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शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

लेख: क्या आप लघुकथा लेखक हैं? | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आप लघुकथा लेखक हैं! वाह! लेकिन कभी कोई कहानी या उपन्यास भी लिखा है? या सिर्फ आसान विधा तक ही...

इस तरह के या मिलते-जुलते प्रश्नों से, मेरे अनुसार, कई लघुकथाकार रूबरू हुए होंगे। इस प्रश्न के आधार में निहित प्रश्न यह भी है कि एक सुप्रसिद्ध विधा के लिए ऐसे प्रश्नों का उद्गम होता ही क्यों है? मेरे अनुसार शायद इसका एक कारण यह भी है कि लघुकथा जैसी श्रमसाध्य विधा में कितने ही व्यक्ति ऐसा (आसान) लेखन भी कर रहे हैं, जो लघुकथा होहो लेकिन उसे लघुकथा की संज्ञा ज़रूर मिल रही है। खैर, उन सभी को याद करने से अधिक आवश्यक यह है कि इस तरह के प्रश्नों का उन्मूलन आवश्यक है और आप एक लघुकथाकार हैं तो यह भी जानते हैं कि एक लघुकथा अपने पाठकों को रोमांचित कर सकती है, उन्हें वाह और आह कहने को विवश कर सकती है, सोचने के लिए प्रेरित भी कर सकती है, आक्रोश भी दिला सकती है और शांति भी। लेकिन अपवादों को छोकर, इस तरह के सृजन के लिए केवल कुछ घंटों की ब्रेनस्टॉर्मिंग पर्याप्त नहीं है। लघुकथा सहित किसी भी सृजन की सफलता जी कहो जी कहलाओ द्वारा या धन देकर प्रकाशित-प्रसारित होकर, यूट्यूब पर अपना ऑडियो-वीडियो डालकर ही नहीं है, बल्कि इस बात पर है कि सामान्य व्यक्तियों पर हमारी रचनाएँ कितना प्रभाव डाल सकती हैं? इस लेख में लघुकथा की सरंचना की बजाय एक अच्छी लघुकथा लिखने के लिए कुछ ऐसी युक्तियों पर बात की गयी है जो लघुकथाकारों के लिए उपयोगी हो सकती हैं, जिसे लघुकथाकार अपने सृजन को कुछ और बेहतर कर सकते हैं और प्रोत्साहित हो इस लेख की प्रथम पंक्ति में दर्शाये गये प्रश्न को उलट सकने का प्रयास भी कर सकते हैं

 

1. अवलोकन करते रहिए

 

किसी भी अन्य सृजन की तरह ही लघुकथा सृजन में भी लघुकथाकार की कल्पना-शक्ति की काफी बड़ी भूमिका है। सृजन के समय आपको पात्रों की कल्पना करनी होगी, उनकी व्यथा, उनके डर, उनकी जीत-हार, उनके चरित्र, उनकी भाषा, उनके हाव-भाव की कल्पना भी करनी होगी। वातावरण की कल्पना भी करें, कई बार वातावरण का संक्षिप्त विवरण ही बहुत कुछ कह जाता है। कल्पना-शक्ति उन्नत करने के लिए हमारा अवलोकन सूक्ष्म होना चाहिए। आप अपने आस-पास घट रही घटनाओं, चारों तरफ के व्यक्ति, बातें कर रहे लोग, खेल रहे बच्चे, इमारतें, लिफ्ट, सीढ़ियाँ, आदि-आदि का सूक्ष्म निरीक्षण नहीं करते हैं तो कृपया प्रारम्भ कर दीजिये, क्योंकि यही निरीक्षण शब्दों में ढल कर आपके सृजन को जीवंत बनाएगा।

 

प्रभावशाली बातों, हरकतों, संवादों आदि के बारे में नोट्स बना कर, उन्हें बाद में आप अपनी लघुकथाओं में शामिल कर सकते हैं। हालाँकि लघुकथा के मुख्य कथानक को अपने अवचेतन मन में ही तैयार होने  दें।

 

2. प्रेरणा प्राप्त करना

 

प्रेरणा कहीं से भी प्राप्त हो सकती है। एक उदाहरण देता हूँ, मैं मोबाईल फोन से कुछ समय दूर रहने के लिए अधिकतर बार बाग में घूमते वक्त फोन लेकर नहीं जाता। हालांकि बाग में घूम रहे अधिकतर लोग मोबाईल फोन पर या तो बातें करते हैं अथवा गाने सुनते हैंमुझे इस पर भी आश्चर्य होता है कि अन्य व्यक्ति मोबाइल की ध्वनी से परेशान न हों, इसलिए घूम रहे व्यक्ति ईयरफोन या ब्लूटूथ का इस्तेमाल क्यों नहीं करते! बहरहाल, एक दिन ऐसे ही घूमते समय पीपल के पेड़ से कुछ पत्तियां टूट कर मेरे सामने गिरीं और मुझे लघुकथा के इस प्लॉट का बोध करा गईं कि बाग़ में लगभग पूरे दिन कोई-न-कोई अपने फोन सहित आता रहता है। उनके मोबाईल फोन का (कु)प्रभाव पर्यावरण और वृक्षोँ आदि पर भी होता ही होगा, इस विषय पर रचना कही जा सकती हैइस लेख के लिखे जाने तक यह रचना फिलवक्त अवचेतन में ही हैइसी प्रकार प्रेरणा के लिए आवश्यक नहीं कि केवल मानवीय समाज से प्राप्त हो, सपनों से लेकर सुदूर सितारों की ऊर्जा प्रेरणा का स्त्रोत बन सकती है। इसके लिए ब्रह्माण्ड खुला है।

 

3. विषय का पर्याप्त अध्ययन

पाठकों को वही रचनाएँ प्रभावित करेंगी जो उनकी बुनियादी समस्याओं से जुड़ी हों। जिस समस्या अथवा विषय पर लघुकथा कहना चाह रहे हैं, उसका आपके पाठकों से कितना सम्बन्ध है, उसका पर्याप्त अध्ययन करें। हालांकि यह तुलना किस हद तक सही होगी यह विचारणीय है, लेकिन फिर भी, यह हम सभी को विदित है ही कि सुप्रसिद्ध कलाकार अमिताभ बच्चन की प्रथम सफलता का श्रेय आम व्यक्ति के आक्रोश को अपनी फिल्म में व्यक्त करना भी था।

 

विषय और समाज के सह-सम्बन्ध के अध्ययन के अतिरिक्त लघुकथा में तथ्यात्मक त्रुटि से बचने हेतु विषय से संबन्धित तथ्यों का अध्ययन ज़रूर कर लें। एक उदाहरण देता हूँ, 23 जनवरी 2020 को जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के पत्रकारिता विभाग में अखलाक अहमद उस्मानी ने "भारत के मुद्रित माध्यमों में अरब देशों से संबंधित समाचार समाचारों का विश्लेषणात्मक अध्ययन" विषय पर पीएच.डी. अर्जित की। उन्होंने कुछ देशों का भ्रमण तो केवल विषय की गंभीरता को समझने के लिये किया। हालांकि पीएच.डी. से एक लघुकथा सृजन की तुलना भी अतिशयोक्ति मानी जा सकती है, लेकिन मेरे अनुसार तथ्य और विषय समझने की गंभीरता इससे कम नहीं होनी चाहिए।

 

4. पर्याप्त लघुकथाओं को पढ़ना

 

सिक्खों के  दसवें गुरू गोबिंद सिंह जी ने कहा था कि, “आज्ञा भई अकाल दी, तबे चलायो पंथ, सब सिखन को हुक्म है गुरु मानयो ग्रंथउन्होंने ग्रन्थ को गुरु कहा। यही एक पुस्तक में लिखे की शक्ति है। अध्ययन करना और उस पर चिंतन करना कितना आवश्यक है, यह इस एक वाक्य से समझा जा सकता है। मूल रूप से पढ़ने का अर्थ पठन के अनुरूप अपना मस्तिष्क तीक्ष्ण करना और उचित मानसिक वातावरण तैयार करना है। प्रश्न यह है पर्याप्त पठन का अर्थ क्या? सांख्यिक तौर पर पर्याप्त की मात्रा ज्ञात करना असंभव है। यह लघुकथाकार और पढी जा रही लघुकथा पर निर्भर करता है। कभी सौ-पचास लघुकथाएं पढ़ कर भी उचित वातावरण नहीं बनता तो कभी एक-दो रचनाएं भी बहुत कुछ सिखा जाती हैं। सच यह है कि पठन कार्य ऐसा कार्य है जो लेखन से अधिक आवश्यक और अंतहीन है। जिस दिन आप पढ़ने से संतुष्ट हो गए, लेखन से विरक्ति होना शुरू हो जाएगी और यदि विरक्ति ना भी हुई तो भी लेखन धीरे-धीरे आत्मकेंद्रित होता जाएगा। लेखक अंतर्मुखी हो तो अच्छा लेकिन आत्मकेंद्रित हो तो ऊपर वाला ही मालिक है। एक और बात जिससे जितना अधिक बचा जाये उतना बेहतर कि, किसी भी लेखक को अधिक पढ़ने से उसकी शैली हमारे ऊपर हावी हो सकती है, अतः विविध साहित्य पढ़ें। प्रयास करें स्वयं की एक अलग ही शैली हो।

 

5. लघुकथा का एक रेखाचित्र तैयार करना

एक रेखाचित्र बना लें, चाहे मन में या चाहे लिख कर लघुकथा सृजन के किसी भी रेखाचित्र में निम्न तत्व हो सकते हैं (इनसे कम-अधिक भी हो सकते हैं, लेकिन न्यूनाधिक ये तो होंगे ही):

·        उद्देश्य

·        समस्या

·        परिदृश्य

·        मुख्य चरित्र एवं अन्य पात्र

·        कथानक

·        शैली

·        भाषा

·        प्रारंभ

·        समायोजन

·        समाधान (सीमित)

·        अंत

·        शीर्षक

रेखाचित्र के जिन तत्वों में आप सृजित हो रही लघुकथा से सम्बन्धित जो कुछ भर सकते हैं, भर दीजिए और जिनमें कुछ नहीं भर पा रहे, उन्हें छो दीजिए। जब लघुकथा अवचेतन में पक जाए, तब पहला ड्राफ्ट ही अपने इस रेखाचित्र के प्रति सचेत रहते हुए सृजित करें। हालाँकि कई बार सृजन के समय रचना कहीं और भटक सकती है। ध्यान रखिये कि यदि रचना प्राकृतिक रूप से कहीं और जा रही है तो जबरदस्ती रेखाचित्र के मार्ग पर लाना उचित नहीं लेकिन यदि अन्य किसी कारण से भटकाव हो रहा है, जैसे आपने रचना की शैली पत्र शैली सोची हो, लेखन के समय वह पत्र शैली से ही प्रारम्भ हो, लेकिन बाद में डायरी शैली जैसी होने लगे, तब उसे तय किये गए रेखाचित्र पर वापस लाने का प्रयास कीजिये।

 

चूँकि रेखाचित्र में वर्णित उपरोक्त तत्वों पर कई लेखों में कहा जा चुका है, यहाँ इन पर कु्छ और न कहते हुए, मैं आगे बढ़ता हूँ। हालांकि इनमें से कुछ तत्वों पर मेरे अनुसार कुछ टिप्स इस लेख में आगे बताई गयी हैं।

 

6. पास्ट/फ्यूचर लाईफ रिग्रेशन:

 

अपने पात्रों की पिछली ज़िंदगी का रिग्रेशन (प्रतीपगमन) कीजिए कि वे जैसे हैं वैसे क्यों हैं? उनके शरीर की बनावट, ज़ख़्मों के निशान, चश्मे की डंडी तक के बारे में सोचिए। उस समय यह भूल जाईये कि पात्र की किसी बात को अपनी लघुकथा में शामिल करना है अथवा नहीं। उनके बारे में गहराई से सोचने पर उनके सही चरित्र को उभारने में आपको मदद मिलेगी।

 

एक प्रयोग और है, अपने कंठ से पात्रों के लिए उनके भूतकाल, चरित्र, वातावरण आदि के अनुसार अलग-अलग स्वर में संवाद कह कर उन्हें महसूस करें। लेखन के समय पात्र के चरित्र के साथ न्याय करने के अलावा जब लघुकथा का एक ड्राफ्ट तैयार हो जाएगा और आप उसे कहने का प्रयास करेंगे, तब भी यह प्रयोग उपयोगी होगा।

 

और केवल पात्रों की ही नहीं, लघुकथा में जिस क्षण को उभार रहे हैं, उसके भूत और भविष्य के क्षणों को भी अपने मन में चित्रित कीजिये।

 

7. प्रारंभ

प्रारंभ दिलचस्प और दिलकश रखिए। पाठक को आकृष्ट करने के लिए ऐसे वाक्य कहिये, जो जिज्ञासा परक हों और कुछ अलग हों।

 

उदाहरणस्वरुप "आज मैं अकेला चाय पी रहा था" को यदि यों कहें कि "चाय की पहली चुस्की लेते ही मुझे समझ में आ गया ना तो मैं अच्छी चाय बना सकता हूँ और ना ही ये भरा हुआ कप मेरा खालीपन दूर कर सकता है।" दूसरे तरह की पंक्ति में शब्द ज़्यादा ज़रूर हैं, लेकिन कुछ कलात्मक हैं और पात्र के अकेलेपन व खालीपन को बेहतर दर्शा रहे हैं। अतः पाठकों का ध्यानाकर्षण कर सकते हैं।

 

8. संवाद टैग

 

लघुकथा में संवाद टैग्स यथा ज़ोर से कहा, ‘आँख चुराते हुए बोली, ‘उसके स्वर में जोश था आदि का प्रयोग करने भर से ही कई बातों को पाठकों को अधिक कुछ कहे बिना समझाया जा सकता है। हाँ! इन टैग्स को बहुत अधिक न भरें अन्यथा रचना बोझिल होने का खतरा है। 

 

9. अंत

कोशिश करें अंत प्राकृतिक हो लेकिन पाठकों के दिल तक पहुंचे। इसके लिए अलग-अलग अंत आजमाइए। भावनात्मक, आश्चर्यचकित करता, चौंकाता, रहस्योद्घाटन करता, सुखांत/दुखांत आदि आजमाएं और दृष्टिगोचर करें कि कैसा अंत आपकी रचना के साथ उचित प्रतीत हो रहा है। चाहे अंत में अनकहा हो लेकिन स्पष्टता अंत के साथ आवश्यक है।

 

किसी चुटकुले पर विचार करें तो उसके अंत में ही हास्य उत्पन्न होता है। चुटकुले और लघुकथा में एक अंतर यह भी है कि लघुकथा के अंत में हास्य नहीं बल्कि लघुकथा का वास्तविक दर्शन उत्पन्न होता है।

 

ऐसे अंत से बचें, जिसका अनुमान पाठक रचना पढ़ते हुए ही लगा लें, ना ही ऐसा अंत रखें जो एक झटके से लघुकथा को समाप्त कर दे और पाठक उलझते रहें कि इससे आगे कु्छ और होना चहिए। रचना की सफलता-असफलता अंत पर बहुत कुछ निर्भर करती है।

 

10. प्रयोग

बाइबल में कहा गया है कि आदम एक मशीन जैसा नहीं था, वह खुद चुनाव कर सकता था कि सही क्या है और गलत क्या और आदम ने परमेश्वर की आज्ञा न मानने का फैसला किया। उसने एक नई तरह की सृष्टि की रचना की, जिसमें वह खुद जीता भी और मरता भी। इस प्रयोग से मानव जाति को लाभ हुआ या हानि, यह एक अलग विषय है लेकिन बाइबल की मानें तो प्रयोग करना हमारे सबसे पहले पूर्वज का बताया हुआ मार्ग है।

 

पूरी लघुकथा में अपने पाठक का ध्यान न बंटने देने हेतु, उसे बेहतर और सामयिक बनाने हेतु अलग-अलग प्रयोग कीजिए। नए प्रयोगों से न केवल आप सीखेंगे अपितु रचना का शिल्प भी बेहतर होगा। शैली में प्रयोग करें। मधुदीप जी ने अपनी कुछ रचनाओं को पाठक के साथ परस्पर संवादात्मक बनाया है। मैंने एक लघुकथा में विभिन्न कालखंडों को दर्शाने हेतु पुलिस फाइल का सहारा लिया था। अंत के साथ भी प्रयोग करें। कभी अपनी कल्पना से भविष्य में आने वाले समय में जाएँ और वहां के बारे में लिखें। जिन क्षेत्रों में लघुकथा न लिखी गई हो, वहां कथा-तत्व ढूंढिए। किसी पौराणिक चरित्र का चित्रण कर देखिये कि लघुकथा में ढाल सकते हैं अथवा नहीं। इसी प्रकार अलग-अलग प्रयोग कीजिये।

 

प्रयोग करने के अनुशासन का ज़रूर ध्यान रखें। कुरान में एक स्थान पर लिखा है निराधार और अनजाने कामों से परहेज़ करो। हालाँकि प्रयोग ज़रूर कीजिये लेकिन निराधार नहीं। दूसरे कोई ऐसा प्रयोग आप कर रहे हैं जिसके विषय का आपको अधिक ज्ञान नहीं है तो प्रयोग से पूर्व उस विषय का अध्ययन कीजिये।

 

11. ओवरलोड

वाहन भरने के अतिरिक्त कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में भी ओवरलोडिंगका उल्लेख किया गया है। इसमें एक ही नाम से एक से अधिक कार्य किया जा सकता है। जैसे दो संख्याओं को जोड़ने के लिए जो प्रोग्राम (फंक्शन) लिखा गया है, उसी नाम से दो संख्याओं के गुणा आदि का फंक्शन भी लिखा जा सकता है। यहाँ यह फंक्शन एकांगी नहीं रहा। इस प्रकार की ओवरलोडिंग (एकांगी नहीं रहना) लघुकथा का मूल स्वरूप समाप्त कर देती है, इससे लघुकथा को बचा कर ही रखें।  लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में ओवरलोडिंग का अर्थ अनावश्यक विवरण भी है और पठन में बोझिलता भी है। इन्हें हटा कर लघुकथा को कसें। दृश्य, पात्र, विवरण जिन्हें हटाने के बाद भी लघुकथा की स्पष्टता और प्रवाह बरकरार रहता है, को हटा दें।

 

12. परिष्करण

 

अपनी लघुकथा को बोलकर देखिये, इसे दोहराइए भी। यदि वह स्वयं को समझा नहीं पा रही है अथवा बोलने के प्रवाह में भी कहीं अस्पष्ट है तो उस पर और कार्य करें।

 

ठेस लगे बुद्धि बढ़े वाली उक्ति लघुकथा सृजन में भी चारितार्थ होती है। अपनी लघुकथा अन्य लेखकों से पढ़ावें और उन्हें उचित व निष्पक्ष आलोचना करने को प्रेरित करें। उनसे यह भी पूछिए कि लघुकथा ने उन्हें किस हद तक प्रभावित/अप्रभावित किया। इसके लिए इन दिनों सोशल मीडिया उत्तम स्थान है। यह लेख लिखे जाने तक मुझे सोशल मीडिया पर इस तरह का कोई समूह ज्ञात नहीं है, जहां लघुकथा लेखक अपनी अप्रकाशित लघुकथा सुधार हेतु भेज कर अन्य रचनाकारों की प्रतिक्रिया प्राप्त सकें। लेकिन मुझे विश्वास है कि निकट भविष्य में ऐसे समूह सोशल मीडिया पर अवश्य ही होंगे। इसे कार्यशाला का रूप भी दिया जा सकता है।

 

अंत में योगराज प्रभाकर जी के लेख 'लघुकथा विधा : तेवर और कलेवर'  का एक महत्वपूर्ण अंश, उन्होंने लिखा है कि "जल्दबाज़ी: काम शैतान का

 

जो विचार मन में आए उसको परिपक्व होने का पूरा समय दिया जाना चाहिए, पोस्ट अथवा प्रकाशन की जल्दबाज़ी से लघुकथा अपनी सुंदरता खो सकती है।"

 

जल्दबाज़ी न करने का अर्थ निरुत्साहित होना भी नहीं है। वाल्मीकि रामायण में एक श्लोक है:

उत्साह-उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्। सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम्॥

जिसका भावार्थ यह है कि 'यदि आप उत्साहपूर्वक किसी भी कार्य को करते हैं तो आपके लिए उसका संपन्न होना दुर्लभ नहीं है।' अतः उत्साहपूर्वक बिना जल्दबाज़ी के अपना रचनाकर्म कीजिये।

 

मैं यह दावा नहीं करता कि आपकी लघुकथा को बेहतर बनाने के लिए सभी युक्तियों को इस लेख में स्थान दे दिया है, किसी एक लेख में यह सम्भव भी नहीं। न सिर्फ ऐसी बल्कि इनसे बेहतर कई और युक्तियाँ आपको अन्य लेखों में, चर्चा से, साक्षात्कारों से और अपने स्वयं के मस्तिष्क-मंथन से प्राप्त हो सकती हैं। सबसे बड़ी युक्ति मैं यही मानता हूँ कि धैर्यपूर्वक अध्ययन करते रहिए, मस्तिष्क मथते रहिए और अभ्यासी बनिए।

 

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डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

346, प्रभात नगर

सेक्टर-5, हिरण मगरी

उदयपुर - 313 002  - राजस्थान

चलभाष: 9928544749

ईमेल: chandresh.chhatlani@gmail.com


(मूल रूप से 'सेतु: कथ्य से तत्व तक 'पुस्तक स. शोभना श्याम व मृणाल आशुतोष में प्रकाशित)

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

समकालीन हिन्दी लघुकथा [आलेख] - डॉ. बलराम अग्रवाल | @ sahityashilpi.com

समकालीन लघुकथा यथार्थ के प्रति प्रतिबद्ध है इसलिए राजनैतिक यथार्थ को वह छोड़ नहीं सकती है। राजनीति या धर्म के किसी न किसी महापुरुष को यह कहते हम अक्सर सुनते-पढ़ते रहते हैं कि धर्म को राजनीति के बीच में मत लाओ। गोया कि राजनीति अब जिस तरह का ‘धर्म’ बनकर रह गई है, उसमें ‘नैतिकता’ के लिए कोई गुंजाइश शेष नहीं रह गई है। अगर गौर से देखा जाए तो ‘नैतिक सामाजिकता’ भी राजनीति में अब कहाँ बची है। इसी बात को हम यों भी कह सकते हैं कि सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थितियाँ आज इतनी घुलमिल गई हैं कि उन्हें न तो अलग ही किया जा सकता है और न अलग करके देखा ही जा सकता है। इसलिए समकालीन लघुकथा के यथार्थ में राजनीतिक सन्दर्भ इसके उन्नयन काल यानी कि बीती सदी के आठवें दशक से लगातार चले आ रहे हैं। इक्का-दुक्का प्रयास हो सकता है कि उससे कुछ पहले से भी चले आ रहे हों। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि भारतीय राजनीति में भी आधारभूत बदलाव की हवा 1967 में कांग्रेस की कमान गाँधीवादी राजनेताओं के हाथ से छिटककर इंदिरावादी राजनेताओं के हाथ में जाने के साथ ही बही थी और कमोबेश उसी दौर में समकालीन लघुकथा ने कथा-साहित्य रूपी माँ के गर्भ में अपने अस्तित्व को बनाना शुरू कर दिया था। 1970 का दशक समाप्त होते-होते जैसे-जैसे तत्कालीन राजनेताओं की अराजक-कारगुजारियों के चलते राजनीति के स्वरूप में परिवर्तन दृष्टिगोचर होता गया, वैसे-वैसे लघुकथा के कथ्यों में भी उसके दर्शन होने लगे।


समकालीन लघुकथा को यदि देश की राजनीतिक स्थितियों के मद्देनजर विश्लेषित किया जाय तो हम देखते हैं कि इसमें अपने समय की प्रत्येक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना अपनी सम्पूर्ण गिरावट और ओछेपन के साथ मौजूद है। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ की तर्ज पर गोस्वामी तुलसीदास ने सेटायरिकली कहा है कि ‘जस दूलह तस बनी बराता’। गाँधीवादी राजनेता अपनी मानसिकता में ‘सम्मान्य’ राजनेता थे और समाज में अपने कुछ नैतिक ‘मूल्य’ समझते थे। मूल्यहीनता से लेशमात्र भी सामंजस्य वे नहीं बैठा सकते थे। आज के दौर में सिर्फ ‘सम्मान’, सिर्फ ‘नैतिकता’ या सिर्फ ‘मूल्यवत्ता’ के सहारे आप अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ससम्मान अपने देश को खड़ा नहीं रख सकते—इस कूटनीतिक यथार्थ को इंदिरा गाँधी ने समझा था और अपने इस आकलन को सबसे पहले उन्होंने देश की राजनीति पर ही लागू किया था। उन्होंने सिर्फ सम्मान, सिर्फ नैतिकता और सिर्फ मूल्यवत्ता की पैरवी करने वाले अपने पिता और पितामह की पीढ़ी के राजनेताओं को आरामगाह में भेज दिया और राजनीति की कमान अपने मजबूत हाथों में ले ली। देश के भीतर कुछेक उच्छृंखलताओं का शिकार वे न हो गई होतीं तो यह मानने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चहिए कि अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीतिक मंच पर देश की जो स्थिति उनके काल में थी, उनकी हत्या के बाद वह कम से काम आज तक तो पुन: लौटकर नहीं आ पाई है। लेकिन यह भी सच है कि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इन्दिराजी का कार्यकाल इने-गिने अवसरों को छोड़कर उद्वेलनकारी ही रहा। आजादी के बाद विभिन्न विसंगतियों से देश का नागरिक-जीवन संभवत: पहली बार रू-ब-रू हुआ। अपने नेताओं के चरित्र में नैतिकता और मूल्यवत्ता संबंधी अनेक प्रकार की अपनी ही मान्यताओं से उसका पहली बार मोहभंग हुआ। सामान्य नागरिक के नाते शासन से अपनी हर उम्मीद को समस्त प्रयत्नों और क्षमताओं के बावजूद उसने छुटभैये राजनेताओं के हाथों लुट जाते देखा और इस नतीजे पर पहुँचा कि देश में सिर्फ दो ताकतें ही उसके जीवन को सुचारु गति दिये रह सकती हैं—राजनीतिक छुटभैये और रिश्वत। समकालीन लघुकथा में इन सामाजिक व राजनीतिक दबावों, मूल्यहीनताओं और विसंगतियों को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है। यह दो मान्यताओं के टकराव का भी दौर था, इसलिए समकालीन लघुकथा का रवैया और उसके मुख्य सरोकार वैचारिक भी रहे हैं। सीधे टकराव से अलग, राजनीतिक उत्पीड़नों से बचे रहने की दृष्टि से लघुकथाकार समकालीन स्थितियों, दबावों, संबंधों और दशाओं को उजागर करने हेतु अधिकांशत: पौराणिक कथ्यों, पात्रों, कथाओं, संकेतों आदि को व्यवहार में लाए। लघुकथा उन्नयन के प्रारम्भिक दौर में ऐसे रुझान बहुतायत में देखने को मिलते हैं।


लघुकथा यद्यपि अति प्राचीन कथा-विधा है, तथापि समकालीन रचना-विधा के रूप में उसका अस्तित्व 1970-71 से ही माना जाता है। समकालीन लघुकथा ने अपने प्रारम्भिक स्वरूप में ऊर्ध्व परिवर्तन को स्थान देते हुए विचार-वैभिन्य, कथ्य, भाषा, शिल्प, शैली आदि का कालानुरूप सम्मिश्रण किया। यह अपने युग के रस्मो-रिवाजों को साहित्यिक अभिरुचियों के अनुरूप चित्रित करने तक ही सीमित नहीं रही है। आम जीवन के सुपरिचित रोषों का, वेदनाओं और व्यथाओं का, जीवन को नरक बना डालने वाली रीतियों और रिवाजों का इसमें ईमानदार चित्रण हुआ है। समकालीन लघुकथा में चरित्रों की बुनावट कहानी या उपन्यास में चरित्रों की बुनावट से काफी भिन्न है। कुल मिलाकर इसे यों समझा जा सकता है कि समकालीन लघुकथा में चरित्रों के प्रभावशाली चित्रण की दृष्टि से किया जाने वाला कोई भी विस्तार वांछित नहीं है। यही बात वातावरण के बाह्य रूप के चित्रण, उनके प्रति रुझान, शोक अथवा करुणा के व्यापक प्रदर्शन आदि के संबंध में भी रेखांकनीय है। ये सब बातें इसमें बिम्बों, प्रतीकों, संकेतों और व्यंजनाओं के माध्यम से चित्रित की जाती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि समकालीन लघुकथा कथा-कथन की अप्रतिम विधा है, इसके प्रत्येक चरण में मौलिकता है। इसमें उगते सूरज की रक्ताभा है तो डूबते सूरज की पीताभा भी है। इसमें भावनाएँ हैं तो संवेदनाएँ भी हैं। वास्तविक जीवन के सार्थक समझे जाने वाले चित्र हैं तो मन के उद्वेलन व प्रकंपन भी हैं। नीतियाँ और चालबाजियाँ हैं तो आदर्श भी हैं। कहीं पर यह दैनन्दिन-जीवन की ऊबड़-खाबड़ धरती पर खड़ी है तो कहीं पर सीधी-सपाट-समतल जमीन के अनचीन्हे संघर्षों के चित्रण में मशगूल है। बस यों समझ लीजिए कि समकालीन लघुकथा निराशा, संकट, चुनौती और संघर्षभरे जीवन में आशा, सद्भाव और सफलता की भावना के साथ आमजन के हाथों में हाथ डाले विद्यमान है। इसमें संकट का यथार्थ-चित्रण है, लेकिन यथार्थ-चित्रण को साहित्य का संकट बनाकर प्रस्तुत करने की कोई जिद नहीं है।


नए विषयों की चौतरफा पकड़ का जैसा गुण समकालीन लघुकथा में है, वह इसे सहज ही समकालीन कथा-साहित्य की कहानी-जैसी सर्व-स्वीकृत विधा जैसी ग्रहणीय विधा बनाता है। इसमें यथार्थ के वे आयाम हैं जो अब तक लगभग अनछुए थे। इसमें ग्रामीण, कस्बाई, नगरीय, महानगरीय हर स्तर के जीवन-रंग हैं। जहाँ एक ओर घर की बेटी परिवार के पोषण के लिए तन बेच रही है, वहीं तन और मन की अतृप्ति को तृप्ति में बदलने का खेल खेलते नव-धनाढ्य भी हैं। फौजी पति के शहीद हो जाने की सूचना पाकर सुहाग-सेज पर उसकी बंदूक के साथ लेट जाने वाली पत्नी है तो अन्तिम इच्छा के तौर पर फाँसी पर चढ़ाए जाते युवक द्वारा नेत्रदान की घोषणा भी है ताकि अन्धी व्यवस्था कुछ देख पाने में सक्षम हो सके।


यह कहना कि समकालीन लघुकथा ने आम-आदमी की उसके सही अर्थों में खोज की है, कोई अतिशयोक्ति न होगी। यह सामाजिक व मनोवैज्ञानिक सच्चाई है कि व्यक्ति-जीवन से परंपरा की रंगत कभी भी धुल नहीं पाती है, उसका कुछ न कुछ अंश सदैव बना रहता है और वही व्यक्ति को उसके अतीत गौरव से जोड़े रखने व नए को अपनाने के प्रति सचेत रहने की समझ प्रदान करता है। यानी कि व्यक्ति-जीवन में परंपरा और आधुनिकता दोनों का समाविष्ट रहना उसी तरह आवश्यक है जिस तरह ऑक्सीजन लेना और कार्बनडाइऑक्साइड को फेफड़ों से बाहर फेंकना। समकालीन लघुकथा में एक ओर हमें परम्परा के दर्शन होते हैं तो दूसरी ओर आधुनिकता के भी दर्शन होते हैं। विषयों और कथ्यों से तौर पर इसने गाँव-गँवार से लेकर इंटरनेट चैट-रूम तक पर अपनी पकड़ बनाई है। इसमें आधुनिकता की ओर दौड़ लगाता मध्य और निम्न-मध्य वर्ग भी है और उससे घबराकर परंपरा की ओर लौटता या वैसा प्रयास करता तथाकथित आधुनिक वर्ग भी है। परंपरा को संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है, जबकि संस्कृति एक भिन्न अवयव है। परंपराएँ रूढ़, जड़, व्यर्थ हो सकती हैं, संस्कृति नहीं। परंपरा को बदला भी जा सकता है और नहीं भी; लेकिन संस्कृति के साथ यह सब करना उतना सरल नही।


समकालीन लघुकथा ने परंपराजन्य एवं व्यस्थाजन्य अमानवीय नीतियों-व्यवहारों के प्रति आक्रोश व्यक्त करने के अपने दायित्व का निर्वाह बखूबी किया है और आज भी कर रही है। यह इसलिए भी संभव बना रहा है कि अधिकांश लघुकथाकारों ने आम व्यक्ति का जीवन जिया है। वे बेरोजगारी के त्रास से लेकर जीवन की हर मानसिक व शारीरिक कष्टप्रद स्थिति से गुजरे हैं और आज भी गुजर रहे हैं। उन्होंने हर प्रकार का त्रास झेला है और आज भी झेल रहे हैं। उनकी लेखनी से इसीलिए किसी हद तक भोगा हुआ यथार्थ ही चित्रित होकर सामने आ रहा है। समकालीन लघुकथा में सत्य का विद्रूप चेहरा भी प्रस्तुत करने के सफल प्रयास हुए हैं।

अन्त में, किसी भी ऐसी लघुकथा को समकालीन नहीं कहा जा सकता जो अपने समय के मुहावरे से न सिर्फ टकराने का माद्दा न रखती हो, बल्कि उससे अलग-थलग भी पड़ती हो। वस्तुत: तो समकालीन लघुकथा अपने समय का मुहावरा आप है।

- डॉ. बलराम अग्रवाल 

Original URL: https://www.sahityashilpi.com/2009/11/blog-post_25.html

मंगलवार, 30 नवंबर 2021

लघुकथा अनुवाद: हिन्दी से उड़िया | अनुवादक: श्री शिवाशीष | लघुकथा: एक गिलास पानी | मूल लेखक: चंद्रेश कुमार छतलानी

मूल लघुकथा हिन्दी में पढने के लिए क्लिक करिए: एक गिलास पानी

(अनुवाद में भाषा के अनुसार अल्प परिवर्तन किए गए हैं.)

Translation By:

Shibashis Padhee
Hemgir, Sundargarh
Odhisha

ଗୋଟିଏ ଗ୍ଲାସ ପାଣି 

ଆଜି ବ୍ୟାଙ୍କ ରେ ଲମ୍ବା ଧାଡି ଲାଗିଛି !KYC ଫାର୍ମ ଦାଖଲ ର ଶେଷ ତାରିଖ ନିକଟ କୁ ଆସି ଗଲାଣି !କ୍ଲାର୍କ ଦୀନେଶ ବାବୁ ଯେ କି  ଫର୍ମ ତଦାରଖ କରୁଛନ୍ତି ଭାରି ବିରକ୍ତି ହୋଇ ଗଲେଣି !ଲୋକଙ୍କ ଭିଡ ଧୀରେ ଧୀରେ ବଢୁଛି !ସମସ୍ତେ ତରତର ରେ କେହି ଟିକିଏ ଅପେକ୍ଷା କରିବା ସ୍ଥିତି ରେ ନାହାନ୍ତି !ଠେଲା ପେଲା ଅବସ୍ଥା ରେ କାଉଣ୍ଟର ପଟେ ମାଡି ଯାଉଛନ୍ତି !
ଦୀନେଶ ବାବୁ  ବି ଭାରି ରାଗିକି ଜଣକୁ କହୁଥାନ୍ତି 
""ଏ କଣ ଲେଖି ଛନ୍ତି ମାଡାମ ପୁରା ଭୁଲ ହୋଇଗଲା ଯଦି ନିଜେ ନ ଜାଣୁଛନ୍ତି କାହାକୁ ପଚାରିବା କଥା ଯାଆନ୍ତୁ ନୂଆ ଫର୍ମ ଲେଖିକି ଆଣିବେ 
ଯେ ଯାହା ପାରିଲା ଧରି କି ଆସିଲା ଫ୍ରି ମିଳୁଛି ତ ଯଦି ଗୋଟାକୁ ଦଶ ଟଙ୍କା ପଡନ୍ତା ତା ହେଲେ ଜଣା ପଡନ୍ତା ""

ବହୁ ସମୟ ଧରି ଏ ସବୁ ଲକ୍ଷ୍ୟ କରୁଥିବା ବୃଦ୍ଧ ଜଣେ ଲାଇନ ରୁ ବାହାରି ପାଖରେ ଥିବା ଫିଲଟର ରୁ ଗୋଟିଏ ଗ୍ଲାସ ପାଣି ନେଇ କାଉଣ୍ଟର ପାର୍ଶ୍ଵ ରୁ ତାଙ୍କ ପାଖକୁ ବଢ଼ାଇ ଦେଲେ !

କ୍ଲାର୍କ ଜଣକ ପାଣି ଗ୍ଲାସ ଦେଖି ପଚାରିଲେ 
""କଣ ହେଲା ""
""ନାଇଁ ଆପଣ ବହୁ ସମୟ ହେଲା କଥା କହି କହି ଥକି ଯାଇଥିବେ ତଣ୍ଟି ଶୁଖି ଆସିବନି ପାଣି ଟିକେ ପି ଦିଅନ୍ତୁ ଭଲ ଲାଗିବ ""ବୁଝେଇଲା ଭଳି କହିଲେ ବୃଦ୍ଧ ଜଣକ !

ଅନ୍ୟ ଗ୍ରହ ରୁ ଆସିଥିବା ଲୋକ ଭଳିଆ କିଛି ସମୟ ଅନାଇ ରହି ପାଣି ପିଇ ଦୀନେଶ ବାବୁ କହିଲେ 
""ମୁଁ ସବୁବେଳେ ଅପ୍ରିୟ ସତ କହେ ତ ଏଥିପାଇଁ ସମସ୍ତେ ମତେ ରାଗନ୍ତି ଏଠି ପିଅନ ବି ମତେ ପାଣି ପଚାରୁନି ""

ଅଳ୍ପ ହସି ବୃଦ୍ଧ ଜଣକ ପୁଣି ଯାଇ ନିଜ ଜାଗା ରେ ଠିଆ ହୋଇ ଯାଇଥିଲେ !ଦୀନେଶ ବାବୁ  ପାଣି ପିଇ ନିଜ କାମ ଆରମ୍ବ କରି ଦେଇଥିଲେ କିନ୍ତୁ ତାଙ୍କ ବ୍ୟବହାର ବଦଳି ଯାଇଥିଲା ସେ ନ ରାଗି କି ଲୋକ ଙ୍କୁ ବୁଝାଇ କହୁଥିଲେ !

ସନ୍ଧ୍ୟା ରେ ବୃଦ୍ଧ ଜଣକ ଙ୍କ ପାଖକୁ ଏକ ଫୋନ ଆସିଲା ଆର ପଟେ ଥିଲେ ସେହି ବ୍ୟାଙ୍କ କ୍ଲାର୍କ ଦୀନେଶ ବାବୁ, ସେ କହୁଥିଲେ ""ସାର ଆପଣ ଙ୍କ ଫର୍ମ ରୁ ନମ୍ବର ନେଇଛି ଓ ଧନ୍ୟବାଦ ଦେବା ପାଇଁ ଫୋନ କରିଛି ଆଜି ଅପଣଂକ ଗୁରୁ ମନ୍ତ୍ର ମୋର ବହୁ କାମ ରେ ଆସିଛି !
ବୃଦ୍ଧ ଚମକି କହିଲେ କି ଗୁରୁ ମନ୍ତ୍ର?? 

ଦୀନେଶ ବାବୁ କହୁଥିଲେ, ମୁଁ ଘର କୁ ଆସିଲା ବେଳେ ଘରେ ଜୋରସୋର ରେ  ଶାଶୁ ବହୁ ଙ୍କ ଝଗଡା ଚାଲି ଥିଲା ମୁଁ ଆପଣ ଙ୍କ ମନ୍ତ୍ର ପ୍ରୟୋଗ କରି ମା କୁ ଗ୍ଲାସେ ଓ ପତ୍ନୀ ଙ୍କୁ ଗ୍ଲାସେ ଲେଖାଏଁ ପାଣି ଦେଇ କହିଲି ତଣ୍ଟି ଶୁଖି ଯାଇ ଥିବ ଏଣୁ ପାଣି ଟିକିଏ ପି ଦେଇ ଟିକିଏ ବିଶ୍ରାମ ନିଅ ପରେ ଲଢ଼ିବ !
ଯାଦୁ ପରି ଲଢ଼ିବା ବନ୍ଦ କରି ଦେଲେ ସେମାନେ """

ବୃଦ୍ଧ ହସି ହସି କହୁଥିଲେ ରାଗ ର ସାମ୍ନା ଯଦି ରାଗ ସହ ହୁଏ ସେତେବେଳେ ରାଗ ବହୁ ଗୁଣିତ ହୁଏ  ଆସେ କିନ୍ତୁ ରାଗ ର ସାମ୍ନା ଯଦି ନମ୍ରତା, ବିନୟତା  ସହ ହୂଏ ତେବେ ରାଗ କୁ ପରିବର୍ତନ କରି ଦିଏ !

ମୃଦୁ ହସି ସମ୍ମତି ଦେଉଥିଲେ ଦୀନେଶ ବାବୁ !!!
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सोमवार, 29 नवंबर 2021

लघुकथा अनुवाद: हिन्दी से उड़िया | अनुवादक: श्री शिवाशीष | लघुकथा: शक्तिहीन | मूल लेखक: चंद्रेश कुमार छतलानी

हिन्दी में पढने लिए क्लिक कीजिए: शक्तिहीन (लघुकथा) : हिन्दी

अनुवाद में भाषा के अनुसार अल्प परिवर्तन किए गए हैं.

Translation By:

Shibashis Padhee
Hemgir, Sundargarh
Odhisha

ଶକ୍ତିହୀନ

ମୂଳଲେଖା -Chandresh Kumar Chhatlani
ଅନୁସୃଜନ -ଶିବାଶିଷ ପାଢ଼ୀ
ଅନୁକୂଳ ସ୍ରୋତରେ ପହଁରି ପହଁରି ଦିନେ ସମୁଦ୍ରରେ ପହଞ୍ଚି ଯାଇଥିଲା ମଧୁର ଜଳର ମାଛଟିଏ ! ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ହେଉଥିଲା ସେ ! ଭାବୁଥିଲା
ଏ ପାଣି ଏତେ ଲୁଣି କାହିଁକି?
ଏଇଠି କେମିତି ବଞ୍ଚିବି ମୁଁ?
ବ୍ୟସ୍ତ ବିବ୍ରତ ହୋଇ ଏପଟ ସେପଟ ହେଉଥିବା ବେଳେ ପାଖକୁ ଆସିଥିଲା ଲୁଣିଜଳ ମାଛ ଟିଏ !
ପଚାରିଥିଲା --କଣ ହେଲା?
ଭାଇ,ଏ ପାଣି ଏତେ ଲୁଣି କାହିଁକି ମୁଁ ତ ଏଇଠି ବଂଚି ପାରିବି ନାହିଁ ? ପଚାରିଥିଲା ଏ ମାଛ
ହାଁ ଲୁଣି ମାନେ? ପାଣି ତ ଏମିତି ହିଁ ଥାଏ --ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ହୋଇ କହିଥିଲା ସେ ସମୁଦ୍ର ମାଛ !
ନାଁ ନାଁ ପାଣି ତ ମଧୁର ବି ଥାଏ --ପୁଣି ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ହେଉଥିଲା ଏ ମାଛ
କେଉଁଠି ପାଣି ମଧୁର ଥାଏ? ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ହୋଇ ପାଖକୁ ଆସିଯାଉଥିଲା ଲୁଣିମାଛ କହିଥିଲା ଚାଲ ତ ଯିବା !ମୋତେ ଦେଖେଇବୁ...
ହଁ ହଁ... ଚାଲ --କହି ମୁହାଁଣ ଦିଗକୁ ପହଁରିବାର ଚେଷ୍ଟା କରୁଥିଲା ମଧୁରଜଳ ମାଛ !ହେଲେ କେବଳ ହଲୁଥିଲା ଡେଣା !ଜମା ଆଗକୁ ଯାଇପାରୁ ନଥିଲା ସେ !
ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ହେଉଥିଲା ସମୁଦ୍ର ମାଛ - ପଚାରିଲା
--କଣ ହେଲା ଭାଇ
ନିସ୍ତେଜ ହୋଇ ଯାଉଥିଲା ମଧୁରଜଳ ମାଛ ! ବହୁତ କଷ୍ଟରେ କହିଥିଲା --ଭାଇ ଦୀର୍ଘଦିନ ଧରି ସ୍ରୋତ ଅନୁକୂଳ ସ୍ରୋତରେ ପହଁରି ପହଁରି ମୋର ଅଭ୍ୟାସ ଖରାପ ହୋଇଯାଇଛି ! ସାମାନ୍ୟ ପ୍ରତିକୂଳ ସ୍ରୋତରେ ପହଁରି ପାରୁନାହିଁ ମୁଁ !
କିଛି ବୁଝୁ ନଥିଲା ସମୁଦ୍ର ମାଛ କେବଳ ତାଟକା ହୋଇ ଚାହିଁ ରହିଥିଲା ସେ!!!!!!!!!!!!!

शनिवार, 27 नवंबर 2021

लघुकथा समाचार | साहित्यकारों ने शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम में लघुकथा की अनदेखी करने को लेकर उठाए सवाल | magbook.in

पटना में कुछ साहित्यकारों ने लघुकथा की उपेक्षा को लेकर एक अहम सवाला उठाया है. उनका कहना है कि " समकालीन साहित्य की सर्वाधिक पठनीय और संप्रेषणीय विधा  लघुकथा है, तो फिर वह आज बच्चों और युवाओं के लिए  शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से अपेक्षित संख्या में उनके पाठ्यक्रमों में क्यों नहीं शामिल की जा रही है ? इसी के साथ यह सवाल भी प्रासंगिक है कि" शिक्षक संस्थानों से लघुकथा बेदखल क्यों?"

 भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में  फेसबुक के  "अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका "  पेज पर ऑनलाइन आयोजित " हेलो फेसबुक लघुकथा सम्मेलन " का विषय प्रवर्तन करते हुए सम्मेलन के संयोजक  एवं संस्था के अध्यक्ष सिद्धेश्वर ने उपरोक्त उद्गार व्यक्त किये !

 लघुकथा की शैक्षणिक प्रासंगिकता" विषय पर  विस्तार से प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि -" हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि किसी भी विधा की किसी भी रचना के चयन में हमेशा साहित्य की राजनीति चलती रही है। ऐसी स्थिति में  निष्पक्षता पूर्वक हमें निर्णय लेना  होगा और लघुकथा की  शैक्षणिक पृष्ठभूमि तैयार करनी होगी l हां, इतना जरूर है कि पाठ्यक्रमों में लघुकथाओं का हस्तक्षेप हो गया है l यह बात  संतोषजनक और सुखद तो है ही l  अब  जरूरत   है कि  व्यापक स्तर पर देश-विदेश के लघुकथाकारों द्वारा लिखी गई या लिखी  जा रही श्रेष्ठ, सामाजिक, उद्देश्यपूर्ण,  नैतिकपूर्ण और बच्चों तथा युवाओं के सर्वांगीण विकास वाली  लघुकथाओं को  अधिक से अधिक उनके पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए और  ऐसी लघुकथाएं और लघुकथाकार ही  शोध का विषय बनें ! "

लघुकथा सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध लेखिका पूनम कतरियार  ने कहा कि  सबसे अच्छी बात यह है कि  संस्था के अध्यक्ष सिद्धेश्वर जी जिस मुद्दे को लेकर गोष्ठी आयोजित करते रहे हैं,  वह साहित्यिक विधाओं को व्यापक स्वरूप देने में पूर्ण सक्षम  साबित होती रही है l लघुकथा प्रेमियों के मन में बहुधा यह बात घुमड़ती रही है कि "लघुकथा की क्या है शैक्षणिक प्रासंगिकता ? " लघुकथा अपने दम पर अपना एक मुकाम बना चुकी है। लघुकथा के समीक्षक एवं पुरोधा इसके मापदंड निर्धारित  कर इसे इसके अनुरूप कलेवर दे रहे हैं l  लघुकथा का उच्च स्तर के पाठ्यक्रमों में नहीं होना निराश जरूर  करता है।जब उपन्यास, कहानी, संस्मरण, नाटक,यात्रा-वृतान्त, और रिपोर्ताज़  स्कूल और कॉलेजों में पढ़ाए जाते हैं,  तब फिर  सर्वाधिक चर्चित विधा लघुकथा क्यों नहीं ? मेरे विचार से लघुकथा को भी एक स्वतंत्र विधा के रूप में पाठ्यपुस्तकों में शामिल करना उचित होगा। यह समय की माँग और साहित्य के प्रति हमारी जवाबदेही है कि हम लघुकथा का  संवर्द्धन,संरक्षण  एवं संचयन कर इसे पाठ्यपुस्तकों से लेकर आम-पाठक तक वह गौरवपूर्ण जगह दिलायें जिसकी यह हकदार है।"

लघुकथा सम्मेलन के मुख्य अतिथि विजयानंद  विजय ने कहा कि - " इंटरनेट, सोशल मीडिया समूहों और नयी तकनीकी सुविधाओं ने उस विरासत को खंगालना और उनमें से अनमोल मोतियों को तलाशना हमारे लिए और सुगम कर दिया है।जरूरी है कि इस खजाने से बेहतरीन से बेहतरीन लघुकथाएँ चुनकर पाठ्यक्रमों में शामिल की जाएँ, ताकि नयी पीढ़ी भी इनसे वाकिफ हो सके और इन लघुकथाओं में निहित संदेशों और संकेतों को समझ सके और एक सुदृढ़ समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सके।"

विशिष्ट अतिथि डॉ शरद  नारायण खरे ( म.पप्र. ) ने कहा कि-" लघुकथाओं को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना इसलिए उचित होगा,क्योंकि लघुकथाएँ जीवन के आसपास होने के कारण हमें जीने की कला सिखाती हैं,तथा हमारे व्यक्तितत्व का विकास करती हैं।लघुकथाओं की विषयवस्तु चूंकि हमारे ही आसपास से ली गई होती है,इसलिए लघुकथाएँ हमारे चिंतन को सकारात्मक दिशा देती हैं।वास्तव में,लघुकथाओं को पाठ्यक्रमों में शामिल करके उनका नैतिक शिक्षा के रूप में प्रयोग किया जाना पूर्णत: विवेकपूर्ण होगा।लघुकथाएँ लघु होते हुए भी बहुत कुछ कह जाती हैं,इसलिए उनको विद्यार्थियों के शिक्षण से जोड़ना पूर्णत: समीचीन होगा।

विषय से संदर्भित चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अपूर्व  कुमार (वैशाली ) ने कहा कि-लघुकथा साहित्य की वह विधा है, जो जिस सुगमता से विद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्थान पा लेने की क्षमता रखती है, उसी सुगमता से विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी। लघुकथा साहित्य की बगिया का गुलाब है। सीबीएसई के कक्षा नवम्  के हिंदी भाषा के  नवीनतम पाठ्यक्रम में लघुकथा लेखन को भी सम्मिलित कर लिया गया है। हिंदी अकादमी, दिल्ली एवं साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा लघुकथा को एक साहित्यिक विधा के रूप में स्वीकार कर लेने के बाद मैंगलोर विश्वविद्यालय ने लघुकथा की एक पुस्तक ही पाठ्यक्रम में लगा दी है। ऐसा पहली बार हुआ है।कुछ विश्वविद्यालयों में लघुकथा संकलन भी पढ़ाये जा रहे हैं। निकट भविष्य में अन्य विश्वविद्यालय भी इसका अनुसरण करेंगे ही। जरूरत है निष्पक्षतापूर्वक अधिक से अधिक  श्रेष्ठ लघुकथाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने की l "

नरेंद्र कौर छाबड़ा ने अपने वक्तव्य में कहा "बदलते समय के दौर को देखते हुए लघु कथाओं को भी पाठ्यक्रम में शामिल करने पर विचार करना चाहिए। इससे बच्चों में लघु कथा के प्रति रुचि जागेगी तथा एक महत्वपूर्ण बात को किस तरह कम शब्दों में कहा जा सकता है यह तरीका भी बच्चे सीखेंगे।

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए राज प्रिया रानी ने कहा कि -" पाठ्यक्रम में लघुकथा कि प्रासंगिकता आज एक ज्वलंत मुद्दा बनता जा रहा है । पाठ्यक्रमों में लघुकथाओं को शामिल किया जाना चुनौतीपूर्ण एवं एक महत्वपूर्ण कदम है जो निरंतर छात्रों के साथ साथ सर्व शैक्षणिक विकास के लिए एक  सार्थक और सकारात्मक प्रयास होगा  !"

इंदौर के डॉ. योगेंद्र नाथ शुक्ल ने अपनी एक लघुकथा का हवाला देते हुए कहा कि सिद्धेश्वर जी, मैं आपकी पीड़ा समझता हूं। आजकल  पाठ्यक्रमों में रचनाओं का चयन करने के लिए भी जोड़-तोड़ चल रही है l पाठ्यक्रम की इस नयी किताब में तुलसी ,सूर, मीरा ,माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर जैसे महान साहित्यकार अपने साथ जोड़ तोड़ से हो रहे हैन। अंशु कुमार, मोनिका सिंह, लवलीन आदि जैसे रचनाकारों की रचनाओं को देखकर, पाठक  और छात्रवृंद आंसू ही तो बहाएँगे ?"

डॉ. पुष्पा जमुआर ने कहा कि - " वस्तुतः लघुकथा फिर से पाठ्यक्रम में शामिल होने हेतु संघर्षरत होने लगी है।आप लोगों का यह सार्थक प्रयास है और इस विषय पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है  कि वर्तमान शैक्षणिक संस्थान में पाठ्यपुस्तक में शामिल हो ।"  इसके अतिरिक्त  दुर्गेश मोहन,  संतोष मालवीय, निवेदिता, सरकार, सुनील कुमार उपाध्याय, रज्जू सिन्हा, कनक, बिहारी,  राम नारायण यादव आर्य ने भी अपने संक्षिप्त विचार व्यक्त किए l

चर्चा परिचर्चा के बीच एक  दर्जन से अधिक लघुकथाकारों ने अपनी ताजातरीन लघुकथाओं का पाठ किया l डॉ. शरद नारायण खरे (म.प्र. ) ने " सरहद पर उजाला "/ डॉ. योगेंद्रनाथ शुक्ल (इंदौर) ने  " रोती हुई किताब "/जवाहरलाल सिंह  (जमशेदपुर) ने  "श्राद्ध कर्म "/डॉ. पुष्पा जमुआर ने " आत्महत्या" / ऋचा वर्मा ने "हिसाब "/मीना कुमारी परिहार ने   /पूनम कतरियार ने (इलाज )/ मधुरेश नारायण ने "काम और आराम "/ राजा रानी ने " गुनाह "/पुष्प रंजन ने -" पापी "/संतोष सुपेकर(उज्जैन ) ने "कैसे कहूं ?"/  शराफत अली खान( बरेली ) ने-" विद्रोह "/ रशीद गौरी (राज ) ने-" समय "/ गजानन पांडे(हैदराबाद) ने "विधि का विधान"/ विजयानन्द विजय ने " ग़ली ", सिद्धेश्वर ने "मान सम्मान"  के अतिरिक्त नरेंद्र कौर छाबड़ा ( महाराष्ट्र) / डॉ. मीना कुमारी परिहार आदि ने भी लघुकथाओं का पाठ किया,  जिसे देश भर के 300 से अधिक लोगों ने स्वागत किया l  लघुकथा के विकास की दिशा में यह एक अभिनव और  ऐतिहासिक प्रयास रहा,  जो लघुकथा को शिक्षण संस्थान  से जोड़ने में  सकारात्मक भूमिका का निर्वाह कर सकेगा !

 प्रस्तुति :ऋचा वर्मा  और सिद्धेश्वर

Source:

साहित्यकारों ने शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम में लघुकथा की अनदेखी करने को लेकर उठाए सवाल

URL:

https://www.magbook.in/ArticleView.aspx?ArtID=191514&ART_TITLE=%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%B2%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%96%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%B0-%E0%A4%89%E0%A4%A0%E0%A4%BE%E0%A4%8F-%E0%A4%B8%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2