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गुरुवार, 19 सितंबर 2019

पूनम सिंह की दो लघुकथाएं

1)

सोन चिरैया / पूनम सिंह

"मास्टर जी आज से सोन चिरैया हमारे साथ ही पढ़ेगी" मीरा ने सोन चिरैया का हाथ पकड़े कक्षा में प्रवेश करते  ही मास्टर जी को कहा..। मास्टर जी ने आश्चर्य भरी नजरों से अपने चश्मे के भीतर से झाकते हुए  बोले..  "अरे.. ये यहाँ नहीं पढ़ सकती और तुम इसका हाथ  काहे  पकड़ी हो.. छोड़ो..।"  मास्टर जी ने थोड़ा झल्लाते हुए कहा ..। "यह तो भिखुआ की बेटी है ना इसका बाप तुम्हारे यहाँ मजूरी करता है।" "हाँ मास्टर जी वही है और आज से ये भी यही पढ़ेगी, वो इसलिए कि अगर भीखुआ के हाथ की मजदूरी का अन्न आप और मै खा सकते हैं, तो ये यहाँ पढ़ काहे नहीं सकती ??।"  मीरा ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा..।  मास्टर जी सोच में पड़ गए कि "आखिर इस मुसीबत से छुटकारा कैसे पाएँ ..। ..अगर हमने इस निम्न जाति की कन्या को स्थान दे दिया तो ऊपर में क्या जवाब देंगे ।"  तभी आगामी चुनाव के नेताओं का दल आ पहुँचा । मास्टर जी के पास बैठ  गुफ्तगू शुरू हो गई । उनके प्रस्थान के पश्चात दूसरा दल आया उसी तरह घंटों न जाने क्या  क्या बाते हुई !। ..बस इतना ही पता चला कि सोन चिरैया को स्कूल में दाखिला मिल गया ।

15 अगस्त का दिन था। स्कूल में सभी नेता अपने-अपने दल के साथ पहुँचे ।तभी उनमें से एक दल के नेता ने उठकर कहा.., "झँडा फहराने का समय हो गया है.. अब हम सबको स्टेज पर चलकर इस यादगार पल का हिस्सा बनना चाहिए ।" एक-एक करके सभी दल के मुख्य नेता ऊपर स्टेज पर पहुँचे । तभी उनमें से एक नेता ने सोन चिरैया को ऊपर स्टेज पर बुलाया और कहा.., "हमारे भावी देश के भविष्य सोन चिरैया झँडा फहराएगी .., " और बाकी दूसरे नेता की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किए बिना ही उन्होंने उसे  झँडा फहराने का आदेश दे दिया। बाकी सब के सब आवाक होकर देखते ही रह गए।

मीरा ने भागकर सोन चिरैया का हाथ पकड़कर ऊपर हवा में लहराया और कहा "तुम्हारी जीत हुई सोन चिरैया ..।"
उधर नेताओं के बीच में काना फूसी शुरू हो गई । तभी मास्टर जी ने आकर एक नेता को बधाई देते हुए  कहा.. "बधाई हो नेता जी इस बार तो आपने चुनाव में जीत की मोहर लगा दी ।"
तभी दूसरे दल के कुछ नेता एक दूसरों को यही कहते हुए पाए गए कि.. " हमने तो पहले ही कहा था समझदारी से काम लीजिए,  हर बार पैसे से ही बात नहीं बनती..। देखिए इस बार भी फिर से उसी चरवाहा छाप ने चुनाव जीतने का ठप्पा लगा लिया। ऊपर से महिला आयोग से भी सजग रहने की आवश्यकता थी आपने देखा नहीं उस सोन चिरैया को ...?।"  "तो अब क्या करें.. कोई उपाय बताओ ..!" "अब क्या बताना..जब चिड़िया चुग गई खेत...!"


2)

मैं जुलाहा / पूनम सिंह

ठक... ठक... ठक.... ठक "अरे कौन है" इतनी सुबह सुबह झल्लाते हुए रामदास ने किवाड़ खोला । 
"मैं जुलाहा" अपने सामने एक मध्यम कद वाला व्यक्ति सफेद कुर्ता पायजामा पहने लंबी सफेद दाढ़ी, तथा एक कंधे पर एक बड़ा सा थैला और दूसरे हाथ मैं एक बड़ा सा चरखा लटकाए हुए शांत भाव ओढ़े खड़ा था।

"क्या बात है बाबा किस चीज की आवश्यकता है।"  सेठ रामदास ने पूछा "मैं जुलाहा हूं और अपने चरखे पर लोगों के पसंद के मुताबिक कपड़े बुनता हूं, आप भी बनवा लीजिए।" रामदास प्रत्युत्तर में कुछ कहने ही वाला था कि तभी रामदास की पत्नी शोभा वहां आ गई उसने बीच में ही टोकते हुए विनम्रता से पूछा "क्या चाहिए बाबा?" "बिटिया मैं जुलाहा हूं और लोगो के पसंद मुताबिक कपड़े बुनता हूं। आप भी बनवा लीजिए।" शोभा ने थोड़ा अचंभित शांत मुद्रा में पूछा,  "पर बाबा हम आपसे कपड़े क्यों बनवाएंगे?! ऐसी क्या खासियत है आपकी बुनाई में?!" जुलाहा बोला "मेरे बनाए हुए कपड़ों की सूत और रंगत की दूर दूर तक चर्चा है। एक बार अपने सेवा का मौका दीजिए, आपको निराश नहीं करूंगा।" जुलाहे ने विनम्रता से निवेदन किया शोभा मन ही मन में सोचने लगी आजकल के आधुनिक तकनीकी युग मे जब सुंदर अच्छे रंगत वाले परिधान कम दाम में मिल जाते हैं फिर भ..ला..।! जुलाहा शोभा के मन की बात समझ गया और उसने तुरंत ही कहा..! "चिंता ना करो बिटिया मैं बहुत सुंदर वस्त्र बनाउँगा कोई मोल भी ना लूंगा,. यह हमारा पुश्तैनी काम है और इस कला को सहेज कर रखना चाहता हूं। इसलिए घर घर घूमकर वस्त्र बनाता हूं। ज्यादा वक्त भी ना लगेगा अल्प समय में ही पूरा कर लूंगा।" शोभा कुछ बोल पाती की रामदास पीछे से बोला "अच्छा ठीक है शोभा.. बाबा के लिए दलान पर रहने की व्यवस्था करवा दो।" जुलाहे के मन को तसल्ली मिली शोभा ने तुरंत ही कुछ कारीगरों को बुलवाकर दलान पर एक छोटी सी छावनी बनवा दी और जुलाहे को विनय पूर्वक कार्य जल्दी समाप्त करने के लिए भी कह दिया। जुलाहा भी बहुत खुशी खुशी अदब से बोला "हाँ हाँ बिटिया तुम तनिक भी चिंता ना करो मैं जल्दी निपटा लूंगा।" 
जुलाहा अपने काम मे लग गया शोभा कुछ अंतराल में आकर बाबा से कुछ खाने पीने का भी आग्रह कर जाती। पर जुलाहा विनम्रता से मुस्कुराते हुए कहता "मेरे पास खाने का पूरा प्रबंध है बिटिया जब जरूरत होगी मैं स्वयं कह दूंगा।" जुलाहा शोभा के सरल आत्मीय व्यवहार को देखकर बड़ी प्रसन्नता होती और मन ही मन उसे ढेरों आशीर्वाद से नवाजता। शोभा का ४साल का बालक था जो दलान पर खेलने आता और  और जुलाहे के पास आकर पॉकेट से चॉकलेट निकाल अपने नन्हे हाथ आगे बढ़ा तोतली आवाज में पूछता "बाबा ताओगे..।" उसकी तोतली आवाज सुनकर जुलाहे का मन पुलकित हो उठता और उसकी ठोड़ी को पकड़ ठिठोली करते हुए कहता "नहीं राम लला आप खाओ हमे अभी भूख नहीं।, इतना पूछ कर राम लला खेलने में मस्त हो जाता। 
इसी तरह दो-तीन दिन बीत गए एक सुबह रामलला जुलाहे के पास आकर पूछता "बाबा मेले तपले बन गए तया..?! " " हां राम लला बन गए।" "दिथाओ..!" बालक बोला "हां हांअभी लो दिखाते हैं।" जुलाहे ने अपने थैले में से एक बड़ा ही सुंदर छोटा सा अचकन निकालकर बालक के हाथ में थमा दिया "यह देखो तुम्हारे लिए हमने सात रंगों वाली अचकन तैयार की है।" बालक अचकन देखते ही खुशी से उछल पड़ा और जुलाहे के सामने अपने नन्हे हाथ आगे बढ़ाते हुए कहता है "बाबा यह लो तौपी ताओ..!"  "नहीं राम लला आप खाओ हमें इसकी आवश्यकता नहीं जुलाहे ने कहा!" नहीं माँ तहती है.. कोई भी चीज उदाली नई लेनी तहिये..!। बालक के मुख से ऐसी दैविक शब्दों को सुन जुलाहे का मन प्रफुल्लित हो गया और सहजता पूर्वक बालक के हाथ से मीठा ले लिया और कहा "ठीक है रामलला लाओ दे दो।" तभी वहां शोभा भी आ गई उसने शालीनता से पूछा "बाबा क्या बाकी के परिधान भी तैयार हो गए?!.. "हाँ बिटिया आपका भी तैयार हो गया है। जुलाहे ने थैले में से एक सुंदर लाल और सफेद रंगों वाली साड़ी शोभा को पकड़ा दी।... थी तो दो रंगों वाली ही पर उस पर की गई कलाकारी रंगो का भराव देख शोभा हतप्रभ रह गई मन ही मन सोचने लगे उसने ऐसी रंगो वाली अनगिनत साड़ियां पहनी होगी पर इतनी आकर्षक सुंदर कलाकारी वाली कभी नहीं,.. उसने मन ही मन जुलाहे को नमन किया और अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहने लगी:-  "बाबा मैंने अपने अभी तक के जीवन काल में ऐसी रंगो वाली साड़ी बहुत पहनी पर इतनी सुंदर आकर्षक कलाकारी, वह भी सिर्फ दो रंगो में बनी कभी नही..।" मैं इसे सहेज कर रखूँगी।" "अरे नहीं बिटिया!" जुलाहे ने तुरंत ही बीच में टोकते हुए कहा-: "यह मेरे हाथों से बनी सूत एवं रंग से बनी साड़ी है।  "तुम इसे हर रोज भी धारण करोगी तभी इसका सूत और रंग ज्यों का त्यों रहेगा। यह सुन शोभा को और आश्चर्य हुआ और वह निशब्द हो गई। शोभा ने विनम्र भाव से कहा.. मैं यह साड़ी बिना मोल नहीं लूंगी आप कुछ भी अपनी स्वेच्छा से इसका मोल ले लीजिए।" पहले तो जुलाहे ने मना किया पर शोभा के आग्रह करने पर उसने कहा-: "ठीक है अगर तुम्हारी इतनी इच्छा है तो तुम अपने मंदिर में जो फूल चढ़ाती हो उसी में से दो फूल लाकर दे देना।" ऐसी अनूठी इच्छा सुन शोभा कुछ बोल पाती कि जुलाहे ने कहा-: "इससे ज्यादा की कोई इच्छा नहीं है बिटिया बस वही दे दो...!" शोभा दौड़कर मंदिर गई माँ के चरणों से दो फूल उठा लाई और बाबा को दे दिया। 
बाबा क्या मेरे पति के परिधान भी तैयार हो गए?!.. "नहीं बिटिया बस वह भी एक-दो दिन में तैयार हो जाएगा तैयार होते ही मैं तुम्हें स्वयं खबर कर दूंगा।"  ,"ठीक है बाबा" इतना कह कर शोभा घर के भीतर चली गई।
  तीन-चार दिन बीत गए पर जुलाहे की ओर से कोई खबर ना आई फिर वह स्वयं ही कौतूहल वश जानकारी के लिए जुलाहे के पास गई और पूछा "बाबा क्या अभी तक बने नहीं?!"
“नहीं बिटिया” इस बार जुलाहे के शब्दों में थोड़ी निराशा थी उसने पास रखा एक कुर्ता उठाया और शोभा को दिखाते हुए कहने लगा “बिटिया मैंने अपनी पूरी लगन से कुर्ता बनाने का पूर्ण प्रयास किया किंतु बुनाई में अच्छी पकड़ नहीं आ रही..!  शोभा ने वह कुर्ता अपने हाथों में लेते हुए एक नजर डाली तो उसने पाया उसमें कुछ सुंदर रंगों का भराव था और आकर्षक भी उतना ही था, पर बुनाई उतनी अच्छी ना होने के कारण थोड़ा अटपटा लग रहा था।अच्छा, उसने जिज्ञासा भरे लहजे में पूछा “अब और कितना वक्त लगेगा बाबा पूर्णतया निखरने में.."। “बिटिया लगता नहीं यह और अब मुझसे बन पाएगा तुम इसे मेरा तोहफा समझ कबूल कर लो।"
शोभा समझ गई तोहफा कहकर बाबा इसका मोल नहीं लेना चाहते और उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
"बिटिया अब मैं चलता हूं अभी मुझे आगे की यात्रा तय करनी है।".....

रामदास का नन्हा बालक - - अबोध मन सांसारिक मोह माया से अनभिज्ञ पूर्ण शुद्ध था। इसलिए जुलाहे ने उसे प्रकृति के सात रंगों वाले वस्त्र तैयार करके दिए।

शोभा - -  निश्छल, समर्पित आत्मीय भाव से अपने संसार के कर्म धर्म में लगी रहती थी। यही कारण था कि जुलाहे ने उसे शुद्ध पवित्र एवं प्रेम को परिभाषित करने वाली लाल और सफेद रंग का वस्त्र दिया।

रामदास - - प्रचुर धन का मालिक था। साथ ही धार्मिक एवं दानी भी था। किंतु धन संग्रह के मोह ने उसे आंशिक रूप से घेर रखा था। यही कारण था कि जुलाहे ने उसके लिए सुंदर रंगत वाला वस्त्र तैयार किया तो पर सांसारिक लिप्सा के कारण बुनाई उतनी सही ना हो पाई।

जुलाहा रूपी ईश्वर हमारे भीतर बैठा हमारे एक एक प्रक्रिया पर उसकी नजर है और वह हमारे कर्मों के अनुरूप हमारी आत्मा को वस्त्र पहना रहा है।
मुक्ति और भुक्ती दोनों इसी संसार में निहित है।

-
पूनम सिंह
एक कहानीकार, लघुकथाकार, कवित्रियी, समीक्षक हैं एवं साहित्य की सेवा में सतत संलग्न रहती हैं।
Email: ppoonam63kh@gmail.com

बुधवार, 18 सितंबर 2019

वेबदुनिया डॉट कॉम पर मेरी एक लघुकथा : मौकापरस्त मोहरे


मौकापरस्त मोहरे / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


वह तो रोज की तरह ही नींद से जागा था, लेकिन देखा कि उसके द्वारा रात में बिछाए गए शतरंज के सारे मोहरे सवेरे उजाला होते ही अपने आप चल रहे हैं। उन सभी की चालें भी बदल गई थीं। घोड़ा तिरछा चल रहा था, हाथी और ऊंट आपस में स्थान बदल रहे थे, वजीर रेंग रहा था, बादशाह ने प्यादे का मुखौटा लगा लिया था और प्यादे अलग-अलग वर्गों में बिखर रहे थे।

वह चिल्लाया, 'तुम सब मेरे मोहरे हो, ये बिसात मैंने बिछाई है, तुम मेरे अनुसार ही चलोगे।' लेकिन सारे के सारों मोहरों ने उसकी आवाज को अनसुना कर दिया। उसने शतरंज को समेटने के लिए हाथ बढ़ाया तो छू भी नहीं पाया।

वह हैरान था और इतने में शतरंज हवा में उड़ने लगा और उसके सिर के ऊपर चला गया। उसने ऊपर देखा तो शतरंज के पीछे की तरफ लिखा था- 'चुनाव के परिणाम'।

Source:
https://hindi.webdunia.com/hindi-stories/short-story-118122000044_1.html

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

समीक्षा | लघुकथा कलश रचना प्रक्रिया महाविशेषांक | ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'



14 सितंबर हिंदी दिवस के यादगार अवसर पर प्रो. रूप देवगुण के द्वारा लघुकथा कलश का 'रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक प्राप्त हुआ। दो दिन तक श्री युवक साहित्य सदन, सिरसा में हिंदी दिवस व पुस्तक लोकार्पण समारोह की बड़ी धूमधाम रही।
आज लघुकथा कलश का रचना -प्रक्रिया महाविशेषांक पढ़ने का सुअवसर मिला। सम्पादकीय और कतिपय लघुकथाएँ पढ़ने के उपरांत निरापद रूप से कहा जा सकता है कि प्रस्तुत अंक बहुत उत्कृष्ट,आकर्षक एवं सुन्दर है। विविध विषय-वस्तुओं व शिल्पादि से सुसज्जित यह अंक पूर्व अंकों से बेहतर है। सुन्दर छपाई , आकर्षक मुख्य आवरण पृष्ठ, वर्तनी की परिशुद्धता,उत्कृष्ट कागज़, वरिष्ठ एवं नवोदित लघुकथाकारों की श्रेष्ठ रचनाओं को बिना भेद-भाव के नाम के वर्णक्रमानुसार अंक में स्थान मिलना आदि विशिष्टताएँ लोकतांत्रिक मूल्यों की जीवंतता की परिचायक हैं और प्रस्तुत अंक की खूबसूरती भी।
श्री योगराज प्रभाकर की श्रमनिष्ठा एवं लग्न का जादू सिर पर चढ़ कर बोल रहा है तथा दूरदृष्टि ,पक्का इरादा और साहित्य-सेवा का विशाल जज़्बा सर्वत्र परिलक्षित हो रहा है।

सम्पादकीय पढ़ने से ही इसकी गुणवत्ता का अंदाजा लगाया जा सकता है।नवोदित लघुकथाकारों के लिए यह संजीवनी के समान है। श्री योगराज प्रभाकर जी 'दिल दियाँ गल्लाँ... में रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक के मूल अभिप्रेत पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं, "साहित्य- सृजन अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफ़र है। जब अभिव्यक्ति का कद अभिव्यंजना के कद की बराबरी कर ले तब जाकर कोई कृति एक कलाकृति का रूप धारण करती है । कृति से कलाकृति बनने का मार्ग अनेक पड़ावों से होकर गुजरता है। वे पड़ाव कौन-कौन से हैं, यही जानने के लिए इस अंक की परिकल्पना की गई थी।"

उक्त मन्तव्य के आधार पर निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि वे अपने मूल अभिप्रेत में पूर्णतया सफल हुए हैं। जिज्ञासा व कौतूहल-वश सम्पादकीय के तुरन्त पश्चात सर्व प्रथम मैंने उनकी 'फक्कड़ उवाच' व 'तापमान' लघुकथाएं पढ़ीं।
अधिकांशतः इनकी लघुकथाएं पात्रानुकूल एवं मनोवैज्ञानिक संवादों से सृजित,संवेदना के रस से अभिसिंचित पाठकों के मन के तारों को झंकृत करती हुई , जिज्ञासा एवं कौतूहल का सृजन करती हैं तथा वांछित प्रभाव डाल कर अपने अभिप्रायः व अभिप्रेत को क्षिप्रता से अभिव्यंजित कर डालती हैं। पढ़ कर बड़ा सुकून मिलता है।
अंक में 126 लघुकथाकारों की रचनाएं , नेपाली- लघुकथाएं ,समीक्षाएं आदि समाविष्ट हैं जिन्हें पढ़ने के लिए मन बड़ा व्यग्र एवं उत्सुक है।
इनमें मेरी भी एक लघुकथा एवं रचना- प्रक्रिया सम्मलित की गई है ,इसके लिए मैं 'प्रभाकर' जी का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ तथा समस्त रचनाकारों को हार्दिक बधाई अर्पित करता हूँ,जिनकी रचनाएँ इस अंक में प्रकाशित हुई हैं।
आशा करता हूँ भविष्य में इससे भी बेहरत महाविशेषांक पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त होगा।
श्री योगराज प्रभाकर जी की दीर्घायु एवं स्वस्थ जीवन की मंगलमय शुभकामनाएं।

ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
17.09.19.

लघुकथा: अंदाज | सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

अंदाज

"मैं अगर तेरी जगह होती तो उसे थप्पड़ मारते देर न लगाती । "
"यार ! एकबारगी इच्छा तो मेरी भी हुई थी । "
"एक कहानी क्या छप गयी , खुद को कमलेश्वर मान बैठा है । "
"फिर तूने मारा क्यों नहीं , बद्द्त्मीजी की हद है  कि  सबके सामने इतनी बेशर्मी से उसने तेरे गालों को छू लिया। छी,कितनी  गन्दी सोच ।"
"बस रोक लिया खुद को कि भरी सभा में हंगामा न हो जाये । "
"तेरे पतिदेव भी तो थे वहां  । उनको भी तो गुस्सा ही आया होगा । "
"उस वक्त वो शायद वॉशरूम में गये थे । "
"वो वहां होते तो बात बढ़ जाती । "
"हाँ ! तब अस्मित  के जन्मदिन का सारा मजा स्वाहा हो जाता , इस घटना  की वजह से । " 
"पर यार मैंने जब उसे तेरा गाल सहलाते हुए देखा तो मुझे बुरा तो लगा ही शर्म भी  महसूस हुई । "
"अब जाने दे न यार ।  उसे ,बता तो दिया था कि ये बात गलत है और उन्होंने अपनी गलती मान भी ली  थी। " 
"पर ये क्या बात हुई , पहले गलत काम करो और बात न बने तो गलती मान लो ।'
"क्या कहूँ यार कभी - कभी फोन पर उसके साथ साहित्य से इतर बिंदास वार्तालाप भी  हो जाता था ।  हमने  अपनी - अपनी जिंदगी के कुछ अनसुलझे पन्ने आपस में शेयर भी किए थे । हो सकता है इसलिए गलतफहमी में पड़ गया हो  बेचारा  "
"अरे ये वो लोग हैं जो  मौका मिलते ही शुरू हो जाते हैं । "
"क्या कर सकते हैं यार । इसके लिए जान लेना या जान देना जरूरी है क्या ? मुझे विश्वास है अब कभी नहीं होगा ऐसा ।" 
"वो देख , सरप्राइज  आइटम ,अनुज जी आ रहे हैं । एक्सपर्ट हैं अपनी फील्ड के और ऊपर तक पहुंच में भी कमी  नहीं है । "
"वाऊ । अनुज जी और यहां । रूक जरा । "
 इससे पहले कि अकादमी  के सर्वे-सर्वा अनुज जी , किसी और से मुखातिब होते , वे तपाक से उनके सामने जा खड़ी हुई ,  
"अनुज जी ! मी , आयुषी !  नावल 'अल्पज्ञ ' की उपन्यासकार  , आपने इस उपन्यास को नोटिस में भी लिया है। स्वागत है एक पारखी का इस पार्टी में।"
अनुज जी ने मुस्कुरा कर अपना  हाथ आगे कर  दिया ।
इसके पहले कि अनुज जी कुछ कहते , उन्हीने उन हाथों को मजबूती से अपने हाथों की कटोरिओं में जकड़  लिया और तब तक जकड़े  रहीं जब तक अनुज जी ने आग्रह नहीं किया , " चलिए अब कार्क्रम की ओर चलें ।  बाकी बातें कभी घर आइये ,वहां आराम से बैठकर करेंगें । "
उन्होंने मुस्कुराकर सहमति की मुद्रा में  सिर हिलाया और उनके साथ मंच की ओर चल पड़ीं ।
तालियां , पूरे हाल मेंअपने - अपने अंदाज में  बज रहीं थीं  ।

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सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
डी - श्याम पार्क एक्सटेंशन,  
साहिबाबाद -   ( उत्तर प्रदेश )
मो 9911127277

सोमवार, 16 सितंबर 2019

मिन्नी मिश्रा की चार लघुकथाएँ


1)


कीचड़ में कमल

साड़ी का खूँट पकड़कर मेरा बेटा मुझसे हठ करने लगा, “अम्मा कीचड़ में क्या खिलता है...बताओ न?”  

“अरे...हट, तंग मत कर। देख, कितने घने बादल हैं... जोर से बारिश आने वाली है, जल्दी-जल्दी बिचड़ा लगाकर घर जाना है मुझे। कल से घर में चूल्हा नहीं जला है। पता नहीं...इंद्र देव क्यों कुपित हो गये हैं? आज भी ओले बन कहर बरपायेंगे तो घर में खाना-पीना..रहना सब दूभर हो जाएगा! जलावन सूखी बची रहेगी या...फिर.. कल की तरह, सत्तू खाकर ही दिन काटना पड़ेगा और इधर... बिचड़ों के लिए अलग ही ध्यान टँगा रहेगा।”

“अम्मा...पहले मुझे बताओ...न?”

“तू भी..सच में...बड़ा जिद्दी है। बिना बताये कभी मानता कहाँ। कीचड़ में बिचड़ों का मुस्कुराना,  मुझे बहुत ही सुकून देता है। रे...तू क्या समझेगा...अभी इसी तरह अबोध जो है।”   
धान के बिचड़ों को कीचड़ सने हाथों से सहलाते हुए मैं बोली। 

“पर, अम्मा... किताबों में तो यही लिखा है कि कीचड़ में कमल खिलता है।”

“पढ़ा होगा तू !  जिस किताब की बात तू कर रहा है..न..वो भाषा मुझे नहीं सुहाती ! भूखे पेट...कीचड़ में कमल नहीं...मुझे,  धान की बालियाँ ही लुभाती है।”
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2)

रील बनाम रीयल


तालियों की गड़गड़ाहट के साथ हॉल की सारी बत्तियां एक साथ जल उठी।

“कमाल का रोमांस,  बिल्कुल अमिताभ और रेखा की जोड़ी ।”  एक साथ कई आवाजें दर्शक-दीर्घा से आयी ।


“अरे...चल रहा होगा दोनों में रोमांस । थियेटर-सिनेमा में काम करने वाले लोगों के लिए प्यार की परिभाषाएं कुछ अलग होती है ! जहाँ-जिससे मिले,  दोस्ती..प्यार में बदल गई । पति-पत्नी कहने भर के लिए होते हैं। यूज़ एंड थ्रो वाला हिसाब-किताब, हा..हा..हा... ।”   
फिर से कुछ तेज आवाजें ...मेरे कानों में गर्म सलाखों की तरह चुभने लगी।

लोग अपना टेंशन दूर करने रंगमंच का खूब रसास्वादन करते हैं।  पर, जैसे ही पटाक्षेप होता है.. इनकी रंग बदलते देर नहीं लगती। भिड़ जाते हैं, नायक-नायिका की बखिया उधेड़ने में।  जैसे खुद कितने दूध के धुले हों!

मैं, साथी कलाकार (रोहित) के साथ, खचाखच भीड़ से बचते हुए हॉल से बाहर निकल आयी । सीधे पार्किंग में लगी गाड़ी की तरफ आगे बढ ही रही थी,  कि रोहित ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा ,  ”रुको.., मुझे अभी तुमसे कुछ जरूरी बातें करनी है ।”

“अभी नहीं रोहित ,  जल्दी घर पहुंचना है।”  अपना हाथ खींचते हुए मैं बोली।

“प्लीज, मेरे लिए दो मिनट रुक जाओ।”

“अच्छा...जल्दी से बताओ।“

“ मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।”

“तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है। रोहित, रील लाइफ और रीयल लाइफ में बहुत का अंतर होता है। पता है न..शादी में दोनों परिवारों को भी जुड़ना पड़ता है?”

“हाँ....सब पता है। मेरे परिवार में सिर्फ मैं हूँ और मेरी माँ। माँ से तुम पहले ही फंक्शन में मिल चुकी हो।”  रोहित एक ही सांस में सारी बातें कह गया ।

“ और,मेरे परिवार में?  मैंने तो तुम्हें...विधवा हूँ...सिर्फ  इतना ही बताया था? और कुछ भी नहीं!"

“अरे...मैडम जी ,  मुझे सब पता है । तुम्हारे ड्राईवर से तुम्हारे बारे में मैंने सब कुछ पता कर लिया है। तभी से तो मैं ,तुमसे बेहद प्यार करने लगा हूँ। तुम्हारी एक अपाहिज बेटी भी है? उसी के इलाज के लिए तुम ये सब कर रही हो।”  रोहित मुस्कुराते हुए बोला।

मैं ठगी सी रोहित को देखती रही। वो अपलक मुझे निहारता रहा।

"जाने से पहले एक बात तुम्हें बताना चाहता हूँ, मुझे अपनी संतान की इच्छा नहीं है। हां, तुम्हारी बेटी का पिता कहलाना मुझे अच्छा लगेगा। अब, आगे  निर्णय तुम्हारे हाथों में है।"

मैं चुपचाप...रोहित को जाते हुए देख रही थी । वह आज मुझे मर्द कम देवता अधिक नजर आ रहा था।
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3)

बाल सखा

“फिर तुम.. इतनी रात को ! देखो, शोर मत मचाओ, सभी सोये हैं..जग जायेंगे । तुम्हे पता है न..समय के साथ सभी को नाचना पड़ता है। 
बच्चे स्कूल जाते हैं, पति काम पर , और मैं...मूरख,  अकेली दिनभर इस कोठी का धान उस कोठी करती रहती हूँ । चाहे घर के पीछे अपना जीवन खपा दो, घर के कामों का कोई मोल नहीं देता !
खैर, छोड़ो इसे। बचपन में तुम्हारे साथ बिताये पल,  मुझे हमेशा सताते रहता है। पर,  मैं तुम्हारी तरह स्वच्छंद उड़ान नहीं भर सकती।
समय के साथ रिश्तों की अहमियत बदल जाती है । अब तो मैं बाल-बच्चेदार वाली हो गयी हूँ और तुम,  वही कुंवारे के कुंवारे!
तुम क्या जानो शादी के बाद क्या सब परिवर्तन होता है ! ओह ! फिर से शोर,  बस भी करो या..र ! पता है मुझे , बिना देखे तुम जाओगे नहीं ! ठीक है, खिड़की के पास आती हूँ,  देखकर तुरंत वापस लौट जाना।"

जैसे ही मैं खिड़की के पास पहुंची,  एकाएक बिजली की कौंध से ... उसका, वही नटखट चेहरा,  साफ़-साफ़ दिख गया । दिल के कोने में दबा प्यार फिर से हिलकोर मारने लगा।

मैं..झट दरवाजा खोल बाहर निकल आई। दरवाजे की चरमराहट से पति जगते ही चिल्लाये,  “ क्या हुआ?  कहाँ जा रही हो ?”   कहते-कहते वो भी मेरे पीछे दरवाजे के पास आ पहुँचे।

सामने टकटकी लगाये, उताहुल खड़ा... मेरा बाल सखा ‘तूफान' और अंदर,  सुरक्षा का ढाल लिए खड़े पति।  अकस्मात,  दहलीज से बाहर निकले मेरे पैर... कमरे में फिर से कैद हो गए।

मेरी नजरें तूफ़ान और टिकी रही। बाहर खड़ा तूफान एकदम शांत हो गया। शायद अब तक वो समझ चुका था कि औरत ख्वाबों में उड़ान भरने से ज्यादा अपने को महफ़ूज रखना अधिक पसंद करती है। 

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4)

गर्भपात

“चाचा ओ चाचा (घोंसला )... सो गये क्या ?” सभी बच्चे (अंडे) एकसाथ चिल्लाये ।

“हाँ..थोड़ी झपकी लग गई। घर का मुखिया हूँ..न..रात को ठीक से सो भी नहीं पाता।”

"सो तो है चाचा ,  आप सर्दी-गर्मी, आंधी-तूफ़ान सभी से हमें बचाते हैं। पर, चाचा बात ही कुछ ऐसी है बहुत घबराहट सी हो रही है।”

“क्या बात है? बताओ तो।”

कल हमने मकान मालिक को बोलते सुना था,  “अगले हफ्ते दीपावली है ...घर के कोने-कोने की सफाई होगी, और रंग-रोगन भी। 
चाचा, अब, हमलोगों का क्या होगा?  यहाँ हम ,सीढी-घर के रोशनदान में कितने बेफिक्र और महफूज रहते आये हैं । आज बहुत  भयभीत हैं दीपावली की सफाई में, हमारी भी सफाई....तय ही समझो।”

“अरे...शुभ-शुभ बोल। चिंता किस बात की मैं हूँ..न!”  
बच्चों को ढाढ़स बांधते हुए चाचा खखसकर बोले।

“धपर...धपर....की आवाज,  लगता है कोई सीढ़ी पर चढ़ रहा है । वो...सामने देखिये...आ गई महिला सफाईकर्मी । चाचा, वो किसी को नहीं बकसेगी । बहुत निर्दयी होकर झाड़ू चलाती है । सोचेगी भी नहीं कि इसमें किसी जोड़े का सपना सजा है ।“   सफाईकर्मी को देखते ही अंडों में हडकंप मच गया ।

”बच्चों, जब तुम्हें पता था, तो.. तुमने अपनी माँ को क्यों नहीं बताया? वो आज तिनका लाने नहीं जाती?”   मौत को सामने खड़ा देख घोंसला खुद को असहाय महसूस करने लगा।

“ हमें माँ की चिंता सताए जा रही है। चाचा, वो यहाँ पहुंचेगी और हमें ढूंढेगी,  हमारी लाश तक का जब कोई ठिकाना उसे नहीं मिलेगा... फिर क्या बीतेगी माँ पर!  बेचारी के सभी संजोये सपने... दीपावली के चकाचौंध में तिनके की तरह बिखर जायेंगे।”

सफाईकर्मी तेजी से हमलोगों के करीब आ पहुंची। उसके हाथ की झाड़ू पर नजर पड़ते ही,  बलि के बकड़े की तरह हमसभी थरथराने लगे और दिल धौकनी की तरह धड़कने लगी। 

वो फुसफुसाई, “बहुत तेज दर्द हुआ था मुझे... जब मेरे घरवालों ने भ्रूण-परीक्षण के बहाने मेरा गर्भपात करवाया था ।

बच्चों, मैं भी स्त्री हूँ... तुम्हारी माँ की पीड़ा अच्छी तरह समझ सकती हूँ।“ 
कहते हुए सफाईकर्मी ने अपनी दिशा बदल ली ।
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रविवार, 15 सितंबर 2019

लघुकथा: रमधनिया | मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

लघुकथा: रमधनिया

रमधनिया ने ठान लिया था कि वो अपने शराबी - जुआरी पति को आज सबक सिखा कर ही मानेगी | बेचारी रमधनिया मध्यप्रदेश से चलकर आगरा मजदूरी करने आई थी | सुबह से शाम तक खेतों में आलू बीनती तब जाकर प्रतिदिन सौ - सवा सौ रुपये कमा पाती | साथ में दो बेटियाँ भी थी, इसलिए खाने-पीने का खर्च भी ज्यादा था | पति काम तो करता था पर सारी कमाई जुआ - शराब में उढा देता और ऊपर से रमधनिया के कमाये पैसों पर भी हक जमाता |

देररात टुन्न होकर रमधनिया का पति आया तो दोनों में झगड़ा हो गया | झगड़ा इतना बढ़ गया कि झगड़े की खबर ठेकेदार को पता चल गई | उसने तुरन्त सौ नं.  पर सूचना दी, कुछ ही समय बाद सौ नं. की गाड़ी आ गई | पुलिस आने से झगड़ा खत्म हो गया और पुलिस ने दोनों का राजीनामा करा दिया परन्तु राजीनामा के बदले दो हजार रुपए रमधनिया को गंवाने पड़े | वैसे दो हजार बचाने के लिए रमधनिया ने उन पुलिस महाशयों के खूब हाथ-पैर जोडे, लेकिन उन निर्दईयों को तनिक भी तरस नहीं आया | सच भी है वर्दी पहनकर कोई देवता नहीं बन जाता |

रमधनिया अपने तिरपाल के बने झोपड़े में पड़ी-पड़ी सोच रही थी, काश वो अपने शराबी पति से न लड़ती और हजार - पांच सौ उसे दे देती तो कम से कम कुछ पैसे तो बच ही जाते... |

- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा, 283111

लघुकथा: अनुपयोगी | कपिल शास्त्री

अनुपयोगी


जनवरी की एक सुबह। फिजा में ठंडक घुली हुई है। मुँह धोकर पोंछ लिया है। आईने में नहीं देखा है। अब वैसा ही तो होगा। रात भर में क्या कुछ बदल जायेगा! चाय पी ली है। मोटरसाइकिल पोर्च में रखे-रखे गंदी हो गयी है। उसके दोनों मिररर्स पर धूल जमी हुई है। इंडीकेटर्स हैं, हाथ हैं तो इनको साफ करने की जरूरत नहीं लगती। साफ करने का मन भी नहीं है। ऐसे ही स्टार्ट करके चौराहे तक आ गया हूँ। गुनगुनी धूप अच्छी लग रही है। कुछ देर यहीं खड़े रहने का मन है। सिटी बस का यह आखरी स्टॉप है। इसलिए ड्रायवर बस वापस मोड़ते हुए  ऐसे खुश है जैसे धरती की एक परिक्रमा पूरी कर ली है।

मजदूर काम पर जाने से पहले टपरे में पोहे-जलेबी खा रहे हैं। रूम शेयर करके रहने वाली कॉलेज की कुछ लड़कियाँ भी टपरे पर चाय पी रही हैं। बच्चे यूनिफार्म में पैदल स्कूल जा रहे हैं। कुछ स्कूल बस का इंतजार कर रहे हैं। एक कुत्ता तीन टांगों पर चल रहा है। चौथी टांग टेढ़ी जो है।

पंद्रह-सोलह साल की लड़की और उसके छोटे भाई को स्‍कूल बस तक छोड़ने उसके पिताजी आये हुए हैं। जब तक बस नहीं आ जाती वो नहीं जाएंगे। मैं लड़की के बाप की उम्र का हूँ मगर बाप नहीं हूँ। लड़की मेरी बेटी से भी कम उम्र की है मगर बेटी नहीं है। लड़की सुंदर है। मेरी नीयत में खोट नहीं है। बस इस वक्‍त अपनी उम्र के बारे में कुछ सोचना नहीं चाहता। बस आ गयी। पहले भाई लपककर चढ़ गया। लड़की ठिठकी। उसने एक पल को मेरी मोटरसाइकिल के मिरर में खुद को देखा और फिर बस में चढ़ गई। मेरा अनुपयोगी मिरर एक क्षण को उपयोगी हो गया।

धूल थी तो क्या हुआ! उम्र ऐसी है कि एक आईना तो चाहिए।

वाकया बस इतना सा ही है। लेकिन श्रीमती जी निष्कर्ष पर पहुँच चुकी हैं-"अब समझ में आया वहाँ खड़े रहने का मन क्यों करता है।"
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परिचय
नाम-कपिल शास्त्री
शिक्षा-मॉडल हायर सेकेंडरी स्कूल,टी.टी.नगर.से वर्ष 1982 में ग्यारवीं पास, बी.एस.सी.(मोतीलाल विज्ञानं महाविद्यालय)1986,एम्.एस.सी.(एप्लाइड जियोलॉजी)(यूनिवर्सिटी टीचिंग डिपार्टमेंट)बरकतउल्ला विश्वविद्यालय ,वर्ष 1989.
लेखन विधा-लघुकथा (2015 से लेखन आरम्भ)
प्रकाशित कृतियाँ-वनिका पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित लघुकथा संकलन "बूँद बूँद सागर"(संपादन डॉ.जीतेन्द्र "जीतू" व डॉ.नीरज सुधांशु)में चार लघुकथाएँ "इन्द्रधनुष","ठेला","रक्षा बंद","कवर"प्रकाशित।वनिका पब्लिकेशन द्वारा ही प्रकाशित द्वितीय लघुकथा संकलन "अपने अपने क्षितिज"में चार लघुकथाएँ "हार-जीत,सेफ्टी वाल्व" "ढोंग" "चार रुपये की ख़ुशी" प्रकाशित।राष्ट्रीय पत्रिका "सत्य की मशाल"और "अविराम सहित्यकी"में लघुकथा प्रकाशित।"लघुकथा के परिंदे" "गागर में सागर" "लघुकथा साहित्य" जैसे प्रतिष्ठित फेसबुक लघुकथा ग्रुप्स में नियमित रूप से प्रकाशन।"स्टोरी मिरर.कॉम" होप्स मेगेज़ीन" "प्रतिलिपि.कॉम"में अनेक रचनाएँ प्रकाशित।पहला लघुकथा संग्रह "ज़िन्दगी की छलांग"जून 2017 में वनिका पब्लिकेशन,बिजनोर द्वारा प्रकाशित।शब्द प्रवाह सामाजिक,सांस्कृतिक मंच उज्जैन द्वारा "ज़िन्दगी की छलांग"को लघुकथा विधा में प्रथम पुरस्कार।इंदौर की 'क्षितिज' साहित्यिक संस्था द्वारा वर्ष 2018 में नवोदित लेखक सम्मान।

सम्प्रति-वर्ष 1990 से 2004 तक प्रतिष्ठित फार्मा कंपनी "वोखहार्ड"में कार्यरत।2004 से वर्तमान तक मेडिकल होलसेल का व्यापार
पता-निरुपम रीजेंसी,S-3,231A/2A साकेत नगर.भोपाल.
संपर्क-9406543770.
email kshastri121@gmail.com