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बुधवार, 20 मार्च 2019

पुस्तक समीक्षा । आशा की किरणें । सत्यप्रकाश भारद्वाज । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



अपार आशाएं जगाता लघुकथा-संग्रह

लघुकथा-संग्रह - आशा की किरणें
लघुकथाकार - सत्यप्रकाश भारद्वाज
प्रकाशन -  अंशिका पब्लिकेशन
कीमत - 150 /-
पृष्ठ - 96 ( पेपरबैक )

साहित्य में लघु विधाओं को देखकर इन्हें लिखना जितना आसान लगता हैं, वास्तव में उन्हें लिखना उतना ही कठिन होता है क्योंकि इनमें गागर में सागर भरना होता है, जिसके लिए विशेष महारत की आवश्यकता होती है । आजकल लघुकथाएँ भी काफ़ी मात्रा में लिखी जा रही हैं लेकिन लघुकथाएँ चुटकला बनने से बचें और वे मात्र सपाट बयानी न हों इसके लिए लघुकथाकार का सजग होना बेहद जरूरी है । यूँ तो जीवन का हर विषय लघुकथा में समेटा जा सकता है, लेकिन विषय को लघुकथा का रूप देना ही लघुकथाकार के लिए चुनौती होती है । लघुकथा-संग्रह “ आशा की किरणें ” पढ़ते हुए यह अहसास होता है कि सत्यप्रकाश भारद्वाज जी ने इस चुनौती का सामना सफलतापूर्वक किया है । इस संग्रह में 83 लघुकथाएं है जो जीवन के विभन्न पहलुओं को समेटे हुए हैं ।

पुस्तक के शीर्षक के अनुसार आशावादी दृष्टिकोण प्रमुख रहा है, लेकिन यथार्थ का भी प्रस्तुतिकरण हुआ है । व्यंग्य की प्रचुरता है तो भाव प्रधान लघुकथाएं भी हैं । लेखक ने आदर्शवाद के प्रस्तुतिकरण में कही-कहीं अतिवादी दृष्टिकोण भी अपनाया है, लेकिन ये सब स्वस्थ समाज की कल्पना करती लघुकथाएं हैं । ‘एयर-टिकट’ और ‘सार्थक’ लघुकथाएं आदर्श पुत्र को दिखाती हैं, तो ‘बहू नहीं बेटी’ आदर्श बहू की लघुकथा है । ‘फिर से’ लघुकथा में बच्चे के कारण तलाक होते-होते बच जाता है । ‘दूरियाँ’ लघुकथा में पत्नी पति को उसके गाँव लेकर जाती है, जो सामान्य स्थितियों के विपरीत है, और यही लेखक का आशावाद है । ‘सवेरा’ भी इसी सोच के अंतर्गत लिखी गई है । बच्चा भीख मांगने की बजाए अपने बाबा को सम्मानपूर्वक जीना सिखाता है । ‘इंसानियत’ लघुकथा में देवेन दुर्घटना का शिकार हुए बच्चे को बचाता है । ‘युग-परिवर्तन’ में लड़की को लेकर दादी की सोच बदलती है । ‘अपना धरातल’ में पत्नी से प्रेरणा पाकर पति आत्मनिर्भर बनता है । ‘अपना-अपना ईमान’ लघुकथा में पत्नी पति को अपने ईमान से डोलने नहीं देती । ‘परिश्रम का फल’ लघुकथा में मेहनती विकास का सफल होना और नकलची सुरेंद्र और राकेश का फ्लाईंग स्क्वैड द्वारा पकड़ा जाना आदर्शवाद की स्थापना करता है । ‘नई भोर’ में बस्ती में स्कूल खुलवाकर और बच्चों के माध्यम से नई भोर आने का सपना देखा गया है । ‘भगवान आए’ लघुकथा में मीनू का पिता पिंकी की पढ़ाई की जिम्मेदारी भी लेता है और पिंकी के पिता के ईलाज की व्यवस्था भी करता है । ‘नया जीवन’ में आत्महत्या करने जा रही मालती को बुजुर्ग न सिर्फ बचाता है, अपितु बेटी की तरह अपनाता है । ‘संकल्प’ अच्छे लोगों को शक की नजर से देखने की बात करती लघुकथा है लेकिन इसका सच्चे इन्सान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । ‘भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान’ ईमानदार व्यक्ति के राजनीति में आकर भ्रष्ट होने की बात तो करती है, लेकिन प्रजा का सबक सिखा देना आशावादी दृष्टिकोण है । ‘लोकतंत्र’ का अंत भी इसी सोच को दर्शाता है । ‘सशक्तिकरण’ का विषय भी राजनीति है । शान्ति भ्रष्ट धर्मसिंह को प्रधान पद से उतरवाकर कार्यवाहक प्रधान के रूप में हालात बदल देती है । औरत कमजोर नहीं । ‘उत्तरदायित्व’ लघुकथा में शंकुतला परिवार का उत्तरदायित्व उठाती है । औरत को अन्याय का विरोध करते और जीतते भी दिखाया गया है । ‘पसीने का मोल’ और ‘नया इतिहास’ इस प्रकार की लघुकथाएं हैं । पुरुष भी ‘आत्मसम्मान’ में अन्याय का विरोध करके जीतता है । धार्मिक सहिष्णुता को लेकर भी लेखक ने ‘ईश्वर का दूत’ और ‘राशिद भाई’ जैसी लघुकथाएं लिखी हैं ।

विधुर जीवन को दिखाती तीन लघुकथाएं है – ‘उसका संग’, ‘पराया हुआ गाँव’ और ‘अश्रुकण’ । तीनों लघुकथाओं में पत्नी के महत्त्व को दर्शाया गया है । प्रतीक के रूप में पशु-पक्षियों को लेकर मानवता पर तंज कसा गया है । इस कड़ी में ‘अंतर’, ‘आदमी की परिभाषा’, ‘आदमी जैसा’ और ‘विषैला’ लघुकथाएं आती हैं । व्यंग्य का प्रयोग अनेक लघुकथाओं में हुआ है । ‘वास्तविकता’ तथाकथित विकास पर व्यंग्य है, ‘सहानुभूति’ पत्रकारों की संवेदनशून्यता पर व्यंग्य है, ‘समझदारी’ में अधिकारियों को ख़ुश करके बच निकलने की बात है, ‘दानवता’ सती प्रथा को लेकर पुलिस और आदमियत पर व्यंग्य करती है । ‘सुरक्षा’ में पुलिस की निष्क्रियता पर व्यंग्य है । ’नए दौर का श्रीगणेश’ में पुलिस को लुटेरा दिखाया गया है । ‘नरभक्षी’ भी पुलिस का ऐसा ही रूप दिखाती है । ‘समय बहुत खराब है’ एक तरफ भक्षक पुलिस को दिखाती है तो दूसरी तरफ गुंडे में मानवीयता दिखाती है । ‘किसे सुनाएं’ नाकों पर होने वाले भ्रष्टाचार को दिखाती है । ‘समाज सेवा हो ली’ भी भ्रष्टाचार को विषय बनाती है । कमीशनखोरी को लेकर भी लघुकथाएं कही गई हैं । ‘वाह, विकास कार्य’, ‘लुटेरे’ इसी प्रकार की लघुकथाएं हैं । ‘नया उग्रवाद’ में पुलिस से मिलीभगत करके उग्रवाद के नाम पर निजी दुश्मनियाँ निकाली जाती हैं । ‘व्यवसाय’ लघुकथा में राजनीति को व्यवसाय कहा गया है, ‘ठहाके’ लघुकथा में दंगों के पीछे नेताओं के हाथ को दिखाती है तो ‘उनको किसी ने नहीं देखा’ नेताओं के दोगलेपन को दिखाती है । ‘स्वतन्त्रता का मूल्य’ में स्वंत्रता सेनानी देश के नेताओं के व्यवहार को देखकर आहत होता है ।

‘जोंक’ और ‘नकली चेहरा’ रिश्तों के सच को ब्यान करती लघुकथाएं हैं । ‘घर’ में मुखिया परिवार की अपेक्षाओं का बोझ ढोता है । ‘प्रेरणा’ में अपने व्यवहार का सन्तान पर प्रभाव दिखाया गया है । ‘उपेक्षा’ में पिता बच्चों के व्यवहार की उपेक्षा करने की बात पत्नी को कहता है, लेकिन वह ख़ुद भी उपेक्षा नहीं कर पाता । ‘अपनी-अपनी श्रद्धा’ पुजारियों की लूट और ‘सुफल’ मन्दिरों में जाती विशेष के लोगों के निषेध को विषय बनाती है । ‘विडम्बना’ लघुकथा दहशतगर्दों का कोई दीन-ईमान नहीं होता, बात को सत्य सिद्ध करती है । ‘जुनून’ में दंगों में स्त्री की अस्मिता को लूटने को विषय बनाया गया है । ‘भीख की लूट’ भिखारिन के प्रति समाज की घटिया मानसिकता को दिखाती है । ‘ममता’ में स्तनपान को लेकर लघुकथा कही गई लेकिन महिला कल्याण समिति में स्तनपान न करवाने की बात अस्वाभाविक लगती है । ‘सत्ता का नशा’ भी अतिशयोक्तिपूर्ण विषय है । यही कमी ‘भाग्यशाली’, ‘दुर्भाग्य’ और ‘पवित्र-अपवित्र’ लघुकथाओं में दिखती है ।

‘यह सिलसिला जारी रहेगा’ दहेज को लेकर संवादात्मक लघुकथा है, जिसका कोई निष्कर्ष लेखक नहीं निकालता । लेखक ने इसी शैली में ‘द्वंद्व’ लघुकथा लिखी है जिसमें सत्य-असत्य का वाद-विवाद है । ‘मर्यादा’ में लेखक पहरावे को छेड़छाड़ का कारण बताता है, ‘परोपकार’ में बच्चों के जन्म को लेकर अनपढ़ और गरीब परिवारों की सोच दिखाई गई है, ‘भ्रष्ट व्यवस्था’ में दिखाया गया है कि ईमानदार अधिकारियों को काम नहीं करने दिया जाता । ‘पराए लोग’ गरीबों के प्रति समाज की उपेक्षा को दिखाती है, तो ‘धुएँ का अंबार’ दिल्ली जैसे शहर में ग्रामीण व्यक्ति के असफल होने की बात करती है । ‘धर्म-अधर्म’ में दिखावे की धार्मिकता और पश्चाताप को दिखाया गया है । ‘कर्त्तव्यबोध’ में गुरु का पतित होने से बचना, ‘शहद में डूबे शब्द’ में दहेज़ को लेकर लड़की का खरा-खरा जवाब, ‘बंटवारा’ में लालची बेटे का वर्णन है । ‘कब्जा’ लघुकथा में जमीन पर कब्जा लेने के लिए झुग्गियों को जला दिया जाता है, ‘उनका खुदा’ जेहाद को विषय बनाती है । ‘स्थानांतरण’ में माँ और पत्नी के कटाक्ष हैं, ‘पत्र’ में पत्र के माध्यम से दोस्त की और पूर्व में अपनी दशा का चित्रण है । ‘विकास’ विज्ञान के अच्छे और बुरे पहलू को दिखाती है, ‘रोटी का स्वाद’ भूखे के लिए रोटी का महत्त्व दिखाती है तो ‘बिरादरी’ में बेटी का गैर बिरादरी के युवक से प्रेम का पिता पर प्रभाव दिखाया है ।

विषय को लेकर यहाँ इन लघुकथाओं में पर्याप्त विविधता है, वहीं इनके शिल्प में भी पर्याप्त विविधता है । लघुकथा का अंत अति महत्त्वपूर्ण होता है । लेखक ने कई लघुकथाओं में पंच लाइन का प्रयोग किया है तो कई लघुकथाओं को पाठकों के ऊपर छोड़ा है । कुछ में लेखकीय टिप्पणी भी मिलती है । एक-दो लघुकथाओं को छोड़कर संवाद छोटे, चुटीले और स्वाभाविक हैं । वर्णन और चित्रण के लिए लघुकथाओं में गुंजाइश कम ही होती है लेकिन लेखक ने इनका भी समुचित प्रयोग किया है । वर्तमान में लघुकथा को एक ही समय में कहे जाने की बात कही जाती है, ऐसे में कुछ लघुकथाएं समय दोष से ग्रसित कही जा सकती हैं, लेकिन यह दोष अखरता नहीं बल्कि यह कुछ लघुकथाओं की मांग लगता है । संक्षेप में, सत्यप्रकाश भारद्वाज का लघुकथा-संग्रह “ आशा की किरणें ” अपार आशाएं जगाता है ।

- दिलबागसिंह विर्क 

साभार:
https://dsvirk.blogspot.com

मंगलवार, 19 मार्च 2019

लघुकथा समाचार: प्रज्ञा साहित्यिक मंच ने लघु कथा की विधा पर किए विचार साझा

Rohtak News - Bhaskar News Network Mar 19, 2019

रोहतक। शहीद दीपक पार्क में प्रज्ञा साहित्यिक मंच की ओर से सोमवार को लेखक से मिलिए कार्यक्रम का आयोजन किया गया। विचार गोष्ठी कार्यक्रम के मुख्य अतिथि दिल्ली से लेखक मधुदीप गुप्ता तथा अध्यक्ष पंचकूला से लाजपत राय गर्ग रहे। मंच का संचालन आशा खत्री ने किया। कार्यक्रम में लघुकथा विधा पर गहराई से विचार विमर्श किया गया। डॉ. मधुकांत और अनूप बंसल ने प्रज्ञा साहित्यिक मंच की तरफ से मधुदीप गुप्ता एवं लाजपत राय गर्ग को शाल व स्मृतिचिन्ह देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर श्यामलाल कौशल, डॉ. चंद्रदत्त शर्मा, डॉ. रमाकांता शर्मा, सुनीता बहल,अर्चना कोचर, विजय विभोर मौजूद रहे।


source:
https://www.bhaskar.com/haryana/rohtak/news/haryana-news-pragya39s-literary-platform-shared-views-on-the-story-of-short-stories-033608-4159137.html

पुस्तक समीक्षा । दिव्याँग जगत की 101 लघुकथाएँ । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



समाज में दिव्यांगों की दशा और दिशा का चित्रण करता लघुकथा-संग्रह

लघुकथा-संग्रह – दिव्याँग जगत की 101 लघुकथाएँ
लेखक – राजकुमार निजात
प्रकाशक – एस.एन.पब्लिकेशन
पृष्ठ – 136
कीमत – 400 /- ( सजिल्द )

अनेकता जहां भारतीय समाज की विशेषता है वहीं भेदभाव का होना इसके माथे पर कलंक जैसा है । भारतीय समाज में जाति, आर्थिकता के आधार पर ऊँच-नीच तो है ही, शारीरिक व मानसिक सक्षमता के आधार पर भी वर्ग हैं । निशक्तजन दिव्यांग कहलाते हैं। कई बार समाज दिव्यांगों के प्रति सामान्यजन जैसा व्यवहार नहीं करता । कहीं इनके प्रति घृणा है, तो कहीं सहानुभूति जबकि बहुधा दिव्यांग इन दोनों को नहीं चाहता । वो चाहता है कि उसे सामान्य पुरुष-स्त्री जैसा सम्मान दिया जाए । राजकुमार निजात जी ने समाज के दिव्यांगों के प्रति नजरिए का बड़ी बारीकी से विश्लेषण करते हुए ‘ दिव्यांग जगत की 101 लघुकथाएँ ’ नामक लघुकथा-संग्रह का सृजन किया है । इस संग्रह में समाज में दिव्यांगों की स्थिति का वर्णन तो है ही, दिव्यांगों के नजरिए से समाज को भी देखा गया है । दिव्यांगों की मनोस्थिति को भी समझा गया है । कुछ दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के कारण हीनभावना के शिकार हो जाते हैं, जबकि कुछ अपने हौसले से दिव्यांगता पर विजय पा लेते हैं । लेखक ने इन सभी स्थितियों को लघुकथाओं की कथावस्तु में पिरोया है ।

दिव्यांगता कोई गुनाह नहीं लेकिन कई बार दिव्यांग ख़ुद तो कभी उनके माँ-बाप भी इसे शाप मान बैठते हैं । विष्णु की माँ विष्णु को पिछले जन्म का दंड मानती है, हालंकि उसकी ममता उसे तुरंत संभाल लेती है । ‘ दुनियावाले ’ लघुकथा बड़ी सटीकता से समाज की सोच को दिखाती है । दिव्यांग को यहाँ भिखारी समझ लिया जाता है । समाज को इस बात का भी डर सताता रहता है कि दिव्यांग की सन्तान भी दिव्यांग न हो जाए जबकि शारीरिक दिव्यांगता के मामले में ऐसा होने का कोई कारण नहीं होता । लेखक ने ‘ आगमन ’ लघुकथा में इस सोच को निर्मूल साबित किया है । नेताओं की दिव्यांगों के प्रति दोहरी सोच को ‘ पर्दाफाश ’ लघुकथा में दिखाया गया है । ‘ उसका दर्द ’ लघुकथा दिव्यांगों के दर्द को न समझने का चित्रण करती है । अन्य दिवसों की तरह दिव्यांग दिवस की महज औपचारिकता की जाती है । ‘ दिखावे ’ लघुकथा भी बड़े लोगों की दिखावे की प्रवृति को दिखाती है, दिव्यांगों से उनकी सहानुभूति नहीं होती । ‘ सम्पूर्ण दिव्यांगता ’ में सरकारी भ्रष्टतन्त्र की दिव्यांग के प्रति असंवेदनशीलता को दिखाया गया है । ‘ आधी टिकट ’ लघुकथा सरकार की सोच पर व्यंग्य करती है ।

समाज कई बार भेदभाव करता है तो कई बार लापरवाही । दिव्यांगों, विशेषकर मानसिक दिव्यांगों को विशेष देखभाल की जरूरत होती है । ‘ निरंतर ’ लघुकथा दिव्यांग बच्चों पर माँ-बाप के विशेष ध्यान की बात करती है लेकिन लेखक ने लापरवाही को दिखाती हुई लघुकथाओं का भी सृजन किया है । मानसिक रूप से कमजोर व अस्वस्थ कपिला को उसकी माँ अकेले स्कूल भेज देती है । एक माँ खिलौने बेचने भेज देती है तो करुणा की मां रेलवे स्टेशन पर बेटी को पीछे छोड़ आती है । ‘ उसकी बेटी ’ नामक इस लघुकथा में लेखक बड़ा महत्त्वपूर्ण संदेश भी देता है कि मानसिक दिव्यांग के गले में पहचान-पत्र डाला जाना चाहिए । लेखक ने इन लापरवाहियों को बड़े हादसे में बदलते नहीं दिखाया क्योंकि समाज में अच्छे लोग भी हैं । अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के लोगों को ‘ लकवा ’ लघुकथा में बड़ी खूबसूरती से दिखाया गया है । नया चेयरमैन गीता को स्कूल से सिर्फ इसलिए निकाल देता है, क्योंकि वह दिव्यांग है लेकिन अभिभावक इसका विरोध करते हैं । समाज के अच्छे रूप को लेखक ने अनेक जगहों पर दिखाया है । ‘ भीतर से ’ लघुकथा दिखाती है कि कैसे दिव्यांग बच्चे के भीतर स्वस्थ बच्चे को पैदा किया जा सकता है । दिव्यांगों को काम करने देना चाहिए क्योंकि उन्हें काम से रोकना उनमें तनाव पैदा करता है, हीनता की ग्रन्थि को उत्पन्न करता है । उत्तर की माँ भी उसे काम करने से रोकती है, जिससे वह तनावग्रस्त होता है और इस तनाव से उसे मुक्ति तभी मिलती है जब वह चुपके से काम कर देता है । ‘ जवाब ’ लघुकथा के आवारा और आज़ाद बच्चे भी यही संदेश देते है कि दिव्यांगों को खेलने दिया जाना चाहिए ।
                     दिव्यांगों को सामन्यत: माँ-बाप का विशेष स्नेह मिलता है । लेखक ने इसे भी लघुकथाओं का विषय बनाया है । ‘ लबालब दामन ’ लघुकथा में दामिनी अपने बेटे से प्रेमपूर्वक व्यवहार करती है । व्यापक को उसके पिता छोटे बच्चों वाली पींग से झूला झुलाते हैं । माँ-बाप के अतिरिक्त समाज के अन्य लोग भी उनकी ख़ुशी के लिए और उनको आगे बढने की प्ररेणा देने के लिए कार्य करते हैं । मिंटू गोपाल की मदद से टॉप स्वीप झूले पर फिसल पाता है ।

समाज के बहुत से लोग दिव्यांगों की सेवा के लिए अपना जीवन अर्पित कर देते हैं, लेखक ने उन पर भी कलम चलाई है । डॉ. विराट दिव्यांगों की सेवा के लिए अमेरिका की प्रैक्टिस छोड़कर भारत आ जाता है । डॉ. दीप्ति सप्ताह में एक पोलियो केस का ऑप्रेशन मुफ्त करती है । डॉ. परमेश्वर दिव्यांग भाग्यलक्ष्मी से शादी करने को तैयार हो जाते हैं । समाज के साथ-साथ सरकार भी दिव्यांगों के लिए मुफ्त पास और नौकरी की व्यवस्था करती है ।

समाज के साथ-साथ दिव्यांगों की सोच और जीवन-शैली को भी इस संग्रह में दिखाया गया है । दिव्यांग होने से मानवीय गुणों में परिवर्तन नहीं आते । लेखक ने अनेक लघुकथाओं के माध्यम से दिव्यांगों में मौजूद गुणों को दिखाया है । ‘ संजीवनी ’ लघुकथा बताती है कि दिव्यांग रेवती में सेवाभाव बरकरार रहता है । ‘ समर्पित ’ लघुकथा में बताया गया है कि दिव्यांगता से समर्पण में कमी नहीं आती । दिव्यांग होने का अर्थ यह नहीं कि वे अपने कर्त्तव्य में कोताही बरतेंगे । ‘ गुहार ’ लघुकथा उनकी कर्त्तव्यनिष्ठ को दिखाती है । ‘ दिल से ’ लघुकथा में कैटरिंग वाले का कथन बहुत कुछ कहता है –
“ तुम जैसे लोग दिल से काम करते हैं । बाकी लोग तो काम के लिए काम करते हैं ।” ( पृ. – 101 )
‘ चौकसी ’ लघुकथा उनकी सतर्कता को दिखाती है । वे सबके लिए प्रार्थना करते हैं । ‘ प्रार्थना ’ लघुकथा इसी उदारता को दिखाती है । दिव्यांग कुलदीप अपने लिए मांग न करके भगवान से प्रार्थना करता है कि धर्मान्धों को सद्बुद्धि दे । दिव्यांग भी सामान्य आदमी की तरह अन्याय का विरोध करते हैं । ‘ महाकाल ’ लघुकथा में गूंगा-बहरा कर्मचारी लड़की की इज्जत लुटने से बचाता है । दिव्यांग किन्नर अन्य किन्नरों की मदद से बदमाश के चंगुल से एक दिव्यांग की जवान बहन को बचाता है । ‘ बाहुपाश ’ लघुकथा में मानसिक दिव्यांग लक्ष्मण बड़े भाई से अपनी माँ को बचाता है । दिव्यांग निवेश सर्वजन हिताय की सोच रखता है । वह अपने पिता से पूछता है कि क्या मछलियाँ भी दिव्यांग होती है और उसका प्रश्न करना उसके पिता को मछलियाँ पकड़कर बेचने की बजाए नाव बनाकर बेचने का व्यवसाय शुरू करवा देता है । एक दिव्यांग, व्यक्ति में ही नहीं पौधों की अपूर्णता पर भी द्रवित हो उठता है, यह इन्द्रानी के माध्यम से दिखाया गया है । जब कोई दिव्यांग अपनी दिव्यांगता की आड़ में समाज पर झूठा दोषारोपण करता है तो दिव्यांग ही उसकी गलतफहमी दूर करता है । शारीरिक दिव्यांग सिर्फ शरीर से दिव्यांग हैं, उनकी सोच स्वस्थ है । ‘ भरपाई ’ लघुकथा में दिव्यांग बच्चे की प्रोढ़ सोच को दिखाया गया है । ‘ न्याय दृष्टि ’ लघुकथा में दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के लिए किसी को दोषी नहीं मानता है, न माता-पिता को, न ईश्वर को । ‘ ऑफर ’ लघुकथा में शत-प्रतिशत दिव्यांग दो घंटे की देर को स्वीकार कर लेता है लेकिन वह अपने लिए आरक्षित सीट पर बैठे कैंसर मरीज को नहीं उठाना चाहता । गणेश दिव्यांग होकर भी भीतर से स्वस्थ है, तभी वह ख़ुद को मिल सकने वाली नौकरी उस युवक के लिए छोड़ देता है, जिसकी माँ दिव्यांग है और जिसके कंधों पर पाँच बहनों की जिम्मेदारी है । ऐसे दिव्यांगों का भी वर्णन है जो दिव्यांगता समाप्त हो जाने पर बस पास का प्रयोग नहीं करते । सरकारी नौकरी को इसलिए ठुकरा देते हैं कि वे इसे ख़ुद के बूते से हासिल करना चाहते हैं । वे यह नहीं चाहते कि कोई उन्हें दिव्यांग कहे –
“ लेकिन मुझे कोई लंगड़ा नहीं कहेगा । मैं पाँव से दिव्यांग ज़रूर हूँ मगर काम से लंगड़ा नहीं हूँ ।” ( पृ. – 33 )
उनमें आत्मसम्मान की भावना भी होती है । ‘ पलटवार ’ लघुकथा में दिव्यांग उन दबंगों के हाथ से पुरस्कार लेने से इंकार करता है, जिन्होंने उन्हें दिव्यांग बनाया है ।

अपनों का प्यार बड़ा महत्त्वपूर्ण है । कुबड़ा विनोद पोते का साथ पाकर अपना दर्द भुला देता है । वह अकेला भी नहीं चल पाता है, लेकिन पोते को पीठ पर बैठाकर चलता है । वे भाईचारे को भी महत्त्व देते हैं –
“ यदि हमने प्यार और भाईचारा खो दिया तो फिर हमारे पास शेष बचेगा भी क्या ? हम विशेष हैं इस संसार में । हम भीतर से स्वस्थ हैं, लेकिन अंगों से स्वस्थ नहीं हैं ।” ( पृ. – 49 )
हौसले और दृढ़ संकल्प को भी लेखक ने दिखाया है । बौने कद की शिल्पा अपने दृढ़ संकल्प से डॉक्टर बनती है । निधि को अपनी वर्किंग एनर्जी पर विश्वास है । दिव्यांग गणेश गुड लक नहीं गुड चैलेंज कहलवाना पसंद करता है । सचिन वैज्ञानिक बनकर अपनी दिव्यांगता जैसी दिव्यांगता को समाप्त करना चाहता है । विजय का हौसला उसके अनेक हाथ पैदा कर देता है । ‘ खिलाड़ी ’ लघुकथा में दिव्यांग बच्चे का खिलौने बेचकर खेलने की बात करना उसके जीवट का प्रमाण है । मेघा दिव्यांग है और मेहनत से सर्जन बनती है । वह पोलियो से लड़ने की शपथ लेती है । गणेश भी हिम्मत से काम लेता है, भले ही इसका कारण भूख है । ‘ नई परिभाषा ’ लघुकथा में दिव्यांग तैरकर न सिर्फ अपनी जान बचाता है, अपितु वह एक अन्य दिव्यांग की भी जान बचाता है ।

हिम्मत के लिए किसी-न-किसी प्ररेणा का होना आवश्यक है । लेखक ने समाज में व्याप्त उन घटनाओं और पात्रों को उभारा है जो दिव्यांगों के प्ररेणा स्रोत बनते हैं । ‘ फुल स्पीड ’ लघुकथा में दिव्यांग फिल्म के इस संवाद से प्ररेणा लेता है –
“ पाँव नहीं तो क्या हुआ, दोनों हाथ तो सलामत हैं ।” ( पृ. – 92 )
‘ मंजिल की ओर ’ लघुकथा में दिव्यांग प्रो. द्विवेदी परिंदे से प्ररेणा लेकर कहते हैं –
“ कभी थक जाओ कभी चोट खाकर गिर पड़ो या कभी जख्मी हो भी जाओ तो किसी मदद की ओर मत देखना, बस, जैसे-तैसे चल पड़ना । चल पड़ोगे तो दौड़ने की ताकत भी आ जाएगी । हमें मदद की ओर नहीं मंजिल की ओर देखना चाहिए ।” ( पृ. – 124 )
मीनू नामक बच्चा दूसरे बच्चों को देख हौसला करता है और हाथ से तिपहिया साइकिल चला लेता है । माँ भी उसे सहयोग देती है । ‘ दौड़ ’ लघुकथा में नदी का पानी विजयेन्द्र को पुन: तैरने की प्ररेणा देता है । दिव्यांगों की खेल प्रतियोगिताएँ भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं । ‘ सितारों से भी आगे ’ इसी संदेश को प्रस्तुत करती है ।

दिव्यांग समझते हैं कि उनके लिए सुविधाओं से जरूरी है उनकी सोच । ‘ समस्या ’ लघुकथा में दिव्यांग अधिवेशन का स्वागताध्यक्ष कहता है –
“ मकान हमारी बड़ी समस्या नहीं है । हमारी समस्या तो अपनी स्थिति है । हम कामना करें कि हमें भीतर से ऊर्जा मिलती रहे ताकि हमें इस स्थिति से लड़ने की ताकत मिले ।” ( पृ. – 93 )
नकारात्मक सोच से बचने की बात की गई है ‘ आत्मबल ’ लघुकथा में –
“ आत्मबल हमारी सबसे बड़ी दवाई है । हमारे लिए नेगेटिव सोचना जीवन को कमजोर बनाना है ।”  ( पृ. – 46 )

नकारात्मकता पर कई बार चाहकर भी विजय नहीं पाई जा सकती । दिव्यांगों में इसके पाये जाने के आसार रहते हैं, इसलिए लेखक ने इस पहलू को भी छुआ है । लेखक ने उन्हें उनकी हीनभावना के साथ छोड़ा नहीं, अपितु किसी-न-किसी पात्र के माध्यम से इससे बाहर निकाला है । दिव्यांग दिनेश में हीनभावना है, लेकिन महिमा उसकी हीनभावना को दूर करती है । सार्थक हीनभावना का शिकार है कि उससे शादी कौन करेगा, लेकिन उसके गुरु एक दिव्यांग लड़की जो कंप्यूटर में दक्ष है, से उसकी शादी करवा देते है, इससे उसके जीवन को सुपथ मिलता है ।

लेखक ने इस संग्रह में मानसिक और शारीरिक सभी प्रकार के दिव्यांगों को लिया है । शारीरिक दिव्यांगों में बौनापन, हाथ, पैर, कान, नाक, आँख, गूंगा-बहरा आदि सभी प्रकार के हैं । उनके दिव्यांग होने के कारणों का भी वर्णन है । कुछ जन्मजात हैं तो कुछ अन्य कारणों से दिव्यांग हुए हैं । इनमें सुभाष का हाथ चारा मशीन में आने के कारण कट जाता है । विनोद रीढ़ की हड्डी के रोग के कारण कुबड़ा हो जाता है । सचिन ए.एम.सी बीमारी से ग्रस्त है । राधिका रेलवे क्रासिंग पर रेल की चपेट में आ जाती है । ‘ पलटवार ’ में दबंग स्वस्थ व्यक्ति के हाथ काट देते हैं । ‘ उसकी रौशनी ’ लघुकथा में दिव्यांगता का जल्दबाजी के कारण हुई दुर्घटना है । दंगाई भीड़ में कुचला जाना, वैन में आग लगना, डॉक्टर की लापरवाही आदि अन्य अनेक कारण हैं ।

साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब ही नहीं होता, अपितु मार्गदर्शक भी होता है । इस लघुकथा-संग्रह को देखकर कहा जा सकता है कि लेखक इस कसौटी पर खरा उतरा है । समाज में दिव्यांगता के जितने दृश्य हो सकते हैं, लगभग उन सभी का वर्णन इस संग्रह में मिलता है । लेखक ने कोरे यथार्थ को बयां करने में विश्वास नहीं रखा, अपितु अनेक जगहों पर आदर्शवादी अंत भी किया है जो समाज को राह दिखाता है, यही इस संग्रह की विशेषता है और यही लेखक की कामयाबी है ।

- दिलबागसिंह विर्क

साभार:
https://dsvirk.blogspot.com

सोमवार, 18 मार्च 2019

लघुकथा संकलन: महिला लघुकथाकारों के लिए

महिला कथाकारों से चुनिंदा 10 बेहतरीन लघुकथाएं आमन्त्रित हैं

किताबगंज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होने वाली साझा संकलनों की महायात्रा के अंतर्गत नवीनतम साझा संकलन "बोलती लघुकथाएं" के लिए महिला लघुकथाकारों से बेहतरीन और चुनिंदा 10 लघुकथाएं सचित्र परिचय सहित ईमेल से आमन्त्रित हैं।


  • प्रत्येक महिला रचनाकार को संकलन में सिर्फ चार पृष्ठ दिए जाएंगे। संकलन में सिर्फ 25 महिला रचनाकारों को ही स्थान दिया जाएगा।
  • प्रकाशित/अप्रकाशित को कोई बंधन नहीं हैं। आप सिर्फ मौलिक तथा टाईपशुदा चुनिंदा एवं बेहतरीन 10 लघुकथाएं में से चार चयनित की जाएगी. इस हेतु अपना सचित्र परिचय नाम, जन्मतिथि, योग्यता, मोबाइल न, पता व मेल आईडी के प्रारूप सहित ही ईमेल से भिजवाएं।
  • पुस्तक के यथाशीघ्र "किताबगंज प्रकाशन" से प्रकाशित होगी।
  • सहयोगी कथाकारों को संकलन की पहली लेखकीय प्रति निःशुल्क भेजी जाएगी और उनके द्वारा इस संकलन की अन्य प्रतियां खरीदने पर 50% स्पेशल डिस्काउंट (+डाक खर्च अतिरिक्त) पर उपलब्ध कराई जाएगी ।
  • कृपया अपने चुनिंदा एवं बेहतरीन 10 लघुकथाएं निम्न ईमेल पर 25 मार्च 2019 तक भेजें.


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ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'
संपादक (बोलती लघुकथाएं)
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डाॅ. प्रमोद सागर
(चेयरमैन)
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लघुकथा: मधुर मिलन | किरण बरनवाल

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"ऊपर वाले ने सबको एक जैसा बनाया है, हम इंसान ही धर्म के आधार पर बंट कर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं।"
खुद से बातें करती बूढ़ी काकी कस्बे में हुए दंगे से व्यथित थी। 

जिस मोहल्ले में दिवाली की मिठाई और ईद की सेवइयों को मिल-बाँट कर खाया जाता था, वहीं की स`ड़कें आज खून के छींटों से पटी हुई है। लेकिन किसे पता था कि कौनसा छींटा हरे वाले का है, कौनसा केसरिया वालों का?


हुआ यूं था, नसीर का बेटा लापता हो गया। उसे अंतिम बार साह जी के बेटे के साथ देखा गया था। वर्ग विशेष के ठेकेदारों  ने यह अंदाजा लगवा लिया कि दोस्ती की आड़ में धर्म पर प्रहार किया गया है। फिर क्या! धार्मिक उन्माद में भला-बुरा सोचे बिना प्रतिशोध की ज्वाला जलने लगी।


बदले की भावना से हरे और केसरिये झंडे हवा की बजाय तलवार की नोक पर लहरा रहे थे। दोनों संप्रदाय एक बार फिर उन्मादी होकर एक-दूसरे के सामने आ गए कि तभी बूढ़ी काकी नसीर के बेटे को गोद में लिए बीच में आ गई, और चिल्ला कर बोली, "बच्चा खेलते हुए जंगल की तरफ चला गया और रास्ता भटक गया था। मैं ढंग से चल नहीं सकती हूँ फिर भी इसे ढूंढ कर लाई और तुम लोग... दौड़ सकते हो... लेकिन..." कहते हुए वह फफकने लगी।


तलवारों की चमक धूमिल हो गयी। तेज़ चलती हवा से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो हरे और केसरिया झंडों के बीच खड़ी काकी अपनी श्वेत धवल साड़ी के उड़ते आँचल से दोनों रंगों का मधुर मिलन करा रही हो।


किरण बरनवाल 

जमशेदपुर

लघुकथा वीडियो : वरिष्ठ लघुकथाकार शोभा रस्तोगी के साथ साहित्यिक गोष्ठी

वरिष्ठ लघुकथाकार शोभा रस्तोगी जी पेशे से शिक्षिका हैं। इनकी लघुकथा कैनवास के लिए इन्हें प्रतिलिपि लघुकथा सम्मान 2017 से सम्मानित किया गया था।


लघुकथा: मृत्युभोज | मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

रजुआ बीच जंगल में अपनी भेड़-बकरियों को टिटकारी देता हुआ चरा रहा था, कि तभी उसकी नजर सज्जन सिंह पर पड़ गयी । सज्जन सिंह को सभी गाँव वाले दादा कह कर बुलाते थे। स्वभाव से अच्छे थे इसीलिए औरत - मर्द, बूढे - बच्चे सभी बस दादा - दादा की रट लगाये रहते।

पास जाकर रजुआ ने पूछा, “दादा आज अकेले जंगल में और इतनी दूर कैसे आ गये, किसी जड़ी-बूटी की जरूरत आन पड़ी थी क्या? मुझे बोल देते, मैं ले आता।”

दादा ने रजुआ को धीरे से पलट कर देखा और धीमी आवाज में बोले, “बेटा रजुआ तू! कलेऊ लाया है क्या?  दो दिन से यहीं भूखा पड़ा हूँ, घर छोड़ आया हूँ मैं।”

रजुआ ने अपना खाना दादा की तरफ बढ़ाते हुए कहा, “लो दादा खा लो, पर ये बताओ घर क्यों छोड़ा? पाँच-पाँच बेटे हैं, भरा पूरा परिवार है। सब अच्छा क्माते हैं... फिर?”

“बेटा रजुआ, सब अपने-अपने काम में व्यस्त हैं। मुझे परसों बुखार आ गया था, तो मैंने बड़े लड़के से कुछ रूपये दवा के लिए मांगे, उसने दुत्कार कर भगा दिया, उससे छोटे के पास गया तो उसने भी डांट दिया, इस तरह बारी-बारी से सबने मना कर दिया। फिर मैंने सोच वहाँ रहना बेकार है, कोई किसी का नहीं इस दुखिया संसार में और मैं यहाँ मरने जंगल में चला आया... लेकिन मुई भूख!... सहन नहीं होती।” रोते-बिलखते दादा सज्जन सिंह ने रजुआ को अपनी व्यथा सुना दी ।

रजुआ फिर भी मान-मनुहार कर जबरदस्ती दादा को उनके घर छोड़ आया। चार दिन बाद पता चला दादा इस दुनिया में नहीं रहे ।

और ठीक तैरह दिनों के बाद दादा सज्जन सिंह के पांचों लड़कों ने उनका मृत्युभोज (बृह्मभोज) बारह कुन्तल आटे का किया। माल-पुआ, खीर-सब्जी बनाई गई और आसपास के सभी गाँव वालों को भरपेट खाना खिलाया गया - ताकि उनकी आत्मा तृप्त रह सके।

- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 
ग्राम रिहावली डाक तारौली, 
फतेहाबाद, आगरा, 283111