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मंगलवार, 10 सितंबर 2019

पुस्तक समीक्षा | दिदिया-लघुकथा-संग्रह (डॉ पूरन सिंह) | समीक्षक-शब्द मसीहा

पुस्तक : दिदिया- लघुकथा-संग्रह
लेखक : डॉ पूरन सिंह
समीक्षक : शब्द मसीहा
प्रकाशक : के बी एस प्रकाशन , दिल्ली 
पेज : 112
मूल्य : 200.00 रुपये


डॉ पूरन सिंह जी आज साहित्य जगत में परिचय के मोहताज नहीं हैं। देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ, कवितायें और लघुकथाएँ प्रकाशित होती रहीं हैं। मैं पिछले कई वर्षों से उनका पाठक हूँ । अक्सर मुलाक़ात होती रहती है । जब मेरे पास समय नहीं रहता तब फोन पर ही संपर्क बना रहता है । वे मेरे अच्छे मित्र भी हैं और अच्छे इंसान भी । रिश्तों को बहुत ही दिल से निभाते हैं ।

दिदिया- लघुकथा-संग्रह में कुल इकसठ लघुकथाएँ हैं । इस संग्रह की सबसे उल्लेखनीय बात है कि यह लघुकथा –संग्रह उन्होने अपनी बहिन को समर्पित किया है । पुस्तक का आत्मकथन बहुत ही भावुक करने वाला है। मित्रों का भी आभार व्यक्त किया है और मित्रों की राय भी मांगी है ।

वर्तमान में लघुकथा बहुत प्रचलित विधा है। अनेक लोगों ने अपने अनुसार अपनी-अपनी परिभाषाएँ भी दी हैं । मेरा मानना है कि जो लघुकथा पाठक को चिकोटी काट दे, जिसे पढ़ने पर मुँह खुला का खुला रह जाये और पाठक अवाक रह जाय...सन्न रह जाये..... इस तरह मानवीय हृदय की संवेदना को झंकृत कर दे वह कामयाब लघुकथा है। वे उम्र में मुझसे बड़े हैं। बहुत जगह छपते भी हैं इसलिए मैं उनका अनुज हूँ । लेकिन मैं एक पाठक हूँ अतः अपनी प्रतिक्रिया बतौर एक पाठक के ही रखना पसंद करूँगा।

“मेकअप” :- एक ऐसी लघुकथा है जहाँ एक मॉडर्न महिला शोक में जाते समय भी सफ़ेद साड़ी, सफ़ेद सेंडिल का मैचप करके जाती है ...मेकअप करके जाती है। यह विद्रूपता लेखक को ही नहीं बल्कि आमजन के हृदय को क्रोध से भर देती है । लेखक इस भाव को और नई पैदा होती सामाजिक बुराई पर कड़ी चोट करने में सक्षम हैं।

“हार-जीत” : प्रेम में बलिदान का बहुत बड़ा महत्व होता है। जीवन में प्रेम एक-दूसरे के बलिदान पर ही टिका होता है। एक युवक अपनी प्रेमिका के लिए जानबूझकर परीक्षा में फेल हो जाता है ताकि वह अपनी साथी के साथ रह सके । यूं तो यह बात खटकती है कि कोई मूर्ख ही ऐसा कर सकता है। मगर मैं मानता हूँ कि समझदार लोग प्यार कम गणित ज्यादा लगाते हैं और अक्सर परेशान रहते हैं। घटना बहुत साधारण है लेकिन उसमें निहित प्रेम ही इस कहानी की जान है।

“बचा लो उसे” : एक बहिन का सर्वोच्च बलिदान । किसी भी स्त्री की आबरू उसके लिए सबसे अहम होती है। अगर एक बहिन अपने भाई के ईलाज के लिए अपने सर्वस्व को सौंप दे तब उस बहिन को हम कुलटा कहेंगे या देवी ? उस पर भी अगर दैहिक सौंदर्य का पिपासु उस स्त्री के साथ कुछ न करके उसके भाई का सारा ईलाज खर्च अदा करे तब उसे हम क्या कहेंगे? बिना देह को स्पर्श करने पर अगर स्त्री पैसा वापिस कर दे तब उस मर्यादा को क्या कहेंगे? ऐसे ही कई सवाल मन में इस लघुकथा ने उठा दिये हैं। जिसमें त्याग ही त्याग की उच्च भावना है तो दूसरी तरफ मानवीयता भी है उस व्यक्ति की जिसने देह भी हासिल नहीं की और पूरे ईलाज का बिल भी चुकाया। हालांकि आजकल ऐसा होना मुमकिन नहीं लगता किन्तु फिर भी जिस भावना में डॉ पूरन सिंह जी ने पाठक को गोते लगवाए हैं वह प्रशंसनीय है।

“पगड़ी” :- एक माँ के सम्मान की कथा है । एक माँ ने अपने बच्चे को पालपोसकर शादी लायक किया पिता के न रहने पर । जब रिश्ते का समय आया तब पगड़ी किस के सिर बंधे यह सवाल खड़ा हो गया । लड़के ने अपनी माँ को तरजीह दी और उसके सिर पर पगड़ी बांधने को कहा । रिश्ता नहीं हो सका । लड़की का बाप कहता है, “चलो भाइयो, मुझे ऐसे घर में शादी नहीं करनी है जहाँ लुगाई मालकिन हो।“ कैसी विडम्बना है कि आज का समाज औरत के उस रूप और परिश्रम को नहीं देखता जहाँ एक महिला न सिर्फ अपनी औलाद को पालती है बल्कि बाप के सारे फर्ज़ भी निभाती है । ये कथा नारीवादी सोच का बहुत सुंदर प्रयोग है । समाज में इस स्त्री-पुरुष की गैरबराबरी पर बहुत गहरी चोट करती है।

“परजीवी” :- एक लेखक महोदय अपनी पुस्तक “परजीवी” लेकर लेखक के पास पहुँचे । बातों-बातों में लेखक के काम धंधे के विषय में पूछा तब उन्होने कहा,”मेरी पत्नी काम करती है और वहीं मेरी कविताओं को छपवाती है।“

पुस्तक का शीर्षक सार्थक हो गया। यह विडम्बना है कि कवि महोदय स्वयं परजीवी के अर्थ को समझ नहीं पाये थे । स्त्री किस प्रकार उस पुरुष को पति मानती होगी जो इस तरह अपनी पत्नी पर बोझ हो और कविता जैसी बौद्धिक प्रक्रिया में संलग्न हो, क्या सचमुच ऐसा व्यक्ति कवि कहलाने लायक है ? वह तो परजीवी ही हो सकता है । शीर्षक को सार्थक करती हुई लघुकथा है।

सबसे बड़ी बात किसी भी कथाकार में जो होनी चाहिए वह है मानवीयता और मानवीय गुणों का विस्तार देने वाली सोच। डॉ पूरन सिंह जी अपनी दलित विमर्श की कथाओं के लिए जाने जाते हैं। उन्हें अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया है । हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा उनकी कहानी “नरेसा की अम्मा उर्फ भजोरिया” का मंचन भी दिल्ली में हो चुका है । उनकी कई रचनाओं का अनेक प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इस सब को जानते हुए भी मैं कहना चाहूँगा कि कुछ रचनाएँ अभी और तीखी हो सकती थीं । रंदा कसाई की जरूरत है। मित्र हूँ, पाठक हूँ और शुभचिंतक होने के नाते यह मेरा दायित्व भी है कि जो मुझे खटका उसको संप्रेषित भी करूँ। यह एक साथी लेखक का और मित्र का धर्म है।

अंत में यही कहूँगा कि नारीमन को समझने का जो हृदय डॉ पूरन सिंह जी के पास है वह बहुत कम रचनाकारों में होता है। लघुकथाएँ कहीं भी जटिल नहीं हैं और अपना उद्देश्य बहुत ही सरलता से प्राप्त करते हुए पाठक के मन में सवाल पैदा करने और निराकारण देने में सक्षम हैं।

Source:
http://lalbiharilal.blogspot.com/2019/08/blog-post.html

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

लघुकथा को आज नजरअंदाज करना बेमानी है: डॉ बलराम अग्रवाल

श्री लालित्य ललित की फेसबुक पोस्ट से Lalitya Lalit is with Balram Agarwal at Kalidas Academy, Ujjain.September 5 at 6:15 PMUjjain

लघुकथा को आज नजरअंदाज करना बेमानी है: डॉ बलराम अग्रवाल

आज लघुकथा को अब गंभीरता से लिया जाने लगा है।बेहद छोटी मगर असरदार होती है इसकी मारक क्षमता कि कब तीर निकलता है और कब वह लक्ष्य पर पहुंच कर अपना निशाना लगा आता है।जी,हाँ इसका नाम लघुकथा है।

आज राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत द्वारा आयोजित उज्जैन पुस्तक मेले में लघुकथा पर एक यादगार गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें उज्जैन-इंदौर के बेहतरीन मगर राष्ट्रीय स्तर के लघुकथाकारों ने शिरकत की।जिसमें संतोष सुपेकर,राजेन्द्र देवघरे, मीरा जैन,कोमल वाधवानी,आशा गंगा शिरदोनकर ने अपनी लघुकथाओं का पाठ किया।इस मौके पर डॉ बलराम अग्रवाल की पुस्तक "लघुकथा का प्रबल पक्ष" का लोकार्पण भी मंचस्थ अतिथियों द्वारा किया गया।
सत्र की अध्यक्षता दिल्ली से पधारे वरिष्ठ लेखक डॉ बलराम अग्रवाल ने की।सत्र का समन्वय राजेन्द्र नागर ने किया।

कार्यक्रम से पूर्व राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत के हिंदी संपादक डॉ ललित किशोर मंडोरा ने न्यास की गतिविधियों से आमन्त्रित लेखकों का परिचय करवाया व आमन्त्रित वक्ताओं को न्यास की ओर से पुस्तकें भेंट की।उन्होंने कहा कि हम अपने अतिथियों का स्वागत पुस्तकों से करते है।
इस मौके पर अध्यक्षता कर रहे लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षर डॉ बलराम अग्रवाल ने कहा:
निश्चित ही यह बड़े सौभाग्य की बात है कि अब बड़े प्रकाशन घरानों ने लघुकथा को गम्भीरता से लेना शुरू कर दिया है।बेशक वह राष्ट्रीय पुस्तक न्यास हो या साहित्य अकादेमी हो।ये वह विधा है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
उन्होंने आगे कहा कि "युवा रचनाकारों को न्यास ने कार्यक्रमों में शामिल कर एक बड़ा कार्य किया है।सही मायने में न्यास प्रकाशन और लेखकों के बीच में एक महत्वपूर्ण कड़ी की भूमिका निभा रहा है। लघुकथा सामान्य से कुछ अलग हट कर विधा नहीं है।ये एक गंभीर विधा है जिसे आज पर्याप्त समझा जा रहा है।व्यक्ति समाज से लेता है व समाज को ही लौटाता है।"
इस मौके पर उन्होंने साहिर लुधियानवी का जिक्र करते हुए बात को आगे बढ़ाया।उन्होंने कहा कि "साहित्य मनुष्य के लिए है।हम आजकल अपनी सराउंडिंग भूल गए।जिसे नहीं भूलना चाहिए।आस पास का चित्रण भी हमारी कथाओं में बरबस ही नजर आता है।आसपास का बोध हमारी रचनाओं का केंद्र बिंदु है।"
दृष्टि नाम से अशोक जैन की पत्रिका का जिक्र भी अपने वक्तव्य में किया और साथ ही डॉ बलराम अग्रवाल ने अपनी कुछ लघुकथाओं का पाठ भी किया।
कार्यक्रम के सूत्रधार राजेन्द्र नागर ने कहा कि लघुकथा की ताकत ही यही होती है कि अपने आकार में वह मारक होती है और यही लघुकथा की ताकत भी यही है।
नेत्रहीन लघुकथाकार कोमल वाधवानी ने अपनी सुंदर लघुकथाओं से कार्यक्रम की शुरुआत की।
राजेन्द्र देवघरे ने अपनी लघुकथा"सड़क पर चर्चा " सुनाते हुए उन्होंने कहा कि जीवन में विसंगतियों का होना बेहद लाजिमी है,तभी उनकी लघुकथा सड़क पर चर्चा को देखते ही रह गए कि बारिश के दिनों में आखिर सड़क गई तो कहां!
उनकी अगली रचना 'प्रतिबंध' ने भी श्रोताओं के ध्यान अपनी और आकर्षित किया।
आशा गंगा शिरदोनकर ने अपनी सामयिक रचनाओं को शिक्षा दिवस के संदर्भ में सुनाई।जिसमें नकाबपोश व अन्य रचनाओं ने श्रोताओं को प्रभावित किया।
लघुकथा की नई शैली को विकसित करने में आशा गंगा शिदोंकर ने नया आयाम प्रस्तुत किया है।जिसने आकाशवाणी के कार्यक्रम हवामहल की याद दिला दी।
संतोष सुपेकर ने ओढ़ी हुई बुराई लघुकथा सुना कर हरियाणवी शैली श्रोताओं के सम्मुख रखने का जबरदस्त प्रयास किया।
मीरा जैन ने अपनी कुछ लघुकथाओं का पाठ किया जिसमें समकालीन विषयों को आधार बनाया गया।
उल्लेखनीय साहित्यकारों में इसरार अहमद,दिलीप जैन,विजय सिंह गहलौत,डॉ पुष्पा चौरसिया,नरेंद्र शर्मा,गड़बड़ नागर,पिलकेन्द्र अरोड़ा ,डॉ देवेंद्र जोशी भी कार्यक्रम में नजर आएं।

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

अनहद कृति में मेरी लघुकथा "भूख"

अनहद कृति ISSN: 2349-२७९१ के(अंक २६: सितम्बर ५, वर्ष २०१९ में मेरी लघुकथा "भूख" को स्थान मिला। संपादक द्वय, पुष्प राज चसवाल जी एवं डॉ प्रेम लता चसवाल 'प्रेम पुष्प' जी का हार्दिक आभार।

"भूख" / डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी


"उफ़..." रोटी के थाली में गिरते ही, थाली रोटी के बोझ से बेचैन हो उठी। रोज़ तो दिन में दो बार ही उसे रोटी का बोझ सहना होता था, लेकिन आज उसके मालिक नया मकान बनने की ख़ुशी में भिखारियों को भोजन करवा रहे थे, इसलिए अपनी अन्य साथियों के साथ उसे भी यह बोझ बार-बार ढोना पड़ रहा था।

थाली में रोटी रख कर जैसे ही मकान-मालिक आगे बढ़ा, तो देखा कि भिखारी के साथ एक कुत्ता बैठा है, और भिखारी रोटी का एक टुकड़ा तोड़ कर उस कुत्ते की तरफ़ बढ़ा रहा है, मकान-मालिक ने लात मारकर कुत्ते को भगा दिया।

और पता नहीं क्यों भिखारी भी विचलित होकर भरी हुई थाली वहीं छोड़ कर चला गया। 

यह देख थाली की बेचैनी कुछ कम हुई, उसने हँसते हुए कहा, "कुत्ता इंसानों की पंक्ति में और इंसान कुत्ते के पीछे!" 
रोटी ने उसकी बात सुनी और गंभीर स्वर में उत्तर दिया, "जब पेट खाली होता है तो इंसान और जानवर एक समान होता है। भूख को रोटी बांटने वाला और सहेजने वाला नहीं जानता, रोटी मांगने वाला जानता है।"

सुनते ही थाली को वहीं खड़े मकान-मालिक के चेहरे का प्रतिबिम्ब अपने बाहरी किनारों में दिखाई देने लगा।


Source:

सोमवार, 2 सितंबर 2019

लघुकथा समाचार | लघुकथाओं में बड़ी बात | दैनिक ट्रिब्यून | 01 Sep 2019 | मनमोहन गुप्ता मोनी

मनमोहन गुप्ता मोनी


लघुकथा के क्षेत्र में डॉ. मधुकांत का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा बाबू बालमुकुंद गुप्त साहित्य सम्मान से सम्मानित मधुकांत सातवें दशक से लघुकथा लेखन में सक्रिय हैं। उनकी अनेक पुस्तकें सम्मानित व प्रकाशित हो चुकी हैं। केवल लघुकथा पर ही उनके एक दर्जन से अधिक संग्रह छप चुके हैं। उपन्यास लेखन से लेकर कहानी, नाटक, कविता, व्यंग्य आदि के साथ-साथ लघुकथा का सृजन उनका निरंतर जारी है। लघुकथा की बात हो और डॉक्टर मधुकांत का जिक्र न हो, ऐसा संभव नहीं। थोड़े शब्दों में अधिक बात कहना आसान काम नहीं है। एक लघुकथा लेखक ही इसे पूर्ण कर सकती है।
डॉ. मधुकांत की रचनाओं को पढ़ने पर ऐसा लगता है कि जिंदगी का शायद ही कोई पल या विसंगति, उनकी रचनाओं में अछूती नहीं रही। एक ही विषय पर उनकी अनेक लघुकथाएं पढ़ने को मिल सकती हैं लेकिन उनमें पुनरावृत्ति नहीं है। शैक्षिक जगत से जुड़े रहने के कारण रचनाओं में अध्यापन अनुभव भी स्पष्ट दिखाई देता है। ‘ब्लैक बोर्ड’ की तरह ही ‘मेरी शैक्षिक लघुकथाएं’ में भी शिक्षा की बात अधिक है। लघुकथा संग्रह ‘तूणीर’ की रचनाओं को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि यह कोरी कल्पना पर आधारित है। ऐसा आभास होता है कि डॉ. मधुकांत ने हर रचना को जिया है। ‘नाम की महिमा’ लघुकथा में उन्होंने बिल्कुल सटीक इशारा किया है। इसी प्रकार अतिथि देवो भव, अंगूठे, आईना, सगाई, जानी-अनजानी, अन्न देवता आदि लघुकथाएं जिंदगी के बहुत करीब दिखाई देती हैं।

पुस्तक : तूणीर (लघुकथा संग्रह) 
लेखक : डॉ. मधुकांत 
प्रकाशक ः अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली 
पृष्ठ ः 121 
मूल्य ः रु. 240


Source:
https://www.dainiktribuneonline.com/2019/09/%E0%A4%B2%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%93%E0%A4%82-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%AC%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A4/

रविवार, 1 सितंबर 2019

फेसबुक समूह "शब्दशः" द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में मेरी विजेता लघुकथा





लघुकथा: अपरिपक्व / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

जिस छड़ी के सहारे चलकर वो चश्मा ढूँढने अपने बेटे के कमरे में आये थे, उसे पकड़ने तक की शक्ति उनमें नहीं बची थी। पलंग पर तकिये के नीचे रखी ज़हर की डिबिया को देखते ही वह अशक्त हो गये। कुछ क्षण उस डिबिया को हाथ में लिये यूं ही खड़े रहने के बाद उन्होंने अपनी सारी शक्ति एकत्रित की और चिल्लाकर अपने बेटे को आवाज़ दी,
"प्रबल...! यह क्या है..?"
बेटा लगभग दौड़ता हुआ अंदर पहुंचा, और अपने पिता के हाथ में उस डिबिया को देखकर किंकर्तव्यविमूढ होकर खड़ा हो गया। उन्होंने अपना प्रश्न दोहराया, "यह क्या है..?"
"जी... यह... रौनक के लिये..." बेटे ने आँखें झुकाकर लड़खड़ाते स्वर में कहा।
सुनते ही वो आश्चर्यचकित रह गये, लेकिन दृढ होकर पूछा, "क्या! मेरे पोते के लिये तूने यह सोच भी कैसे लिया?"
"पापा, पन्द्रह साल का होने वाला है वह, और मानसिक स्तर पांच साल का ही... कोई इलाज नहीं... उसे अर्थहीन जीवन से मुक्ति मिल जायेगी..." बेटे के स्वर में दर्द छलक रहा था।
उनकी आँखें लाल होने लगी, जैसे-तैसे उन्होंने अपने आँसू रोके, और कहा, "बूढ़े आदमी का मानसिक स्तर भी बच्चों जैसा हो जाता है, तो फिर इसमें से थोड़ा सा मैं भी...."
उन्होंने हाथ में पकड़ी ज़हर की डिबिया खोली ही थी कि उनके बेटे ने हल्का सा चीखते हुए कहा, "पापा...! बस।", और डिबिया छीन कर फैंक दी। वो लगभग गिरते हुए पलंग पर बैठ गये।
उन्होंने देखा कि ज़मीन पर बिखरा हुआ ज़हर बिलकुल पन्द्रह साल पहले की उस नीम-हकीम की दवाई की तरह था, जिससे केवल बेटे ही पैदा होते थे।
और उन्हें उस ज़हर में डूबता हुआ उनकी पुत्रवधु का शव और अपनी गोद में खेलता पोते का अर्धविकसित मस्तिष्क भी दिखाई देने लगा।

गुरुवार, 22 अगस्त 2019

बिजेंद्र जैमिनी जी के ब्लॉग पर परिचर्चा : बिना संवाद के सार्थक लघुकथा सम्भव है क्या?


बिजेंद्र जैमिनी जी ने अपने ब्लॉग पर एक महत्वपूर्ण विषय पर  परिचर्चा का आयोजन किया है। कोई भी लघुकथा वर्णनात्मक हो सकती है, संवादात्मक हो सकती है और इन दोनों का मिश्रण भी हो सकती है। हलांकि कई व्यक्तियों का विचार यह है कि  संवादों के बिना लघुकथा प्रभावी नहीं होती। 

यह परिचर्चा निम्न लिंक पर उपलब्ध है:

परिचर्चा : बिना संवाद के सार्थक लघुकथा सम्भव है क्या ? 


इस परिचर्चा में  मेरे विचार निम्नानुसार हैं:

संवाद लघुकथा का अनिवार्य तत्व नहीं है। हालाँकि यह भी सत्य है कि तीक्ष्ण कथोपकथन द्वारा लघुकथा का कसाव, प्रवाह और सन्देश अधिक आसानी से सम्प्रेषित किया जा सकता है, इसका एक कारण यह भी है कि वार्तालाप मानवीय गुण है अतः पाठकों को अधिक आसानी से रचना का मर्म समझ में आ जाता है लेकिन इसके विपरीत लघुकथा लेखन में इस तरह की शैलियाँ भी हैं जिनमें लघुकथा सार्थक रहते हुए भी संवाद न होने की पूरी गुंजाइश है, उदहारणस्वरुप पत्र शैली। केवल पत्र शैली ही नहीं कितनी ही सार्थक और प्रभावी लघुकथाएं ऐसी रची गयी हैं जिनमें संवाद नहीं है। खलील जिब्रान की लघुकथा "औरत और मर्द",  रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु की "धर्म–निरपेक्ष " आदि इनके उदाहरण हैं।  

हालाँकि लघुकथा में कथोपकथन हो अथवा नहीं, इसका निर्णय रचना की सहजता को बरकरार रखते हुए ही करना चाहिए। रचना का सहज स्वरूप कलात्मक तरीके से अनावृत्त होना भी लघुकथा की सार्थकता ही है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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उपरोक्त विचार में मैंने दो लघुकथाओं का जिक्र किया है, जिन्हें  परिचर्चा में सम्मिलित करने से वह काफी लम्बी हो जाती। यहाँ उन दोनों लघुकथाओं को आपके समक्ष पेश कर रहा हूँ: 

1. खलील जिब्रान की इस लघुकथा का अनुवाद वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. बलराम अग्रवाल ने किया है। इसकी गहराई में उतर कर देखिये:

"औरत और मर्द" / खलील जिब्रान

एक बार मैंने एक औरत का चेहरा देखा। 
उसमें मुझे उसकी समस्त अजन्मी सन्तानें दिखाई दीं।
और एक औरत ने मेरे चेहरे को देखा। 
वह अपने जन्म से भी पहले मर चुके मेरे सारे पुरखों को जान गई।

2. दूसरी रचना "धर्म-निरपेक्ष" जिसके रचियता रामेश्वर काम्बोज 'हिंमाशु' जी हैं,  के बारे में जाने-माने लघुकथाकार श्री सुकेश साहनी बताते हैं कि, "इस रचना ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। साम्प्रदायिकता जैसे विषय पर जिस लेखकीय दायित्व एवं अनुशासन की ज़रूरत होती है और जिसे बड़े सिद्धहस्त लेखक साधने में चूक कर जाते हैं, उसका सफल निर्वहन इस रचना में हुआ है। वर्षों पहले की बात है, मैं हंस कार्यालय में राजेन्द्र यादव जी के पास बैठा था। हंस के ताजा अंक में किसी कहानीकार की साम्प्रदायिकता पर एक लघुकथा छपी थी जिसमें लेखक रचना में उपस्थित होकर एक सम्प्रदाय विशेष के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। मैंने यादव जी से रचना की इस कमजोरी पर चर्चा की थी, उदाहरण के रूप में काम्बोज की लघुकथा 'धर्म-निरपेक्ष' का समापन कोट किया था; जिसे उन्होंने सराहा था।
(Source: रामेश्वर काम्बोज की अर्थगर्भी लघुकथाएँ / सुकेश साहनी - Gadya Kosh)

इस रचना को आप भी पढ़िए और गुनिये कि यह सार्थक लघुकथाओं के लिए मार्गदर्शक लघुकथा है कि नहीं:

धर्म-निरपेक्ष / रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु
शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भाले की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक–दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग–अलग थे। पहले ने दूसरे को माँ की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने–अपने छुरे निकाल लिये। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक–दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।
उन्होंने हाथ तौलकर एक–दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटपटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। ज़मीन खून से भीग गई।
कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और सूखी हड्डी चबाने में लग गया।
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