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मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

मेरी तीन लघुकथाएं - विचार वीथी में | संपादक सुरेश सर्वेद





तीन संकल्प / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वो दौड़ते हुए पहुँचता,उससे पहले ही उसके परिवार के एक सदस्य के सामने उसकी वो ही तलवार आ गयी, जिसे हाथ में लेते ही उसने पहला संकल्प तोड़ा था कि वो कभी किसी की भी बुराई नहीं सुनेगा। वो पीछे से चिल्लाया - रुक जाओ, तुम्हें तो दूसरे धर्मों के लोगों को मारना है। लेकिन तलवार के कान कहाँ होते हैं। उसने उसके परिवार के उस सदस्य की गर्दन काट दी।

वो फिर दूसरी तरफ  दौड़ा। वहाँ भी उससे पहले उसी की एक बन्दूक पहुँच गयी थी। जिसे हाथ में लेकर उसने दूसरा संकल्प तोड़ा था कि वो कभी भी बुराई की तरफ  नहीं देखेगा। बन्दूक के सामने आकर उसने कहा - मेरी बात मानो, देखो मैं तुम्हारा मालिक हूँ ... लेकिन बन्दूक को कुछ कहाँ दिखाई देता है, और उसने उसके परिवार के दूसरे सदस्य के ऊपर गोलियां दाग दीं।

वो फिर तीसरी दिशा में दौड़ा, लेकिन उसी का आग उगलने वाला वही हथियार पहले से पहुँच चुका था, जिसके आने पर उसने अपना तीसरा संकल्प तोड़ा था कि वो कभी किसी को बुरा नहीं कहेगा। वो कुछ कहता उससे पहले ही हथियार चला और उसने उसके परिवार के तीसरे सदस्य को जला दिया।

और वो स्वयं चौथी दिशा में गिर पड़ा। उसने गिरे हुए ही देखा कि एक बूढ़ा आदमी दूर से धीरे - धीरे लाठी के सहारे चलता हुआ आ रहा था। गोल चश्मा पहने, बिना बालों का वो कृशकाय बूढ़ा उसका वही गुरु था, जिसने उसे मुक्ति दिला कर ये तीनों संकल्प दिलाये थे।

उस गुरु के साथ तीन वानर थे, जिन्हें देखते ही सारे हथियार लुप्त हो गये।
और उसने देखा कि उसके गुरु उसे आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं और उनकी लाठी में उसी का चेहरा झाँक रहा है। उसके मुंह से बरबस निकल गया ’हे राम’।

कहते ही वो नींद से जाग गया।
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सोयी हुई सृष्टि / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उसने स्वप्न में स्वयं को सोये हुए देखा। उसके आसपास और भी कई लोग सो रहे थे। दायरा बढ़ता गया और उसने देखा कि उसके साथ हज़ारों या लाखों नहीं बल्कि करोड़ों से भी ज़्यादा लोग सो रहे हैं।

उन सोये हुओं में से एक व्यक्ति की आँखें खुलीं। उस व्यक्ति ने देखा कि खादी के कपड़े पहने कुछ लोग खड़े हुए हैं और अपने मुंह से आवाज़ और विषैला धुआं निकाल रहे हैं। आवाज़ से सोये हुओं के चेहरों पर विभिन्न मुद्राएँ बन रहीं थीं और धुएँ से सभी को नींद आ रही थी। वह व्यक्ति चिल्लाया - जागो, तुम्हें विषैले धुएं द्वारा सुलाया जा रहा है।

जहाँ तक वह आवाज़ जा सकती थी, वहां तक सभी सोने वालों के कानों में गयी और उनके चेहरों की भाव - भंगिमाएं बदलीं। उनमें से कुछ जाग भी गए और उस व्यक्ति के साथ खड़े हो गए। अपनी आवाज़ की शक्ति देख उस व्यक्ति ने पहले से खड़े व्यक्तियों में से एक के कपड़े छीन कर स्वयं पहन लिए और दूर खड़ा हो गया।

लेकिन पोशाक पहनते ही उसका स्वर बदल गया और उसके मुंह से भी विषैला धुआं निकलने लगा। जिससे उसके साथ जो लोग जागे थे, वे भी सो गए। उस व्यक्ति की पोशाक में कुछ सिक्के रखे थे जो लगातार खनक रहे थे।

और उसी समय उसका स्वप्न टूट गया। उसे जैसे ही महसूस आया कि वह भी जागा हुआ है। वह घबराया और उठकर तेज़ी से एक अलमारी के पास गया। उसमें से अपने परिचय पत्र को निकाला और उसमें अपने पिता का नाम पढ़ कर राहत की सांस ली।
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गुलाम अधिनायक / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उसके हाथ में एक किताब थी। जिसका शीर्षक ’ संविधान’ था और उसके पहले पन्ने पर लिखा था कि वह इस राज्य का राजा है। यह पढ़ने के बावजूद भी वह सालों से चुपचाप चल रहा था। उस पूरे राज्य में बहुत सारे स्वयं को राजा मानने वाले व्यक्ति भी चुपचाप चल रहे थे। किसी पुराने वीर राजा की तरह। उन सभी की पीठ पर एक - एक बेताल लदा हुआ था। उस बेताल को उस राज्य के सिंहासन पर बैठने वाले सेवकों ने लादा था। ’ आश्वासन’  नाम के उस बेताल के कारण ही वे सभी चुप रहते।

वह बेताल वक्त - बेवक्त सभी से कहता था कि - तुम लोगों को किसी बात की कमी नहीं होगी। तुम धनवान बनोगे। तुम्हें जिसने आज़ाद करवाया है वह कहता था - कभी बुरा मत कहो। इसी बात को याद रखो। यदि तुम कुछ बुरा कहोगे तो मैं, तुम्हारा स्वर्णिम भविष्य, उड़ कर चला जाऊँगा।

बेतालों के इस शोर के बीच जिज्ञासावश उसने पहली बार हाथ में पकड़ी किताब का दूसरा पन्ना पढ़ा। उसमें लिखा था - तुम्हें कहने का अधिकार है। यह पढ़ते ही उसने आँखें तरेर कर पीछे लटके बेताल को देखा। उसकी आँखों को देखते ही आश्वासन का वह बेताल उड़ गया। उसी समय पता नहीं कहाँ से एक खाकी वर्दीधारी बाज आया और चोंच चबाते हुए उससे बोला - ’ साधारण व्यक्ति’ तुम क्या समझते हो कि इस युग में कोई बेताल तुम्हारे बोलने का इंतज़ार करेगा?

और बाज उसके मुंह में घुस कर उसके कंठ को काट कर खा गया। फिर एक डकार ले राष्ट्रसेवकों के राजसिंहासन की तरफ  उड़ गया।
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हिरण मगरी, उदयपुर ( राजस्थान) 313 002
मोबाईल : 9928544749
ईमेल- chandresh.chhatlani@gmail.com

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सोमवार, 2 दिसंबर 2019

लघुकथा वीडियो: टाई | लेखक हरि मृदुल | वाचन: लोकेश गुप्ता

जीवन यापन करने के लिए समझौतों के झंझावातों से गुजरते हुए एक व्यक्ति की मानसिकता को बहुत अच्छे तरीके से दर्शाती लघुकथा 'टाई' को श्री लोकेश गुप्ता के गंभीर और गहरे स्वर के वाचन ने जीवंत कर दिया है। आइये सुनते हैं।


शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

रिपोर्ट: क्षितिज अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन 2019,इंदौर | सतीश राठी

कोई भी कला संयम और समय के साथ ही विकसित होती है--- सुकेश साहनी


‘क्षितिज’ संस्था,इंदौर द्वारा द्वितीय ‘अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन 2019’ का आयोजन दिनांक 24 नवम्बर 2019, रविवार को श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति, इन्दौर में किया गया। यह कार्यक्रम चार विभिन्न सत्रों में आयोजित हुआ। प्रथम उद्घाटन, लोकार्पण एवम सम्मान सत्र रहा। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार, कला मर्मज्ञ श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने की। मंच पर क्षितिज साहित्य संस्था के अध्यक्ष श्री सतीश राठी, श्री सूर्यकांत नागर, श्री सुकेश साहनी, श्री श्याम सुंदर अग्रवाल, श्री माधव नागदा एवमश्री कुणाल शर्मा उपस्थित थे। 

संस्था परिचय एवं अतिथियों के लिए स्वागत भाषण श्री सतीश राठी ने दिया। लघुकथा विधा को लेकर वर्ष 1983 से संस्था द्वारा किए गए कार्यों की उन्होंने जानकारी दी एवं संस्था के विभिन्न प्रकाशनों पर जानकारी देते हुए लघुकथा विधा के पिछले 35 वर्ष के इतिहास पर एक दृष्टि डाली। उन्होंने संस्था के इतिहास व कार्यों से सभी को परिचित करवाया। अतिथियों का परिचय देते हुए लघुकथा विधा के लिए उनके द्वारा किए गए कार्यों की जानकारी प्रस्तुत की तथा लघुकथा विधा के लिए दिए जाने वाले सम्मानो की चयन प्रक्रिया वहां पर प्रस्तुत की।

इस सत्र में सत्र अध्यक्ष श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय को कला साहित्य सृजन सम्मान 2019, श्री सुकेश साहनी को क्षितिज लघुकथा शिखर सम्मान 2019, श्री श्याम सुंदर अग्रवाल को क्षितिज लघुकथा सेतु शिखर सम्मान 2019, श्री माधव नागदा को क्षितिज लघुकथा समालोचना सम्मान 2019, श्री कुणाल शर्मा को क्षितिज लघुकथा नवलेखन सम्मान 2019 एवं श्री हीरालाल नागर को, लघुकथा शिखर सम्मान 2019 से सम्मानित किया गया। इस सत्र में पुस्तकों का विमोचन भी किया गया। 

क्षितिज पत्रिका के सार्थक लघुकथा अंक का विमोचन सर्वप्रथम हुआ। पुस्तक सार्थक लघुकथाएँ, इंदौर के 10 लघुकथा कारों के लघुकथा संकलन शिखर पर बैठ कर श्री सुकेश साहनी के लघुकथा संग्रह सायबर मैन, श्री भागीरथ परिहार की पुस्तक कथा शिल्पी सुकेश साहनी की सृजन चेतना, ज्योति जैन के लघुकथा संग्रह जलतरंग का अंग्रेजी अनुवाद, डॉ अश्विनी कुमार दुबे के गजल संग्रह कुछ अशहार हमारे भी, श्री चरण सिंह अमी की पुस्तक हिंदी सिनेमा के अग्रज, श्री बृजेश कानूनगो की दो पुस्तके रात नौ बजे का इंद्रधनुष व अनुगमन का विमोचन इस कार्यक्रम के लोकार्पण सत्र में हुआ। उद्घाटन के पश्चात इस तरह कुल 11 पुस्तकों का विमोचन हुआ।

अतिथियों का स्वागत पुरुषोत्तम दुबे, अरविंद ओझा, सतीश राठी, अश्विनी कुमार दुबे, योगेन्द्र नाथ शुक्ल, आशा गंगा शिरढोनकर एवं प्रदीप नवीन ने किया। प्रथम सत्र का संचालन अंतरा करबड़े ने किया। मां सरस्वती के पूजन एवं दीप प्रज्वलन के वक्त सरस्वती वंदना विनीता शर्मा ने प्रस्तुत की।

व्याख्यान सत्र में कुणाल शर्मा ने लघुकथा के आधुनिक स्वरूप पर बात की। श्री माधव नागदा ने शैक्षणिक पाठ्यक्रम में लघुकथा की उपादेयता विषय पर अपने विचार रखे। किशोर और युवा को लघुकथा पाठ्यक्रम में शामिल करवा कर ही साहित्य से परिचित करवाया जा सकता है, उससे उनमें साहित्यिक अभिरुचि का विकास होता है। इतिहास भले ही पुराना हो किंतु यह एक नई विधा है। विधार्थी इससे अंजान हैं इसलिए यदि विधिवत पाठ्यक्रम के द्वारा उन्हें विधा से परिचित करवाया जाए तो आगे शोध के रास्ते खुलते हैं।पंचतंत्र भी लघुकथा का ही रूप है, बुद्ध महावीर भी लघुकथा के माध्यम से अपनी बात कहते थे। समय का अभाव व भाव की तीव्रता के कारण यह विधा अधिक ग्राहय है।

हिंदी और पंजाबी भाषा में समान रूप से लघुकथा लिख रहे श्री जगदीश कुलारिया सम्मेलन में एक सत्र में अतिथि के रूप में मंच पर विराजमान रहे।

कहानी उपन्यास की तरह यह भी सभी विषयों पर अपनी उपयोगिता सिद्ध करेगी।

सुकेश साहनी ने अपने भाषण में लघुकथा के विचार पक्ष एवम विभिन्न विषयों पर रची जा रही लघुकथाओं के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि, लघुकथा विषय पर अपने विचार लेखक को व्यक्त करते हुए विषय के साथ न्याय करना प्राथमिकता में होना चाहिए। घटना व विषय विविध हैं। लिखते वक़्त समय देते हुए लिखा जाए। कोई भी कला संयम और समय के साथ विकसित होती है इसलिए किसी भी विषय के साथ समय देकर ही न्याय किया जा सकता है।विचार वह धुरी है जिस पर कल्पना घुमती है। सीप में मोती बनने वाली प्रक्रिया की तरह लघुकथा का सृजन हो सकता है लेकिन शीघ्र मोती पाने के चक्कर में लघुकथा को नोच कर नहीं परोसा जा सकता उसका पूरी तरह से परिपक्व होना जरूरी है।

श्री श्याम सुंदर अग्रवाल ने अपने वक्तव्य में कहा कि पंजाबी लघुकथा से आगे अब हिंदी लघुकथा विकास की बात हो। इंदौर शहर के योगदान को याद करते हुए उन्होंने विविध भाषाओं में लिखने वाली लघुकथा के विकास की बात की। निरंतरता सबसे बड़ा गुण है वह सफलता की और ले जाती है। लघुकथा में भी यह बात उल्लेखनीय है कि तमाम आलोचना के बाद भी लेखकों ने लिखना जारी रखा और आज लघुकथा एक विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है। पंजाबी भाषा एवं हिंदी भाषा के आपसी जुड़ाव की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि क्षितिज पत्रिका ने कभी पंजाबी लघुकथाओं पर भी अंक निकाला और मिनी पत्रिका में भी हिंदी के लघुकथाकारों की लघुकथाओं के अनुवाद प्रकाशित किए गए।

विशेष योगदान हेतु, सर्वश्री उमेश नीमा, चरण सिंह अमी, नई दुनिया के अनिल त्रिवेदी, पत्रिका अखबार की संपादक क रुखसाना, दैनिक भास्कर के श्री रविंद्र व्यास श्री प्रदीप नवीन आदि को सम्मानित किया गया। कला सहयोग के लिए वरिष्ठ कलाकार श्री संदीप राशिनकर को भी सम्मानित किया गया।

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने अपने वक्तव्य में कहा कि, साहित्य का यात्री सृजन से एकाकर हो जाता है। जो बुद्धि न समझ सके वह चमत्कार कहा जाता है, लघुकथा भी एक सहज चमत्कार है, कहने को लघु किंतु प्रभाव में विराट है। यह विधा, वामन के विराट पग की तरह अपने प्रभाव क्षेत्र में व्यापक रूप से लोकप्रिय है। एक स्वतंत्र विधा के रूप में इसका बड़ा सम्मान है।

लघुकथा की यात्रा की तुलना उन्होंने गंगा की यात्रा से कर कहा कि, अब यह संगम की तरह महत्वपूर्ण हो गई है। संस्कृत आख्यायिका यह नहीं है, उपन्यास का साररूप भी यह नहीं है। लघुकथा भिन्न विधा है एडगर एलान पो अंग्रेजी में इसे पुरोधा रहे। लघुकथा संवेदना का सार रूप है जिसकी तेजस्विता अपूर्व है। प्राचीन ग्रंथों में हर जगह यह विधा भिन्न-भिन्न स्वरूप में उपस्थित रही है।सार्थक संदेश, विसंगति पर चोट व व्यंग्य भी लघुकथा के तत्व माने जाते हैं।

विधाओं के अंतर अवगमन पर उन्होंने कहा विधाओं का आपस में संवाद होना आवश्यक है, अधिक से अधिक अध्ययन यह विवाद समाप्त किया जा सकता है।

श्री नरेंद्र जैन, श्री राजेंद्र मूंदड़ा, श्री नितिन पंजाबी, को भी सम्मानित किया गया। इस सत्र का आभार प्रदर्शन पुरुषोत्तम दुबे ने किया।

कार्यक्रम का द्वितीय सत्र लघुकथा पाठ का था जिसमें 35 से अधिक लघुकथाकारों ने अपनी प्रतिनिधि रचनाओं का पाठ किया। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ लघुकथाकार श्री भागीरथ परिहार ने की। मंच पर अतिथि थे सर्वश्री योगेन्द्र नाथ शुक्ल, पवन जैन, संतोष सुपेकर।

श्रीमती जया आर्य, सुषमा दुबे, सुषमा व्यास, पुष्परानी गर्ग, स्नेहलता, कोमल वाधवानी प्रेरणा, राम मुरत राही, कपिल शास्त्री, दीपा व्यास, आदि ने लघुकथा पाठ किया।

अपने उद्बोधन में श्री योगेंद्रनाथ शुक्ल, श्री पवन जैन, श्री भागीरथ परिहार ने पढ़ी गई लघुकथाओं के कथ्य शिल्प की समीक्षा की। इस सत्र का संचालन निधि जैन ने किया।

तृतीय सत्र नारी अस्मिता व लघुकथा लेखन पर मूल रूप से केंद्रित था। मुख्य अतिथि श्री सूर्यकांत नागर थे। सत्र अध्यक्षता श्री बलराम अग्रवाल ने की। डॉ पुरुषोत्तम दुबे, हीरालाल नागर, ज्योति जैन व वसुधा गाडगिल सत्र में अतिथि के रूप में मौजूद थे। इस सत्र का संचालन श्रीमती सीमा व्यास एवं वत्सला त्रिवेदी ने किया।

श्री सूर्यकांत नागर ने स्त्री पुरुष की संवेदना में भेद बताते हुए स्त्री विमर्श को आवश्यकता पर बल दिया।

श्री बलराम अग्रवाल ने कहा - साहस के साथ स्त्री अस्मिता व अधिकार की बात करने के लिए लेखन से बेहतर कोई माध्यम नहीं है, वेदो से लेकर अब तक स्त्री के विमर्श में गिरावट आई है और अब धीरे-धीरे स्थितियाँ बदली है, भारतीय साहित्य भाषा की मर्यादा के साथ आधुनिक विषय को विस्तार द्वारा सकते हैं।

श्री हीरालाल नागर ने अपने वक्तव्य में स्त्री विर्मश में लघुकथा की उपयोगिता व उसकी यात्रा पर प्रकाश डाला। डॉ पुरुषोत्तम दुबे ने लघुकथा के कालखंड व शिल्प पर चर्चा की। ज्योति जैन ने स्त्री अस्मिता पर कुछ लघुकथाओं के माध्यम से अपनी बात प्रभावी ढंग से प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि स्त्री और पुरुष की तुलना नहीं की जा सकती।

वसुधा गाडगिल ने अपने वक्तव्य में स्त्री के विविध स्वरूप पर लिखे जाने वाले साहित्य पर प्रकाश डाला। नवीन प्रतिमान नवीन विचार आज की आवश्यकता है।

आखिरी महत्वपूर्ण सत्र प्रश्न उत्तर सत्र व मुक्त संवाद व परिचर्चा का था जिसमें लघुकथा विधा से जुड़ी विभिन्न जिज्ञासा, दुविधा उसके कथा शिल्प व प्रभाव पर चर्चा हुई। सत्र की अध्यक्षता श्रीमध्यभारत हिंदी साहित्य समिति के श्री राकेश शर्मा, संपादक वीणा पत्रिका ने की। मंच पर विभिन्न प्रश्नों का जवाब देने के लिए देश भर में लघुकथा की अलख जगाने के लिए निरंतर सक्रिय श्री सुकेश साहनी, श्री बलराम अग्रवाल, श्री श्याम सुंदर अग्रवाल व श्री ब्रजेश कानूनगो ने विभिन्न प्रश्नों का उचित समाधान करते हुए जवाब दिये। 

लघुकथा में शब्द सीमा क्या हो? लघुकथा व अंग्रेजी की शॉर्ट स्टोरी में क्या भेद है? लघुकथा में संवाद की भूमिका कितनी है? एक चरित्र पर आधारित लघुकथा को मान्य किया जायेगा? लघुकथा व कथा में क्या भेद है? लघुकथा के मापदंड क्या हैं? लघुकथा में व्यंग्य की भूमिका पर प्रश्न क्यों उठाये जाते हैं? लघुकथा में कथ्य का विकास कैसा हो? जैसे और कई प्रश्नों के जवाब देकर नव लेखकों, शोधर्थियों की जिज्ञासाओं का समाधान किया गया। सत्र का संचालन डॉ गरिमा संजय दुबे ने किया।

समूचे आयोजन के संदर्भ में, आयोजन में पधारे अतिथियों का उपस्थित लघुकथाकारों का एवं स्थानीय अतिथियों का, क्षितिज संस्था के सचिव श्री अशोक शर्मा भारती ने आभार व्यक्त किया।

इस आयोजन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि लघुकथा की रचना प्रक्रिया एवं विभिन्न विषयों पर लिखी जाने वाली लघुकथा पर चर्चा करने के साथ-साथ सार्थक लघुकथा पर चर्चा विशेष रुप से की गई। क्षितिज संस्था का प्रथम सम्मेलन लघुकथा की सजगता पर केंद्रित था और यह द्वितीय सम्मेलन लघुकथा की सार्थकता पर केंद्रित था।

श्री सतीश राठी 





गुरुवार, 28 नवंबर 2019

आदर्श और यथार्थ के पलड़े में लघुकथा

शिक्षाविद एवं लघुकथा चिंतक डॉ. लता अग्रवाल से विख्यात कथाकार सन्दीप तोमर की खास बातचीत



डॉ. लता अग्रवाल, वर्तमान में एक जाना-माना नाम है, वे किसी परिचय की मोहताज नहीं है, विविध विषयों को लेकर उनका चिंतन परख लेखन हमारे सम्मुख है । लता जी ने शिक्षा एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं पर लगभग सभी वर्गों पर मूल्य परख लेखन समाज को दिया है, यही कारण है कि पाठक समाज में उनका एक विशिष्ट स्थान है । लघुकथा की बात करें तो वे काफी पहले से लघुकथा से जुड़ी हैं, उनके लघुकथा लेखन में भले ही बीच में ठहराव आया हो मगर चेतना में लघुकथा सदा रहीं हैं । एकल विषयों को लेकर संग्रह रचना उनकी विशेषता रही है, चाहे कविता हो, कहानी हो, बाल साहित्य हो या फिर लघुकथा । नारी विमर्श , बाल मनोविज्ञान, पौराणिक सन्दर्भ, किन्नर समाज आदि विषयों पर उनका एकल लघुकथा लेखन रहा है। इसके साथ ही नव लेखक समाज को लघुकथा के सही स्वरूप से अवगत करने हेतु वरिष्ठजनों से साक्षात्कार को लेकर (लघुकथा का अन्तरंग) आपका अभूतपूर्व कार्य हुआ है ।

वरिष्ठ कथाकार सन्दीप तोमर ने डॉ. लता अग्रवाल से लघुकथा पर चर्चा की और कुछ प्रश्न जो उनके मानस में हलचल किये हुए थे लताजी से किये। पाठको के लिए प्रस्तुत हैं, बातचीत के अंश।


डॉ. लता अग्रवाल – सन्दीप जी ! अब तक मैंने लघुकथा को लेकर कई साक्षात्कार किये हैं, अब साक्षात्कार देने का अनुभव कर रही हूँ ।



सन्दीप तोमर – चलिए पहला प्रश्न यहीं से लेता हूँ, आपने लगभग २० लघुकथाकारों से केवल लघुकथा को लेकर अलग-अलग प्रश्न किये, मेरे ख्याल से ४५० से ऊपर प्रश्न होंगे, वाकई अद्भुत है ...कैसे कर पाई आप यह?

डॉ. लता अग्रवाल – आपने ठीक कहा, लघुकथा को लेकर लगभग २० साक्षात्कार वह भी सबसे अलग-अलग प्रश्न करना यह चुनौती मैंने स्वयं अपने लिए ली। मुझे अच्छा लगता है खुद को चुनौती देना... इससे आप अपनी क्षमता को पहचान पाते हैं। यह कार्य मेरे लिए बहुत रोमांचक रहा। चलते-फिरते लघुकथा आँखों के आगे नाचती, कोई लघुकथा पढ़ती तो उसे उलट-पलटकर उसके बारे में सोचती और प्रश्न बनाती।

सन्दीप तोमर – आपको क्यों लगा कि आपको इस चुनौती को लेने की आवश्यकता है?

डॉ. लता अग्रवाल – बहुत अच्छा सवाल है संदीप जी, इसकी शुरुआत किसी पूर्व योजना के तहत नहीं हुई, बस यहाँ देखा कि लघुकथा को लेकर बहुत घालमेल हो रहा है। लेखकों में समझ का अभाव है, उन्हें सही मार्गदर्शन नहीं मिल रहा। ऐसे में अगर मैं कहती हूँ कि यह उचित नहीं है तो बात किसी को समझ नहीं आएगी, कारण-मैं कोई मठाधीश नहीं या अपने पर कोई विशिष्टता का लेबल लगाकर नहीं चलती। हमारे देश को आदत है कोई वरिष्ठ कहे तो बात जल्दी गले उतर जाती है। जैसे कोई साधारण व्यक्ति कहे बच्चों को पोलियो से बचाने के लिए पोलियो टीका जरुर लगवाना चाहिए तो असर नहीं होता ...अमिताभ बच्चन यदि यही बात कहें तो लोग आसानी से समझ जाते हैं ।

मेरे मन में कहीं न कहीं पीड़ा थी कि विधा के सही रूप से पाठक अवगत नहीं हो पा रहा है। अत: मैंने लघुकथा के क्षेत्र में अमिताभ (बुध्दियुक्त, कांतिवान) के माध्यम से बात पहुँचाने का सहारा लिया। जिसके लिए अगर कहूँ कि प्रश्न बनाने में अपने दिमाग को निचोड़ दिया। मुझे वरिष्ठ जनों का सहयोग भी मिला। तब मकसद सिर्फ यही था कि यह बात पाठकों तक पहुँच जाय, कभी सोचा नहीं था कि यह इस तरह संग्रह का आकार लेगा।

सन्दीप तोमर – तो पाठकों की क्या प्रतिक्रिया रही?

डॉ. लता अग्रवाल – मुझे इन साक्षात्कारों का बहुत अच्छा प्रतिसाद मिला पाठकों, प्रकाशकों और अपने वरिष्ठ जन जिन्होंने अपने विचार साक्षात्कारों में रखे हैं सभी ने विशेषकर प्रश्नों की खुलकर प्रशंसा की। सभी महत्वपूर्ण, प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ने साक्षात्कार को स्थान दिया। लगभग सभी साक्षात्कार पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं

सन्दीप तोमर – इसके आलावा लघुकथा पर आपके कई संग्रह भी आ चुके हैं, वह भी विशिष्ट विषयों को लेकर, कुछ इस बारे में बताइए? आप एक ही विषय पर इतना कैसे लिख लेती हैं?

डॉ. लता अग्रवाल – वही बात दोहराऊँगी, चुनौती, मुझे हमेशा से नया काम करने में रूचि रही है, प्रोफेसर हूँ इसलिए भी नवाचार मेरा शौक है। अपने लघुशोध और पी-एचडी के विषय भी मैंने एकदम नये लिए, जिसमें मैं पहली शोध छात्रा रही हूँ। लेखन हेतु मेरे पास सिर्फ वह लेखक और उनका साहित्य ही उपलब्ध था जिस पर मुझे कार्य करना था। जब मैं किसी विषय को लेखन के लिए उठाती हूँ तो उसकी गहराई में चली जाती हूँ उसे चारों और से उलट-पलट कर रेशे निकलती हूँ इस तरह विषय को लेकर काफी साहित्य मेरे पास एकत्र हो जाता है। जब मैंने देखा लघुकथा में नारी विमर्श, बाल मनोविज्ञान, पौराणिक संदर्भों को लेकर अब तक कोई एकल संग्रह नहीं आया है तो मैंने उस दिशा में अपना प्रयास किया, आगे भी ऐसे प्रयास जारी हैं।

सन्दीप तोमर – हमारी शुभकामनायें हैं लता जी ! आप लघुकथा से एक लम्बे समय से जुड़ी रही हैं, लघुकथा के विकासक्रम पर भी कुछ प्रकाश डालिए।

डॉ. लता अग्रवाल – लघुकथा को न समझते हुए १९८७ में मैंने कालेज की पत्रिका (प्रत्यंचा) में एक छोटी सी नैतिक मूल्य परख कहानी लिखी थी, जिसे आज मैंने मानवेत्तर लघुकथा की कसौटी पर खरा पाया। फिर रुक-रुक कर कार्य हुआ। लघुकथा के विकासक्रम की बात करें तो यह इतिहास काफी प्राचीन है जिसे आदरणीय डॉ. शकुंतला किरण जी ने अपने शोध ग्रन्थ में उल्लेखित किया है, उपनिषद, पुराणों, हितोपदेश, जातक कथाओं आदि में हमें लघुकथा देखने को मिलती है, जिसे आज का लघुकथाकार वर्ग स्वीकार नहीं कर रहा किन्तु मैं मानती हूँ वह लघुकथाएँ हैं । बस उनके विषय और प्रस्तुति उनके युगानुरूप थी आज के विषय और प्रस्तुति आज के अनुसार है। बल्कि विषय की गहराई में अगर आप जायेंगे तो पायेंगे विषय वही हैं, क्योंकि मानव जीवन की प्रवृत्तियां वही रहती हैं, सत्य बदलता नहीं है। फिर १९७०-७१ से लघुकथा का आधुनिक दौर आरम्भ हुआ जो महज एक दशक तक ही चला। लघुकथा  के स्तर में गिरावट और अन्य विधाओं के वर्चस्व से लघुकथा में यह समय संक्रांतिकाल रहा । अब फिर २०१०-१२ से लघुकथा अपने अस्तित्व की लड़ाई को जीतकर हाशिये से ऊपर उठने का प्रयास कर रही है। जिसे साहित्य जगत में स्वीकृति मिल रही है। लघुकथा ने अपना एक विस्तृत पाठक वर्ग तैयार किया है।

सन्दीप तोमर – क्या कथा के संक्षिप्तीकरण को लघुकथा कहा जा सकता है, आजकल बहुत सी रचनाओं में कथा का संक्षिप्त रूप दिखाई देता है ऐसे में ये भ्रम उत्पन्न होता है कि ये लघुकथा है भी या नहीं?

डॉ. लता अग्रवाल – सही कह रहे हैं आप, आज लघुकथा को लेकर जो भीड़ उमड़ी है उसमें इस तरह के प्रसंग अक्सर सामने आ रहे हैं। आप तो स्वयं शिक्षक हैं समझ सकते हैं, जिस तरह (आरम्भ) और (प्रारम्भ) शब्द दोनों एक से दीखते हैं मगर दोनों में अंतर है वे कभी एक नहीं कहे जा सकते। ठीक उसी प्रकार कथा और लघुकथा कभी एक नहीं हो सकतीं, दोनों विधाओं की कसौटी अलग है। जब कोई कथा अपने एकल विषय को पार कर दूसरे विषय की परिधि में प्रवेश करती है, उद्देश्य से भटकती है, समझाइश की ओर जाती है समझिये वह कथा में प्रवेश कर रही है।

सन्दीप तोमर – लघुकथा के कथानक और कहानी के कथानक में क्या अंतर है?  क्या कहानी के कथानक पर भी लघुकथा लिखी / कही जा सकती है?

डॉ. लता अग्रवाल – बहुत सीधी सी बात है कथानक, विषय, लक्ष्य, पात्र, आकार को लेकर लघुकथा की अपनी सीमाएँ हैं, आप उसकी अनदेखी नहीं कर सकते। जबकि कहानी में आप अपनी इच्छा अनुसार प्रसंग, पात्र, कथानक का विस्तार दे सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ तो लघुकथा आपको ऊंगली पकड कर जिन मार्गों पर चलने का संकेत करेगी आपको उन्हीं मार्गों का अनुसरण करना है जबकि कहानी आपको स्वच्छंद विचरण करने को छोड़ देती है। आप जिस भी मार्ग का अवलोकन, अनुसरण करना चाहें कर सकते हैं।

क्या कहानी के कथानक पर भी लघुकथा लिखी जा सकती है ...? मैं कहूँगी हाँ, कई कहानियों में ऐसा हो सकता है, अगर लेखक में वह कौशल है तो वह कथा से लघुकथा निकाल सकता है। बशर्ते वह लघुकथा के सभी पक्षों से भली–भांति परिचित हो।

सन्दीप तोमर – लघुकथा में अंत कैसे किया जाना चाहिए क्या इसके लिए कोई नियम है? सुखांत या दुखांत में से किसे अधिक महत्वपूर्ण कहा जा सकता है? क्या नकारात्मक अंत की कथा को बेहतर नहीं माना जाता? लघुकथाकारों की इस बारे में क्या राय है?

डॉ. लता अग्रवाल – आपने एक साथ चार प्रश्न किये हैं, क्रमश: उत्तर देती हूँ,

← वस्तुत: लघुकथा में अंत करने का कोई नियम नहीं है, बल्कि लघुकथा की कोई सर्वमान्य नियमावली ही नहीं है, दरअसल यह पंच के लिए आप पूछ रहे हैं न, जिसे अजातशत्रु जी तेजाबी वाक्य कहते हैं। यहाँ मकसद सिर्फ इतना है कि लघुकथा का प्रभाव पाठकों तक पहुँचे। चूँकि लघुकथा आकारगत छोटी होती है अत: जिस उद्देश्य को लेकर लिखी गई है वह चुटीले शब्दों के माध्यम से अगर दिया जाय तो हम समझते हैं पाठक पर असर करता है। मैं समझती हूँ यह काम भाव भी कर सकते हैं, अगर आपके भावों में वह सम्वेदना है तो भी लघुकथा प्रभावोत्पादक होगी। आप प्रेमचन्द जी की लघुकथा को देखिये कहीं तेजाबी वाक्य नहीं है फिर भी पाठक को आकर्षित करती है ।

← सुखांत और दुखांत लघुकथा के दो पहलू हैं, जो कथा की माँग के अनुसार आते हैं। दोनों का अपना महत्व है जिसे नकारा नहीं जा सकता। आज सकारात्मकता पर अधिक बल दिया जा रहा है जिसके चलते लघुकथाएँ  जीवन से परे होकर आदर्शवाद की ओर प्रवेश कर रही हैं जो लघुकथा के हित में नहीं है।

← किसे महत्वपूर्ण कहा जाय इस सम्बन्ध में अधिकतर लघुकथाकारों की राय सकारात्मकता की ओर है। किन्तु मेरा निजी मत है कि दुखांत लघुकथाएँ पाठकों को अधिक प्रभावित करती है कारण दुःख, सम्वेदना ही लोगों को परस्पर जोड़ते हैं  ।

सन्दीप तोमर – बहुत से लोग लघुकथा के आकार को लेकर संशय में हैं, लघुकथा के आकार को लेकर क्या  कोई निश्चित मापदंड हैं? क्या कोई न्यूनतम और अधिकतम सीमा है?

डॉ. लता अग्रवाल – यह एक ऐसा विवादित प्रश्न है जिसका न कोई हल निकला है न ही निकट भविष्य में हल निकलने की सम्भावना है। कारण- लघुकथा का अपना कोई संविधान ही नहीं है और तब तक नहीं होगा जब तक लघुकथा के शुभचिंतक और बुद्धिजीवी बैठकर इस पर एक मत हो कोई बिंदु न बना लें। अगर अपनी बात करूँ तो लघुकथा की गरिमा उसकी लघुता में ही है आज अपने अनुसार हर कोई उसकी सीमा तय कर रहा है  ५० से लेकर १५०० तक शब्द सीमा जा चुकी है अगर कोई निर्णय न लिया गया तो जल्द ही ये शब्द और आंकड़े पार कर जायेंगे। लेखक का वही तो कौशल है कि वह अपने विचार को २५० से ३०० शब्दों के बीच प्रस्तुत करे, बहुत हुआ तो ५०० ठीक है । इससे आगे अगर आपको जाना है तो लघु कथा है, कहानी है।

सन्दीप तोमर –कुछ लोगों का मानना है कि लघुकथा में मारकता होनी चाहिए? ये मारकता क्या बला है  और क्यों जरुरी है ? (यदि है तो)

डॉ. लता अग्रवाल – इससे सम्बन्धित जवाब ऊपर दिया है, और स्पष्ट कर दूँ, मारकता से मतलब जिसमें प्रहार करने की क्षमता हो, क्योंकि शब्दों को तलवार के समकक्ष कहा गया है। यह मारकता व्यक्ति के सोये जमीर पर प्रहार कर उसे मानवता की राह दिखाए। जब कभी हम भ्रष्टाचार, किसी बालक या स्त्री के साथ हुई कई घटना पढ़ते हैं मगर कोई घटना होती है जो हमें अंदर तक छू जाती है, यदि हमसे भी कभी कोई ऐसी गलती हुई है तो उस घटना को पढने के बाद हम यह तय करते हैं इस घटना से उस व्यक्ति को इतनी पीड़ा हुई ...अब हम कभी ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे। यह है शब्दों की मारकता ।


← क्यों आवश्यक है, साहित्य का उद्देश्य है विसंगति को मिटाना, शब्दों के मारक प्रभाव से पाठक के भीतर बैठी बुराई का अंत करने के लिए मारकता की आवश्यकता महसूस की गई है।

सन्दीप तोमर - लघुकथा के विषय को लेकर इसके प्रारंभ से ही संशय बना रहा है, क्या विषय चयन के लिए भी कोई विशेष नियम है? या कुछ विषयों का लघुकथा में प्रतिबन्ध है? अगर ऐसा है तो पाठको/श्रोताओं को इससे अवगत कराएँ..

डॉ. लता अग्रवाल – विषय के चयन को लेकर कोई नियम नहीं है बल्कि अछूते / उपेक्षित विषयों पर काम हो रहा है और होना ही चाहिए । लेखक के लिए कोई विषय अछूता हो ही नहीं सकता। हमारा सम्पादित संकलन ‘किन्नर समाज की लघुकथा’ इस बात का प्रमाण है। यह लेखक को तय करना है कि वह अपनी लघुकथा को कितना समाजोपयोगी बना सकता है, वह विषय चुने। क्योंकि केवल और केवल समाज से जुड़ा साहित्य ही जीवित रहता है।

साहित्य समाज का आइना होता है, पुरानी कहावत है और आईने का स्वभाव है जो जैसा है वैसा ही प्रतिबिम्ब दिखाना। इस नाते समाज में जो भी घट रहा है चाहे वह शुभ हो, चाहे अशुभ, लेखन का विषय हो सकता है। बस लेखक को यह संज्ञान में रखना है कि उसका प्रस्तुतिकरण ऐसा न हो कि अशुभ में और अशुभ हो जाय। लेखक का एक रूप समाजशास्त्री का भी होता है यह बात स्मृति में रखनी चाहिए। हम देखते हैं आज बाल यौन हिंसा नित अख़बारों, टेलीविजन की खबर बनी हुई है। जन-जाग्रति के लिए यह बात सूचनार्थ तो ठीक है किन्तु दिन भर उस न्यूज को टेलीविजन की सुर्ख़ियों में रखना... यह तो बलात्कार का भी बलात्कार हुआ न। यह सावधानी बहुत आवश्यक है।

सन्दीप तोमर – आपकी बात से सहमत हूँ। शैली की बात करूँ तो लघुकथा में कौन-कौन सी शैली प्रचलन में हैं? क्या कुछ विशेष शैली का आ जाना लघुकथा को अधिक प्रभावी बनाता है या फिर कथाकार स्वयं की शैली को अपनाने या विकसित करने के लिए स्वतंत्र है?

डॉ. लता अग्रवाल – लघुकथा में अधिकतर लेखन परम्परागत ही होता रहा है, कम लोग ही हैं जो लीक से हटकर जाने का प्रयास करते हैं कारण एक भय समाया है यदि हमने लीक से हटकर लिखा तो कहीं हमारी लघुकथा / साहित्य को ख़ारिज न कर दिया जाय।

निश्चित ही नई शैलियों का आना लघुकथा के लिए शुभ संकेत है। क्योंकि साहित्य में समकालीनता को देखते हुए बदलाव अपरिहार्य है। नवीन लघुकथाकारों में कुछ लघुकथाकार हैं जो इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं उन्हें सराहा जाना चाहिए, शोभना श्याम, संध्या तिवारी, महेश शर्मा, कुमार गौरव, उपमा शर्मा, चित्रा राणा, अनुराधा सैनी आदि के अलावा और भी कई लघुकथाकार हैं जिनके साहित्य तक मैं नहीं पहुँच पाई हूँ लघुकथा में नवाचार कर रहे हैं। लघुकथा में नवाचार की चुनौती को स्वीकार करना होगा तभी इसमें नवीनता आएगी। नवीनता ही विधा में रोचकता और जीवन्तता लाती है।

हाल ही में एक चुनौती मैंने स्वीकार करते हुए अपने नवीनतम लघुकथा संग्रह ‘गांधारी नहीं हूँ मैं’ में पौराणिक सन्दर्भों को आधुनिक सन्दर्भ से जोड़ते हुए लगभग 27 से 28 शैलियों का प्रयोग किया है। मुझे लगता है यह अपने आप में नवीन प्रयोग है। देखना है पाठकों का कितना प्रतिसाद मिलता है।

सन्दीप तोमर – आपका प्रयास अवश्य सफल होगा, शुभेच्छा । वर्तमान समय की लघुकथाओं को देखकर मन में सवाल उठता है कि समाचार वाचन / लेखन,  रिपोर्टिंग, विवेचना से लघुकथा किस प्रकार भिन्न है?

डॉ. लता अग्रवाल- समाचार वाचन, वाचिक परम्परा का हिस्सा है, लेखन का क्षेत्र विस्तृत है, रिपोर्टिंग किसी घटना का शब्दों के माध्यम से चित्र उकेरना है, विवेचना किसी घटना / स्थिति का ओपरेशन कर शब्दों के माध्यम से उसका प्रस्तुतीकरण करना है। लघुकथा निःसंदेह जीवन से आती है मगर किसी अनुभव या घटना को रोचक तरीके से कथ्य में बांधकर, कुछ काल्पनिक पात्र निर्मित कर, एक उद्देश्य तय कर, उनके माध्यम से अपने विचारों को प्रस्तुत करने की विधा है लघुकथा।

जो समाचार पढ़ा जाये, जो लेखन किया जाय, जो रिपोर्टिंग की हो, जो विवेचना की गई है उनके कई उद्देश्य हो सकते हैं, आवश्यक नहीं कि सुनने वाले अथवा पढ़ने वाले को वो प्रभावित करें या उनका उद्देश्य उन तक पहुँचे। न पहुँचने पर उस विधा पर कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा, मगर लघुकथा यदि पाठक के अंतर्मन तक नहीं पहुँची, अपने उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाई तो वह लघुकथा असफल मानी जाएगी।


सन्दीप तोमर –   क्या हर एक घटना जो रचनाकार के इर्द-गिर्द घटित हो रही है, उस पर लघुकथा लिखी / कही जा सकती है या रचनाकार को विशेष घटना का इन्तजार करना चाहिये?

डॉ. लता अग्रवाल- देखिये, लिखने को इन्सान कुछ भी लिख सकता है जैसे- शादी हाल में दूल्हा-दुल्हन बैठे थे, लोग उन्हें लिफाफे देकर जा रहे थे। एक बच्चे ने लिफाफे उठाये और चलता बना। उसे पकड़कर पूछा गया कि उसने ऐसा क्यों किया? , बच्चे का जवाब था, ’मुझे टॉफी खाना है’ अब बताइए इससे तो लघुकथा का साहित्य समृध्द नहीं होगा न?

सच यह है कि हमें ऐसे लेखन से बचना चाहिए। अगर हम चाहते हैं हमारी लघुकथा / साहित्य की उम्र लम्बी हो तो हमें विषय भी ऐसे ही चुनने होंगे।

सन्दीप तोमर -  सटीक बात लेकिन फिर सवाल ये होगा कि लघुकथा में व्यंग्य, हास्य या कटाक्ष का क्या स्थान है? क्या ये सब लघुकथा को अधिक प्रभावी बनाते हैं?

डॉ. लता अग्रवाल- व्यंग्य और हास्य का गुण है मनोरंजन उत्पन्न करना, लघुकथा एक गंभीर विधा है कारण इसमें लघुता के कारण ज्यादा भावों की गुंजाइश नहीं है। अत: केवल विषय की माँग को देखते हुए हास्य और व्यंग्य की उपस्थिति हो तो स्वीकार किया जा सकता है किन्तु यदि वह लघुकथा की गंभीरता और उद्देश्य प्राप्ति में भटकाव उत्पन्न करता है तो इससे परहेज किया जाना चाहिए।

१९८० के बाद लघुकथा विधा को जो नुकसान हुआ है उसकी एक वजह यह भी है कि लघुकथा पर हास्य और व्यंग्य हावी हो गये थे। और लघुकथा लघुकथा न रहकर चुटकुला बनकर रह गई थी ।


सन्दीप तोमर – ठीक कहा आपने, अच्छा ये बताएँ कि बोध कथा, प्रेरक प्रसंग इत्यादि को लघुकथा कहा / माना जा सकता है? यदि नहीं तो क्यों?

डॉ. लता अग्रवाल- सन्दीप जी यहाँ मेरा विचार जरा अन्य लोगों से हटकर है। मैं मानती हूँ बोधकथा लघुकथा हैं, उनका लेखन काल जो था वो उस काल की लघुकथा हैं। कारण आकार, प्रकार, पात्र, जीवन के किसी एक उद्देश्य को लेकर ये कथाएं अपने अंदाज में बात करती हैं। वह युग आदर्शवाद का युग था अत: वहां ‘मारक’ जैसे शब्दों को कहीं स्थान नहीं था। बस प्रेम और शांति से बदलाव ही जीवन का लक्ष्य था। बल्कि मैं कहूँगी बोधकथाओं को नकारना ठीक ऐसे, जैसे गंगा को तो हम पूज रहे हैं मगर गौमुख को नकार रहे हैं।

सन्दीप तोमर –एक शब्द बहुत अधिक चर्चा में रहता है-कालदोष, लघुकथा में कालदोष के क्या मायने हैं? क्या लम्बी अवधि में कही गयी कथा को लघुकथा से ख़ारिज किया जा सकता है? इस बारें में क्या नियम हैं कृपया विस्तार से बताइए..

डॉ. लता अग्रवाल- हमने पहले भी चर्चा की कि, प्रत्येक विधा का अपना शास्त्र है, यद्यपि लघुकथा का कोई लिखित शास्त्र नहीं मगर फिर भी इसकी लघुता को देखते हुए इसे क्षण  विशेष की लघुकथा कहा है। ताकि इसकी आकार गत विशेषता अक्षुण्य रहे। अत: एक क्षण विशेष की परिधि से बाहर की कथा को लघुकथा कालदोष से युक्त माना गया है। चूँकि कभी बहुत आवश्यक होने से हमें विगत का भी जिक्र करना पड़ जाता है, तो इसके लिए फ्लैश बैक का प्रावधान लघुकथा में किया गया है। मगर देखने में आ रहा है कि कई जगह इसका दुरूपयोग हो रहा है। लेखक जीवन की पूरी कहानी फ्लैश बैक में लिखकर अंत में उसे एक क्षण में लाकर कह देते हैं लघुकथा। यह ठीक नहीं है। 3-3 पेज की लघुकथाएं जब मैं देखती हूँ तो हैरानी होती है। आखिर लघुकथा ही क्यों ...! आप लघु कहानी लिखिए, कहानी लिखिए ...। अगर मेरा मत जानना चाहते हैं तो बिलकुल ऐसी सामग्री को लघुकथा से ख़ारिज कर देना चाहिए।

सन्दीप तोमर -  क्या आत्मकथ्यात्मक शैली को लघुकथा से बेदखल किया गया है? या फिर लेखक स्वयं पात्र हो सकता है? आपकी क्या राय है?

डॉ. लता अग्रवाल- बेदखल नहीं किया गया है, आत्मकथन शैली में लघुकथा लिखी जा रही हैं। मैंने भी लिखी हैं। वास्तव में आत्मकथ्यात्मक शैली में लेखक के मन के जो भाव हैं उसे वह एक पात्र गढ़ कर उसके माध्यम से कहता है। उसकी स्वयं की उपस्थिति वर्जित है, यानि लेखकीय प्रवेश न हो।

सन्दीप तोमर -    लघुकथा में  बिम्ब, प्रतीक, काव्यात्मक अलंकार, रस तत्व, सशक्त भाव पक्ष इत्यादि का समावेश होना अवश्यमभावी है? इनके बिना लिखी रचना को आप कहाँ रखना पसंद करेंगे?

डॉ. लता अग्रवाल- ये सभी लघुकथा के रा मटेरियल हैं, कच्ची सामग्री, जिनसे लघुकथा रची जाती है। आप चाहें न चाहें यह तत्व किसी न किसी मात्रा में कथा में समाहित रहते ही हैं । इनके बिना रचना सम्भव ही नहीं है।


सन्दीप तोमर – आपकी दृष्टि में ऐसी कौन सी लघुकथा है जिसे आप लघुकथा के मापदंड पर आदर्श लघुकथा मानते हैं और जो आकार में छोटी होते हुए भी कथावस्तु से लेकर, शिल्प, भाषा, संवाद, पात्र,पंच, शीर्षक सभी के मापदंड का समुचित पालन करती हो?

डॉ. लता अग्रवाल- यहाँ कहना कि सिर्फ यही लघुकथा पूर्ण है अव्यवहारिक होगा,  क्योंकि बहुत सी अच्छी लघुकथा लिखी गईं है। और बहुत सी लघुकथाओं से मैं अनभिग्य हूँ। लघुकथा साहित्य का फलक काफी बड़ा है, मैं बहुत अदना सी पाठक हूँ। हाँ ! इतना कह सकती हूँ कि कुछ लघुकथाओं ने गहराई से छुआ है जिनमें अशोक वर्मा जी की ‘संस्कार’ है, गाँव की “पत्नी जब पति से कहती है, ‘गाय हरी होना चाहवै है , पति का जवाब शाम को बाग़ वाले सांड के पास ले जावेगा।  यहाँ पत्नी का चिन्तन शुरू होता है ‘यो पाप अब न होणे दूंगी मैं, कि गैय्या अपने ही सांड बेटे से ..., सामने से उसके पति की जवान सौतेली माँ का प्रवेश।’..... कथा को देखने की दृष्टि जिसके पास है वह जान सकता है पत्नी का अनकहा। लघु आकार में कथाकार ने चरित्र के बहुत बड़े पहलु, समाज के सबसे विध्वंस रूप को जिस सच्चाई से प्रस्तुत किया है, जिसमें बिम्ब भी है, प्रतीक भी , भाषा भी, कथा भी और तेजाबी वाक्य भी। इसी तरह एक लघुकथा है ‘कनस्तर’ लेखक का नाम याद नहीं आ रहा । डॉ. ‘कमल चौपड़ा जी’ की फ्राक...और भी बहुत सी लघुकथाएँ हैं जिनसे प्रेरणा पाकर नई पीढ़ी लिख सकती है ।


संदीप तोमर -  बहुत खूब,  ये बताइए, आपकी पसंदीदा लघुकथा कौन सी है ? उसके लेखक का नाम इत्यादि बताइए और क्यों आप उसे सर्वाधिक पसंद करते हैं?

डॉ. लता अग्रवाल- किसी एक का नाम बताना सम्भव नहीं बहुत सी लघुकथाएं पसंद हैं। इसके लिए मुझे पुन: सभी किताबों को लेकर बैठना होगा क्योंकि ऐसी कोई सूची बनाई नहीं।

सन्दीप तोमर - अच्छा अगर स्वयं की बात करूँ तब...?

डॉ. लता अग्रवाल – (हँसते हुए) आपको जितना पढ़ा उसके आधार पर मेरी राय है- संवेदना के स्तर पर “दूसरी बेटी का बाप” समाज परिवर्तन की दरकार करती है तो “ट्यूशनखोर” और “अच्छाई का गणित” शिक्षा में व्याप्त धांधलियों की कलई खोलती हैं सन्दीप तोमर” आपकी एक लघुकथा कथाक्रम में पढ़ी थी “सिस्टम” जो गरीब तबके की बालिकाओं के दैहिक शोषण का मार्मिक चित्रण करती है। आगे तो एक लम्बी फेहरिस्त हो सकती है।


सन्दीप तोमर -  और आपकी अपनी लघुकथा, जिसे आप सब से अच्छी लघुकथा मानते हैं, और उसका कारण?

डॉ. लता अग्रवाल- वही घिसा पिटा जवाब दूंगी, अपनी कई लघुकथाएँ मुझे पसंद हैं जिनमें ममता, साँझा दुःख, कोठी वाली, हलवाहा, शुक्रिया जनाब, .....ये लघुकथाएं इसलिए पसंद हैं कि इन्हें लिखते हुए स्वयं मेरे समक्ष वह चित्र ऐसे साकार हो गये मानो मैं स्वयं इस वेदना से गुजर रही हूँ।


सन्दीप तोमर – लता जी ,  आजकल विषय या चित्र आदि पर लघुकथा लिखवाने का सोशल मीडिया पर चलन बढ़ा है?  इसे आप कितना उचित मानते हैं?

डॉ. लता अग्रवाल- विषय पर लेखन से लघुकथा में आमद निसंदेह बढ़ी है मगर स्तर नहीं है जो लघुकथा के लिए विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न करता है। एक से विषय में कोई कितनी नवीनता देगा ...?


सन्दीप तोमर -  सही कहा आपने, एक लम्बे समय से लघुकथा में कुछ सीमित और पुराने विषय ही देखने को मिलते हैं - दहेज़ ह्त्या ,बलात्कार, धार्मिक उन्माद, बुजुर्गों की उपेक्षा आदि आदि, इस विषय पर आपके क्या विचार है. क्या इन विषयों पर ही लिखा जाए या फिर नव प्रयोग को आप तवज्जो देंगे?

डॉ. लता अग्रवाल- संदीप जी, अदृश्य लेखन के लिए दिमागी कलम को पैना करना होता है, इंसानी फितरत है जो दिखता है लेखक वह लिखता है क्योंकि यह आसान प्रक्रिया है। इसलिए आपकी बात से इंकार नहीं करुँगी फिर भी कहना चाहूंगी, मैं सोशल मिडिया पर कम रहती हूँ तब भी मैंने देखा है नये और साहित्यिक अभिरुचि के लोग कम ही सही, नये विषय उठा रहे हैं।

सन्दीप तोमर -  जी,  लघुकथा में भूमिका या प्रस्तावना का क्या प्रावधान है? यह कितनी लम्बी या छोटी होनी चाहिये? क्या रचना भूमिका विहीन भी हो सकती है ?

डॉ. लता अग्रवाल- रचना भूमिका विहीन हो सकती है, लघुकथा को भी भूमिका विहीन रचना ही कहा गया है। कारण लघुकथा के गर्भ में कम ही शब्दों की गुंजाईश है। इसलिए लेखक का कौशल यह हो कि वह अपनी कथा का आरम्भ ही ऐसा करे कि कथा की प्रस्तावना स्वत: ही मुखर हो जाये। आज समय भी यही है सीधे अपनी बात कही जाय, ज्यादा लाग-लपेट के साथ कहेंगे तो लोग आपको सुनना पसंद नहीं करेंगे।


सन्दीप तोमर – इसी क्रम में जुड़ा एक और प्रश्न,  आप सम्वाद शैली में लिखी रचना को ज्यादा महत्व देते हैं या विवरणात्मक शैली की रचना को या फिर इन दोनों का मिश्रण ज्यादा सही है?

डॉ. लता अग्रवाल- विवरणात्मक शैली का प्रयोग प्राय: लघुकथा में कम ही होता है। नहीं होता ऐसा भी नहीं है। सम्वाद शैली काफी प्रयोग होती है। स्वयं मेरा प्रथम संग्रह ‘मूल्यहीनता का संत्रास’ में मैंने लगभग इसी शैली का प्रयोग किया है।


सन्दीप तोमर – लता जी, लघुकथा में कथ्य या कथानक तो सीमित ही हैं ऐसे में किसी का एक दूसरे पर रचना चोरी का इल्जाम लगाना भी देखने को मिलता है. अगर घटनाक्रम, परिस्थितियाँ और ट्रीटमेंट भिन्न है तो भी क्या उसे चोरी कहा जाना चाहिए?

डॉ. लता अग्रवाल- सन्दीप जी प्रासंगिक विषय है, मैं बहुत भुक्तभोगी हूँ। कई स्थानों पर यह इल्जाम नहीं सच्चाई है। मेरा मानना है हम एक ही समाज में रहते हैं, परिवेश में भी साम्यता है इसलिए समस्याएँ  समान हो सकती हैं। कटु बात है, मगर हकीकत है कि ईश्वर ने दिमाग और सोचने की क्षमता सबको अलग दी है। आप किसी समस्या को अपनी तरह से सोचेंगे, कोई दूसरा अपने अनुसार सोचेगा। किन्तु जब देखा जाता है लघुकथा का शीर्षक, पात्र, कथा सब कुछ वही, बीच में एक-दो शब्द उल्ट फेर कर दिया, लो जी कथा उनकी हो गई। कई जगह तो साथियों ने वह तकलीफ भी नहीं उठाई बस कापी की, नीचे से नाम काटकर अपना नाम और लघुकथा को अपना बता दिया। अफ़सोस तो यह कि वही आपसे पूछेंगे कि क्या सबूत है आपके पास कि यह आपकी रचना है ...? अब आप जवाब देते रहिये। इसे आप चोरी नहीं तो क्या कहेंगे... अब तो राजनेता भी भाषण चुराने लगे हैं। लगता है इन लोगों को डाक्टर ने प्रिस्क्रिप्शन दिया हुआ है दिन में एक लघुकथा लिखना अनिवार्य है अन्यथा आप फलां रोग के शिकार हो सकते हैं।

हाँ, यदि घटना क्रम एक है और ट्रीटमेंट अलग है तो वह कथा चोरी की नहीं कही जाएगी।


सन्दीप तोमर – आपका कहना ठीक है, एक और महत्वपूर्ण सवाल—पहले शीर्षक तय किया जाए या रचना कर्म से निपटकर शीर्षक पर विचार किया जाए? कौन सा तरीका ज्यादा उचित है?

डॉ. लता अग्रवाल- किसी एक तरीके को स्थायी कहना ठीक नहीं, दोनों ही तरीके हो सकते हैं। कभी हमें अचानक से कोई शब्द ऐसा मस्तिष्क में आता है कि हम उस पर पूरी लघुकथा लिख देते हैं। वहीं कभी पूरी लघुकथा लिख जाने के बाद लगता है इसका यह शीर्षक उपयुक्त होगा।


सन्दीप तोमर – ठीक है, अच्छा इतनी बातें कर लेने के बाद एक अजीब सवाल- लघुकथा का उद्देश्य क्या है? क्या यथार्थ का उद्घाटन या आदर्श की स्थापना?

डॉ. लता अग्रवाल-  लघुकथा का उद्देश्य यथार्थ की राह पर चलकर आदर्श की स्थापना करना है, इसमें कभी आदर्श न भी हो तो चलेगा मगर यथार्थ जुड़ा रहे तो कथा जीवित रहेगी ।

सन्दीप तोमर – आपने लघुकथा को लेकर महत्वपूर्ण जानकारी दी आपका बहुत बहुत आभार ।

डॉ. लता अग्रवाल- अगर हम किसी विधा के लिए कार्य कर रहे हैं तो यह हमारा दायित्व है इसमें आभार कैसा। हाँ ! यह साक्षात्कार मेरे लिए चुनौती अवश्य है ।



संदीप तोमर – चुनौती !! वह कैसे?

डॉ. लता अग्रवाल-  क्योंकि अब तक मैं इस विषय पर कई साक्षात्कार ले चुकी हूँ। किसी के विचार न टकरा जाएँ अन्यथा यह भी चोरी कही जाएगी। सभी के विचारों को दिमाग की हार्ड डिस्क से डिलीट मार कर, एक ईमानदार प्रयास करना चुनौती हुआ न।



संदीप तोमर- जी पुन: आभार । आपने बड़ी सहजता से प्रश्नों के जवाब दिए।

डॉ. लता अग्रवाल-  धन्यवाद ।
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बुधवार, 27 नवंबर 2019

लघुकथा: हथरेटी-चकारेटी | शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"लो, आज तुम जी भर के देख लो ये हथरेटी-चकारेटी वग़ैरह! इन्हीं से समझो कि क्या होती है चकरेटी, गुल्बी और छेन, कीला, पही!" 

"ये तो इनके और इनके सामानों के नाम हैं, हमें तो इनकी कलाकारी देखनी है!" नेताजी की बात पर उन की पत्नी ने कहा और कुम्हारों को बड़ी लगन के साथ मटकियां, बर्तन और गुल्लक वग़ैरह बनाते देखने लगीं। 

"बड़ा ही अद्भुत काम है यह! मिट्टी देखो, मिट्टी के गुल्ले देखो, चकरेटी से घुमाते चाक की गति देखो!" नेताजी अपनी पत्नी को यह सब पता नहीं क्यों दिखाना चाह रहे थे। कुम्हारों, उनकी पत्नियों और बच्चों की एक-एक गतिविधि को ध्यान से देख कर पत्नी बहुत आश्चर्य चकित हो रहीं थी।

"अरे, उधर देखो, ये तो ठठेरे का काम भी करते हैं मिट्टी के बर्तनों पर!" पत्नी ने कहा। 

"हाँ, चके पर बने बर्तन को पीट-पीट कर ये हवा व नमी निकाल कर उनको सही रूप देते हैं, फिर भट्टे में तपाकर उन्हें सुखाते-पकाते हैं!" 

यह कहते हुए, एक कुम्हार को साथ लेकर नेताजी पत्नी को भट्टे के नज़दीक़ ले गए, जहाँ से कुछ दूर तैयार बर्तन, मटके, गुल्लक वग़ैरह रखे हुए थे। काफी देर तक सब कुछ देखने-समझने के बाद जब वे दोनों कार में वापस जाने लगे, तो दोनों कहीं खोये हुए थे। उनकी आँखों में कुम्हारों के चलते हाथ, चके की गति, उँगलियों की गतिविधियों और हथेलियों की थापों के दृश्य झूल रहे थे। पूरे परिवार की सहभागिता से वे अचंभित थे। 

"कहाँ खो गई हो!" नेताजी ने पत्नी से पूछा। 

"सोच रही हूँ कि काश तुम भी कुम्हार की तरह होते, तो अपने बेटे आज कुछ और होते!" 

"मैं होता? कुम्हार जैसा तो तुम्हें होना चाहिए, घर में तुम्हारा काम है यह!"

"और तुम्हारा क्या काम है? सब कुछ औरतों के ही मत्थे क्यों?" 
"बाप-दादाओं की दी हुई राजनीतिक विरासत कौन संभालेगा? परिवारवाद राजनीति में अब नहीं चल रहा? बेटों से क्या उम्मीद रखें?" नेताजी गंभीर होकर बोले। 

"तो कुम्हारों के काम देखते वक्त भी क्या तुम राजनीति और देश के हालात में ही खोये हुए थे?" पत्नी ने नेताजी की टोपी सही करते हुए कहा। 
"क्या ये भी अपने घर-परिवार नहीं हैं? इनके हथरेटी-चकारेटी कौन हैं?" यह कहते हुए नेताजी के हाथ स्टिअरिंग पर कुम्हार की चकरेटी की तरह अनायास तेजी से चलने लगे। 

शेख़ शहज़ाद उस्मानी
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)