिलाकर, रचना सर्जन की शुरुआत में ही हमें रचना की सहजता को प्राथमिकता देते हुए, इस बात को भी ध्यान में रखा जा सकता है कि हमारा लेखकीय उद्देश्य क्या है? सामान्य पाठक वर्ग तक पहुँच, प्रबुद्ध पाठक वर्ग तक पहुँच, स्वांतसुखाय या अन्य साहित्यिक-गैरसाहित्यिक उद्देश्य। पुनः कहूँगा पाठक, जिन तक रचना पहुंचनी है, उबें नहीं। हालांकि, वावजूद इसके, बेहतर तो रचना का सहज सर्जन ही है। तब शब्द सीमा वाली बात स्वतः ही गौण हो जाती है। कला पक्ष व रचना की प्रभावित करने की क्षमता को ध्यान में रखते हुए, रचना में काट-छांट के समय हम शब्द सीमा पर भी विचार कर सकते हैं।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! कई बार लघुकथा पर सतही और घटना- प्रधान होने के आरोप लगते रहे हैं , इससे कैसे बचा जाए ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- किसी के रचनाकर्म को आरोपित करना तो उचित नहीं आलोचना कर लीजिए, सम्यक दृष्टि रख कर। मेरा मानना है भाई जी, कि कोई लघुकथा यदि मानकों से यदि थोड़ी सी विचलित भी है और अन्य किसी विधा में प्रवेश नहीं कर रही है तो उसे लघुकथा स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं। हालाँकि, उसे अच्छी रचना तभी कह सकते हैं, जब वह प्रभावित कर रही हो। दूसरे, हर वर्ग को एक ही रचना उचित लगे, यह हो भी नहीं सकता। आज के दल-प्रधान युग में संख्या को अधिक दृष्टिगत किया जाता है, गुणवत्ता को कम। यदि कोई आलोचक किसी एक राजनितिक दल विशेष से सम्बंधित हो और रचना उस दल के विचारों के विपरीत, तो आज के परिप्रेक्ष्य में उस रचना पर आरोप लगने के या खारिज तक होने की संभावना अधिक है। इस तरह के पक्षपाती विचारों में लघुकथा का सतही होना या लेखक विहीन न होना जैसे आरोप आसानी से लगाए जा सकते हैं। जबकि, सतही रचना भी यदि लघुकथा के मानकों का अनुसारण कर रही है तो उसे विधा को तो स्वीकारना पड़ेगा ही, वो बात और है कि कुछ पाठक वर्गों को या सभी पाठकों को वह प्रभावित न कर पाए। ऐसी रचनाएं किसी शोकेस में लघुकथा के नाम से रह सकती हैं ।रही बात आरोपों से बचने की तो, जिस रचना पर जितने अधिक कपड़े फटें, वह सफल भी उतनी ही है। एक शर्त यह ज़रूर है कि वह राष्ट्र, समाज, मानव और प्रकृति के विरोध में न हो।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! लघुकथा में लेखकों की संख्या लगातार बढ़ रही है परंतु उस अनुपात में समीक्षक- आलोचक दिखाई नहीं देते। यह चिंता की बात नहीं है?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- समीक्षा करना आसान कार्य नहीं है। हालाँकि लेखक से पहले पाठक और पठनीय-समीक्षक बनना आवश्यक है। अपनी पढ़ाई के पश्चात् जब मैंने सॉफ्टवेयर डवलपमेंट का कार्य प्रारम्भ करने की सोची थी, तो सॉफ्टवेयर निर्माण से पहले उसकी टेस्टिंग सीखी और की भी। तब यह समझ में आया कि बग्स (गलतियां) कहाँ-कहाँ हो सकती हैं। कैसे हो सकती हैं और उन्हें कैसे हटाया जाए – ये बाद की बातें थीं, जब मुझे सॉफ्टवेयर निर्माण करने थे। बहरहाल, इतनी ही अल्फा टेस्टिंग एक लेखक को आनी ही चाहिए, ताकि वह अपनी रचना में कुछ हद तक खुद परिमार्जन कर सके । 

अब यदि बात अन्य रचनाकारों की रचनाओं की समीक्षा करने की करें तो एक समय के गूढ़ अध्ययन के पश्चात् जब लघुकथाएं ढंग से समझ में आ जाती हैं, तो लेखक/लेखिका इस योग्य हो ही जाते हैं कि वे समीक्षा और संपादन कर सकें। लेकिन इस स्तर पर आने में वर्षों की साधना तो ज़रूरी है ही और साथ ही ज़रूरी है निष्पक्ष विश्लेषण, यहाँ तक कि खुद को भी अलग रखकर। कहीं पढ़ा था कि (सही) समीक्षक वही है जो रचनाकार के जूतों को खुदके पैरों में पहनने की क्षमता रखता हो। 

तीसरी बात जो मुझे यह दिखाई देती है कि, प्रकाशित करने से पूर्व कोई लघुकथा लिखकर हम अन्य रचनाकारों से संपर्क करते हैं और उनसे रचनाओं का परिमार्जन करवाते हैं। इस तरह हम खुद ही रचनाकारों को समीक्षक बना रहे हैं, लेकिन अघोषित तरीके से। आपके प्रश्न से थोड़ा अलग हट कर, यह भी समझने वाली बात है कि इस प्रकार कुछ लोगों द्वारा मिलजुल कर सर्जित की रचनाओं में लघुकथा के मूल तत्व तो बहुत अच्छे से उभर जाते हैं, रचना प्रभावित भी करती है लेकिन मौलिकता? ‘मौलिकता’ चर्चा का विषय है।

बहरहाल, आपने जो चिंता व्यक्त की, वह विचारणीय है ही कि ‘विधा के विस्तार के लिए, स्वस्थ विमर्श और कुशल विमर्शकारों का आगे न आना चिंता की बात तो नहीं है?’ – जी बिलकुल है। जब तक कुशल निष्पक्ष समीक्षा और स्वस्थ चर्चा नहीं होगी विधा की प्रगति धीमी गति से ही होगी। यह तभी हो पाएगा, जब लघुकथा अन्य विधाओं के समान ही वरिष्ठ साहित्यकारों के मस्तिष्क में पैठ बना पाए। फिलवक्त इसे पाठकीय प्रेम तो मिल रहा है, लेकिन साहित्यिक प्रेम इसके कद से कम। 


नेतराम भारती : - चन्द्रेश जी ! गुटबंदी, खेमेबंदी की बातें आजकल कोई दबे स्वर में तो कोई मुखर होकर कर रहा है । क्या वास्तव में लघुकथा में खेमे तन गए हैं ? निश्चित रूप से आप जैसे लघुकथा के शुभचिंतकों के लिए यह बहुत पीड़ाजनक है । आप इस पर क्या कहना चाहेंगे ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- गुटबंदी जाने क्यों साहित्य का स्वभाव जैसी प्रतीत होती रहती है। बावजूद इसके भी गुटबंदी साहित्य का स्वभाव ही नहीं साहित्य का अभाव ही है। हम जिस विसंगति पर लिखते हैं और वही हमने खुदने पाल रखी है तो उस विसंगति विशेष के लिए संवेदनशीलता का स्थान हमारे हृदय में होना असंभव ही है। ऐसा लेखन मृतप्रायः है। हालाँकि, यह भी विचारने योग्य है कि, जो खेमेबंदी के विरोध की बातें कर रहे हैं, कहीं वे भी तो तम्बू ताने नहीं बैठे हैं? ‘तेरे तम्बू में मेंरे तम्बू से ज़्यादा बम्बू कैसे!’ जैसी सोच वाले गुटबंदी को बुरा कहें भी तो उससे केवल ईर्ष्या झलकती है – गुटबंदी का विरोध नहीं। 


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! पाठकों तक लघुकथा की अधिकाधिक पहुँच और उनमें इसके प्रति जुड़ाव और जिज्ञासा को बढ़ाने के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- लघुकथा को पाठकों का प्रेम मिल ही रहा है। मुझे विश्वास है कि आपके पास भी पाठकों के सन्देश आते होंगे, जो आपके लेखन के फैन्स हैं। हालाँकि इसे शोध और अकादमिक में सही स्थान नहीं मिला है। मुझे लगता है कि, लघुकथा प्रकाशन से पूर्व खुद रचनाकार द्वारा ही लघुकथा की ढंग से अपनी क्षमतानुसार पड़ताल बहुत ज़रूरी है। फिलवक्त समाचार पत्रों से लेकर नामी गिरामी साहित्यिक पत्रिकाओं में लघुकथा के नाम पर कभी प्रेरक प्रसंग तो कभी छोटी कहानी तक भी प्रकाशित हो रही है। कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रूफ रीडिंग और सम्पादन का स्तर उस पत्र-पत्रिका के स्तर से बहुत छोटा है। पाठकों में भ्रम पैदा करने के लिए इतना काफी है और तिस पर पैबंद यह कि कुछ भी प्रकाशित होने को हम इसलिए बेहतर मानते हैं कि उसमें हमारा नाम है। न्यून स्तर की रचनाओं/सम्पादन को लेखकीय सरंक्षण मिल रहा है। यह आज तक नहीं देखा कि, वरिष्ठ/कनिष्ठ किसी की भी रचना प्रकाशित हुई हो, और उन्होंने विरोध में कहा हो कि, यह पुस्तक/पत्रिका/पत्र सही प्रकाशित नहीं कर रहा। मुआफी सहित, यह दुर्भाग्य है कि हम गलत को गलत नहीं कह पाते क्योंकि वे हमें जोड़ देते हैं। दूसरे, लघुकथाओं का सोशल व अन्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सही-सही प्रचार ज़रूरी है। फिलहाल फेसबुक से बाहर लघुकथा का प्रसार बहुत अधिक नहीं है। हमें यदि इसे भविष्य में अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करना है तो उस पीढ़ी तक इसे प्रसारित करना ही होगा। विकिपीडिया तक में एक समय लघुकथा को छोटी कहानी बताया जा रहा था। मुझे इसे ही सही करवाने के लिए कुछ संघर्ष तो करना ही पड़ा। इसके अलावा, Quora, LinkedIn, Instagram, Pinterest, Twitter जैसी लोकप्रिय साइट्स का प्रयोग करना चाहिए, उन पर लघुकथा के प्रति पाठकीय प्रेम और जागरूकता हेतु कार्य भी करना चाहिए, यह लेखकीय तो नहीं लेकिन विधा की उन्नति के प्रति हमारा दायित्व है ही।

आने वाले वक्त में ईबुक्स, ऑडियोबुक्स की मांग और भी बढ़ने की संभावना है। इन फोर्मेट्स में भी हमें अपनी पुस्तकों को तैयार रखना चाहिए। समय के साथ चलेंगे तो भविष्य में लघुकथा सर्वाधिक लोकप्रिय विधा हो ही सकती है।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी! लघुकथा के ऐसे कौन-से क्षेत्र हैं जिन्हें देखकर आपको लगता है कि अभी भी इनपर और काम करने की आवश्यकता है ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- विषय। सबसे पहले सामयिक विषयों पर ध्यान देना आवश्यक है। ग्लोबल वॉर्मिंग, पेयजल में हो रही कमी, सड़क सुरक्षा, वित्त या अर्थव्यवस्था सम्बंधित, साइबर सुरक्षा, गामीण विकास, ऑर्गेनिक खेती, सांस्कृतिक परिवर्तन आदि ऐसे विषय हैं, जिन पर लेखन न के बराबर हो रहा है। मेरे कहने का अर्थ यह है कि साहित्य हमेशा सामयिक विषयों पर केन्द्रित होना चाहिए। जब लड़की का पिता उतना लाचार नहीं रहा, जितना आज से 50 वर्ष पहले था, तो दहेज़ न दे पाने के लिए गिड़गिड़ाने सरीखे विषयों को सामयिक बता कर साहित्य सृजन क्या ठीक होगा? 

खेतिहारों की हालत देख कर तुलसी ने कहा था कि, "कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिन्नु अन्न दुखीं सब लोग मरै।।" यह पढ़ते ही तुलसी के समय की एक समस्या की जानकारी हो जाती है और यह साहित्य का दायित्व है। 

चीन में रिझाओ नामक शहर एक ऐसा पहला शहर बन गया है जो पूरा का पूरा सौर ऊर्जा से संचालित है। खंगालिए वहाँ के साहित्य को, किसी न किसी ने तो इसका सपना देखा होगा, इस पर लिखा होगा, तब जाकर यह मूर्त रूप ले पाया। यह साहित्य की शक्ति है।

यदि साहित्य को साधना है तो उसकी वो भक्ति करनी होगी, जिस भक्ति में व्यक्तिगत मुक्ति ही न हो बल्कि अपने समय की अमानवीयता से संघर्ष की युक्ति भी हो और निर्बल के लिए शक्ति भी।

विषय के अतिरिक्त हमें भाषा की उन्नति पर भी काम करना चाहिए। पुराने कितने ही मुहावरे व कहावतें ऐसी हैं, जिन्हें आज की पीढ़ी प्रयोग में नहीं ले रही, ले भी नहीं सकती। एक मुहावरा है, "न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।" हम में से कितने हैं, जो एक मन में कितने लीटर होते हैं, यह बता सके? 

इसी प्रकार सोलह आने सच में ‘आने’ का अर्थ आज की पीढ़ी को पता नहीं है। यह मुहावरा बदला होगा सौ टका सच से, लेकिन टके का मतलब भी नहीं जानते फिर यह मुहावरा बदला सौ फीसदी सच और अब इसे सौ प्रतिशत सच कहा जा रहा है। ऐसे बदलाव भाषा को सामयिक बनाते हैं। निःसंदेह यह बात गौर करने की है कि लघुकथा इस प्रकार के बदलाव के लिए बहुत उपयोगी है।

साहित्यकार का दायित्व भविष्य की अच्छाई लिखना भी हो जाता है। क्योंकि ऐसा साहित्य ही समाज को दिशा देता है। उन विषयों पर कार्य करें जो अनसुलझे हैं और अपनी कल्पना से भविष्य के विषयों का सृजन भी करें।

लघुकथा को वैश्विक स्तर पर जाने के लिए अनुवाद की भी बहुत आवश्यकता है। फिलवक्त कुछ विद्वान् अनुवाद कर रहे हैं लेकिन या तो सीमित तौर पर या फिर मित्रतास्वरुप। ख़ास तौर पर लघुकथाओं का विदेशी भाषाओं में अनुवाद जब तक नहीं होगा यह अन्य देशों की सीमाओं के भीतर कैसे जा पाएगी?

एक आखिरी बात मैं कहना चाहूंगा भाई जी कि, लघुकथा में लघुकथा के लिए लघुकथा के द्वारा ही काम हो सकता है। लोकतंत्र की अवधारणा जैसी पंक्ति का इसलिए उल्लेख कर रहा हूँ क्योंकि किसी लोकतांत्रिक प्रणाली की तरह ही कुछ व्यक्ति तो इसका उचित दिशा में लेखन/सम्पादन/प्रकाशन कर रहे हैं और कुछ नहीं भी। जो कुछ भी ठीक नहीं हो रहा, उस पर अंकुश कैसे लग सकता है, यह कहना मेरे लिए बहुत मुश्किल है, लेकिन उस अंकुश की ज़रूरत है। क्योंकि, यही विधा को कमज़ोर बना रहा है।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! आज भी लघुकथा में अक्सर कालखंड को लेकर बातें चलती रहती हैं,कालखंड दोष को लेकर विद्वानों में मतैक्य देखने में नहीं आता है । लघुकथा अध्येता को कभी इसकी शास्त्रीय व्याख्या सुनने को मिलती है तो कभी सीधे-सीधे लघुकथा ही ख़ारिज कर दी जाती है । उसे इस दुविधा और भ्रम से निकालते हुए सरल शब्दों में बताएं कि यह कालखंड दोष क्या है और इससे कैसे बचा जा सकता है ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- हम सभी जानते हैं भाई जी कि लघुकथा का विशेष गुण एकांगी स्वभाव है। लघुकथा यदि किन्हीं कारणों से एकांगी नहीं हो पा रही है तो वह कहानी में तब्दील हो सकती है। यदि लेखक इस तब्दीली को एक ही घटनाक्रम में नहीं ले पा रहा तो रचना एक से अधिक कालखंडों में विभक्त हो छोटी कहानी की तरफ मुड़ सकती है। हालांकि, इसमें कोई दोष नहीं और रचनाकार को रचना की सहजता के साथ समझौता करना भी नहीं चाहिए। असहज लघुकथा से सहज कहानी बेहतर।

हाँ! अपने लेखकीय कौशल से कोई रचनाकार रचना को एकांगी बना कर रख सकता है। एक उदाहरण देना चाहूँगा, मानव विकासक्रम का चित्र हम बचपन ही से किताबों में देखते आए हैं। इसमें शताब्दियों को एक ही चित्र में चित्रकार ने बहुत ही कुशलता से दर्शाया है। चौपाये से विकसित हो, दो पैरों पर खड़ा पर थोड़ा झुका हुआ पशु, झुके हुए पशु से सीधा खड़ा हुआ पशु, फिर चेहरे का विकास और अंत में आज का मानव खड़ा है। लाखों वर्षों को एक ही चित्र में समेट दिया जाना इतना आसान नहीं था, लेकिन चित्रकार ने यह कार्य बखूबी कर दिखाया है। इस चित्र के एकांगी स्वरुप पर विचार करें तो यह कहा जा सकता है कि इसमें केवल ‘मानव विकासक्रम’ ही मौजूद है। अब सोचिये, इस पर एक लघुकथा कहनी हो तो आप कैसे कहेंगे?


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! 'श्री 420' का एक लोकप्रिय गीत है-'प्यार हुआ, इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल।' इसके अंतरे की एक पंक्ति 'रातें दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियाँ' पर संगीतकार जयकिशन ने आपत्ति की। उनका खयाल था कि दर्शक 'चार दिशाएँ' तो समझ सकते हैं-'दस दिशाएँ' नहीं। लेकिन शैलेंद्र परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुए। उनका दृढ़ मंतव्य था कि दर्शकों की रुचि की आड़ में हमें उथलेपन को उन पर नहीं थोपना चाहिए। कलाकार का यह कर्तव्य भी है कि वह उपभोक्ता की रुचियों का परिष्कार करने का प्रयत्न करे। क्या एक लघुकथाकार के लिए भी यह बात सटीक नहीं बैठती?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- इसी उदाहरण पर दो अन्य उदाहरणों का जिक्र करना चाहूँगा। परिंदे पत्रिका के फरवरी-मार्च 2019 के लघुकथा केन्द्रित अंक में वरिष्ठ लघुकथाकार बलराम ने अपने साक्षात्कार में एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि "समाज के सब लोग साहित्य नहीं पढ़ते।" 

दूसरा उदाहरण हमारे विश्वविद्यालय के संस्थापक मनीषी पंडित जनार्दनराय नागर का मैं पूर्व भाषा वाले प्रश्न में दे ही चुका हूँ कि उन्होंने कहा था कि "यह साहित्य है प्रिय पुत्र! कोई सामान्य उपन्यास नहीं, इसे ना तो सब लोग पढ़ते हैं और ना ही मैं सभी को पढ़ने देता हूँ।"

पंडित नागर का यह वृतांत और बलराम जी द्वारा कही हुई बात दोनों एक ही सी प्रतीत होती हैं। हालांकि साहित्य कितना समृद्ध है, उसके पाठक कैसे होते हैं और उसकी सक्षमता क्या हो? ये प्रश्न मेरे अनुसार कुछ ऐसे हैं जिन पर चर्चा करना बहुत आवश्यक है और यही महत्वपूर्ण प्रश्न आपने भी किया है। एक तो जिस बात में समाज का हित छिपा हो वो कई वर्षों से इस तरह से सृजित हो रही है, कि आम पाठक नहीं जुड़ पा रहा और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है जिसे पंडित नागर ने इशारों ही इशारों में कहा कि आम पाठक से जुडने के लिए एक अलग किस्म का साहित्य लिखना पड़ता है। लेकिन वैसा अलग किस्म का साहित्य समाज को कैसी दिशा दे रहा है, इससे हम अनभिज्ञ नहीं है। हालांकि, मेरे अनुसार इन सभी बातों का समाधान है – सामयिक भाषा में कथ्य के अनुसार तथ्य कहना। दिशाएं दस ही होती हैं लेकिन मुख्यतः चार होती हैं। यह दो-आयामी और त्रिआयामी दृष्टिकोण की तरह ही तो है। इन दोनों दृष्टिकोणों में से किसी का भी महत्व कम नहीं है। हम अपनी बात किस तरह समझा सकते हैं, यह लेखकीय निर्णय है।

इस निर्णय से पूर्व, उथलेपन को स्वपरिभाषित करना भी ज़रूरी है। इसके लिए रचनाकर्म से पूर्व कथ्य और विषय में निहित तथ्य को जानना आवश्यक है। एक फिल्म के ही गीत की पंक्ति //शोर नहीं बाबा सोर// में सही शब्द क्या है और उथला कौनसा, इस पर विचार करते हैं। एक सामान्य भाषा की दृष्टि से सही है तो दूसरा आंचलिक भाषा की दृष्टि से। रचनाकार जिस दृष्टि से रचना कह रहा है, उसमें ‘सोर’ कहीं भी अनुचित नहीं। हालाँकि, सर्जन से पूर्व उसके मस्तिष्क में शोर भी था और सोर भी। यही होना चाहिए।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! असल में प्रयोग है क्या ? लोग प्रयोग के नाम पर प्रयोग तो कर रहे हैं ,पर क्या वास्तव में वे प्रयोग हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि अंधेरे में ही तीर चलाया जा रहा है l अगर ऐसा है ,तो निशाना तो दूर की बात नुकसान होने की संभावना अधिक है l आप इसपर क्या कहना चाहेंगे ? साहित्य में सार्थक प्रयोग किस प्रकार किया जाए ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- सार्थक प्रयोग का उदाहरण बल्ब की इजाद है, भाई जी। थॉमस अल्वा एडिसन के हज़ार बार असफल होने के बाद फिर कहीं जाकर बल्ब बन पाया। लेकिन उन्होंने ही कहा था कि इससे पिछले हज़ार असफल प्रयोगों का महत्व कम नहीं हो गया, क्योंकि उन्हें ही दिमाग में रखकर, उन प्रयोगों को दुहराया नहीं गया। प्रयोग हैं तो सार्थकता अधिकतर बार बहुत सारी असफलताओं के बाद ही आएगी। 1880 के बल्ब निर्माण के प्रयोगों से आज 2023 में भी सीख नहीं ले पाएं, हम इतने तो आलसी नहीं।

लघुकथा के अनुसार प्रयोगों की बात करें तो, लघुकथा के हर तत्व पर और तत्वों के आपस में युग्म व मिश्रण पर प्रयोग हो सकता है। सार्थक और निरर्थक की परवाह किये बिना प्रयोग करने चाहिए, और निरर्थक-असफल प्रयोगों को डस्टबिन की बजाय वहां रखना चाहिए, जहाँ सभी यह देख पाएं कि इस प्रयोग को दुहराना नहीं है। यह बिलकुल उसी प्रकार है, जैसा कोई वैज्ञानिक विश्लेषण होता है। उसमें हाइपोथीसिस होता है, जिसका यह पता लगाया जाता है कि वह स्वीकृत रेंज में है अथवा अस्वीकृत। यदि अस्वीकृत रेंज में है तो भी शोध का महत्व कम नहीं होता। प्रयोग करते समय, प्रयोगों की असफलता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी सफलता। हाँ! बाद में, सफल प्रयोगों पर ही रचनाकर्म होगा और असफल पर नहीं।


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! कुछ साहित्यकार लघुकथा को लेखक-विहीन विधा कहते हैं परंतु लेखक तो किसी भी विधा के प्रत्येक शब्द- भाव में उपस्थित रहता ही है , फिर ऐसा कहना विधा के प्रति नकारात्मक भाव को पोषण देना नहीं है ? इस पर आपका क्या विचार है ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- आपका कहना सत्य है l प्रत्येक शब्द और भाव में रचनाकार उपस्थित रहता ही है। मैं यह समझता हूँ कि लेखक-विहीन सर्जन का अर्थ यह है कि अपना निर्णय पाठकों पर न थोपनाl इसे विस्तृत करूं तो, हम सभी के अपने-अपने व्यक्तिगत विचार होते हैंl उदाहरणस्वरुप, यदि मैं किसी एक विशेष राजनैतिक दल का पक्षधर हूँ और उसे प्रोमोट भी करता हूँl यह व्यक्तिगत रूप से तो ठीक है, लेकिन मेरे लेखन में उसी दल और विचारों का गुणगान है और अन्य दलों के सही विचारों का भी विरोध, तो ऐसा लेखन चाटुकारिता और मेरी मूढ़ता के अतिरिक्त कुछ नहींl मैं उस लेखन से अपने दल को बढ़ावा दे रहा हूँ, साहित्य को नहींl जबकि, उचित यह है कि, अपने व्यक्तिगत विचार यदि किसी अन्य के भी सही विचारों से टकरा रहे हों, तो इस स्थिति में तटस्थ लेखन हो और पाठकों के विवेक पर छोड़ दिया जाएl लेखन किसी लेखक का अधिकार व दायित्व ही नहीं, बल्कि धर्म भी है और लेखकीय धर्म कभी भी समाज के हित से विचलित नहीं होने देताl हालांकि, किसी विशेष समुदाय में फैली विसंगतियों या उनके उत्थान की बात करने में कोई बुराई नहीं क्योंकि यह उस समुदाय विशेष को सर्वसमाज के साथ आगे बढाने के उद्देश्य से कही गई हैl किसी बुराई का विरोध करना भी ज़रूरी है, रुढियों का परिष्करण भी आवश्यक है, लेकिन किसी अन्य व्यक्ति से लेकर समुदाय को अकारण किसी भी तरह से कमतर करने की बात कही जाए, वह साहित्य नहीं, केवल किसी प्रकार के स्वार्थ या कुंठा से निहित लेखन हैl


नेतराम भारती :- चन्द्रेश जी ! सिद्ध लघुकथाकारों को पढ़ना नए लघुकथाकारों के लिए आप कितना जरूरी समझते हैं , जरूरी है भी या नहीं ? क्योंकि कुछ विद्वान कहते हैं कि यदि आप पुराने लेखकों को पढ़ते हैं तो आप उनकी लेखन शैली से प्रभावित हो सकते हैं और आपके लेखन में उनकी शैली का प्रतिबिंब उभर सकता है जो आपकी मौलिकता को प्रभावित कर सकती है l इस पर आपका दृष्टिकोण क्या है?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- मैं पूरी तरह सहमत हूँ l प्रारम्भिक लेखन में शैली तो प्रभावित होगी ही l स्वयं की शैली बनने में समय लगता है l मेरे अनुसार, यदि इससे बचना है तो एक से अधिक रचनाकारों को समान रूप से पढ़ें l हालाँकि मेरा मानना है कि यदि प्रारम्भिक लेखन के समय शैली पर किन्हीं सिद्ध रचनाकारों का प्रभाव आ रहा है तो इस अभ्यास में अधिक बुराई नहींl लेखन शैली में मौलिकता समय के साथ परिपक्वता आने पर आ ही जाती है l उस समय तक अध्ययन भी विस्तृत हो जाता है l भारतेंदु हरिशचंद्र की इन पंक्तियों को यदि आपकी इस बात से जोड़ें तो

"लीक-लीक गाड़ी चलै, लीकहि चले कपूत।

लीक छोड़ तीनूं चलै, सायर, सिंघ, सपूत।।"

जब तक हम कपूत (नौसिखिए) हैं या केवल गाड़ी चलानी है तो किसी की बनाई लीक पर चलते रहें, हमें अगर सपूत या सिद्ध बनना है तो लीक छोड़नी पड़ेगी।


नेतराम भारती :- अंतिम प्रश्न :- चन्द्रेश जी ! यदि आपसे यह पूछा जाए कि आने वाले दस सालों में लघुकथा को आप कहाँ देखते हैं ,तो आपका उत्तर क्या होगा ?

चन्द्रेश कुमार छतलानी :- भाई जी, कुछ दिनों पूर्व ही एक कार्यक्रम में यह प्रश्न उठा कि लघुकथा में शोध की क्या संभावनाएं हैं। उत्तर देने वाले वरिष्ठ साहित्यकार व शिक्षाविद थे, उन्होंने कुछ ऐसा कहा कि, “शोध किसी लोकप्रिय विधा में ही हो तो सही है। फिलहाल लघुकथा उपयुक्त नहीं।“

मैं इस बात से न केवल चौंका बल्कि आहत हुआ, जो स्वाभाविक ही था कि लघुकथा और अलोकप्रिय?, फिर मुझे समझ में आया कि वे साहित्य की उस दुनिया की बात कर रहे थे, जिन पर वरिष्ठता का तमगा लगा है और जिन्होंने लघुकथाओं को हमेशा उपविधा या निम्न विधा माना। 

खैर, जब यदि आगामी दस सालों की बात करें तो यह मानसिकता विपरीत होगी, ऐसा मेरा विश्वास है और साथ ही शोध में लघुकथा का एक सम्मानजनक स्थान होगा, यह भी मुझे प्रतीत होता है।

इनके अतिरिक्त दस वर्षों में ऐसे लघुकथाकार ज़्यादा हो सकते हैं जो पारिवारिक और सामाजिक मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय और वैश्विक मुद्दों पर भी सर्जन करने में सक्षम होंl लघुकथा में कुछ स्वतंत्र आलोचक भी आ जाने चाहिएंl

विधा की उन्नति की बात करें तो नए शिल्प, नए कथ्य, सामयिक भाषा और लघुता के लिए नए मुहावरे और कहावतों के साथ सर्जन होना प्रारम्भ हो जाए l

राजस्थानी में एक लोकोक्ति है – “गज सूं उतर गधे नहीं चढस्याँ” अर्थात हाथी से उतर कर गधे पर नहीं चढ़ते l इसी के अनुसार मैं यह प्रार्थना करूंगा, लघुकथा हाथी पर सवार है और उसी पर सवार ही रहे l ज़रूरी हो तो, गधे को, हाथी पर बैठ कर देख लिया जाए, उस पर सवारी न करेंl

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सोमवार, 21 अक्टूबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 9 । रोजगार पर सर्जन

आदरणीय मित्रों,

वैश्विक मुद्दों के इन आलेखों को पढ़ने पर प्रारम्भ में आप इसे अकादमिक बातों से जुड़ा हुआ पा सकते हैं। हालाँकि, वे बातें मुद्दों पर कुछ सामयिक चर्चाएँ हैं, जो साझा करने का प्रयास किया गया है। विषय को समझने पर ही हमारा मस्तिष्क खुलता है और साहित्यिक समझ के व्यक्तियों के विचारों में रचना जन्म ले सकती है। वैसे भी, जब हम यह चाहते हैं कि हमारी रचनाएं अकादमिक रूप से भी प्रभावित करें तो, उस क्षेत्र में हमें एकाध कदम रखना पड़ेगा ही।

इस आलेख में रोजगार के बारे में चर्चा की गई है, जो कि एक ऐसा विषय है, जिससे हम सभी जुड़े हुए हैं। हम ही नहीं बल्कि पूरा विश्व जुड़ा हुआ है। कई भ्रांतियां भी हैं और कई बाधाएं भी। कहीं अच्छे रोजगार के अवसर नहीं हैं तो कहीं दिशा। कहीं भाई-भतीजावाद है तो कहीं गॉडफादर वाद।

कुल मिलाकर, वैश्विक रोजगार के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं, प्रौद्योगिकी में तेज़ी से हो रहे बदलाव, वैश्वीकरण और आर्थिक अस्थिरता के कारण नौकरी के बाज़ार प्रभावित हो रहे हैं। विशेष रूप से कम कौशल वाली नौकरियों में कामगारों की संख्या कम हो रही है, जिससे नौकरी की सुरक्षा को लेकर व्यापक चिंताएँ पैदा हो रही हैं।

इनके साथ ही, जलवायु परिवर्तन और राजनीतिक तनाव जैसे परिवर्तन भी आर्थिक अनिश्चितता में योगदान दे रहे हैं, जिसके फलस्वरूप कई क्षेत्रों में नौकरी के अवसर सीमित हो रहे हैं। यह विकासशील देशों में विशेष रूप से होता है, जहाँ कार्यबल या जनसंख्या बढ़ रही है, लेकिन नौकरियाँ उस गति से नहीं बढ़ रही हैं, जिससे गरीबी और असमानता बढ़ती है।

सबसे बड़ा मुद्दा युवा बेरोज़गारी का है, क्योंकि कई युवा रोज़गार हासिल करने के लिए आवश्यक कौशल या अवसरों के बिना नौकरी चाह रहे हैं। अविकसित उद्योग, शिक्षा की कमी और प्रौद्योगिकी तक सीमित पहुँच जैसे संरचनात्मक कारक उपलब्ध नौकरियों की संख्या और काम की तलाश करने वाले लोगों की संख्या के बीच के अंतर को और बढ़ाते हैं। इसके अलावा, रोज़गार में लैंगिक असमानताएँ, जिसमें महिलाओं को वेतन असमानता और कम नौकरी की संभावनाओं जैसी अतिरिक्त बाधाओं का सामना करना पड़ता है, और ये मुद्दे रोज़गार संकट में जटिलता की एक और परत जोड़ते हैं।

इन दिनों के मुख्य मुद्दें, Artificial Intelligence और Robotics की बात करें तो, आने वाले कुछ ही वर्षों में यह बहुत कुछ बदलने वाले हैं और इनसे एक भय भी उत्पन्न हो रहा है कि, कई रोजगार चले जाएंगे। हालाँकि यह भय उस लुडाइट हिस्टीरिया की तरह ही है, जब 19 वीं सदी के कपड़ा मजदूरों ने रोजगार छीन जाने के भय के कारण कपड़ा बनाने वाली मशीनों को नष्ट कर दिया था। आज के समय में यह हास्यास्पद लग सकता है कि जब उद्योगों का मशीनों के बिना अस्तित्व ही नहीं है तो पहले के मजदूरों ने यह धारणा कैसे बनाई? बिलकुल यही धारणा आज भी है। यह सच है कि मशीनें या प्रोद्योगिकी जब भी उन्नत होती हैं, हमारी कार्य दक्षता बढ़ती है और उन कार्यों को करने वालों के मानवों को यह चिंता होती ही है कि कहीं उनके रोजगार पर संकट तो नहीं आएगा! यह भी सच है कि - आएगा। लेकिन उसके साथ ही, मशीनें अपने साथ नए रोजगार लाती हैं, जो अधिकतर बार संख्या में अधिक होते हैं और मानदेय (सैलरी) में भी, क्योंकि जब अधिक दक्षता से कार्य होगा तब परिणामस्वरुप कार्य का मूल्य भी बढ़ेगा ही। अतः, यह कह सकते हैं कि, जब भी प्रोद्योगिकी उन्नत हो रही हो, उसे सीखना हमारी उन्नति का भी द्योतक है।

बेरोजगारी पर पुनः आते हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार, वैश्विक बेरोजगारी दर अनुमानित र्रोप से 200 मिलियन से अधिक है। 2023 में, वैश्विक बेरोजगारी दर लगभग 5.3% थी, जिसमें विकासशील देशों में सबसे अधिक समस्या थी। युवा बेरोजगारी, विशेष रूप से उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया जैसे क्षेत्रों में, वैश्विक औसत से काफी अधिक बनी हुई है, कुछ देशों में दरें 20% से अधिक तक पहुँच गई हैं। 

COVID-19 महामारी ने इन संख्याओं को और बढ़ा दिया, जिससे लाखों लोग बेरोजगार हो गए और दुनिया भर में आर्थिक अस्थिरता बढ़ गई। यह भी है कि, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में कुछ सुधार के बावजूद, रोजगार सृजन धीमा ही बना हुआ है, जिसमें अल्परोजगार और अनौपचारिक कार्य भी अतिरिक्त चुनौतियाँ हैं।

कुछ उल्लेखनीय गणमान्य व्यक्तियों के बेरोजगारी पर उद्धरण निम्नानुसार हैं:

फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट - "हमारी प्रगति की परीक्षा यह नहीं है कि हम उन लोगों की समृद्धि में और वृद्धि करते हैं या नहीं, बल्कि यह है कि हम उन लोगों के लिए पर्याप्त प्रदान करते हैं या नहीं जिनके पास बहुत कम है।"

बराक ओबामा - "हम दीर्घकालिक बेरोजगारी की समस्या से तब तक नहीं निपट सकते जब तक हम लोगों को फिर से काम पर नहीं लगाते, एक ऐसी अर्थव्यवस्था का निर्माण नहीं करते जो हर अमेरिकी को अवसर प्रदान करे।"

बान की-मून - "युवा बेरोजगारी एक वैश्विक चुनौती है। तत्काल उपायों के बिना, हम प्रतिभा, नवाचार और गतिशीलता से 'खोई हुई पीढ़ी' बनाने का जोखिम उठा रहे हैं।"

नेल्सन मंडेला - "गरीबी पर काबू पाना दान का इशारा नहीं है, यह न्याय का कार्य है। यह मानव का एक मौलिक अधिकार, उसकी गरिमा और सभ्य जीवन के अधिकार की सुरक्षा है।"

कोफी अन्नान - "यदि एक बेहतर और सुरक्षित दुनिया बनाने की हमारी उम्मीदें केवल कल्पना से अधिक होनी चाहिए, तो हमें कार्यबल में अधिक लोगों की भागीदारी की आवश्यकता होगी, जिनके पास उचित नौकरियां और बेहतर अवसर हों।"

रोजगार समस्या को हल करने के तरीकों पर विचारें तो सबसे पहले विचार आता है कौशल विकास और शिक्षा का। आवश्यक कौशल से लैस करने के लिए शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण में निवेश करना आवश्यक है।

इसके पश्चात सरकारों को नवाचार और उद्यमिता को बढ़ावा देना चाहिए। छोटे व्यवसायों और स्टार्टअप को प्रोत्साहित करने से नए रोजगार के अवसर पैदा हो सकते हैं, विशेषकर वंचित क्षेत्रों में।

सामाजिक सुरक्षा को मजबूत करना भी आवश्यक है। बेरोजगारी भत्ता, आर्थिक संकट के समय स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं तक आसान पहुँच मानव सुरक्षा में मदद कर सकता है।

समान वेतन, मातृत्व लाभ और उचित अवसरों के माध्यम से महिलाओं को सशक्त बनाना रोजगार में लैंगिक असमानताओं को दूर कर सकता है।

इनके साथ ही सरकारों को रोजगार सृजन के लिए दीर्घकालिक रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

बेरोजगारी पर साहित्य सर्जन

बेरोजगारी पर सबसे प्रभावशाली साहित्य में जॉन मेनार्ड कीन्स की 'द जनरल थ्योरी ऑफ़ एम्प्लॉयमेंट, इंटरेस्ट, एंड मनी' जैसी रचनाएँ शामिल हैं, जो आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में बेरोजगारी की एक आधारभूत समझ प्रदान करती हैं। कीन्स ने तर्क दिया कि बेरोजगारी अक्सर वस्तुओं और सेवाओं की अपर्याप्त मांग के कारण होती है, वे आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए सरकारी हस्तक्षेप पर भी जोर देते हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण योगदान डेल मोर्टेंसन और क्रिस्टोफर पिसाराइड्स द्वारा 'जॉब क्रिएशन एंड डिस्ट्रक्शन' है, जो श्रम बाजारों की गतिशीलता और श्रमिकों और नौकरियों के बीच दक्षता/कार्य-कुशलता की जांच करता है।

बेरोजगारी पर लघुकथा सर्जन

बेरोजगारी पर लघुकथा सर्जन बहुतायत में हुआ है। सबसे पहली लघुकथा उन रचनाकार की है, जिन्होंने बहुत कम समय में लघुकथा विधा को ऊँचाइयों पर पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। COVID ने उन्हें हमसे छीन लिया, अन्यथा वे विधा के लिए और भी काफी कार्य करते। मैं बात कर रहा हूँ, मेरे अग्रज स्वरूप श्री रवि प्रभाकर की। उनकी रचना पढ़ते हैं

एक बड़ा हादसा / कीर्तिशेष रवि प्रभाकर (Ravi Prabhakar)

फैक्ट्री में हुए एक भयानक हादसे में उसे अपनी दोनों टाँगे गंवानी पड़ गई, जबकि उसके तीन साथियों को जान से हाथ धोना पड़ा था.

"तुम्हें ठीक होनें में तो अभी बहुत समय लगेगा, जबकि एक महीने के बाद ही तुम्हारी रिटायरमेंट है। इसलिए मैनेजमेंट ने फैसला किया है कि तुम्हें एक महीना पहले ही रिटायर कर दिया जाए।”  उसका हाल चाल पूछने आए सहकर्मियों में से एक ने उसे सूचित किया

“चलो कोई बात नहीं यार, भगवान का शुकर मनायो कि जान बच गई।” दूसरे ने दिलासा देते हुए कहा.

"हमारे उन तीन साथियों का क्या हुआ जिनकी मौत हो गई थी ?" उसने उदास स्वर में पूछा

"उन सब के बेटों को नौकरी दे दी गई है." उत्तर मिला

कोने में बैठे अपने बेरोजगार बेटे और उसके तीन बच्चों को देख आज उसे अपने ज़िंदा बच जाने का बेहद अफ़सोस हो रहा था।

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- रवि प्रभाकर (कीर्तिशेष)


अगली एक रचना श्री बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’ की है। इसे पढ़िए,

प्रसाद/ बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’

लंबी बेरोजगारी से परेशान चार युवकों के चेहरों पर अब नौकरी लग जाने से संतुष्टि के भाव थे। चारों खुश थे और इसी खुशी में अपनी नौकरी के पीछे का रहस्य बता रहे थे।

पहला युवक – “मैंने सीधे बड़े साहब से बात की, ताकि चूक की कोई गुंजाइश ही न रहे। बात पूरे दो लाख में बनी।”

दूसरा युवक – “मैंने छोटे साहब से बात की। वे स्थापना विभाग के प्रभारी थे, इसलिए चूकने की आशंका नहीं थी। मैंने लाख रुपए में बात पक्की की थी।”

तीसरा युवक – “मैंने डीलिंग क्लर्क से बात की थी। हस्ताक्षर होने के बाद भी सूची में बीच में एक–दो नाम डालने की योग्यता उसमें थी ही। वह पचास हजार में ही मान गया।”

चौथा युवक – “मैंने किसी को रुपए नहीं दिए, मेरा काम मुफ्त में हो गया।” 

बाकी तीनों युवक एक स्वर में बोले – “सफेद झूठ!”

चौथे युवक ने राज खोला – “मैंने चार अन्य बेरोजगार युवकों से साहब को रुपए दिलवाए, तो प्रसाद के रूप में मुझे नौकरी मिल गई।”

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- बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’


श्री कपिश चन्द्र श्रीवास्तव की लघुकथा विडम्बना भी महत्वपूर्ण बात कह जाती है,

विडम्बना / कपिश चन्द्र श्रीवास्तव 

(सामान्य सम्पादन पश्चात)

चप्पल घिस-घिस कर आधे रह गए थे सूरज शर्मा के। पिछले 3 साल से अपनी मास्टर  डिग्री की फ़ाइल प्लास्टिक के थैले में रखे नौकरी की तलाश में  जगह-जगह धक्के और ठोकरें खाते घूम जो रहा था। मई महीने की दोपहरी थी। दैनिक पत्रिका के 'वान्टेड' वाले पृष्ठ में कई जगह पेन से गोल घेरा लगाए  सूरज पिछले चार घंटे से शहर के चक्कर लगाते भूख-प्यास से बेहाल हो चुका था। शाम तक  दो-तीन इंटरव्यू और देने थे। बची-खुची हिम्मत जुटा, सिटी बस पकड़ने वो दौड़ पडा। सड़क पर पहुँचते-पहुँचते सहसा चकराकर गिर पड़ा और  विपरीत दिशा से आता एक ट्रक उसके बाएं पैर को कुचलते  निकल गया।

देखते-देखते भीड़ लग गयी । बेहोश हो चुके सूरज को लोगों ने अस्पताल पहुंचाया। होश आने पर सूरज ने देखा उसका बायाँ पैर घुटने के ऊपर से काटा जा चुका है। मन पीड़ा और अपने अपाहिज हो जाने के अहसास से तड़प उठा।

सहसा उसे ध्यान आया 'वांटेड' वाले पृष्ठ में शायद किसी बैंक का विज्ञापन था 'केवल विकलांगों के लिए सीधी भर्ती'। उसका दिल अपने दोनों पैरों से बाल्लियों उछलने लगा  और उसके उदास चेहरे पर एक  विद्रूप सी मुस्कराहट उभर आई।

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- कपीश चन्द्र श्रीवास्तव

साहित्य के ये सर्जनात्मक कार्य समकालीन अध्ययनों के साथ, वैश्विक बेरोजगारी के कारणों और संभावित समाधानों दोनों में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।

सादर,

चंद्रेश कुमार छतलानी

9928544748


शनिवार, 19 अक्टूबर 2024

पुस्तक समीक्षा । घरों को ढोते लोग । सत्य प्रकाश 'शिक्षक'

हाशिये पर जी रहे लोगों का सजीव चित्रण करती लघुकथाएं 



       'घरों को ढोते लोग' विख्यात लेखक एवं संपादक सुरेश सौरभ के संपादन में संग्रहित 71 लघुकथाओं का अप्रितम संकलन है। ये लघुकथाएं हर वर्ग तथा प्रत्येक क्षेत्र में शोषित वंचित लोगों की बात को,उनके दर्द को एक शिद्दत से बयां करती हैं। सुरेश सौरभ कुशल संपादक के साथ-साथ एक श्रेष्ठ लेखक भी हैं, यह गुण उनके हर संग्रह में दिखाई देता है। संग्रह की अंतिम दो लघुकथाएं 'कैमरे' और 'हींगवटी' सुरेश सौरभ द्वारा लिखी गई हैं, जो बालश्रम पर करारा प्रहार करतीं हुई दिखाई पड़ती हैं। चुनाव हो या शादी बारात इन जगहों पर काम करने वाले बच्चों के साथ अनहोनी घटनाएं घट जाए, तो इसकी परवाह कोई नहीं करता। 

     योगराज प्रभाकर की लघुकथा 'अपनी-अपनी भूख' में जहां गरीबों के बच्चों को भरपेट भोजन नहीं मिलता वहीं अमीरों के बच्चों की भूख खोलने के लिए इलाज किया जाता हैं। मनोरमा पंत की लघुकथा 'बदलते रिश्ते' करुणा भरी, गहन वात्सल्य से ओतप्रोत कथा है। प्रत्येक लघुकथा का नायक चाहे, वह रिक्शा वाला हो या ड्राइवर हो या अन्य, सभी अपने कंधों पर घर की जिम्मेदारियों का बोझ ढोए हुए दौड़ लगा रहे हैं। मार्टिन जॉन की शीर्षक लघुकथा 'घरों को ढोते लोग' में कोई पेट की आग बुझाने के लिए घर ढो रहा है तो कोई सुख सुविधा बढ़ाने के लिए जुटा है। समाज के कटु सत्य को परोसती लघुकथा कबाड़ में रश्मि चौधरी की नायिका गृहणी, घर का कबाड़ बिना पैसे लिए कबाड़ी को दे देती है जबकि कबाडी पैसे देने के लिए लगातार बोलता रहता है। 

     भीषण गर्मी के बाद बरसात का मौसम जहां साधन संपन्न लोगों के लिए खुशनुमा पल होते हैं, वहीं यशोधरा भटनागर की लघुकथा 'कम्मो' में, कम्मो जब अपने घर पहुंचती है तो टपकती छत से भीग चुकी गीली लकड़ियों से पेट की आग बुझाना मुश्किल हो जाता है। इसी प्रकार डॉ.मिथिलेश दीक्षित की लघुकथा 'सलोनी' में कामवाली बाई का मार्मिक चित्रण है। अरविंद असर, अविनाश अग्निहोत्री, रश्मि लहर, सेवा सदन प्रसाद, गुलजार हुसैन, हर भगवान चावला, सुकेश साहनी बलराम अग्रवाल, डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी, मीरा जैन, विजयानंद जैसे सभी प्रतिष्ठित लघुकथाकारों की कथाएं संग्रह को बहुत ही मार्मिक और हार्दिक बनातीं हैं, पुस्तक की सभी लघुकथाएं सटीक और अर्थपूर्ण हैं। सार्थक एवं स्तरीय लघुकथाओं के लिए सभी रचनाकार बधाई के पात्र हैं। भूमिका प्रसिद्ध कथाकार सुधा जुगरान ने लिखी है, जिससे संग्रह और भी पठनीय बन पड़ा है। संपादक सुरेश सौरभ लघुकथा जगत में विशिष्ट स्थान बनाएं इन्हीं शुभकामनाओं के साथ हार्दिक बधाई। 


पुस्तक-घरों को ढोते लोग (साझा लघुकथा संग्रह) 

संपादक-सुरेश सौरभ 

प्रकाशन वर्ष-2024 

मूल्य- 245₹

प्रकाशन- समृद्धि पब्लिकेशन नई दिल्ली। 

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समीक्षक-

सत्य प्रकाश शिक्षक 

लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश