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शनिवार, 9 मई 2020

लघुकथा वीडियो: वैध बूचड़खाना | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: वैध बूचड़खाना 

 सड़क पर एक लड़के को रोटी हाथ में लेकर आते देख अलग-अलग तरफ खड़ीं वे दोनों उसकी तरफ भागीं। दोनों ही समझ रही थीं कि भोजन उनके लिए आया है। कम उम्र का वह लड़का उन्हें भागते हुए आते देख घबरा गया और रोटी उन दोनों में से गाय की तरफ फैंक कर लौट गया। दूसरी तरफ से भागती आ रही भैंस तीव्र स्वर में रंभाई, “अकेले मत खाना इसमें मेरा भी हिस्सा है।”

गाय ने उत्तर दिया, “यह तेरे लिए नहीं है... सवेरे की पहली रोटी मुझे ही मिलती है।”

“लेकिन क्यूँ?” भैंस ने उसके पास पहुँच कर प्रश्न दागा।

“क्योंकि यह बात धर्म कहता है... मुझे ये लोग माँ की तरह मानते हैं।” गाय जुगाली करते हुए रंभाई।

“अच्छा! लेकिन माँ की तरह दूध तो मेरा भी पीते हैं, फिर तुम्हें अकेले ही को...” भैंस आश्चर्यचकित थी।

गाय ने बात काटते हुए दार्शनिक स्वर में प्रत्युत्तर दिया, “मेरा दूध न केवल बेहतर है, बल्कि और भी कई कारण हैं। यह बातें पुराने ग्रन्थों में लिखी हैं।”

“चलो छोडो इस प्रवचन को, कहीं और चलते हैं मुझे भूख लगी है...” भूख के कारण भैंस को गाय की बातें उसके सामने बजती हुई बीन के अलावा कुछ और प्रतीत नहीं हो रहीं थीं।

“हाँ! भूखे भजन न होय गोपाला। पेट तो मेरा भी नहीं भरा। ये लोग भी सड़कों पर घूमती कितनी गायों को भरपेट खिलाएंगे?” गाय ने भी सहमती भरी।

और वे दोनों वहां से साथ-साथ चलती हुईं गली के बाहर रखे कचरे के एक बड़े से डिब्बे के पास पहुंची, सफाई के अभाव में कुछ कचरा उस डिब्बे से बाहर भी गिरा हुआ था|

दोनों एक-दूसरे से कुछ कहे बिना वहां गिरी हुईं प्लास्टिक की थैलियों में मुंह मारने लगीं।

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चित्रः साभार गूगल



शुक्रवार, 8 मई 2020

लघुकथा वीडियो: धर्म–निरपेक्ष । लेखक: रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु । स्वर: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: धर्म–निरपेक्ष / रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु

शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भाले की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक–दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग–अलग थे।

पहले ने दूसरे को माँ की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने–अपने छुरे निकाल लिये। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक–दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।

उन्होंने हाथ तौलकर एक–दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटपटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। ज़मीन खून से भीग गई।

कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और सूखी हड्डी चबाने में लग गया।

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गुरुवार, 7 मई 2020

लघुकथा वीडियो: मुर्दों के सम्प्रदाय । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: मुर्दों के सम्प्रदाय


"पापा, हम इस दुकान से ही मटन क्यों लेते हैं? हमारे घर के पास वाली दुकान से क्यों नहीं?" बेटे ने कसाई की दुकान से बाहर निकलते ही अपने पिता से सवाल किया।


पिता ने बड़ी संजीदगी से उत्तर दिया, "क्योंकि हम हिन्दू हैं, हम झटके का माँस खाते हैं और घर के पास वाली दुकान हलाल की है, वहां का माँस मुसलमान खाते हैं।"


"लेकिन पापा, दोनों दुकानों में क्या अंतर है?" अब बेटे के स्वर में और भी अधिक जिज्ञासा थी।


"बकरे को काटने के तरीके का अंतर है..." पिता ने ऐसे बताया जैसे वह आगे कुछ बताना ही नहीं चाह रहा हो, परन्तु बेटा कुछ समझ गया, और उसने कहा,

"अच्छा! जैसे मरने के बाद हिन्दू को जलाते हैं और मुसलमान को जमीन में दफनाते हैं, वैसे ही ना!"


बेटे ने समझदारी वाली बात कही तो पिता ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया, "हाँ बेटे, बिलकुल वैसे ही।"


"तो पापा, यह कैसे पता चलता है कि बकरा हिन्दू है या मुसलमान?"


यह प्रश्न सुन पिता चौंक गया, जगह-जगह पर दी जाने वाली अलगाव की शिक्षा को याद कर उसके चेहरे पर गंभीरता सी आ गयी और उसने कहा,

"बकरा गंवार सा जानवर होता है, इसलिए उसे हिन्दू कसाई अपने तरीके से काटता है और मुसलमान कसाई अपने तरीके से। सच तो यह है कि कटने के बाद जब बकरा मरता है उसके बाद ही हिन्दू या मुसलमान बनता है... जीते-जी नहीं।"

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मंगलवार, 5 मई 2020

लघुकथा वीडियो: बच्चा नहीं | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: बच्चा नहीं | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 "बधाई हो, बच्चा हुआ है।"

हर बार की तरह जनाना हस्पताल की उस उपचारिका ने प्रसव के बाद इन्हीं शब्दों से बधाई दी।

 वार्ड के बाहर खड़ी वृद्ध महिला को बच्चे के जन्म की बधाई देकर वह फिर से अंदर जाने लगी ही थी कि, उस वृद्ध महिला ने कौतुहलवश पूछा, “लेकिन सिस्टर, लड़का है या लड़की?”

 “उससे क्या फर्क पड़ता है? जानवर तो नहीं हुआ। जच्चा ठीक है और आंगन में एक स्वस्थ बच्चे की किलकारी गूँजने वाली है, उसकी ख़ुशी तो है ना!“ और वह उस वृद्ध महिला का चेहरा देखे बिना ही दूसरी महिला का प्रसव करवाने चली गयी।

 दूसरी महिला ने भी एक शिशु को जन्म दिया, उपचारिका ने बच्चे का लिंग देखा और बाहर जाकर उस महिला के पति से कहा,

"जच्चा ठीक है, डिलीवरी भी नॉर्मल हो गयी, और.... उसके बच्च... किन्नर हुआ है।"

उसके स्वर की लड़खड़ाहट आसानी से पहचानी जा सकती थी।

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सोमवार, 4 मई 2020

लघुकथा वीडियो: भेद-अभाव | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: भेद-अभाव  

मोमबत्ती फड़फड़ाती हुई बुझ गयी।

अँधेरे हॉल में निस्तब्धता फ़ैल गयी थी, फिर एक स्त्री स्वर गूंजा, "जानते हो मैं कौन हूँ?"

वहां बीस-पच्चीस लोग थे, सभी एक-दूसरे को जानते या पहचानते थे। एक ने हँसते हुए कहा, "तुम हमारी मित्र हो - रोशनी। तुमने ही तो हम सभी को अपने जन्मदिन की दावत में बुलाया है और हमें ताली बजाने को मना कर अभी-अभी मोमबत्ती को फूंक मार कर बुझाया।"

स्त्री स्वर फिर गूंजा, "विलियम, क्या तुम देख सकते हो कि  तुम गोरे हो और बाकी सब तुम्हारी तुलना में काले?"

विलियम वहीँ था उसने कहा, "नहीं।"

वही स्त्री स्वर फिर गूंजा, "शुक्ला, क्या तुम बता सकते हो कि यहाँ कितने शूद्र हैं?"

वहीँ खड़े शुक्ला ने उत्तर दिया, "पहले देखा तो था लेकिन बिना प्रकाश के कैसे गिन पाऊंगा?"

फिर उसी स्त्री ने कहा, "अहमद, तुम्हारे लिए माँसाहार रखा है, खा लो।"

अहमद ने कहा, "अभी नहीं, अँधेरे में कहीं हमारे वाले की जगह दूसरा वाला मांस आ गया तो...?"

अब स्वर फिर गूंजा, "एक खेल खेलते हैं। अँधेरे में दूसरे को सिर्फ छूकर यह बताना है कि तुम उससे बेहतर हो और क्यों?"

उनमें से किसी ने कहा, "यह कैसे संभव है?"

उसी समय हॉल का दरवाज़ा खुला। बाहर से आ रहे प्रकाश में अंदर खड़े व्यक्तियों ने देखा कि उनकी मित्र रोशनी, जिसका जन्मदिन था, वह आ रही है। सभी हक्के-बक्के रह गए। रोशनी ने अंदर आते हुए कहा, "सभी से माफ़ी चाहती हूँ, तैयारी में कुछ समय लग गया।"

और बुझी हुई मोमबत्ती खुद-ब-खुद जलने लगी,  लेकिन वहां कोई खड़ा नहीं था। सिर्फ एक कागज़ मेज पर रखा हुआ था। एक व्यक्ति ने उस कागज़ को उठा कर पढ़ा, उसमें लिखा था, "मैनें तुम्हें प्रकाश में नहीं बनाया... जानते हो तुम कौन हो?"
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चित्रः साभार गूगल

रविवार, 3 मई 2020

समीक्षाः गुलाबी फूलों वाले कप (लघुकथा संग्रह ) | लघुकथाकार : डॉ.श्याम सुंदर दीप्ति | समीक्षाकारः डॉ.शील कौशिक


समीक्ष्य कृति:गुलाबी फूलों वाले कप (लघुकथा-संग्रह) 
लघुकथाकार : डॉ.श्याम सुंदर दीप्ति 
प्रकाशक: राही प्रकाशन, दिल्ली 

मूल्य: ₹395 पृष्ठ संख्या: 148
समीक्षाकारः डॉ.शील कौशिक

परिवेश व अनुभव की सान पर रचित श्रेष्ठ लघुकथाएं

डॉ. श्यामसुंदर दीप्ति पंजाबी व हिंदी लघुकथा के प्रमुख आधार स्तंभ रहे हैं। सन 1986 से अपना लघुकथा का सफर शुरू करने वाले डॉक्टर श्यामसुंदर दीप्ति स्वयं मानते हैं कि शुरुआत के तीन-चार दशकों के बाद लघुकथा में कई पड़ाव आए और उन्होंने खुद अपने लेखन में एक विकास होते महसूस किया। वर्तमान में विषय की नवीनता व प्रस्तुतीकरण में प्रयोग जहां एक ओर लघुकथा के विकास व समृद्धि के द्योतक हैं वहीं दूसरी ओर बड़ी संख्या में रातों-रात लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिखकर लघुकथाकार बनने का लोभ संवरण नहीं करने वाले लघुकथा विधा के साथ खिलवाड़ करते नजर आते हैं। फिर भी वर्तमान समय को लघुकथा का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है क्योंकि विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लघुकथाओं का प्रकाशन एवं सोशल साइट्स पर रचनाकारों की सक्रियता देखकर लघुकथा की लोकप्रियता का अहसास होता है। उपन्यास और कहानियां नेपथ्य में जा रही हैं और लघुकथा प्रबलता और प्रभावशीलता के साथ सम्मुख आ रही है। लघुकथा में तीव्र गति से समाज में आए बदलाव को रेखांकित और प्रतिबिंबित करने की अद्भुत क्षमता है।
डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति

डॉ श्याम सुंदर दीप्ति का सद्य:प्रकाशित लघुकथा संग्रह 'गुलाबी फूलों वाले कप' उनकी तीसरी लघुकथा की एकल कृति है। इससे पूर्व 'गैर हाजिर रिश्ता' उनकी चर्चित एवं प्रशंसित लघुकथा की पुस्तक है जिसे मैंने भी पढ़ा और सराहा है। मेडिकल प्रोफेशन व मनोविज्ञान की मास्टर डिग्री होने के कारण डॉ. साहब ने अनेक ज्ञान की पुस्तकें भी लिखी हैं। जहां तक लघुकथा का संबंध है डॉ दीप्ति देशभर में अग्रणीय व समर्पित हस्ताक्षर हैं। उन्होंने पंजाबी में लघुकथा को 'मिनी कहानी' के रूप में स्थापित कर 'मिन्नी त्रैमासिक' लघुकथा पत्रिका व 'जुगनूआं दे अंग-संग' के माध्यम से इसके विकास और संवर्द्धन में निरंतर अपना महती योगदान दिया है। उन्होंने रचनात्मक अवदान के साथ- साथ संपादन भी किया व अनेक कार्यशालाओं का आयोजन करके लघुकथा को समृद्ध किया है।
भूमंडलीकरण, आर्थिक भागदौड़ में मनुष्य अपनी आत्मा की आवाज सुनना भूल गया है। जीवन के शाश्वत मूल्यों को विस्मृत कर अर्थ उपार्जन में कौशल बढ़ाने में लगा है। वर्तमान परिवेश को डॉ. दीप्ति ने अपनी विभिन्न लघुकथाओं में व्यक्त किया है।

वृद्धावस्था में अकेलेपन से जूझते व उनकी लाचारी को 'दीवारें'और 'अधर में लटके' लघुकथाओं में देखा जा सकता है। संग्रह की प्रथम लघुकथा 'अधर में लटके' एक वृद्ध की कथा है जो परिस्थितियों के आगे समर्पण करने में ही अपनी भलाई समझता है। वह बेटे की स्थिति के साथ-साथ स्वयं की युवावस्था को व अपने त्याग का भी स्मरण करता है, जब उसने आगे पढ़ने की अपनी इच्छा को मार कर पिता के कहे अनुसार क्लर्क की नौकरी ज्वाइन कर ली थी। वह कहता है, " अपनी दो सांसों के बारे में क्या फिक्र करना । ठीक ही तो है मेरे बारे में सोचेंगे तो आप अधर में लटक जाएंगे।"
इन बुजुर्गों की आदत है बोलते रहने की, ऐसे रहने की, ऐसे करने की, जैसे वाक्य प्रत्येक घर में सुनने को मिल जाते हैं। जस्सी बेटे के दोस्त कश्मीरा को बुजुर्ग इस वाक्यांश से अपनी स्थिति स्पष्ट कर देता है लघुकथा 'दीवारें' में।
"हां बेटा! घर में पंखे-पुंखे सब हैं। पर कुदरत का कोई मुकाबला नहीं। एक बात और बेटा, आता- जाता व्यक्ति रुक जाता है। दो बातें सुन जाता है, दो सुना जाता है। अंदर तो बेटा दीवारों को ही झांकते रहते हैं।"
वंचित वर्ग चाहे वह किसान हो, मजदूर हो या फिर निम्न जाति का, डॉक्टर दीप्ति जी के लघुकथाओं के सदैव सरोकार रहे हैं। आज भी ग्रामीण परिवेश में जात-पात का भेदभाव देखा जा सकता है । लघुकथा 'हिम्मत' में बीरे को अपने सहपाठियों से मजबी जात का होने के कारण क्या कुछ नहीं सुनना पड़ता। ऐसे में हतोत्साहित बीरे को शिंदे कहता है कि मेरा बापू बस एक ही बात बोलता है- देख इसीलिए तो पढ़ाई करनी है कि जलालत के माहौल से बाहर निकल सकें। यही एक रास्ता है।" वास्तव में शिक्षा ही किसी भी क्रांति का मूल मंत्र है।
डॉ.शील कौशिक

यह विडंबना ही कहीं जाएगी कि कन्या जन्म को लेकर पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही स्त्रियों की सोच आज भी हटने का नाम ही नहीं ले रही है। 'उदासी का सफर' लघुकथा में राघवी के दूसरी संतान बेटी होने पर उसकी सास की मुस्कुराहट गायब हो जाती है। वह उसे सहर्ष ही रागिनी की बहन रिंपी जो कि नि:संतान है को देने के लिए तैयार हो जाती है। उधर राघवी नवजात कन्या को जब दादी की गोद में डालती है तो वह गुस्से में बोली, " अगर बच्चा गोद ही लेना था तो लड़की ही क्यों ?"
'कविता का चेहरा' व 'कहानी नहीं बनी' लघुकथाओं में डॉ दीप्ति द्वारा नया प्रयोग देखने को मिलता है। इस तरह के प्रयोग लघुकथा के विकास में संजीवनी का कार्य करते हैं। वर्षा ऋतु के मौसम का घूंट-घूंट रसपान करते हुए कवि के मन में कविता लिखने का वातावरण बनने, कविता के रूपवान होने, कविता पर निखार आने लगता है कि तभी सीवर के गंदे पानी के भभके के साथ-साथ प्रेमा की प्रताड़ना का अमानवीय दृश्य देखकर कविता रूठ कर वापस लौट जाती है। लघुकथा एक गहरा संदेश पीछे छोड़ जाती है कि मानवीय सरोकारों के बिना कुछ भी लिखना व्यर्थ है। लघुकथा में दृश्यात्मकता इस लघुकथा को ऊंचाई प्रदान करती है।
किसी को रोजी-रोटी कमाने के योग्य बनाना सबसे बड़ा पुण्य है। फटे पुराने कपड़ों व बेकार की कतरनों से बच्चों द्वारा वाल हैंगिंग, पायदान, कुशन आदि बनवा कर उनका भविष्य संवारने वाले रामकुमार के प्रति अनुभवी बच्चा आत्मविश्वास के साथ अपनी कृतज्ञता निरीक्षण करने वाले सीनियर सिटीजन के समक्ष इस प्रकार प्रकट करता है, " हम कतरनें ही तो थे, इन सर ने हमें सलीके से सिर ऊंचा करके चलना सिखाया और अपने पर गर्व करने योग्य बनाया है।"
वर्तमान समय की त्रासदी ही कही जाएगी की सभ्य कहे जाने वाले लोग एकाकीपन से इस कदर त्रस्त हैं कि रॉन्ग नंबर लग जाने पर दोनों तरफ से सुकून की अनुभूति होती है लघुकथा 'करवट' में । प्रत्युत्तर में वरिष्ठ नागरिक कहता है, 'चलो! चाहे रॉन्ग नंबर था... हां, अगर मन उदास हो तो किसी हमदर्द का समझ कर मिला सकते हो।" लघुकथा में लेखक की दूरदृष्टि व सजगता परिलक्षित होती है।
एक नितांत अछूते विषय पर लघुकथा है 'खोखा'। सभ्याचार और दिखावे की दुनिया से दूर खोखे पर मनोहर को जो आत्मीयता मिलती है, वह अपने बेटे के घर से भी न मिली। अंत में वह निर्णय कर संतुष्टि से सोया - 'जैसे उसे बाकी जिंदगी की खुशी के पल गुजारने का ठिकाना मिल गया हो।'
बाल मनोविज्ञान पर आधारित डॉ श्याम सुंदर दीप्ति का एक पूरा लघुकथा-संग्रह 'बालमन की लघुकथाएं' आ चुका है। प्रस्तुत संग्रह की 'बैड गर्ल' व' 'गुब्बारा' इनकी बाल मनोविज्ञान पर बहुत अच्छी लघुकथाएं हैं। बालमन कितना सरल और सहज होता है। 'गुब्बारा' में बेटी द्वारा रोज-रोज गुब्बारा मांगने पर पिता समझाते हैं कि गुब्बारा अच्छा नहीं होता, एक मिनट में ही फट जाता है। परंतु जैसे ही उसने गुब्बारे वाले की आवाज सुनी तो स्वयं के कदमों पर ब्रेक लगा कर पिता को देख कर बोली, "गुब्बारा अच्छा नहीं होता ना। भाई रोज ही आ जाता है। मैं उसे कह आऊं कि वह चला जाए।" परंतु मम्मी के पास रसोई में जाकर कहने लगी, " मम्मी जी, मुझे गुब्बारा ले दो ना।"
पुस्तक शीर्ष लघुकथा 'गुलाबी फूलों वाले कप' विवेचन योग्य एक प्यारी सी प्रौढ़ वय की यथार्थ के धरातल पर बुनी प्रेम कथा है। बढ़ती उम्र के साथ प्रेम और भी गहरा और प्रोढ़ हो जाता है। इसी तरह की एक और लघुकथा है 'दिनचर्या'। इसमें पति-पत्नी परस्पर छोटी से छोटी बात को बिना कहे समझ कर, छोटी-छोटी तकलीफों को छिटक कर, हंसकर जीवन बिताने में प्रयासरत हैं। संदेशपरक व वापस दिनचर्या में लौटने की सहज बिंबधर्मी लघुकथा है यह। लघुकथा में अनुभूति की तीव्रता देखते ही बनती है।
परिपक्व सोच दर्शाती एक बेहतरीन लघुकथा है 'नाइटी'। लघुकथा में मां प्रभा के मन की बात जानकर बेटी संकोच में पड़ी अपनी मां को अपनी पसंद को अपनाने का ग्रीन सिगनल नाइटी गिफ्ट करके देती है और अपनी मां को द्वंद से बाहर निकाल देती है। हमें पुरातन लीक से हटकर समय की चाल को समझ कर प्रगतिशील व आधुनिक विचारों को मानने से गुरेज नहीं करना चाहिए।
आर्थिक भागदौड़ में लगे अभिभावकों को सचेत करती लघुकथा है 'मिलन', जिसमें एकाकीपन और उपेक्षा के चलते बेटा नशे की गिरफ्त में आ जाता है। सामाजिक सरोकार की यह लघुकथा समाज को चिंतन बीज थमाती है।
'रिश्ता' डॉ. श्यामसुंदर दीप्ति की एक और बेहतरीन लघुकथा है, जिसमें निहाल सिंह ड्राइवर को अपने गांव के पास बस रोक देने के लिए जात का सहारा लेता है, फिर वीर बनके रोकने के लिए कहता है और अंत में जब वह कहता है कि आदमी ही आदमी के काम आता है, तब ड्राइवर बस रोक देता है। कंडक्टर के चिल्लाने पर ड्राइवर कहता है, " कोई नहीं, कोई नहीं, एक नया रिश्ता निकल आया था।" वास्तव में इंसानियत का रिश्ता ही सबसे अहम रिश्ता होता है।
'सफेद कमीज' लघुकथा में लघुकथाकार ने यह कहकर कि दाग रहित सफेद कमीज अफसर व नेता की पहचान होती है, सहज ही व्यंग्य का तीर चला दिया है।
डॉ श्याम सुंदर दीप्ति ने यथार्थ को गहरे में अनुभूत कर इस प्रकार लगभग सभी प्रचलित व विस्मृत विषयों पर अपनी कलम चलाई है। 'ताजा हवा' (किन्नरों पर), 'सहेली'( प्रकृति) वृद्धावस्था पर ' दीवारें' व 'अधर में लटके' आदि। सभी लघुकथाएं संवेदना की कसौटी पर खरी उतरती व मन को झिंझोड़ कर विचलन पैदा करने वाली हैं।
उन्होंने अपनी लघुकथाओं में संवादात्मक शैली के अतिरिक्त अन्य शैलियों का भी प्रयोग किया है जैसे आत्मकथात्मक शैली में 'प्रशंसा' डायरी शैली में 'खुशगवार मौसम'। कुछ लघुकथाओं में कथानक में समूचे परिवेश को लाने की जद में अनावश्यक विस्तार भी मालूम देता है जैसे 'धन्यवाद' लघुकथा में।
निष्कर्षत: डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति की लघुकथाओं में एक भिन्न शिल्प विन्यास देखने को मिलता है। इनकी लघुकथाएं वर्तमान समय का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये वैश्वीकरण युग की बदली हुई मानसिकता को यथार्थ के साथ अवगत करा कर सामाजिक ,आर्थिक व राजनीतिक विसंगतियों पर चोट करती हैं। अधिकतर लघुकथाओं में परिवेश व पंजाबी भाषा का समुचित प्रभाव है जो स्वाभाविकता का आग्रह है। डॉ श्याम सुंदर दीप्ति लघुकथा के रचना विधान व बारीकियों से न केवल भली-भांति परिचित हैं बल्कि नवागतों के लिए नई पगडंडी बनाते मालूम पड़ते हैं। अधिकतर लघुकथाओं के शीर्षक लघुकथा का ही हिस्सा मालूम पड़ते हैं और लघुकथा की अर्थवत्ता को बढ़ाते हैं। अंत में मैं उन्हें विविधता भरे 'गुलाबी फूलों वाले कप' लघुकथा-संग्रह के अस्तित्व में आने पर साधुवाद कहती हूं । मेरा ध्रुव विश्वास है यह संग्रह लघुकथा जगत में अवश्य चर्चित होगा।
शुभाकांक्षी
डॉ.शील कौशिक