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सोमवार, 6 मई 2019
रविवार, 5 मई 2019
लघुकथा समाचार: न्यूज़ीलैंड में हिन्दी लघुकथा लेखकों की दस्तक
श्री मुकेश शर्मा की फेसबुक वॉल से
न्यूज़ीलैंड में हिन्दी लघुकथा लेखकों की दस्तक
न्यूज़ीलैंड से प्रकाशित पहले हिन्दी अखबार 'अपना भारत' का पहला 'लघुकथा-परिशिष्ट' पाठकों को सौंपते हुए हमें अत्यंत हर्ष महसूस हो रहा है।
साहित्य के इस पृष्ठ के माध्यम से प्रयास रहेगा कि यह भारत,न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा, जर्मनी आदि देशों के लेखकों का एक संयुक्त मंच बन पाये।
आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
- मुकेश शर्मा, वरिष्ठ सम्पादक
Source:
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1118357121680401&set=pcb.1118357335013713&type=3&theater
न्यूज़ीलैंड में हिन्दी लघुकथा लेखकों की दस्तक
न्यूज़ीलैंड से प्रकाशित पहले हिन्दी अखबार 'अपना भारत' का पहला 'लघुकथा-परिशिष्ट' पाठकों को सौंपते हुए हमें अत्यंत हर्ष महसूस हो रहा है।
साहित्य के इस पृष्ठ के माध्यम से प्रयास रहेगा कि यह भारत,न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा, जर्मनी आदि देशों के लेखकों का एक संयुक्त मंच बन पाये।
आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
- मुकेश शर्मा, वरिष्ठ सम्पादक
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शनिवार, 4 मई 2019
शुक्रवार, 3 मई 2019
कुछ लघुकथाएं | संग्रह: दो सौ ग्यारह लघु कथाएं | लेखिका उषा जैन शीरीं
लघुकथा संग्रह: दो सौ ग्यारह लघुकथाएं
प्रकाशित वर्ष : 2007
प्रकाशक : लिट्रेसी हाऊस
आईएसबीएन :81-88435-20-1
मुखौटे
‘‘पापाऽऽ पापाऽऽ वो देखिए कितने फनीमास्क हैं। पपा हम मास्क लेंगे, प्लीज ले दीजिए ना पापा !’’ नन्हें शोमू ने दशहरे पर बिक रहे राम और रावण के मुखौटों को देखकर जिद की।
‘‘भैया कैसे दिये ये मुखौटे ?’’
‘‘कौन सा चाहिए साहब, राम का या रावण का ?’’
‘‘शोमू कौन-सा लोगे बेटे ?’’
‘‘वो डरावना वाला। उसे पहनकर मैं दोस्तों को डराऊँगा।’’
‘‘बेटे रामजीवाला मास्क ले लो। देखो तो कितना सुंदर है !’’ मम्मी ने शोमू को समझाया।
‘‘नहीं ! हमतो डरावना वाला ही लेंगे।’’ शोमू अपनी बात मनवाने पर अड़ा था।
पापा ने उदारता बरतते हुए कहा, अच्छा दोनों ही ले लो।
भैया दोनों कितने-कितने के है ?
‘‘एक ही दाम है दोनों का दस-दस रुपैया साहब।’’
‘‘दोनों का एक ही दाम ?’’ मम्मी के प्रश्न में आश्चर्य था।’’
‘‘भला इसमें आश्चर्य की क्या बात है !’’ पापा का व्यावहारिकता पूर्ण जवाब था।
-0-
ट्रेजेडी
माँ की मृत्यु के बाद पिताजी बिल्कुल अकेले पड़ गए। अपना आक्रोश निकालने का जरिया न रहने के कारण वे बेहद घुटन महसूस करते। दिन भर कमरे से उस कमरे में बेचैनी से पिंजरे में बंद शेर की तरह चक्कर काटते रहते।
खाने के वे बेहद शौकीन थे। माँ कितनी भी तब़ीयत खराब होती तब भी उनके लिए कचौरी, समोसे दही बड़े बनाती रहती थी। अब ये सब खाने की तीव्र इच्छा होने पर वे होठों पर जीभ फेर रह जाते। बहू की दी हुई ब्रेड और दूध दलिया से उन्हें अक्सर उबकाई आती। किंतु उससे कुछ भी कहने की उनकी हिम्मत नहीं होती।
पिताजी घोर नास्तिक थे। मंदिर पूजा-पाठ के नाम से ही उन्हें सख्त चिढ़ थी। समय बिताने का यह जरिया भी उनके हाथ में न था। उनके हम उम्र लोग सभी ईश्वर देवी-देवता को मानने वाले थे। इसलिए विचारों के मेल न खाने से उनकी उनके साथ भी न पटती। वे हमेशा जवान लोगों में उठना बैठना चाहते लेकिन जवान लोग उन्हें तनिक भी लिफ्ट ही न देते।
बुढ़ापे ने उन्हें गले लगा लिया किंतु वे बुढ़ापे को स्वीकार नहीं कर पाए।
-0-
औकात
औरत पिटती हुई तड़प रही थी। उसे देखकर पड़ोसी को दया आ गई। उसने उस औरत के पति से कहा, ‘‘क्यों भई क्यों एक अबला पर जुल्म ढा रहे हो ! देखो बेचारी किस कदर जख्मी हो गई।’’
पति बोला, ‘‘श्रीमान् पहली बात तो अब यह अबला नहीं मुझसे ज्यादा कमाती है। इसमें इस बात की फूँक न भर जाए इसीलिए कभी-कभी दो चार हाथ जमाने पड़ जाते हैं ताकि, यह अपनी औकात में रहे। लेकिन आप यहाँ क्यों अपनी करुणा जाया कर रहे हैं जाइए महाशय उसे अपनी बहन-बेटियों के लिए बचा रखिए।
-0-
माँ के गाल
‘‘पापा माँ के गालों पर लाल गुलाब खिलते हैं न ?’’
‘‘कौन कहता है’’ पापा शक से चौकन्ने हुए आँखों में हरापन और गहरा गया।
माँ के गालों के लाल गुलाब पीले गुलाबों में परिवर्तित होने लगे। मगर मुन्नी इससे बेखबर चहकते हुए बोली, ‘‘मैडम डिसूजा और कौन !’’ पापा की आँखों का भूरापन लौट आया और पीले गुलाब फिर लाल हो गए।
-0-
सुरक्षा
‘‘शादी से पहले मैं कितनी आजाद थी। कॉलेज जाकर मैं क्या करती थी। यह कोई नहीं पूछता था। लेकिन अब केवल घर के पिंजरे में कैद होकर रह गई हूँ।’’
पड़ोसी राकेश नीना की फरियाद सुनकर कुछ कहता इससे पहले ही पिंजरे में बंद पक्षी पुकार उठा-‘‘हाय हलो..हाय...हलो।’’
‘‘अरे महेश, ये पक्षी कब ले आये ? अभी कल ही तो..।।
भई पता नहीं क्यों आजाद रहने वाले पक्षियों को पिंजरे में बंद देखकर मुझे बड़ा दु:ख होता है।
इसमें दु:ख की क्या बात है। महेश ने पत्नी नीना की ओर देखते हुए कहा। ‘‘कुछ जानवरों का जन्म कैद में रहने के लिए ही होता है क्योंकि वे वहीं ज्यादा सुरक्षित रहते हैं।’’
-0-
बेवजह
रात के बारह बज रहे हैं। शैफाली आज फिर सफेद रंग की मारुति में आई है। सरल ने देखा उसके बॉस पी.के. उसे सहारा देकर सीढ़ियों तक पहुँचा गए हैं।
पत्नी के कमरे में घुसते ही वह उस पर बरस पड़ा, ‘‘क्या तुमने मुझे भड़ुवा समझ रखा है जो मैं यह सब खामोशी से बर्दाश्त करता रहूँगा। नहीं करवानी मुझे तुमसे नौकरी। कल से घर बैठो।’’
‘‘नौकरी तो मैं छोड़ने से रही।’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘मतलब साफ है उसके लिए मैं तुम्हें छोड़ सकती हूँ।’’
‘‘अब नौबत यहाँ तक आ पहुँची है ?’’
‘‘ये तो तुम्हें पहले ही सोच लेना था जब तुमने प्रमोशन के लिए मुझे इस्तेमाल किया था। अब सिर्फ मैं अपने लिए अपने को इस्तेमाल कर रही हूँ। तुम्हारा गुस्सा बेवजह है।’’ शैफाली ने ठंडे लहजे में कहा और सिंक में चेहरा धोने लगी।
-0-
झाड़फानूस
घर पर ऊब रही कुछ अमीर औरतों ने ‘हम सक्रिय हैं’ संस्था का गठन किया। अपनी संस्था का पहला समारोह उन्होंने दिल्ली के एक वातानुकूलित सभाग्रह में मनाया। विषय था-झुग्गी झोपड़ियाँ और आन्तरिक सज्जा।
भाषण के बाद अध्यक्ष महोदया ने नीलामी से खरीदे गए एक झाड़फानूस का जिक्र करते हुए कहा, चूँकि ये हमारी पुरानी सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है उन्हें हर झोंपड़ी में होना ही चाहिए।
तभी दो बच्चे जिनके शरीर पर फटे कपड़े थे और भुखमरी के कारण जिनके बदन में शायद पूरी जान भी न थी, उस फानूस को स्टेज पर प्रदर्शन के लिए रखने आये। एकाएक फानूस उनके हाथ से गिरा और न जाने कितने बच्चों की शक्ल में बिखर गया।
-0-
गैरज़रूरी
‘‘क्यों सता रखा है उसे तुमने ?’’ बेटे ने माँ से नई-नवेली पत्नी के विषय में आक्रोश से भरकर कहा।
अत्यंत संवेदनशील वह नारी जो चींटी भी नहीं मार सकती थी किसी का दिल दुखाने सताने की तो दूर की बात। हैरत से पहले तो बेटे को देखती रही। फिर कुछ न बोल अपने भीतर उतरती चली गई।
बहू कुछ रोज के लिए मायके गई थी। अब घर में सिर्फ माँ और बेटा ही थे। जो माँ बेटे की पीड़ा की कल्पना मात्र से काँपने लगती। हर समय अपनी ममता का सागर उस पर लुटाती। न जाने किस सूत्र से बेटे के अंदर का सब कुछ जान लेने वाली माँ अब जैसे राख हो गई थी। बेटे के एक वाक्य ने उस पर कहर ढा दिया था। अब बेटे की उपस्थिति को नकारती-छुपाती..अपने ऊपर विश्वास मानो खो चुकी थी। उसके भीतर जैसे सब चूक गया था। वह बीमार रहने लगी।
जिसकी किसी को ज़रूरत नहीं उसका मर जाना ही अच्छा माँ के हृदय से आवाज आती रही और एक दिन वह सचमुच मर गई।
-0-
डिप्लोमेसी
अरिंजय वैसे तो माँ को काफी फरमाबरदार बेटा लगता लेकिन, बीवी के सामने आते ही वह रंग बदल लेता। अकारण ही वह माँ से झगड़ा कर उसके काम में नुक्स निकालता, बदतमीज़ी से बोलते हुए बीवी के चेहरे पर आयी खुशी की लाली में संतुष्टि खोजता।
बीवी की अनुपस्थिति में जब माँ आँखों में आंसू लिये शिकवा करती तो वो लाड में माँ की गोद में सर रख कर कहता, ‘‘ममा प्लीज, मेरी खुशी के लिए इतना-सा सहन कर लिया करें। मेरे आपसे इस टोन में बात करने से जरा रैना खुश हो जाती है बस ! आपको तो पता ही है वह कैसी बिगड़ैल घोड़ी है। जरा उसे साध लूँ फिर, आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’’
बेटा बीवी से ज्यादा मुझे अपना समझता है माँ के झिलमिलाते आँसुओं के पीछे इंद्र धनुष लहरा उठता।
-0-
प्रकाशित वर्ष : 2007
प्रकाशक : लिट्रेसी हाऊस
आईएसबीएन :81-88435-20-1
मुखौटे
‘‘पापाऽऽ पापाऽऽ वो देखिए कितने फनीमास्क हैं। पपा हम मास्क लेंगे, प्लीज ले दीजिए ना पापा !’’ नन्हें शोमू ने दशहरे पर बिक रहे राम और रावण के मुखौटों को देखकर जिद की।
‘‘भैया कैसे दिये ये मुखौटे ?’’
‘‘कौन सा चाहिए साहब, राम का या रावण का ?’’
‘‘शोमू कौन-सा लोगे बेटे ?’’
‘‘वो डरावना वाला। उसे पहनकर मैं दोस्तों को डराऊँगा।’’
‘‘बेटे रामजीवाला मास्क ले लो। देखो तो कितना सुंदर है !’’ मम्मी ने शोमू को समझाया।
‘‘नहीं ! हमतो डरावना वाला ही लेंगे।’’ शोमू अपनी बात मनवाने पर अड़ा था।
पापा ने उदारता बरतते हुए कहा, अच्छा दोनों ही ले लो।
भैया दोनों कितने-कितने के है ?
‘‘एक ही दाम है दोनों का दस-दस रुपैया साहब।’’
‘‘दोनों का एक ही दाम ?’’ मम्मी के प्रश्न में आश्चर्य था।’’
‘‘भला इसमें आश्चर्य की क्या बात है !’’ पापा का व्यावहारिकता पूर्ण जवाब था।
-0-
ट्रेजेडी
माँ की मृत्यु के बाद पिताजी बिल्कुल अकेले पड़ गए। अपना आक्रोश निकालने का जरिया न रहने के कारण वे बेहद घुटन महसूस करते। दिन भर कमरे से उस कमरे में बेचैनी से पिंजरे में बंद शेर की तरह चक्कर काटते रहते।
खाने के वे बेहद शौकीन थे। माँ कितनी भी तब़ीयत खराब होती तब भी उनके लिए कचौरी, समोसे दही बड़े बनाती रहती थी। अब ये सब खाने की तीव्र इच्छा होने पर वे होठों पर जीभ फेर रह जाते। बहू की दी हुई ब्रेड और दूध दलिया से उन्हें अक्सर उबकाई आती। किंतु उससे कुछ भी कहने की उनकी हिम्मत नहीं होती।
पिताजी घोर नास्तिक थे। मंदिर पूजा-पाठ के नाम से ही उन्हें सख्त चिढ़ थी। समय बिताने का यह जरिया भी उनके हाथ में न था। उनके हम उम्र लोग सभी ईश्वर देवी-देवता को मानने वाले थे। इसलिए विचारों के मेल न खाने से उनकी उनके साथ भी न पटती। वे हमेशा जवान लोगों में उठना बैठना चाहते लेकिन जवान लोग उन्हें तनिक भी लिफ्ट ही न देते।
बुढ़ापे ने उन्हें गले लगा लिया किंतु वे बुढ़ापे को स्वीकार नहीं कर पाए।
-0-
औकात
औरत पिटती हुई तड़प रही थी। उसे देखकर पड़ोसी को दया आ गई। उसने उस औरत के पति से कहा, ‘‘क्यों भई क्यों एक अबला पर जुल्म ढा रहे हो ! देखो बेचारी किस कदर जख्मी हो गई।’’
पति बोला, ‘‘श्रीमान् पहली बात तो अब यह अबला नहीं मुझसे ज्यादा कमाती है। इसमें इस बात की फूँक न भर जाए इसीलिए कभी-कभी दो चार हाथ जमाने पड़ जाते हैं ताकि, यह अपनी औकात में रहे। लेकिन आप यहाँ क्यों अपनी करुणा जाया कर रहे हैं जाइए महाशय उसे अपनी बहन-बेटियों के लिए बचा रखिए।
-0-
माँ के गाल
‘‘पापा माँ के गालों पर लाल गुलाब खिलते हैं न ?’’
‘‘कौन कहता है’’ पापा शक से चौकन्ने हुए आँखों में हरापन और गहरा गया।
माँ के गालों के लाल गुलाब पीले गुलाबों में परिवर्तित होने लगे। मगर मुन्नी इससे बेखबर चहकते हुए बोली, ‘‘मैडम डिसूजा और कौन !’’ पापा की आँखों का भूरापन लौट आया और पीले गुलाब फिर लाल हो गए।
-0-
सुरक्षा
‘‘शादी से पहले मैं कितनी आजाद थी। कॉलेज जाकर मैं क्या करती थी। यह कोई नहीं पूछता था। लेकिन अब केवल घर के पिंजरे में कैद होकर रह गई हूँ।’’
पड़ोसी राकेश नीना की फरियाद सुनकर कुछ कहता इससे पहले ही पिंजरे में बंद पक्षी पुकार उठा-‘‘हाय हलो..हाय...हलो।’’
‘‘अरे महेश, ये पक्षी कब ले आये ? अभी कल ही तो..।।
भई पता नहीं क्यों आजाद रहने वाले पक्षियों को पिंजरे में बंद देखकर मुझे बड़ा दु:ख होता है।
इसमें दु:ख की क्या बात है। महेश ने पत्नी नीना की ओर देखते हुए कहा। ‘‘कुछ जानवरों का जन्म कैद में रहने के लिए ही होता है क्योंकि वे वहीं ज्यादा सुरक्षित रहते हैं।’’
-0-
बेवजह
रात के बारह बज रहे हैं। शैफाली आज फिर सफेद रंग की मारुति में आई है। सरल ने देखा उसके बॉस पी.के. उसे सहारा देकर सीढ़ियों तक पहुँचा गए हैं।
पत्नी के कमरे में घुसते ही वह उस पर बरस पड़ा, ‘‘क्या तुमने मुझे भड़ुवा समझ रखा है जो मैं यह सब खामोशी से बर्दाश्त करता रहूँगा। नहीं करवानी मुझे तुमसे नौकरी। कल से घर बैठो।’’
‘‘नौकरी तो मैं छोड़ने से रही।’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘मतलब साफ है उसके लिए मैं तुम्हें छोड़ सकती हूँ।’’
‘‘अब नौबत यहाँ तक आ पहुँची है ?’’
‘‘ये तो तुम्हें पहले ही सोच लेना था जब तुमने प्रमोशन के लिए मुझे इस्तेमाल किया था। अब सिर्फ मैं अपने लिए अपने को इस्तेमाल कर रही हूँ। तुम्हारा गुस्सा बेवजह है।’’ शैफाली ने ठंडे लहजे में कहा और सिंक में चेहरा धोने लगी।
-0-
झाड़फानूस
घर पर ऊब रही कुछ अमीर औरतों ने ‘हम सक्रिय हैं’ संस्था का गठन किया। अपनी संस्था का पहला समारोह उन्होंने दिल्ली के एक वातानुकूलित सभाग्रह में मनाया। विषय था-झुग्गी झोपड़ियाँ और आन्तरिक सज्जा।
भाषण के बाद अध्यक्ष महोदया ने नीलामी से खरीदे गए एक झाड़फानूस का जिक्र करते हुए कहा, चूँकि ये हमारी पुरानी सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है उन्हें हर झोंपड़ी में होना ही चाहिए।
तभी दो बच्चे जिनके शरीर पर फटे कपड़े थे और भुखमरी के कारण जिनके बदन में शायद पूरी जान भी न थी, उस फानूस को स्टेज पर प्रदर्शन के लिए रखने आये। एकाएक फानूस उनके हाथ से गिरा और न जाने कितने बच्चों की शक्ल में बिखर गया।
-0-
गैरज़रूरी
‘‘क्यों सता रखा है उसे तुमने ?’’ बेटे ने माँ से नई-नवेली पत्नी के विषय में आक्रोश से भरकर कहा।
अत्यंत संवेदनशील वह नारी जो चींटी भी नहीं मार सकती थी किसी का दिल दुखाने सताने की तो दूर की बात। हैरत से पहले तो बेटे को देखती रही। फिर कुछ न बोल अपने भीतर उतरती चली गई।
बहू कुछ रोज के लिए मायके गई थी। अब घर में सिर्फ माँ और बेटा ही थे। जो माँ बेटे की पीड़ा की कल्पना मात्र से काँपने लगती। हर समय अपनी ममता का सागर उस पर लुटाती। न जाने किस सूत्र से बेटे के अंदर का सब कुछ जान लेने वाली माँ अब जैसे राख हो गई थी। बेटे के एक वाक्य ने उस पर कहर ढा दिया था। अब बेटे की उपस्थिति को नकारती-छुपाती..अपने ऊपर विश्वास मानो खो चुकी थी। उसके भीतर जैसे सब चूक गया था। वह बीमार रहने लगी।
जिसकी किसी को ज़रूरत नहीं उसका मर जाना ही अच्छा माँ के हृदय से आवाज आती रही और एक दिन वह सचमुच मर गई।
-0-
डिप्लोमेसी
अरिंजय वैसे तो माँ को काफी फरमाबरदार बेटा लगता लेकिन, बीवी के सामने आते ही वह रंग बदल लेता। अकारण ही वह माँ से झगड़ा कर उसके काम में नुक्स निकालता, बदतमीज़ी से बोलते हुए बीवी के चेहरे पर आयी खुशी की लाली में संतुष्टि खोजता।
बीवी की अनुपस्थिति में जब माँ आँखों में आंसू लिये शिकवा करती तो वो लाड में माँ की गोद में सर रख कर कहता, ‘‘ममा प्लीज, मेरी खुशी के लिए इतना-सा सहन कर लिया करें। मेरे आपसे इस टोन में बात करने से जरा रैना खुश हो जाती है बस ! आपको तो पता ही है वह कैसी बिगड़ैल घोड़ी है। जरा उसे साध लूँ फिर, आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’’
बेटा बीवी से ज्यादा मुझे अपना समझता है माँ के झिलमिलाते आँसुओं के पीछे इंद्र धनुष लहरा उठता।
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गुरुवार, 2 मई 2019
लघुकथा रचना प्रक्रिया । यक्ष प्रश्न । सविता मिश्रा 'अक्षजा'
यक्ष प्रश्न
"दिख रही है न ! चाँद सितारों की खूबसूरत दुनिया ?" अदिति को टेलेस्कोप से आसमान दिखाते हुये शिक्षक ने पूछा ।
"जी सर ! कई चमकीले तारें दिख रहे हैं ।"
"देखो! जो सात ग्रह पास-पास हैं, वो 'सप्त ऋषि' हैं ! और जो सबसे अधिक चमकदार तारा उत्तर में है, वह है 'ध्रुव-तारा' । जिसने तप करके अपने निरादर का बदला, सर्वोच्च स्थान को पाकर लिया । "
"सर! हम अपने निरादर का बदला कब लें पाएंगे ! हर क्षेत्र में दबदबा कायम कर चुके हैं, फिर भी ध्रुव क्यों नहीं बने अब तक ?" अदिति अपना झुका हुआ सिर उठाते हुये बोली ।
शिक्षक का गर्व से उठा सिर सवाल सुनकर अचानक झुक-सा गया ।
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
आगरा ,, (प्रयागराज)
2012.savita.mishra@gmail.com
---००---
रचना प्रक्रिया
नया लेखन - नए दस्तखत फेसबुक ग्रुप में 'चित्र प्रतियोगिता' आयोजित की गयी थी । जिसमें एक आदमी एक बच्ची को टेलेस्कोप से कुछ दिखाने का चित्र दिया गया था । उसी चित्र को देखकर चेतन मन लघुकथा हेतु कथानक चुनने लगा । अचानक से 17 April 2015को उस चित्र को देखकर हमारे दिमाग में ध्रुव तारा आया । जिसके साथ उसकी कहानी भी याद आई । दिमाग में क्लिक हुआ कि लड़कियों के महती कार्य करने को कहकर हम उनकी होती उपेक्षा और निरादर दिखा सकते हैं । बस फिर क्या था कम्प्यूटर के किबोर्ड पर उँगलियाँ थिरकने लगी । और अवचेतन मन में छुपा लडकियों के प्रति होता निरादर 'निरादर का बदला' नामक लघुकथा रूप में स्क्रीन पर उतरता गया ।
कथोपकथन शैली को अपनाकर अपनी बात को कहना ज्यादा सरल था । जिसके कारण हमने इसी शैली को अपनाते हुए अपने अन्तर्द्वन्द को शब्दों में गढ़ा ।
पहले ही ड्राफ्ट के साथ यह लघुकथा दो-तीन जगह छपी, जिसमें साहित्य शिल्पी वेबसाइट महत्वपूर्ण है । बाद में २०१८ में मेल में भेजते समय दिमाग ने कहा कि 'निरादर का बदला' से ज्यादा ‘यक्ष प्रश्न’ नामक शीर्षक मेरे विचारों को गति दे रहा है । इस बात के दिमाग में कौंधते ही हमने इसके शीर्षक में बदलाव कर दिया । क्योंकि लगा कि लड़कियों को उनका सम्मान कब मिलना, पूछना एक ‘यक्ष प्रश्न’ ही है, जिसका जवाब न अब तक मिला और न शायद कभी मिलेगा । साथ ही हमने इसके वाक्य-विन्यास को सही किया । यानी की दूसरे ड्राफ्ट में ही यह कथा वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई ।
इसको सही करने या शीर्षक बदलने में हमने किसी की भी सलाह का सहारा नहीं लिया ।
---००---
Source:
http://kavitabhawana.blogspot.com/2019/04/blog-post.html
"दिख रही है न ! चाँद सितारों की खूबसूरत दुनिया ?" अदिति को टेलेस्कोप से आसमान दिखाते हुये शिक्षक ने पूछा ।
"जी सर ! कई चमकीले तारें दिख रहे हैं ।"
"देखो! जो सात ग्रह पास-पास हैं, वो 'सप्त ऋषि' हैं ! और जो सबसे अधिक चमकदार तारा उत्तर में है, वह है 'ध्रुव-तारा' । जिसने तप करके अपने निरादर का बदला, सर्वोच्च स्थान को पाकर लिया । "
"सर! हम अपने निरादर का बदला कब लें पाएंगे ! हर क्षेत्र में दबदबा कायम कर चुके हैं, फिर भी ध्रुव क्यों नहीं बने अब तक ?" अदिति अपना झुका हुआ सिर उठाते हुये बोली ।
शिक्षक का गर्व से उठा सिर सवाल सुनकर अचानक झुक-सा गया ।
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
आगरा ,, (प्रयागराज)
2012.savita.mishra@gmail.com
---००---
रचना प्रक्रिया
नया लेखन - नए दस्तखत फेसबुक ग्रुप में 'चित्र प्रतियोगिता' आयोजित की गयी थी । जिसमें एक आदमी एक बच्ची को टेलेस्कोप से कुछ दिखाने का चित्र दिया गया था । उसी चित्र को देखकर चेतन मन लघुकथा हेतु कथानक चुनने लगा । अचानक से 17 April 2015को उस चित्र को देखकर हमारे दिमाग में ध्रुव तारा आया । जिसके साथ उसकी कहानी भी याद आई । दिमाग में क्लिक हुआ कि लड़कियों के महती कार्य करने को कहकर हम उनकी होती उपेक्षा और निरादर दिखा सकते हैं । बस फिर क्या था कम्प्यूटर के किबोर्ड पर उँगलियाँ थिरकने लगी । और अवचेतन मन में छुपा लडकियों के प्रति होता निरादर 'निरादर का बदला' नामक लघुकथा रूप में स्क्रीन पर उतरता गया ।
कथोपकथन शैली को अपनाकर अपनी बात को कहना ज्यादा सरल था । जिसके कारण हमने इसी शैली को अपनाते हुए अपने अन्तर्द्वन्द को शब्दों में गढ़ा ।
पहले ही ड्राफ्ट के साथ यह लघुकथा दो-तीन जगह छपी, जिसमें साहित्य शिल्पी वेबसाइट महत्वपूर्ण है । बाद में २०१८ में मेल में भेजते समय दिमाग ने कहा कि 'निरादर का बदला' से ज्यादा ‘यक्ष प्रश्न’ नामक शीर्षक मेरे विचारों को गति दे रहा है । इस बात के दिमाग में कौंधते ही हमने इसके शीर्षक में बदलाव कर दिया । क्योंकि लगा कि लड़कियों को उनका सम्मान कब मिलना, पूछना एक ‘यक्ष प्रश्न’ ही है, जिसका जवाब न अब तक मिला और न शायद कभी मिलेगा । साथ ही हमने इसके वाक्य-विन्यास को सही किया । यानी की दूसरे ड्राफ्ट में ही यह कथा वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई ।
इसको सही करने या शीर्षक बदलने में हमने किसी की भी सलाह का सहारा नहीं लिया ।
---००---
Source:
http://kavitabhawana.blogspot.com/2019/04/blog-post.html
बुधवार, 1 मई 2019
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