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रविवार, 20 अक्टूबर 2019

मेरी लघुकथा दंगे की जड़ आज के जनवाणी में



लघुकथा: दंगे की जड़ / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आखिर उस आतंकवादी को पकड़ ही लिया गया, जिसने दूसरे धर्म का होकर भी रावण दहन के दिन रावण को आग लगा दी थी। उस कृत्य के कुछ ही घंटो बाद पूरे शहर में दंगे भड़क उठे थे।

आतंकवादी के पकड़ा जाने का पता चलते ही पुलिस स्टेशन में कुछ राजनीतिक दलों के नेता अपने दल-बल सहित आ गये, एक कह रहा था कि उस आतंकवादी को हमारे हवाले करो, हम उसे जनता को सौंप कर सज़ा देंगे तो दूसरा उसे न्यायालय द्वारा कड़ी सजा देने पक्षधर था, वहीँ तीसरा उस आतंकवादी से बात करने को उत्सुक था।

शहर के दंगे ख़त्म होने की स्थिति में थे, लेकिन राजनीतिक दलों के यह रुख देखकर पुलिस ने फिर से दंगे फैलने के डर से न्यायालय द्वारा उस आतंकवादी को दूसरे शहर में भेजने का आदेश करवा दिया और उसके मुंह पर कपड़ा बाँध, छिपा कर बाहर निकालने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि एक राजनीतिक दल के लोगों ने उन्हें पकड़ लिया।

उनका नेता भागता हुआ आया, और उस आतंकवादी से चिल्ला कर पूछा, "क्यों बे! रावण तूने ही जलाया था?" कहते हुए उसने उसके मुंह से कपड़ा हटा दिया।

कपड़ा हटते ही उसने देखा, लगभग बारह-तेरह वर्ष का एक लड़का उसके समक्ष था, जो चेहरे से ही मंदबुद्धि लग रहा था। वह लड़का आँखें और मुंह टेड़े कर अपने चेहरे के सामने हाथ की अंगुलियाँ घुमाते हुए हकलाते हुए बोला,
"हाँ...! मैनें जलाया है... रावन को, क्यों...क्या मैं... राम नहीं बन सकता?"
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बुधवार, 16 अक्टूबर 2019

‘लघुकथा कलश’ के पांचवें अंक (जनवरी-जून 2020) की सूचना



श्री Yograj Prabhakar सर की फेसबुक वॉल से


आदरणीय साथियो
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‘लघुकथा कलश’ का पांचवां अंक (जनवरी-जून 2020) ‘राष्ट्रीय एकता महाविशेषांक’ होगा जिस हेतु रचनाएँ आमंत्रित हैं. रचनाकारों से अनुरोध है कि वे प्रदत्त विषय पर अपनी 3 चुनिन्दा लघुकथाएँ प्रेषित करें. लघुकथा के इलावा शोधात्मक आलेख व साक्षात्कार आदि का भी स्वागत है.
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- केवल ई-मेल द्वारा भेजी गई टंकित रचनाएँ ही स्वीकार्य होंगी.
- रचनाएँ केवल यूनिकोड/मंगल फॉण्ट में ही टंकित करके भेजें.
- पीडीएफ़ अथवा चित्र रूप में भेजी गई रचनाओं पर विचार नहीं किया 
जाएगा.
- अप्रकाशित/अप्रसारित रचनाओं को प्राथमिकता दी जाएगी.
- सोशल मीडिया/ब्लॉग/वेबसाईट पर आ चुकी रचनाएँ प्रकाशित मानी 
जाएँगी.
- रचना के अंत में उसके मौलिक/अप्रकाशित होने सम्बन्धी अवश्य लिखें.
- रचना के अंत में अपना पूरा डाक पता (पिनकोड/फ़ोन नम्बर सहित) 
अवश्य लिखे.
- जो साथी पहली बार रचना भेज रहे हैं वे रचना के साथ अपना छायाचित्र 
भी अवश्य मेल करे.
- रचनाएँ भेजने की अंतिम तिथि 15 नवम्बर 2019 है.
- रचनाएँ yrprabhakar@gmail.com पर भेजी जा सकती हैं.
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विनीत
योगराज प्रभाकर
संपादक: लघुकथा कलश.
दिनांक: 16 अक्टूबर 2019

ज्योत्सना सिंह की एक लघुकथा : चादर

शौक़ उन्हें भी था अब ज़रूरी तो नहीं कि शौक़ की फ़ेहरिस्त लंबी-चौड़ी या महँगी सस्ती हो वह तो बस होता है।

सो उन्हें भी था ऐसा ही एक छोटा सा शौक़! 

कह भी दिया था उसे उन्होंने बड़े ही मज़ाक़िया लहज़े अपने मियाँ से।

अब जब वह अपनी शरीक-ए-हयात की इत्ती सी चाहत से वाक़िफ़ हुए तब उनसे तो कुछ न बोले पर खुद से ही वादा कर उनकी मंशा पर अपनी क़बूल नामे की मोहर लगा ली।

बस फिर क्या जब साझे परिवार की हांडी पका और दुल्हन बेगम के सारे फ़र्ज़ निभा वह सेज़ पर आती और सारे दिन के उतार-चढ़ाव के बातों के बताशे वह मियाँ के पहलू में बैठ बायाँ करती मियाँ भी उनकी मेहंदी लगी हथेलियों से खेलते हुए इस सब का लुत्फ़ उठाते।

जब वह नींद की आग़ोश में समा जाती तब वह उनकी इकलौती चाहत को बड़े आशिक़ाना अंदाज़ा में अंजाम देते हुए उन्हें उनकी चादर उढ़ा देते।

बस इतनी ही सी ही तो मंशा थी उनकी कि जब वह अपनी सेज़ पर आराम फ़रमाए तो कोई उन्हें चादर उढ़ा दे उन्हें खुद ले कर न ओढ़ना पड़े इसमें उन्हें बड़ी मल्लिकाओं वाले एहसास होते थे।

 एक बात और थी बिना ओढ़े वह नींद का असल मज़ा भी चख न पाती थी।

बीतते वक्त के साथ कई बार ऐसा भी हुआ की  बेगम के अरमगाह में आने से पहले ही मियाँ की नज़रें उनके इंतज़ार में थक कर सो रहीं।

मगरचे न जाने कौन उन्हें सख़्त से सख़्त नींद के पहरे से जगा देता और फिर वह उनकी चाहत को दिया अपना ख़ामोश वादा मुकम्मल कर देते।

इतने सालों में समझ तो वह भी गईं थी कि मियाँ उनकी नादान सी ख़्वाहिश को दिलो जान से निभाते हैं किंतु न वह कुछ कहती न वह कुछ बोले थे।

मेहंदी का रंग अब हँथेलियो को राचाने से ज़्यादा ज़ुल्फ़ों की ज़रूरत बन चुका था।

पर मियाँ बीबी से वह अम्मी, अब्बा का सफ़र न तय कर पाए तो ज़िंदगी का स्वाद बे मज़ा हुआ जाता था।

कमी भी बीवी में थी सभी की ज़ोर आज़माइश से पाँच तो जायज़ हैं का कलाम मियाँ को भी याद हो आया और घर के चिराग़ के लिए वह दूसरा निक़ाह पढ़ आए ।

सगी छोटी बहन उनकी सौत बन कर आई जिसमें रज़ामंदी उनकी भी थी।

पर धीरे-धीरे मल्लिका होने का एहसास उनका उनकी आरामगाह से जाता रहा पर बड़ी अम्मी होने का रुतबा उनके इक़बाल को बुलंद करता था और वह सुकून उनके हर सुकून से ऊपर था।

आज कुछ हरारत सी थी उनको सर्दी ने भी जकड़ रखा था वह सोने की फ़िराक़ में करवटें बदल रहीं थी कि किसी ने आकर उन्हें चादर उढ़ा दी वह चौंक के उठने को हुईं कि कोमल हाथों ने उनके सर पर अपना हाथ रख कहा।

“बड़ी अम्मी! आप की तबियत नासाज़ है आप आराम फ़रमाओ मैं हूँ आपके साथ।”

दबे सैलाब से दो गर्म बूँदे गिरा वह सुकून की गहरी नींद सो रहीं 
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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019

"हिंदी रक्षक मंच" और "हिंदी की बात" पर मेरी एक लघुकथा : "मानव-मूल्य"




मानव-मूल्य / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।
उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, “यह क्या बनाया है?”
चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, “इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख – पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?”
आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।
“ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?” मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।
चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, “क्यों…? जेब किसलिए?”
मित्र ने उत्तर दिया,
“ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं…”


Sources:
1. हिंदी रक्षक मंच 
http://www.hindirakshak.com/human-value/

सोमवार, 14 अक्टूबर 2019

द पुरवाई में मेरी दो लघुकथाएँ

द पुरवाई में मेरी दो लघुकथाएँ रावण का चेहरा तथा दंगे की जड़ प्रकाशित हुई हैं। 

द पुरवाई पर इन्हें यहाँ क्लिक/टैप कर पढा जा सकता है। 







ये दोनों लघुकथाएं लघुकथा दुनिया पर भी उपलब्ध हैं, निम्न लिंक पर क्लिक / टैप कर यहाँ भी पढ़ सकते हैं। 
दशहरा विशेष दो लघुकथाएं | डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 13 अक्टूबर 2019

मातृभारती पर मेरी एक लघुकथा "खजाना" का अंग्रेजी अनुवाद

Laghukatha: Treasure
लेखक एवं अनुवादक: डॉ०  चंद्रेश कुमार छतलानी

In the evening after the father's funeral, the two sons were sitting in the courtyard outside the house with their relatives and neighbors. At this point, the wife of the elder son came and she said something to her husband's ear. The elder son gestured towards his younger brother to come in, looking at him with meaningful eyes and stood and folded his hands to the people sitting there and said, "Come in five minutes now".

Then both brothers went inside. As soon as they went inside, the elder brother whispered and said to the younger, "Look in the box, otherwise someone will come to assert it." The younger also nodded in agreement.

Going to the father's room, the elder brother's wife said to her husband, "Take out the box, I close the door." And she moved towards the door.

Both brothers bent under the bed and pulled out the box kept there. The elder brother's wife took out a key from her pocket and gave it to her husband.

As soon as the box opened, the three peeped into the box with great curiosity. There were forty-fifty books kept inside. All three suddenly did not believe. The elder brother's wife said in a frustrated tone, "I was quite sure that when our father never took the money even for his medicine, then the money and jewels of his savings would be kept in this box, but nothing is in its..."

At that time the younger brother saw that in the corner of the box a cloth bag was placed near the books, he took out that bag. It had a few rupees and a paper with it. Curiosity struck the faces of all three as soon as they saw the money. The younger brother counted the money and read the paper.
It was written in that,
"My funeral's expenses"
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मातृभारती पर पढ़ें 
Source:
https://www.matrubharti.com/book/read/content/19873948/treasure

Read More:
लघुकथा "खजाना" को हिंदी में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक/टैप  करें। 

मेरी एक लघुकथा हिन्दीभाषा.कॉम में

दंगे की जड़ / डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी 



आखिर उस आतंकवादी को पकड़ ही लिया गया,जिसने दूसरे धर्म का होकर भी रावण दहन के दिन रावण को आग लगा दी थी। उस कृत्य के कुछ ही घंटों बाद पूरे शहर में दंगे भड़क उठे थे।

आतंकवादी के पकड़ा जाने का पता चलते ही पुलिस स्टेशन में कुछ राजनीतिक दलों के नेता अपने दल-बल सहित आ गये,एक कह रहा था कि उस आतंकवादी को हमारे हवाले करो,हम उसे जनता को सौंप कर सज़ा देंगे तो दूसरा उसे न्यायालय द्वारा कड़ी सजा देने पक्षधर था,वहीं तीसरा उस आतंकवादी से बात करने को उत्सुक था।

शहर के दंगे ख़त्म होने की स्थिति में थे,लेकिन राजनीतिक दलों के यह रुख देखकर पुलिस ने फिर से दंगे फैलने के डर से न्यायालय द्वारा उस आतंकवादी को दूसरे शहर में भेजने का आदेश करवा दियाl उसके मुँह पर कपड़ा बाँध,छिपा कर बाहर निकालने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि,एक राजनीतिक दल के लोगों ने उन्हें पकड़ लिया।

उनका नेता भागता हुआ आया,और उस आतंकवादी से चिल्ला कर पूछा,-“क्यों बे! रावण तूने ही जलाया था ?” कहते हुए उसने उसके मुँह से कपड़ा हटा दिया। कपड़ा हटते ही उसने देखा लगभग बारह-तेरह वर्ष का एक लड़का खड़ा था,जो चेहरे से ही मंदबुद्धि लग रहा था। और वह लड़का आँखें और मुँह टेढ़े कर के चेहरे के सामने हाथ की अंगुलियाँ घुमाते हुए हकलाते हुए बोला,-
“हाँ…! मैंने जलाया है…रावन को,क्यों…क्या मैं…राम नहीं बन सकता ?
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Source:
http://hindibhashaa.com/%E0%A4%A6%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%9C%E0%A5%9C/

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लघुकथा 'दंगे की जड़' पर रजनीश दीक्षित जी की समीक्षा