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बुधवार, 19 जून 2019

लघुकथाकार परिचय: श्री मधुदीप गुप्ता और उनकी एक रचना पर मेरी प्रतिक्रिया | डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो मील के पत्थर स्थापित करते हैं और जब दूसरे व्यक्ति उसी राह पर निकलते हैं तो मील के पत्थरों को देखते ही उन्हें स्थापित करने वालों से स्वतः ही उनका परिचय हो जाता है। लघुकथा लेखन में मील के पत्थर स्थापित करने वाले मधुदीप गुप्ता जी जैसे व्यक्ति किसी परिचय के मोहताज नहीं, बल्कि उनका परिचय उनके द्वारा किया गया महती कार्य है, जो जगह-जगह दिखाई देता है। लघुकथा लेखन की शुरुआत के साथ ही लगभग हर लेखक का मधुदीप गुप्ता जी से परिचय किसी न किसी तरह अपने-आप ही हो जाता है। मुझ सहित हम में से कई रचनाकारों को आपने न केवल पड़ाव और पड़ताल द्वारा बल्कि फोन, फेसबुक और अन्य साधनों द्वारा भी व्यक्तिगत रूप से कई बार लघुकथा लेखन को बेहतर करने हेतु अमूल्य सुझावों से धन्य किया है। लघुकथा सम्बंधित कई तरह के प्रश्न और उत्तर आपकी फेसबुक टाइमलाइन पर भी दिखाई दे जायेंगे।
लघुकथाकारों सहित सभी लेखकों को आपके द्वारा दिया गया एक मन्त्र है कि,"लिखने से पहले उसके बारे में अच्छा पढ़ना और उसे समझना बहुत ज़रूरी है"। सत्य है कि बिना अच्छा पढ़े अच्छा लेखन असंभव ही है। वे 20 वर्षों तक लेखन में सक्रिय नहीं रहे।  लेकिन मैं समझता हूँ कि उन 20 वर्षों में वे पठन में अक्रिय नहीं रहे होंगे।

अब तक पड़ाव और पड़ताल नामक लघुकथा की श्रंखला के जरिये 31 खण्डों के जरिये आपने लघुकथा के बहुत से रचनाकारों को एक बैनर तले लाने का ऐसा कार्य किया है, जो शायद ही कोई कर सके। इसके लगभग सभी अंक मैं पढ़ चुका हूँ और इसका सेट हमारे विश्वविद्यालय शोधार्थियों के लिए भी हमारी सेंट्रल लाइब्ररी में पिछले एक-डेढ वर्षों से उपलब्ध है। इसे पढ़ने के पश्चात मेरे अनुसार पड़ाव और पड़ताल, "लघुकथा का बाइबिल" है, जिसमें लघुकथा सम्बन्धी काफी सारी जानकारी मय उदाहरण और लघुकथाकारों की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ उपलब्ध हैं। 

पड़ाव और पड़ताल के खंड 1 के पृष्ठ 83 पर उनका परिचय और पृष्ठ 84 से उनकी रचनाएँ हैं। इनमें सबसे पहली रचना है - "हिस्से का दूध"। मेरी पसंद की यह रचना काफी चर्चित रही है।

हिस्से का दूध / श्री मधुदीप गुप्ता
उनींदी आँखों को मलती हुई वह अपने पति के करीब आकर बैठ गई। वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था।
‘‘सो गया मुन्ना....?’’
‘‘जी! लो दूध पी लो।’’ सिल्वर का पुराना गिलास उसने बढ़ाया।
‘‘नहीं, मुन्ने के लिए रख दो। उठेगा तो....।’’ वह गिलास को माप रहा था।
‘‘मैं उसे अपना दूध पिला दूँगी।’’ वह आश्वस्त थी।
‘‘पगली, बीड़ी के ऊपर दूध–चाय नहीं पीते। तू पी ले।’’ उसने बहाना बनाकर दूध को उसके और करीब कर दिया।
तभी–
बाहर से हवा के साथ एक स्वर उसके कानों से टकराया। उसकी आँखें कुर्ते की खाली जेब में घुस गई।
‘‘सुनो, जरा चाय रख देना।’’
पत्नी से कहते हुए उसका गला बैठ गया।
००

उपरोक्त रचना पर मेरी प्रतिक्रिया एवं पसंद का कारण:

किसी भी पाठक की सबसे पहले दृष्टि लघुकथा के शीर्षक पर जाती है। इसलिए लघुकथाकार शीर्षक ऐसा चुनते हैं जो पाठकों को वह लघुकथा पढ़ने के लिए प्रेरित करे। शीर्षक रोचक भी हो सकता है तो व्यंग्यनुमा भी। इस लघुकथा "हिस्से का दूध" का शीर्षक पाठकों के मस्तिष्क में उत्सुकता जगाता है।  उत्सुकता यह उठती है कि लहगुक्था में कहीं किसी के हिस्से का दूध गिर गया या फिर बच्चे दूध का भी हिस्सा कर रहे, आदि-आदि। यह शीर्षक कलात्मक भी है और भावात्मक भी क्योंकि "हिस्सा" शब्द पढ़ते ही कहीं न कहीं परिवार हमारे दिमाग में आता है इसलिए भावों से जुड़ ही रहा है और साथ-साथ ही दूध के हिस्से को शीर्षक दर्शाना मधुदीप जी के कलात्मक कौशल का परिचय है।

लघुकथा के कथ्य पर बात करें तो एक परिवार जिसकी माली हालत अच्छी नहीं, अपने बच्चे को अच्छी तरह पालना चाहते हैं। हम भारतीयों की यह खासियत तो है ही कि बच्चे हो जाने के बाद हम खुद के लिए कम और अपने बच्चों के लिए ज़्यादा जीते हैं। मार्मिक करती यह लघुकथा कथोपकथन और वर्णनात्मक दोनों का मिश्रित शिल्प लिए हुए है। भाषा की दृष्टि से आम व्यक्ति को भी समझ में आने योग्य  है। मेरी समझ से लघुकथाकार ने लघुकथा को इस तरह कहने का प्रयास किया है ताकि एक घटना पाठकों के दिमाग में चित्रित भी हो। जैसे इन पंक्तियों पर गौर कीजिये //उनींदी आँखों को मलती हुई//, //दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था//, //वह गिलास को माप रहा था।// - आदि।

इस लघुकथा की एक पंक्ति मुझे बहुत अच्छी लगी वह है - //वह आश्वस्त थी।// माँ होकर एक पत्नी यह कहती है कि - मैं अपने बच्चे को अपना दूध पिला दूँगी और चाहती है कि उसका पति दूध पी ले। एक नारी के तीन रूप एक ही पंक्ति में बता दिये हैं मधुदीप जी ने। माँ होकर बच्चे को दूध पिलाना, पत्नी होकर पति की चिंता और गृहिणी होकर आश्वस्त होकर घर की ज़िम्मेदारी। हालांकि लघुकथाकार ने पति से' भी यह कहलवा है कि वह पत्नी को दूध पीने को कह रहा है, यह आदर्शवाद तो है लेकिन रचनाकार ने इसके जरिये भी एक परिवार की आर्थिक स्थिति दर्शाते हुए समाज के एक वर्ग के हालात भी दर्शाने का सफल प्रयास किया है।


पति का पहले यह कहना कि //‘‘पगली, बीड़ी के ऊपर दूध–चाय नहीं पीते। तू पी ले।’// और बाद में यह कहना कि //‘‘सुनो, जरा चाय रख देना।’’// कुछ समीक्षकों को खल सकता है लेकिन मेरी दृष्टि में यह है कि यह एक भूखे व्यक्ति जो पति भी है और पिता भी है की भावनाओं को दर्शा दिया है और साथ ही यह संदेश दिया है कि त्याग करना केवल नारी का ही कार्य नहीं - पुरुष को सहभागी होना ही चाहिए। समय के अनुसार समाज के बदलाव को भी इंगित किया है यहाँ रचनाकार ने।

इस रचना को पढ़ना प्रारम्भ करते ही "उनींदी आँखों को मलती हुई" पाठकों को यह आभास देता है कि सवेरे का समय होना चाहिए और तभी पति का यह प्रश्न कि //‘‘सो गया मुन्ना....?’’// पठन का लय तोड़ता है। पाठक उलझ सकता है कि रात का समय है या दिन का? वैसे यह पंक्ति ना हो तो भी लघुकथा के संदेश और चित्रण में फर्क महसूस नहीं होता।

लघुकथा का अंत करना लघुकथाकार का कौशल है और इस कार्य में भी यह लघुकथा सफल है। पुरुष भूखा है लेकिन भूख मिटाने के लिए खुदके लिए कुछ मांगते हुए उसका स्वर भर्रा जाता है क्योंकि वह स्वयं से पहले अपने परिवार की भूख मिटाना चाह रहा है। अंत स्वतः ही पाठकों के हृदय को मार्मिक कर देता है। इस रचना की एक विशेषता यह भी है कि अंत में पाठकों को विवश करे कि यदि वे सक्षम हैं तो इस तरह के परिवार की सहायता ज़रूर करें और यह विशेषता भी एक कारण है जो यह रचना मेरी पसंद की है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

मंगलवार, 18 जून 2019

लघुकथा: मृत्यु दंड | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


कितनी ही बार अखबारों में पढ़ता हूँ कि  इस महिला के साथ बलात्कार हो गया, उस महिला को वस्त्रहीन कर दिया गया। तब याद आती है द्रोपदी चीरहरण की। उस पर ही सृजन का एक प्रयास है, आइये पढ़ते हैं।

लघुकथा: मृत्यु दंड

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हज़ारों वर्षों की नारकीय यातनाएं भोगने के बाद भीष्म और द्रोणाचार्य को मुक्ति मिली। दोनों कराहते हुए नर्क के दरवाज़े से बाहर आये ही थे कि सामने कृष्ण को खड़ा देख चौंक उठे, भीष्म ने पूछा, "कन्हैया! पुत्र, तुम यहाँ?"

कृष्ण ने मुस्कुरा कर दोनों के पैर छुए और कहा, "पितामह-गुरुवर आप दोनों को लेने आया हूँ, आप दोनों के पाप का दंड पूर्ण हुआ।"

यह सुनकर द्रोणाचार्य ने विचलित स्वर में कहा, "इतने वर्षों से सुनते आ रहे हैं कि पाप किया, लेकिन ऐसा क्या पाप किया कन्हैया, जो इतनी यातनाओं को सहना पड़ा? क्या अपने राजा की रक्षा करना भी..."

"नहीं गुरुवर।" कृष्ण ने बात काटते हुए कहा, "कुछ अन्य पापों के अतिरिक्त आप दोनों ने एक महापाप किया था। जब भरी सभा में द्रोपदी का वस्त्रहरण हो रहा था, तब आप दोनों अग्रज चुप रहे। स्त्री के शील की रक्षा करने के बजाय चुप रह कर इस कृत्य को स्वीकारना ही महापाप हुआ।"

भीष्म ने सहमति में सिर हिला दिया, लेकिन द्रोणाचार्य ने एक प्रश्न और किया, "हमें तो हमारे पाप का दंड मिल गया, लेकिन हम दोनों की हत्या तुमने छल से करवाई और ईश्वर ने तुम्हें कोई दंड नहीं दिया, ऐसा क्यों?"

सुनते ही कृष्ण के चेहरे पर दर्द आ गया और उन्होंने गहरी सांस भरते हुए अपनी आँखें बंद कर उन दोनों की तरफ अपनी पीठ कर ली फिर भर्राये स्वर में कहा, "जो धर्म की हानि आपने की थी, अब वह धरती पर बहुत व्यक्ति कर रहे हैं, लेकिन किसी वस्त्रहीन द्रोपदी को... वस्त्र देने मैं नहीं जा सकता।"

कृष्ण फिर मुड़े और कहा, "गुरुवर-पितामह, क्या यह दंड पर्याप्त नहीं है कि आप दोनों आज भी बहुत सारे व्यक्तियों में जीवित हैं, लेकिन उनमें कृष्ण मर गया..."

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

सोमवार, 17 जून 2019

विचार-विमर्श: डॉ॰ अशोक भाटिया जी के लेख: लंबी लघुकथाएं : आकार और प्रकार पर

डॉ० अशोक भाटिया जी के इस लेख पर इन दिनों फेसबुक पर काफी विचार-विमर्श हो रहा है। जहां अनिल शूर आज़ाद जी ने "लम्बी लघुकथाएं" शब्द पर एतराज़ किया और यह मत भी प्रकट किया कि जिन लघुकथाओं का डॉ० भाटिया ने उदाहरण दिया है वे वास्तव में लघु कहानियाँ हैं।

उसके उत्तर में अशोक भाटिया जी ने बताया कि उन्होने देश-विदेश की लगभग ४५ लघुकथाओं का उदाहरण दिया है। उनका लेख विशुद्ध रचनात्मक आधार पर है।

डॉ० बलराम अग्रवाल जी के अनुसार भी 'छोटी लघुकथा' 'लघुकथा' और 'लम्बी लघुकथा' के विभाजन का समय अभी नहीं है। अभी लोग 'लघुकथा' शब्द के आभामंडल से चमत्कृत हैं, सराबोर हैं। 'लघुत्तम लघुकथा' की अवधारणा भी सिर पटक रही है। अतीत में 'अणुकथा' की अवधारणा दम तोड़ चुकी है।

श्री वीरेंद्र सिंह के अनुसार कुदरत ने हर चीज का आकार तय किया है। एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो हर चीज को अलग दृष्टिकोण से देखा करता है। किसी भी विषय पर बात कीजिए। हर विषय वस्तु की अपनी सीमाएं है। अतः लघुकथा का मतलब ही उसका लघु रूप में विराजमान होना है।

सुभाष नीरव जी की प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार से आई कि बराय मेहरबानी  'लघुकथा' को लघुकथा ही रहने दो ! और उनके अनुसार वे कहानी में लंबी कहानी बेशक खूब चली और पाठकों ने उसे स्वीकार भी किया हो, पर उसी की तर्ज पर लघुकथा का ' लंबी लघुकथा ' के रूप में वर्गीकरण करने के पक्ष में वे नहीं हैं। 

डॉ० अशोक भाटिया का उत्तर कुछ निम्न बिन्दुओं में आया:
  • लघुकथा का बाहरी स्पेस थोड़ा बाधा लेने से यथार्थ को व्यक्त करने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं |पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में ऐसी कई श्रेष्ठ लघुकथाएं सामने आई हैं,जो पांच सौ से अधिक और एक हजार शब्दों तक जाती हैं और उन्होने कुछ लघुकथाओं के उदाहरण दिये। 
  • लघुकथा में आकारगत विस्तार हो रहा है,लघुकथा के ही फॉर्मेट में रहते हुए और यह एक स्वस्थ प्रवृत्ति है |क्या इस प्रवृत्ति को उजागर नहीं किया जाना चाहिए ?
  • यथार्थ के अनेक आयाम लघुकथा-लेखक से इसलिए भी छूट जाते हैं कि वह अपने अर्धचेतन में इसके आकार की सीमा को तय किये बैठा है |इस उपक्रम में कई लघुकथाएं इसलिए नहीं लिखी जातीं कि ये तय सीमा से बाहर हैं।
  • लघुकथा के आकार का लेखक के अर्ध-चेतन में बना यह दबाव कहाँ से आया--इस पर विस्तार से फिर बात करेंगे।
  • जून 1973 और जुलाई 1975 के सारिका के लघुकथा विशेषांक में लघुकथा के बारे 250 शब्दों तक आकार रहने की बात करने वाले लेखक ही अधिक थे, तब डा.बालेन्दु शेखर तिवारी ने एक पत्र में लिखा था कि, "अब समय आ गया है कि 250 से अधिक शब्दों वाली रचना को लघुकथा के दायरे से बाहर कर दिया जाए।" पर ऐसा न हुआ,न होना था। लेकिन फिर 500 शब्दों की लघुकथा की भी बात और स्वीकृति होने लगी। अब 1000 का विरोध है,तो यह आकार भी स्वीकृत होगा,क्योंकि यहाँ तक अनेक श्रेष्ठ लघुकथाएं जाती हैं।
  • 'लम्बी लघुकथा' कहने से लघुकथा का विभाजन नहीं होता,क्योंकि यह लघुकथा का विस्तार है,जैसे कि इसने दो-ढाई सौ शब्दों से आगे विस्तार पाया। |लघु उपन्यास शब्द में भी विरोधाभास है,वह भी स्वीकृत हुआ
उपरोक्त डॉ॰ भाटिया की फेसबुक पोस्ट पर राजेश उत्साही जी की टिप्पणी कुछ यों थी, जिन लघुकथाओं की बात हो रही है, वे श्रेष्‍ठ का दर्जा पा चुकी हैं। इसलिए उन्‍हें स्‍वीकारने या नकारने का तो कोई प्रश्‍न ही नहीं है। इससे यह बात तो लगभग तय है कि श्रेष्‍ठ लघुकथाओं के लिए यह शब्‍द संख्‍या पर्याप्‍त है। दूसरे शब्‍दों में कहें तो श्रेष्‍ठ लघुकथा इससे अधिक जगह की माँग नहीं करेगी। हाँ यहाँ समस्‍या उनके लिए है जो उसे 250,500 या 700 शब्‍दों की सीमा में बाँधने के पक्षधर हैं। अपन तो 1000 शब्‍दों की सीमा में बाँधने के पक्षधर भी नहीं हैं। क्‍योंकि लघुकथा का जो शिल्‍प है, वह एक स्‍वाभाविक आकार के बाद स्‍वयं ही दम तोड़ देगा। उसकी विषयवस्‍तु को अगर लम्‍बा खींचने की कोशिश होगी, तो वह बिखर जाएगा। इसका विलोम भी है कि अगर शब्‍द सीमा तय की जाएगी, तो भी उसका कथ्‍य दम तोड़ देगा, या उभरेगा ही नहीं। कल मैंने अभ्‍यास के तौर पर अपनी 19 लघुकथाओं में शब्‍दों की गिनती की। उनमें कम से कम 50 शब्‍दों की है और अधिक से अधिक 721 शब्‍दों की। मेरी दृष्टि में तो दोनों ही अपनी बात कहने में सक्षम हैं।

और इसी पोस्ट पर सुभाष नीरव जी की टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है, पढ़िये, मुझे 'संरचना' का ताज़ा अंक मिल चुका है और मैंने सबसे पहले इस आलेख को ही पढ़ा। मुझे पूरा आलेख छिटपुट असहमति को छोड़कर कहीं से भी नकारे जाने योग्य नहीं लगा। बहुत सी बातें, धारणाएं तो मेरी अपनी सोच को पुष्ट करती ही लगीं। मैंंने तो स्वयं शब्द गिनकर कभी लघुकथाएं नहीं लिखीं, उन्हें अपना सहज आकार लेने दिया और मेरी अधिकतर लघुकथाएं 500 शब्दों से लेकर 800 शब्दों तक गई हैं। मैं लघुकथा को कम शब्दों की वज़ह से 'लघु' नहीं मानता, मैं लघु कथ्य की ओर ध्यान देता हूँ। अपनी लघुकथा लेखन यात्रा के दौरान मुझे भी लगता रहा है कि बदलते समय में जब दुनिया में इतना कुछ नया जुड़ा है, और बहुत कुछ बदला है, तो नये विषय लघुकथा के घेरे में लाने के लिए लघुकथा के आकार में कुछ तो वृद्धि होना स्वाभाविक ही है, तभी उस नये विषय से सही में न्याय हो पाएगा, अन्यथा वे विषय 250 -300 शब्दों की अवधारणा के चलते अपना दम तोड़ देंगे। और रचनाकार के अन्दर जो प्रयोगधर्मी होने का गुण होता है, वह भी मर जाएगा। मैं इस बात से सहमत रहा हूँ कि 'आकार बाहरी चीज़ है ।'

डॉ० भाटिया की उपरोक्त दर्शित पोस्ट पर ही श्री योगराज प्रभाकर की टिप्पणी भी उल्लेखनीय है, उनके अनुसार, इस आलेख में कहीं भी अशोक भाटिया जी लघुकथा के आकार को लेकर आग्रही नहीं दिखे। न ही उन्होंने "लम्बी लघुकथा" शब्द लिखकर कोई आकार के हवाले से लघुकथा को डिफ्रेंशिएट करने का प्रयास ही किया है। अगर सीधे सादे शब्दों में कहा जाए तो किसी इमारत की विशालता, भव्यता या उपयोगिता प्लॉट के साइज़ पर भी निर्भर करती है। वैसे जब लघुकथा में कोई न्यूनतम शब्द सीमा तय नहीं तो अधिकतम शब्द सीमा को 250 या 300 में बांधना कहाँ की समझदारी है?

बहरहाल, इस विमर्श के एक भाग को आप सभी के समक्ष रखा वह लेख भी आप सभी के समक्ष है। आइये इसे भी पढ़ते हैं।


संकलन: डॉ० चंद्रेश कुमार छ्तलानी

रविवार, 16 जून 2019

लघुकथा : मैं जानवर | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

कई दिनों के बाद अपने पिता के कहने पर वह अपने पिता और माता के साथ नाश्ता करने खाने की मेज पर उनके साथ बैठा था। नाश्ता खत्म होने ही वाला था कि पिता ने उसकी तरफ देखा और आदेश भरे स्वर में कहा,
"सुनो रोहन, आज मेरी गाड़ी तुम्हें चलानी है।", कहते हुए वह जग में भरे जूस को गिलास में डालने लगे।

लेकिन पिता का गिलास पूरा भरता उससे पहले ही उसने अंडे का आखिरी टुकड़ा अपने मुंह में डाला और खड़ा होकर चबाता हुआ वॉशबेसिन की तरफ चल पड़ा।

उसकी माँ भी उसके पीछे-पीछे चली गयी और उसके पास जाकर उसका हाथ पकड़ कर बोली, "डैडी ने कुछ कहा था..."

"हूँ..." उसने अपने होठों को मिलाकर उन्हें खींचते हुए कहा

"तो उनके लिए वक्त है कि नहीं तेरे पास?" माँ की आँखों में क्रोध उतर आया

और उसके जेहन में कुछ वर्षों पुराना स्वर गूँज उठा,
"रोहन को समझाओ, मुझे दोस्तों के साथ पार्टी में जाना है और यह साथ खेलने की ज़िद कर रहा है, बेकार का टाइम वेस्ट..."

पुरानी बात याद आते ही उसके चेहरे पर सख्ती आ गयी और वॉशबेसिन का नल खोल कर उसने बहुत सारा पानी अपने चेहरे पर डाल दिया, कुछ पानी उसके कपड़ों पर भी गिर गया।

यह देखकर माँ का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया, वह चिल्ला कर बोली,"ये क्या जानवरों वाली हरकत है?"

उसने वहीँ लटके तौलिये से अपना मुंह पोंछा और माँ की तरफ लाल आँखों से देखते हुए बोला,
"बचपन से तुम्हारा नहीं जानवरों ही का दूध पिया है मम्मा फिर जानवर ही तो बनूँगा और क्या?"

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शनिवार, 15 जून 2019

लघुकथा : डर के दायरे | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 "आज की कक्षा का विषय है - डर" यह कहते हुए मनोविज्ञान के शिक्षक ने अपने विद्यार्थियों को एक चित्र दिखाया, जिसमें एक छोटी मछली कांच के मर्तबान में तैर रही थी और एक बड़ी मछली मर्तबान के बाहर उस छोटी मछली को क्रोध भरी आँखों से देख रही थी।
अब शिक्षक ने कहा, "बड़ी मछली छोटी मछली को डरा रही है कि वह मर्तबान तोड़ देगी और छोटी मछली मर जायेगी।"
"सर डरना तो चाहिये, अगर जार टूट गया तो पानी बिखर जायेगा..." एक विद्यार्थी ने कहा।
शिक्षक मुस्कुराते हुए बोला, "लेकिन यह भी तो सोचो कि बड़ी मछली खुद कैसे ज़िन्दा है?"
कक्षा में चुप्पी छा गयी।
उसने आगे कहा, "मर्तबान के कांच के कारण छोटी मछली देख नहीं रही पा रही है कि बाहर मर्तबान से कहीं ज़्यादा पानी है, क्योंकि सामने भी मछली ही तो खड़ी है।"
"तो सर उसे क्या करना चाहिये?"
"उसे खुद मर्तबान से बाहर आना चाहिये... मर्तबान टूटने का ‘डर’ ही उसके ज़्यादा और खुले पानी में जाने में बाधक है।" उसने जोर देकर कहा।
कक्षा में तालियाँ बज उठीं। अब शिक्षक ने सारे विद्यार्थियों से कहा, "यह बताओ कि ट्यूशन पर कौन-कौन जाता है?"
अधिकतर विद्यार्थियों ने हाथ खड़े कर दिए। उसने उनसे पूछा, “क्लास में समझ में नहीं आता है क्या?”
“लेकिन सर ट्यूशन से मार्क्स और अच्छे..." एक विद्यार्थी ने लड़खड़ाते स्वर में कहा।
सुनते ही वह शिक्षक कुछ क्षण चुप हो गया, फिर कहा, "अगर मार्क्स के लिए ट्यूशन जाते हो तो..."
"तो सर?"
"तो... अपने मर्तबान से निकल नहीं पाओगे।" कहकर वह शिक्षक बाहर चला गया और विद्यार्थियों के चेहरों पर छटपटाहट दिखाई देने लगी।

गुरुवार, 13 जून 2019

लघुकथा : आत्ममुग्ध | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


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एक सेमिनार में विद्यार्थियों के समक्ष एक विशेषज्ञ ने कांच के तीन गिलास लिए। एक गिलास में मोमबत्ती जलाई, दूसरे में थोड़ी शराब डाल कर उसमें पानी और बर्फ के दो टुकड़े डाल दिए और तीसरे में मिट्टी में लगाया हुआ एक छोटा सा पौधा रख दिया।

फिर सभी की तरफ हाथ से इशारा कर पूछा, "आप सभी बताइए, इनमें से सबसे अच्छा क्या है?"

अधिकतर ने एक स्वर में कहा, "पौधा..."

"क्यों?"

"क्योंकि प्रकृति सबसे अच्छी है" विद्यार्थियों में से किसी ने उत्तर दिया

उसने फिर पूछा, "और इनमें से सबसे बुरी चीज क्या है?"

अधिकतर ने फिर एक साथ कहा, "शराब"

"क्यों?">

"क्योंकि नशा करती है" कुछ विद्यार्थी खड़े हो गए।

"और सबसे अधिक समर्पित?">

"मोमबत्ती.." इस बार स्वर अपेक्षाकृत उच्च था।

वह दो क्षण चुप रहा, फिर कहा, "सबसे अधिक समर्पित है शराब..."

सुनते ही सभा में निस्तब्धता छा गई, उसने आगे कहा, "क्योंकि यह किसी के आनंद के लिए स्वयं को पूरी तरह नष्ट करने हेतु तैयार है।"

फिर दो क्षण चुप रहकर उसने कहा "और सबसे अधिक अच्छी है मोमबत्ती, क्योंकि उसकी रौशनी हमें सभी रंग दिखाने की क्षमता रखती है। पूर्ण समर्पित इसलिए नहीं, क्योंकि इसके नष्ट होने में समाप्ति के बाद अच्छा कहलवाने की आकांक्षा छिपी है।"

सभा में विद्यार्थी अगली बात कहने से पूर्व ही समझ कर स्तब्ध हो रहे थे, और आखिर प्रोफेसर ने कह ही दिया, "इन तीनों में से सबसे बुरी चीज है यह पौधा... सभी ने इसकी प्रशंसा की... जबकि यह अधूरा है, पानी नहीं मिलेगा तो सूख जाएगा। "

"लेकिन इसमें बुरा क्या है?" एक विद्यार्थी ने प्रश्न किया

"अधूरेपन को भूलकर, केवल प्रशंसा सुनकर स्वयं को पूर्ण समझना।" प्रोफेसर ने पौधे की झूमती पत्तियों को देखकर कहा।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 12 जून 2019

श्री योगराज प्रभाकर की सात लघुकथाएं और मेरी अभिव्यक्ति | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

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मित्रों और साथियों,

लघुकथा विधा में वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर का एक महत्वपूर्ण स्थान है। आपने कई वर्षों तक लघुकथा की साधना करने के पश्चात स्वयं को इस स्थान पर खड़ा किया है। आज आपकी सात लघुकथाएं जो संगीत के सात शुद्ध स्वरों (सप्तक) की तरह ही लघुकथा के हर सुर का निर्माण करती हैं आपके समक्ष प्रस्तुत हैं। लघुकथा के स्वरों और ताल के अनुशासन को स्वयं में समेटे हुए इन रचनाओं को जितनी ही बार पढ़ा जाये, उनसे कुछ-न-कुछ नया सीखने को ही मिलेगा। हर लघुकथा पर मैंने अपनी अभिव्यक्ति भी दी है, जो केवल प्रतिक्रिया मात्र है।
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प्रथम रचना "अपनी अपनी भूख" संगीत का पहला स्वर - षडज, एक मयूर की भाँती गाता हुआ, हमारे मूलाधार चक्र में समाहित होता, एक ऐसा स्वर है, जिसकी frequency सबसे नीची होती है। गंभीरता इस स्वर से झलकती है। ऐसी ही रचना है यह, जो अंत में माँ से अपने भूखे बच्चे की भूख मिटाने के लिये कहलवाती है। //"मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी I"// यह वाक्य भूख की उतनी गहराई तक उतरने में सक्षम हैं, जितना षडज (स) संगीत की गहराई में। भूख भी तो षडज की तरह ही मानव जीवन का "अचल स्वर" है। आइये पढ़ते हैं।

१- अपनी अपनी भूख (लघुकथा)

पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थीI कभी नन्हे दीपू को डॉक्टर के पास ले जाया जाता तो कभी डॉक्टर उसे देखने घर आ जाताI दीपू स्कूल भी नहीं जा रहा थाI घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थीI घर की नौकरानी इस सब को चुपचाप देखती रहतीI कई बार उसने पूछना भी चाहा किन्तु दबंग स्वाभाव मालकिन से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुईI आज जब फिर दीपू को डॉक्टर के पास ले वापिस घर लाया गया तो मालकिन की आँखों में आँसू थेI रसोई घर के सामने से गुज़र रही मालकिन से नौकरानी ने हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया:
"बीबी जी! क्या हुआ है छोटे बाबू को ?"
"देखती नहीं कितने दिनों से तबीयत ठीक नहीं है उसकी?" मालकिन ने बेहद रूखे स्वर में कहा I
"मगर हुआ क्या है उसको जो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा?"
"बहुत भयंकर रोग है!" एक गहरी सांस लेते हुए मालिकन ने कहा I
"हाय राम! कैसा भयंकर रोग बीबी जी?" नौकरानी पूछे बिना रह न सकी I
मालकिन ने अपने कमरे की तरफ मुड़ते हुए एक गहरी साँस लेते हुए उत्तर दिया:
"उसको भूख नहीं लगती रीI"
मालकिन के जाते ही अपनी फटी हुई धोती से हाथ पोंछती हुई नौकरानी बुदबुदाई:
"मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी I"
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द्वितीय रचना "सदियों के फासले" - संगीत के दूसरे स्वर "ऋषभ" की तरह। रे स्वर स से ज्यादा तीव्र है, चल स्वर है, इसका कोमल स्वरुप भी है और शुद्ध स्वरुप भी। सर की यह रचना भी दो स्वरुप लिए हुए है। जहाँ एक तरफ देश की तरक्की देख क़र नायक का मन खिल उठा, वहीँ दूसरी तरफ गाँव में प्रवेश करते ही जीर्ण शीर्ण सी इमारत को देखकर वह सन्न रह गया। शहर और गाँव के विकास के अंतर को दर्शाती यह रचना तीव्र चोट कर ही जाती है। आइये पढ़ते हैं।

२- "सदियों के फासले" (लघुकथा)

तक़रीबन २० साल विदेश में रहने के बाद आज वह अपने गाँव जा रहा था। देश की तरक्की देख क़र उसका मन खिल उठा था I जहाँ कभी कुछ भी नहीं हुआ करता था वहीँ भव्य इमारतें, सड़क पर दौड़ती तरह तरह की देसी विदेशी गाड़ियाँ, बिजली की रौशनी से चमचमाते बड़े बड़े मॉल और खूबसूरत सड़कें देख देखकर हैरान भी था और बेहद खुश भी। उसने विदेश में जो भारत के विकास और इक्कीसवीं सदी में प्रवेश की बातें पढ़ीं थीं, वह सब उसके सामने थीं। गाडी अब शहर छोड़ चुकी थी, और इसके साथ ही आसपास की तस्वीर भी बदलने लगी थी I अब टूटे-फूटे धूल भरे रास्तों ने पक्की सड़कों की जगह ले ली थी I गाड़ी धूल उडाती हुई उसके गाँव पहुँच गई, गाँव में प्रवेश करते ही जब उसकी नज़र एक जीर्ण शीर्ण सी इमारत पर पडी तो वह सन्न रह गया। यह वही पाठशाला थी जिसमे वह पढ़ा करता था I बिना छत के बरामदे में ज़मीन पर बैठकर पढ़ रहे बच्चे विकास की एक अलग ही तस्वीर पेश कर रहे थे। उसको इस तरह हैरान परेशान देखकर एक बुज़ुर्ग ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा:
"बेटा ! इक्कीसवीं सदी शहरों से बाहर नहीं निकलती।"
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आपकी तृतीय रचना "एक और पड़ाव" भी संगीत के तीसरे स्वर "गंधार" को ही तो दर्शा रही है। "ऋषभ" से थोड़ी अधिक frequency लिये गंधार हमारे "मणिपुर" चक्र को जागृत करता है। स्व-उर्जा को थोड़ा और ऊँचा ले लेता है, और आत्मशक्ति प्रदान करता है, स्वयं को जानने की शक्ति देता है। इसी तरह इस रचना में स्वयं को प्रकृति के करीब पा कर नायक ने जाना कि कर्मयोगी परिवार से दूर जाने का नाम नहीं है, बल्कि स्वयं को और अपने परिवार को जानने का भी नाम है। आइये पढ़ते हैं।

३- एक और पड़ाव

बहुत बरसों के बाद वह स्वयं को को बहुत ही हल्का हल्का महसूस कर रहा था. न तो उसे सुबह जल्दी उठने की चिंता थी, न जिम जाने की हड़बड़ी और न ही अभ्यास सत्र में जाने की फिकर. लगभग ढाई दशक तक अपने खेल के बेताज बादशाह रहे रॉबिन ने जब खेल से सन्यास की घोषणा की थी तो पूरे मीडिया ने उसकी प्रशंसा में कसीदे पढ़े थे. समूचे खेल जगत से शुभकामनायों के संदेश आए थे. कोई उस पर किताब लिखने की बात कर रहा था तो कोई वृत-चित्र बनाने की. उसकी उपलब्धियों पर गोष्ठियाँ की जा रही थीं. किन्तु वह इन सबसे दूर एक शांत पहाड़ी इलाक़े में अपनी पत्नी के साथ छुट्टियाँ मनाने आया हुया था. इस शांत वातावरण में वह भी पक्षियों की भाँति चहचहा रहा था. हर समय खेल, टीम, जीत के दबाव और सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला रॉबिन प्राकृतिक नज़रों में खो सा गया था.

"देखो नंदा, ये पहाड़ और झरने कितने सुंदर लग रहे हैं."
"अरे ! आप कब से प्रकृति प्रेमी हो गये?"
"शुरू से ही हूँ जानूँ."
"मगर कभी बताया तो नही अपने इस बारे में."
"ज़िंदगी की आपा धापी नें कभी समय ही नही दिया."
जवाब में नंदा केवल मुस्कुरा भर दी, फिर रॉबिन के चेहरे पर गंभीरता पसरती देख उसने उसने कहा :
"क्या सोच रहे हो?"
"सोच रहा हूँ, क्यों न हम भी महानगर छोड़ कर यहीं आकर बस जाएँ?" नंदा का हाथ मजबूती से थामते हुए कहा.
"मगर हम करेंगे क्या यहाँ?" नंदा के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आये थे.
"थोड़ी सी ज़मीन ख़रीदेंगे और उस पर फूलों की खेती करेंगे."
"आपको जो चीफ सेलेक्टर की जॉब ऑफर हुई है, उसका क्या होगा?"
"मैं उनको साफ़ मना कर दूँगा?"
"ऐसा सुनहरी मौका हाथ से जाने देंगे? मगर क्यों ?"
नंदा का चेहरा अपने दोनो हाथों में भरते हुए रॉबिन ने जवाब दिया:
"आज पहली बार गौर किया नंदा क़ि तुम कितनी खूबसूरत हो."
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संगीत का चौथा स्वर है "मध्यम", इस स्वर की विशेषता यह है कि, किसी भी गायन की शुरुआत इस स्वर से करना बहुत कठिन है। इसे ढंग से साधने के बाद ही इसकी मधुरता का अहसास होता है। मध्यम स्वर का कोमल स्वरूप नहीं है, केवल तीव्र और शुद्ध स्वरुप है। और यही तो चौथी रचना "अपने अपने सावन" में दर्शाया गया है। कच्चे घर में परिवार सहित बारिश का सामना करता हुआ गायक, सावन के मस्ती भरे गीत नहीं गा पाया। मध्यम स्वर "अनाहत चक्र" से सम्बन्धित है, जिससे सृजनशीलता बढती है और अविवेक समाप्त होता है। इस रचना में भी यही तो है, सृजनशील नायक का विवेक अपने परिवार के कष्टों से दूर नहीं जा पाया। आइये पढ़ते हैं।

४- अपने अपने सावन
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बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। कच्ची छत से पानी की धाराएं निरंतर बह रहीं थीं। टपकते पानी के लिए घर में जगह जगह रखे छोटे बड़े बर्तन भी बार बार भर जाते। उसके बीवी बच्चे एक कोने में दुबके बैठे थे। परेशानी के इसी आलम में कवि सुधाकर टपकती हुई छत के लिए बाजार से प्लास्टिक की तरपाल खरीदने चल पड़ा। चौक पर पहुँचते ही पीछे से किसी ने आवाज़ दी:
"सुधाकर जी, ज़रा रुकिए।" आवाज़ देने वाला उसका एक परिचित लेखक मित्र था।
"जी भाई साहिब, कहिए।"
"अरे भाई कहाँ रहते हैं आजकल? परसों सावन कवि सम्मलेन है। मैं चाहता हूँ कि आप बरसात पर कोई ऐसा फड़कता हुआ गीत पेश करें ताकि लोगबाग मस्ती में झूम उठें।"
सावन और बरसात का नाम सुनते ही घर टपकती हुई छत उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हुई, टपकते हुए पानी को संभालने में असमर्थ बर्तन उसे मुँह चिढ़ाने लगे।
"क्या सोच रहे हैं? अरे देश के बड़े बड़े कवियों की मौजूदगी में कवितापाठ करना तो बड़े गर्व की बात है।"
"वो सब तो ठीक है, लेकिन मुझसे झूठ नहीं बोला जाएगा।"
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भारतीय संगीत में पांचवे स्वर का नाम "पंचम" ही रखा गया है, प्रथम स्वर की तरह इसका भी न तो कोमल स्वरूप है और न ही तीव्र स्वरुप - केवल शुद्ध स्वरुप है। अर्थात यह भी अचल स्वर है। इसका प्राणी है - कोयल और चक्र है "विशुद्ध" चक्र - गले में स्थित। कोयल मीठा बोलती है और आदरणीय सर की इस रचना में प्रोड्यूसर अपने स्क्रिप्ट राइटर को मीठा बोलने ही की शिक्षा दे रहा है, लेकिन उसके बोलने का तरीका कडुवा है। विशुद्ध चक्र का जब जागरण होता है, तब गला खराब हो सकता है, लेकिन अंत में मीठा बोलने की क्षमता आ जाती है। यही बात अंत में स्क्रिप्ट राइटर को भी समझ में भी आ जाती है। इसके अलावा "पंचम" अचल स्वर है, प्रोड्यूसर भी यही कह रहा है, कि कहीं भटकने की ज़रूरत नहीं, जो कहा जाये वही करो। अचल रहो। आइये पढ़ते हैं।


५- जमूरे

स्क्रिप्ट के पन्ने पलटते हुए अचानक प्रोड्यूसर के माथे पर त्योरियाँ पड़ गईं, पास बैठे युवा स्क्रिप्ट राइटर की ओर मुड़ते हुए वह भड़का:
"ये तुम्हारी अक्ल को हो क्या गया है?"
"क्या हुआ सर जी, कोई गलती हो गई क्या?" स्क्रिप्ट राइटर ने आश्चर्य से पूछाI
"अरे इनको शराब पीते हुए क्यों दिखा दिया?"
"सर जो आदमी ऐसी पार्टी में जाएगा वो शराब तो पिएगा ही न?"
"अरे नहीं नहीं, बदलो इस सीन कोI"
"मगर ये तो स्क्रिप्ट की डिमांड हैI"
"गोली मारो स्क्रिप्ट कोI यह सीन फिल्म में नहीं होना चाहिएI"
"लेकिन सर नशे में चूर होकर ही तो इसका असली चेहरा उजागर होगाI"
"जो मैं कहता हूँ वो सुनोI ये पार्टी में आएगा, मगर दारू नहीं सिर्फ पानी पिएगा क्योंकि इसे धार्मिक आदमी दिखाना हैI"
"लेकिन ड्रग्स का धंधा करने वाला आदमी और शराब से परहेज़? ये क्या बात हुई?"
"तुम अभी इस लाइन में नए हो, इसको कहते हैं कहानी में ट्विस्टI"
"अगर ये धार्मिक आदमी है तो फिर उस रेप सीन का क्या होगा?"
"अरे यार तुम ज़रुर कम्पनी का दिवाला पिटवाओगेI खुद भी मरोगे और मुझे भी मरवाओगेI ऐसा कोई सीन फिल्म में नहीं होना चाहिएI"
"तो फिर क्या करें?"
"करना क्या है? कुछ अच्छा सोचोI स्क्रिप्ट राइटर तुम हो या मैं? प्रोड्यूसर ने उसे डांटते हुए कहाI
स्क्रिप्ट राइटर कुछ समझने का प्रयास ही कर रहा था कि प्रोड्यूसर स्क्रिप्ट का एक पन्ना उसके सामने पटकते हुए चिल्लाया:
"और ये क्या है? इसको अपने देश के खिलाफ ज़हर उगलते हुए क्यों दिखाया है?"
"कहानी आगे बढ़ाने लिए यह निहायत ज़रूरी है सर, यही तो पूरी कहानी का सार हैI" उसने समझाने का प्रयास कियाI
"सार वार गया तेल लेने! थोडा समझ से काम लो, यहाँ देश की बजाय इसे पुलिस और प्रशासन के ज़ुल्मों के खिलाफ बोलता हुआ दिखाओ ताकि पब्लिक की सिम्पथी मिलेI" प्रोड्यूसर ने थोड़े नर्म लहजे में उसे समझाते हुए कहाI
"नहीं सर! इस तरह तो इस आदमी की इमेज ही बदल जाएगीI एक माफ़िया डॉन जो विदेश में बैठकर हमारे देश की बर्बादी चाहता है, जो बम धमाके करवा कर सैकड़ों लोगों की जान ले चुका है, उसके लिए पब्लिक सिम्पथी पैदा करना तो सरासर पाप हैI" स्क्रिप्ट राइटर के सब्र का बाँध टूट चुका थाI
उसे यूँ भड़कता देख, अनुभवी और उम्रदराज़ अभिनता जो सारी बातें बहुत गौर से सुन रहा था, उठकर पास आया और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए धीमे से बोला:
"राइटर साहिब! हमारी लाइन में एक चीज़ पाप और पुण्य से भी बड़ी होती हैI"
"वो क्या?"
"वो है फाइनेंसI फिल्म बनाने के लिए पुण्य नहीं, पैसा चाहिए होता है पैसा! कुछ समझे?"
"समझने की कोशिश कर रहा हूँ सरI" ठंडी सांस लेते हुए उसने जवाब दियाI
सच्चाई सामने आते ही स्क्रिप्ट राइटर की मुट्ठियाँ बहुत जोर से भिंचने लगीं और वहाँ मौजूद हर आदमी अब उसको माफ़िया डॉन का हमशक्ल दिखाई दे रहा है
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योगराज प्रभाकर जी सर द्वारा सृजित छठी रचना है "कसक", आदरणीय सुधीजनों, "धैवत" संगीत का छठा स्वर है, जिसका प्राणी घोड़ा है और चक्र है "त्रिनेत्र"। अश्व के पास गति और शक्ति दोनों होती है, यह रचना भी एक ऐसे अश्व के बारे में बता रही है जो गाँव से शहर पलायन कर गया और कमाना शुरू कर दिया। "त्रिनेत्र चक्र" मानसिक विचारों को दूर तक भेज सकता है और सोचने-समझने की बाह्य और आंतरिक शक्ति प्रदान करता है और इस रचना के अंत में यही है, एक समझ विकसित होती है, //बेटियों को याद करते हुए एक ठण्डी आह भरते हुए वह बोली : "हमसे तो वो ही अच्छा है जी।"//। आइये पढ़ते हैं।


६- कसक
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"ये मिठाई कहाँ से आई जी?" अपने खेत के किनारे चारपाई पर चुपचाप लेटे शून्य को निहारते हुए पति से पूछाI
"अरी, वो गुलाबो का लड़का दे गया था दोपहर को।" उसने चारपाई से उठते हुए उत्तर दियाI
"कौन? वही जो शहर में सब्ज़ी का ठेला लगाता है?"
"हाँ वही! बता रहा था कि अब उसने दुकान खोल ली है, उसकी ख़ुशी में मिठाई बाँट रहा थाI" पति ने मिठाई का डिब्बा उसकी तरफ सरकाते हुए कहाI
"चलो अच्छा हुआI" पत्नी ने चेहरे पर कृत्रिम सी मुस्कुराहट आईI
"वो बता रहा था कि उसने बेटे को भी टैम्पो डलवा दिया है, और बेटी को भी कॉलेज में भर्ती करवा दिया है।"
"अच्छा?"
"हाँ! काफी तरक्की कर गया ये लौंडा शहर जाकरI"
बेमौसम बरसात से उजड़े हुए खेत को निहार, पहाड़ जैसे क़र्ज़ और घर में बैठी दो दो कुँवारी बेटियों को याद करते हुए एक ठण्डी आह भरते हुए वह बोली :
"हमसे तो वो ही अच्छा है जी।"
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सातवीं रचना "केक्टस का फूल", और संगीत का सातवाँ स्वर है - निषाद, सबसे तीव्र फ्रीक्वेंसी वाला स्वर, इसके कोमल और शुद्ध स्वरुप हैं, बिलकुल उसी तरह, जिस तरह केक्टस के फूल होते हैं, कांटेदार शुद्ध स्वरुप में और सौन्दर्य में कोमल स्वरूप में। रचना की नायिका भी ऐसी ही हैं, चेहरे-मोहरे से कोमल स्वरुप में है और अंत में अपने सद्चरित्र का प्रमाण देते हुए, जब रिवॉल्वर की धमकी देती है तो शुद्ध स्वरुप में (कांटेदार) हो जाती है। आइये पढ़ते हैं।

७- केक्टस का फूल

पीली साड़ी वाली वह नवयुवती सभी के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी, पार्टी में सभी की निगाहें उसी पर थींI उसकी माँ अपने ज़माने की सफल और खूबसूरत अभिनेत्री थी, किन्तु वह अपनी माँ से भी सुन्दर थी, I और अब वह भी फ़िल्मी दुनिया में प्रवेश करने की कोशिश कर रही थीI उसके एक युवा गीतकार मित्र एक विख्यात प्रोड्यूसर से उसका परिचय करवाते हुए कहा:
"इनसे मिलिए सर, ये नीला हैंI ये विदेश में थीं, वहीँ से अभिनय सीख कर आई हैंI"
"हेलो!" नीला को सर से पाँव तक उसकी सुन्दरता निहारते हुए उसने कहाI
"सर! ये मशहूर अभिनेत्री सखी जी की बेटी हैंI"
"ओहो! तभी मैं कहूँ कि इसकी शक्ल जानी पहचानी सी क्यों लग रही हैI" सखी का नाम सुनते ही उनके चेहरे पर अजीब सी चमक आ गई थीI
"आपको तो नए लोग मसीहा कहते हैं, इन्हें भी चाँस दीजिये न सर?" गीतकार ने प्रार्थना भरे स्वर में कहाI
"हाँ हाँ क्यों नहींI भाई हम तो इनकी मम्मी के फैन हुआ करते थे किसी ज़माने में, इनको चांस नहीं देंगे तो और किसे देंगेI" चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाते हुए उसने कहाI "मेरे बंगले पर तो उनका आना जाना लगा ही रहता थाI" दाईं आँख दबाते हुए उसने कहाI
"ठीक है सर, आप लोग बात कीजिए मैं ज़रा दूसरे दोस्तों से मिलकर अभी हाज़िर होता हूँI" यह कहकर वह दूसरी तरफ बढ़ गयाI
"तो मिस नीला! ऐसा करो कल रात मेरे बंगले पर आ जाओ, वहीँ बैठ कर आराम से बातें करेंगेI इसी बहाने और मेरी नई फिल्म की कहानी सुन लेनाI" प्रोड्यूसर अब नीला के बिल्कुल पास आकर बैठ गयाI
"काम की बातें अगर आपके दफ्तर में की जाएँ तो बेहतर नहीं होगा सर?" प्रोड्यूसर से दूर सरकते हुए नीला ने कहाI
नीला का रूखा सा उत्तर सुनकर प्रोड्यूसर अपनी झेंप छुपाते हुए ढिठाई भरे स्वर में बोला:
"हाँ तो मिस नीला! बताइए क्या पियोगी? स्कॉच, रम या शेम्पेन?"
"जी शुक्रिया! मुझे इन चीज़ों का कोई शौक़ नहींI"
"कमाल है, विदेश से रहकर भी इन चीज़ों से दूर हो? तुम्हारी देसी मम्मी तो अपने बैग में हर वक़्त विदेशी शराब रखा करती थीI"
"जी, मुझे मालूम हैI लेकिन क्या आपको मालूम है कि मैं अपने पर्स में क्या रखती हूँ?" सोफे से उठते हुए नीला ने पुछाI
"क्या?"
बाहर जाने वाले दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए नीला ने उत्तर दिया:
"भरी हुई रिवाल्वरI"
शराब का बड़ा सा गिलास हाथ में पकडे हतप्रभ प्रोड्यूसर नीला को जाते हुए देख रहा थाI एक ही साँस में पूरी शराब गले में उड़ेलकर वह बुदबुदाया:
"ये हरगिज़ फ़िल्म लाइन के लायक़ नहीं है, बेअक्ल सालीI"

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मित्रों, ये थीं रचनाएँ। आप सभी जानते ही हैं कि वीणा एक ऐसा वाद्य है, जो माँ सरस्वती का प्रिय है, जिसे स्वयं भगवान शिव ने पार्वती के देवी स्वरूप को समर्पित किया था। इसके तारों को झंकृत करने पर पुरातन कालीन से लेकर आधुनिक काल तक के संगीत बजाये जा सकते हैं। वीणा की सरंचना के आधार पर कुछ और वाद्य यंत्र भी निर्मित किये गये। 

मेरे अनुसार श्री योगराज प्रभाकर सर द्वारा सृजित लघुकथाएं वीणा की झंकार की तरह ही हैं, जो हम सभी के मन-मस्तिष्क को अपने तारों के कम्पन के द्वारा झंकृत कर जाती हैं। उन्हीं तरंगों को मैनें अपने शब्दों में कहने का प्रयास किया है। हालाँकि सच तो यह है कि लघुकथा के "वीणावरदंडमंडितकरा" - योगराज प्रभाकर जी सर की किसी भी रचना के लिये कहना मेरे सामर्थ्य से बाहर है।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी