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गुरुवार, 21 नवंबर 2019

पुस्तक समीक्षा | लघुकथा कलश - चतुर्थ महाविशेषांक | बालकृष्ण गुप्ता 'गुरु'

‘लघुकथा कलश’ का चौथा महत्वपूर्ण कदम


लघुकथा के विकासक्रम में ‘लघुकथा कलश’ का चौथा महत्वपूर्ण कदम, ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ अंगद के पैर की भाँति लघुकथा पटल पर जमता दिख रहा है। नजर भी साफ और पक्ष भी निर्विवाद है। लघुकथा जगत में इस पत्रिका की विशिष्ट स्थिति के ठोस कारण भी हैं।

किसी भी बड़े पत्र या पत्रिका में संपादकीय वास्तव में ‘मेरी बात’ के साथ ही पाठकों के लिए सीख भी होती है। योगराज प्रभाकर के संपादकीय में भी कुछ नई, सटीक बातें होती ही हैं, जिन्हें पाठक अपने नजरिए से देखते हैं। इस बार के संपादकीय में गजानन माधव मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया के तीन पड़ावों का उल्लेख गागर में सागर के समान है। संपादक की यह बात- “पिछले कुछ समय से लघुकथा विधा के कुछ विद्वानों के बीच किसी-न-किसी मुद्दे को लेकर, चर्चा के नाम पर बहस मिल रही है। हालाँकि ऐसी चर्चाओं का विधा के प्रचार-प्रसार से दूर-दूर तक संबंध नहीं होता। अक्सर ऐसी हर चर्चा मात्र बतकूचन तथा पर्सनल स्कोर सेटल करने की कयावद मात्र बनकर रह जाती है...” सत्य के साथ कड़वी दवाई भी है, जिस पर रचनाकार मित्रों को गंभीरता से विचार करना चाहिए।


बहरहाल, किसी खास अंक की प्रस्तुति में सामग्री का वर्गीकरण भी अंक को बेहतर बनाता है। लघुकथा कलश रचना प्रक्रिया महाविशेषांक में भी संपादकीय के बाद, विशिष्ट लघुकथाकार और उनकी रचना प्रक्रिया, लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रियाएँ, नेपाली लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रियाएँ, पुस्तक समीक्षा, समीक्षा-सत्र होने का मतलब है, एक परिपूर्ण पत्रिका का विचारशील संयोजन। यह अंक लघुकथाकारों, पाठकों (समीक्षकों भी) को सम्मानपूर्वक छप्पन भोग के रूप में मिला है। स्वाभाविक तौर पर सभी रचनाकारों ने चूल्हे पर कड़ाही रखकर ही भोग बनाया है, पर सबकी बनाने की विधि कुछ-कुछ अलग है। इसीलिए इनका स्वाद भी विविधतापूर्ण है, जो पत्रिका की एक बड़ी खूबी है।

सभी व्यंजन, सभी पाठकों को प्रिय लगें, संभव नहीं है, पर खाने योग्य तो जरूर लगेंगे। लघुकथाकारों को अपनी लघुकथाओं की रचना प्रक्रिया बताते हुए जो खुशी हुई होगी, पाठकों को भी उस प्रक्रिया को जानकर अच्छा ही लगा है। इस अंक में शामिल चर्चित लघुकथाकारों की लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रियाएँ तो विशिष्ट हैं ही, अन्य काफी लघुकथाएँ और उनकी रचना प्रक्रिया भी प्रभावित करती हैं। रचना प्रक्रिया महाविशेषांक की बहुत-सी लघुकथाएँ ऐसी हैं कि पाठक और समीक्षक को कथ्य पसंद आएगा या शैली, या फिर कथ्य और शैली में नवीनता मिलेगी। ऐसी कई लघुकथाएँ हैं जिनके कथ्य और शिल्प दोनों दमदार हैं, इसलिए इनका स्वाद और सुगंध भी अलहदा है। कुछ नाम बताना तो ईमानदारी ही होगी- इनमें सुकेश साहनी की ‘स्कूल’, ‘विजेता’, माधव नागदा की ‘कुणसी बात बताऊँ’, शील कौशिक की ‘छूटा हुआ सामान’, रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘ऊँचाई’, बलराम अग्रवाल की ‘गोभोजन कथा’, प्रबोध कुमार गोविल की ‘माँ’, अशोक भाटिया की ‘तीसरा चित्र’, योगराज प्रभाकर की ‘तापमान’, कल्पना भट्ट की ‘रेल की पटरियाँ’, लता अग्रवाल की ‘मुहावरा जीवन का’, रवि प्रभाकर की ‘कुकनूस’... लिस्ट आगे भी बन सकती है। नेपाली लघुकथाओं में भी कुछ अत्यंत प्रभावी हैं, जिनमें प्रमुख हैं- खेमराज पोखरेल की, ‘जन्मदाता’, राजन सिलवाल की, ‘चंद्रहार’। ‘आजादी’, ‘इंसान की औलाद’ आदि भी अच्छी लघुकथाएँ हैं।

हिंदी लघुकथाओं से इतर, लघुकथा कलश के संपादकों का सीमावर्ती प्रांत पंजाब की लघुकथाओं से परिचित कराने का प्रयास भी उल्लेखनीय है। संपादक महोदय ने खुद अनुवाद कला का बखूबी उपयोग करते हुए कुछ लघुकथाओं का सार्थक अनुवाद किया है। विशिष्ट लघुकथाकार हरभजन खेमकरणी, ‘चिकना घड़ा’, सरनेम के चक्कर में फँसता आदमी, ‘बहाना’, गेहूँ के साथ घुन पिसता है। ‘पहला कदम’, सतर्क हक के लिए पत्नी दृढ़ता पर न उतर जाए, पति को पहले समझना चाहिए। ‘जागती आँखों का सपना’, सपनों को साकार करने की इच्छाशक्ति दर्शाती सार्थक लघुकथा है। हरजीत राणा की लघुकथा ‘हवस’ बताती है कि आदमी किस कदर होश खो बैठता है, खासतौर पर पैसे और पद का पावर हो तो।

समीक्षा खंड के समीक्षकों ने लघुकथाकारों के दृष्टिकोण पर लघुकथाओं के माध्यम से दृष्टिपात किया है और लघुकथाकारों के विचारों की अपने विचारों के माध्यम से समीक्षा करते हुए तार्किकता पूर्ण ढंग से समालोचन किया है।

संभव है कि कुछ लघुकथाएँ नजर या समझ की चूक से समीक्षा में नहीं आ पाई होंगी। इतनी बड़ी और विस्तारित पत्रिका में कुछेक जगह प्रूफ की चूकें हैं। कहीं-कहीं लघुकथाकार की रचना प्रक्रिया कुछ लंबी है, जिसे वह अपनी लघुकथा के समान ही लघु और सुगठित कर सकता था। पर्याप्त गुणवत्ता और खूबियाँ होने के बावजूद लघुकथा कलश के रचना प्रक्रिया महाविशेषांक को सौ में से पूरे सौ अंक जानबूझकर नहीं दे रहा हूँ। इसके पीछे लघुकथा कलश की उत्तरोत्तर प्रगति की कामना है। इसके कदम लगातार बढ़ते रहें, आगे और चढ़ाई है। लघुकथा कलश अच्छे से और अच्छा, बहुत अच्छा हो इसी कामना के साथ मेरिट के अंक प्रदान कर रहा हूँ।

लघुकथा के सागर में खिलता पुष्प रूपी ‘लघुकथा कलश’ रचना प्रक्रिया महाविशेषांक अपने सौंदर्य, सुवास और उपयोगिता से स्थायी जगह बनाने में सफल होगा, ऐसा मुझे विश्वास है। कुल तीन सौ साठ पृष्ठों में एक सौ उन्तालीस लघुकथाकारों की कुल दो सौ बाईस लघुकथाओं और उनकी रचना प्रक्रियाओं को समेटे यह अंक पिछले अंकों से एक कदम आगे, उल्लेखनीय और संग्रहणीय है। जाहिर है, बेजोड़ होने के चलते लघुकथा कलश के हर नए अंक के सामने अपने ही पिछले अंकों के मुकाबले बेहतर होने की चुनौती होती है, जिस पर यह चौथा महाविशेषांक खरा उतरा है।

- बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’

बुधवार, 20 नवंबर 2019

लघुकथा वीडियो : चुनौती | लेखक: रामकुमार आत्रेय | स्वर: आयाम मेहता

स्व. श्री रामकुमार आत्रेय जी द्वारा सृजित लघुकथा 'चुनौती' हमारी नदियों की दशा को बताती है। नदियों को स्वच्छ रखने का सन्देश देती यह रचना न केवल पठन बल्कि मनन और मानने योग्य है। 



सोमवार, 18 नवंबर 2019

पुस्तक समीक्षा | लघुकथा कलश - चतुर्थ महाविशेषांक | कल्पना भट्ट


तिनकों-तिनकों से बनता है घोंसला 



जब लघुकथा कलश के चौथे अंक के लिए दो-दो लघुकथाओं के साथ उनकी रचना-प्रक्रिया भी मंगवाई गयीं, तब एक बार तो मेरे मन में कुछ प्रश्न उठ रहे थे। ‘रचना-प्रक्रिया’ क्या होती है? कैसे लिखी जाती है? और इस अंक के पीछे क्या उद्देश्य है? इस विषय पर चिंतन-मनन करने लगी। मेरे विचारों में एक चित्र बार-बार उभर कर आ रहा था - किसी परिंदे के घोंसले का। उस पर मनन किया तो एक के बाद एक परतें खुलती चली गयीं और रचना प्रक्रिया सम्बंधित लगभग सारे चित्र एक के बाद एक उभरते चले गए। जब कोई परिंदा अपने लिए घोंसला बनाने की तैयारी में जुट जाता है, तब वह सूखे तिनकों की तलाश में उड़ता है और जहाँ से उसको इनकी उपलब्धता के आसार नज़र आते हैं, वहाँ से वह अपनी चोंच में एक तिनका लेकर दुबारा उड़ता है। अब उसकी तलाश होती है एक सुरक्षित जगह जहाँ वह अपना घोंसला बना सके, उचित स्थान मिल जाने के बाद वह एक-एक करके तिनके इकट्ठे करता है और साथ ही उन तिनकों को बुनने भी लगता है। बड़ी ही कुशलता से वह इन तिनकों को बाँधता जाता है और उनकी बुनावट करता है। वह तब तक नहीं थमता जब तक कि अपने लिए एक घोंसले का निर्माण नहीं कर लेता। इतना ही नहीं घोंसला बनाने के बाद वह उस पर बैठकर-झूलकर इस बात की पुष्टि भी करता है कि वह घोंसला मजबूत है और सुरक्षित है, जिसके लिए वह सतत प्रयास और अथक परिश्रम करता है और पुष्टि होने के तत्पश्चात ही मादा परिंदा उसमे अपना अंडा देती है। यह कुदरत का नियम है और करिश्मा भी कि न सिर्फ परिंदे अपितु हर जीव अपने भावी जीव को जन्म देने के पहले एक सुरक्षित स्थान की तलाश करता है अथवा निर्माण करता है। घोंसले को देखें तो परिंदे की कुशलता और कौशलता दृष्टिगोचर होती है। ओह हाँ! ऐसी ही तो होगी रचना-प्रक्रिया भी! यह विचार कर इस अंक की घोषणा के प्रथम पल से ही इस अंक के आने की प्रतीक्षा करने लगी।

प्रतीक्षा की घड़ी तब खत्म हुई जब हमारे पोस्टमैन साहिब ने ‘लघुकथा कलश का चौथा महाविशेषांक’ मेरे हाथ में थमाया। प्लास्टिक कवर की डबल पैकिंग में लिपटी हुई इस पत्रिका के आकर्षक आवरण ने कोतुहल जगाया। हरे और पीले रंग के इस पृष्ट पर एक फूल बना है जिसकी पंखुड़ियाँ चहुँ ओर उडती नज़र आ रही हैं। अपनी जिज्ञासा को शांत करने हेतु इस फूल की जानकारी एकत्रित करने हेतु गूगल की सहायता ली। इस फूल को सिंहपर्णी कुकरौंधा कहा जाता है, इसे डेंडिलियन(Dandelion) भी कहते हैं।Dandelion एक फ्रैंच शब्दावली Dand de lion है जिसका अर्थ है शेर के दांत और यह नाम इस फूल की पत्तियों के नुकीले आकार के कारण दिया गया है। इसी खोज में इसी तरह के एक और फूल की जानकारी मिली ’शिरीष का फूल’ जिस पर हिन्दी साहित्य के एक महान हस्ताक्षर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का एक बहुत ही सुंदर ललित निबंध पढ़ने को मिला, जिसमें उन्होंने शिरीष के फूल की तुलना एक ऐसे अवधूत (अनासक्त योगी) से की है जो ग्रीष्म की भीषण तपन सह कर भी खिला रहता है। दोनों ही फूलों की पंखुड़ियाँ बेहद हल्की होती हैं परन्तु दोनों ही अपना-अपना महत्त्व रखते हैं। जहाँ एक तरफ सिंहपर्णी बारहमासी खरपतवार है, जिसकी जड़ें मांसल पर मिटटी में गहराई तक पहुँच जाती है। यह फूल नदी किनारे, तालाब किनारे, बंजर वाली जगहों पर और घर के गमलो में भी उगाया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर शिरीष का पेड़ होता है जिसके फूल तो हलके होते हैं, परन्तु इसका फल बहुत कठोर होता है। लघुकथा लेखन और उसकी रचना प्रक्रिया के लिए इस प्रतीकात्मक आवरण को देखकर इस पत्रिका के संपादक योगराज प्रभाकर की सोच, लघुकथा विधा के लिए उनकी चिंता और जीवन संघर्ष को लेकर उनके चिंतन को नमन करने का मन करता है।
अब क्योंकि मैं यहाँ ‘लघुकथा कलश’ के चौथे अंक की बात कर रही हूँ सो इस क्रम को आगे बढाते हुए मैं यह कहना चाहूँगी कि  हिन्दी लघुकथा के विकास में पत्र-पत्रिकाओं का उल्लेखनीय योगदान रहा है। लघुकथा  के पुनरुत्थान काल में ‘सारिका’, ‘तारिका’, ‘शुभतारिका’ ये ऐसी पत्रिकाएँ थीं, जिन्होंने अन्य विधाओं के साथ-साथ लघुकथा को भी प्रमुखता से प्रकाशित किया। इनके पश्चात लखनऊ से ‘लघुकथा’,  गाज़ियाबाद से ‘मिनी युग’, इंदौर से ‘आघात’ और बाद में ‘लघुआघात’, पटना से ‘काशें’, ‘लकीरे’, और ‘दिशा’, रायबरेली से ‘साहित्यकार’ कुछ ऐसी पत्रिकाएँ रही हैं जो पुर्णतः लघुकथा को ही समर्पित थीं। इनमें से ‘लघुकथा’, ‘काशें’ और ‘लकीरे’ दो-दो तीन तीन अंकों के प्रकाशन के बाद बंद हो गईं। शेष सभी पत्रिकाएँ लम्बे समय तक निकलती रही। कहना न होगा, इन पत्रिकाओं ने जहाँ श्रेष्ठ लघुकथाएँ दी और लघुकथा को समझने हेतु अनेक अनेक स्तरीय लेख भी छापे बाद में इसी कड़ी में ‘लघुकथा डॉट कॉम' ई पत्रिका ‘संरचना’, और ‘दृष्टि’ पूर्णतः लघुकथा को समर्पित हैं। इसी कड़ी में पटियाला से योगराज प्रभाकर द्वारा सम्पादित ‘लघुकथा कलश’ भी अपना विशेष स्थान बनाने में सफल रही है। ‘लघुकथा कलश’ के अब तक चार महाविशेषांक आ चुके हैं। हर अंक की अपनी एक अलग विशेषता रही है, किन्तु इसका चौथा अंक (जुलाई- दिसम्बर 2019) 360 पृष्ठों में लघुकथा के क्षेत्र में अपनी अति विशेष उपस्थिति दर्ज करवा रहा है, क्योंकि यह अंक ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ है, जिसके संपादक योगराज प्रभाकर और उपसंपादक रवि प्रभाकर हैं। यह अंक इसलिए भी महत्वपूर्ण बन गया है कि रचना प्रक्रिया पर केन्द्रित किसी भी पत्रिका का पहला विशेषांक है, जिसमें 126 लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ-साथ लेखक द्वारा उनकी रचना प्रक्रिया को भी बताया गया है। यहाँ यह जान लेना बहुत जरूरी है, कि रचना प्रक्रिया क्या है? मेरी दृष्टि में लेखक के भीतर लघुकथा के बीजारोपण से लेकर उसके पुष्पित पल्लवित होने तक प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से चलने वाली प्रक्रिया को रचना प्रक्रिया कहते हैं। 126 लघुकथाकारों के अतिरिक्त ‘जसबीर चावला’ , ‘प्रताप सिंह सोढ़ी’, ‘रूप देवगुण’ और ‘हरभजन खेमकरनी’ की पाँच-पाँच लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया को भी प्रकाशित किया है। यूँ तो प्रायः सभी लेखकों ने अपनी अपनी तरह से अपनी लघुकथाओं की रचना प्रक्रिया को लिखा है किन्तु उनमें से ‘डॉ. सतीशराज पुष्करणा की महान व्यक्ति एवं मन के साँप’ , ‘सुकेश साहनी स्कूल, तोता एवं विजेता’, ‘राधे श्याम भारतीय की मुआवज़ा एवं सम्मान’, ‘रवि प्रभाकर की कुकनूस’, ‘एकदेव अधिकारी की उत्सव एवं भूकंप’, ‘ध्रुव कुमार की मोल-भाव एवं फर्क’, ‘निरंजन बोहा की ताली की गूँज एवं शीशा’ जिनको योगराज प्रभाकर ने पंजाबी से अनुवाद करने का सद्प्रयास किया है, ‘कमल चोपड़ा की मलबे के ऊपर एवं इतनी दूर’, ‘नीरज शर्मा ‘सुधांशु’ की खरीदी हुई औरत एवं दबे पाँव’, ‘मधुदीप की नज़दीक,बहुत नज़दीक एवं यह बात और है_’, ‘योगराज प्रभाकर की फक्कड़ उवाच एवं तापमान’ ‘माधव नागदा की रईस आदमी एवं कुणसी जात बताऊँ’, ‘रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ऊँचाई एवं ख़ुशबू’  इत्यादि की रचना प्रक्रियाओं से युवा पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती हैं, इनके अतिरिक्त ‘महेन्द्र कुमार’, ‘मधु जैन’, ‘सीमा जैन,’ ‘आशीष दलाल’, ‘कुमार संभव जोशी’, ‘खेमकरण सोमान’, ‘मिन्नी मिश्रा’, ‘मेघा राठी’, ‘पूनम डोगरा’, ‘सोमा सुर’, ‘सविता इंद्र गुप्ता’, इत्यादि लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया भी इस अंक में विशेष स्थान प्राप्त करती हुई प्रतीत होती हैं।

इनके अलावा अनेक लेखक ऐसे भी हैं जिन्होंने वस्तुतः रचना प्रक्रिया को ठीक से समझा ही नहीं, कुछ लोगों की रचना प्रक्रिया वास्तविकता के स्थान पर बनावटी पन अधिक झलकता है। अच्छे लघुकथाकारों की रचनाप्रक्रिया से नयी पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती है। इसके अतिरिक्त ‘सगरमाथा की गोद से’ (नेपाली लघुकथाएँ) के स्तम्भ में 8 लेखकों की रचनाएं प्रकाशित की गयी हैं, जिनसे नेपाली भाषा में लिखी जा रही लघुकथाओं के विषय में बहुत कुछ जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त 6 पुस्तकों की क्रमशः प्रो. बी.एल .आच्छा. द्वारा लिखित; प्रताप सिंह सोढ़ी की पुस्तक 'मेरी प्रिय लघुकथाएँ', अंतरा करवड़े द्वारा लिखित डॉ. चंद्रा सायता की पुस्तक: 'माटी कहे कुम्हार से', रजनीश दीक्षित द्वारा लिखित आशीष दलाल के लघुकथा संग्रह 'गुलाबी छाया नीले रंग', कल्पना भट्ट द्वारा लिखित डॉ रामकुमार घोटड़, डॉ.लता अग्रवाल की पुस्तक: 'किन्नर समाज की लघुकथाएँ', बी.एल.आच्छा द्वारा लिखित मुरलीधर वैष्णव की लघुकथा पुस्तक 'कितना कारावास' और रवि प्रभाकर द्वारा लिखित मार्टिन जॉन की पुस्तक 'सब खैरियत है (लघुकथा संग्रह)' की समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है, जिन्हें पढ़कर सम्बंधित पुस्तकों का अवलोकन करने को मन होता है। इसके अतिरिक्त लघुकथा कलश तृतीय महाविशेषांक की समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है। इनमें डॉ. ध्रुव कुमार, और डॉ. नीरज शर्मा ‘सुधांशु’ की समीक्षाओं को विशेष रूप से प्रकाशित किया गया है। इनके अलावा ‘मृणाल आशुतोष’, ‘कल्पना भट्ट’, ‘दिव्या राकेश शर्मा’, ‘लाजपत राय गर्ग’  को समीक्षा प्रतियोगिता में क्रमशः प्रथम द्वितीय और तृतीय 1 और 2 समीक्षाओं का भी प्रकाशन किया गया है। यह सभी समीक्षाएं तृतीय महाविशेषांक के साथ पूरा-पूरा न्याय करती प्रतीत होती हैं और इन सब से ऊपर जो विशेष रूप से चर्चा के योग्य है वो है ‘ दिल दिआँ गल्लाँ...’ शीर्षक से प्रकाशित योगराज प्रभाकर का सम्पादकीय जिसमें उन्होंने रचना प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए लिखा है। वस्तुतः रचना प्रक्रिया अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति का लम्बा सफ़र है। रचना प्रक्रिया रचनात्मक अनुभूति की प्रक्रिया है, अतः इसके साहित्यिक महत्त्व को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त सम्पादकीय में रचना प्रक्रिया से जुडी अनेक ऐसी बातों की चर्चा है, जो नयी पीढ़ी का मार्गदर्शन कर सकती है। आखरी पृष्ठ पर योगराज प्रभाकर द्वारा काव्यात्मक समीक्षा भी बहुत प्रभावशाली बन पड़ी है।

चार सो पचास रुपये मूल्य के इस अंक का अपना एक ऐतिहासिक महत्त्व बन गया है। जिसे विस्मृत नहीं किया जा सकता। अपनी इन तमाम विशेषताओं के कारण यह अंक प्रत्येक लघुकथाकार के लिए, संग्रहनीय बन गया है।
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कल्पना भट्ट
श्री.द्वारकाधीश मंदिर, चौक बाज़ार,  
भोपाल - 462001, 
मो. 9424473377

रविवार, 17 नवंबर 2019

लघुकथा वीडियो : चुप | लेखक: रामकुमार आत्रेय | स्वर: आयाम मेहता

आदरणीय रामकुमार आत्रेय 29 सितम्बर 2019 को अपना शरीर त्याग गये थे।  उन्हें श्रद्धांजलि स्वरुप उनके बहुचर्चित लघुकथा संग्रह 'बिन शीशों का चश्मा' में से एक लघुकथा 'चुप'