प्रतीक्षा की घड़ी तब खत्म हुई जब हमारे पोस्टमैन साहिब ने ‘लघुकथा कलश का चौथा महाविशेषांक’ मेरे हाथ में थमाया। प्लास्टिक कवर की डबल पैकिंग में लिपटी हुई इस पत्रिका के आकर्षक आवरण ने कोतुहल जगाया। हरे और पीले रंग के इस पृष्ट पर एक फूल बना है जिसकी पंखुड़ियाँ चहुँ ओर उडती नज़र आ रही हैं। अपनी जिज्ञासा को शांत करने हेतु इस फूल की जानकारी एकत्रित करने हेतु गूगल की सहायता ली। इस फूल को सिंहपर्णी कुकरौंधा कहा जाता है, इसे डेंडिलियन(Dandelion) भी कहते हैं।Dandelion एक फ्रैंच शब्दावली Dand de lion है जिसका अर्थ है शेर के दांत और यह नाम इस फूल की पत्तियों के नुकीले आकार के कारण दिया गया है। इसी खोज में इसी तरह के एक और फूल की जानकारी मिली ’शिरीष का फूल’ जिस पर हिन्दी साहित्य के एक महान हस्ताक्षर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का एक बहुत ही सुंदर ललित निबंध पढ़ने को मिला, जिसमें उन्होंने शिरीष के फूल की तुलना एक ऐसे अवधूत (अनासक्त योगी) से की है जो ग्रीष्म की भीषण तपन सह कर भी खिला रहता है। दोनों ही फूलों की पंखुड़ियाँ बेहद हल्की होती हैं परन्तु दोनों ही अपना-अपना महत्त्व रखते हैं। जहाँ एक तरफ सिंहपर्णी बारहमासी खरपतवार है, जिसकी जड़ें मांसल पर मिटटी में गहराई तक पहुँच जाती है। यह फूल नदी किनारे, तालाब किनारे, बंजर वाली जगहों पर और घर के गमलो में भी उगाया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर शिरीष का पेड़ होता है जिसके फूल तो हलके होते हैं, परन्तु इसका फल बहुत कठोर होता है। लघुकथा लेखन और उसकी रचना प्रक्रिया के लिए इस प्रतीकात्मक आवरण को देखकर इस पत्रिका के संपादक योगराज प्रभाकर की सोच, लघुकथा विधा के लिए उनकी चिंता और जीवन संघर्ष को लेकर उनके चिंतन को नमन करने का मन करता है।अब क्योंकि मैं यहाँ ‘लघुकथा कलश’ के चौथे अंक की बात कर रही हूँ सो इस क्रम को आगे बढाते हुए मैं यह कहना चाहूँगी कि हिन्दी लघुकथा के विकास में पत्र-पत्रिकाओं का उल्लेखनीय योगदान रहा है। लघुकथा के पुनरुत्थान काल में ‘सारिका’, ‘तारिका’, ‘शुभतारिका’ ये ऐसी पत्रिकाएँ थीं, जिन्होंने अन्य विधाओं के साथ-साथ लघुकथा को भी प्रमुखता से प्रकाशित किया। इनके पश्चात लखनऊ से ‘लघुकथा’, गाज़ियाबाद से ‘मिनी युग’, इंदौर से ‘आघात’ और बाद में ‘लघुआघात’, पटना से ‘काशें’, ‘लकीरे’, और ‘दिशा’, रायबरेली से ‘साहित्यकार’ कुछ ऐसी पत्रिकाएँ रही हैं जो पुर्णतः लघुकथा को ही समर्पित थीं। इनमें से ‘लघुकथा’, ‘काशें’ और ‘लकीरे’ दो-दो तीन तीन अंकों के प्रकाशन के बाद बंद हो गईं। शेष सभी पत्रिकाएँ लम्बे समय तक निकलती रही। कहना न होगा, इन पत्रिकाओं ने जहाँ श्रेष्ठ लघुकथाएँ दी और लघुकथा को समझने हेतु अनेक अनेक स्तरीय लेख भी छापे बाद में इसी कड़ी में ‘लघुकथा डॉट कॉम' ई पत्रिका ‘संरचना’, और ‘दृष्टि’ पूर्णतः लघुकथा को समर्पित हैं। इसी कड़ी में पटियाला से योगराज प्रभाकर द्वारा सम्पादित ‘लघुकथा कलश’ भी अपना विशेष स्थान बनाने में सफल रही है। ‘लघुकथा कलश’ के अब तक चार महाविशेषांक आ चुके हैं। हर अंक की अपनी एक अलग विशेषता रही है, किन्तु इसका चौथा अंक (जुलाई- दिसम्बर 2019) 360 पृष्ठों में लघुकथा के क्षेत्र में अपनी अति विशेष उपस्थिति दर्ज करवा रहा है, क्योंकि यह अंक ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ है, जिसके संपादक योगराज प्रभाकर और उपसंपादक रवि प्रभाकर हैं। यह अंक इसलिए भी महत्वपूर्ण बन गया है कि रचना प्रक्रिया पर केन्द्रित किसी भी पत्रिका का पहला विशेषांक है, जिसमें 126 लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ-साथ लेखक द्वारा उनकी रचना प्रक्रिया को भी बताया गया है। यहाँ यह जान लेना बहुत जरूरी है, कि रचना प्रक्रिया क्या है? मेरी दृष्टि में लेखक के भीतर लघुकथा के बीजारोपण से लेकर उसके पुष्पित पल्लवित होने तक प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से चलने वाली प्रक्रिया को रचना प्रक्रिया कहते हैं। 126 लघुकथाकारों के अतिरिक्त ‘जसबीर चावला’ , ‘प्रताप सिंह सोढ़ी’, ‘रूप देवगुण’ और ‘हरभजन खेमकरनी’ की पाँच-पाँच लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया को भी प्रकाशित किया है। यूँ तो प्रायः सभी लेखकों ने अपनी अपनी तरह से अपनी लघुकथाओं की रचना प्रक्रिया को लिखा है किन्तु उनमें से ‘डॉ. सतीशराज पुष्करणा की महान व्यक्ति एवं मन के साँप’ , ‘सुकेश साहनी स्कूल, तोता एवं विजेता’, ‘राधे श्याम भारतीय की मुआवज़ा एवं सम्मान’, ‘रवि प्रभाकर की कुकनूस’, ‘एकदेव अधिकारी की उत्सव एवं भूकंप’, ‘ध्रुव कुमार की मोल-भाव एवं फर्क’, ‘निरंजन बोहा की ताली की गूँज एवं शीशा’ जिनको योगराज प्रभाकर ने पंजाबी से अनुवाद करने का सद्प्रयास किया है, ‘कमल चोपड़ा की मलबे के ऊपर एवं इतनी दूर’, ‘नीरज शर्मा ‘सुधांशु’ की खरीदी हुई औरत एवं दबे पाँव’, ‘मधुदीप की नज़दीक,बहुत नज़दीक एवं यह बात और है_’, ‘योगराज प्रभाकर की फक्कड़ उवाच एवं तापमान’ ‘माधव नागदा की रईस आदमी एवं कुणसी जात बताऊँ’, ‘रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ऊँचाई एवं ख़ुशबू’ इत्यादि की रचना प्रक्रियाओं से युवा पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती हैं, इनके अतिरिक्त ‘महेन्द्र कुमार’, ‘मधु जैन’, ‘सीमा जैन,’ ‘आशीष दलाल’, ‘कुमार संभव जोशी’, ‘खेमकरण सोमान’, ‘मिन्नी मिश्रा’, ‘मेघा राठी’, ‘पूनम डोगरा’, ‘सोमा सुर’, ‘सविता इंद्र गुप्ता’, इत्यादि लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ उनकी रचना प्रक्रिया भी इस अंक में विशेष स्थान प्राप्त करती हुई प्रतीत होती हैं।
इनके अलावा अनेक लेखक ऐसे भी हैं जिन्होंने वस्तुतः रचना प्रक्रिया को ठीक से समझा ही नहीं, कुछ लोगों की रचना प्रक्रिया वास्तविकता के स्थान पर बनावटी पन अधिक झलकता है। अच्छे लघुकथाकारों की रचनाप्रक्रिया से नयी पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती है। इसके अतिरिक्त ‘सगरमाथा की गोद से’ (नेपाली लघुकथाएँ) के स्तम्भ में 8 लेखकों की रचनाएं प्रकाशित की गयी हैं, जिनसे नेपाली भाषा में लिखी जा रही लघुकथाओं के विषय में बहुत कुछ जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त 6 पुस्तकों की क्रमशः प्रो. बी.एल .आच्छा. द्वारा लिखित; प्रताप सिंह सोढ़ी की पुस्तक 'मेरी प्रिय लघुकथाएँ', अंतरा करवड़े द्वारा लिखित डॉ. चंद्रा सायता की पुस्तक: 'माटी कहे कुम्हार से', रजनीश दीक्षित द्वारा लिखित आशीष दलाल के लघुकथा संग्रह 'गुलाबी छाया नीले रंग', कल्पना भट्ट द्वारा लिखित डॉ रामकुमार घोटड़, डॉ.लता अग्रवाल की पुस्तक: 'किन्नर समाज की लघुकथाएँ', बी.एल.आच्छा द्वारा लिखित मुरलीधर वैष्णव की लघुकथा पुस्तक 'कितना कारावास' और रवि प्रभाकर द्वारा लिखित मार्टिन जॉन की पुस्तक 'सब खैरियत है (लघुकथा संग्रह)' की समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है, जिन्हें पढ़कर सम्बंधित पुस्तकों का अवलोकन करने को मन होता है। इसके अतिरिक्त लघुकथा कलश तृतीय महाविशेषांक की समीक्षाओं का प्रकाशन हुआ है। इनमें डॉ. ध्रुव कुमार, और डॉ. नीरज शर्मा ‘सुधांशु’ की समीक्षाओं को विशेष रूप से प्रकाशित किया गया है। इनके अलावा ‘मृणाल आशुतोष’, ‘कल्पना भट्ट’, ‘दिव्या राकेश शर्मा’, ‘लाजपत राय गर्ग’ को समीक्षा प्रतियोगिता में क्रमशः प्रथम द्वितीय और तृतीय 1 और 2 समीक्षाओं का भी प्रकाशन किया गया है। यह सभी समीक्षाएं तृतीय महाविशेषांक के साथ पूरा-पूरा न्याय करती प्रतीत होती हैं और इन सब से ऊपर जो विशेष रूप से चर्चा के योग्य है वो है ‘ दिल दिआँ गल्लाँ...’ शीर्षक से प्रकाशित योगराज प्रभाकर का सम्पादकीय जिसमें उन्होंने रचना प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए लिखा है। वस्तुतः रचना प्रक्रिया अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति का लम्बा सफ़र है। रचना प्रक्रिया रचनात्मक अनुभूति की प्रक्रिया है, अतः इसके साहित्यिक महत्त्व को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त सम्पादकीय में रचना प्रक्रिया से जुडी अनेक ऐसी बातों की चर्चा है, जो नयी पीढ़ी का मार्गदर्शन कर सकती है। आखरी पृष्ठ पर योगराज प्रभाकर द्वारा काव्यात्मक समीक्षा भी बहुत प्रभावशाली बन पड़ी है।
चार सो पचास रुपये मूल्य के इस अंक का अपना एक ऐतिहासिक महत्त्व बन गया है। जिसे विस्मृत नहीं किया जा सकता। अपनी इन तमाम विशेषताओं के कारण यह अंक प्रत्येक लघुकथाकार के लिए, संग्रहनीय बन गया है।
-0-
कल्पना भट्ट
श्री.द्वारकाधीश मंदिर, चौक बाज़ार,
भोपाल - 462001,
मो. 9424473377