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शनिवार, 1 जून 2019

विजेता लघुकथा : गूंगा कुछ तो करता है | स्टोरी मिरर में "लघुकथा के परिंदे" प्रतियोगिता के तहत | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

कुछ व्यक्तियों की तरह उसने मुस्कुराने के लिए अपना फेसबुक खोला। पहली पोस्ट देखी, उसमें एक कार्टून बना था कि एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल का प्रमुख दूसरे दल के प्रमुख की हँसी उड़ा रहा था। यह देखकर उसका चेहरा बिगड़ने लगा।

फिर उसने उसी पोस्ट की टिप्पणियाँ पढ़ीं।

पहली टिप्पणी ‘अ’ की थी जिसमें लिखा था, "मूर्ख तो मूर्ख ही रहेगा।" और उसे महसूस हुआ कि वह स्वयं एक मूर्ख व्यक्ति है।

दूसरी टिप्पणी ‘ब’ ने की, "गधों को सब मूर्ख ही दिखाई देते हैं।" यह पढ़कर उसे स्वयं में एक गधा दिखाई देने लगा।

तीसरी टिप्पणी फिर ‘अ’ ने की, "जिसे गधा कह रहे हो उसने देश की लोकतांत्रिक परंपरा को बढ़ाने के लिए बहुत कार्यक्रम चला रखे हैं।"

चौथी टिप्पणी फिर ‘ब’ की थी, "तो तुम भी जिसे मूर्ख कह रहे हो उसने और उसके दल ने भी कई वर्षों देश की भलाई के लिए बहुत कार्यक्रम चलाए हैं।"

पाँचवी टिप्पणी ‘स’ ने की, "एक-दूसरे को कोसना छोड़िये, यह बताइये आप दोनों ने किन-किन कार्यक्रमों या परियोजनाओं में भाग लिया है ?"

छठी टिप्पणी ‘अ’ ने की, "लो आज गूंगे भी बोल रहे हैं, देशद्रोही ! तुमने क्या किया है देश के लिए ? "इस टिप्पणी को ‘ब’ ने पसंद किया हुआ था, लेकिन पढ़कर उसकी भवें तन गयीं।

सातवीं टिप्पणी दस मिनट बाद की थी, जो ‘स’ ने की थी, "मैनें फेसबुक पर अपना प्रचार नहीं किया लेकिन हर दल की सरकार के विकास के कार्यों में हर संभव भाग लिया है..."

उसने और टिप्पणियाँ नहीं पढ़ीं, उसकी आँखों में चमक आ गयी थी और उसने ‘स’ को मित्रता अनुरोध भेज दिया।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शुक्रवार, 31 मई 2019

लघुकथा: दहन किसका | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



"जानते हो रावण की भूमिका करने वाला असली जिंदगी में भी रावण ही है, ऐसा कोई अवगुण नहीं जो इसमें नहीं हो।" रामलीला के अंतिम दिन रावण-वध मंचन के समय पांडाल में एक दर्शक अपने साथ बैठे व्यक्ति से फुसफुसा कर कहने लगा।

दूसरे दर्शक ने चेहरे पर ऐसी मुद्रा बनाई जैसे यह बात वह पहले से जानता था, वह बिना सिर घुमाये केवल आँखें तिरछी करते हुए बोला, "इसका बाप तो बहुत सीधा था, लेकिन पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी की भूल कर बैठा, दूसरी ने  दोनों बाप-बेटे को घर से निकाल दिया...”

“इसकी हरकतें ही ऐसी होंगी, शराबी-जुआरी के साथ किसकी निभेगी?"

"श्श्श! सामने देखो।" पास से किसी की आवाज़ सुनकर दोनों चुप हो गये और मंच की तरफ देखने लगे।

मंच पर विभीषण ने राम के कान में कुछ कहा, और राम ने तीर चला दिया, जो कि सीधा रावण की नाभि से टकराया और अगले ही क्षण रावण वहीँ गिर कर तड़पने लगा, पूरा पांडाल दर्शकों की तालियों से गूँजायमान हो उठा।

तालियों की तेज़ आवाज़ सुनकर वहां खड़ा लक्ष्मण की भूमिका निभा रहा कलाकार भावावेश में आ गया और रावण के पास पहुंच कर हँसते हुआ बोला, "देख रावण... माँ सीता और पितातुल्य भ्राता राम को व्याकुल करने पर तेरी दुर्दशा... इस धरती पर अब प्रत्येक वर्ष दुष्कर्म रूपी तेरा पुतला जलाया जायेगा..."

नाटक से अलग यह संवाद सुनकर रावण विचलित हो उठा, वह लेटे-लेटे ही तड़पते हुआ बोला, "सिर्फ मेरा पुतला! मेरे साथ  उसका क्यों नहीं जिस कुमाता के कारण तेरे पिता मर गये और तुम तीनों को...."

उसकी बात पूरी होने से पहले ही पर्दा सहमते हुए नीचे गिर गया।


- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

गुरुवार, 30 मई 2019

लघुकथा: दुरुपयोग | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


एक बूढ़ा आदमी जिसने सिर्फ धोती पहनी हुई थी, धीरे-धीरे चलता हुआ, महात्मा गांधी की प्रतिमा के पास पहुंचा। वहां उसने अपनी धोती में बंधा हुआ एक सिक्का निकाला, और जिस तरफ ‘सत्यमेव जयते’ लिखा था, उसे ऊपर कर, सिक्के को महात्मा गांधी के पैरों में रख दिया।

अब उसने मूर्ति के चेहरे को देखा, उसकी आँखों में धूप चुभने लगी, लेकिन उसने नज़र हटाये बिना दर्द भरे स्वर में कहा,
"गांधीजी, तुम तो जीत कर चले गये, लेकिन अब यहाँ दो समुदाय बन गये हैं, एक तुम्हारे नाम की जय-जयकार करता है तो दूसरा तुम्हें दुष्ट मानता है... तुम वास्तव में कौन हो, यह पीढ़ी भूल ही गयी।" कहते-कहते उसकी गर्दन नीचे झुकती जा रही थी।

उसी समय उसके हृदय में जाना-पहचाना स्वर सुनाई दिया, "मैं जीता कब था?अंग्रेजों के जाने के बाद आज तक मेरे भाई-बहन पराधीन ही हैं, मुट्ठी भर लोग उन्हें बरगला कर अपनी विचारधारा के पराधीन कर रहे हैं... और सत्य की हालत..."

"क्या है सत्य की हालत?" वह बूढ़ा आदमी अपने अंदर ही खोया हुआ था।

उसके हृदय में स्वर फिर गूंजा, "सत्य तो यह है कि दोनों एक ही काम कर रहे हैं – मेरे नाम को बेच रहे हैं..."

और उसी समय हवा के तेज़ झोंके से मूर्ति पर रखा हुआ सिक्का नीचे गिर गया, शायद उसका आधार कमज़ोर था।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 29 मई 2019

लघुकथा: मैं पानी हूँ | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"क्या... समझ रखा है... मुझे? मर्द हूँ... इसलिए नीट पीता हूँ... मरद हूँ... मुरद...आ"
ऐसे ही बड़बड़ाते हुए वह सो गया। रोज़ की तरह ही घरवालों के समझाने के बावजूद भी वह बिना पानी मिलाये बहुत शराब पी गया था।

कुछ देर तक यूं ही पड़ा रहने के बाद वह उठा। नशे के बावजूद वह स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रहा था, लेकिन कमरे का दृश्य देखते ही अचरज से उसकी आँखें फ़ैल गयीं, उसके पलंग पर एक क्षीणकाय व्यक्ति लेटा हुआ तड़प रहा था।

उसने  उस व्यक्ति को गौर से देखा, उस व्यक्ति का चेहरा उसी के चेहरे जैसा था। वह घबरा गया और उसने पूछा, "कौन हो तुम?"

उस व्यक्ति ने तड़पते हुए कहा, "...पानी..."

और यह कहते ही उस व्यक्ति का शरीर निढाल हो गया। वह व्यक्ति पानी था, लेकिन अब मिट्टी में बदल चुका था।

उसी समय कमरे में उसकी पत्नी, माँ और बच्चों ने प्रवेश किया और उस व्यक्ति को देख कर रोने लगे। वह चिल्लाया, "क्यों रो रहे हो?"

लेकिन उसकी आवाज़ उन तक नहीं पहुंच रही थी।

वह और घबरा गया, तभी पीछे से किसी ने उसे धक्का दिया, वह उस मृत शरीर के ऊपर गिर कर उसके अंदर चला गया। वहां अँधेरा था, उसे अपना सिर भारी लगने लगा और वह तेज़ प्यास से व्याकुल हो उठा। वह चिल्लाया "पानी", लेकिन बाहर उसकी आवाज़ नहीं जा पा रही थी।

उससे रहा नहीं गया और वह अपनी पूरी शक्ति के साथ चिल्लाया, "पा...आआ...नी"

चीखते ही वह जाग गया, उसने स्वप्न देखा था, लेकिन उसका हलक सूख रहा था। उसने अपने चेहरे को थपथपाया और पास रखी पानी की बोतल को उठा कर एक ही सांस में सारा पानी पी लिया।

और उसके पीछे रखी शराब की बोतल नीचे गिर गयी थी, जिसमें से शराब बह रही थी... बिना पानी की।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

मंगलवार, 28 मई 2019

पुस्तक समीक्षा | परिंदे पूछते हैं | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"परिंदे पूछते हैं" - जिज्ञासु लघुकथाकारों के प्रश्नों के उत्तर
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

"परिंदे पूछते हैं" लघुकथा विधा पर सार्थक विमर्श का एक ऐसा आउटपुट है, जो ना केवल नवोदित रचनाकारों के लिए बल्कि उनसे कुछेक कदम आगे बढ़े लघुकथाकारों के लिए भी उपयोगी विषय-वस्तु समेटे है। इस पुस्तक में लघुकथा सम्बन्धी लगभग सभी विषयों पर डॉ. अशोक भाटिया जी द्वारा चर्चा कर जिज्ञासु लघुकथाकारों के प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं। अपनी पारखी दृष्टि से आपने ऐसी लघुकथाओं को उदाहरणस्वरूप भी प्रस्तुत किया है, जिन्हें प्रश्न के साथ जोड़कर लघुकथाकार खुद-ब-खुद उत्तर को अधिक आसानी से समझ सकें। मेरे लिए एक बहुत बड़ी बात यह रही कि यह पुस्तक स्वयं डॉ. अशोक भाटिया जी ने मुझे आशीर्वाद स्वरूप प्रदान की। तब से इसे तीन-चार बार पढ़ चुका हूँ और अपने कुछ मित्रों को पढ़ा भी चुका हूँ।

इस पुस्तक के कुछ कथन ऐसे हैं, जिनकी गंभीरता पर ध्यान देना मैं ज़रूरी समझता हूँ जैसे,

1. लघुकथा की शब्द संख्या को लेकर गद्य और पद्य के अंतर को दर्शाते हुए अशोक भाटिया जी सर ने बताया कि छंदबद्ध दोहों, कविताओं आदि में मात्राओं, गणों और क्रम का महत्व होता है, लेकिन गद्य में ऐसा नहीं है, हाँ! उपन्यास से छोटी कहानी और कहानी से छोटी लघुकथा होनी चाहिए, क्यूंकि लघुकथा एक आयामी होती है।

2. लघुकथा और कहानी में अंतर को स्पष्ट करते हुए डॉ. भाटिया ने यह बताया कि कहानी चाहे बड़ी हो छोटी वह "कहानी" ही कहलाएगी। किसी भी रचनाकार को यह सोचने से पहले कि उनकी लिखी रचना लघुकथा है या कहानी, यह सोचना चाहिए कि रचना अपने सभी पहलुओं यथा कथानक, उद्देश्य, संवाद, भाषा आदि की पूर्णता की ओर जाकर कुछ न कुछ सन्देश अवश्य दे और पाठक के लिए आकर्षक (रुचिकर) होकर उसकी चेतना पर प्रहार करने का सामर्थ्य रखे।

3. लेखक के मन में समाज का एक सुंदर स्वप्न होता है, इसलिए विसंगतियों के प्रति आक्रोश का भाव उत्पन्न हो ही जाता है, लेकिन इसके बावजूद भी अपनी रचनाओं को विसंगतियों की सीमाओं में बाँध कर रखना ठीक नहीं। समाज का सही चित्रण हो यह आवश्यक है।

4. लघुकथा सहित कोई भी रचना काल्पनिक भी हो सकती है, पूर्ण यथार्थपरक भी और दोनों का मिश्रण भी। लेकिन कल्पना हवाई नहीं होनी चाहिए। इसके उदाहरण में आपने बताया कि "स्वाति नक्षत्र से गिरी हुई बूँद मोती बन गयी", यह एक कल्पना है। उसी तरह ब्रह्मा के तीन मुख, माँ दुर्गा के आठ हाथ कल्पना है। लेकिन ये सारी कल्पनाएं इसी दुनिया से आई हैं। सीप से मोती एक प्रक्रिया के तहत बनता ही है, हाथ-पैर-सिर होते ही हैं। ये कल्पनाएं कहीं न कहीं यथार्थ से जुडी हुई हैं।

5.रचना में जिस क्षेत्र के लिए कहा जा रहा है, पात्रों के नाम उसी अनुसार हों। कोशिश यह हो कि पात्रों के नाम अनावश्यक जाती सूचक ना हों और केवल ग्लैमर के लिए ना हों।

6. लघुकथा में सन्देश सीधे-सीधे दिया जाये, यह कोई आवश्यक नहीं। सतही सन्देश देना कई बार रचना को कमजोर करता है। समकालीन हिंदी लघुकथाएं यथार्थ पर टिकी हैं और बोधकथा वाली शैली पीछे छूट गयी है। सीधे सन्देश देने की बजाय कलात्मक तरीके से सन्देश देने पर पाठक पर अधिक प्रभाव पड़ेगा।

7. लघुकथा के शीर्षक पर खुले मन से विचार करें। शीर्षक रोचक भी हो सकता है, जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला भी, व्यंग्यात्मक भी और प्रतीकात्मक भी। कई बार शीर्षक पूरी लघुकथा को ही एक नया आयाम प्रदान कर देता है।

8. विचारहीन, भावहीन, रचनात्मकताहीन, दिशाहीन लघुकथाओं के गोदाम गलतफहमियां पैदा कर रहे हैं।

9. गद्य विधा में मानकों की सूची नहीं होती, केवल विधागत मर्यादाएं होती हैं।

10. प्रतीक रचना में गहरा अर्थ भरते हैं। इनके प्रयोग से कई बार रचना को नयी ऊंचाई भी प्राप्त हो सकती है।

मेरे अनुसार वैसे तो सभी लघुकथाकारों को अपना रास्ता खुद ही चुन कर आगे बढ़ना है, लेकिन "परिंदे पूछते हैं" सरीखी उपयोगी पुस्तकें पढ़नी ही चाहिए। ऐसी पुस्तकें, आलेख आदि रचनाकर्म का मार्ग प्रशस्त करने में महती भूमिका का निर्वाह करते हैं।

-0-

पुस्तक : परिंदे पूछते हैं
लेखक : डॉ. अशोक भाटिया 
प्रकाशक : लघुकथा शोध केन्द्र, भोपाल 
पृष्ठ संख्या: 144
मूल्य : रु.100/-
समीक्षाकार: - डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

सोमवार, 27 मई 2019

कविता में लघुकथा | वो एक क्षण | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


मृत्यु, किसी लघुकथा की तरह, तू भी
एक ही क्षण को समेटे है अपने भीतर।

हाँ! एक फर्क ज़रूर है...
लघुकथा का क्षण कितने ही और क्षणों को कर देता है ज़िंदा
और तेरा क्षण किसी कहानी का कर देता है अंत।
लाखों-करोड़ों घंटे खत्म हो जाते… अगले ही पल।

एक दिन - एक क्षण
हम सब लिखेंगे यह लघुकथा।
रह जायेगी एक गूंगी किताब
कुछ हाथों में - किन्हीं कन्धों पे।

शायद कुछ दिलों में भी...


-- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 26 मई 2019

पुस्तक: 101 लघुकथाएँ | विजय अग्रवाल

पुस्तक के कुछ अंश


प्रतिष्ठित लेखक डॉ. विजय अग्रवाल की ये लघुकथाएँ स्वयं पर लगाए जानेवाले इस आरोप को झुठलाती हैं कि लघुकथाएँ लघु तो होती हैं, लेकिन उनमें कथा नहीं होती। इस संग्रह की लघुकथाओं में कथा तो है ही, साथ ही उन्हें कहने के ढंग में भी ‘कहन’ की शैली है। इसलिए ये छोटी-छोटी रचनाएँ पाठक के अंतर्मन में घुसकर वहाँ बैठ जाने का सामर्थ्य रखती हैं।

ये लघुकथाएं मानव के मन और मस्तिष्क के द्वंद्वों तथा उनके विरोधाभासों को जिंदगी की रोजमर्रा की घटनाओं और व्यवहारों के माध्यम से हमारे सामने लाती हैं। इनमें जहाँ भावुक मन की तिलमिलाती हुई तरंगें मिलेंगी, वहीं कहीं-कहीं तल में मौजूद विचारों के मोती भी। पाठक इसमें मन और विचारों के एक ऐसे मेले की सैर कर सकता है, जहाँ बहुत सी चीजें हैं—और तरीके एवं सलीके से भी हैं।
इस संग्रह की विशेषता है—सपाटबयानी की बजाय किस्सागोई। निश्चय ही ये लघुकथाएँ सुधी पाठकों को कुरेदेंगी और सोचने पर विवश करेंगी।
दिल्ली की गलियों-सड़कों और मुल्लों-बाजारों को, जिन्होंने मुझसे ये लिखवाईं।

क्यों और कैसे

लगता है कि सूखी घास-फूस की कई अलग-अलग ढेरियाँ दिलो-दिमाग पर धरी रहती हैं कि अचानक जिंदगी का कोई छोटा-बड़ा वाकया आग की एक फुनगी की तरह आकर उन कई ढेरियों में से किसी एक पर गिरता है और देखते-ही-देखते वह ढेरी लपलपा उठती है। ऐसा हुआ नहीं कि लघुकथा बनी नहीं।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ऐसा होने पर वह ढेरी लपलपाने की बजाय सुलगने लगती है। वह सुलगती जाती है और कुछ समय बाद सुलगते-सुलगते सुस्त एवं पस्त पड़कर अंततः सुलगना ही बंद कर देती है। यह लपलपा नहीं पाती। नतीजन यह लघुकथा नहीं बन पाती। मैंने पाया कि इसमें दोष आग की फुनगी का तनिक भी नहीं रहता। दोष रहता है कि दिलो-दिमाग में मौजूद घास-फूस की उन ढेरियों का कि वे इतनी सूखी नहीं थीं कि फुनगी के उस आँच को लपककर लपटों में तब्दील कर सकें।

इसलिए कम-से-कम मेरे मामले में अब तक ऐसा ही हुआ है कि जितनी लघुकथाएँ रची गई हैं, उनसे कई गुना अधिक अनरची रह गयी हैं। घटनाएँ कौंधती हैं, प्रभावित भी करती हैं। वे सभी संभावनाओं से सराबोर भी रहती हैं। उनमें इतनी ताकत भी होती है कि वे मुझे बेचैन करके टेबुल-कुरसी तक खींच लाती हैं। लेकिन मैं उनके मन-मुताबिक उन्हें शक्ल नहीं दे पाता। उनका शिल्प सध न पाने के कारण ये लघुकथाएँ नहीं बन पातीं। इसे मैं अपनी कमजोरी मानता हूँ।

इसलिए कभी-कभी मुझे यह मानने को मजबूर होना पड़ता है कि लघुकथाएँ शायद सायास नहीं होतीं। ये आयास होती हैं। ये लिखी नहीं जातीं बल्कि लिख जाती हैं। इसलिए यदि संवेदनात्मक अनुभूति के क्षण ही उसे अंजाम देने से चूक गए तो फिर आप उसे चूका ही समझो, क्योंकि अपनी सीमा में लघु होने के कारण इसकी विषय वस्तु में जो एक जबरदस्त अंतर्द्वन्द्व और परस्पर खिंचाव होना चाहिए, पर यह अनुभूतियों के कुछ ऐसे ही गहरे एवं सघन क्षणों में संभव हो पाता है। यही उसकी शैली को ताप प्रदान करता है। यही उसे मात्र वर्ण, ठंडा वक्तव्य या चुटकुलेनुमा स्वरूप से बचाता है।
ये सब महज मेरी अपनी बातें हैं। मुझे नहीं मालूम कि मैं अपनी इन सैद्धांतिक बातों को अपनी रचनात्मकता में कितना ढाल सकता हूँ। हाँ, यह जरूर है कि मेरी कोशिश सोलहों आने रही है और यही वह था, जो मैं कर सकता था—और मैंने किया।

अब एक कोशिश मेरे प्रिय पाठक के रूप में आपको अपनी करनी है। मेरी रचनात्मक सफलता एकमात्र इसी बात में है कि मैं इन्हें कितना आपका बना सका हूँ।
अभी तो बस इतना ही। बाकी कभी कहीं मुलाकात होने पर।

-विजय अग्रवाल

अनंत खोज


‘‘यह तुमने कैसा वेश बना रखा है ?’’
‘‘तुम भी तो वैसी ही दिख रही हो !’’
‘‘हाँ मैंने अब अपने आपको समाज को सौंप दिया है। उन्हीं के लिए रात-दिन सोचता-करता रहता हूँ।’’
‘‘कुछ ऐसी ही स्थित मेरी भी है। एम.डी. करने के बाद अब मैं आदिवासी इलाकों में मुफ्त इलाज करती हूँ। बदले में वे ही लोग मेरी देखभाल करते हैं। खैर, लेकिन तुम तो आई.ए.एस. बनने की बात करते थे ?’’
‘‘हाँ, करता था। बन भी जाता शायद, बशर्ते कि तुम्हें पाने की आशा रही होती। जब तुम नहीं मिलीं तो आई.ए.एस. का विचार भी छोड़ दिया !’’

‘‘अच्छा !’’ उसके चेहरे पर अनायास ही दुःख की हलकी लकीरें उभर आईं। उसने धीमी आवाज में कहा, ‘‘कहाँ तो आई.ए.एस. के ठाट-बाट और कहाँ गली-गली की खाक छानने वाला ये धंधा ! इनमें तो कोई तालमेल दिखाई नहीं देता।’’
‘‘क्या करता ? यदि तुमने एक बार अपने मन की बात बता दी होती तो आज जिंदगी ही कुछ और होती।’’
‘‘लेकिन तुमने भी तो अपने मन की बात नहीं कही।’’
थोड़ी देर के लिए वातावरण में घुप्प चुप्पी छा गई। दोनों की आँखें एक साथ उठीं, मिलीं और फिर दोनों एक साथ बोल उठे, ‘‘इसके बाद से शायद हम दोनों ही एक-दूसरे को औरों में खोजने में लगे हुए हैं। शायद इसीलिए किसी ने भी अपने मन की बात नहीं कही।’’

मिलन


‘‘उस दिन तुम आए नहीं। मैं प्रतीक्षा करती रही तुम्हारी।’’ प्रेमिका ने उलाहने के अंदाज में कहा।
‘‘मैं आया तो था, लेकिन तुम्हारा दरवाजा बंद था, इसलिए वापस चला गया।’’ प्रेमी ने सफाई दी।
‘‘अरे, भला यह भी कोई बात हुई !’’ प्रेमिका बोली।
‘‘क्यों, क्या तुम्हें अपना दरवाजा खुला नहीं रखना चाहिए था ?’’ प्रेमी थोड़े गुस्से में बोला।
‘‘यदि दरवाजा बंद ही था तो तुम दस्तक तो दे सकते थे। मैं तुम्हारी दस्तक सुनने के लिए दरवाजे से कान लगाए हुए थी।’’ प्रेमिका ने रूठते हुए कहा।

‘‘क्यों, क्या मेरे आगमन की सूचना के लिए मेरे कदमों की आहट पर्याप्त नहीं थी ?’’ प्रेमी थोड़ी ऊँची आवाज में बोला।
इसके बाद वे कभी मिल नहीं सके, क्योंकि न तो प्रेमिका ने अपना दरवाजा खुला रखा और न ही प्रेमी ने उस बंद दरवाजे पर दस्तक दी।


सच्चा प्रेम



‘‘मैं तुमसे बहुत प्रेम करती हूँ।’’
‘‘लेकिन मैं तो तुमसे नहीं करता।’’
‘‘इससे क्या, लेकिन मैं तो तुमसे करती हूँ।’’
‘‘तुम नहीं जानती मुझे। सच तो यह है कि मैं तुमसे घृणा करता हूँ।’’
‘‘शायद इसीलिए मैं तुमसे प्रेम करती हूँ, क्योंकि बाकी सभी मुझसे प्रेम करते हैं। एक तुम ही अलग हो, जो मुझसे घृणा करते हो।’’
कहते हैं कि दोनों ने अपने इस रिश्ते को ताउम्र निभाया।