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शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

लघुकथा समाचार: महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक के हरियाणा अध्ययन केन्द्र लघुकथा लेखन तथा कविता लेखन प्रतियोगिताओं का आयोजन

Bhaskar News Network Sep 12, 2019


महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के हरियाणा अध्ययन केन्द्र लघुकथा लेखन तथा कविता लेखन प्रतियोगिताओं का आयोजन करेगा। बदलता हरियाणा-बढ़ता हरियाणा, हमारा प्यारा हरियाणा, जल ही जीवन है व सोशल मीडिया के युग में जीवन विषय पर आयोजित की जाने वाले इस प्रतियोगिता में हरियाणा के सभी राज्य विश्वविद्यालयों तथा संबद्ध महाविद्यालयों के विद्यार्थी भाग ले सकते हैं। हरियाणा अध्ययन केन्द्र की निदेशिका प्रो. अंजना गर्ग ने बताया इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले विद्यार्थी 31 अक्टूबर तक अपनी लघुकथा या कविता भारतीय डाक या ईमेल के माध्यम से हरियाणा अध्ययन केन्द्र में भेज सकते हैं। 


Source:
https://www.bhaskar.com/haryana/rohtak/news/haryana-news-articles-asked-for-short-story-writing-and-poetry-writing-by-31-october-084504-5467193.html

डा. अंजु लता सिंह की दो लघुकथाएं


लघुकथा: जीने का तरीका

आज सुबह उठते ही अपने बैडरूम के दरवाजे पर  पिंक फूलों का बुके और चाकलेट ट्री करीने से रखा हुआ देखकर कुछ पल के लिये तो स्टेच्यू  सी बन गई थी मैं .अगले पल ही बखूबी समझ गई कि यह हो ना हो नई बहू का ही प्लान होगा.तभी देखा  बेटा महेश और  बहू श्रुति किचन की ओर से बेड टी की ट्रे लेकर चले आ रहे हैं.

सुखद आश्चर्य से मैं इतना ही कह पाई - "अरे!इतनी सुबह  सुबह उठ गए तुम  दोनों..थैंक्यू .. थैंक्यू. चलो अब जाकर सो जाओ। मुझे तो आदत है सुबह ठीक साढ़े छ: बजे  निकलकर ही पहुंच पाती हूं स्कूल. फरीदाबाद जाने में पूरे फोर्टी मिनिट्स तो लगते  ही हैं बेटा"
पतिदेव से मुखातिब होकर मैं बोली - "चलो जी!आप तो बोरिंग  हो. शादी की पच्चीसवीं सालगिरह पर भी मुझसे ही डिनर बनवाया था.आपसे गिफ्ट  मिलना तो सपना ही होता है.आज शाम को मधुबन चलेंगे.बच्चों को लेकर जरूर..सुना"
कहते हुए मैं आश्वस्त होना चाहती थी.

"देखेंगे..अब तुम जाने की तैयारी करो नहीं तो लग जाएगा  रजिस्टर में तुम्हारा ग्रीन मार्क.."
समीर का वही घिसा पिटा जवाब सुनकर मुस्कुराते हुए मैं अपने काम में लग गई .

स्कूल में तो सारा दिन व्यस्तता में ही बीत गया था. बेहद थकावट महसूस कर रही थी. कितनी विशेज मिलीं आज. श्रुति के आने से घर में बेटी की कमी पूरी हो गई थी. जहां पहले दरवाजे पर लटका ताला मुंह चिढ़ाता था वहीं अब द्वार पर पानी का गिलास  लेकर बिटिया (बहू) रोज स्वागत करती है.चलो आज दो बंडल चैक करने हैं बारहवीं प्री बोर्ड के..रोटी तो बनानी नहीं आज..सोचते हुए कार में बैठकर मुझे नींद सी आ गई .घर के गेट पर पहुंचकर जैसे ही कार से उतरी सारे बंगले पर फूलों और बैलून्स की सजावट देखकर असमंजस में पड़ गई  थी मैं. कुछ समझ नहीं पा रही थी. सोचा नीचे किराएदार की छोटी बच्ची का बर्थ डे वगैरा कोई फंक्शन होगा. तभी बालकनी से झांकते हुए बेटा बहू मेरे सिर पर गुलाबों और मोंगरों की पंखुड़ियों की बरसात करते हुए चिल्लाए - "हैप्पी हैप्पी हैप्पी एनीवर्सरी. मम्मा! वैलकम. वैलकम."

चित्ताकर्षक रंगोली पर कदम रखवाते हुए श्रुति ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे कमरे में प्रविष्ट  कराया जहां मह मह महकता हुआ हमारा कमरा किसी फिल्मी कक्ष सा प्यारा सा लग रहा था। कमरे में बिखरे हुए बेतरतीब सामान  अब करीने से सजा दिये गए थे.हम दोनों की शादी की एकमात्र ब्लैक एंड व्हाइट फोटो रंगीन विशालकाय फ्रेम में जड़ी हुई सामने की दीवार पर मनमोहक लग रही थी.
"अरे बच्चों!ऑफिस से लौटकर पापा गुस्सा करेंगे ..कितना खर्चा  कर दिया ?क्यों परेशान  हुए ?"
"डरो मत मम्मा! कुछ नहीं कहेंगे पापा" श्रुति मुझे बांहों में भरकर बोली.
मुझे लगा जैसे सारी कायनात बहू के स्नेहालिंगन का रूप लेकर मेरे जीवन को धन्य कर गई है.
"अच्छा मैं जरा सबको फोन तो कर लूं ? बड़े सारे मैसेज आए हुए हैं मेरे फोन पर. स्कूल में तो एलाउड ही नहीं होता फोन करना."
फोन मेरे हाथ से झटककर श्रुति शरारत से बोली- "नो मम्मा! नो. फोन  कहीं नहीं करना. अभी सब आ रहे हैं आपसे मिलने."
"क्या? सच!" मैं खुशी से फूली नहीं समा रही थी.
रात होते होते परिवार के सभी नियर्स और डियर्स घर पर जमा हो गए थे. धूमधाम से विवाह की तीसवीं वर्षगांठ मनाकर बच्चों ने  हमारे ह्रदय में एक स्नेहपथ तो बना ही लिया था. परिवार  में सभी खुलकर वाह वाही कर रहे थे बच्चों की. जीवन की बिजी दिनचर्या और आपाधापी  में हम हमेशा वक्त की कमी का रोना रोते रहते थे या फिर  कंजूसी ही समझिये.
सबको विदा करके मैं लेटकर सोच रही थी- "स्नेह की डोर बांधकर  बेटी सी बहू ने हमें जीने का तरीका सिखा दिया है."
पड़ोसी के रेडियो पर छाया गीत के मीठे मद्धिम स्वर कानों को सुरीले लग रहे थे-
"यही है वो सांझ और सवेरा.
जिसके लिये तड़पे हम सारा जीवन भर."
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लघुकथा: नजर

आज फिर बड़ी बहू की याद बरबस ही आने लगी थी मुझे .जब भी जरा सज धजकर कहीं निकल जाती और सजीली लाल,काली ड्रेस पहन लेती थी बस मरी नजर उसके पीछे ही पड़ जाती.
मैं भाग-भागकर कान के पीछे डिठोना लगाती तो कभी मुट्ठी में नमक भींचकर सात बार फेरती और कभी सरसों के तेल से भरी रूई की बाती जलाकर टप-टप ढेर टोपे(बूंदें) टपकाकर शीनू (शान्वी) की नजर उतारती.

साक्षात् लक्ष्मी के कदम पड़े थे मेरे आंगन में.

दुनिया भर से कैसे बचाती भला उसे. अब तो परदेसी होकर नजर भी आती है,तो स्काइप पर.झलक ही मिलती है समझो बस.सातवें साल में जाकर बाबा बजरंगबली की मन्नतों के बाद सुपौत्र अभि (अभिनंदन) जन्मा. उसकी शरारतों से अनभिज्ञ सी मैं, ये और छोटा बेटा, बहू साल में कुछेक रोज के लिये उनके पास  जाकर अपना लाड़-दुलार और स्नेह लुढ़काकर  कर्म की इतिश्री मान लेते हैं,पर नजर का क्या?

परदेसी परिवेश में तो उसे हल्की फुल्की बीमारी मानकर जतन से सुनियोजित  व्यापारिक बर्ताव  किया जाता है. नजर चढ़ने और उतरने को महज अंधविश्वास  का पर्याय मानकर ठुकरा देते हैं.
बात-बात पर मम्मा से नजर उतरवाने वाली शीनू अब सयानी चिकित्सक बन गई थी.

स्वप्न से बाहर उनींदी आंखों को मसला तो महसूस हुआ कि अभी दिन नहीं निकला है. गहरा गई रात में अचानक छोटे बेटे के उठने और रसोई में कुछ खटर-पटर करने पर मेरी नींद खुल गई थी. वैसे भी रात के एक बजे तो घर ही पहुंचे थे. परी से कम नहीं लग रही थी पार्टी  में मेरी छुटकी लाड़ली बहू पायल आज. उनकी शादी  की पहली वर्षगांठ जो थी आज.

ऊंघते हुए पूछ ही लिया - "बेटा! क्या हुआ?"
- "बस यूं ही ..काॅटन कहां है माॅम?" बेटा महीन स्वर में बोला.
- "भगवान  जी के मंदिर में."
- फिर नींद खुली तो देखा-सोती हुई पायल पर तेल डूबी बाती घुमाती हुई एक परछाई हौले-हौले बढ़ते कदमों से रसोई की ओर मुड़ी.
- जलती बाती से चट-चट की तेज आती आवाजें छुटकी बहू को काली नजर लगने का भान करा रही थीं.

मैं भी आश्वस्त होकर अपने बैडरूम में वापस लौटआई थी.यही सोचकर कि चलो, बालक चाहे कहीं भी रहें कम से कम बुरी नजर के शिकार होने से तो बचे रहेंगे.
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डा. अंजु लता सिंह 
सी-211/212
पर्यावरण काम्प्लेक्स
समीपस्थ-गार्डन ऑफ फाइव सैंसेज
सैदुलाजाब
नई दिल्ली-30
दूरभाष -9868176767

लघुकथा वीडियो: बोल भी इब | लेखिका नीलिमा शर्मा "नीविया" | वाचन : लोकेश गुप्ता




गुरुवार, 12 सितंबर 2019

मंटो की कुछ लघुकथाएँ


दावत-ए-अमल

आग लगी तो सारा मोहल्ला जल गया...सिर्फ़ एक दुकान बच गई जिसकी पेशानी पर ये बोर्ड आवेज़ां था... 
यहां इमारत साज़ी का जुमला सामान मिलता है।
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हलाल और झटका

मैंने उसकी शहरग पर छुरी रखी, हौले-हौले फेरी और उसको हलाल कर दिया.” 
यह तुमने क्या किया?” 
क्यों?” 
इसको हलाल क्यों किया?” 
"मज़ा आता है इस तरह." 
मज़ा आता है के बच्चे.....तुझे झटका करना चाहिए था....इस तरह. ” 
और हलाल करनेवाले की गर्दन का झटका हो गया.
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घाटे का सौदा

दो दोस्तों ने मिलकर दस-बीस लड़कियों में से एक चुनी और बयालीस रुपये देकर उसे ख़रीद लिया. रात गुज़ारकर एक दोस्त ने उस लड़की से पूछा : तुम्हारा नाम क्या है? ” 
लड़की ने अपना नाम बताया तो वह भिन्ना गया : हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मज़हब की हो....!” 
लड़की ने जवाब दिया : उसने झूठ बोला था!” 
यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा : उस हरामज़ादे ने हमारे साथ धोखा किया है.....हमारे ही मज़हब की लड़की थमा दी......चलो, वापस कर आएँ.....!
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खबरदार

बलवाई मालिक मकान को बड़ी मुश्किलों से घसीटकर बाहर लाए. कपड़े झाड़कर वह उठ खड़ा हुआ और बलवाइयों से कहने लगा : तुम मुझे मार डालो, लेकिन ख़बरदार, जो मेरे रुपए-पैसे को हाथ लगाया.........!
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रियायत

"मेरी आँखों के सामने मेरी बेटी को न मारो…" 
"चलो, इसी की मान लोकपड़े उतारकर हाँक दो एक तरफ…"
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उलाहना

देखो यार। तुम ने ब्लैक मार्केट के दाम भी लिए और ऐसा रद्दी पेट्रोल दिया कि एक दुकान भी न जली।
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किस्मत

कुछ नहीं दोस्त......इतनी मेहनत करने पर सिर्फ़ एक बक्स हाथ लगा था पर इस में भी साला सुअर का गोश्त निकला।
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बुधवार, 11 सितंबर 2019

पुस्तक समीक्षा | माटी कहे कुम्हार से: लघुकथा-संग्रह (डॉ. चंद्रा सायता) | दो समीक्षाएं


पुस्तक : माटी कहे कुम्हार से
लेखिका : डॉ. चंद्रा सायता 
प्रकाशक : अपना प्रकाशन
मूल्य : 200 रुपए
पेज : 104
समीक्षक : 
१. नंद किशोर बर्वे २. दीपक गिरकर



माटी कहे कुम्हार से : गहरी संवेदनाओं की लघुकथाएँ 

नंद किशोर बर्वे

जैसे जैसे समाज में विरोधभास बढ़ते जा रहे हैं, वैसे वैसे लघु कथा के लिये उर्वरा जमीन तैयार होती जा रही है । चूँकि एक लेखक – वो चाहे किसी भी विधा में लिख रहा हो, उसकी संवेदना औरों की तुलना में कहीं अधिक सक्रिय होती है । इसी सक्रियता को वह अपनी रचनाओं में उतारता है । इस कारण समाज में होने वाली घटनाएँ  अनेक रूपों में हमारे सामने आती हैं ।

एक सच्चा लेखक वही है जो अपने समय को अपनी कलम से शब्द बद्ध करके आने वाली पीढियाँ के लिये एक प्रामाणिक दस्तावेज़ के रूप में छोड़ कर जाये । यह काम वर्तमान समय  में लघुकथाएँ बहुत प्रभावी तरीके से कर रही हैं ।कारण कि वे पद्य के दोहों और शेरों के जितनी प्रभावशाली होती हैं । कम से कम शब्दों में अपनी भूमिका को श्रेष्ठ तरीके से निभा पाने के कारण ही लघुकथाएँ आज इतनी मात्रा में लिखी और पढ़ी जा रही हैं।   

 प्रसिद्ध लेखिका और अनुवादक डॉ . श्रीमती चन्द्र सायता की लघु कथाओं के  दूसरे संग्रह ‘माटी कहे कुम्हार से’ में संकलित बहत्तर लघु कथाओं में गहरी संवेदना , दरकते मूल्यों के प्रति चिंता और निहित स्वार्थों के कारण टूटते रिश्तों का रेखांकन   हुआ  है ।  अपनी लघुकथाओं के पात्रों के चयन से चंद्रा जी कभी कभी तो चमत्कार  सा कर देती हैं । उनके ये पात्र हमें अपने आस पास सहज ही दिख जाते हैं । बस उनके प्रति उनकी दृष्टि सम्पन्नता ही  कथा बन जाती है , जिसे आम आदमी देखकर भूल जाता है।

‘अंकुरण’, ‘अर्थी और अर्थ’ तथा ‘अकेलापन’ बाल मनोविज्ञान की अच्छी कथाएं हैं । ‘अंकुरण’ माँ के आभाव में पला बच्चा अपने पापा से भावनात्क रूप से बहुत ‘अटेच’ है , वह बिना पापा के किसी बात की कल्पना नहीं कर सकता । ‘अकेलापन’ में परिवारों में आजकल जो एक ही बच्चा हो रहा है , ऐसे में उस बालसखा विहीन बच्चे की मनोदशा अच्छे से रेखांकित हुई है।

‘अर्थी और अर्थ’ में बच्चा शव यात्रा में शवों पर उड़ाये पैसों से अपनी बीमार माँ के लिये दवाई खरीदता है । यह घटना समाज में चिंताजनक स्थिति तक बढ़ रही अमीरी और ग़रीबी की खाई को ऐसे बताती है कि पाठक बिना द्रवित नहीं रह सकता । ‘नामगुनिया’ चिकनगुनिया की ही तरह व्यक्ति को अपनी चपेट में लाइलाज तरीके से लेने वाले सोशल मिडिया के प्रति एडिक्शन की सुंदर बयानी है । हम में कई लोग हैं जो अपने रोजमर्रा के जीवन की छोटी छोटी घटनाओं को इस माध्यम पर ‘शेयर’ करने की गम्भीर बीमारी से जाने अनजाने ग्रसित होते जा रहे हैं ।

इसमें विरोधाभास यह है कि बाकी नशों की तरह यहाँ भी बीमार यह मानने को राज़ी नहीं है कि वह इस बीमारी की गिरफ्त में आ चुका है । ‘प्रतिष्ठा कवच’ और ‘अधिकार’ दोनों लघुकथाएँ युवा वर्ग की दो समस्याओं को दर्शाती हैं । ‘प्रतिष्ठा कवच’ में अपने भाई की गलत हरकतों को बचाती बहन है तो दूसरी ओर उसके नामदार पिता की प्रतिष्ठा का कवच भी है जो ऐसे लोगों को ख़ुद को कानून से ऊपर मानने का खुला लायसेंस देता है । इसमें वह बहन भी उस अपराध की कम दोषी नहीं कही जा सकती जो अपने भाई की गलत करतूतों के लिये उसे फटकारने के बजाय उसका बचाव करती है । ‘अधिकार’ में इन दिनों चल रहे अनैतिक लिव इन रिलेशन की विद्रूपताओं को बताती है ।

महीनों या बरसों साथ में रहने और बिना ज़िम्मेदारी के वैवाहिक सुखा भोगने के बाद कोई भी लड़की किसी भी दिन जाकर पुलिस में शिकायत दर्ज कर दे कि उसके साथ बलात्कार होता रहा है /था । और पुलिस लड़के को बिना प्राकृतिक न्याय की परवाह किये एक तरफा सजा सुना के उसे दोषी करार देती है । यहाँ किसी के भी प्रति ज्यादती की वकालात मैं नहीं कर रहा , लेकिन ‘लिव इन’ में दोनों पक्ष सामान रूप से और अपनी मर्जी से इन्वाल्व होते हैं , तो सजा एक पक्ष को ही क्यों हो ? 

‘सृजन सम्बन्ध’ एक विशिष्ट प्रकार की लघुकथा है , जो किसी भी प्रकार के रचना कर्म में लगे लोगों के बीच अपने सृजन से उत्पन्न रिश्तों को बहुत ढंग सुंदर से बुनती है । इसमें एक कवि के लिखे गीत को गायिका गाती है , जिसकी वजह से वह गीत बहुत लोकप्रिय हो जाता है , इससे अभिभूत हो कर वह कवि उस गायिका के घर जाकर उसका सम्मान करता है और दोनों धन्य हो जाते है। इस संग्रह में उनकी  कुछ मानवेत्तर लघुकथाएँ भी हैं । जो बेहतर बन पड़ी है । ‘ज़िन्दगी और समय’ में समय ज़िन्दगी के इस ‘उलाहने पर कि तुम निष्ठुर और कुटिल हो’ उसे समझाते हुए कहता है कि – 

“हे सखी मैं इतना पारदर्शी हूँ कि तुम अपने कर्म के अनुसार अपना ही प्रतिबिम्ब मुझमें देखने लगती हो । इसलिए जब तुम्हारा भाव कुटिल होता है , तब तुम्हार कर्म भी कुटिल हो जाता है । और कर्म कुटिल होते ही तुम्हारा दृष्टिकोण कुटिल बन जाता है । तुम्हें जब जब मैं जैसा जैसा दिखता हूँ , तुम होती हो । समझीं कुछ । ” इस प्रकार वे ज़िन्दगी और समय के माध्यम से एक बड़ा सन्देश में कामयाब होती हैं , कि समय तो अपनी गति से ही चलता है ये हम ही हैं जो समय को अच्छा या कि बुरा बताते रहते हैं । इसी प्रकार किताब की शीर्षक कथा ‘माटी कहे कुम्हार से…’ में माटी ख़ुद कुम्हार से यह कहती है कि वो बाकी बर्तनों के साथ ही उससे सकोरे भी बना कर बेचे ताकि प्यास से व्याकुल पंछियों को भी अपनी प्यास बुझाने को पानी मिल जाये ।  कुम्हार की इस समस्या पर  कि इससे बढ़ने वाली लागत का क्या होगा ? मिट्टी उसका तरीका बताते हुए कहती है कि इसकी लागत को मटके की कीमत में जोड़ कर सहज समाधान भी बताती है । ‘दुःख से उपजा सुख’ लघुकथा में बीमार बेटी के असामयिक निधन पर उसके प्रति चिंतिति उसकी माँ एक डीएम निश्चिन्त हो जाती है कि वह भी अब बेटी की चिंता के बिना आराम से मर सकेगी । इसमें दुःख में भी सुख देखने कि मानवीय मानसिकता का अच्छा चित्रण किया है ।  

यहाँ यह भी कहना समीचीन होगा कि कुछ लघुकथाएँ अपने कथ्य और गठन में और मेहनत की दरकार रखती हैं । जो चन्द्रा जी जैसी वरिष्ठ और दृष्टि सम्पन्न लेखिका के लिये कोई मुश्किल काम नहीं है । आशा ही नहीं विश्वास है कि भविष्य में समाज को उनसे और बेहतर लघुकथाएँ मिलती रहेंगी ।

Source:

https://www.thepurvai.com/book-review-by-nand-kishor-barwe/
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सकारात्मकता का बोध कराती लघुकथाओं का संग्रह है ’माटी कहे कुम्हार से...’

दीपक गिरकर



हिन्दी एवं सिन्धी भाषा की सुप्रसिद्ध रचनाकार डॉ. चंद्रा सायता के लेखन का सफ़र बहुत लंबा है। माटी कहे कुम्हार से...  लेखिका का दूसरा लघुकथा संग्रह है। लेखिका का पहला लघुकथा संग्रह गिरहे भी काफ़ी चर्चित रहा था। लेखिका के तीन काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। चंद्रा सायता की लघुकथाओं की पृष्ठभूमि और कथानक जीवन की मुख्यधारा से उपजते हैं और उनके पात्र समाज के हर वर्ग से उठ कर सामने आते हैं। इस पुस्तक में कुल 72 लघुकथाएँ संकलित है। इस संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ सशक्त है। लघुकथाओं की घटनाएँ और पात्र काल्पनिक नहीं, जीवंत लगते हैं। इस लघुकथा संग्रह की भूमिका बहुत ही सारगर्भित रूप से वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मिथिलेश दीक्षित ने लिखी है।  

माटी कहे कुम्हार से सकारात्मकता का बीज रोपित करती इस संग्रह की प्रमुख लघुकथा है। लघुकथा भिखारी सेठ में लेखिका कहती है,  "दद्दा! थोड़ा सा तो रहम करो मुझ पर। आपके बेटे जैसा हूँ। जरूरत आ पड़ी है, वरना…  वो तो ठीक है। मैं बिजनेस में कोई समझौता नहीं करता। यही एक कमी है मुझमें। बूढ़ा भिखारी टस से मस नहीं हुआ।” बासमती रिश्ते लघुकथा भी सकारात्मकता का बोध कराती रचना है। इस लघुकथा में एक जगह यह वर्णन दृष्टव्य है - "आप समझ सकती हैं कि अपने जवान बच्चों के सामने हम अगर निकाह कर लें तो उनके दिलों पर तो नश्तर चल जाएँगे। कहते हुए अशफाक ने जमीला की ओर से मसले का हल जानना चाहा। जी, आप दुरूस्त फरमा रहे हैं। इस मसले पर तो मैं पहले से सोचे बैठी हूँ। वह क्या? अशफाक अचानक ख़ुशी छुपाते हुए बोला। जमीला ने मुस्कुराते हुए कहा - हम पहले बच्चों से मशविरा कर लें, क्या वे एक दूसरे को पसंद करते हैं। वे साथ-साथ रहना चाहते हैं। ” लेखिका ने स्वार्थी दुनिया के मुखौटे का चित्रण ग़रीब लघुकथा में सटीक ढंग से किया है। वीराने में बहार और काशी जैसी सशक्त लघुकथाएँ मानवीय संवेदनाओं को झंकृत कर के रख देती है। भाभियाँ लघुकथा भाभियों के दोहरे चेहरों को बेनक़ाब करती है। उद्यान सौंदर्यीकरण, सच्चाई छुपाती तस्वीर, अधिकार, ऊँची दूकान, नास्तिक जैसी लघुकथाएँ समाज में व्याप्त विसंगतियों को उजागर करती हैं। लेखिका ने अकेलापन, अर्थी और अर्थ, अंकुरण इत्यादि लघुकथाओं में बच्चों के मनोविज्ञान को बहुत ही स्वाभाविक रूप से उकेरा है। लेखिका ने कुछ लघुकथाएँ जैसे ज़िन्दगी और समय, अकेलापन, तलाक। तलाक। तलाक।, माटी कहे कुम्हार से, वक़्त बादशाह, असली दोषी, वर्चस्व की लड़ाई इत्यादि सांकेतिक, मानवेतर पात्रों के माध्यम से व्यक्त की हैं। सामाजिक विसंगतियाँ, पुरुष के अहं, सोशल मीडिया, बाल मनोविज्ञान, मातृत्व भाव, बाज़ारवादी दृष्टिकोण, दोहरे चरित्र, नारी सुरक्षा, नैतिक और चारित्रिक कमज़ोरी इन सब विषयों पर लेखिका ने अपनी क़लम चलाई है।

इस संग्रह की रचनाएँ समाज को सीख देती हैं और साथ में समाज में व्याप्त विसंगतियों को देखने की एक नयी दृष्टि देती हैं। चन्द्रा सायता के लेखन में गंभीरता, सूक्ष्मता और यथार्थपरकता दृष्टिगोचर होती है। लेखिका की रचनाएँ जीवन की सच्चाइयों से साक्षात्कार कराती है। चन्द्रा सायता की लघुकथाएँ पाठकों को सोचने को मजबूर करती हैं, ज़िम्मेदारी का अहसास करवाती हैं। रचनाओं की भाषा सहज, स्वाभाविक और सम्प्रेषणीय है। संवेदना और भावना के स्तर पर चंद्रा सायता जी की लघुकथाएँ हमको उद्वेलित करती हैं। 103 पृष्ठ का यह लघुकथा संग्रह आपको कई विषयों पर सोचने के लिए मजबूर कर देता है। डॉ. चंद्रा सायता का यह लघुकथा संग्रह सराहनीय और पठनीय है। आशा है प्रबुद्ध पाठकों में इस लघुकथा संग्रह का स्वागत होगा।

Source:

http://sahityakunj.net/entries/view/sakaratmakata-ka-bodh-karati-laghukathon-ka-sangrh-mati-kahe-kumhar-se

मंगलवार, 10 सितंबर 2019

पुस्तक समीक्षा | दिदिया-लघुकथा-संग्रह (डॉ पूरन सिंह) | समीक्षक-शब्द मसीहा

पुस्तक : दिदिया- लघुकथा-संग्रह
लेखक : डॉ पूरन सिंह
समीक्षक : शब्द मसीहा
प्रकाशक : के बी एस प्रकाशन , दिल्ली 
पेज : 112
मूल्य : 200.00 रुपये


डॉ पूरन सिंह जी आज साहित्य जगत में परिचय के मोहताज नहीं हैं। देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ, कवितायें और लघुकथाएँ प्रकाशित होती रहीं हैं। मैं पिछले कई वर्षों से उनका पाठक हूँ । अक्सर मुलाक़ात होती रहती है । जब मेरे पास समय नहीं रहता तब फोन पर ही संपर्क बना रहता है । वे मेरे अच्छे मित्र भी हैं और अच्छे इंसान भी । रिश्तों को बहुत ही दिल से निभाते हैं ।

दिदिया- लघुकथा-संग्रह में कुल इकसठ लघुकथाएँ हैं । इस संग्रह की सबसे उल्लेखनीय बात है कि यह लघुकथा –संग्रह उन्होने अपनी बहिन को समर्पित किया है । पुस्तक का आत्मकथन बहुत ही भावुक करने वाला है। मित्रों का भी आभार व्यक्त किया है और मित्रों की राय भी मांगी है ।

वर्तमान में लघुकथा बहुत प्रचलित विधा है। अनेक लोगों ने अपने अनुसार अपनी-अपनी परिभाषाएँ भी दी हैं । मेरा मानना है कि जो लघुकथा पाठक को चिकोटी काट दे, जिसे पढ़ने पर मुँह खुला का खुला रह जाये और पाठक अवाक रह जाय...सन्न रह जाये..... इस तरह मानवीय हृदय की संवेदना को झंकृत कर दे वह कामयाब लघुकथा है। वे उम्र में मुझसे बड़े हैं। बहुत जगह छपते भी हैं इसलिए मैं उनका अनुज हूँ । लेकिन मैं एक पाठक हूँ अतः अपनी प्रतिक्रिया बतौर एक पाठक के ही रखना पसंद करूँगा।

“मेकअप” :- एक ऐसी लघुकथा है जहाँ एक मॉडर्न महिला शोक में जाते समय भी सफ़ेद साड़ी, सफ़ेद सेंडिल का मैचप करके जाती है ...मेकअप करके जाती है। यह विद्रूपता लेखक को ही नहीं बल्कि आमजन के हृदय को क्रोध से भर देती है । लेखक इस भाव को और नई पैदा होती सामाजिक बुराई पर कड़ी चोट करने में सक्षम हैं।

“हार-जीत” : प्रेम में बलिदान का बहुत बड़ा महत्व होता है। जीवन में प्रेम एक-दूसरे के बलिदान पर ही टिका होता है। एक युवक अपनी प्रेमिका के लिए जानबूझकर परीक्षा में फेल हो जाता है ताकि वह अपनी साथी के साथ रह सके । यूं तो यह बात खटकती है कि कोई मूर्ख ही ऐसा कर सकता है। मगर मैं मानता हूँ कि समझदार लोग प्यार कम गणित ज्यादा लगाते हैं और अक्सर परेशान रहते हैं। घटना बहुत साधारण है लेकिन उसमें निहित प्रेम ही इस कहानी की जान है।

“बचा लो उसे” : एक बहिन का सर्वोच्च बलिदान । किसी भी स्त्री की आबरू उसके लिए सबसे अहम होती है। अगर एक बहिन अपने भाई के ईलाज के लिए अपने सर्वस्व को सौंप दे तब उस बहिन को हम कुलटा कहेंगे या देवी ? उस पर भी अगर दैहिक सौंदर्य का पिपासु उस स्त्री के साथ कुछ न करके उसके भाई का सारा ईलाज खर्च अदा करे तब उसे हम क्या कहेंगे? बिना देह को स्पर्श करने पर अगर स्त्री पैसा वापिस कर दे तब उस मर्यादा को क्या कहेंगे? ऐसे ही कई सवाल मन में इस लघुकथा ने उठा दिये हैं। जिसमें त्याग ही त्याग की उच्च भावना है तो दूसरी तरफ मानवीयता भी है उस व्यक्ति की जिसने देह भी हासिल नहीं की और पूरे ईलाज का बिल भी चुकाया। हालांकि आजकल ऐसा होना मुमकिन नहीं लगता किन्तु फिर भी जिस भावना में डॉ पूरन सिंह जी ने पाठक को गोते लगवाए हैं वह प्रशंसनीय है।

“पगड़ी” :- एक माँ के सम्मान की कथा है । एक माँ ने अपने बच्चे को पालपोसकर शादी लायक किया पिता के न रहने पर । जब रिश्ते का समय आया तब पगड़ी किस के सिर बंधे यह सवाल खड़ा हो गया । लड़के ने अपनी माँ को तरजीह दी और उसके सिर पर पगड़ी बांधने को कहा । रिश्ता नहीं हो सका । लड़की का बाप कहता है, “चलो भाइयो, मुझे ऐसे घर में शादी नहीं करनी है जहाँ लुगाई मालकिन हो।“ कैसी विडम्बना है कि आज का समाज औरत के उस रूप और परिश्रम को नहीं देखता जहाँ एक महिला न सिर्फ अपनी औलाद को पालती है बल्कि बाप के सारे फर्ज़ भी निभाती है । ये कथा नारीवादी सोच का बहुत सुंदर प्रयोग है । समाज में इस स्त्री-पुरुष की गैरबराबरी पर बहुत गहरी चोट करती है।

“परजीवी” :- एक लेखक महोदय अपनी पुस्तक “परजीवी” लेकर लेखक के पास पहुँचे । बातों-बातों में लेखक के काम धंधे के विषय में पूछा तब उन्होने कहा,”मेरी पत्नी काम करती है और वहीं मेरी कविताओं को छपवाती है।“

पुस्तक का शीर्षक सार्थक हो गया। यह विडम्बना है कि कवि महोदय स्वयं परजीवी के अर्थ को समझ नहीं पाये थे । स्त्री किस प्रकार उस पुरुष को पति मानती होगी जो इस तरह अपनी पत्नी पर बोझ हो और कविता जैसी बौद्धिक प्रक्रिया में संलग्न हो, क्या सचमुच ऐसा व्यक्ति कवि कहलाने लायक है ? वह तो परजीवी ही हो सकता है । शीर्षक को सार्थक करती हुई लघुकथा है।

सबसे बड़ी बात किसी भी कथाकार में जो होनी चाहिए वह है मानवीयता और मानवीय गुणों का विस्तार देने वाली सोच। डॉ पूरन सिंह जी अपनी दलित विमर्श की कथाओं के लिए जाने जाते हैं। उन्हें अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया है । हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा उनकी कहानी “नरेसा की अम्मा उर्फ भजोरिया” का मंचन भी दिल्ली में हो चुका है । उनकी कई रचनाओं का अनेक प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इस सब को जानते हुए भी मैं कहना चाहूँगा कि कुछ रचनाएँ अभी और तीखी हो सकती थीं । रंदा कसाई की जरूरत है। मित्र हूँ, पाठक हूँ और शुभचिंतक होने के नाते यह मेरा दायित्व भी है कि जो मुझे खटका उसको संप्रेषित भी करूँ। यह एक साथी लेखक का और मित्र का धर्म है।

अंत में यही कहूँगा कि नारीमन को समझने का जो हृदय डॉ पूरन सिंह जी के पास है वह बहुत कम रचनाकारों में होता है। लघुकथाएँ कहीं भी जटिल नहीं हैं और अपना उद्देश्य बहुत ही सरलता से प्राप्त करते हुए पाठक के मन में सवाल पैदा करने और निराकारण देने में सक्षम हैं।

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