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बुधवार, 9 अक्टूबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 3 । शिक्षा पर लघुकथा सर्जन

आदरणीय मित्रों,

वैश्विक मुद्दों की जानकारी में इस पोस्ट में एक ऐसे मुद्दे पर चर्चा का प्रयास है जो, दुनिया में नक्शे बदल देने में समर्थ है। जीतने भी देश विकसित हैं, उनके मूल में उचित शिक्षा है। हमारे देश में भी सदियों पहले, उस समय के अनुसार शिक्षा थी, तो हम उन्नत थे। सोने की चिड़िया भी कहलाए और विश्वगुरु भी। आज शिक्षा के प्रति जागरूकता की हालांकि, वैश्विक स्तर पर हर देश में, कहीं कम तो कहीं अधिक आवश्यकता है। इस पर चर्चा करते हैं।

वैश्विक स्तर पर, शिक्षा को महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, इनमें सभी तक शिक्षा की पहुँच, शिक्षा की गुणवत्ता और सभी को समान शिक्षा सहित अन्य मुद्दे शामिल हैं। सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में शैक्षिक इन्फ्रास्ट्रक्चर और संसाधनों के मामले में विकसित और विकासशील देशों के बीच बढ़ता अंतर भी शामिल है। जहां उच्च आय वाले देश प्रौद्योगिकी-संचालित (digitally/technological controlled) शिक्षा और व्यक्तिगत सीखने में निवेश करते हैं/पूरा ध्यान देते हैं, वहीँ कई कम आय वाले देश अपर्याप्त शिक्षक प्रशिक्षण, कम शिक्षक संख्या, भीड़भाड़ वाली कक्षाओं, (कथित) अच्छे शिक्षण के नाम पर डोनेशन, और बुनियादी शिक्षण सामग्री की कमियों से जूझ रहे हैं। यह फर्क देशों के मध्य शिक्षा के परिणामों में अंतर को बढ़ाता है, जिससे वंचित क्षेत्रों के छात्रों के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो जाता है।

एक और बड़ी समस्या समावेशिता की कमी, महिला शिक्षा, विकलांग बच्चों की शिक्षा या जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापित व्यक्तियों / समूहों के लिए शिक्षा प्रदान करने में विफलता है। सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी 4) जैसी वैश्विक प्रतिबद्धताओं के बावजूद, लाखों बच्चे स्कूल से बाहर रहते हैं, विशेषकर गरीबी, युद्ध और भेदभाव से प्रभावित क्षेत्रों में। इसके अतिरिक्त, शिक्षा के पारंपरिक मॉडल अक्सर आधुनिक human resource की जरूरतों, जैसे डिजिटल साक्षरता और critical thinking, skill based system आदि की मांग के अनुकूल होने में धीमे होते हैं, जिससे कई छात्र भविष्य के रोजगार के अवसरों के लिए तैयार नहीं हो पा रहे हैं। जैसे AI का विरोध कर एक भय का वातावरण है कि परंपरागत रोजगार छीन जाएंगे। जबकि, होगा यह कि नए रोजगार भी उत्पन्न होंगे। उसके अनुसार human resource तैयार करना ज़रूरी है। 

डिजिटल नैतिकता, उचित शोध, शोध में नकल, साहित्यिक चोरी, शोध का वैश्विक विकास में महत्व भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं।

इनके अतिरिक्त, परीक्षा प्रणाली पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। विकसित देशों में कई बार अच्छे विद्यार्थियों की परीक्षा ना ली जाकर उन्हें एक समिति द्वारा उन विद्यार्थियों की क्षमतानुसार मार्क्स दे दिए जाते हैं। विकासशील देशों में भाई-भतीजावाद या यूं कहें कि ईमानदारी की कमी के कारण यह अभी तक संभव नहीं है।

एक विसंगति यह भी है कि, सरकारी कौंसिल्स के नियमों में भी कहीं ना कहीं विरोधाभास सा दिखाई देता है। जैसे, किसी दो वर्ष के कोर्स में, इंटेक 60, फीस अधिकतम 30,000/- प्रति वर्ष, आचार्यों की संख्या: प्रोफ़ेसर-1, एसोशिएट प्रोफेसर्स-2, अस्सिस्टेंट प्रोफेसर्स-4...आदि से पात्रता मिली हो तो, इसमें विद्यार्थियों की अधिकतम संख्या 60x2 वर्ष=120, तब अधिकतम वार्षिक फीस आएगी120x30,000= 36,00,000/- (छत्तीस लाख रुपये)। अब सरकारी ग्रेड से तुलना करें तो एक प्रोफ़ेसर की सैलरी कम से कम लगभग 1.5 लाख रुपये महीना (18 लाख रुपये सालाना), एसोशिएट प्रो. की लगभग 1 लाख रुपए महिना (दो की 24 लाख रुपये )। इन दोनों की वार्षिक सैलरी ही आय से अधिक है (लगभग 42 लाख रुपये)। अब अन्य कर्मचारियों की सैलरी, और दुसरे खर्चे। इन सभी को पूरा करने के लिए सरकारी फंड की व्यवस्था भी इतनी सही नहीं। प्राइवेट कॉलेज तब या तो घालमेल शुरू कर देते हैं या अधिक पाठ्यक्रम चला कर खर्चा निकालते हैं। गवर्नमेंट ग्रेड से तनख्वाह नहीं देते। दें भी तो कहाँ से? यहाँ शिक्षा की गुणवत्ता से सीधे-सीधे समझौता हो ही जाता है।

एक अन्य विषय है, अपनी भाषा में पढ़ाई। अपनी यह बात सालों पहले से मैं सेमिनार्स, कांफ्रेंस आदि में रखता रहा हूँ। कई बार देश के बड़े वक्ताओं के माध्यम से भी पहुंचाई है, mygov.in पर भी भेजा है कि हमारे डीएनए में अपनी भाषा में सीखने की क्षमता अधिक होती है वनिस्पत विदेशी भाषा के। हालाँकि अब अंग्रेज़ी भी हमारे डीएनए में बस गई है। लेकिन फिर भी यह सच है कि विकसित देशों में अन्य गुणों के साथ-साथ पढ़ाई उनकी अपनी भाषा में ही होती है। भला हो कस्तूरीरंगन कमिटी का जिनके विचार भी यही थे कि भारत में हिंदी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई हो और उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह लागू कर दिया। हालाँकि, अब इसके क्रियान्वयन में समस्या आ रही है कि, पाठ्य सामग्री उपलब्ध नहीं हो पा रही। और भी कुछ समस्याएं हो सकती हैं। इस विषय पर भी रचनाकर्म किया जा सकता है।

भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 एक हद तक परिवर्तनकारी दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, लेकिन इसके क्रियान्वयन में भी कई चुनौतियाँ हैं। मुख्य बाधाओं में से एक बड़े पैमाने पर इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार की आवश्यकता है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ स्कूलों में अक्सर उचित सुविधाओं और शिक्षण संसाधनों की कमी होती है। हमारी एनईपी में जिस तरह से डिजिटल शिक्षा की ओर बदलाव पर जोर दिया गया है, वह भी इंटरनेट और डिजिटल उपकरणों तक असमान पहुँच तथा केवल सैद्धांतिक रूप से सक्षम शिक्षकों की सीमाओं के कारण पूरी तरह लागू नहीं हो पा रहा है, और यह शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच शैक्षिक असमानताओं को और बढ़ा रहा है। इसके अतिरिक्त, शिक्षकों को नए शैक्षणिक तरीकों को अपनाने और पारंपरिक रटने वाली शिक्षा प्रणाली से दूर जाने के लिए प्रशिक्षित करने के लिए समय, संसाधनों और शिक्षकों और छात्रों के बीच मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता भी है।

ट्यूशन संस्कृति, कोचिंग सेंटर्स, शिक्षकों का आर्थिक शोषण, शिक्षण संस्थानों में फंड की कमी, आदि और भी बहुत से मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

कुल मिलाकर, सच यह है कि, जब शिक्षा उचित दिशा में होगी, सिर्फ तभी ही विकास की दिशा भी उचित होगी, उसके बिना कतई नहीं। 

इस विषय पर रचनाकर्म हेतु मुद्दों की कोई कमी नहीं, केवल दृष्टिकोण विश्वव्यापी रखिए।

डॉ. अशोक भाटिया जी सर की एक रचना प्रस्तुत है, जो सरकारी स्कूल शिक्षा के सत्य हालात बयान कर रही है। ऐसी व्यवस्थाएं केवल भारत में नहीं हैं, बल्कि कई विकासशील देशों में हैं. इसे पढ़िए,

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लगा हुआ स्कूल / अशोक भाटिया 

नए साल में स्कूल खुल गए थे। रामगढ़ गाँव का यह सरकारी स्कूल मिडिल से हाई स्कूल बन गया था। कुछ दिन पहले वहां एक नया अधिकारी बिना पूर्व सूचना दिए पहुँच गया। उस समय स्कूल में एक सेवादार के अलावा कोई जिम्मेवार व्यक्ति दिखाई नहीं दे रहा था। बच्चे खुले में कूद-फांद रहे थे। गाड़ी को देख वे अपनी-अपनी कक्षाओं में दुबक गए। कमरों में लाइट नहीं थी, गर्मी और अँधेरा था। 

-क्या बात, किधर हैं सब लोग?’ युवा अधिकारी का पारा चढ़ गया। सेवादार उनके निर्देशानुसार हाजरी का रजिस्टर ले आया। उसमें सभी अध्यापकों की हाजरी लगी हुई थी। अधिकारी को दाल में काला ही काला नज़र आ रहा था। उसने दोषियों को देख लेने की सख्त भाव-मुद्रा बना ली। सेवादार बड़ा अनुभवी था। ऐसे हालात से वह कई बार निपट चुका था। उसने साहब को खुद ही बता दिया कि हेडमास्साब बैंक तक गए हैं। आने ही वाले होंगे। 

अध्यापकों के बारे पूछने पर वह तफसील से बताने लगा। पहला नाम सबसे सीनियर टीचर रामफल का था। 

-जी रामफड़ गाम मैं ड्राप आउट बाड़कां का पता करण गए हैं। 

-और श्रीचंद?

-वो आज बाड़कां खात्तर सब्जी खरीदण ने जा रया सै। मिड डे मील बणेगा। 

-और ये कृष्ण कुमार कहाँ जा रहा है?’ कड़क अधिकारी ने सेवादार से ही सारी जानकारी लेना ठीक समझा या उसकी यह मजबूरी थी- कहा नहीं जा सकता। 

-जी किशन भी दूध-धी खरीदण जा रया सै। 

-सुबह-सुबह क्यों नहीं चला गया?’ अधिकारी ने टांग पर दूसरी टांग रखते हुए पूछा। 

-जी वा बच्यां की गिणती करके ले जाणी थी।’ सेवादार ने स्पष्टीकरण दिया, जैसे सारी जिम्मेदारी उसी की हो। 

अधिकारी ने ठोड़ी पर हाथ फेरते हुए सोचा– सारे बाहर के काम इन टीचर्स को ही दे रखे हैं। अब बाकी के टीचर तो पक्का फरलो पर होने चाहिएं।  

-वो संस्कृत वाले शास्त्री कहाँ हैं?

-जी वा नए बाड़काँ खात्तर यूनिफाम का रेट पता करण शहर नै जाण लाग रे। इहाँ गाम मैं तो मिलदी कोन्या। 

अधिकारी सकपका गया, पर उसे चौकीदार की बातें सच लग रहीं थीं। अब तक जितना उसने सुन रखा था, उसमें उसे अध्यापक ही दोषी और काम न करने वाले लगते थे। लेकिन यहाँ तो उसे माजरा कुछ और ही लग रहा था। उसे अपना इरादा पूरा होता नहीं दिख रहा था। उसने इधर-उधर देखा,धीरे-धीरे पानी के दो घूँट भरे, फिर चौकीदार से कहा- ये गणित वाले भूषण की भी रामकहानी सुना दे फिर।’

-साब वो हर साल स्टेशनरी अर बैग खरीदया करे है। इब्बी आ ज्यागा। 

इतने में कैंटीन वाला बुज़ुर्ग चाय ले आया था। 

कक्षाओं में से बच्चे रह-रहकर बाहर झाँकते हुए उस अधिकारी को देख लेते, मानो वह चिड़ियाघर से भागा हुआ कोई जंतु हो। अधिकारी को बहुत मीठी चाय भी कड़वी लग रही थी। उसने दो घूँट भरकर अपना काम पूरा करने की कवायद फिर शुरू की। 

-ये अनिल कुमार भी किसी काम गया है?

-जी, गाम की मर्दमशुमारी की उसकी ड्यूटी लग री सै। 

-जनगणना तो खत्म हो चुकी है!’ अधिकारी की सवालिया निगाहें उसकी ओर उठीं। 

-साब वो तो पिछले महीन्ने घर और गाए-भैंस गिणन की हुई थी। इबकै धर्म अर जात का पता करण गए हैं जी। 

अब तक पी.टी.मास्टर को भी खबर मिल चुकी थी। वह आखरी कमरे से तेजी से निकला। आकर अधिकारी को करारी नमस्ते ठोकी और अपना परिचय दिया। वह स्कूल में तरह-तरह के काम करने से बड़ा परेशान था। अधिकारी ने चेहरे पर सख्ती और गर्दन में अकड़ को बढ़ाते हुए उससे पूछा –

-आप कहाँ थे? ये बच्चे हुडदंग कर रहे थे। इन्हें कौन कण्ट्रोल करेगा?

-सर, मैं नौवीं क्लास के बच्चों की आँखें और दांत चेक कर रहा था। 

-ये काम तो डॉक्टर का है!

-सर, यहाँ कभी कोई डॉक्टर नहीं आता। पीर-बावर्ची-खर-भिश्ती सब हमें ही बनना पड़ता है।’ कहकर पी.टी. मास्टर अपनी भाषा पर मुग्ध हो गया। 

तभी स्कूटर पर स्कूल के मुख्य अध्यापक अवतरित हुए। उन्होंने अधिकारी को बताया कि वे बैंक में बच्चों के खाते खुलवाने के कागज़ात जमा कराकर आये हैं। स्कूल का एकमात्र क्लर्क उस दिन छुट्टी पर था। अधिकारी और मुख्य अध्यापक- दोनों की आँखों में कुछ सवाल और विषय चमके, फिर दोनों की संक्षिप्त बातचीत के बाद उन सवालों की बत्तियां गुल हो गईं। 

पी.टी.मास्टर बच्चों को आयरन की गोलियां बांटने नौवीं कक्षा की तरफ हो लिया। मुख्य अध्यापक ने अधिकारी को नाश्ते के लिए जैसे-कैसे मनाया और उसे अपने घर की तरफ लेकर चल दिया। 

स्कूल फिर पहले की तरह चलने लगा, जो आज तक वैसा ही चल रहा है....

- अशोक भाटिया 

-0-

गौर कीजिए इन पंक्तियों पर

//पीर-बावर्ची-खर-भिश्ती सब हमें ही बनना पड़ता है।//

//दोनों की आँखों में कुछ सवाल और विषय चमके, फिर दोनों की संक्षिप्त बातचीत के बाद उन सवालों की बत्तियां गुल हो गईं।//

सादर

- चंद्रेश कुमार छ्तलानी

मंगलवार, 8 अक्टूबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 2 । भूख पर लघुकथा सर्जन

आदरणीय मित्रों,

वैश्विक मुद्दों पर लघुकथा सर्जन में, हमें वैश्विक मुद्दों को तलाशना आवश्यक है। ईश्वर भूखा जगाता है लेकिन भूखा सुलाता नहीं, यह बात इस मायने में सही है कि, जो भूखा होगा उसे नींद ही नहीं आएगी। आज सबसे बड़े मुद्दों में एक भूख एक गंभीर वैश्विक मुद्दा है जो दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रभावित करता है। साहित्यकारों का दायित्व है कि इस पर सर्जन किया जाए। किसी भी सर्जन से पहले विषय की जानकारी और सामयिक स्थिति को गहराई से जानना भी ज़रूरी है। अतः इस मुद्दे पर थोड़ी जानकारी प्रेषित कर, एक लघुकथा आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं।

भूख के कुछ कारणों में गरीबी, जलवायु परिवर्तन और अपर्याप्त कृषि प्रणालियां शामिल हैं। भूख के मामलों में उप-सहारा अफ्रीका और एशिया के कुछ हिस्से विशेष रूप से असुरक्षित हैं, क्योंकि सूखे और बाढ़ जैसी घटनाएँ खाद्य उत्पादन को बाधित करती हैं। उदाहरण के लिए, सोमालिया ने भयंकर सूखे का सामना किया है, जिससे लाखों लोग विस्थापित हुए हैं और लोगों को जीवित रहने के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ा है। इसी तरह, दक्षिण सूडान में, वर्षों के गृहयुद्ध ने कृषि के बुनियादी ढांचे को नष्ट कर दिया है, जिससे भूख एक बड़ी और सतत समस्या बन गई है। कुल मिलाकर संपूर्ण विश्व को भूख की समस्या संबोधित करने के लिए एक साथ मिलकर कार्रवाई की आवश्यकता है।

दुनिया के कुछ अन्य हिस्सों में, भूख एक छिपी हुई समस्या भी है। वेनेजुएला में, आर्थिक अस्थिरता ने खाद्य कमी कर दी है, जिसमें कई परिवार बुनियादी आवश्यकताओं को वहन करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस बीच, भारत में, समग्र आर्थिक विकास के बावजूद, बिहार और झारखंड जैसे कुछ क्षेत्रों में खाद्य असुरक्षा का उच्च स्तर का अनुभव होता है, विशेष रूप से वंचित समुदायों में। विकसित और विकासशील दोनों देशों में, खाद्य असुरक्षा शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में समान रूप से हो सकती है, यह दर्शाता है कि भूख किसी एक विशिष्ट क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक वैश्विक चुनौती है जिसके लिए व्यापक समाधान की आवश्यकता है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर भूख को मापने और ट्रैक करने के लिए डिज़ाइन किया गया एक उपकरण है। इसकी गणना "कुपोषण, बाल दुर्बलता, बाल बौनापन और बाल मृत्यु दर" जैसे संकेतकों के आधार पर की जाती है। इन सभी पर रचनाकर्म किया जा सकता है। उच्च GHI स्कोर वाले देश कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसा कि चाड और मेडागास्कर जैसे देशों में देखा गया है, जहां लगातार गरीबी और पर्यावरणीय गिरावट खाद्य कमी को बढ़ा रही है। 

संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (SDG 2) का हिस्सा, "शून्य भूख" का लक्ष्य 2030 तक भूख की समस्या को खत्म करना है। यह लक्ष्य खाद्य सुरक्षा, पोषण में सुधार और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। यह न केवल भोजन की मात्रा को संबोधित कर रहा है, बल्कि इसकी गुणवत्ता, पहुंच और दीर्घकालिक स्थिरता पर भी आधारित है। इस लक्ष्य के प्रयासों में कृषि उत्पादकता में निवेश बढ़ाना, खाद्य प्रणालियों में सुधार करना और यह सुनिश्चित करना शामिल है कि वंचित समुदायों को पौष्टिक भोजन मिले। यह स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक विकास से निकटता से जुड़ा हुआ है।

भूख पर आधारित आदरणीया कनक हरलालका जी की एक रचना यहां प्रेषित कर रहा हूं। 

मौसम और भूख / कनक हरलालका

सुबह सुबह की कड़कड़ाती ठंड में रजाई से निकलने का मन तो नहीं था, पर कॉलबेल की आवाज सुनकर दरवाजा खोलने के लिए उठना ही पड़ा। सामने वही मजदूर खड़ा था जिसे उसने दो दिन के लिए अपने एक मित्र से कहकर बुलवा रखा था। आंगन के सामने वाले छज्जे की ऊपरी दीवार ठीक करवानी थी। नदी पार की ठंडी हवा सीधे आंगन में मार करती थी। बढ़ते जाड़े से बचने के सभी जतन जरूरी थे।

 "अर्रे इतनी सुबह इतनी ठण्ड में काम पर आ भी गए ?"

"जी, आप काम बतला दें। कुछ पैसे मिल जाएं तो शाम जाकर चूल्हे में आग तो जले।"

"पर इतनी सुबह? इतने ठंडे मौसम में? जरा सूरज को गरम हो जाने दिया होता तो कम से कम हाथ पांव के जोड़ तो खुल जाते।"

"मालिक भूख का कोई मौसम नहीं होता है। पेट की आग गर्मी पंहुचा देती है।"

-कनक हरलालका

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- चंद्रेश कुमार छ्तलानी

रविवार, 29 सितंबर 2024

पुस्तक समीक्षा । घरों को ढोते लोग । समीक्षक-रमाकांत चौधरी

 गहन भावपूर्ण कृति : घरों को ढोते लोग (पुस्तक समीक्षा) 

समीक्षक-रमाकांत चौधरी

 


जहाँ एक ओर सब कुछ मोबाइल पर सर्च करने की आदत ने पुस्तकों की ओर से लोगों को उदासीन कर दिया है, वहीं जब कोई अच्छा साहित्य अनायास दिख जाए तो फिर उसे पढ़ने के लिए मन स्वतः ही तत्पर हो जाता है। ऐसी ही पुस्तक है "घरों को ढोते लोग"। इस पुस्तक के शीर्षक ने ही मुझे पढ़ने पर मजबूर कर दिया। यह पुस्तक 65 लघुकथाकारों द्वारा लिखी गई 71 लघु कथाओं का साझा लघुकथा संग्रह है, जिसमें किसानों, मजदूरों, कामगारों व कामवाली बाई जैसे उस वर्ग की जीवन शैली पर आधारित लघुकथाएं हैं, जो किसी न किसी तरीके से आर्थिक व सामाजिक रूप से असमानता के शिकार रहे हैं या फिर अपने जीवन को ईश्वर की नियति मानकर जी रहे हैं कि शायद उनका जन्म इसीलिए ही हुआ है। पुस्तक में यशोदा भटनागर की लघुकथा 'कम्मो' एक काम वाली बाई की जीवन शैली को दर्शाती है तो अरविंद सोनकर 'असर' की लघुकथा 'इन दिनों' समाज में फैली वैमनस्यता से रूबरू कराती है। वहीं प्रेरणा गुप्ता की लघुकथा 'यक्ष प्रश्न' में मजदूर का बच्चा पढ़ने–लिखने के महत्व को नहीं समझ रहा है जो कि शिक्षा व्यवस्था पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है। मार्टिन जान की लिखी संग्रह की शीर्षक लघुकथा 'घरों को ढोते लोग' व्यक्ति को यह सच सोचने-विचारने पर विवश करती है कि हर कामगार व्यक्ति किसी न किसी तरीके से घर परिवार के पालन-पोषण के लिए संघर्षरत है। इस पुस्तक के संपादक सुरेश सौरभ की लघुकथा 'कैमरे' मनुष्य की तरक्की के साथ इस बात की ओर इशारा करती है कि मनुष्य ने तरक्की तो बहुत कर ली मगर उसमें मनुष्यता का पतन होता जा रहा है। 

    मनोरमा पंत, सुकेश साहनी, बलराम अग्रवाल, योगराज प्रभाकर, पवन जैन, रश्मि लहर, डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी, मीरा जैन, गुलज़ार हुसैन, डॉ. मिथिलेश दीक्षित विजयानंद विजय, आलोक चोपड़ा, हर भगवान चावला, आदि सभी लघुकथाकारों की लघुकथाएं हमें चिंतन चेतना के गहन धरातल पर ले जातीं है और उन विषयों पर सोचने के लिये मजबूर करती है, जिन विषयों पर हम सभी साधारणतया ध्यान ही नहीं देते हैं, लेकिन संपादक सुरेश सौरभ हमें उन विषयों, उन पहलुओं से सीधे जोड़ देते हैं, जिनको हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। चाहे वह रिक्शा वाले, ठेलिया वाले, फल वाले, सब्जी वाले हो अन्य कोई कामगार हों। अर्थात वे लोग जिनका स्थान समाज में बहुत ही निम्न स्तर का माना जाता है, उनके जीवन के प्रति जो लोग तनिक भी संवेदनशील हैं, तो यह पुस्तक वास्तव में उन्हें अवश्य पढ़नी चाहिए। अपने नाम के अनुरूप यह पुस्तक एक गहन भावपूर्ण कृति है, जो जीवन की सच्चाइयों का सामना करने के लिए सबको प्रेरित करती है। जीवन को अलग-अलग पहलुओं से देखने का मौका देती है। प्रत्येक लघुकथाकार की लघुकथा कहीं न कहीं पाठक को कुछ सोचने पर मजबूर करती है। इसलिए मैं उन सभी पाठकों को इस पुस्तक को पढ़ने की सिफारिश करता हूं, जो जीवन की गहराइयों को, सच्चाइयों को समझना चाहते हैं। संपादक सुरेश सौरभ इस लघुकथा के साझा संग्रह में नवीन प्रयोग धर्मी नज़र आते हैं। प्रसिद्ध कहानीकार सुधा जुगरान ने संग्रह की भूमिका लिखी है, जो बेहद मार्मिक और हार्दिक है। 

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पुस्तक : घरों को ढोते लोग , संपादक : सुरेश सौरभ    

प्रकाशक : समृद्ध पब्लिकेशन नई दिल्ली,   

 मूल्य : 245 रुपये

संस्करण-2024


समीक्षक-रमाकान्त चौधरी

गोला गोकर्णनाथ, लखीमपुर–खीरी, उत्तर प्रदेश।

मो-94158 81883

रविवार, 15 सितंबर 2024

लघुकथाओं में वैश्विक मुद्दों की आवश्यकता । भाग 1

नेतराम भारती जी के महती कार्य "लघुकथा: चिंतन और चुनौतियां" में एक प्रश्न

"लघुकथा के ऐसे कौन-से क्षेत्र हैं जिन्हें देखकर आपको लगता है कि अभी भी इनपर और काम करने की आवश्यकता है?

का मेरा उत्तर कुछ इस प्रकार से शुरू हुआ था, 

"विषय। सबसे पहले सामयिक विषयों पर ध्यान देना आवश्यक है। ग्लोबल वॉर्मिंग, पेयजल में हो रही कमी, सड़क सुरक्षा, वित्त या अर्थव्यवस्था सम्बंधित, साइबर सुरक्षा, गामीण विकास, ऑर्गेनिक खेती, सांस्कृतिक परिवर्तन आदि ऐसे विषय हैं, जिन पर लेखन न के बराबर हो रहा है।..."

आगे कुछ और भी था, बहरहाल, कुल मिलाकर मेरा यह विचार है कि लघुकथा में 'उचित सामयिक विषयों' का कुछ तो अभाव है ही। 

अतः कुछ समकालीन वैश्विक चुनौतियाँ, जितनी मुझे समझ है, को आप सभी के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं।

साथियों,

संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2015 में 2030 तक के लिए 17 लक्ष्य रखे हैं। ये सभी मानवता और धरती के समक्ष सबसे बड़ी वैश्विक चुनौतियां हैं और इन सभी पर रचनाकर्म करना साहित्यकारों का दायित्व है। 

हमारी धरती की रक्षा करने और सभी के लिए समृद्धि व कल्याण सुनिश्चित करने के लिए ये 17 एसडीजी (सतत विकास लक्ष्य Sustainable Development Goals) एक सार्वभौमिक आह्वान है। आप इन पर कार्य कर सकते हैं, ये सभी ज्वलंत वैश्विक मुद्दे हैं।

पहला लक्ष्य है गरीबी उन्मूलन:

2030 तक हर जगह फैली गरीबी को समाप्त करना।

दूसरा है शून्य भूख:

कोई भूखा न रहे, खाद्य सुरक्षा मिले, उचित पोषण प्राप्त हो और आर्गेनिक कृषि हो।

3, बेहतर स्वास्थ्य:

सभी आयु के लोगों के लिए स्वस्थ जीवन सुनिश्चित हो।

4, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा:

समावेशी, समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित हो और सभी के लिए आजीवन सीखने के अवसर हों।

5, लैंगिक समानता:

हर स्थान पर लैंगिक समानता हो और सभी ओर महिला सशक्तिकरण हो।

6, स्वच्छ जल और स्वच्छता:

सभी के लिए स्वच्छ जल की उपलब्धता और जल का सही और सस्टेनेबल मैनेजमेंट सुनिश्चित हो।

7, सस्ती और टिकाऊ ऊर्जा:

सस्ती, विश्वसनीय, टिकाऊ और आधुनिक ऊर्जा तक सभी पहुँच सुनिश्चित हो।

8, रोजगार और आर्थिक विकास:

सभी के लिए सतत, समावेशी आर्थिक विकास, पूर्ण और उत्पादक रोजगार के साथ प्राप्त हो।

9, उद्योग, नवाचार और इंफ्रास्ट्रक्चर:

फ्लेक्सिबल इंफ्रास्ट्रक्चर हो, टिकाऊ औद्योगिकीकरण को बढ़ावा दें और नवाचार को बढ़ावा मिले।

10, असमानता में कमी:

सभी देशों के भीतर और उनके बीच असमानता ना हो, चाहे वह आर्थिक दृष्टि से हो, सामाजिक या अन्य कोई भी।

11, स्थायी व सुरक्षित शहर:

शहरों का निर्माण ऐसा हो जो समावेशी, सुरक्षित, लचीला और टिकाऊ हो। हमारे यहाँ स्मार्ट सिटी की अवधारणा है।

12, दायित्वपूर्ण उत्पादन और उपभोग:

उत्पादन के अनुसार उपभोग दायित्व पूर्ण हो और उपभोग के अनुसार उत्पादन।

13, जलवायु:

जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों से निपटने के लिए तत्काल कार्यवाहियों की आवश्यकता है।

14, पानी के नीचे जीवन:

महासागरों, समुद्रों और समुद्री संसाधनों, जीवों का संरक्षण करते हुए उनका उपयोग करें।

15, भूमि पर जीवन:

धरती की पारिस्थितिकी प्रणालियों के सरंक्षण, पुनर्स्थापना को बढ़ावा मिले, वनों का उचित प्रबंधन हो, मरुस्थलीकरण से लड़ें और जैव विविधता की हानि को रोका जाए।

16, शांति, न्याय और सशक्त संस्थान:

शांतिपूर्ण और समावेशी समाजों को बढ़ावा मिले, सभी के लिए न्याय तक पहुँच हो और प्रभावी, जवाबदेह संस्थानों का निर्माण हो।

17, लक्ष्यों के लिए भागीदारी:

कार्यान्वयन के साधनों को मजबूत करना और सतत विकास के लिए वैश्विक भागीदारी को पुनर्जीवित करना। 

मित्रों,

एसडीजी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे आज हमारी पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाले कुछ सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित कर रहे हैं। 

इनके अतिरिक्त आप प्रदूषण, सड़क सुरक्षा, युद्ध, साइबर क्राइम, जैसे अन्य मुद्दों पर भी कार्य कर सकते हैं। लघुकथाकार होते हुए अपने साहित्यकार होने के दायित्व का निर्वहन ज़रूर करें।

सादर, 

चंद्रेश कुमार छतलानी

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

पुस्तक समीक्षा । घरों को ढोते लोग । समीक्षक- देवेन्द्रराज सुथार

श्रमजीवी वर्ग की व्यथा-कथा लेकर आये सौरभ   (पुस्तक समीक्षा) 


 साहित्य समाज का आईना होता है और कई बार यह आईना हमें वह चेहरे दिखाता है, जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं या जो हमारी  चेतना में नहीं होते। सुरेश सौरभ द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह 'घरों को ढोते लोग' समाज के उन तबकों पर केंद्रित है, जो हमारे दैनिक जीवन को सुचारू रूप से चलाते हैं, लेकिन जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। यह संग्रह 65 लघुकथाकारों द्वारा लिखी गई 71 लघुकथाओं का बेहतरीन गुलदस्ता है, जिसमें प्रत्येक लघुकथाकार ने अपने अनूठे नज़रिए से मज़दूरों, किसानों, मेहनतकशों व  कामवाली बाइयों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को मार्मिक ढंग से उजागर किया है। इन लघुकथाओं में रोज़मर्रा के संघर्षों, आर्थिक चुनौतियों, सामाजिक असमानता और मानवीय संवेदनाओं को बहुत ही बारीकी से दर्शाया गया है।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की लघुकथा 'जहर' एक रिक्शाचालक के जीवन की विडम्बनाओं को दर्शाती है कि कैसे समाज का ढाँचा, किस प्रकार किसी व्यक्ति को कभी-कभी अपराध की ओर धकेल देता है। मुख्य पात्र 'सईद' अपने बीमार बच्चे के लिए दवा खरीदने की मजबूरी में अपने मालिक से भिड़ जाता है, जो उसकी मजबूरी का फायदा उठाना चाहता है। मार्टिन जॉन की लघुकथा 'घरों को ढोते लोग' (जिसे पुस्तक का शीर्षक बनाया गया है) एक छोटी बच्ची के मार्फ़त मजदूरों के जीवन की कठोर वास्तविकता को, सच्चाई को प्रस्तुत करती है। पुस्तक में शामिल लघुकथाएँ भारतीय समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता और सामाजिक भेदभाव को स्पष्ट रूप से उजागर करने में सफल रही हैं। 

डॉ. प्रदीप उपाध्याय की लघुकथा 'बस इतनी गारंटी' खेतिहर मजदूरों की समस्याओं को प्रकट करती है। शराफत अली खान की लघुकथा 'कमाई' समाज में व्याप्त असमानता और विडम्बनाओं को दर्शाती है तथा समाज में व्याप्त नैतिक मूल्यों के क्षरण की ओर भी इशारा करती है। नीरू मित्तल 'नीर' की लघुकथा 'एक माँ की मजबूरी' गरीब वर्ग की महिलाओं की स्थिति को उजागर करती है। यह लघुकथा बताती है कि गरीबी और अशिक्षा किस तरह युवा लड़कियों के भविष्य को प्रभावित कर सकती है। यह न केवल बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों की ओर इशारा करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे गरीबी महिलाओं को अपने बच्चों के भविष्य के बारे में कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूर कर देती है।

पुस्तक में केवल निराशा और दुख की ही रचनाएं नहीं है, कई लघुकथाओं में गहरी मानवीय संवेदना और आशावाद की झलक भी दिखाई देती है। डॉ. अलका अग्रवाल की लघुकथा 'चरैवेति, चरैवेति' एक रिक्शाचालक की जीवंतता और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाती है। संतोष सुपेकर की लघुकथा 'मजबूर और मजबूत' श्रमिक वर्ग की अदम्य इच्छाशक्ति को दर्शाती है। सेवा सदन प्रसाद की लघुकथा 'भूख', कोरोना महामारी के दौरान मजदूरों की दुर्दशा को चित्रित करती है। कैसे भूख और बेरोजगारी लोगों को जोखिम भरे निर्णय लेने पर मजबूर कर सकती है। आपदा के समय में समाज के सबसे कमजोर वर्ग को सबसे अधिक कष्ट झेलना पड़ता है, भूख लघुकथा से पता चलता है। 

 सुकेश साहनी, योगराज प्रभाकर, मनोरमा पंत, अविनाश अग्निहोत्री, बलराम अग्रवाल, डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी, नीना मंदिलवार, आलोक चोपड़ा, प्रो. रणजोध सिंह, डॉ.मिथिलेश दीक्षित, कल्पना भट्ट, अरविंद सोनकर, रश्मि लहर, गुलज़ार हुसैन, सुरेश सौरभ , रशीद गौरी, आदि लघुकथाकारों ने अपनी बेहतरीन लघुकथाओं से संग्रह को पठनीय और संग्रहणीय बनाया है। वरिष्ठ कथाकार सुधा जुगरान ने संग्रह में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका जोड़ कर संग्रह को साहित्यिक हलकों में विमर्श का हिस्सा बना दिया है। 

संग्रह की भाषा सरल और प्रभावशाली है, जो इसे व्यापक पाठक वर्ग के लिए सुलभ बनाती है। लेखक जटिल सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को सरल कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने में सफल रहें हैं। लघुकथाएँ संग्रह के विषय से अनुकूल और सार्थक हैं। 'घरों को ढोते लोग' एक ऐसा लघुकथा संग्रह है, जो न केवल पठनीय है, बल्कि समाज के प्रति हमारी समझ को, संवेदना को गहरा और विस्तृत करने में भी सहायक सिद्ध होगा। संपादक ने इन लघुकथाओं को एक साथ संकलित करके महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने समाज के एक ऐसे वर्ग की आवाज़ को मुखर किया है, जो अक्सर साहित्य में उपेक्षित रह जाती है। यह संग्रह केवल एक पुस्तक नहीं है; यह एक वह आईना है, जो हमें हमारे समाज का एक ऐसा चेहरा दिखाता है जिसे हम अक्सर देखने से कतराते हैं। सच्चा विकास तब तक नहीं हो सकता, जब तक समाज का हर वर्ग सम्मान और समानता के साथ न जिये। लिहाजा यह एक ऐसी कृति है जो न केवल पढ़ी जानी चाहिए, बल्कि जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। मंथन किया जाना चाहिए।

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पुस्तक-घरों को ढोते लोग (साझा लघुकथा संग्रह) 

संपादक: सुरेश सौरभ (मो-7860600355) 

मूल्य: ₹245 (पेपरबैक)

प्रकाशन: समृद्ध पब्लिकेशन शाहदरा, दिल्ली

प्रकाशन वर्ष-2024

समीक्षक-

देवेन्द्रराज सुथार

 पता - गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। 343025

मोबाइल नंबर- 8107177196

रविवार, 4 अगस्त 2024

पुस्तक समीक्षा। ब्रीफकेस। नेतराम भारती

 

नेल्सन मंडेला ने कहा था कि, "यदि आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं जो वो समझता है तो बात उसके दिमाग में जाती है, लेकिन यदि आप उससे उसकी अपनी भाषा में बात करते हैं तो बात सीधे उसके दिल तक जाती है।" साहित्य भी इसी प्रकार के दृष्टिकोण से निर्मित किया जाता है और साहित्य की एक विधा - लघुकथा चूँकि न्यूनतम शब्दों में अपने पाठकों को दीर्घ सन्देश दे पाती है। अतः ऐसा वातावरण, जो मानवीय संवेदनाओं और समकालीन विसंगतियों को दिल तक उतार पाए, का निर्माण करने में लघुकथा का दायित्व अन्य गद्य विधाओं से अधिक स्वतः ही हो जाता है। 

हिन्दी शिक्षक, गद्य व पद्य दोनों ही की विभिन्न विधाओं में समान रूप से सक्रिय युवा लेखक श्री नेतराम भारती के लघुकथा संग्रह 'ब्रीफ़केस' में भी सामयिक भाषा व समकालीन विषय, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक यथार्थ की पृष्ठभूमि से जुड़े हैं, की एक सौ एक रचनाएं संगृहीत हैं। लघुकथा लघु और कथा की मर्यादाओं के साथ-साथ जिस क्षण विशेष की बात कर रही होती है, वह, पूरी रचना में हाथों से फिसलना नहीं चाहिए अन्यथा लघुकथा के भटक जाने का खतरा होता है। नेतराम भारती की लघुकथाएं इन दृष्टिकोणों से आश्वस्त करती हैं, इनके अतिरिक्त उनकी कलम किसी नोटों से भरे ब्रीफ़केस से ऊपर उठी दिखाई देती है। इस संग्रह की ‘ब्रीफ़केस’ लघुकथा इसी विचार पर केन्द्रित है। जमील मज़हरी का एक शे'र है, "जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर, ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की।" इस संग्रह की एक अन्य लघुकथा 'रसीदी टिकट' भी भोगवादिता और भाववादिता के अंतर को दर्शाती एक ऐसी रचना है जो चरागों को रोशन करने का पैगाम दे रही है। लघुकथा 'सदमा' के मध्य की यह पंक्ति //वे ही अगर जीवित होती तो, पिताजी के जाने का इतना दुःख नहीं होता।//, न केवल उत्सुकता बढ़ाती है बल्कि रचना का अंत आते-आते यह पञ्चलाइन भी बन जाती है। संस्कृत में एक श्लोक है - "भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।" अर्थात भूमि से श्रेष्ठ माता है, स्वर्ग से ऊंचे पिता हैं। रचना 'नये पिता' भारतवर्ष की इसी संस्कृति को उद्घाटित कर रही है। 'फ़रिश्ता' की बात करें तो यह नारी सशक्तिकरण की उन रचनाओं में से एक है जिनका विषय समकालीन व उत्कृष्ट है। हालांकि इस रचना की अंतिम तीन पंक्तियों को हटा दिया जाए तो इस रचना का प्रभाव और अधिक हो जाएगा। 'इडियट को थैंक्स' मित्रता का सन्देश दे रही है और 'आख़िरी पतंग' पिता-पुत्र के प्रेम का। 'पत्नी ने कहा था' का अंत मार्मिक है और निष्ठपूर्ण आचरण का द्योतक है। 'बुज़ुर्ग का चुंबन' प्रवासी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती एक रचना है, जिन्होंने अपने स्वदेश को देखा भी नहीं है। 'शब्दहीन अभिव्यक्ति' में कुत्तों के एक युगल के मध्य प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति है। 'मैडम सिल्विया' में संवादों की लम्बाई रचना को थोडा उबाऊ ज़रूर कर रही है, परन्तु रचना का शीर्षक व प्रारम्भ उत्सुकता बढ़ाने वाला है। 'कान और मुँह' एक अनछुए विषय पर कही गई रचना है। 'बेड नंबर 118' मेडिक्लेम इंश्योरेंस के प्रति हस्पताल के लालच से परिचय करवाती है तो 'ऑनलाइन - ऑफलाइन' आभासी और भौतिक रिश्तों में अंतर को दर्शाती है। 'एक सत्य यह भी' एक पूर्ण रचना है, इसका शिल्प और अधिक उत्तम होने की सम्भावना है। 'संवेदना की वेदना' वास्तविक वेदना पर हावी टीवी सीरियल की स्क्रिप्टिड वेदना को बहुत अच्छे तरीके से दर्शा रही है। 'सफ़ेद कोठी' अपने संघर्ष के दिनों को न भूलने की सलाह देती हुई है। 'मुहिम' पद से हटाने की रणनीति बताती है। 'क्रॉकरी या जीवन' अपने जीवन काल में स्वअर्जित वस्तुओं के उपभोग का सन्देश दे रही है तो 'यूज एंड थ्रो' लिव-इन-रिलेशनशिप के कटु सत्य को दर्शा रही है। 'गाँधारी काश! तू मना कर देती' एक बेहतरीन शीर्षक की बेमेल विवाह से मना करने की राह दिखाती रचना है। 'अफ़सोस' मृत्यु के समय मनुष्य का अन्तिम वेदोक्त का कर्तव्य अर्थात "वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तंशरीरम्। ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतंस्मर।।" को याद दिला रही है। 'औज़ार...' लघुकथा सत्य को कहने का साहस और 'टायर-पंचर' परेशानी में मदद करने का सन्देश दे रही है।

लेखक की कई रचनाओं में किसी न किसी पात्र का नाम 'दिवाकर' है। पढ़ने-लिखने और प्रश्न करने वाले व्यक्ति की बुद्धि के बारे में कहा गया है कि "दिवाकरकिरणैः नलिनी, दलं इव विस्तारिता बुद्धिः॥" अर्थात वह बुद्धि ऐसे बढ़ती है जैसे कि 'दिवाकर' की किरणों से कमल की पंखुड़ियाँ। इस पुस्तक रुपी रचनाकर्म में भी समाज में सनातन नैतिक मूल्यों को सुदृढ़ बनाने हेतु जिस निष्ठा और समर्पण से सन्देश दीप्तिमान किया गया है वह प्रज्ञा संवृद्धि करता है। अधिकतर रचनाएं सौहार्दपूर्ण सकारात्मक दृष्टिकोण से कही गई हैं। शिल्प उत्तम है और जिस बात की भूरी-भूरी सराहना की जानी चाहिए वह है श्री भारती द्वारा विषय की गूढ़ अध्ययनशीलता और उस अध्ययन को कलमबद्ध करने की क्षमता। कहीं-कहीं जैसे,'शब्दहीन अभिव्यक्ति' में 'भाई सहाब' आदि को छोड़कर वर्तनी की त्रुटियाँ नहीं हैं। भाषा आम बोलचाल की है। कुछ रचनाओं के शीर्षक उत्तम होने की संभावना रखते हैं। समग्रतः, प्रबुद्ध सोच के पश्चात समकालीन मानवीय संवेदनाओं, चिन्तन हेतु आवश्यक विषयों से ओतप्रोत लघुकथाओं का यह संग्रह पठनीय व संग्रहणीय है। 

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ब्रीफ़केस: लघुकथा संग्रह

लेखक: नेतराम भारती

पृष्ठ -१६०, मूल्य -३५०, प्रथम संस्करण: २०२२.

प्रकाशक:अ यन प्रकाशन, जे - १९/३९, राजापुरी, उत्तम नगर,

नई दिल्ली - ११००५९

मोबाइल -९२११३१२३७२

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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

अध्यक्ष, राजस्थान इकाई, विश्व भाषा अकादमी

ब्लॉगर, लघुकथा दुनिया ब्लॉग


मंगलवार, 30 जुलाई 2024

लघुकथा चर्चा | लघुकथा में लघुता का अनुशासन और उसके रोचक/रुचिकर/प्रभावी होने में अंतर्संबंध

आदरणीय साथियों,

लघुकथाओं के सन्दर्भ में कई ऐसी रचनाएं पढ़ी हैं, जिनमें लघुकथाकारों ने लघुता (ना एक शब्द ज़्यादा ना एक शब्द कम) के अनुशासन को भी तोड़ा है, ताकि लघुकथा प्रभावित कर सके, रोचक या रुचिकर हो सके. उनमें से अधिकतर रचनाएँ लघुकथा ही कही जाती रहीं और कुछ तो काफी प्रसिद्द भी हुईं. हालाँकि, मानकों के अनुसार लघुकथा में स्पष्टता को लेकर एक शब्द भी कम या ज़्यादा नहीं होना चाहिए.

तब यह प्रश्न दिमाग में आया कि क्या रुचिकर होने और लाघव होने के बीच केवल यही अंतर्संबंध है कि यदि किसी वेन आरेख के अनुसार सोचें तो  रुचिकर होना लघु तत्व के भीतर होगा या कभी बाहर हो भी सकता है.

यह अंतर्सबंध और भी किसी तरह से हो सकता है क्या?

इस प्रश्न को सोचते-विचारते ही फेसबुक सोशल मीडिया पर यह एक प्रश्न भेजा, जिसमें काफी उत्तर आए और चर्चा भी अच्छी रही. हालाँकि चर्चाकारों के कमेन्ट के प्रत्युत्तर भी आए, लेकिन मैं यहाँ केवल पहला कमेन्ट ही ले रहा हूँ, ताकि मूल विचार ज्ञात हो सकें. 

प्रश्न:

लघुकथा को रोचक बनाने के लिए, यदि कोई अन्य तरीका न हो और कुछ शब्द अधिक डाल दें या भूमिका/पात्र परिचय लिख दें, तो क्या वह कहानी बन जाएगी?


Kamlesh Bhartiya

बिल्कुल नहीं। कसावट और कम शब्दों में नाविक के तीर‌ की तरह लिखी जानी चाहिए । यह आकाश में बिजली जैसी चमकती है और इसे जानबूझकर लम्बा नहीं किया जा सकता।


Shreya Trivedi

पता नही


Virender Veer Mehta

मेरे विचार से भूमिका पात्र परिचय या शब्दों की अधिकता रचना को विस्तार दे सकती है, लेकिन यदि लघुकथा को कहानी बनाना है तो यह देखना पड़ेगा कि क्या उसके कथ्य में इतना स्कोप है कि उसे विस्तार दिया जा सके; वरना तो एक लघुकथा को कहानी बनाने की कोशिश उस लघुकथा को भी नष्ट करने वाली बात ही होगी।


रमेश कुमार

लघुकथा अपनी पहचान आप ही बनाती है ।


Seema Singh

ऐसे अनूठे प्रश्न आपसे पूछता कौन है भाई जी? ये आपकी अपनी उपज तो शर्तिया नहीं हैं!🤣🤣


Archana Rai

मेरी लघुकथाएँ कुछ लंबी होती हैं। कथा में रोचकता और कौतुहल बनाए रखने के लिए मैं शिल्प पर काम करती हूँ। इसलिए शब्द संख्या बढ़ जाती है।

सतीश राज पुष्करणा जी की बात पर अमल करती हूँ कि

हाथी चाहे बड़ा हो या बच्चा हाथी ही कहलाता है।

उसी तरह अगर कथा लघुकथा के ढांचे में फिट बैठ रही है तो वो लघुकथा ही होगी। बड़ी या छोटी होना कोई मायने न रखता

ये मेरा अपना व्यक्तिगत मानना है । जरूरी नहीं आप भी सहमत हो आदरणीय।


Yograj Prabhakar

रोचक बनाने के स्थान पर लघुकथा को रुचिकर बनाने का प्रयास करना चाहिए भाई Chandresh Kumar Chhatlani जी.


Vimal Shukla

यदि सच में लघुकथा की बात है तो इसमें रोचकता का कोई स्थान नहीं है।दर्द की विधा में ,कैसी रोचकता।सामाजिक ध्वस्त ताना बाना , ही लघुकथाओं को जन्म देता है।बीमार समाज के लिए ये इंजेक्शन का काम करें न कि बोतल का।


Vandana Gupta

सर यदि पोहा खा रहे हैं, स्वाद और भूख के कारण ज्यादा मात्रा में खा लिया, तब भी वह नाश्ता ही कहलाएगा, भोजन नहीं। भोजन वाली बात तो दाल चावल सब्जी रोटी से ही बनेगी।


Soma Sur

कथ्य पर निर्भर करेगा। लेकिन कहानी में क्या लघुकथा की मारक क्षमता आ पायेगी!!


विनोद प्रसाद 'विप्र'

पूर्वजन्म के सवालों को ऐसे ही पटल पर डालते रहें, धन्यवाद।

वरिष्ठ साहित्यकारों के विचार पढ़कर हम नये रचनाकार लाभान्वित होंगे।


Kalpana Bhatt

कहाँ कहाँ से ऐसे सवाल लाते हो भैया? बढ़िया चर्चा हो रही है। जो आपसे ऐसे सवाल करते हैं उनकी जय हो।

सीमा ने सही कहा है यह आपकी उपज नही होगी। परंतु प्रश्न तो प्रश्न ही है।

लघुकथा के आकार को लेकर कब तक भ्रम बना रहेगा?

ऐसे ही कालदोष को लेकर भी....

हाल ही में किसी से सुना था कि अब समय आ गया है कि लघुकथा में कॉमेडी (हास्य)भी आना चाहिए। उसी व्यक्ति ने यह भी कहा कि लघुकथा गम्भीर विधा है। (whatsapp mahavidhyalaya)


Asfal Ashok

मेरे ख्याल से नहीं क्योंकि कहानी का नेचर अलग है


Neeraj Jain

कम शब्दों में बात पूरी हो सकती है तो मैं एक भी शब्द ज्यादा नहीं लिखता

लघुकथा

समय

दो घण्टे लेट आने के बाद मास्टरजी बोले

आज एक नया विषय पढाया जायेगा

"समय का महत्व"

नीरज जैन


पवन जैन

तिलमिलाहट पैदा करना लघुकथा का स्वाभाव है ,

पर उसे इतना भी न जकड़ो कि वह कसमसाने लगे।


Netram Bharti

वर्जनाएं हमेशा से रचनात्मकता में बाधक होती हैं l एक दौर था जब प्रबंधकाव्य में नायक उच्चकुलोत्पन्न, क्षत्रिय या उस जैसा ही होना चाहिए, धीरोद्दात, धीर प्रशांत गुणों से परिपूर्ण होना चाहिए ,यह नियम था, क्या आज भी यदि कोई प्रबंधकाव्य की सर्जना करता है तो उन्हीं राजकुमारों सदृश नायकों को नायक बना रहा है या वैसे नायक समाज में परिलक्षित होते हैं l मैं हमेशा कहता हूँ कि हर काल अपने पूर्वकाल से भिन्न होता है और हर काल की अपनी कुछ विशेषताएं, कुछ वर्जनाएं तो कुछ प्रवृत्तियां होती हैंl उसके अनुसार ही साहित्य और उसकी विधाओं में सर्जन होता है और होना चाहिए नहीं तो ' साहित्य समाज का दर्पण है' इस उक्ति की तर्कसंगतता बाधित होगी l फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि साहित्यकार यदि अपने समय और उसकी विसंगतियों, प्रगतियों को नजरअंदाज करता है तो उसका लेखन उल्लेखनीय और प्रभावी कैसे होगा यह भी एक प्रश्न है l इसलिए विधा के अंदर रहकर यदि उसमें कथ्य अनुसार कुछ शब्दों की अधिकता हो भी जाती है तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए l क्योंकि हर रचना की शब्द संख्या उसके अंदर ही निहित होती है l शर्त यह है कि विधा से छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए l


Santosh Supekar

अत्यधिक विस्तार, शब्दों - वाक्यों का Repetation होने पर आज का प्रबुद्ध पाठक खुद पूछने लगता है ' ये कहानी है क्या? '


Savita Mishra

दूसरे की कॉपी कर लें, सिम्पल😁


दिव्या राकेश शर्मा

विद्रोह ही लघुकथा का परिचय है इसमें पात्र परिचय भूमिका अतिरेक शब्द डालकर विद्रोह को आत्मसमर्पण बनाने की आवश्यकता ही क्यों है


कथाकार सन्दीप तोमर

लघुकथा को क्यों ही कहानी बनाना। अभी मैंने एक प्रयास किया लघुकथा को कहानी बनाने का, सफल नहीं हुआ।


Kapil Shastri

फिर वो लघुकथा रोचक भी नहीं रहेगी।


Arun Dharmawat

मैं आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूँ कि मात्र कुछ शब्द जोड़ने से यदि लेखन, पाठकों के अंतर्मन को छू ले तो इसमें कोई बुराई नहीं है। भाई सुख़न की बारिश तो बड़ी मासूम होती है, उसे नहीं मालूम होता कि वो छप्पर पे बरस रही है या महल पर। लघुकथा कोई गणित का सवाल नहीं जिसमें दो और दो का जोड़ सिर्फ चार ही होता है। ना ही ये कोई रसायन है जिसका लैब में परीक्षण किया जाए कि कितना पदार्थ कितनी मात्रा में ही मिलाना चाहिए।

यदि लेखन में संवेदना संदेश एवं ग्राह्यता नहीं होगी तो वो शो केस में खड़े उस बेजान पुतले से अधिक नहीं होगी जिसे बेहद खूबसूरत वस्त्रों से सजाया तो जा सकता है लेकिन उसमें जीवंतता नहीं होती।

लिखने वाले को सोचना होगा कि उसका सृजन कोई प्रॉडक्ट है अथवा निश्छल निर्बाध बहने वाला प्रपात जो साहित्य मनीषियों के निर्धारित मापदंडों की परिधि में ही जकड़ कर रह जाए। असंख्य कृतियां जिन्हें पाठकों का भरपूर प्यार मिला लेकिन साहित्य के टेक्नीशियनों द्वारा उनमें अनेकों तकनीकी खामियां गिनाकर उनके द्वारा निर्धारित मापदंडों से बाहर कर दिया। एक मासूम बालक चोटिल होने पर किसी बहर में नहीं रोता इसके बावजूद उसकी माता का हृदय स्पंदित हो कर छलक पड़ता है और उसे सीने से लगाकर खुद रोने लगता है।

साहित्य उसी स्पंदन और संवेदना का परिमाण होना चाहिए। इसे शब्दों की गणना, विधि, विधान, तकनीक की परिधियों से मुक्त होना चाहिए।

मैं कहूँ तो ..... शब्दों के संकलन को साहित्य नहीं कहते 'अरुण', शिद्दत और एहसास भी जरूरी है असर होने के लिए।

इति ......

Arun Dharmawat

मेरा मानना है कि जो लेखन उसमें निहित संदेश को यदि पाठक तक पहुँचाने में सफल हो जाए वही श्रेष्ठ है। इसके लिए यदि शाब्दिक सरंचना की संख्या कम अथवा अधिक भी करनी पड़े तो उसमें कोई हर्ज़ नहीं।

जैसा कि आप जानते हैं ग़ज़ल को लिखने के लिए उसे किसी बहर में निबद्ध होना आवश्यक है परंतु ग़ालिब से लेकर फैज़ मोमिन फ़राज़ और वर्तमान के आला उस्ताद शायर भी अपनी बात को मुक़म्मल और बेहतर कहने के लिए आवश्यकता पड़ने पर मात्रा तोड़ देते हैं। इसलिए मैं आपकी ही बात का समर्थन करते हुए कहना चाहता हूँ कि किसी भी लघुकथा को प्रभावशाली बनाने के लिए यदि चंद शब्द अतिरिक्त भी लिखने पड़े तो कोई ग़लत नहीं।

धन्यवाद !

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