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लघुकथा: चमगादड़ | प्रेरणा गुप्ता
"अहा ! मजा आ गया। लगता है, आज फिर चमगादड़ घुस आया।" चीख-पुकार मची हुई थी।
वो भी एक ज़माना था, जब वह जानती भी न थी कि ‘डर’ नाम की चिड़िया होती क्या है? अकेले यात्रा करना, अँधेरे में कहीं भी चले जाना। लेकिन विवाह के बाद ससुराल में सबकी डराती हुई आँखों, तेज आवाजों के सामने न जाने कब उसके अन्दर डर की चिड़िया ने बसेरा कर लिया।
एक दिन उसका पति तेज आवाज के साथ आँखें निकालकर उसे डरा-धमका रहा था। तभी घर के बाहर पीपल के पेड़ से एक चमगादड़ उड़ता हुआ कमरे में आ घुसा और चारों ओर चक्कर काटता अपने जलवे दिखाने लगा। उसे सिर पर मँडराता हुआ देख पति की आँखें भयभीत होकर सिकुड़ गईं और वह दहशत से हाय-तौबा मचाने लगा। उसका ये हाल देखकर वह ख़ुशी से बोल पड़ी थी, “वाह! एक इंसान को डराकर अपनी वीरता का प्रदर्शन करने चले थे, एक चमगादड़ भी न भगा पाए!”
फिर उसने चमगादड़ को खदेड़कर ही दम लिया था| मगर चमगादड़ के साथ, उसके अन्दर बसी, ‘डर वाली चिड़िया’ भी भाग निकली थी।
आज फिर चमगादड़ अपने जलवे दिखा रहा था, और वह अपना मुँह ढाँपे, खिलखिलाती हुई मन ही मन उसे धन्यवाद दे रही थी, "हे चमगादड़ तू ऐसे ही आते रहियो और डराने वालों पर अपनी दहशत फैलाते रहियो।"
- प्रेरणा गुप्ता
कानपुर
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