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सोमवार, 2 सितंबर 2019

लघुकथा समाचार | लघुकथाओं में बड़ी बात | दैनिक ट्रिब्यून | 01 Sep 2019 | मनमोहन गुप्ता मोनी

मनमोहन गुप्ता मोनी


लघुकथा के क्षेत्र में डॉ. मधुकांत का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा बाबू बालमुकुंद गुप्त साहित्य सम्मान से सम्मानित मधुकांत सातवें दशक से लघुकथा लेखन में सक्रिय हैं। उनकी अनेक पुस्तकें सम्मानित व प्रकाशित हो चुकी हैं। केवल लघुकथा पर ही उनके एक दर्जन से अधिक संग्रह छप चुके हैं। उपन्यास लेखन से लेकर कहानी, नाटक, कविता, व्यंग्य आदि के साथ-साथ लघुकथा का सृजन उनका निरंतर जारी है। लघुकथा की बात हो और डॉक्टर मधुकांत का जिक्र न हो, ऐसा संभव नहीं। थोड़े शब्दों में अधिक बात कहना आसान काम नहीं है। एक लघुकथा लेखक ही इसे पूर्ण कर सकती है।
डॉ. मधुकांत की रचनाओं को पढ़ने पर ऐसा लगता है कि जिंदगी का शायद ही कोई पल या विसंगति, उनकी रचनाओं में अछूती नहीं रही। एक ही विषय पर उनकी अनेक लघुकथाएं पढ़ने को मिल सकती हैं लेकिन उनमें पुनरावृत्ति नहीं है। शैक्षिक जगत से जुड़े रहने के कारण रचनाओं में अध्यापन अनुभव भी स्पष्ट दिखाई देता है। ‘ब्लैक बोर्ड’ की तरह ही ‘मेरी शैक्षिक लघुकथाएं’ में भी शिक्षा की बात अधिक है। लघुकथा संग्रह ‘तूणीर’ की रचनाओं को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि यह कोरी कल्पना पर आधारित है। ऐसा आभास होता है कि डॉ. मधुकांत ने हर रचना को जिया है। ‘नाम की महिमा’ लघुकथा में उन्होंने बिल्कुल सटीक इशारा किया है। इसी प्रकार अतिथि देवो भव, अंगूठे, आईना, सगाई, जानी-अनजानी, अन्न देवता आदि लघुकथाएं जिंदगी के बहुत करीब दिखाई देती हैं।

पुस्तक : तूणीर (लघुकथा संग्रह) 
लेखक : डॉ. मधुकांत 
प्रकाशक ः अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली 
पृष्ठ ः 121 
मूल्य ः रु. 240


Source:
https://www.dainiktribuneonline.com/2019/09/%E0%A4%B2%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%93%E0%A4%82-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%AC%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A4/

रविवार, 1 सितंबर 2019

फेसबुक समूह "शब्दशः" द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में मेरी विजेता लघुकथा





लघुकथा: अपरिपक्व / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

जिस छड़ी के सहारे चलकर वो चश्मा ढूँढने अपने बेटे के कमरे में आये थे, उसे पकड़ने तक की शक्ति उनमें नहीं बची थी। पलंग पर तकिये के नीचे रखी ज़हर की डिबिया को देखते ही वह अशक्त हो गये। कुछ क्षण उस डिबिया को हाथ में लिये यूं ही खड़े रहने के बाद उन्होंने अपनी सारी शक्ति एकत्रित की और चिल्लाकर अपने बेटे को आवाज़ दी,
"प्रबल...! यह क्या है..?"
बेटा लगभग दौड़ता हुआ अंदर पहुंचा, और अपने पिता के हाथ में उस डिबिया को देखकर किंकर्तव्यविमूढ होकर खड़ा हो गया। उन्होंने अपना प्रश्न दोहराया, "यह क्या है..?"
"जी... यह... रौनक के लिये..." बेटे ने आँखें झुकाकर लड़खड़ाते स्वर में कहा।
सुनते ही वो आश्चर्यचकित रह गये, लेकिन दृढ होकर पूछा, "क्या! मेरे पोते के लिये तूने यह सोच भी कैसे लिया?"
"पापा, पन्द्रह साल का होने वाला है वह, और मानसिक स्तर पांच साल का ही... कोई इलाज नहीं... उसे अर्थहीन जीवन से मुक्ति मिल जायेगी..." बेटे के स्वर में दर्द छलक रहा था।
उनकी आँखें लाल होने लगी, जैसे-तैसे उन्होंने अपने आँसू रोके, और कहा, "बूढ़े आदमी का मानसिक स्तर भी बच्चों जैसा हो जाता है, तो फिर इसमें से थोड़ा सा मैं भी...."
उन्होंने हाथ में पकड़ी ज़हर की डिबिया खोली ही थी कि उनके बेटे ने हल्का सा चीखते हुए कहा, "पापा...! बस।", और डिबिया छीन कर फैंक दी। वो लगभग गिरते हुए पलंग पर बैठ गये।
उन्होंने देखा कि ज़मीन पर बिखरा हुआ ज़हर बिलकुल पन्द्रह साल पहले की उस नीम-हकीम की दवाई की तरह था, जिससे केवल बेटे ही पैदा होते थे।
और उन्हें उस ज़हर में डूबता हुआ उनकी पुत्रवधु का शव और अपनी गोद में खेलता पोते का अर्धविकसित मस्तिष्क भी दिखाई देने लगा।

गुरुवार, 22 अगस्त 2019

बिजेंद्र जैमिनी जी के ब्लॉग पर परिचर्चा : बिना संवाद के सार्थक लघुकथा सम्भव है क्या?


बिजेंद्र जैमिनी जी ने अपने ब्लॉग पर एक महत्वपूर्ण विषय पर  परिचर्चा का आयोजन किया है। कोई भी लघुकथा वर्णनात्मक हो सकती है, संवादात्मक हो सकती है और इन दोनों का मिश्रण भी हो सकती है। हलांकि कई व्यक्तियों का विचार यह है कि  संवादों के बिना लघुकथा प्रभावी नहीं होती। 

यह परिचर्चा निम्न लिंक पर उपलब्ध है:

परिचर्चा : बिना संवाद के सार्थक लघुकथा सम्भव है क्या ? 


इस परिचर्चा में  मेरे विचार निम्नानुसार हैं:

संवाद लघुकथा का अनिवार्य तत्व नहीं है। हालाँकि यह भी सत्य है कि तीक्ष्ण कथोपकथन द्वारा लघुकथा का कसाव, प्रवाह और सन्देश अधिक आसानी से सम्प्रेषित किया जा सकता है, इसका एक कारण यह भी है कि वार्तालाप मानवीय गुण है अतः पाठकों को अधिक आसानी से रचना का मर्म समझ में आ जाता है लेकिन इसके विपरीत लघुकथा लेखन में इस तरह की शैलियाँ भी हैं जिनमें लघुकथा सार्थक रहते हुए भी संवाद न होने की पूरी गुंजाइश है, उदहारणस्वरुप पत्र शैली। केवल पत्र शैली ही नहीं कितनी ही सार्थक और प्रभावी लघुकथाएं ऐसी रची गयी हैं जिनमें संवाद नहीं है। खलील जिब्रान की लघुकथा "औरत और मर्द",  रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु की "धर्म–निरपेक्ष " आदि इनके उदाहरण हैं।  

हालाँकि लघुकथा में कथोपकथन हो अथवा नहीं, इसका निर्णय रचना की सहजता को बरकरार रखते हुए ही करना चाहिए। रचना का सहज स्वरूप कलात्मक तरीके से अनावृत्त होना भी लघुकथा की सार्थकता ही है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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उपरोक्त विचार में मैंने दो लघुकथाओं का जिक्र किया है, जिन्हें  परिचर्चा में सम्मिलित करने से वह काफी लम्बी हो जाती। यहाँ उन दोनों लघुकथाओं को आपके समक्ष पेश कर रहा हूँ: 

1. खलील जिब्रान की इस लघुकथा का अनुवाद वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. बलराम अग्रवाल ने किया है। इसकी गहराई में उतर कर देखिये:

"औरत और मर्द" / खलील जिब्रान

एक बार मैंने एक औरत का चेहरा देखा। 
उसमें मुझे उसकी समस्त अजन्मी सन्तानें दिखाई दीं।
और एक औरत ने मेरे चेहरे को देखा। 
वह अपने जन्म से भी पहले मर चुके मेरे सारे पुरखों को जान गई।

2. दूसरी रचना "धर्म-निरपेक्ष" जिसके रचियता रामेश्वर काम्बोज 'हिंमाशु' जी हैं,  के बारे में जाने-माने लघुकथाकार श्री सुकेश साहनी बताते हैं कि, "इस रचना ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। साम्प्रदायिकता जैसे विषय पर जिस लेखकीय दायित्व एवं अनुशासन की ज़रूरत होती है और जिसे बड़े सिद्धहस्त लेखक साधने में चूक कर जाते हैं, उसका सफल निर्वहन इस रचना में हुआ है। वर्षों पहले की बात है, मैं हंस कार्यालय में राजेन्द्र यादव जी के पास बैठा था। हंस के ताजा अंक में किसी कहानीकार की साम्प्रदायिकता पर एक लघुकथा छपी थी जिसमें लेखक रचना में उपस्थित होकर एक सम्प्रदाय विशेष के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। मैंने यादव जी से रचना की इस कमजोरी पर चर्चा की थी, उदाहरण के रूप में काम्बोज की लघुकथा 'धर्म-निरपेक्ष' का समापन कोट किया था; जिसे उन्होंने सराहा था।
(Source: रामेश्वर काम्बोज की अर्थगर्भी लघुकथाएँ / सुकेश साहनी - Gadya Kosh)

इस रचना को आप भी पढ़िए और गुनिये कि यह सार्थक लघुकथाओं के लिए मार्गदर्शक लघुकथा है कि नहीं:

धर्म-निरपेक्ष / रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु
शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भाले की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक–दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग–अलग थे। पहले ने दूसरे को माँ की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने–अपने छुरे निकाल लिये। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक–दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।
उन्होंने हाथ तौलकर एक–दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटपटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। ज़मीन खून से भीग गई।
कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और सूखी हड्डी चबाने में लग गया।
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बुधवार, 21 अगस्त 2019

अविराम सहित्यिकी के जुलाई-सितंबर 2019 के अंक में मेरी लघुकथा

शह की संतान / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

तेज़ चाल से चलते हुए काउंसलर और डॉक्टर दोनों ही लगभग एक साथ बाल सुधारगृह के कमरे में पहुंचे। वहां एक कोने में अकेला खड़ा वह लड़का दीवार थामे कांप रहा था। डॉक्टर ने उस लड़के के पास जाकर उसकी नब्ज़ जाँची, फिर ठीक है की मुद्रा में सिर हिलाकर काउंसलर से कहा, "शायद बहुत ज़्यादा डर गया है।"

काउंसलर के चेहरे पर चौंकने के भाव आये, अब वह उस लड़के के पास गया और उसके कंधे पर हाथ रख कर पूछा, "क्या हुआ तुम्हें?"

फटी हुई आँखों से उन दोनों को देखता हुआ वह लड़का कंधे पर हाथ का स्पर्श पाते ही सिहर उठा। यह देखकर काउंसलर ने उसके कंधे को धीमे से झटका और फिर पूछा, "डरो मत, बताओ क्या हुआ?"

वह लड़का अपने कांपते हुए होठों से मुश्किल से बोला, "सर... पुलिस वालों के साथ...  लड़के भी मुझे डराते हैं... कहते हैं बहुत मारेंगे... एक ने मेरी नेकर उतार दी... और दूसरे ने खाने की थाली..."

सुनते ही बाहर खड़ा सिपाही तेज़ स्वर में बोला, "सर, मुझे लगता है कि ये ही ड्रामा कर रहा है। सिर्फ एक दिन डांटने पर बिना डरे जो अपने प्रिंसिपल को गोली मार सकता है वो इन बच्चों से क्या डरेगा?"

सिपाही की बात पूरी होने पर काउंसलर ने उस लड़के पर प्रश्नवाचक निगाह डाली, वह लड़का तब भी कांप रहा था, काउंसलर की आँखें देख वह लड़खड़ाते स्वर में बोला,

"सर, डैडी ने मुझे कहा था कि... प्रिंसिपल और टीचर्स मुझे हाथ भी लगायेंगे तो वे उन सबको जेल भेज देंगे... उनसे डरना मत.... लेकिन उन्होंने... इन लड़कों के बारे में तो कभी कुछ नहीं..."

कहते हुए उस लड़के को चक्कर आ गए और वह जमीन पर गिर पड़ा।




रविवार, 18 अगस्त 2019

"लघुकथा कलश" के "रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक" का विमोचन

श्री योगराज प्रभाकर Yograj Prabhakar की फेसबुक वॉल से 


"लघुकथा कलश" के "रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक" का विमोचन आज दिनांक 18 अगस्त 2019 को ओमप्रकाश ग्रेवाल विद्या संस्थान, कुरुक्षेत्र (हरियाणा) के तत्त्वावधान में सर्वश्री रामकुमार आत्रेय, डॉ० अशोक भाटिया, डॉ० राधेश्याम भारतीय, डॉ० अमृतलाल मदान, बलराज सिंह मेहरोत डॉ० ओमप्रकाश करुणेश, रवि प्रभाकर व डॉ० ऊषा लाल के कर कमलों से संपन्न हुआ. इस कार्यक्रम में अन्य लोगों के साथ-साथ उदीयमान लघुकथाकार सतविंद्र राणा, पंकज शर्मा, कुणाल शर्मा, सुश्री अंजलि गुप्ता व मधु गोयल भी शामिल थे.






गुरुवार, 15 अगस्त 2019

लघुकथा: ना-लायक

देश के स्वतंत्रता दिवस पर, उसे स्कूल के बाहर से ही झंडा लहराता हुआ दिखाई दे रहा था, परन्तु उसका हृदय झंडे से भी तेज़ लहरा रहा था, मानो मिट्टी की सुगंध लिये हवा झंडे को छूते हुए उसकी कार के अंदर तक पहुँच रही थी। उसकी पत्नी के कल ही कहे के शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे जब वह चिल्लाते हुए घर में घुसी थी,
"सुनते हो, गुप्ता जी की बेटी दौड़ में अव्वल आई है और एक हमारी सीतू है, पास हो जाती है यही उसका एहसान है। आठवीं में है और बैठी ऐसे रहती है जैसे 50 साल की बुढ़िया हो। अब ऐसी मंदबुद्धि और नालायक बेटी से उम्मीद रखूँ भी तो क्या?"
वह सिर पकड़ कर बैठ गया था। चाहता तो वह भी था कि उसकी बेटी हर क्षेत्र में आगे बढे और अपनी बेटी के विकास के लिए जब वह घर पर होती तो उसने अच्छा संगीत और देश-प्रेम के गीत बजाना भी प्रारम्भ किया था, लेकिन उसकी पत्नी ही यह कहकर रोक देती कि, "पढाई तो करती ही नहीं, फिर इसमें क्या करेगी, यह सबसे अलग ही है?"
बारिश के कारण स्कूल के बाहर कीचड़ जमा हो गयी थी, जिसमें देश के छोटे-छोटे झंडे गिरे पड़े थे । अगले ही क्षण उसकी आँखों से आंसू निकल आये, जब उसने देखा कि बाकी सारे बच्चे तो पानी से बचते हुए निकल रहे थे, लेकिन उसकी नालायक बेटी अकेली उस कीचड़ में गंदे होने की परवाह किये बिना अपने हाथ डाल कर झंडे बाहर निकाल रही थी।
और उसके मुंह से निकल गया, "सच में सबसे अलग..."

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी, 

अशोक शर्मा भारती की हिन्दी लघुकथा “पन्द्रह अगस्त” का नेपाली अनुवाद अनुवादकर्ताः एकदेव अधिकारी

स्वतन्त्रता
“साहुजी, सुखिया पन्ध्र दिनदेखि ओछ्यानमा थला परेको छ ।” कामदारहरूले जमिन्दारसँग भने ।
जमिन्दार रिसले चुर भएर कुर्लिन थाल्यो, “सुखिया त बिरामी छ ... त्यसको छाउरो त बिरामी छैन होला नि ... जाओ ... त्यो छाउरोलाई ल्याएर उसको बाउको सट्टा खेतको काममा जोतिदेओ ।”
सुखियाको छोरो हरियालाई कामदारहरूले जमिन्दारको आदेश सुनाए । रिसले नाकको पोरा फुलाएर कामदारहरूलाई हेर्दै हरिया चिच्यायो, “के रे ?” उसको आँखा सल्केका गोल झैँ राता थिए ।
“तेरो बाउको सट्टामा ...।” कामदारहरूले भने ।
“किन ...?” हरियाका आँखाबाट मानौँ आगोको ज्वाला निस्कँदै थियो ।
“किनकि तेरो बाउ जमिन्दारको घरको कमारो हो...।” कामदारहरूले उसलाई खाउँला झैँ गरेर हेर्न थाले ।
“जाओ..., गएर तिमीहरूको जमिन्दारसँग भनिदेऊ कि उसको कमारो सुखिया हो... हरिया होइन... अनि कहिल्यै हुँदैन पनि ।” हरिया हातको लाठी उचाल्दै गर्जियो । उसका पाखुराका मांशपेशी सलबलाउन थाले ।
गाँउलेहरु एकत्रित भइसकेका थिए।

लघुकथा का हिन्दी पाठ

पन्द्रह अगस्त

“सुखिया पन्द्रह दिनों से बिस्तर पर पड़ा हुआ है मालिकI” कारिंदों ने ज़मींदार से कहाI
ज़मींदार गुस्से से उबलने लगा, “सुखिया बीमार है... उसका लौंडा तो नहीं... जाओ... पकड़ लाओ ससुरे को और जोत दो उसके बाप की जगह खेत मेंI” 
सुखिया के लड़के हरिया को जब कारिंदों ने ज़मींदार का आदेश सुनाया तो वह दहाड़ उठा, 
“क्यों...? खून उसकी आँखों में उतर आयाI 
“तुम्हारे बाप की जगह...I” कारिंदों ने कहाI
“किसलिए...?” हरिया की आँखें अंगारे बरसाने लगींI
“इसलिए कि तुम्हारा बाप ज़मींदार के यहाँ बंधुआ है...I” कारिंदों ने उसे खा जाने वाली निगाहों से देखाI
“जाओ.., जाकर कह देना तुम्हारे ज़मींदार से, उसका बंधुआ सुखिया है... हरिया नहीं... और न कभी होगाI” हरिया लाठी सँभालते हुए गरजने लगाI उसके बाज़ू फड़कने लगेI
गाँव इकठ्ठा हो चुका थाI