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शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2024

'इरा मासिक ई पत्रिका' में दो लघुकथाएं


 'इरा' में दो लघुकथाएं।

एक लघुकथा टीवी चैनल रिपोर्टिंग शैली में है और दूसरी में एक नए मुहावरे की कोशिश है।

आप सभी की राय अपेक्षित है।

1)

ज़रूरी प्रश्न 

“दोस्तों टीवी चैनल ‘सबसे पहले’ से, मैं हूँ आपका मित्र रिपोर्टर और मेरे साथ हैं हमारे कैमरामैन. यह देखिए देश के इतने बड़े मंत्री के घर के बाहर कुछ महिलाएं प्रदर्शन कर रही हैं. पुलिस का जाप्ता भी आ गया है लेकिन पुलिस से भी पहले आ चुका है चैनल - ‘सबसे पहले’.”

...चैनल का विज्ञापन.

“फिर से स्वागत है. अब देखिए प्रदर्शनकारी महिलाओं में से कईयों ने हाथ में तख्ती पकड़ी हुई हैं, इन पर लिखा है ‘सेव लाइव्स‘, ‘नो रेप - नो मर्डर‘, ‘स्टॉप वोईलेंस‘...

आइये इनसे कुछ प्रश्न करते हैं.

आप सब यहाँ प्रदर्शन क्यों कर रही हैं?"


“हमारे शहर में रोज़ महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा है. हर रोज़ कोई न कोई बलात्कार होता है, सप्ताह में एक या दो हत्याएं भी हो रही हैं. हमारी जिंदगी की सुरक्षा के लिए हम लड़ रही हैं.”


“अच्छा! लेकिन यहीं पर क्यों?”


“पिछले चुनाव से पहले मंत्री जी आकर कह गए थे कि एक महीने में वे सब ठीक कर देंगे, लेकिन जीतने के बाद दो साल हो गए हैं... अभी भी... हर रोज़ हम मर रही हैं... प्लीज़-प्लीज़ सेव अवर लाइव्ज़...”


“धन्यवाद, आपके उत्तर के लिए. अब यह बताइये कि, यह मंत्री जी का घर है... यहाँ प्रदर्शन से पहले आपने अनुमति ली थी?”


“जी!... जी क्या?”

...विज्ञापन.

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2)

जलेबियाँ गिरेंगी तो कुत्ते लड़ेंगे ही

रोज़ की तरह ही वह बूढ़ा आदमी आज भी कुत्तों के लिए जलेबियाँ लाया. कुत्ते उसके पीछे-पीछे चलने लगे. रोज़ तो वह एक कोने में जाकर हर एक कुत्ते को दो-दो जलेबियाँ बांट देता था, आज एक कुत्ता थोड़ा तेज़ भौंका तो वह घबरा गया और जलेबियों का पैकेट उसके हाथ से छूट कर बीच सड़क में ही गिर गया.

पैकेट के गिरते ही सारे के सारे कुत्ते उस पैकेट पर झपट पड़े और जलेबियों के लिए एक-दूसरे पर भौंकने और लड़ने लगे. उस लड़ाई में किसी को जलेबी मिली तो किसी को नहीं. उस बूढ़े आदमी ने देखा जो ताकतवर कुत्ते थे वे सारी जलेबियाँ चट कर गए और कमज़ोर कुत्ते गुर्राते ही रह गए.

वह कुछ देर उन्हें देख कर सोचता रहा, फिर उसने अपना सेलफोन निकाला और सड़क के एक कोने पर जाकर एक नम्बर मिला कर बोला, "एडवोकेट जी, आज मिल सकते हैं क्या? मुझे वसीयत करवा कर मेरे बाद अपने बच्चों में सब कुछ बराबर-बराबर बांटना है."

...

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- चंद्रेश कुमार छतलानी

लिंक

https://iraimaginations.com/irawebmag/editorial-detail/Dr_Chandresh_Kumar_Chhatlani_Kii_Laghukathayen

शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

लघुकथा : हवा | सुरेश सौरभ

     दरवाजा खुला। 

    "इतनी रात कहां कर दी।" अब्बू गुस्से से आगबबूला थे। 

      "कार्यक्रम ही लंबा खिंचा। क्या करती ?"

      "क्या था कार्यक्रम? "

      "राम भजन संध्या।" तसल्ली से बैठते हुए बेटी बोली। 

      "अरे! तुमने गया राम भजन? 

      "हां हां...फिर पर्स से नोट निकालते हुए वह गिनने लगी, एक दो तीन.....नोटों की चमक से,अब्बू की आंखें चुधिंया गईं, "तू तो नात-ए-पाक कव्वाली गाती थी, फिर राम भजन....?" 

       वह नोट गिरने में तन्मय थी।

       "वाह! पूरे सोलह हजार, इनाम मिलाकर। इतने कम समय में इतने कभी न मिले। हां अब्बू अब बताओ क्या कह रहे थे आप ?"

      "यही कि तू तो कुछ और ही गाती थी। फिर अचानक राम भजन.."

       "हवा का रुख देखकर पंछी भी परवाज भरते हैं, फिर मैं तो इंसान हूं...हा हा हा....हंसते हुए आंखें नचाकर, "अब्बू आप भी कुछ समझा करो।"

        अब अब्बू भी मुस्करा कर प्यार से बोले-"सलमा बेटी अगली भजन संध्या कब है।"

        "परसो।"


    -सुरेश सौरभ

      स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

       निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश

        मो-7860600355


सोमवार, 8 जनवरी 2024

नैतिक मूल्यहीनता पर वैश्विक विमर्श की ओर उन्मुख लघुकथाएँ - सुरेश सौरभ

आज हर क्षेत्र में हम बढ़ रहे हैं, किन्तु चरित्र के मामले गिरते जा रहे हैं। आज पढ़े-लिखे ही नित रोज भ्रष्टाचार में संलिप्त दिखाई देते हैं, जो एक रुपया ऊपर से चलता है, नीचे तक आते-आते वह 15 पैसे ही रह जाता है, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी कभी ऐसा कहते थे। हर क्षेत्र में नैतिक मूल्यों की गिरावट आयी है, फिर चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या राजनीति का। शिक्षालयों  में जहाँ देश के भविष्य का निर्माण होता है, वहाँ आज नैतिक मूल्यों में गिरावटें दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं, जो विद्यार्थी जिस विषय में टॉप करता है, वहीं पत्रकारों के सवाल के जवाब में अपना सही विषय नहीं बता पाता है। अनामिका शुक्ला जैसी शिक्षक-शिक्षिकाएँ फर्जी तरीके से करोड़ों का कैसेे गबन कर रहे हैं, यह प्रतिदिन अखबारों में खुलासे हो रहे हैं। ऐसे में भ्रष्ट चरित्रहीन शिक्षक-शिक्षिकाएँ क्या बच्चों को शिक्षा देंगे? यह सवालिया विषय है। आज दशा ये है, जिसे नकल रोकने की जिम्मेदारी दी गई है, वही नकल कराने की तरतीब बताता है, जिसे बिजली चोरी रोकने की जिम्मेदारी दी गई, वही बिजली चोरी के नये तरीके बता रहा है। जिसे  अपराध रोकने की जिम्मेदारी दी गई, वही अपराधियों को बचाने का ठेका लिए बैठा है। माँ-बाप के पास बच्चों के लिए समय नहीं, बच्चे मोबाइल देख-देख कर जवान हो रहे हैं। व्यवसायिकता की आँधी में संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। परिवार जैसी संस्था का, संस्कारों का, रोज जनाजा निकल रहा है। नैतिक मूल्यों पर चर्चा कहीं नहीं होती, चर्चा सिर्फ माँ-बाप अपने बच्चों से यही करते है कि कैसे अधिक से अधिक पैसे कमाए जाए, कैसे अमीर बन कर शोहरत हासिल की जाए। युवा लेखक नृपेन्द्र अभिषेक ‘नृप’ की  पुस्तक ’ऊर्जस्वी’ अभी जल्दी ही आयी है, जिसमें वह लिखते हैं-पृथ्वी का सबसे बुद्धिमान प्राणी इंसान होता है। लेकिन इंसान की फितरत होती है कि वह कभी संतुष्ट नहीं होता। उसे जितना प्राप्त हुआ, उससे ज्यादा पाने की चाह में निराश होते रहता है।’’ 

गिरते नैतिक मूल्यों पर वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज जी कहते हैं-
होठों पर मुस्कान सजा कर आए हैं/चंद लुटेरे वेश बना कर आए हैं 

वहीं खीरी के वरिष्ठ कवि नंदी लाल जी कहते हैं।
सभ्यता पर नग्नता के जो कलैंडर टँग गए/प्यार के किस्से सभी  अखबार वाले पूछते,

संजीव जायसवाल ‘संजय’ का बाल कहानी संग्रह ‘सोशल मीडिया का राजकुमार’ तथा राजेन्द्र वर्मा का लघुकथा संग्रह ‘विकल्प’ अभी जल्द ही प्रकाशित हुए हैं, जिनकी लघुकथाओं में गिरते नैतिक-शैक्षिक मूल्यों पर दोनों लेखकों का विशद चिंतन-मनन पाठकों के मन की ग्रंथियों को पर्त दर पर्त खोलने, बहुत कुछ विचार करने को विवश करता है। मेरी पसंद में जो मैंने लघुकथाएँ योगराज प्रभाकर और चित्तरंजन गोप की ली हैं, वह कुछ ऐसी ही चिंतन और चेतना को झंकृत करती हैं। मानवीय संवेदनाओं को संजोती हैं, गिरते सामाजिक मूल्य, चारित्रिक मूल्य पर एक वैश्विक विमर्श पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करतीं हैं। 

आज हम अपने बच्चों को शिक्षित करने और पैसा कमाने के लिए मोटीवेशन की क्लास खूब करा रहे हैं, पर चरित्र की गिरावट और इससे हो रहे प्रतिदिन अपराधों को कैसे रोकें, उनमें संस्कारों का बीजारोपण कैसे करें, यह दीक्षा हम नहीं दे पा रहें हैं। स्त्रियों और पुरूषों को अंधविश्वासों, रूढ़ियों, लिंग भेद और साम्प्रदायिकता से आजादी चाहिए, न कि उन्हें अशिष्ट यौनाचार की। अगर उन्हें प्रगतिशीलता के नाम से यौनाचार की पूरी आजादी दे जायेगी, तो हममें और पशुओं में कोई फर्क नहीं रहेगा और यह आजादी कभी भी व्यसायिक रूप ले सकती है, आपराधिक रूप ले सकती है, यानि काफी हद तक ले भी चुकी है। ऐसा ही विमर्श को, योगराज जी की लघुकथा 'आँच' प्रस्तुत करती है। शिक्षा के मंदिरों में गिरते नैतिक मूल्यों पर डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाएँ ‘डर के दायरे’ 'मैं टीचर नहीं' आदि भी सार्थक संदेश देती हैं। वहीं अपनी लघुकथाओं को जन-मन की शिराओं तक पहुँचने वाले लघुकथा के कुशल कलाकार सुकेश साहनी की 'नपुसंक' जैसी कई लघुकथाएँ, शिक्षा के मंदिरों में गिरते नैतिक मूल्यों पर गहन  चिन्तन और चेतना को जन-जन तक पहुँचाने में सफल रही हैं। लघुकथा कलश के माध्यम से योगराज प्रभाकर जी, लघुकथाओं को वैश्विक पहचान दिलाने में महती योगदान दे रहे हैं। उनकी अनेक लघुकथाएँ समाज को वह आईना दिखती हैं, जिसे देखने से दिम्भ्रमित समाज को सही रास्ता ही नहीं, सही मंजिल भी मिल सकती है। योगराज जी के बारे में डॉ.  पुरूषोत्तम दूबे लिखते हैं। "पंजाब प्रांत में बहने वाली पाँच नदियों का पवित्र आचमन शिरोधार्य कर पंजाब प्रांत के शहर पटियाला का ‘पंजाबी पुत्तर‘ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर हिंदी लघुकथा के क्षेत्र में पंजाब में प्रवाहमान पाँच नदियों का आब अंजुरी में भरकर हिंदी लघुकथा के मस्तक को अभिषिक्त करने आया है। यह एक हिंदीतर प्रांत से, हिंदी लेखन के क्षेत्र में हिंदी की सेवा का भाव लेकर उतरे, इस रचनाकार का भाषागत सौहार्द का मणि-काँचन संयोग जैसा है।’’
योगराज जी की लघुकथा ‘आँच’ आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में आ रही गिरावट को न सिर्फ रेखांकित करती है, बल्कि सुसुप्त हो रही हमारी प्रज्ञा को, मेधा को, चेतना को जाग्रत करने  का सद्कार्य करती है।
चित्तरंजन गोप आज लघुकथा के क्षेत्र मे काफी शोहरत हासिल कर चुके है। अभी तक उनका कोई एकल लघुकथा संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है। अपनी अनोखे कहन, अद्भुत शिल्प और दमदार कथ्य के द्वारा पाठको में देर तक और दूर तक अपनी पहचान बना चुके हैं। आज आदिवादी विमर्श बहुत तेजी से हिन्दी साहित्य में विमर्श का महत्वपूर्ण हिस्सा बनता जा रहा है।मीरा जैन, पूरन सिंह, मार्टिन जॉन, जैसे अनेक लघुकथाकार आदिवासी विमर्श को निरंतर अपनी लघुकथाओं से आगे बढ़ा रहे हैं। आदिवासियों की दुश्वारियों पर, समस्याओ पर तो चर्चा विमर्श बहुत होते रहते हैं, फिर भी उन्हें  सदियों से वह हक-हुकूक नहीं मिल पाये, जिसकी उन्हें आज भी दरकार है। गोप जी आदिवासी क्षेत्र में रहते हैं, जो देखते हैं वह लिखते हैं। यह होना भी चाहिए। लघुकथा ‘एक ठेला स्वप्न’ में अदिवासी विमर्श को उन्होंने नई धार दी है। प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है कि जो आप लिखना चाहते हैं, जब तक उसे देखेंगे नहीं महसूस नहीं करेंगे, तब तक आप बेहतरीन नहीं लिख सकते।'
प्रसिद्ध पत्रकार अजय बोकिल लिखते हैं, ‘‘लघुकथा अपने आप में बहुत मारक और पिन पॉइंटेड होती है। वर्णनात्मकता की बजाए संक्षिप्तता, सूक्ष्मता और सांकेतिकता लघुकथा के प्रभावी औजार हैं। अगर इसमें सोद्देश्यता भी जुड़ जाए तो सोने पे सुहागा होता है।’’
निश्चित रूप से आज लघुकथा अपनी इसी गति-मति से, अपने इसी उद्देश्यपूर्ण ढंग से, अपनी मंजिल की ओर सदानीरा गंगा की तरह प्रवाहमान  है। 
बकौल गोप साहित्य का उद्देश्य अन्त्योदय होना चाहिए। हर उस अंतिम व्यक्ति की समस्या तक पहुँचे, जिसकी बात सत्ता, सियासत और उसके पहरूए न सुन रहे हो, न कह रहे हो।
सदियाँ बीत गयीं, आज भी करोड़ों आदिवासी मूलभूत, अधिकारों, सुविधाओं से वंचित हैं। उन्हें उनकी दशा में छोड़ने वाले कहते हैं कि वह अपनी संस्कृति अपनी कला को संजो रहे हैं, इसलिए वह जंगल नहीं छोड़ रहे हैं, अपनी मूल प्रवृत्ति नहीं छोड़ रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि तमाम समान्तवादी और वर्णवादी व्यवस्थाएँ, ऐसी साजिशें बदस्तूर जारी रखें हैं, जिससे, वह जहाँ हैं वहीं रहें। संविधान ने सबको काम का, शिक्षा का, समानता का अधिकार दिया है। आंबेडकर जी के संविधान से बहुत कुछ बदल रहा है, असमानता की दीवारें धराशायी हो रहीं हैं, पर आज भी करोड़ों आदिवासी घुमन्नू जातियों के आपत्तिजनक,भदेस वीडियो बना कर लोग शोसल मीडिया पर अपलोड कर रहे हैं, जिस कारण अदिवासी समाज कौतूहल और मनोरंजन का विषय बना हुआ है। प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह घोर चिंता और विमर्श का विषय है। दोनों लघुकथाएँ उपर्युक्त, विचारों को भावों को प्रस्तुत कर रहीं हैं। लघुकथा मेरी प्रिय विधा है। अनेक लघुकथाकार बेहतरीन लिख रहे हैं। फिलहाल अपनी पसंद की दो लघुकथाएं प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
  
योगराज प्रभाकर

आँच

सस्ते-से होटल का एक छोटा-सा कमरा।
बंद बत्ती जली।
कमरे में एक अधेड़ मर्द, उम्र पचास के आसपास।
एक जवान लड़की, उम्र बीस से अधिक नहीं।
मर्द के ऊपरी भाग पर कोई कपड़ा नहीं और लड़की का निचला भाग वस्त्रहीन।
मर्द के निर्लज्ज चेहरे पर पाशविक संतुष्टि के भाव और लड़की के चेहरे पर निर्लिप्तता और निश्चिंतता की गहरी पर्त।
लड़की को खींचकर अपनी गोद में बिठाते हुए मर्द ने कुछ नोट उसके टॉप में खोंस दिए।
“थैंक्यू!” कहते हुए वह उठी और फर्श पर पड़ी जीन्स उठाकर उसमें धँसने लगी।
मर्द ने इत्मीनान से सिगरेट सुलगाई, और कहा,
“एक बात पूछूँ स्वीटी?”
“बोलो जानू!”
“आज तुम इतना लेट हो गई हो, घर जाकर क्या कहोगी?”
जीन्स का जिपर चढ़ाते हुए लड़की ने बहुत ही बेपरवाही से उत्तर दिया।
“कहना क्या है यार, कह दूँगी कि ट्यूशन से लेट हो गई।”
मर्द के चेहरे पर एक कमीनी-सी मुस्कान फैल गई।
पर अगले ही क्षण ट्यूशन शब्द उसके मस्तिष्क पर हथौड़ा-सा बनकर बरसा। उसकी मुस्कराहट काफूर हो गई. माथे पर पसीने की बूँदें चमकने लगीं। वह तेजी से कमरे के बाहर आया, जलती हुई सिगरेट फर्श पर फेंककर उसे जूते से मसला। बहुत ही बेचैनी से अपनी घड़ी की ओर देखते हुए पत्नी को फोन लगाया और चिंतित-से स्वर में बोला,
“गुड्डी ट्यूशन से लौट आई क्या?”


चित्तरंजन गोप ‘लुकाठी‘

एक ठेला स्वप्न

आज खूब ठूंस-ठूंसकर खाना खा लिया था। पेट भारी हो गया था। इसलिए पलंग पर लेट गया। लेटे-लेटे खिड़की से बाहर का नजारा देखने लगा।
एक फेरीवाला आया था। वह एक बड़े ठेले पर एक ठेला स्वप्न लाया था। उसका साथी माइक पर घोषणा कर रहा था-- ले लो, ले लो ! अच्छे-अच्छे स्वप्न ले लो। चौबीस घंटे पानी-बिजली का स्वप्न। हर घर में ए.सी. का स्वप्न। घर-घर मोटर कार का स्वप्न। ...ले लो भाई, ले लो !
देखते-देखते कॉलोनी वालों की भीड़ लग गई। औरत-मर्द, जवान-बूढ़े सब ठेले के चारों तरफ जमा हो गए। माइक पर घोषणा जारी थी-- ले लो भाइयों, ले लो ! बेटे-बेटियों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का स्वप्न। उन्हें डॉक्टर-इंजीनियर बनाने का स्वप्न। आई.ए.एस.-आई.पी.एस. बनाने का स्वप्न। हजारों तरह के स्वप्न हैं। अच्छे-अच्छे स्वप्न हैं। ले लो भाइयों, ले लो !
माइक की आवाज बगल के आदिवासी गांव चोड़ईनाला तक पहुंच रही थी। आदिवासी महिला-पुरुषों का एक झुंड दौड़ा-दौड़ा आया। वे ठेले से कुछ दूरी पर खड़े हो गए। एक बूढ़ा जो लाठी के सहारे चल रहा था, सामने आया। उसने फेरीवाले से पूछा, ‘‘ भूखल लोकेकेर खातिर किछु स्वप्न होय कि बाबू? (भूखे लोगों के लिए कोई स्वप्न है?)‘‘
‘नहीं।‘‘ फेरीवाले ने कहा, ‘‘भूखे लोगों के लिए भोजन के दो-चार स्वप्न हैं जो काफी नीचे दबे पड़े हैं। अगली बार जब आऊंगा, ऊपर करके लाऊंगा। तब तक इंतजार कीजिए।‘‘
‘‘इंतजार करैत-करैत त आज उनसत्तइर बछर  (69 वर्ष) उमर भैय गेले। आर कते...?‘‘ कहते-कहते बूढ़े को खांसी आ गई और खांसते-खांसते वह अपने झुंड के पास चला गया। कॉलोनी वाले अपनी-अपनी पसंद के स्वप्न खरीद रहे थे। हो-हुल्लड़, हंसी-ठहाका भी चल रहा था। आदिवासियों ने कुछ देर तक इस नजारे को खड़े-खड़े देखा और अपने गांव की ओर चल दिए। इसी बीच मेरी नींद टूट गई।

-सुरेश  सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश पिन-262701
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित। 
मो-7860600355

सोमवार, 2 अक्टूबर 2023

'काम जु आवै कामरी...' का डाउनलोड लिंक |कहावतों/मुहावरों से सज्जित लघुकथाओं का संकलन

डॉ. उमेश महदोशी जी की फेसबुक वॉल से

कहावतों/मुहावरों से सज्जित लघुकथाओं के संकलन 'काम जु आवै कामरी...' की पीडीएफ

कहावतों/मुहावरों से सज्जित लघुकथाओं का संकलन 'काम जु आवै कामरी...' की पीडीएफ तैयार है। मित्रगण नीचे दिए लिंक पर डाउनलोड करके पढ़ सकते हैं। मुद्रित प्रति संकलन में शामिल लेखक मित्रों को निःशुल्क भेजी जायेगी। अपरिहार्य कारणों से प्रेषण कार्य नवंबर माह में ही हो सकेगा। 

        संकलन से चुनिंदा लघुकथाओं का अविरामवाणी पर प्रसारण 'मुहावरों से सज्जित लघुकथाएं' कार्यक्रम के अंतर्गत 12 नवंबर 2023 से आरंभ किया जाएगा।

        संकलन में शामिल जिन मित्रों ने रचनाओं के साथ अपना डाक का पता एवम् फोटो नहीं भेजा है, वे मित्र हमारे email पर यथाशीघ्र भेज दें। ताकि संकलन की प्रति यथासमय भेजी जा सके।

        'काम जु आवै कामरी...' का डाउनलोड लिंक-

https://drive.google.com/uc?export=download&id=1zA4rBjuCeCK2MS36U13qCEWII7HT_XDc

शनिवार, 23 सितंबर 2023

पुस्तक समीक्षा | गुलाबी गलियाँ (साझा लघुकथा संग्रह) | समीक्षक-मनोरमा पंत

 सबसे उपेक्षित वर्ग की गुलाबी गलियाँ / मनोरमा पंत


पुस्तक-गुलाबी गलियाँ (साझा लघुकथा संग्रह)

संपादक-सुरेश सौरभ

मूल्य-रु 249/-

प्रकाशन-श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली

वर्ष-2023 





सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुरेश सौरभ द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह “गुलाबी गलियाँ" समाज के सबसे उपेक्षित, तिरस्कृत तथा निन्दनीय वर्ग वेश्याओं के अंतहीन दर्द और वेदनाओं का जीता जागता एक दस्तावेज है। दुःख के महासागर को समेटे हुए इस संग्रह की लघुकथाओं में समाज के दोहरे चरित्र को उजागर करने का ईमानदारी से प्रयास किया गया है। जहां एक ओर दिन के उजाले में उन्हें चरित्रहीन तथा समाज का गंदा धब्बा तवायफ, कुलटा जैसे जुमलों से नवाज़ा जाता है, वहीं दूसरी ओर रात के अंधेरे में वे ही घृणित नारियां रम्या बन जाती हैं। 

पौराणिक काल से ही “मनुष्य“ शब्द का प्रयोग केवल पुरुष के लिये ही तय किया जा चुका है। औरत को मनुष्य शब्द से निकाल कर अलग ही चौखट में जड़ दिया गया। उसके मन की इच्छओं, भावों, और संवेदना को पुरातन काल से ही पुरुष द्वारा नकार दिया गया। इन्द्र द्वारा अहिल्या हरण, भीष्म द्वारा अम्बा अम्बालिका का हरण चंद उदाहरण हैं। “गुलाबी गलियाँ“ की प्रत्येक लघुकथा में वेश्याओं की यही अर्न्तवेदना स्पष्ट रूप से मुखरित होती दीख पड़ती है। 

प्रारम्भ करें संग्रह की प्रथम लघुकथा “मरुस्थल“ से। सुकेश साहनी की यह एक ऐसी औरत की करुण दास्तान है जिसके लिये पति ही उसके अस्तित्व का प्रमाण था। उसकी मृत्यु के पश्चात वह आर्थिक मोर्चे पर हारकर चकलाघर पहुंच जाती है। पति के हमशक्ल ग्राहक में अपने पति को खोजने के निरर्थक प्रयास में अन्त में मर्मान्तक दुःख ही उसके हाथ लगता है।          

सुप्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र  अवस्थी ने अपनी  एक रचना में लिखा है-“औरत के पैरों तले पक्की जमीन होती ही नहीं। उसके सिर पर हमेशा बोझ होता है, आर्थिक गुलामी का। “पति की मौत होने पर, बीमारी में परिवार  का पेट भरने के लिए मजबूर होकर ऐसी औरतें वेश्या बन जाती हैं। इस मजबूरी की तड़प देखने को मिलती है-’पूनम (कतरियार) की ’खुखरी’, सत्या शर्मा की “पीर जिया की“,सीमा रानी की “ईमानदारी“,महावीर रावांल्टा की लघुकथा “मदद के हाथ “जैसी लघुकथाओं में। 

प्राचीन कल से ही यह देखा गया है कि पुरुष द्वारा निर्मित परिवेश में जो स्त्री स्वयं को नहीं ढाल पाती ,अपना अस्तित्व सिद्ध करने की कोशिश करती हैं, परन्तु आर्थिक रुप से सक्षम  नहीं हैं, तो अपने पति, प्रेमी, रिश्तेदार यहां तक कि पिता, भाई के द्वारा भी चकलाघर पहुंचा दी जाती हैं। रेखा शाह की लघुकथा “इस देश न आना लाडो“ में प्रेमी द्वारा, ऋचा शर्मा की“ निष्कासन“ और मनोरमा पंत की “पेशा “में पति द्वारा, सुधा भार्गव  की “वह एक रात  में“ पिता के कारण और डॉ. अशोक गुजराती की’ बेटी तू बची रह“ में दलाल द्वारा लड़कियों को वेश्यावृति में धकेल दिया जाता है।

वेश्या का काम है तन से पुरुष को खुश करना। लेखन से उसका क्या वास्ता ? मीरा जैन की लघुकथा ‘कालम खुशी का’ में नगरवधू जैसे ही आत्मकथा के रूप में एक किताब लिखने की घोषणा करती है तो अगले दिन ही वह लापता हो जाती है। क्यों ? पाठक इसे भली-भांति जानते हैं। यह लघुकथा सभ्य समाज पर एक तमाचा है।

चकलाघर में पहुंच जाने पर भी कुछ वेश्याएं अपने स्त्रीयोंचित अस्तित्व को बचाए रहती हैं। अनिल पतंग की ‘मजहब’ लघुकथा में सलमा वेश्या समाज के तथाकथित सफेदपोश संभ्रात जनों को कटाक्ष सहित आइना दिखाती है। वह निडरता से कहती है “मैं तो सिर्फ शरीर बेचती हूँ हुजूर ! पर आप लोग ईमान के साथ पूरा देश बेचते हैं। आपका और मेरा एक ही मजहब है केवल पैसा ,पैसा,पैसा। 

भगवान  वैद्य  की लघुकथा “असली चेहरा “में वेश्या सुंदरी तल्खी के साथ कहती है -“इस शहर के एक और तथाकथित प्रतिष्ठित व्यक्ति का असली चेहरा लेकर जा रही हूं। रुपम झा की लघुकथा “गंगाजल “में वेश्या कहती है “हम तो दुनिया को बता के अपनी अदाएं बेचतीं हैं लेकिन आप जैसे लोग तो.. अपनी आत्मा और ईमान बेच लेते हैं साहेब।“

रघुविंद्र यादव के “चरित्र हनन“ में चंपा बाई चिढ़ कर बोलती  है-‘‘आज के नेताओं के पास चरित्र है ही कहां? जिसका कोई हनन कर सके।’’

नीरू मित्तल की एक शानदार लघुकथा है जिसमें ग्राहक वेश्या से कहता है-“पति और बच्चे के होते हुए तुम्हें यह सब करने की क्या जरूरत है?’’

‘‘जरूरत होती है साब.....घर की बहुत सी जरूरत हैं, कुछ इच्छाएं भी होती हैं। पति के आगे हाथ फैलाना और मन मसोस कर रह जाना बहुत मुश्किल होता है।’’ यह लघुकथा उन लोगों की आँखे खोलने के लिए पर्याप्त है, जो वेश्याओं के ऊपर अपना पैसा लुटा देते हैं और पत्नी की छोटी-छोटी ज़रूरतें पूरी करने के लिए भी उसे पैसा नहीं देते।

“दिनेश कुमार थर्रा उठा यह सोचकर कि पहले पत्नी लड़ती थी पर अब बहुत समय से खामोश रहती है, कहीं उसकी पत्नी भी तो...?,आगे आप समझ ही गये होंगे ।

मर्द अपने पुत्र में अपनी परछाई को देखता है। अतः उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिये उसे पत्नी की आवश्यकता पड़ी। मर्द का हमेशा से यही दृष्टिकोण रहा कि उसकी पत्नी, कभी भी किसी गैर मर्द का संग न करे और पवित्र बनी रही, जबकि स्वयं के लिए उसका अपना दृष्टिकोण है कि पत्नी उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिये, और वेश्या खुशी देने के लिये होती है। पुरुष की इसी दोहरी मानसिकता को इस संग्रह की लघुकथाओं में बखूबी चित्रित किया गया है। शुचि भवि की लघुकथा ‘रजिस्टर्ड तवायफ’ में जीनत तवायफ ग्राहक प्रफुल्ल के बटुए से गिरी उसकी पत्नी की फोटो देखकर कहती है ‘‘साहब किसी और के बटुए में भी यही तस्वीर देखी है।“ तो प्रफुल्ल पागल सा हो जाता है। क्योंकि उसकी पत्नी मर्द के पहले से बने-बनाए चौखट में फिट नहीं हो रही थी, ऐसा उसे लगता है जबकि सच्चाई बड़ी पकीजा थी।

रमेश प्रसून की लघुकथा ‘आधुनिक रंडिया’ लघुकथा में एक अनुभवी वेश्या व्यंग्यपूर्वक कहती है “सुनो कास्टिग काउच, लिव इन रिलेशन, पत्नियां की अदला-बदली क्या वेश्यावृत्ति नहीं?

‘वेश्याओं  का जन्म जिन्दगी के अंधियारों में होता है ,और उसी  अंधेरे में खामोशी से अंत भी हो जाता है। पूरी जिन्दगी उनका इस्तेमाल  ’एक वस्तु' की तरह होता है। अदित कंसल की लघुकथा “चरित्रहीन “में सोनी कहती है-‘‘इस शहर में ऐसा कोई नहीं जो हमारे जज्बात समझे। सब जिस्म के भूखे भेड़िए हैं।’’

इसी तरह के दर्द और वेदना के संवाद सुधा भार्गव की लघुकथा “वह एक रात में“ देखने को मिलते हैं। कई लघुकथाओं में वेश्यालय में जन्मे ऐसे बच्चों का जिक्र किया गया है जो जलालत की जिंदगी से बाहर निकल पाए और एक हसीन मुकाम पर पहुंच गए। “बजरंगी लाल की“ वापसी कल्पना भट्ट की “बार गर्ल “विभा रानी श्रीवास्तव की “अंधेरे घर का उजाला “अलका वर्मा की “मैं ऋणी हूं “मंजरी तिवारी की “एक देवी “जिज्ञासा सिंह की “आहट “राजेंद्र पुरोहित की “रंग बदलती तस्वीर में“ ऐसे ही बच्चों की तस्वीरें उकेरी गईं हैं।                                 

वेश्या से विवाह करके उसे सामान्य जिंदगी देने वाली आदर्श लघुकथाएं भी इस संग्रह की शोभा बढ़ाती है। सुधा भार्गव की “वह एक रात“ अभय कुमार भारती की “कोठे वाली“ राजकुमार  घोटड;  की “कोठे के फूल  में“ ग्राहक  वेश्याओं  से विवाह  करके उन्हें सम्मानजनक जिन्दगी प्रदान करते हैं।

सत्या शर्मा की लघुकथा “पीर जिया की “में लिखा हुआ है कि उस हाड़-मांस के शरीर के अंदर एक कोमल हृदय भी था,जो न जाने कब से किसी के लिए तड़पने को बेचैन था“ पर वेश्याओं के लिए तो यह सोचा जाता है कि उनका कोई मन ही नहीं होता है।’

पढ़िये कुछ चुभते हुए  वाक्यांश  जो वेश्याओं के लिए  कहे जाते हैं :

-वह एक कलंक है और नए कलंक को जन्म देने जा रही है  (ज्ञानदेव मुकेश  की “शूल तुम्हारा फूल हमारा“)

 -“तुम्हारा क्या धर्म और क्या जात (“गुलजार  हुसैन की “दंगे की एक रात“)

-“हर रोज नये नये मर्द फाँसती है यह“(कांता राय की “रंडी“ लघुकथा)

-भगवान  के मंदिर को भी नहीं छोड़ा इन लोगों ने। छिः कैसे लोग हैं ,यहां भी गंदगी फैलाने आ गए (“डॉ.रंजना जायसवाल की “कैसे कैसे लोग“)

-साली को कहीं जगह नहीं मिलती तो यहां चली आती है। (सिद्धेश्वर  की “आदमीयत“)

-इन लोगों की क्या औकात  है मेरे सामने (रुपम झा की “गंगाजल“)

-“चुप रह रंडी। हमसे बराबरी करती है “(मुकेश कुमार ‘मृदुल’ की “चोट“।) 

-रास्ते की औरत और गली का कुत्ता कभी इज्जत नहीं पाते (रमेशचन्द्र शर्मा की लघुकथा “कैरेक्टर लेस")

इस संग्रह  में अपमानित  करने वाले इन जुमलों को नकारती हुई ऐसे भी अनेक लघुकथाएं हैं, जो वेश्याओं के उजले पक्ष को समाज के सामने रखती हैं। ये लघुकथाएं बतलाती हैं कि जो वेश्याएं इस गंदगी फँसी हुईं हैं, वे नहीं चाहती कि और भी लड़कियां उसमें  धकेली जाएं या उनके कारण किसी ग्राहक का घर बर्बाद हो।

इससे संबंधित कमलेश भारतीय की एक खूबसूरत लघुकथा है “प्यार नहीं करती“ जिसमें वह अपने ग्राहक का घर उजाड़ नहीं चाहती है। इसलिए वह कहती है-जब मैं एक औरत द्वारा अपना पति छीन लिए जाने का दुख भोग रही हूं। तब तुम मुझसे यह उम्मीद कैसे करते हो कि मैं अपना घर बसाने के लिए किसी का बसा बसाया घर उजाड़ दूंगी?’’

इसी तरह की और भी लघुकथाएं हैं जैसे मिन्नी मिश्रा की “दलदल“ पूनम आनंद की लघुकथा “तवायफ,“ रमाकांत चौधरी की बेहतरीन लघुकथा “गुलबिया“  चित्रगुप्त की “सीख“ ऋचा शर्मा की “मां सी ,“नीना मंदिलवार  की “नवजीवन “ ,राजकुमार घोटड; की “कोठे के फूल “,राजेंद्र पुरोहित की “रंग बदलती तस्वीर“ अरविंद असर की “उसूल“ विजयानन्द विजय की “धुंधलका छंटता  हुआ“ अशोक गुजराती की “बेटी तू बची रह“ ज्योति मानव की “एक गुण“ आती हैं । 

तन और मन के गहरे भेद को समझाते-बुझाते हुए सुरेश सौरभ की लघुकथा “गंगा मैली नहीं“ में कहा गया है “गंगा मैली नहीं होती कभी नहीं होती।... किसी वेश्या के लिए सौरभ जी के भाव पावन व पुनीत हैं।

लेखक गुलजार  हुसैन “दंगे की रात में“ वेश्या को कह जाते हैं-सबसे खूबसूरत औरत..  और वह यही नहीं रुकते वेश्या को गुलाब की सुंगध तक कह डालते हैं। ओमप्रकाश क्षत्रिय की लघुकथा“ “सफाई“मे  वेश्या का पावन चरित्र दृष्टिगोचर होता है। डॉ.चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथा “देवी“ भी वेश्या का पवित्र रुप दर्शाती है।

इन लघुकथाओं में कुछ लघुकथाएं ऐसे भी हैं जिसमें यह दिखाया गया है कि कुछ  लेखक /पत्रकार  वेश्याओं  की जीवनी जानने के लिए कोठे पर पहुंचते हैं पर उनके जख्मों को कुरेदने के कारण  उन्हें,  अपमानित ही होना पड़ता है। इन लघुकथाओं में भगवती प्रसाद द्विवेदी की “गर्व “लघुकथा है जिसमें वेश्या कहती है-हमें बकवास पसंद नहीं फटाफट अपना काम निपटाओ और फूटो।’’

डॉ. सुषमा सेंगर की लघुकथा “झूठ के व्यापार “में एक बड़े कहानीकार को कहा जाता है-जिसे देखो वही मुंह उठाए चला आता है जख्म कुरेदने।

नज़्म सुभाष  की लघुकथा “ग्राहक“ में हृदयहीन ग्राहक वेश्या की खराब तबियत  की परवाह ही नहीं करता है।.... एक कठोर यथार्थ नज्म़ ने प्रस्तुत किया है।

इस संग्रह की और भी प्रेरणात्मक लघुकथाएं हैं जिनमें ,“देवेन्द्र राज सुथार की “बदचलन  “,डा.प्रदीप उपाध्याय  की “वादा“ ,डा .शैलेश गुप्त  ‘वीर’ की “गुडबाय“ सुषमा सिन्हा की “पापी कौन“,अनिता रश्मि की ‘असर’ अविनाश अग्निहोत्री की “नातेदार“,कल्पना भट्ट  की “बार गर्ल्स  डॉ. पूनम आंनद  की “तवायफ “,राजेन्द्र वर्मा की “बहू “,विभा रानी श्रीवास्तव  की “अंधेरे घर का उजियारा “ ,बजरंगी लाल यादव  की “सजना है मुझे “तथा जिज्ञासा सिंह की “आहट “राजेन्द्र  उपाध्याय  की “दृष्टि “ पुष्प  कुमार  राय  की “बार गर्ल्स“  नीना सिन्हा की “निषिद्धौ पाली रज“ डा .सत्यवीर जी की “सीढियाँ उतरते हुए, विजयानंद विजय की धुंधलका छंटता हुआ’ सहित सभी लघुकथाएं श्लाघनीय हैं।

सबसे सुखद यह है कि इस संग्रह की भूमिका प्रसिद्ध साहित्यकार संजीव जायसवाल ‘संजय’ ने लिखी है। दो उदीयमान साहित्यकार देवेन्द्र कश्यप ‘निडर’ व नृपेन्द्र अभिषेक नृप ने भी इस दस्तावेजी संग्रह में अपनी छोटी-छोटी विचारोत्तेजक टिप्पणियां जोड़ कर, संग्रह को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है।

अंत में मैं सुरेश सौरभ जी के संपादकीय शब्द दोहराना चाहती हूं-

इस साझा संकलन को पढ़ते-पढ़ते वेश्याओं के जीवन, उनके संघर्ष उनके सुख-दुख पर अगर एक व्यक्ति की भी संवेदना जाग्रत होती है तो मैं समझता हूँ कि इस संग्रह का उद्देश्य पूर्ण हुआ। मेरा श्रम सार्थक हुआ।’’ 

मैं सौरभ जी को इस सुंदर लघुकथा संकलन के संपादन हेतु बधाई प्रेषित करती हूं। सुंदर आवरण बनाने, किताब को हार्ड बाउंड मजबूत बाइंडिंग में प्रकाशित करने के लिए भी मैं श्वेतवर्णा प्रकाशन की मुक्त कंठ से प्रशंसा करती हूं।


मनोरमा पंत 

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