यह ब्लॉग खोजें

शुक्रवार, 22 मार्च 2019

गुरुवार, 21 मार्च 2019

लघुकथाकार निर्देशिका

श्री मधुदीप गुप्ता की फेसबुक वॉल से 

लघुकथाकार निर्देशिका का प्रकाशन प्रस्तावित

आप अपना नाम, जन्म तिथि, पूरा डाक पता, मोबाइल नम्बर और ईमेल आईडी लिखकर भेज सकते हैं, फोटो नहीं। 

सम्पर्क : 
मधुदीप, 
दिशा प्रकाशन ,
138/16 त्रिनगर, ओंकार नगर-बी, दिल्ली-110035
मोबाइल : 93124 00709

जानकारी रजिस्टर्ड डाक से ही भिजवानी है ।
इस सूचना को अपने उन मित्रों तक अवश्य पहुंचायें जो फेस बुक पर नहीं हैं ।


Source:
https://www.facebook.com/madhudeep.gupta/posts/1258813127617771

शोध ग्रंथ प्रस्तावना: हिंदी लघुकथा का विकास | डॉ. अंजलि शर्मा

लघुकथा हिंदी साहित्य की नवीनतम् विधा है । इसका श्रीगणेश छत्तीसगढ़ के प्रथम पत्रकार और कथाकार माधव राव सप्रे के 'एक टोकरी भर मिट्टी से होता है' । हिंदी के अन्य सभी विधाओं की तुलना में अधिक लघुआकार होने के कारण यह समकालीन पाठकों के ज्यादा करीब है  और सिर्फ़ इतना ही नहीं यह अपनी विधागत सरोकार की दृष्टि से भी एक पूर्ण विधा के रूप में हिदीं जगत् में समादृत हो रही है । इसे स्थापित करने में जितना हाथ लघुकथाकारों का रहा है उतना ही कमलेश्वर , राजेन्द्र यादव, बलराम, आदि संपादकों का भी रहा है । खास कर लघुपत्रिकाओं के संपादकों का ।हमने अपने प्रिय पाठकों के लिए पहली बार हिंदी लघुकथा के विकास पर किसी शोध ग्रंथ को धारावाहिक रूप से छापने का निर्णय लिया है ताकि इस लघु किंतु गुरुतर विधा से सारी दुनिया के रचनाकार और पाठक भी अवगत हो सकें ।

हमें खुशी है रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर, छत्तीसगढ़ के शोध छात्रा और हिदीं के प्राध्यापक डॉ. अंजलि शर्मा जी की सहमति से संपूर्ण शोध कृति अंतरजाल पर प्रकाशित हो रहा है, जिस पर उन्हें पी-एच.ड़ी की उपाधि मिल चुकी है । हिंदी अंतरजाल के इतिहास में शायद पहला अवसर है कि कोई शोध कृति धारावाहिक प्रकाशित हो रही है । - संपादक

प्रस्तावना

हिन्दी में जब कहानी एक स्वतंत्र विधा के रुप में अस्तित्व में आयी, तब वह अंग्रेजी के ‘शार्ट स्टोरी’ के समानान्तर उभरी और छोटी कहानी के नाम से प्रचलित हुई । आगे चलकर हिन्दी में कहानी शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में होने लगा और छोटी विशेषण लुप्त हो गई । इसके अनन्तर निर्धारित सांचे ढांचे से अलगाने के लिये हिन्दी कहानीकारों में एक अन्य प्रवृत्ति भी दिखाई दी, जिसे लंबी कहानी के नाम से अभिहित किया गया । एक बार पुनः कहानी का सांचा टूटा और हिंदी कहानी का नवीन रुप सामने आया जो कहानी और लंबी कहानी से अलग थी, उसे लघुकथा नाम से ख्याति मिली । जिस प्रकार लंबी कहानी को संक्षिप्त करके कहानी की रचना नहीं की जा सकती और न कहानी को बढ़ाकर लम्बी बनायी जा सकती, उसी प्रकार छोटी कहानी का आकार कम करके लघुकथा और लघुकथा का आकार बढ़ाकर कहानी का सृजन नहीं किया जा सकता । यह स्पष्ट है कि कहानी, लंबी कहानी और लघुकथा नाम से कहानी के तीन प्रमुख मोड़ है, जिनका अलग-अलग अस्तित्व और सांचा-ढांचा है, जिनसे इस विधा का क्रमिक विकास स्पष्ट होता है ।यद्यपि विगत दो दशकों में लघुकथाओं के लेखन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, तथापि इसके बीज जहां वेद, उपनिषद से लेकर पुराण पर्यन्त तथा पंचतंत्र हितोपदेश आदि कथाओं में संस्थित है, वहीं पारंपरिक लोककथाओं में निहित प्रागैतिहासिक काल से लेकर महापर्यन्त जीवन के स्पंदनों से प्रमाणित है । इस दृष्टि से हिन्दी लघुकथा एवं विकास का अध्ययन मौलिक उद्भावना का प्रतीक है । यह परंपरा वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, बौद्ध एवं जातक कथाओं में प्राप्त होती है । कुछ विद्वानों का मत है लघुकथा बीसवीं शताब्दी की देन है । आकार की दृष्टि से लघुकथा प्राचीन हो सकती है, लेकिन वैचारिक धरातल पर आज की लघुकथाओं और प्राचीन लघुकथाओं में पर्याप्त अंतर है, इस विशाल ब्रह्माण्ड में लघु पृथ्वी की हैसियत नगण्य है, फिर भी उसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता । ठीक यही बात लघुकथा के लिए उचित प्रतीत होती है । लघुकथा विस्फोटक के साथ-साथ प्रस्फुटित हुई विधा है । यह किसी व्यक्ति की महानता में बोले जाने वाला लच्छेदार भाषण नहीं वरन शोषण और शोषक के खिलाफ एक क्रांति है ।लघुकथाओं में जहां सूक्तियों का समीकरण जीवन की विद्रुपताओं और विषमताओं का समाहार है, वहीं व्यंग्य की पैनीधार, कथा का श्रृंगार और संवादों के माध्यम से नाटकीयता का स्वीकार है । यायावर मन के बीच घटने वाली क्षणिक घटनाओं में जीवन की विराट व्याख्या छिपी रहती है । इस विराट कथ्य का बिंबों में बांध लेना ही लघुकथा सर्जक का उपक्रम है । संक्षिप्तता इसकी पहचान है । मन को आंदोलित करने वाली अनुभूति को डाइल्यूट किये बिना कहना लघुकथा की विशेषता है । यही कारण है कि जिस तल्खी, तीखापन, सटीकता, संक्षिप्तता और चुभन की प्रखरता से आर्थिक विषमता, सामाजिक विसंगतियां, राजनैतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार, व्यक्ति और समाज की विडम्बना, मानवीय संबंधों का खोखलनापन, संघर्ष और शोषण को लघुकथा के माध्यम से उजागर किया जा सकता है, उतना साहित्य के किसी अन्य माध्यम से नहीं ।

लघुकथा एक साथ लघु भी है, और कथा भी । यह न लघुता को छोड़ सकता है, न कथा को ही । लघुकथा में कथानक की लघुता के माध्यम से कथ्य को धारदार रुप में पाठक तक पहुंचाना होता है । लघुकलेवर में प्रभाव पैदा करने के लिए लघुकथाकार को अपने कथानक और कथ्य के चयन में इससे साथ ही भाषिक स्तर पर शब्द योजना और वाक्य विन्यास के विषय में बहुत सतर्क रहना होता है । लघुकथाकार को भाषा की समाहार शक्ति से काम लेना होता है। लघुकथाकार को थोड़े में अधिक कहने की कलाकार क्षमता अर्जित करनी होती है, आकार की यह लघुता महत्तम कलात्मक अपेक्षा रखनी है ।लघुकथा की आकारगत लघुता इस विधा की उपरी पहचान है, और भीतरी शक्ति भी है । इसमें एक ही केंद्रीय प्रसंग होता है, जो पांच सात पंक्तियां चलकर ही अपने उत्कर्ष की चरम पर पहुंच जाती है, यह उत्कर्ष लघुकथा का नाटकीय मोड़ होता है । इस मोड़ पर ही कथ्य संदर्भ के माध्यम से पूरी उर्जो के साथ व्यक्त होता है। इस प्रकार लघुकथा के लघुप्रसंग में एक नाटकीय भंगिमा अवश्य रहती है, जो स्थिति की विडम्बना का एक झटके के साथ पर्दाफाश करती है ।

लघुकथा के लघु कलेवर में एक-दो पात्र ही समा सकते हैं, वे भी व्यक्तित्व के वाहक न होकर किसी विशेष प्रवृत्ति के पर्याय होते हैं । लघुकथा के संक्षिप्त कथानक में पात्रों के व्यक्तित्व के विकास की गुंजाइश नहीं होती। व्यक्तित्व के आयामों के विकास के लिए सम-विषम प्रकृति के अनेक प्रसंगों की आवश्यकता होती है, लेकिन लघुकथा की लघुता एक से अधिक प्रसंग गवारा नहीं कर सकती । मानव जीवन की विकृतियों पर प्रहार करते हुए उसे संस्कृति की स्वस्थ दिशा में प्रेरित करना ही लघुकथा लेखक का मुख्य लक्ष्य होता है । कथ्य अपने आप में महत्वपूर्ण होते हुए भी जब तक संदर्भगत संवेदना और भाषा के सहारे सशक्त सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का रुप नहीं ले पाती, तब तक सपाट बयानी के स्तर से उपर नहीं उठ सकती । लघुकथा न बोधकथा है, न नीतिकथा, न ही विचारकथा वरन लघुकथा आज के व्यस्ततम युग की मांग के अनुरुप सृजनधर्मी मानस और विविध विसंगत संदर्भों की टकराहट के बीच से उपजी एक समर्थ विधा है, जो देखने में छोटी होते हुए भी अपनी प्रभाववत्ता में कहानी से कम नहीं है ।सामान्यतः आलोचक कहानी के अंतर्गत लंबी कहानी का विवेचन करते रहे, और लघुकथाओं को अश्पृश्य मानकर उसे पूर्णतः उपेक्षित करते रहे । पाठकों की स्थिति ठीक इसके विपरीत है । उनके लिये लघुकथा प्रिय विधा है और उसकी लोकप्रियता शनैः-शनैः बढ़ते ही जा रही है ।

किसी भी साहित्यिक विधा का अस्तित्व पाठकों पर सर्वाधिक निर्भर करता है, क्योंकि रचनाकार केवल सृजन करता है, जबकि पाठक रचना और रचनाकार का विस्तार ही नहीं करता, उसके लिए साहित्य में स्थान भी सुरक्षित करता है । उल्लेखनीय है कि लघुकथा को पाठकों का संबल मिल गया है । इस विधा की ओर युवा कथाकार अधिक आकृष्ट हुए हैं, वहीं वयोवृद्ध कथाकारों ने भी इसे अपनाया है । अखरने वाली बात यह है कि हिन्दी के आलोचक इस विधा की शक्ति और क्षमता से अपरिचित एवं उदासीन हैं । इसका प्रमाण है कि किसी भी आलोचक ने इस विधा पर लेखनी ही नहीं चलायी है ।मैं यह मानती हूँ कि लघुकथा एक साहित्यिक विधा है, जो कथा साहित्य के अंतर्गत एक प्रयोग के रुप में हमारे सामने आयी पर अब एक चुनौती बन गई है । यह चुनौती रचनाकार के लिए भी है और आलोचक के लिये भी । रचनाकार के लिये कथ्य के चयन से लेकर अभिव्यक्ति तक अनेक चुनौतीपूर्ण आह्वान है । आलोचकों के लिए विकट समस्या यह है कि जिन तत्वों पर कहानी की आलोचना होती है, वे क्या लघुकथा के लिए पर्याप्त हैं ? लघुकथा में रचनात्मक क्षमता है, पर आवश्यकता इस बात की है कि इस विधा को अपनाने वाले रचनाकारों में रचनात्मक क्षमता हो । इस विधा की रचनात्मक क्षमता की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता । पूर्वोक्त विवेचन के आधार पर यह प्रश्न बेमानी हो जाती है कि लघुकथा की विधा में सामयिक सार्थकता है, या नहीं ? अगर ऐसा न होता तो अपनी 50 वर्षों से अधिक लंबी यात्रा में कैसे टिक सकती थी ? अर्थात् यह समय की परीक्षा में खरी उतरी है, आठवें और नवे दशकों में पर्याप्त सफलता हासिल करके दसवें दशक में प्रवेश कर चुकी है । किसी भी रचना की सार्थकता के आधार इस प्रकार हो सकते हैं, उसमें रचनात्मक सौष्ठव हो, उसमें व्यापक जीवन समेटा गया हो, अभिव्यक्ति में नवीनता एवं मौलिक उद्भावनाएं हों, स्वस्थ जीवन दृष्टि के साथ-साथ वैचारिकता और समकालीनता की झलक हो तथा वह समाज को आगे ले जाये इस प्रकार कृतित्व और श्रेष्ठता एवं प्रासंगिकता मिलकर रचना की सार्थकता को प्रतिपादित करती हैं । कहा जा सकता है कि लघुकथा में सार्थकता के सभी आधार विद्यमान हो सकते हैं और सार्थक लघुकथाओं में विद्यमान रहते हैं ।

लघुकथा का रुप क्या है, और वह मुख्य रुप से कहानी से किस हद तक अलग है, जिसे प्रस्तुत करने के अनेक तरीके अपनाये जाते हैं। इसके लिये कथा का आधार आधुनिक या प्राचीन जीवन से लिया जाता है। उसमें पशु पक्षी आदि के संस्कार से विषय लेकर फेंटेसी के माध्यम से अभिव्यक्ति की जाती है। लघुकथाओं में नीति बोधकथा को नवीन संदर्भों में अभिव्यक्ति देकर जहां वह सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति करती है, वहीं तीखे व्यंग्य का बाहक बनती है। लघुकथा में किसी नियोजित कथावस्तु के निर्वाह की गुंजाइश नहीं होती और पात्रों का चरित्र चित्रण भी उसकी निर्धारित सीमा से बाहर होता है, फिर भी लघुकथा का सूत्र कितना भी सूक्ष्म क्यों न हो, उसमें पात्र की मानसिकता को उधेड़ती हुई कलाकार की दृष्टि उसके वास्तविक स्वरुप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है। अतः लघुकथा में व्यक्ति का बाहरी संसार ही उजागर नहीं होता, बल्कि भीतरी संसार भी प्रत्यक्ष हो जाता है। लघुकथाएं समय के सत्य का वाहक बनकर हमारे सामने आती हैं। हिंदी लघुकथा के संदर्भ में व्यप्त भ्रांतियों को दूर करके मैंने विविध विंदुओं पर दूसरे स्वरुप को सुस्पष्ट करने का प्रयास किया है। उपयुक्त तथ्य विविध लघुकथाकारों से चर्चा प्रश्नावली के माध्यम से निदान और लघुकथाकारों के अध्ययन अनुशीलन के अनंतर शोध की नूतन सृष्टि और मौलिकता की दृष्टि का प्रतीक है। हिंदी लघुकथाकारों के स्वरुप और विकास पर अनेक आलोचकों व लघुकथाकारों ने समय-समय पर विचार भी किये हैं तथा कुछ महत्वपूर्ण शोध भी समक्ष प्रस्तुत हुए हैं लेकिन प्रस्तुत शोध प्रबंध के विषय के अनुरुप इसका आंकलन वे व्यवस्थित विचार अभी तक उपलब्ध नहीं था। विचार विच्छिन्न थे और आलोचना को एकांगी और अपरिभाषित संसार ही हमारे समक्ष था।

लघुकथाओं के इस कुज्झटिकाच्छन स्थिति में सत्यान्वेषण के आलोक बतौर यह शोध प्रबंध यदि कुछ दे पाये, तो यह मेरे श्रम की सार्थकता होगी।प्रस्तुत विषय की पूर्णता हेतु जहां मुझे दूसरे विकास क्रम हेतु पत्र-पत्रिकाओं और संग्रहों का संकलन करना पड़ा, वहीं समीक्षा को ढूंढना पड़ा। इसके साथ ही लघुकथाकारों से संपर्क, चर्चा व पत्रों के माध्यम से विचार बिन्दु प्राप्त कर इसके स्वरुप और विकास को व्यवस्थित रखने का विनम्र प्रयास करना पड़ा । समय-सीमा और एक नारी होने की सामाजिक मर्यादा बंधन को स्वीकारते हुए मैंने जो कुछ भी लिखा, यही शोध का गंतव्य और अध्ययन का महत्व है ।मैंने प्रस्तुत विषय को विविध दस अध्यायों में विभक्त कर हिन्दी लघुकथा उद्भव एवं विकास को विवेचित किया है।

प्रथम अध्याय में कथा की परिभाषा एवं कथा का विकासात्मक अध्ययन करते हुए कथा एवं लघुकथा के अंतरों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । कथा एवं लघुकथा में रचना प्रक्रिया के अंतर के साथ ही वैचारिक दृष्टिकोणों में मूलभूत अंतर है । साथ ही लघुकथा के संबंध में अनेक विद्वानों को रखते हुए मैंने लघुकथा की विशेषताओं को आंकने का प्रयास किया है ।

द्वितीय अध्याय- ‘लघुकथा का क्रमिक विकास’ शीर्षक में लघुकथा के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत करने के लिए अध्ययन की दृष्टि से दो स्थूल रूपों में काल विभाजन किया है प्राचीन युग एवं नवीन युग । प्राचीन काल की लघुकथाओं में वैदिक युगीन लघुकथाओं को प्रथम सूत्र में पिरोया है । इस युग की लघुकथाओं में आध्यात्मिक एवं अलौकिक रहस्यों की व्याख्या की गई है, जैसा कि ऋग्वेद और अर्थववेद में मिलता है । उदाहरणार्थ यम और यमी की कथा । रामायण और महाभारत में भी लंबी कथा से जुड़ी रहकर लघुकथा का स्वतंत्र रुप प्राप्त होता है । रामायण कालीन न्याय व्यवस्था का स्वरुप वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में गिद्धराज और उल्लू की लड़ाई झगड़े की कथा प्राप्त होती है । लघुकथा का नवीन रुप माखन लाल चतुर्वेदी की लघुकथा ‘बिल्ली और बुखार’ को हिन्दी साहित्य की सर्वप्रथम लघुकथा मानी जा सकती है । आठवाँ दशक लघुकथा के विकास का काल है । इस दशक में लघुकथा को स्वतंत्र मौलिक विधा के रुप में स्थापित करने का स्वर प्रबल रहा । सन् 1974 में मेरठ विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग ने इसे स्वतंत्र मौलिक विधा घोषित करके विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रमों में स्थान दिया । इसी अध्याय में लघुकथा के ऐतिहासिक सोपानों को स्पष्ट किया गया है ।

तृतीय अध्याय- में लघुकथा के स्वरुपगत और भाषागत वैशिष्टय को स्पष्ट किया है । लघुकथा के आकारगत वैशिष्ट्य, सुगठित शिल्प एवं सशक्त भाषा के कारण लघुकथा लोकप्रिय हुई । हिन्दी साहित्य की सश्क्त एवं लोकप्रिय विधा लघुकथा का अत्यंत अल्पकाल में इतना विकास हुआ कि अब तक इसकी सर्वमान्य परिभाषा नहीं है । अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि लघुकथा वास्तविक जीवन की क्षणिक घटना का रेखांकन है, जो छोटी होते हुए भी स्वतः पूर्ण और सुगठित होती है । प्रायः यही परिभाषा कहानी की भी दी जा सकती है, किन्तु लघुकथा और कहानी में बहुत अंतर है । साधारणतः लोग यही समझते हैं कि यदि घटना-क्रम को विस्तार से बड़े आकार में लिखा जाय, तो उसे कहानी कहेंगे और उसी आकार को लघु कर दिया जाये तो लघुकथा कहेंगे, किन्तु यह भ्रांति है । कहानी और रचना में मूलभूत अंतर है । यह अंतर केवल आकार प्रकार का नहीं, आत्मा का भी होता है ।लघुकथा के स्वरुप के संबंध में उसके आकार को लेकर भी विवाद है । वस्तुतः आकार की लघुता लघुकथा की अनिवार्य विशेषता है, जो उसके नाम में ही समाहित है । लघुकथा कितने शब्दों और पृष्ठों की होनी चाहिए । यह कोई व्यवहारिक मुद्दा नहीं है और नहीं कोई बंधन है। यह कहा जा सकता है कि लघुकथा में एक भी शब्द अनावश्यक न हो । दरअसल कम से कम शब्दों में अधिक कह देने के सामर्थ्य में ही लघुकथा का सारा कौशल निहित है ।अतः संक्षिप्तता और कसावट के निर्वाह के लिये लघुकथा की संवेदना के दायरे को समझ लेना चाहिए यदि लघुकथा की तुलना कहानी के साथ करें तो यह बेमानी है, कारण दोनों कही अपने-अपने ढंग से अपने समय के सच को पूरी प्रमाणिकता के साथ व्यक्त करती है । फर्क केवल इतना है कि लघुकथा उस तकतीर की तरह सीधे जाती है, जबकि कहानी विभिन्न स्थितियों का समाकलन करती हुई उस सच को पैदा करने वाली स्थितियों को भी उजागर करती है, तथा अंत में उन स्थितियों के खिलाफ पाठक को सोचने के लिये उत्तेजित करती है । लघुकथा और कहानी में एक बहुत बड़ा फर्क यही है । लघुकथा अपनी संपूर्णता में पाठकों उत्तेजित करने में उतनी सफल नहीं हुई, शायद इसके पीछे लघुकथा के साथ जाने अनजाने जुड़ा हुआ चुटकुला का स्वरुप भी है । अपनी संपूर्ण और ईमानदार कोशिशों के बावजूद लघुकथाकार इस भ्रम को दूर नहीं कर पाये हैं, और जब एक यह भ्रम दूर नहीं होगा उसका प्राप्य उपलब्ध नहीं होगा ।

चतुर्थ अध्याय - में हिन्दी लघुकथा साहित्य की विशेषताओं एवं न्यूनताओं को रेखांकित किया गया है ।

पंचम अध्याय में लघुकथा के शैलीगत वैशिष्टय के अंतर्गत लघुकथा में प्रयुक्त विभिन्न शैलियों का वर्णन किया गया है । लघुकथा की शैली के संबंध में यह प्रश्न उठता है कि क्या व्यंग्य लघुकथा के लिये अनिवार्य तत्व हैं ? यह सही भी है कि सस्ता हास्य लघुकथा के लिये सर्वथा वर्ज्य है किंतु व्यंग्य का अर्थ हास्य, कदापि नहीं है। व्यंग्य की एक शैली है, एक भंगिमा है, एक शक्ति है, जो हमारी चेतना को उद्वेलित करने में अमिधात्मक शैली से अधिक समर्थ होती है।

षष्ठ अध्याय में लघुकथाओं की वैचारिक पृष्ठ भूमि एवं संप्रेषणीयता के प्रश्नों की उद्घाटित करने की चेष्ठा की गई है। अपने लघुआकार में लघुकथा व्याप्क संप्रेषणीयता व प्रभावोत्पादकता के लिये अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। लघुकथा के आकारगत वैशिष्टय, सुगंठित शिल्प एवं सशक्त भाषा के कारण लघुकथा लोकप्रिय हुई ।

सप्तम् अध्याय- आठवें दशक की लघुकथाओं में समकालीनता के अंतर्गत आठवें दशक की लघुकथा की विशेषताओं को उजागर करने का प्रयास किया गया है। हिंदी लघुकथा के विकास के संदर्भ में आठवों दशक को नवोन्मेष काल कहा जा सकता है। स्पष्ट है कि पारंपरिक आदर्शों एवं उपदेशों में गुम्फित लघुकथा का यथार्थ के धरातल पर अवतरण हुआ।

अष्टम अध्याय- आठवें अध्याय में हिंदी के श्रेष्ठ लघुकथाकारों की प्रमुख लघुकथाओं की विशेषताओं को रेखांकित करने के साथ ही लघुकथाकारों का परिचय भी दिया गया है।

नवम अध्याय- ‘नवें दशक की लघुकथाओं में समकालीनता’ के अंतर्गत नवें दशक के लघुकथाकारों की लघुकथाओं पर दृष्टि डालने का प्रयास किया है। नवम अध्याय में हिंदी के श्रेष्ठ लघुकथाकारों का प्रदेय एवं मूल्यांकन की ईमानदार कोशिश की गई है।

दशम अध्याय- ‘उपसंहार के अंतर्गत समग्र लघुकथाओं तथा उसके भविष्य की संभावनाओं पर विचार करने के पश्चात निष्कर्षतः सार संक्षेप को प्रस्तुत किया गया है।लघुकथा अपने परिचय से लेकर संघर्ष करने तक की जोखिम भरी तमाम स्थितियों से गुजरकर आठवों दशक में स्वतंत्र विधा के रुप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हुई। लघुकथा के कथ्य शिल्प का निर्वाह ईमानदारी से किया जा रहा है। आज की लघुकथाओं में अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह शिल्प रचनाधर्मिता के संबंध में गुण तत्व के रुप में समाहित है। लघुकथाएं सम-सामियकता से जुड़ी हुई तथा प्रभाव संप्रेषण की दृष्टि से असीम क्षमता युक्त है। जहां इसकी महता लघुकथाकार के द्वारा नये मूल्यों की स्थापना है, वहीं अपने उत्तरदायित्व की पूरी तरह एहसास कराने में भी, निःसंकोच कहा जा सकता है कि आज की लघुकथाओं में यथार्थ के धरातल और समय की आवाज को मुखर करने को एक ईमानदार कोशिश के अमिट चिन्ह परिलक्षित होते हैं।

-
डॉ. अंजलि शर्मा
सहायक प्राध्यापक
शासकीय स्नातकोत्तर कला एवं वाणिज्य महा'जरहाभाटा,
बिलासपुर, छत्तीसगढ

Source:
http://hindilaghukathaa.blogspot.com/2007/09/blog-post.html
स्त्रोत पर प्रकाशन दिनांक: September 25, 2007

बुधवार, 20 मार्च 2019

लघुकथा मंजूषा 3 खंड 1 के पृष्ठ 1-66 गूगल बुक्स पर


पुस्तक समीक्षा । आशा की किरणें । सत्यप्रकाश भारद्वाज । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



अपार आशाएं जगाता लघुकथा-संग्रह

लघुकथा-संग्रह - आशा की किरणें
लघुकथाकार - सत्यप्रकाश भारद्वाज
प्रकाशन -  अंशिका पब्लिकेशन
कीमत - 150 /-
पृष्ठ - 96 ( पेपरबैक )

साहित्य में लघु विधाओं को देखकर इन्हें लिखना जितना आसान लगता हैं, वास्तव में उन्हें लिखना उतना ही कठिन होता है क्योंकि इनमें गागर में सागर भरना होता है, जिसके लिए विशेष महारत की आवश्यकता होती है । आजकल लघुकथाएँ भी काफ़ी मात्रा में लिखी जा रही हैं लेकिन लघुकथाएँ चुटकला बनने से बचें और वे मात्र सपाट बयानी न हों इसके लिए लघुकथाकार का सजग होना बेहद जरूरी है । यूँ तो जीवन का हर विषय लघुकथा में समेटा जा सकता है, लेकिन विषय को लघुकथा का रूप देना ही लघुकथाकार के लिए चुनौती होती है । लघुकथा-संग्रह “ आशा की किरणें ” पढ़ते हुए यह अहसास होता है कि सत्यप्रकाश भारद्वाज जी ने इस चुनौती का सामना सफलतापूर्वक किया है । इस संग्रह में 83 लघुकथाएं है जो जीवन के विभन्न पहलुओं को समेटे हुए हैं ।

पुस्तक के शीर्षक के अनुसार आशावादी दृष्टिकोण प्रमुख रहा है, लेकिन यथार्थ का भी प्रस्तुतिकरण हुआ है । व्यंग्य की प्रचुरता है तो भाव प्रधान लघुकथाएं भी हैं । लेखक ने आदर्शवाद के प्रस्तुतिकरण में कही-कहीं अतिवादी दृष्टिकोण भी अपनाया है, लेकिन ये सब स्वस्थ समाज की कल्पना करती लघुकथाएं हैं । ‘एयर-टिकट’ और ‘सार्थक’ लघुकथाएं आदर्श पुत्र को दिखाती हैं, तो ‘बहू नहीं बेटी’ आदर्श बहू की लघुकथा है । ‘फिर से’ लघुकथा में बच्चे के कारण तलाक होते-होते बच जाता है । ‘दूरियाँ’ लघुकथा में पत्नी पति को उसके गाँव लेकर जाती है, जो सामान्य स्थितियों के विपरीत है, और यही लेखक का आशावाद है । ‘सवेरा’ भी इसी सोच के अंतर्गत लिखी गई है । बच्चा भीख मांगने की बजाए अपने बाबा को सम्मानपूर्वक जीना सिखाता है । ‘इंसानियत’ लघुकथा में देवेन दुर्घटना का शिकार हुए बच्चे को बचाता है । ‘युग-परिवर्तन’ में लड़की को लेकर दादी की सोच बदलती है । ‘अपना धरातल’ में पत्नी से प्रेरणा पाकर पति आत्मनिर्भर बनता है । ‘अपना-अपना ईमान’ लघुकथा में पत्नी पति को अपने ईमान से डोलने नहीं देती । ‘परिश्रम का फल’ लघुकथा में मेहनती विकास का सफल होना और नकलची सुरेंद्र और राकेश का फ्लाईंग स्क्वैड द्वारा पकड़ा जाना आदर्शवाद की स्थापना करता है । ‘नई भोर’ में बस्ती में स्कूल खुलवाकर और बच्चों के माध्यम से नई भोर आने का सपना देखा गया है । ‘भगवान आए’ लघुकथा में मीनू का पिता पिंकी की पढ़ाई की जिम्मेदारी भी लेता है और पिंकी के पिता के ईलाज की व्यवस्था भी करता है । ‘नया जीवन’ में आत्महत्या करने जा रही मालती को बुजुर्ग न सिर्फ बचाता है, अपितु बेटी की तरह अपनाता है । ‘संकल्प’ अच्छे लोगों को शक की नजर से देखने की बात करती लघुकथा है लेकिन इसका सच्चे इन्सान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । ‘भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान’ ईमानदार व्यक्ति के राजनीति में आकर भ्रष्ट होने की बात तो करती है, लेकिन प्रजा का सबक सिखा देना आशावादी दृष्टिकोण है । ‘लोकतंत्र’ का अंत भी इसी सोच को दर्शाता है । ‘सशक्तिकरण’ का विषय भी राजनीति है । शान्ति भ्रष्ट धर्मसिंह को प्रधान पद से उतरवाकर कार्यवाहक प्रधान के रूप में हालात बदल देती है । औरत कमजोर नहीं । ‘उत्तरदायित्व’ लघुकथा में शंकुतला परिवार का उत्तरदायित्व उठाती है । औरत को अन्याय का विरोध करते और जीतते भी दिखाया गया है । ‘पसीने का मोल’ और ‘नया इतिहास’ इस प्रकार की लघुकथाएं हैं । पुरुष भी ‘आत्मसम्मान’ में अन्याय का विरोध करके जीतता है । धार्मिक सहिष्णुता को लेकर भी लेखक ने ‘ईश्वर का दूत’ और ‘राशिद भाई’ जैसी लघुकथाएं लिखी हैं ।

विधुर जीवन को दिखाती तीन लघुकथाएं है – ‘उसका संग’, ‘पराया हुआ गाँव’ और ‘अश्रुकण’ । तीनों लघुकथाओं में पत्नी के महत्त्व को दर्शाया गया है । प्रतीक के रूप में पशु-पक्षियों को लेकर मानवता पर तंज कसा गया है । इस कड़ी में ‘अंतर’, ‘आदमी की परिभाषा’, ‘आदमी जैसा’ और ‘विषैला’ लघुकथाएं आती हैं । व्यंग्य का प्रयोग अनेक लघुकथाओं में हुआ है । ‘वास्तविकता’ तथाकथित विकास पर व्यंग्य है, ‘सहानुभूति’ पत्रकारों की संवेदनशून्यता पर व्यंग्य है, ‘समझदारी’ में अधिकारियों को ख़ुश करके बच निकलने की बात है, ‘दानवता’ सती प्रथा को लेकर पुलिस और आदमियत पर व्यंग्य करती है । ‘सुरक्षा’ में पुलिस की निष्क्रियता पर व्यंग्य है । ’नए दौर का श्रीगणेश’ में पुलिस को लुटेरा दिखाया गया है । ‘नरभक्षी’ भी पुलिस का ऐसा ही रूप दिखाती है । ‘समय बहुत खराब है’ एक तरफ भक्षक पुलिस को दिखाती है तो दूसरी तरफ गुंडे में मानवीयता दिखाती है । ‘किसे सुनाएं’ नाकों पर होने वाले भ्रष्टाचार को दिखाती है । ‘समाज सेवा हो ली’ भी भ्रष्टाचार को विषय बनाती है । कमीशनखोरी को लेकर भी लघुकथाएं कही गई हैं । ‘वाह, विकास कार्य’, ‘लुटेरे’ इसी प्रकार की लघुकथाएं हैं । ‘नया उग्रवाद’ में पुलिस से मिलीभगत करके उग्रवाद के नाम पर निजी दुश्मनियाँ निकाली जाती हैं । ‘व्यवसाय’ लघुकथा में राजनीति को व्यवसाय कहा गया है, ‘ठहाके’ लघुकथा में दंगों के पीछे नेताओं के हाथ को दिखाती है तो ‘उनको किसी ने नहीं देखा’ नेताओं के दोगलेपन को दिखाती है । ‘स्वतन्त्रता का मूल्य’ में स्वंत्रता सेनानी देश के नेताओं के व्यवहार को देखकर आहत होता है ।

‘जोंक’ और ‘नकली चेहरा’ रिश्तों के सच को ब्यान करती लघुकथाएं हैं । ‘घर’ में मुखिया परिवार की अपेक्षाओं का बोझ ढोता है । ‘प्रेरणा’ में अपने व्यवहार का सन्तान पर प्रभाव दिखाया गया है । ‘उपेक्षा’ में पिता बच्चों के व्यवहार की उपेक्षा करने की बात पत्नी को कहता है, लेकिन वह ख़ुद भी उपेक्षा नहीं कर पाता । ‘अपनी-अपनी श्रद्धा’ पुजारियों की लूट और ‘सुफल’ मन्दिरों में जाती विशेष के लोगों के निषेध को विषय बनाती है । ‘विडम्बना’ लघुकथा दहशतगर्दों का कोई दीन-ईमान नहीं होता, बात को सत्य सिद्ध करती है । ‘जुनून’ में दंगों में स्त्री की अस्मिता को लूटने को विषय बनाया गया है । ‘भीख की लूट’ भिखारिन के प्रति समाज की घटिया मानसिकता को दिखाती है । ‘ममता’ में स्तनपान को लेकर लघुकथा कही गई लेकिन महिला कल्याण समिति में स्तनपान न करवाने की बात अस्वाभाविक लगती है । ‘सत्ता का नशा’ भी अतिशयोक्तिपूर्ण विषय है । यही कमी ‘भाग्यशाली’, ‘दुर्भाग्य’ और ‘पवित्र-अपवित्र’ लघुकथाओं में दिखती है ।

‘यह सिलसिला जारी रहेगा’ दहेज को लेकर संवादात्मक लघुकथा है, जिसका कोई निष्कर्ष लेखक नहीं निकालता । लेखक ने इसी शैली में ‘द्वंद्व’ लघुकथा लिखी है जिसमें सत्य-असत्य का वाद-विवाद है । ‘मर्यादा’ में लेखक पहरावे को छेड़छाड़ का कारण बताता है, ‘परोपकार’ में बच्चों के जन्म को लेकर अनपढ़ और गरीब परिवारों की सोच दिखाई गई है, ‘भ्रष्ट व्यवस्था’ में दिखाया गया है कि ईमानदार अधिकारियों को काम नहीं करने दिया जाता । ‘पराए लोग’ गरीबों के प्रति समाज की उपेक्षा को दिखाती है, तो ‘धुएँ का अंबार’ दिल्ली जैसे शहर में ग्रामीण व्यक्ति के असफल होने की बात करती है । ‘धर्म-अधर्म’ में दिखावे की धार्मिकता और पश्चाताप को दिखाया गया है । ‘कर्त्तव्यबोध’ में गुरु का पतित होने से बचना, ‘शहद में डूबे शब्द’ में दहेज़ को लेकर लड़की का खरा-खरा जवाब, ‘बंटवारा’ में लालची बेटे का वर्णन है । ‘कब्जा’ लघुकथा में जमीन पर कब्जा लेने के लिए झुग्गियों को जला दिया जाता है, ‘उनका खुदा’ जेहाद को विषय बनाती है । ‘स्थानांतरण’ में माँ और पत्नी के कटाक्ष हैं, ‘पत्र’ में पत्र के माध्यम से दोस्त की और पूर्व में अपनी दशा का चित्रण है । ‘विकास’ विज्ञान के अच्छे और बुरे पहलू को दिखाती है, ‘रोटी का स्वाद’ भूखे के लिए रोटी का महत्त्व दिखाती है तो ‘बिरादरी’ में बेटी का गैर बिरादरी के युवक से प्रेम का पिता पर प्रभाव दिखाया है ।

विषय को लेकर यहाँ इन लघुकथाओं में पर्याप्त विविधता है, वहीं इनके शिल्प में भी पर्याप्त विविधता है । लघुकथा का अंत अति महत्त्वपूर्ण होता है । लेखक ने कई लघुकथाओं में पंच लाइन का प्रयोग किया है तो कई लघुकथाओं को पाठकों के ऊपर छोड़ा है । कुछ में लेखकीय टिप्पणी भी मिलती है । एक-दो लघुकथाओं को छोड़कर संवाद छोटे, चुटीले और स्वाभाविक हैं । वर्णन और चित्रण के लिए लघुकथाओं में गुंजाइश कम ही होती है लेकिन लेखक ने इनका भी समुचित प्रयोग किया है । वर्तमान में लघुकथा को एक ही समय में कहे जाने की बात कही जाती है, ऐसे में कुछ लघुकथाएं समय दोष से ग्रसित कही जा सकती हैं, लेकिन यह दोष अखरता नहीं बल्कि यह कुछ लघुकथाओं की मांग लगता है । संक्षेप में, सत्यप्रकाश भारद्वाज का लघुकथा-संग्रह “ आशा की किरणें ” अपार आशाएं जगाता है ।

- दिलबागसिंह विर्क 

साभार:
https://dsvirk.blogspot.com

मंगलवार, 19 मार्च 2019

लघुकथा समाचार: प्रज्ञा साहित्यिक मंच ने लघु कथा की विधा पर किए विचार साझा

Rohtak News - Bhaskar News Network Mar 19, 2019

रोहतक। शहीद दीपक पार्क में प्रज्ञा साहित्यिक मंच की ओर से सोमवार को लेखक से मिलिए कार्यक्रम का आयोजन किया गया। विचार गोष्ठी कार्यक्रम के मुख्य अतिथि दिल्ली से लेखक मधुदीप गुप्ता तथा अध्यक्ष पंचकूला से लाजपत राय गर्ग रहे। मंच का संचालन आशा खत्री ने किया। कार्यक्रम में लघुकथा विधा पर गहराई से विचार विमर्श किया गया। डॉ. मधुकांत और अनूप बंसल ने प्रज्ञा साहित्यिक मंच की तरफ से मधुदीप गुप्ता एवं लाजपत राय गर्ग को शाल व स्मृतिचिन्ह देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर श्यामलाल कौशल, डॉ. चंद्रदत्त शर्मा, डॉ. रमाकांता शर्मा, सुनीता बहल,अर्चना कोचर, विजय विभोर मौजूद रहे।


source:
https://www.bhaskar.com/haryana/rohtak/news/haryana-news-pragya39s-literary-platform-shared-views-on-the-story-of-short-stories-033608-4159137.html

पुस्तक समीक्षा । दिव्याँग जगत की 101 लघुकथाएँ । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



समाज में दिव्यांगों की दशा और दिशा का चित्रण करता लघुकथा-संग्रह

लघुकथा-संग्रह – दिव्याँग जगत की 101 लघुकथाएँ
लेखक – राजकुमार निजात
प्रकाशक – एस.एन.पब्लिकेशन
पृष्ठ – 136
कीमत – 400 /- ( सजिल्द )

अनेकता जहां भारतीय समाज की विशेषता है वहीं भेदभाव का होना इसके माथे पर कलंक जैसा है । भारतीय समाज में जाति, आर्थिकता के आधार पर ऊँच-नीच तो है ही, शारीरिक व मानसिक सक्षमता के आधार पर भी वर्ग हैं । निशक्तजन दिव्यांग कहलाते हैं। कई बार समाज दिव्यांगों के प्रति सामान्यजन जैसा व्यवहार नहीं करता । कहीं इनके प्रति घृणा है, तो कहीं सहानुभूति जबकि बहुधा दिव्यांग इन दोनों को नहीं चाहता । वो चाहता है कि उसे सामान्य पुरुष-स्त्री जैसा सम्मान दिया जाए । राजकुमार निजात जी ने समाज के दिव्यांगों के प्रति नजरिए का बड़ी बारीकी से विश्लेषण करते हुए ‘ दिव्यांग जगत की 101 लघुकथाएँ ’ नामक लघुकथा-संग्रह का सृजन किया है । इस संग्रह में समाज में दिव्यांगों की स्थिति का वर्णन तो है ही, दिव्यांगों के नजरिए से समाज को भी देखा गया है । दिव्यांगों की मनोस्थिति को भी समझा गया है । कुछ दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के कारण हीनभावना के शिकार हो जाते हैं, जबकि कुछ अपने हौसले से दिव्यांगता पर विजय पा लेते हैं । लेखक ने इन सभी स्थितियों को लघुकथाओं की कथावस्तु में पिरोया है ।

दिव्यांगता कोई गुनाह नहीं लेकिन कई बार दिव्यांग ख़ुद तो कभी उनके माँ-बाप भी इसे शाप मान बैठते हैं । विष्णु की माँ विष्णु को पिछले जन्म का दंड मानती है, हालंकि उसकी ममता उसे तुरंत संभाल लेती है । ‘ दुनियावाले ’ लघुकथा बड़ी सटीकता से समाज की सोच को दिखाती है । दिव्यांग को यहाँ भिखारी समझ लिया जाता है । समाज को इस बात का भी डर सताता रहता है कि दिव्यांग की सन्तान भी दिव्यांग न हो जाए जबकि शारीरिक दिव्यांगता के मामले में ऐसा होने का कोई कारण नहीं होता । लेखक ने ‘ आगमन ’ लघुकथा में इस सोच को निर्मूल साबित किया है । नेताओं की दिव्यांगों के प्रति दोहरी सोच को ‘ पर्दाफाश ’ लघुकथा में दिखाया गया है । ‘ उसका दर्द ’ लघुकथा दिव्यांगों के दर्द को न समझने का चित्रण करती है । अन्य दिवसों की तरह दिव्यांग दिवस की महज औपचारिकता की जाती है । ‘ दिखावे ’ लघुकथा भी बड़े लोगों की दिखावे की प्रवृति को दिखाती है, दिव्यांगों से उनकी सहानुभूति नहीं होती । ‘ सम्पूर्ण दिव्यांगता ’ में सरकारी भ्रष्टतन्त्र की दिव्यांग के प्रति असंवेदनशीलता को दिखाया गया है । ‘ आधी टिकट ’ लघुकथा सरकार की सोच पर व्यंग्य करती है ।

समाज कई बार भेदभाव करता है तो कई बार लापरवाही । दिव्यांगों, विशेषकर मानसिक दिव्यांगों को विशेष देखभाल की जरूरत होती है । ‘ निरंतर ’ लघुकथा दिव्यांग बच्चों पर माँ-बाप के विशेष ध्यान की बात करती है लेकिन लेखक ने लापरवाही को दिखाती हुई लघुकथाओं का भी सृजन किया है । मानसिक रूप से कमजोर व अस्वस्थ कपिला को उसकी माँ अकेले स्कूल भेज देती है । एक माँ खिलौने बेचने भेज देती है तो करुणा की मां रेलवे स्टेशन पर बेटी को पीछे छोड़ आती है । ‘ उसकी बेटी ’ नामक इस लघुकथा में लेखक बड़ा महत्त्वपूर्ण संदेश भी देता है कि मानसिक दिव्यांग के गले में पहचान-पत्र डाला जाना चाहिए । लेखक ने इन लापरवाहियों को बड़े हादसे में बदलते नहीं दिखाया क्योंकि समाज में अच्छे लोग भी हैं । अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के लोगों को ‘ लकवा ’ लघुकथा में बड़ी खूबसूरती से दिखाया गया है । नया चेयरमैन गीता को स्कूल से सिर्फ इसलिए निकाल देता है, क्योंकि वह दिव्यांग है लेकिन अभिभावक इसका विरोध करते हैं । समाज के अच्छे रूप को लेखक ने अनेक जगहों पर दिखाया है । ‘ भीतर से ’ लघुकथा दिखाती है कि कैसे दिव्यांग बच्चे के भीतर स्वस्थ बच्चे को पैदा किया जा सकता है । दिव्यांगों को काम करने देना चाहिए क्योंकि उन्हें काम से रोकना उनमें तनाव पैदा करता है, हीनता की ग्रन्थि को उत्पन्न करता है । उत्तर की माँ भी उसे काम करने से रोकती है, जिससे वह तनावग्रस्त होता है और इस तनाव से उसे मुक्ति तभी मिलती है जब वह चुपके से काम कर देता है । ‘ जवाब ’ लघुकथा के आवारा और आज़ाद बच्चे भी यही संदेश देते है कि दिव्यांगों को खेलने दिया जाना चाहिए ।
                     दिव्यांगों को सामन्यत: माँ-बाप का विशेष स्नेह मिलता है । लेखक ने इसे भी लघुकथाओं का विषय बनाया है । ‘ लबालब दामन ’ लघुकथा में दामिनी अपने बेटे से प्रेमपूर्वक व्यवहार करती है । व्यापक को उसके पिता छोटे बच्चों वाली पींग से झूला झुलाते हैं । माँ-बाप के अतिरिक्त समाज के अन्य लोग भी उनकी ख़ुशी के लिए और उनको आगे बढने की प्ररेणा देने के लिए कार्य करते हैं । मिंटू गोपाल की मदद से टॉप स्वीप झूले पर फिसल पाता है ।

समाज के बहुत से लोग दिव्यांगों की सेवा के लिए अपना जीवन अर्पित कर देते हैं, लेखक ने उन पर भी कलम चलाई है । डॉ. विराट दिव्यांगों की सेवा के लिए अमेरिका की प्रैक्टिस छोड़कर भारत आ जाता है । डॉ. दीप्ति सप्ताह में एक पोलियो केस का ऑप्रेशन मुफ्त करती है । डॉ. परमेश्वर दिव्यांग भाग्यलक्ष्मी से शादी करने को तैयार हो जाते हैं । समाज के साथ-साथ सरकार भी दिव्यांगों के लिए मुफ्त पास और नौकरी की व्यवस्था करती है ।

समाज के साथ-साथ दिव्यांगों की सोच और जीवन-शैली को भी इस संग्रह में दिखाया गया है । दिव्यांग होने से मानवीय गुणों में परिवर्तन नहीं आते । लेखक ने अनेक लघुकथाओं के माध्यम से दिव्यांगों में मौजूद गुणों को दिखाया है । ‘ संजीवनी ’ लघुकथा बताती है कि दिव्यांग रेवती में सेवाभाव बरकरार रहता है । ‘ समर्पित ’ लघुकथा में बताया गया है कि दिव्यांगता से समर्पण में कमी नहीं आती । दिव्यांग होने का अर्थ यह नहीं कि वे अपने कर्त्तव्य में कोताही बरतेंगे । ‘ गुहार ’ लघुकथा उनकी कर्त्तव्यनिष्ठ को दिखाती है । ‘ दिल से ’ लघुकथा में कैटरिंग वाले का कथन बहुत कुछ कहता है –
“ तुम जैसे लोग दिल से काम करते हैं । बाकी लोग तो काम के लिए काम करते हैं ।” ( पृ. – 101 )
‘ चौकसी ’ लघुकथा उनकी सतर्कता को दिखाती है । वे सबके लिए प्रार्थना करते हैं । ‘ प्रार्थना ’ लघुकथा इसी उदारता को दिखाती है । दिव्यांग कुलदीप अपने लिए मांग न करके भगवान से प्रार्थना करता है कि धर्मान्धों को सद्बुद्धि दे । दिव्यांग भी सामान्य आदमी की तरह अन्याय का विरोध करते हैं । ‘ महाकाल ’ लघुकथा में गूंगा-बहरा कर्मचारी लड़की की इज्जत लुटने से बचाता है । दिव्यांग किन्नर अन्य किन्नरों की मदद से बदमाश के चंगुल से एक दिव्यांग की जवान बहन को बचाता है । ‘ बाहुपाश ’ लघुकथा में मानसिक दिव्यांग लक्ष्मण बड़े भाई से अपनी माँ को बचाता है । दिव्यांग निवेश सर्वजन हिताय की सोच रखता है । वह अपने पिता से पूछता है कि क्या मछलियाँ भी दिव्यांग होती है और उसका प्रश्न करना उसके पिता को मछलियाँ पकड़कर बेचने की बजाए नाव बनाकर बेचने का व्यवसाय शुरू करवा देता है । एक दिव्यांग, व्यक्ति में ही नहीं पौधों की अपूर्णता पर भी द्रवित हो उठता है, यह इन्द्रानी के माध्यम से दिखाया गया है । जब कोई दिव्यांग अपनी दिव्यांगता की आड़ में समाज पर झूठा दोषारोपण करता है तो दिव्यांग ही उसकी गलतफहमी दूर करता है । शारीरिक दिव्यांग सिर्फ शरीर से दिव्यांग हैं, उनकी सोच स्वस्थ है । ‘ भरपाई ’ लघुकथा में दिव्यांग बच्चे की प्रोढ़ सोच को दिखाया गया है । ‘ न्याय दृष्टि ’ लघुकथा में दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के लिए किसी को दोषी नहीं मानता है, न माता-पिता को, न ईश्वर को । ‘ ऑफर ’ लघुकथा में शत-प्रतिशत दिव्यांग दो घंटे की देर को स्वीकार कर लेता है लेकिन वह अपने लिए आरक्षित सीट पर बैठे कैंसर मरीज को नहीं उठाना चाहता । गणेश दिव्यांग होकर भी भीतर से स्वस्थ है, तभी वह ख़ुद को मिल सकने वाली नौकरी उस युवक के लिए छोड़ देता है, जिसकी माँ दिव्यांग है और जिसके कंधों पर पाँच बहनों की जिम्मेदारी है । ऐसे दिव्यांगों का भी वर्णन है जो दिव्यांगता समाप्त हो जाने पर बस पास का प्रयोग नहीं करते । सरकारी नौकरी को इसलिए ठुकरा देते हैं कि वे इसे ख़ुद के बूते से हासिल करना चाहते हैं । वे यह नहीं चाहते कि कोई उन्हें दिव्यांग कहे –
“ लेकिन मुझे कोई लंगड़ा नहीं कहेगा । मैं पाँव से दिव्यांग ज़रूर हूँ मगर काम से लंगड़ा नहीं हूँ ।” ( पृ. – 33 )
उनमें आत्मसम्मान की भावना भी होती है । ‘ पलटवार ’ लघुकथा में दिव्यांग उन दबंगों के हाथ से पुरस्कार लेने से इंकार करता है, जिन्होंने उन्हें दिव्यांग बनाया है ।

अपनों का प्यार बड़ा महत्त्वपूर्ण है । कुबड़ा विनोद पोते का साथ पाकर अपना दर्द भुला देता है । वह अकेला भी नहीं चल पाता है, लेकिन पोते को पीठ पर बैठाकर चलता है । वे भाईचारे को भी महत्त्व देते हैं –
“ यदि हमने प्यार और भाईचारा खो दिया तो फिर हमारे पास शेष बचेगा भी क्या ? हम विशेष हैं इस संसार में । हम भीतर से स्वस्थ हैं, लेकिन अंगों से स्वस्थ नहीं हैं ।” ( पृ. – 49 )
हौसले और दृढ़ संकल्प को भी लेखक ने दिखाया है । बौने कद की शिल्पा अपने दृढ़ संकल्प से डॉक्टर बनती है । निधि को अपनी वर्किंग एनर्जी पर विश्वास है । दिव्यांग गणेश गुड लक नहीं गुड चैलेंज कहलवाना पसंद करता है । सचिन वैज्ञानिक बनकर अपनी दिव्यांगता जैसी दिव्यांगता को समाप्त करना चाहता है । विजय का हौसला उसके अनेक हाथ पैदा कर देता है । ‘ खिलाड़ी ’ लघुकथा में दिव्यांग बच्चे का खिलौने बेचकर खेलने की बात करना उसके जीवट का प्रमाण है । मेघा दिव्यांग है और मेहनत से सर्जन बनती है । वह पोलियो से लड़ने की शपथ लेती है । गणेश भी हिम्मत से काम लेता है, भले ही इसका कारण भूख है । ‘ नई परिभाषा ’ लघुकथा में दिव्यांग तैरकर न सिर्फ अपनी जान बचाता है, अपितु वह एक अन्य दिव्यांग की भी जान बचाता है ।

हिम्मत के लिए किसी-न-किसी प्ररेणा का होना आवश्यक है । लेखक ने समाज में व्याप्त उन घटनाओं और पात्रों को उभारा है जो दिव्यांगों के प्ररेणा स्रोत बनते हैं । ‘ फुल स्पीड ’ लघुकथा में दिव्यांग फिल्म के इस संवाद से प्ररेणा लेता है –
“ पाँव नहीं तो क्या हुआ, दोनों हाथ तो सलामत हैं ।” ( पृ. – 92 )
‘ मंजिल की ओर ’ लघुकथा में दिव्यांग प्रो. द्विवेदी परिंदे से प्ररेणा लेकर कहते हैं –
“ कभी थक जाओ कभी चोट खाकर गिर पड़ो या कभी जख्मी हो भी जाओ तो किसी मदद की ओर मत देखना, बस, जैसे-तैसे चल पड़ना । चल पड़ोगे तो दौड़ने की ताकत भी आ जाएगी । हमें मदद की ओर नहीं मंजिल की ओर देखना चाहिए ।” ( पृ. – 124 )
मीनू नामक बच्चा दूसरे बच्चों को देख हौसला करता है और हाथ से तिपहिया साइकिल चला लेता है । माँ भी उसे सहयोग देती है । ‘ दौड़ ’ लघुकथा में नदी का पानी विजयेन्द्र को पुन: तैरने की प्ररेणा देता है । दिव्यांगों की खेल प्रतियोगिताएँ भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं । ‘ सितारों से भी आगे ’ इसी संदेश को प्रस्तुत करती है ।

दिव्यांग समझते हैं कि उनके लिए सुविधाओं से जरूरी है उनकी सोच । ‘ समस्या ’ लघुकथा में दिव्यांग अधिवेशन का स्वागताध्यक्ष कहता है –
“ मकान हमारी बड़ी समस्या नहीं है । हमारी समस्या तो अपनी स्थिति है । हम कामना करें कि हमें भीतर से ऊर्जा मिलती रहे ताकि हमें इस स्थिति से लड़ने की ताकत मिले ।” ( पृ. – 93 )
नकारात्मक सोच से बचने की बात की गई है ‘ आत्मबल ’ लघुकथा में –
“ आत्मबल हमारी सबसे बड़ी दवाई है । हमारे लिए नेगेटिव सोचना जीवन को कमजोर बनाना है ।”  ( पृ. – 46 )

नकारात्मकता पर कई बार चाहकर भी विजय नहीं पाई जा सकती । दिव्यांगों में इसके पाये जाने के आसार रहते हैं, इसलिए लेखक ने इस पहलू को भी छुआ है । लेखक ने उन्हें उनकी हीनभावना के साथ छोड़ा नहीं, अपितु किसी-न-किसी पात्र के माध्यम से इससे बाहर निकाला है । दिव्यांग दिनेश में हीनभावना है, लेकिन महिमा उसकी हीनभावना को दूर करती है । सार्थक हीनभावना का शिकार है कि उससे शादी कौन करेगा, लेकिन उसके गुरु एक दिव्यांग लड़की जो कंप्यूटर में दक्ष है, से उसकी शादी करवा देते है, इससे उसके जीवन को सुपथ मिलता है ।

लेखक ने इस संग्रह में मानसिक और शारीरिक सभी प्रकार के दिव्यांगों को लिया है । शारीरिक दिव्यांगों में बौनापन, हाथ, पैर, कान, नाक, आँख, गूंगा-बहरा आदि सभी प्रकार के हैं । उनके दिव्यांग होने के कारणों का भी वर्णन है । कुछ जन्मजात हैं तो कुछ अन्य कारणों से दिव्यांग हुए हैं । इनमें सुभाष का हाथ चारा मशीन में आने के कारण कट जाता है । विनोद रीढ़ की हड्डी के रोग के कारण कुबड़ा हो जाता है । सचिन ए.एम.सी बीमारी से ग्रस्त है । राधिका रेलवे क्रासिंग पर रेल की चपेट में आ जाती है । ‘ पलटवार ’ में दबंग स्वस्थ व्यक्ति के हाथ काट देते हैं । ‘ उसकी रौशनी ’ लघुकथा में दिव्यांगता का जल्दबाजी के कारण हुई दुर्घटना है । दंगाई भीड़ में कुचला जाना, वैन में आग लगना, डॉक्टर की लापरवाही आदि अन्य अनेक कारण हैं ।

साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब ही नहीं होता, अपितु मार्गदर्शक भी होता है । इस लघुकथा-संग्रह को देखकर कहा जा सकता है कि लेखक इस कसौटी पर खरा उतरा है । समाज में दिव्यांगता के जितने दृश्य हो सकते हैं, लगभग उन सभी का वर्णन इस संग्रह में मिलता है । लेखक ने कोरे यथार्थ को बयां करने में विश्वास नहीं रखा, अपितु अनेक जगहों पर आदर्शवादी अंत भी किया है जो समाज को राह दिखाता है, यही इस संग्रह की विशेषता है और यही लेखक की कामयाबी है ।

- दिलबागसिंह विर्क

साभार:
https://dsvirk.blogspot.com