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मंगलवार, 19 मार्च 2019

लघुकथा समाचार: प्रज्ञा साहित्यिक मंच ने लघु कथा की विधा पर किए विचार साझा

Rohtak News - Bhaskar News Network Mar 19, 2019

रोहतक। शहीद दीपक पार्क में प्रज्ञा साहित्यिक मंच की ओर से सोमवार को लेखक से मिलिए कार्यक्रम का आयोजन किया गया। विचार गोष्ठी कार्यक्रम के मुख्य अतिथि दिल्ली से लेखक मधुदीप गुप्ता तथा अध्यक्ष पंचकूला से लाजपत राय गर्ग रहे। मंच का संचालन आशा खत्री ने किया। कार्यक्रम में लघुकथा विधा पर गहराई से विचार विमर्श किया गया। डॉ. मधुकांत और अनूप बंसल ने प्रज्ञा साहित्यिक मंच की तरफ से मधुदीप गुप्ता एवं लाजपत राय गर्ग को शाल व स्मृतिचिन्ह देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर श्यामलाल कौशल, डॉ. चंद्रदत्त शर्मा, डॉ. रमाकांता शर्मा, सुनीता बहल,अर्चना कोचर, विजय विभोर मौजूद रहे।


source:
https://www.bhaskar.com/haryana/rohtak/news/haryana-news-pragya39s-literary-platform-shared-views-on-the-story-of-short-stories-033608-4159137.html

पुस्तक समीक्षा । दिव्याँग जगत की 101 लघुकथाएँ । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



समाज में दिव्यांगों की दशा और दिशा का चित्रण करता लघुकथा-संग्रह

लघुकथा-संग्रह – दिव्याँग जगत की 101 लघुकथाएँ
लेखक – राजकुमार निजात
प्रकाशक – एस.एन.पब्लिकेशन
पृष्ठ – 136
कीमत – 400 /- ( सजिल्द )

अनेकता जहां भारतीय समाज की विशेषता है वहीं भेदभाव का होना इसके माथे पर कलंक जैसा है । भारतीय समाज में जाति, आर्थिकता के आधार पर ऊँच-नीच तो है ही, शारीरिक व मानसिक सक्षमता के आधार पर भी वर्ग हैं । निशक्तजन दिव्यांग कहलाते हैं। कई बार समाज दिव्यांगों के प्रति सामान्यजन जैसा व्यवहार नहीं करता । कहीं इनके प्रति घृणा है, तो कहीं सहानुभूति जबकि बहुधा दिव्यांग इन दोनों को नहीं चाहता । वो चाहता है कि उसे सामान्य पुरुष-स्त्री जैसा सम्मान दिया जाए । राजकुमार निजात जी ने समाज के दिव्यांगों के प्रति नजरिए का बड़ी बारीकी से विश्लेषण करते हुए ‘ दिव्यांग जगत की 101 लघुकथाएँ ’ नामक लघुकथा-संग्रह का सृजन किया है । इस संग्रह में समाज में दिव्यांगों की स्थिति का वर्णन तो है ही, दिव्यांगों के नजरिए से समाज को भी देखा गया है । दिव्यांगों की मनोस्थिति को भी समझा गया है । कुछ दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के कारण हीनभावना के शिकार हो जाते हैं, जबकि कुछ अपने हौसले से दिव्यांगता पर विजय पा लेते हैं । लेखक ने इन सभी स्थितियों को लघुकथाओं की कथावस्तु में पिरोया है ।

दिव्यांगता कोई गुनाह नहीं लेकिन कई बार दिव्यांग ख़ुद तो कभी उनके माँ-बाप भी इसे शाप मान बैठते हैं । विष्णु की माँ विष्णु को पिछले जन्म का दंड मानती है, हालंकि उसकी ममता उसे तुरंत संभाल लेती है । ‘ दुनियावाले ’ लघुकथा बड़ी सटीकता से समाज की सोच को दिखाती है । दिव्यांग को यहाँ भिखारी समझ लिया जाता है । समाज को इस बात का भी डर सताता रहता है कि दिव्यांग की सन्तान भी दिव्यांग न हो जाए जबकि शारीरिक दिव्यांगता के मामले में ऐसा होने का कोई कारण नहीं होता । लेखक ने ‘ आगमन ’ लघुकथा में इस सोच को निर्मूल साबित किया है । नेताओं की दिव्यांगों के प्रति दोहरी सोच को ‘ पर्दाफाश ’ लघुकथा में दिखाया गया है । ‘ उसका दर्द ’ लघुकथा दिव्यांगों के दर्द को न समझने का चित्रण करती है । अन्य दिवसों की तरह दिव्यांग दिवस की महज औपचारिकता की जाती है । ‘ दिखावे ’ लघुकथा भी बड़े लोगों की दिखावे की प्रवृति को दिखाती है, दिव्यांगों से उनकी सहानुभूति नहीं होती । ‘ सम्पूर्ण दिव्यांगता ’ में सरकारी भ्रष्टतन्त्र की दिव्यांग के प्रति असंवेदनशीलता को दिखाया गया है । ‘ आधी टिकट ’ लघुकथा सरकार की सोच पर व्यंग्य करती है ।

समाज कई बार भेदभाव करता है तो कई बार लापरवाही । दिव्यांगों, विशेषकर मानसिक दिव्यांगों को विशेष देखभाल की जरूरत होती है । ‘ निरंतर ’ लघुकथा दिव्यांग बच्चों पर माँ-बाप के विशेष ध्यान की बात करती है लेकिन लेखक ने लापरवाही को दिखाती हुई लघुकथाओं का भी सृजन किया है । मानसिक रूप से कमजोर व अस्वस्थ कपिला को उसकी माँ अकेले स्कूल भेज देती है । एक माँ खिलौने बेचने भेज देती है तो करुणा की मां रेलवे स्टेशन पर बेटी को पीछे छोड़ आती है । ‘ उसकी बेटी ’ नामक इस लघुकथा में लेखक बड़ा महत्त्वपूर्ण संदेश भी देता है कि मानसिक दिव्यांग के गले में पहचान-पत्र डाला जाना चाहिए । लेखक ने इन लापरवाहियों को बड़े हादसे में बदलते नहीं दिखाया क्योंकि समाज में अच्छे लोग भी हैं । अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के लोगों को ‘ लकवा ’ लघुकथा में बड़ी खूबसूरती से दिखाया गया है । नया चेयरमैन गीता को स्कूल से सिर्फ इसलिए निकाल देता है, क्योंकि वह दिव्यांग है लेकिन अभिभावक इसका विरोध करते हैं । समाज के अच्छे रूप को लेखक ने अनेक जगहों पर दिखाया है । ‘ भीतर से ’ लघुकथा दिखाती है कि कैसे दिव्यांग बच्चे के भीतर स्वस्थ बच्चे को पैदा किया जा सकता है । दिव्यांगों को काम करने देना चाहिए क्योंकि उन्हें काम से रोकना उनमें तनाव पैदा करता है, हीनता की ग्रन्थि को उत्पन्न करता है । उत्तर की माँ भी उसे काम करने से रोकती है, जिससे वह तनावग्रस्त होता है और इस तनाव से उसे मुक्ति तभी मिलती है जब वह चुपके से काम कर देता है । ‘ जवाब ’ लघुकथा के आवारा और आज़ाद बच्चे भी यही संदेश देते है कि दिव्यांगों को खेलने दिया जाना चाहिए ।
                     दिव्यांगों को सामन्यत: माँ-बाप का विशेष स्नेह मिलता है । लेखक ने इसे भी लघुकथाओं का विषय बनाया है । ‘ लबालब दामन ’ लघुकथा में दामिनी अपने बेटे से प्रेमपूर्वक व्यवहार करती है । व्यापक को उसके पिता छोटे बच्चों वाली पींग से झूला झुलाते हैं । माँ-बाप के अतिरिक्त समाज के अन्य लोग भी उनकी ख़ुशी के लिए और उनको आगे बढने की प्ररेणा देने के लिए कार्य करते हैं । मिंटू गोपाल की मदद से टॉप स्वीप झूले पर फिसल पाता है ।

समाज के बहुत से लोग दिव्यांगों की सेवा के लिए अपना जीवन अर्पित कर देते हैं, लेखक ने उन पर भी कलम चलाई है । डॉ. विराट दिव्यांगों की सेवा के लिए अमेरिका की प्रैक्टिस छोड़कर भारत आ जाता है । डॉ. दीप्ति सप्ताह में एक पोलियो केस का ऑप्रेशन मुफ्त करती है । डॉ. परमेश्वर दिव्यांग भाग्यलक्ष्मी से शादी करने को तैयार हो जाते हैं । समाज के साथ-साथ सरकार भी दिव्यांगों के लिए मुफ्त पास और नौकरी की व्यवस्था करती है ।

समाज के साथ-साथ दिव्यांगों की सोच और जीवन-शैली को भी इस संग्रह में दिखाया गया है । दिव्यांग होने से मानवीय गुणों में परिवर्तन नहीं आते । लेखक ने अनेक लघुकथाओं के माध्यम से दिव्यांगों में मौजूद गुणों को दिखाया है । ‘ संजीवनी ’ लघुकथा बताती है कि दिव्यांग रेवती में सेवाभाव बरकरार रहता है । ‘ समर्पित ’ लघुकथा में बताया गया है कि दिव्यांगता से समर्पण में कमी नहीं आती । दिव्यांग होने का अर्थ यह नहीं कि वे अपने कर्त्तव्य में कोताही बरतेंगे । ‘ गुहार ’ लघुकथा उनकी कर्त्तव्यनिष्ठ को दिखाती है । ‘ दिल से ’ लघुकथा में कैटरिंग वाले का कथन बहुत कुछ कहता है –
“ तुम जैसे लोग दिल से काम करते हैं । बाकी लोग तो काम के लिए काम करते हैं ।” ( पृ. – 101 )
‘ चौकसी ’ लघुकथा उनकी सतर्कता को दिखाती है । वे सबके लिए प्रार्थना करते हैं । ‘ प्रार्थना ’ लघुकथा इसी उदारता को दिखाती है । दिव्यांग कुलदीप अपने लिए मांग न करके भगवान से प्रार्थना करता है कि धर्मान्धों को सद्बुद्धि दे । दिव्यांग भी सामान्य आदमी की तरह अन्याय का विरोध करते हैं । ‘ महाकाल ’ लघुकथा में गूंगा-बहरा कर्मचारी लड़की की इज्जत लुटने से बचाता है । दिव्यांग किन्नर अन्य किन्नरों की मदद से बदमाश के चंगुल से एक दिव्यांग की जवान बहन को बचाता है । ‘ बाहुपाश ’ लघुकथा में मानसिक दिव्यांग लक्ष्मण बड़े भाई से अपनी माँ को बचाता है । दिव्यांग निवेश सर्वजन हिताय की सोच रखता है । वह अपने पिता से पूछता है कि क्या मछलियाँ भी दिव्यांग होती है और उसका प्रश्न करना उसके पिता को मछलियाँ पकड़कर बेचने की बजाए नाव बनाकर बेचने का व्यवसाय शुरू करवा देता है । एक दिव्यांग, व्यक्ति में ही नहीं पौधों की अपूर्णता पर भी द्रवित हो उठता है, यह इन्द्रानी के माध्यम से दिखाया गया है । जब कोई दिव्यांग अपनी दिव्यांगता की आड़ में समाज पर झूठा दोषारोपण करता है तो दिव्यांग ही उसकी गलतफहमी दूर करता है । शारीरिक दिव्यांग सिर्फ शरीर से दिव्यांग हैं, उनकी सोच स्वस्थ है । ‘ भरपाई ’ लघुकथा में दिव्यांग बच्चे की प्रोढ़ सोच को दिखाया गया है । ‘ न्याय दृष्टि ’ लघुकथा में दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के लिए किसी को दोषी नहीं मानता है, न माता-पिता को, न ईश्वर को । ‘ ऑफर ’ लघुकथा में शत-प्रतिशत दिव्यांग दो घंटे की देर को स्वीकार कर लेता है लेकिन वह अपने लिए आरक्षित सीट पर बैठे कैंसर मरीज को नहीं उठाना चाहता । गणेश दिव्यांग होकर भी भीतर से स्वस्थ है, तभी वह ख़ुद को मिल सकने वाली नौकरी उस युवक के लिए छोड़ देता है, जिसकी माँ दिव्यांग है और जिसके कंधों पर पाँच बहनों की जिम्मेदारी है । ऐसे दिव्यांगों का भी वर्णन है जो दिव्यांगता समाप्त हो जाने पर बस पास का प्रयोग नहीं करते । सरकारी नौकरी को इसलिए ठुकरा देते हैं कि वे इसे ख़ुद के बूते से हासिल करना चाहते हैं । वे यह नहीं चाहते कि कोई उन्हें दिव्यांग कहे –
“ लेकिन मुझे कोई लंगड़ा नहीं कहेगा । मैं पाँव से दिव्यांग ज़रूर हूँ मगर काम से लंगड़ा नहीं हूँ ।” ( पृ. – 33 )
उनमें आत्मसम्मान की भावना भी होती है । ‘ पलटवार ’ लघुकथा में दिव्यांग उन दबंगों के हाथ से पुरस्कार लेने से इंकार करता है, जिन्होंने उन्हें दिव्यांग बनाया है ।

अपनों का प्यार बड़ा महत्त्वपूर्ण है । कुबड़ा विनोद पोते का साथ पाकर अपना दर्द भुला देता है । वह अकेला भी नहीं चल पाता है, लेकिन पोते को पीठ पर बैठाकर चलता है । वे भाईचारे को भी महत्त्व देते हैं –
“ यदि हमने प्यार और भाईचारा खो दिया तो फिर हमारे पास शेष बचेगा भी क्या ? हम विशेष हैं इस संसार में । हम भीतर से स्वस्थ हैं, लेकिन अंगों से स्वस्थ नहीं हैं ।” ( पृ. – 49 )
हौसले और दृढ़ संकल्प को भी लेखक ने दिखाया है । बौने कद की शिल्पा अपने दृढ़ संकल्प से डॉक्टर बनती है । निधि को अपनी वर्किंग एनर्जी पर विश्वास है । दिव्यांग गणेश गुड लक नहीं गुड चैलेंज कहलवाना पसंद करता है । सचिन वैज्ञानिक बनकर अपनी दिव्यांगता जैसी दिव्यांगता को समाप्त करना चाहता है । विजय का हौसला उसके अनेक हाथ पैदा कर देता है । ‘ खिलाड़ी ’ लघुकथा में दिव्यांग बच्चे का खिलौने बेचकर खेलने की बात करना उसके जीवट का प्रमाण है । मेघा दिव्यांग है और मेहनत से सर्जन बनती है । वह पोलियो से लड़ने की शपथ लेती है । गणेश भी हिम्मत से काम लेता है, भले ही इसका कारण भूख है । ‘ नई परिभाषा ’ लघुकथा में दिव्यांग तैरकर न सिर्फ अपनी जान बचाता है, अपितु वह एक अन्य दिव्यांग की भी जान बचाता है ।

हिम्मत के लिए किसी-न-किसी प्ररेणा का होना आवश्यक है । लेखक ने समाज में व्याप्त उन घटनाओं और पात्रों को उभारा है जो दिव्यांगों के प्ररेणा स्रोत बनते हैं । ‘ फुल स्पीड ’ लघुकथा में दिव्यांग फिल्म के इस संवाद से प्ररेणा लेता है –
“ पाँव नहीं तो क्या हुआ, दोनों हाथ तो सलामत हैं ।” ( पृ. – 92 )
‘ मंजिल की ओर ’ लघुकथा में दिव्यांग प्रो. द्विवेदी परिंदे से प्ररेणा लेकर कहते हैं –
“ कभी थक जाओ कभी चोट खाकर गिर पड़ो या कभी जख्मी हो भी जाओ तो किसी मदद की ओर मत देखना, बस, जैसे-तैसे चल पड़ना । चल पड़ोगे तो दौड़ने की ताकत भी आ जाएगी । हमें मदद की ओर नहीं मंजिल की ओर देखना चाहिए ।” ( पृ. – 124 )
मीनू नामक बच्चा दूसरे बच्चों को देख हौसला करता है और हाथ से तिपहिया साइकिल चला लेता है । माँ भी उसे सहयोग देती है । ‘ दौड़ ’ लघुकथा में नदी का पानी विजयेन्द्र को पुन: तैरने की प्ररेणा देता है । दिव्यांगों की खेल प्रतियोगिताएँ भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं । ‘ सितारों से भी आगे ’ इसी संदेश को प्रस्तुत करती है ।

दिव्यांग समझते हैं कि उनके लिए सुविधाओं से जरूरी है उनकी सोच । ‘ समस्या ’ लघुकथा में दिव्यांग अधिवेशन का स्वागताध्यक्ष कहता है –
“ मकान हमारी बड़ी समस्या नहीं है । हमारी समस्या तो अपनी स्थिति है । हम कामना करें कि हमें भीतर से ऊर्जा मिलती रहे ताकि हमें इस स्थिति से लड़ने की ताकत मिले ।” ( पृ. – 93 )
नकारात्मक सोच से बचने की बात की गई है ‘ आत्मबल ’ लघुकथा में –
“ आत्मबल हमारी सबसे बड़ी दवाई है । हमारे लिए नेगेटिव सोचना जीवन को कमजोर बनाना है ।”  ( पृ. – 46 )

नकारात्मकता पर कई बार चाहकर भी विजय नहीं पाई जा सकती । दिव्यांगों में इसके पाये जाने के आसार रहते हैं, इसलिए लेखक ने इस पहलू को भी छुआ है । लेखक ने उन्हें उनकी हीनभावना के साथ छोड़ा नहीं, अपितु किसी-न-किसी पात्र के माध्यम से इससे बाहर निकाला है । दिव्यांग दिनेश में हीनभावना है, लेकिन महिमा उसकी हीनभावना को दूर करती है । सार्थक हीनभावना का शिकार है कि उससे शादी कौन करेगा, लेकिन उसके गुरु एक दिव्यांग लड़की जो कंप्यूटर में दक्ष है, से उसकी शादी करवा देते है, इससे उसके जीवन को सुपथ मिलता है ।

लेखक ने इस संग्रह में मानसिक और शारीरिक सभी प्रकार के दिव्यांगों को लिया है । शारीरिक दिव्यांगों में बौनापन, हाथ, पैर, कान, नाक, आँख, गूंगा-बहरा आदि सभी प्रकार के हैं । उनके दिव्यांग होने के कारणों का भी वर्णन है । कुछ जन्मजात हैं तो कुछ अन्य कारणों से दिव्यांग हुए हैं । इनमें सुभाष का हाथ चारा मशीन में आने के कारण कट जाता है । विनोद रीढ़ की हड्डी के रोग के कारण कुबड़ा हो जाता है । सचिन ए.एम.सी बीमारी से ग्रस्त है । राधिका रेलवे क्रासिंग पर रेल की चपेट में आ जाती है । ‘ पलटवार ’ में दबंग स्वस्थ व्यक्ति के हाथ काट देते हैं । ‘ उसकी रौशनी ’ लघुकथा में दिव्यांगता का जल्दबाजी के कारण हुई दुर्घटना है । दंगाई भीड़ में कुचला जाना, वैन में आग लगना, डॉक्टर की लापरवाही आदि अन्य अनेक कारण हैं ।

साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब ही नहीं होता, अपितु मार्गदर्शक भी होता है । इस लघुकथा-संग्रह को देखकर कहा जा सकता है कि लेखक इस कसौटी पर खरा उतरा है । समाज में दिव्यांगता के जितने दृश्य हो सकते हैं, लगभग उन सभी का वर्णन इस संग्रह में मिलता है । लेखक ने कोरे यथार्थ को बयां करने में विश्वास नहीं रखा, अपितु अनेक जगहों पर आदर्शवादी अंत भी किया है जो समाज को राह दिखाता है, यही इस संग्रह की विशेषता है और यही लेखक की कामयाबी है ।

- दिलबागसिंह विर्क

साभार:
https://dsvirk.blogspot.com

सोमवार, 18 मार्च 2019

लघुकथा संकलन: महिला लघुकथाकारों के लिए

महिला कथाकारों से चुनिंदा 10 बेहतरीन लघुकथाएं आमन्त्रित हैं

किताबगंज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होने वाली साझा संकलनों की महायात्रा के अंतर्गत नवीनतम साझा संकलन "बोलती लघुकथाएं" के लिए महिला लघुकथाकारों से बेहतरीन और चुनिंदा 10 लघुकथाएं सचित्र परिचय सहित ईमेल से आमन्त्रित हैं।


  • प्रत्येक महिला रचनाकार को संकलन में सिर्फ चार पृष्ठ दिए जाएंगे। संकलन में सिर्फ 25 महिला रचनाकारों को ही स्थान दिया जाएगा।
  • प्रकाशित/अप्रकाशित को कोई बंधन नहीं हैं। आप सिर्फ मौलिक तथा टाईपशुदा चुनिंदा एवं बेहतरीन 10 लघुकथाएं में से चार चयनित की जाएगी. इस हेतु अपना सचित्र परिचय नाम, जन्मतिथि, योग्यता, मोबाइल न, पता व मेल आईडी के प्रारूप सहित ही ईमेल से भिजवाएं।
  • पुस्तक के यथाशीघ्र "किताबगंज प्रकाशन" से प्रकाशित होगी।
  • सहयोगी कथाकारों को संकलन की पहली लेखकीय प्रति निःशुल्क भेजी जाएगी और उनके द्वारा इस संकलन की अन्य प्रतियां खरीदने पर 50% स्पेशल डिस्काउंट (+डाक खर्च अतिरिक्त) पर उपलब्ध कराई जाएगी ।
  • कृपया अपने चुनिंदा एवं बेहतरीन 10 लघुकथाएं निम्न ईमेल पर 25 मार्च 2019 तक भेजें.


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ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'
संपादक (बोलती लघुकथाएं)
📲: 942-407-9675
📧: opkshatriya@gmail.com
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डाॅ. प्रमोद सागर
(चेयरमैन)
किताबगंज प्रकाशन
📲: 8750-660-105
📧: kitabganj@gmail.com

लघुकथा: मधुर मिलन | किरण बरनवाल

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"ऊपर वाले ने सबको एक जैसा बनाया है, हम इंसान ही धर्म के आधार पर बंट कर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं।"
खुद से बातें करती बूढ़ी काकी कस्बे में हुए दंगे से व्यथित थी। 

जिस मोहल्ले में दिवाली की मिठाई और ईद की सेवइयों को मिल-बाँट कर खाया जाता था, वहीं की स`ड़कें आज खून के छींटों से पटी हुई है। लेकिन किसे पता था कि कौनसा छींटा हरे वाले का है, कौनसा केसरिया वालों का?


हुआ यूं था, नसीर का बेटा लापता हो गया। उसे अंतिम बार साह जी के बेटे के साथ देखा गया था। वर्ग विशेष के ठेकेदारों  ने यह अंदाजा लगवा लिया कि दोस्ती की आड़ में धर्म पर प्रहार किया गया है। फिर क्या! धार्मिक उन्माद में भला-बुरा सोचे बिना प्रतिशोध की ज्वाला जलने लगी।


बदले की भावना से हरे और केसरिये झंडे हवा की बजाय तलवार की नोक पर लहरा रहे थे। दोनों संप्रदाय एक बार फिर उन्मादी होकर एक-दूसरे के सामने आ गए कि तभी बूढ़ी काकी नसीर के बेटे को गोद में लिए बीच में आ गई, और चिल्ला कर बोली, "बच्चा खेलते हुए जंगल की तरफ चला गया और रास्ता भटक गया था। मैं ढंग से चल नहीं सकती हूँ फिर भी इसे ढूंढ कर लाई और तुम लोग... दौड़ सकते हो... लेकिन..." कहते हुए वह फफकने लगी।


तलवारों की चमक धूमिल हो गयी। तेज़ चलती हवा से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो हरे और केसरिया झंडों के बीच खड़ी काकी अपनी श्वेत धवल साड़ी के उड़ते आँचल से दोनों रंगों का मधुर मिलन करा रही हो।


किरण बरनवाल 

जमशेदपुर

लघुकथा वीडियो : वरिष्ठ लघुकथाकार शोभा रस्तोगी के साथ साहित्यिक गोष्ठी

वरिष्ठ लघुकथाकार शोभा रस्तोगी जी पेशे से शिक्षिका हैं। इनकी लघुकथा कैनवास के लिए इन्हें प्रतिलिपि लघुकथा सम्मान 2017 से सम्मानित किया गया था।


लघुकथा: मृत्युभोज | मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

रजुआ बीच जंगल में अपनी भेड़-बकरियों को टिटकारी देता हुआ चरा रहा था, कि तभी उसकी नजर सज्जन सिंह पर पड़ गयी । सज्जन सिंह को सभी गाँव वाले दादा कह कर बुलाते थे। स्वभाव से अच्छे थे इसीलिए औरत - मर्द, बूढे - बच्चे सभी बस दादा - दादा की रट लगाये रहते।

पास जाकर रजुआ ने पूछा, “दादा आज अकेले जंगल में और इतनी दूर कैसे आ गये, किसी जड़ी-बूटी की जरूरत आन पड़ी थी क्या? मुझे बोल देते, मैं ले आता।”

दादा ने रजुआ को धीरे से पलट कर देखा और धीमी आवाज में बोले, “बेटा रजुआ तू! कलेऊ लाया है क्या?  दो दिन से यहीं भूखा पड़ा हूँ, घर छोड़ आया हूँ मैं।”

रजुआ ने अपना खाना दादा की तरफ बढ़ाते हुए कहा, “लो दादा खा लो, पर ये बताओ घर क्यों छोड़ा? पाँच-पाँच बेटे हैं, भरा पूरा परिवार है। सब अच्छा क्माते हैं... फिर?”

“बेटा रजुआ, सब अपने-अपने काम में व्यस्त हैं। मुझे परसों बुखार आ गया था, तो मैंने बड़े लड़के से कुछ रूपये दवा के लिए मांगे, उसने दुत्कार कर भगा दिया, उससे छोटे के पास गया तो उसने भी डांट दिया, इस तरह बारी-बारी से सबने मना कर दिया। फिर मैंने सोच वहाँ रहना बेकार है, कोई किसी का नहीं इस दुखिया संसार में और मैं यहाँ मरने जंगल में चला आया... लेकिन मुई भूख!... सहन नहीं होती।” रोते-बिलखते दादा सज्जन सिंह ने रजुआ को अपनी व्यथा सुना दी ।

रजुआ फिर भी मान-मनुहार कर जबरदस्ती दादा को उनके घर छोड़ आया। चार दिन बाद पता चला दादा इस दुनिया में नहीं रहे ।

और ठीक तैरह दिनों के बाद दादा सज्जन सिंह के पांचों लड़कों ने उनका मृत्युभोज (बृह्मभोज) बारह कुन्तल आटे का किया। माल-पुआ, खीर-सब्जी बनाई गई और आसपास के सभी गाँव वालों को भरपेट खाना खिलाया गया - ताकि उनकी आत्मा तृप्त रह सके।

- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 
ग्राम रिहावली डाक तारौली, 
फतेहाबाद, आगरा, 283111


पुस्तक समीक्षा । हौंसलों की लघुकथाएँ । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



दिव्यांगों के जीवट को दिखाती हुई लघुकथाएँ

पुस्तक - हौंसलों की लघुकथाएँ
संपादक – राजकुमार निजात
प्रकाशन – धर्मदीप प्रकाशन
पृष्ठ - 144
कीमत – 450 /- ( सजिल्द )

साहित्य का उद्देश्य है, कि वह दबे-कुचलों की आवाज बने । सामान्यत: दिव्यांग-जन समाज की उपेक्षा का शिकार होते आए हैं । ऐसे में साहित्यकार का कर्त्तव्य है, कि वह उनको साहित्य का विषय बनाकर उनकी स्थिति में सुधार लाने का प्रयास करे । ऐसा ही प्रयास किया है, डॉ. राजकुमार निजात ने संपादित कृति “हौसलों की लघुकथाएं” द्वारा । यह कृति तीन भागों में विभक्त है । पहले भाग में आलेख हैं, दूसरे भाग में लघुकथाएँ हैं और तीसरे भाग में लघुकथाकारों का परिचय दिया गया है ।

आलेख खंड में पांच आलेख हैं । राजकुमार निजात ने अपने आलेख ‘दिव्यांग जन साहित्य में इस संकलन की यात्रा’ के द्वारा इस संकलन की स्थिति को स्पष्ट किया है । वे दिव्यांग जन के प्रति साहित्यकार के कर्त्तव्य के बारे में लिखते हैं –
“मैं समझता हूँ, दिव्यांग जन की पीड़ा को साहित्यकार अपने लेखन के माध्यम से अभिव्यक्त करें तो यह एक नई साहित्यधारा की पहल होगी ।” ( पृ. – 17 )
डॉ. सतीशराज पुष्करणा अपने आलेख ‘हिंदी लघुकथाओं में दिव्यांगता का चित्रण’ में दिव्यांग जन को लेकर साहित्य में हुए कार्य का वर्णन करते हैं । वे दृढ इच्छाशक्ति पर भरोसा करते हुए लिखते हैं –
“यदि कोई व्यक्ति जीवन में कुछ करना चाहता है, तो वह अपने आत्मबल एवं इच्छाशक्ति के बल पर कर गुजरता है । दिव्यांगता ऐसी स्थिति में आड़े नहीं आती ।” ( पृ. - 21)
डॉ. पुष्पा जमुआर अपने आलेख “दिव्यांगता के प्रति सामाजिक चेतना की दशा और दिशा” में दिव्यांगता पर लिखती हैं –
“दिव्यांगता को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है । शारीरिक दिव्यांगता, मानसिक दिव्यांगता और आध्यात्मिक दिव्यांगता । शारीरिक दिव्यांगता भी दो कारणों से होती है । प्राकृतिक और अप्राकृतिक ।” ( पृ. - 28 )
इस आलेख में वे विश्व और भारत में दिव्यांग-जन के लिए हुए कार्यों का उल्लेख करती हैं । डॉ. अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’ अपने आलेख “समाज की विकलांग सोच को बदलना जरूरी” में लिखते हैं-
“इतिहास में दिव्यांगों द्वारा किए गए कार्यों की गाथा अनेक रूपों में है । आवश्यकता है अवसर प्रदान करने की ।” ( पृ. – 37 )
वे सूरदास, मिल्टन, रूज वेल्ट के उदाहरण देते हैं । सयुंक्त राष्ट्र संघ के कार्यों और विभिन्न राज्य सरकारों के नजरिये का वर्णन करते हैं । डॉ. प्रद्युम्न भल्ला अपने आलेख “बढ़ रहा लघुकथा के कथ्यों का दायरा” में लघुकथा के बदलते विषयों का वर्णन करते हैं । वे लिखते हैं –
“पिछले कुछेक वर्षों से दिव्यांगता को लेकर भी लघुकथाकारों ने अनेक रचनाएं लिखी हैं ।” ( पृ. – 46 )

पुस्तक के दूसरे भाग में 26 लघुकथाकारों की 105 लघुकथाएं हैं, जिनमें डॉ. अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’, पारस दासोत, डॉ. मधुकांत, डॉ. राजकुमार निजात की दस-दस लघुकथाएं हैं । हरनाम शर्मा की छह; डॉ. प्रद्युम्न भल्ला, डॉ. रामकुमार घोटड, लक्ष्मी रूपल, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, सतीश राठी की पाँच-पाँच लघुकथाएँ हैं । आलोक भारती, प्रतापसिंह सोढ़ी, पुष्पलता कश्यप की तीन-तीन; डॉ. कुंवर प्रेमिल, ज्योति जैन, पुष्पा जमुआर, बी.एल. आच्छा, डॉ. भगवानसिंह भास्कर, डॉ. मिथिलेश कुमारी, डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ला, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बन्धु, संतोष श्रीवास्तव, संतोष सुपेकर, सूर्यकांत नागर, सुरेश शर्मा की दो-दो लघुकथाएँ और मंगत कुलजिंद की एक लघुकथा है ।

डॉ अब्ज की लघुकथाओं का पात्र ईश्वर में आस्था व विश्वास से जीवन की संजीवनी पाता है, दिव्यांग होकर भी अनुशासित और समय का पाबन्द है, कडक है, स्वाभिमानी है, उर्जावान है, शिष्य का पूजनीय है । एक पात्र कहता है –
“स्वाभिमानी स्वाभिमानी होता है, चाहे वह दिव्यांग ही क्यों न हो ।” ( पृ. – 54 )
वे गणतन्त्र दिवस के भीतर अपाहिज को रेंगता भी दिखाते हैं ।

आलोक भारती मंदबुद्धि को पढाने का रास्ता बताते हैं, दिव्यांग होने का कारण बताते हैं और दिव्यांग को देखकर आतंकवादी तक को दया आ जाती है । कुंअर प्रेमिल की लघुकथाएँ संकेतात्मक हैं और स्वस्थ लोगों की विकलांग सोच को दिखाती हैं । ज्योति जैन भी दहेज लोभी को ही विकलांग कहती है और उसकी पात्र पायल दिव्यांग से शादी करने को तैयार है । मैडम जब स्वस्थ थी, तब दिव्यांगों को मंच पर बुलाने से परहेज करती थी, अब खुद वह इसको भुगत रही है । प्रतापसिंह सोढ़ी दिव्यांग यात्री के हौसले और मानवता को दिखाते हैं, जिससे अन्य यात्री शर्मसार हो उठते हैं । रिंग रोड चौराहे पर हुई दुर्घटना के समय भी दिव्यांग की ललकार लोगों को फर्ज अदा करने के लिए उकसाती है । दिव्यांग की पत्नी पति का प्रेम पाकर खुद को खुशनसीब समझती है ।

डॉ. प्रद्युम्न भल्ला उस दिव्यांग सोच से बचना चाहते हैं, जिसके कारण औलाद माँ-बाप को त्याग देती है । दिवाकर जिन्दादिली से कहता है –
“नहीं...अपंगता शरीर में नहीं सोच में होती है...मेरी सोच स्वस्थ है ।” ( पृ. – 66 )
ऐसी ही स्वस्थ सोच का पात्र भीख लेने से इंकार कर देता है । अधिकारियों की दिव्यांग दिवस के नाम पर मौज मस्ती को भी दिखाया गया है ।

पारस दासोत का दिव्यांग पात्र खुद को बेचारा और दिव्यांग नहीं मानता । एक सूरदास दूसरे सूरदास को खुद को अँधा न कहने का सबक सिखाता है । मिलकर कहानी बनाने की बात कहता है । एक दिव्यांग दूसरे दिव्यांग को कंधे से कंधा मिलाकर चलने को कहता है । दिव्यांग औरत के प्रति समाज की बुरी दृष्टि को दिखाया है और दिव्यांग औरत का स्वाभिमान भी । डॉक्टर फूल के माध्यम से दिव्यांग हुए बच्चे को हौसला देता है । पुष्पलता कश्यप विकलांगता सर्टिफिकेट बनाने के भ्रष्टाचार को उजागर करती है । उसका विकलांग पात्र स्वाभिमानी है और हमदर्दी नहीं चाहता । विधवा और प्रेम विवाह को न मानने वाले चाचा जी को वे विकलांग मानती हैं । डॉ. पुष्पा जमुआर दिव्यांगों की वीरता को दिखाती है । बी.एल.आच्छा झूठा दिव्यांग सर्टिफिकेट बनाने और बनवाने को लघुकथा का विषय बनाते हैं, विकलांग यात्री की सहृदयता को दिखाकर सकलांग यात्रियों की विकलांगता को दिखाते हैं । डॉ. भगवानसिंह भास्कर दिव्यांग जनसेवक की सेवा भावना को दिखाते हैं, दिव्यांग अपनी हिम्मत से अध्यापक बनता है और अन्य दिव्यांगों के लिए प्रेरणा स्रोत बनता है ।

मधुकांत अपनी लघुकथाओं में दिव्यांगों की हिम्मत की बात करते हैं, उनकी बहादुरी को दिखाते हैं । दिव्यांग रक्तदान देकर समाज की उदारता से उऋण होता है । वे दिव्यांग बनाए जाने की बात उठाते हैं, दिव्यांग कुतिया अपने बच्चों के प्रति चिंतित है । बच्चा आँख पर पट्टी बांधकर सूरदास की पीड़ा को समझ जाता है, रेआंश लंगड़ी चिड़िया की पीड़ा को महसूस करता है । डॉ. अंजना दिव्यांग बच्ची को काम देने के साथ पढने के लिए कहती है । डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र अपनी लघुकथाओं में ऐसे साहसिक कदम की बात करती हैं, जिसमें स्वस्थ लड़की अंधे से शादी करने को तैयार है । एक पिता की ख़ुशी की सीमा नहीं रहती जब बेकार हाथों वाला बेटा पैर में पैन फंसाकर लिखना शुरू करता है । मंगत कुलजिंद अपनी एकमात्र लघुकथा में दिव्यांग के माध्यम से लंगर व्यवस्था का हाल दिखाते हैं । डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ल दिव्यांगों के प्रति आमजन के पूर्वाग्रहों को दिखाते हुए सूरदास के स्वाभिमान को दिखाते हैं । दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के कारण शातिर औरत से बच जाता है ।

राजकुमार निजात अपनी लघुकथाओं में हिम्मती और स्वाभिमानी दिव्यांगों का चित्रण करते हैं । दिव्यांग पात्र उस मेहमान से सम्मान लेने से इंकार कर देता है जो उसको दिव्यांग बनाए जाने के वक्त चुप था । उसके पात्र को लंगड़ा कहलवाना गवारा नहीं –
“लेकिन मुझे कोई लंगड़ा नहीं कहेगा । मैं पाँव से दिव्यांग जरूर हूँ, मगर काम से लंगड़ा नहीं हूँ ।” ( पृ. – 98 )
उनके पात्र ईमानदार और कर्मठ हैं, वे मिलजुल कर रहने में विश्वास रखते हैं । दिव्यांग बच्चों के प्रति माँ के स्नेह को दिखाया गया है । राजेंद्र मोहन त्रिवेदी बन्धु इलाहाबाद से कन्याकुमारी पहुंचकर थोक विक्रेता बने दिव्यांग के जीवट को दिखाते हैं । अंधा लंगड़े के स्वाभिमान को जगाता है । डॉ. रामकुमार घोटड उन दिव्यांगों का चित्रण करते हैं जो दूसरों के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा देते हैं । नेत्रदान जैसा महादान करने को तैयार हैं । दिव्यांग मिलकर धंधा करने का मन बनाते हैं । लेखक ने दिव्यांगों में हीन भावना को भी दिखाया हैं और उसे दिव्यांग के माध्यम से ही दूर करवाया है । लक्ष्मी रूपल समाज की दकियानूस सोच को भी दिखाती है और दयालु लोगों को भी । डॉ. सतीशराज पुष्करणा समाज के सहयोगी रवैये को दिखता है । दिव्यांग पात्र दूसरे दिव्यांग को देखकर आत्मविश्वास हासिल करता है । उनके पात्र स्वाभिमानी हैं, आत्मविश्वास से भरे हैं । एक पात्र कहता है –
“बाबू ! मुझे सहानुभूति नहीं, श्रम और ईमान का पैसा चाहिए ।” ( पृ. – 119 )

सतीश राठी दिव्यांग की बेबसी को दिखाते हैं । रिश्ते स्वार्थी हैं । वे विकलांगता को संकेत रूप में भी प्रस्तुत करते हैं । संतोष श्रीवास्तव आशा को दिखाती हैं, साथ ही वे अन्याय का विरोध न करने को अपंगता कहती हैं । संतोष सुपेकर का दिव्यांग पात्र खुद को बेचारा नहीं कहलवाना चाहता । वहीं वे समाज के दोहरे चेहरे को उजागर करते हैं । सूर्यकांत नागर की लघुकथाएँ संकेतात्मक हैं । सुरेश शर्मा दिव्यांग सैनिक की खुद्दारी को दिखाते हैं । हरनाम शर्मा अपनी लघुकथाओं में दिव्यांगों के लिए आरक्षित सीट पर यात्रा करने वाले को मानसिक दिव्यांग कहते हैं । दिव्यांग पिता का सच छुपाने वाले पात्र से दूसरा पात्र दूरी बना लेता है । वे पद्मश्री तारानाथ की कथा कहते हैं । रोशन अली के माध्यम से गाय का प्रसंग उठाते हैं ।

विषयों के आधार पर कहा जा सकता है, कि अधिकाँश लघुकथाएँ दिव्यांगों के जीवट को दिखाती हुई लघुकथाएँ हैं । दिव्यांगता के कारणों का जिक्र है । समाज का नजरिया दिखाया गया है । स्वस्थ समाज की दिव्यांगता को दिखाती लघुकथाएँ भी हैं । शैली के दृष्टिकोण से अलग-अलग लघुकथाकारों ने अलग-अलग शैली को अपनाया है । संवाद की प्रधानता है । अनेक लघुकथाओं में पात्रों का नामकरण नहीं किया गया । संकेतात्मक लघुकथाएँ भी हैं ।

संक्षेप में, राजकुमार निजात जी के कुशल संपादन में यह दिव्यांगों के जीवट को दिखाता उत्कृष्ट लघुकथा-संग्रह है, जिसके लिए संपादक और लेखक बधाई के पात्र हैं ।

- दिलबागसिंह विर्क

साभार:
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