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सोमवार, 16 दिसंबर 2019

साक्षात्कार : संदीप तोमर | द्वारा : डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


एक आदर्श अध्यापक और एक धर्म परायण माता के पुत्र पेशे से अध्यापक होने के साथ-साथ स्तरीय लेखक, समीक्षक, आलोचक और समालोचक श्री सन्दीप तोमर का जन्म 7 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के जिला मुज़फ्फरनगर के गंगधाड़ी नामक गाँव में हुआ था। 

चार भाई बहनों में सबसे छोटे सन्दीप तोमर विज्ञान विषय में स्नातक कर दिल्ली विश्वविद्यालय पढ़ने आ गए। बी.एड, एम.एड के बाद एम.एस सी. (गणित), एम.ए. (समाजशास्त्र व भूगोल) एम.फिल. (शिक्षा-शास्त्र) की शिक्षा ग्रहण की। यूं तो सातवीं कक्षा से ही सन्दीप जी का झुकाव लेखन के प्रति था, दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्ययन करते-करते यह रूचि विस्तृत हो गयी। आपने कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचना, नज़्म, ग़ज़ल के साथ साथ उपन्यास विधा में लेखन कर्म किया है। सन्दीप तोमर का पहला कविता संग्रह 'सच के आस पास' 2003 में प्रकाशित हुआ।उसके बाद एक कहानी सँग्रह 'टुकड़ा टुकड़ा परछाई' 2005 में आया, शिक्षा और समाज (लेखों का संकलन शोध-प्रबंध) का प्रकाशन वर्ष 2010 में हुआ। इसी बीच लघुकथा सँग्रह 'कामरेड संजय' 2011 में प्रकाशित हुआ। आपने 'महक अभी बाकी है' नाम से कविता संकलन का संपादन भी किया। 2017 में प्रकाशित 'थ्री गर्ल्सफ्रेंड्स' उपन्यास ने सन्दीप तोमर को चर्चित उपन्यासकार के रूप में स्थापित कर दिया। 2018 में आपकी आत्मकथा 'एक अपाहिज की डायरी' का विमोचन नेपाल की धरती पर हुआ। आप प्रारंभ, मुक्ति, प्रिय मित्र, अनवरत अविराम इत्यादि साझा संकलनों में बतौर कवि सम्मलित हो चुके हैं। सृजन व नई जंग त्रैमासिक पत्रिकाओं में बतौर सह-संपादक सहयोग करते रहे। फिलवक्त श्री तोमर की कई पुस्तकें प्रकाशन हेतु कतार में हैं, जिनमे 'समय पर दस्तक' और 'लिव इन रिलेशन' लघुकथा संग्रह, 'ये कैसा प्रायश्चित' तथा 'दीपशिखा' उपन्यास के साथ 'यंगर्स लव' कहानी संग्रह और 'परम ज्योति' कविता संग्रह प्रमुख हैं। 

हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा निबन्ध व कविता लेखन के लिए 'सच के आस पास' काव्य कृति के लिये 'तुलसी स्मृति सम्मान' काव्य लेखन के लिए 'युवा राष्ट्रीय प्रतिभा' सम्मान, साहित्यिक सांस्कृतिक कला संगम अकादमी द्वारा 'साहित्य श्री' सम्मान, अजय प्रकाशन रामनगर वर्धा (महा.) द्वारा 'साहित्य सृजन' सम्मान, मानव मैत्री मंच द्वारा काव्य लेखन के लिए सम्मान सहित कई बड़ी संस्थाओं द्वारा समय- समय पर आपको सम्मानित किया गया है। आप 2011-12 में स्कूल स्तर पर तत्कालीन विधायक के हाथों बेस्ट टीचर अवार्ड तथा 2012 में प्राइवेट और सरकारी अध्यापक संघ के तत्वाधान में तत्कालीन संसदीय मन्त्री हरीश रावत के कर कमलों से दिल्ली के बेस्ट टीचर के रूप में भी सम्मानित हो चुके हैं। आपको 'औरत की आज़ादी: कितनी हुई पूरी, कितनी रही अधूरी?' विषय पर अगस्त 2016 में आयोजित परिचर्चा संगोष्ठी में विशेष रूप से सम्मानित किया गया। भारतीय समता समाज की ओर से आपको समता अवार्ड 2017 से सम्मानित किया गया। साहित्य-संस्कृति मंच अटेली, महेंद्र गढ़ (हरियाणा) द्वारा साहित्य-गौरव सम्मान (2018), छठवा सोशल मिडिया मैत्री सम्मलेन में नेपाल की भूमि पर वरिष्ठ प्रतिभा के अंतर्गत साहित्य के क्षेत्र में सतत वा सराहनीय योगदान के लिए 'साहित्य सृजन' (2018), इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र एवम्‌ हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी द्वारा शिक्षक प्रकोष्ठ में सहभागिता प्रमाण पत्र दिया गया। पाथेय साहित्य कला अकादमी, जबलपुर/दिल्ली द्वारा सितम्बर 2018 में कथा गौरव सम्मान से नवाज़ा गया। साथ ही दिसंबर 2018 में ही नव सृजन साहित्य एवं संस्कृति न्यास, दिल्ली नामक संस्था द्वारा हिन्दी रत्न सम्मान दिया गया।सितम्बर 2019 में पत्रकार देवेन्द्र यादव मेमोरियल ट्रस्ट, दौसा एवम अभिनव सेवा संस्थान, दौसा द्वारा साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया गया। नवम्बर 2019 में अभिमंच द्वारा उपन्यास लेखन पर प्रेमचंद सम्मान-2019 से विभूषित किया गया है।

श्री तोमर ने इस साक्षात्कार में भी बेबाकी से ईमानदार उत्तर दिए हैं। आपके उत्तरों में लघुकथा विधा की उन्नति की कामनाएं सहज ही परिलक्षित हो रही हैं। इस प्रश्नोत्तरी में वरिष्ठ लघुकथाकारों को उद्धृत करने के साथ-साथ मध्यम स्थापित और नवोदित रचनाकारों यथा सुश्री शोभना श्याम, सुश्री सीमा सिंह, सुश्री मेघा राठी,श्री दिलीप कुमार, सुश्री पूजा अग्निहोत्री, सुश्री दिव्या शर्मा, श्री कुमार गौरव, श्री मृणाल आशुतोष, श्री हेमंत राणा, सुश्री अंतरा करवड़े, सुश्री अनघा जोगलेकर, सुश्री उपमा शर्मा आदि की प्रशंसा भी खुले मन से की है, जो कि उनके विस्तृत अध्ययन का परिचायक है। आइए पढ़ते हैं:


लघुकथा लेखक को प्रयोगधर्मी भी होना होगा और समाज को कुछ सन्देशप्रद लेखन देकर अपनी भूमिका का उचित निर्वाह भी करना होगा।

रुरी है कि नयी पीढ़ी खेमेबाजी से किनारा करे, और किसी एक वरिष्ठ पुरुष की बात को पकडकर न बैठे, साहित्य में कोई राम बाण या लक्ष्मण रेखा नहीं होती, अपनी राह खुद तलाशनी होती है...
(इसी साक्षात्कार से) - सन्दीप तोमर



चंद्रेश छतलानी :  सन्दीप जी,अपनी लघुकथा सृजन यात्रा के बारे में कुछ खुलकर बताइये।

सन्दीप तोमर: 1986 में सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था, तब ‘पेड़-पौधो’ और ‘भूत-प्रेतों’ को माध्यम बनाकर कहानीनुमा कुछ छोटी रचनाएँ लिखी थी जो अमर उजाला में प्रकाशित जरुर हुई थी लेकिन उन पर किसी सहपाठी का नाम प्रकाशित होता था, हालाकि उनमें लघुता थी और कथा भी अवश्य थी फिर भी मैं उन रचनाओं को लघुकथा नहीं कह सकता, अब वो सब विस्मृति का हिस्सा हैं, जिसे लेखन माना जाए उस फ्रेम में 2001 में लिखना शुरू हुआ, इस मायने में पहली प्रकाशित रचना “समझदार थी, जिसमें एक विद्यालय निरीक्षक और अध्यापक का संवाद है, इसे “कथा संसार” पत्रिका के 2003 के स्कूल विशेषांक अंक में स्थान मिला, उससे बाद तो लगातार देश के अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन होता रहा। 'कामरेड संजय' लघुकथा संग्रह भी आया था लेकिन प्रकाशक की कारगुजारियों के चलते उनकी कोई प्रति मेरे पास नहीं है।  वर्ष 2020 के आरम्भ में दो संग्रह क्रमशः 'समय पर दस्तक' और 'लिव इन रिलेशन' पाठकों के बीच होंगे।


चंद्रेश छतलानी:  क्या लघुकथा की कोई ऐसी विशेष शैली है, जो आपको बहुत प्रभावित करती हो?

सन्दीप तोमर: अधिकांश लोग विवरणात्मक शैली और आत्मकथायात्मक शैली को अधिक अपनाये हुए हैं, जिसे मैं लघुकथा के विस्तार में कुछ हद तक बाधक मानता हूँ, लघुकथा लेखक को अन्य शैलियों को भी अपनाना चाहिए। साहित्य की शैलियों में एक उपशैली है- ‘कामेडी’, जिसमें बहुत कम लघुकथाएं लिखी गयी हैं। लघुकथाओं में ‘डायरी शैली’ में भी लघुकथा लिखने का चलन अभी नहीं आया है। मुझे ये दोनों ही शैलियाँ अधिक प्रभावित और आकर्षित करती हैं।

लघुकथा में आत्मकथ्यात्मक शैली में रचनाकार कई बार कथा-सर्जन करता है, यह एक बहुत ही मुश्किल शैली है जिसमें रचनाकार जानकारी के अभाव में स्वयं को नायक के तौर पर प्रदर्शित करता है जबकि इस शैली में ऐसा नहीं करना होता, अधिकांश लेखक यहाँ चूक कर जाने के  कारण आत्म-विवेचना का शिकार हो जाते हैं। मोनोलॉग शैली (स्वयं से बात) में भी लघुकथा लिखते हुए रचनाकार वही गलती दोहरा देता है। कहा जा सकता है कि इसमें अक्सर लेखक पक्षपाती हो जाता है। यहीं से लेखन में लेखकीय प्रवेश होता है, लेखक को इससे बचना होगा,  कुछ रचनाकार तो इन दोनों में अंतर को भी नहीं समझते। आत्मकथ्यात्मक शैली या मोनोलोग को लेखक को बहुत अधिक आवश्यक होने पर ही अपनाया जाना चाहिए। लेखकीय प्रवेश न हो इसका भी प्रयास किया जाना चाहिए।


चंद्रेश छतलानी: क्या लघुकथा में नए मुहावरे गढ़े जा सकते हैं? किसी उदाहरण से समझाइये।

सन्दीप तोमर: चंद्रेश छतलानी जी, साहित्य नया कुछ गढ़ते रहने से ही समृद्ध होगा, यहाँ दो बातें हैं एक नया दूसरा मुहावरा, मेरी समझ से लघुकथा लेखन में दोनों की ही भरपूर सम्भावना है। अजय अमिताभ सुमन की एक लघुकथा है ”फटा हुआ ईमान” यह शीर्षक अपने आप में एक नया मुहावरा है, जिसे बहुत अधिक चिन्तन मनन के उत्पन्न किया गया हो ऐसा भी मुझे नहीं लगता, इसका जन्म रचना-प्रक्रिया के साथ ही हुआ लगता है।


चंद्रेश छतलानी: आजकल कई रचनाओं को इसलिए भी खारिज कर दिया जाता है क्योंकि वे तीन-चार (कम) पंक्तियों की होती हैं और उनसे कुछ अधिक पंक्तियों की रचनाओं की तरह स्पष्ट कथ्य का सम्प्रेषण नहीं कर पातीं। मेरा प्रश्न यह है कि रचना यदि कथ्य का संकेत तो दे रही है, लेकिन कथ्य स्पष्ट नहीं कहा गया, तब क्या उसे बदलना या खारिज कर देना चाहिए?


सन्दीप तोमर:चंद्रेश छतलानी जी पहली बात ये ही सही नहीं कि रचनाओं को इसलिए खारिज कर दिया जाएँ क्योंकि वे तीन-चार (कम) पंक्तियों की हैं, सवाल ये है कि ख़ारिज करने के मापदण्ड किसने बनाये? अभी कुछ समय पहले डॉ अशोक भाटिया जी का एक लेख काफी सुर्ख़ियों में रहा, मुद्दा था लघुकथा की शब्द सीमा को लेकर, उक्त के प्रतिउत्तर में अनिल शूर का ‘लघुवादी लघुकथा’ पर लेख आया और इस तरह पूरा लघुकथा जगत दो खेमो में बंट गया, एक खेमे में डॉ अशोक भाटिया के समर्थन में लोग थे तो दूसरे अनिल शूर के पक्षधर बने, हाँ कुछ मेरे और सुभाष नीरव जैसे लोग भी थे जिनका मानना था कि रचना अपनी शब्दसीमा खुद तय करती है, लघुकथा में शब्दों की कोई सीमा निर्धारित करना इसके साथ अत्यचार ही है। हमें ‘मंटो’ और ‘खलील जिब्रान’ की लघुकथाओ को नहीं भूलना चाहिए जो आकार में छोटी होकर भी मुकम्मल लघुकथाएं हैं। मैंने भी अतिलघु आकार की लघुकथाएं लिखी हैं। अब आते हैं आपके मूल प्रश्न पर- कथ्य का सम्प्रेषण पंक्तियों की संख्या पर नहीं रचना की बुनावट पर निर्भर करता है, आज कितनी ही लम्बे आकार की, यूँ कहो अधिक पंक्तियों की रचनाएँ भी कथ्य को उभार नहीं पाती कारण(?), इनकी बुनावट में कसावट नहीं होती, अत्यधिक शब्द खर्च करके भी वहाँ रचनाकार का हित सिद्ध नहीं होता। फिर किसी भी रचना में सुधार की गुन्जायिश हमेशा बनी रहती है, यदि कथ्य का संकेत मिल रहा है लेकिन कथ्य उभरकर नहीं आया तो रचनाकार उस पर पुनः काम करे, ख़ारिज करने का अधिकार भी अंततः रचनकार का ही है, आलोचक रचना पर अपनी राय प्रकट कर सकता है, आलोचक भी रचना के विश्लेषण का अंतिम अधिकारी नहीं, पाठक की राय सर्वोपरी है। फिर रचनाकार लिख किसके लिए रहा है ये भी महत्वपूर्ण है।


चंद्रेश छतलानी:  समकालीन लघुकथा में व्यंग्य किस हद तक ढाला जा सकता है?


सन्दीप तोमर: जब ये कहा जाता है कि लघुकथा का जन्म विसंगति से होता है तो यह भी महत्वपूर्ण है कि व्यंग्य का जन्म तो होता ही विसंगति से है। लघुकथा में शिल्प का महत्व अन्य विधाओ से कहीं अधिक है। समय-दर-समय शिल्पगत कसाव और विधागत संप्रेषणीयता से लघुकथा का महत्व उभरकर सामने आया है। संभवतः यही कारण था कि अपने-अपने समय के प्रबुद्ध रचनाकारों ने लघुकथा पर कलम चलाई और उन्होंने ‘व्यंग्य’ को शैली की तरह इस्तेमाल किया है, जिसे ‘व्यंग्यात्मक शैली’ कहा जाता है, मेरी समझ से लघुकथा में सीधे-सीधे व्यंग्य का प्रयोग विधागत न होकर इसे शैली के रूप में ही अपनाया जाए। अशोक भटिया, अशोक विश्नोई, भगवत दुबे, आभा पूर्वें, कमल चोपड़ा, कमलकांत सक्सेना, कालीचरण प्रेमी, किशोर श्रीवास्तव, चंद्रशेखर दुबे, जगदीशचन्द्र ठाकुर, हरनाम शर्मा. अनिल शूर जैसे कितने ही नाम हैं जिन्होंने व्यंग्यात्मक शैली को अपनाकर लघुकथाएं लिखी हैं। मैंने भी इस शैली को कई दफा अपनाया है। इन व्यंग्य लघुकथा लेखकों ने समाज में परिलक्षित विषमताओं, विद्रूपताओं तथा राजनीतिक व सामाजिक आडंबरों को निशाना बनाया है।

अशोक भाटिया की एक लघुकथा कम शब्दों यानि दो-तीन पंक्ति की लघुकथा है, 

अपनों की गुलामी-

सड़क के दोनों ओर खड़े गरीब लोगों के ठेले लाठियाँ मार-मारकर हटाए जा रहे थे। किसी को बंद किया जा रहा था। कारण ज्ञात हुआ, बात बस इतनी सी थी कि अगले दिन 15 अगस्त है—अर्थात् स्वतन्त्रता दिवस।

यह लघुकथा अपने आपमें एक स्वतंत्र व्यंग्य भी है और इसमें शिल्पगत अनुप्रयोग भी आप देख सकते हैं। यह विधा के मानको पर भी खरी उतरती है।

चंद्रेश छतलानी:  इन दिनों आप किस तरह की ऐसी लघुकथाएं पढ़/देख पा रहे हैं, जिन पर अंकुश लगना चाहिए?


सन्दीप तोमर: इस सवाल के जवाब से पहले मैं अधिकांश महिला रचनाकारो की मन:स्थिति पर आपका ध्यान ले जाना चाहूँगा, जब महिला साथियों ने लिखना शुरू किया या करती हैं उस समय उनके सामने नारी की सामाजिक स्थिति का फलक होता हैं जाहिर हैं कथानक भी उसी पृष्ठभूमि से आते हैं, शुरुआती लेखन तक ये सब ठीक है लेकिन कुछ अपवाद छोड़ दूँ तो अधिकांश उस पृष्ठभूमि से इतर अपनी दृष्टि को ले जाने में जाने कौन सा जोखिम  मानती हैं। शोभना श्याम, सीमा सिंह, मेघा राठी जैसी रचनाकार इस मिथ को तोडती हैं तो लघुकथा विधा की समृद्धि में उनका योगदान दर्ज होता है, जो व्यापक दृष्टि के साथ सृजन करेगा वो आगे तक जायेगा।


एक बात और है, लघुकथा विधा में जो मुझे इसके विकास में बाधक लगती है वह है विषय या चित्र देकर लिखवाना। रचना सार्थकता तभी पा सकती है जब वह अनुभव और अवलोकन का हिस्सा बने, इस तरह का लेखन तो सरासर कृत्रिमता है, जब तक लेखक स्वयं रचना से नहीं जुड़ेगा, उसका सामान्यीकरण नहीं करेगा तो पाठक रचना से अपना जुडाव कैसे महसूस करेगा, इसका तात्पर्य ये नहीं कि अपवाद से रचना का जन्म नहीं हो सकता, अपवाद से भी मुकम्मल रचनाओ का जन्म हुआ है / होता भी है लेकिन प्रतिशतता कम है। मेरे विचार से ये कृत्रिम लेखन बंद होना चाहिए। 


चंद्रेश छतलानी: समकालीन लघुकथाओं में जिस तरह के विषय उठाये जा रहे हैं, क्या उससे आप संतुष्ट हैं?


सन्दीप तोमर: दो टूक शब्दों में कहूँ तो एकदम संतुष्ट नहीं हूँ, विषयों में मुझे विविधता दिखाई नहीं देती और अलग विषय कुछ अलग होते भी हैं तो या तो रचनाकार का ट्रीटमेंट लचर होता है या अत्यधिक लिखने की चाह में दोहराव का शिकार हो जाते हैं। अभी कुछ लोगो ने पौराणिक पात्रों पर भी कुछ लघुकथाएं लिखी हैं लेकिन वहाँ भी पूर्ववर्ती लेखको को ही कॉपी किया गया है। बस थोड़ी अलग रचना दिखाने की चाह में फेरबदल अवश्य किया जाता है। जबकि होना ये चाहिए था कि नए पात्रों की रचना की जाती, या इतिहास के कुछ अनछुए पहलुओं को केंद्र में रखकर नया काम किया जाता। असल में लघुकथा लेखक शिल्पगत प्रयोग तो कर रहा है लेकिन ऐतिहासिक पात्रों की रचना करने या नूतन पौराणिक पात्रों की रचना करने में खुद को असमर्थ पाता है।


मेरी दृष्टि में अंचल विशेष यानि ‘आंचलिक पात्रों’ को आधार बनाकर भी बहुत कम लघुकथाओं की रचना हुई है, और ‘दिव्यांग व्यक्तियों’ की समस्याओं पर भी बहुत कम लिखा गया है। मुझे लगता है इन विषयों पर अधिक लिखे जाने की जरुरत है। ‘थर्ड जेंडर’ पर कुछ काम हुआ तो मन को अच्छा लगा, ऐसी ही और भी समस्याएँ हैं जिन पर लिखा जाना चहिये।


चंद्रेश छतलानी जी मुझे एक बात और महसूस होती हैं, अधिकांश रचनाकार पारिवारिक रिश्तो, परवरिश, ओल्ड ऐज होम की जरुरत इत्यादि समस्याओं पर भी लिख रहे हैं लेकिन इन विषयों पर बहुत नकारात्मक लिखा जा रहा है, आप लेखक से बात करें तो जवाब मिलता है कि यही यथार्थ है, मैं ऐसे लेखकों से पूछना चाहता हूँ क्या समस्याओं का रहस्योद्घाटन करना ही रचनाकार का एक मात्र उद्देश्य है? फिर रचनाकार उसमें कहाँ हैं, उसके दायित्व क्या हैं? होना ये चाहिये कि रचनाकार इन विषयों पर अपनी कलम से समाधान भी सुझाये या फिर ऐसा कुछ रचे जो नयी पीढ़ी के लिए प्रेरणास्पद हो। हाल ही में परिवार में बच्चो के दुर्व्यवहार के कारण माता-पिता को ओल्ड ऐज होम चले जाने या कमरा किराये पर लेने जैसी नसीहत की रचनाएँ पढ़कर मन खिन्न हुआ, मैंने सुभाष नीरव जी से वायदा किया कि इसके उलट लिखकर कोई संदेशपरक रचना दूँगा, तब “संस्कार” लघुकथा लिखी जिसे सतीश राठी जी ने ‘क्षितिज’ पत्रिका में स्थान दिया, तो लघुकथा लेखक को प्रयोगधर्मी भी होना होगा और समाज को कुछ सन्देशप्रद लेखन देकर अपनी भूमिका का उचित निर्वाह भी करना होगा।  




चंद्रेश छतलानी: आपके अनुसार लघुकथाओं का अपने पाठकों तक सम्प्रेषण हेतु निम्न तीनों में से बेहतरीन माध्यम क्या और क्यों है? प्रिंट, डिजिटल टेक्स्ट (सोशल मीडिया, ब्लॉग, वेबसाइट आदि पर) अथवा ऑडियो-वीडियो।


सन्दीप तोमर: साहित्य की चाहे कोई भी विधा हो, रचना अगर दमदार है तो वह अपना पाठक वर्ग खुद तलाश कर लेती है। निसंदेह प्रिंट मिडिया एक एतिहासिक दस्तावेज होता है, उसका अपना एक विस्तृत पाठक वर्ग है, अगर ऐसा नहीं होता तो लघुपत्रिकाओ की इतनी बाढ़ न आती। वर्तमान में डिजिटल टेक्स्ट ने भी अपना एक व्यापक पाठक वर्ग तैयार किया है लेकिन सोशल मिडिया की एक समस्या है - अधिकांश पाठक वही है जो या तो लेखक हैं या फिर लेखक बनने की होड़ में शामिल हैं। अगर इन दोनों माध्यमो की तुलना करूँ तो मैं प्रिंट मिडिया को अधिक महत्व दूँगा उसका कारण है इसका सर्वकालिक होना, जो एक बार प्रकाशित हुआ वह सर्वकालिक हुआ, जबकि डिजिटल के साथ समस्या है, इसकी अवधि बहुत लम्बी नहीं है, एक दिन या तो लेखक ही उससे उकता जाता है या फिर पाठक किनारा कर सकता है। इन दोनों से इतर जो तीसरे माध्यम की बात आपने की है, ऑडियो- वीडियों इसका प्रभाव छोटे फॉर्मेट की विधा में ज्यादा कारगर है। लघुकथा को यूट्यूब पर लाने में ‘ललित मिश्र’ ने शुरुआती काम किया, तदुपरांत मैंने “अफसाने साहित्य के” चैनल शुरू किया, उसके बाद सुना है रवि यादव ने भी इस क्षेत्र में कुछ काम किया है, अन्य चैनल भी होंगे लेकिन ये बाद के प्रयास हैं।

अगर दोटूक शब्दों में कहूँ तो तीनो का महत्व समय के हिसाब से हैं। अभी तो सही हो या गलत डिजिटल सबके सिर चढ़कर बोल रहा है।


चंद्रेश छतलानी : आपके अनुसार यदि पूर्व पीढ़ी से तुलना करें तो समकालीन लघुकथा के लिए लेखकों, समीक्षकों, प्रकाशकों और पाठकों की कौनसी प्रवृत्ति हितकारी है और कौनसी अहितकारी?


संदीप तोमर: चंद्रेश छतलानी जी मैं हमेशा से दो बातों का विरोध करता रहा हूँ , एक- खेमेबाजी, दूसरा सहयोग राशि से छपने वाले संकलन, ये दोनों ही लघुकथा जैसी सशक्त और आधुनिक विधा के विकास में बाधक होती हैं। इनसे गुणात्मकता में तो बेतहासा वृद्धि हुई है लेकिन इससे गुणात्मकता अधिक प्रभावित है, हमें गुणात्मकता पर अधिक ध्यान देना चाहिए। अच्छा ये है कि इसी भीड़ से कुछ क्रीम भी निकल कर आ रही है, दिलीप कुमार, पूजा अग्निहोत्री, दिव्या शर्मा, कुमार गौरव, मृणाल आशुतोष, हेमंत राणा, अंतरा करवड़े, अनघा जोगलेकर, उपमा शर्मा, इसी भीड़ से निकलकर आये हैं, और समुचित योगदान दे रहे हैं। बस अपनी लय को बनाये रखने की जरुरत है।


चंद्रेश छतलानी:  उचित अध्ययन तो हर लघुकथाकार को करना ही चाहिए, अच्छी पुस्तकें भी पढ़नी चाहिए। इस बात के अतिरिक्त नए लघुकथाकारों के लिए कोई सन्देश देना चाहेंगे?


सन्दीप तोमर: देखिये, एक समय तक पढना विधा के अंगोपांग को समझने के लिए जरुरी है, उसके बाद पढना भी बहुत मायने रखता हो ऐसा मुझे नहीं लगता, हाँ, अगर आप एक अच्छे पाठक हैं तो ये अच्छी बात है, कई बार देखने में आता है कि अधिक पढने से खुद का लेखन भी प्रभावित होने लगता है, कुछ नवरचनाकार किसी लेखक से इतने प्रभावित होते हैं कि उनकी शैली को ही अपनाने लगते हैं।


जरुरी है कि नयी पीढ़ी खेमेबाजी से किनारा करे, और किसी एक वरिष्ठ पुरुष की बात को पकडकर न बैठे, साहित्य में कोई राम बाण या लक्ष्मण रेखा नहीं होती, अपनी राह खुद तलाशनी होती है, अपनी बात कुछ यूँ कहकर समाप्त करूँगा –

हे अहिल्या-
खुद की राह बना
यहाँ उद्धार करने
राम न आएंगे।

रविवार, 15 दिसंबर 2019

लघुकथा वीडियो : लाजवन्ती | लेखन: सुभाष नीरव | स्वर: अंजू खरबंदा

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुभाष नीरव के विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर लघुकथाकारा अंजू खरबंदा जी द्वारा उनकी लघुकथा का वाचन 



शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

पूर्ण ईबुक | 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' | लेखक: मधुदीप


वरिष्ठ लघुकथाकार श्री मधुदीप गुप्ता  ने अपने लघुकथा संग्रह 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' को सहर्ष ही 'लघुकथा दुनिया' को प्रदान करते हुए इसे प्रकाशित करने की अनुमति दी है। यह महत्वपूर्ण संग्रह न केवल नवोदितों के लिए लाभदायक और अवश्य पढ़ने योग्य है बल्कि वरिष्ठ लघुकथाकारों द्वारा सराही गयी लघुकथाएं इसमें निहित है। आइये पढ़ते हैं इस संग्रह की लघुकथाएं :



इस संग्रह की लघुकथाएं कई भाषाओं में अनुवाद भी हो रही हैं। ब्रजभाषा में इसका अनुवाद श्री रजनीश दीक्षित ने किया है। यह अनुवाद भी 'लघुकथा दुनिया' पर निम्न लिंक पर  उपलब्ध है:

'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' का ब्रजभाषा में अनुवाद | लेखक: मधुदीप गुप्ता | अनुवादक: रजनीश दीक्षित


गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

'उंगलियों पर ज़िंदा मछली' लघुकथा संग्रह | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


मेरा एक एकल लघुकथा संग्रह 'उंगलियों पर ज़िंदा मछली' शीर्षक से अमेज़न किंडल पर प्रकाशित हुआ है।  इस पुस्तक में मेरी ऐसी लघुकथाएं शामिल करने का प्रयास किया हैं, जो पाठक के दिमाग में वैसा ही विचलन कर पाएं, जैसे किसी ज़िंदा मछली को उँगलियों पर रखने पर होता है। 

यह निम्न लिंक पर उपलब्ध है:

Amazon ASIN: B082LNDM3D

किंडल अनलिमिटेड पर फ्री 
अन्य हेतु कीमत: रुपये 49/- मात्र 


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डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

बुधवार, 11 दिसंबर 2019

'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' का ब्रजभाषा में अनुवाद | लेखक: मधुदीप गुप्ता | अनुवादक: रजनीश दीक्षित

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री मधुदीप गुप्ता  के लघुकथा संग्रह मेरी चुनिंदा लघुकथाएं का श्री रजनीश दीक्षित द्वारा ब्रजभाषा में अनुवाद किया गया है। इस महत्वपूर्ण कार्य का दस्तावेज निम्न है :

Hello

मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा की एक लघुकथा और उसका अंग्रेजी अनुवाद

फोटो सेसन / मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

सांसद साहब सुबह-सुबह पूरे दलबल के साथ शहर की मुख्य सड़क पर आ चुके थे। उनके आते ही सड़क पर सरकारी गार्डन का कूड़ा करकट बिखेरा गया। सांसद जी ने एक लम्बा सा झाडू चलाना प्रारम्भ किया तो उनके देखा-देखी उनके चेले चपाटों ने भी स्वच्छता अभियान में चार चाँद लगा दिये।

तभी पीछे से आवाज आई - ‘हो गया सर हो गया’... और कैमरे शांत हो गये।

सांसद जी ने अपने निजी सहायक को कुछ इशारा किया और चमचमाती विदेशी कार से फुर्र हो गये।

और इस फोटो सेसन में सहभागी सभी मीडिया कर्मी अपना-अपना लिफाफा लेकर न्यूज रुम, प्रिंट रुम की तरफ दौड़ पड़े।
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ग्राम रिहावली, डाक तारौली, 
फतेहाबाद, आगरा, 283111,उ.प्र.

अंग्रेजी अनुवाद (English Translation)

Photo Session / Mukesh Kumar Rishi Verma
Translation By: Dr. Chandresh Kumar Chhatlani

In the early morning, MP sahab had arrived at the main road of the city with gathering of people. As soon as he arrived, the garbage of the Government Garden is scattered on that road. The MP Saheb started sweeping with a long broom. After seeing this, his disciples have also put four moons in the cleanliness campaign.

Then a voice came from behind - 'Done Sir, it is done.' ... and all the cameras went quiet.

The MP Saheb made a few gestures to his personal secretary and gone in the gleaming foreign car.

And all the media workers participating in this photo session took their envelopes and ran towards the news desk room, print room.
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- 3 PA 46, Prabhat Nagar
Sector-5, Hiran Magari
UDAIPUR - 313 002