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सोमवार, 18 मार्च 2019

लघुकथा संकलन: महिला लघुकथाकारों के लिए

महिला कथाकारों से चुनिंदा 10 बेहतरीन लघुकथाएं आमन्त्रित हैं

किताबगंज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होने वाली साझा संकलनों की महायात्रा के अंतर्गत नवीनतम साझा संकलन "बोलती लघुकथाएं" के लिए महिला लघुकथाकारों से बेहतरीन और चुनिंदा 10 लघुकथाएं सचित्र परिचय सहित ईमेल से आमन्त्रित हैं।


  • प्रत्येक महिला रचनाकार को संकलन में सिर्फ चार पृष्ठ दिए जाएंगे। संकलन में सिर्फ 25 महिला रचनाकारों को ही स्थान दिया जाएगा।
  • प्रकाशित/अप्रकाशित को कोई बंधन नहीं हैं। आप सिर्फ मौलिक तथा टाईपशुदा चुनिंदा एवं बेहतरीन 10 लघुकथाएं में से चार चयनित की जाएगी. इस हेतु अपना सचित्र परिचय नाम, जन्मतिथि, योग्यता, मोबाइल न, पता व मेल आईडी के प्रारूप सहित ही ईमेल से भिजवाएं।
  • पुस्तक के यथाशीघ्र "किताबगंज प्रकाशन" से प्रकाशित होगी।
  • सहयोगी कथाकारों को संकलन की पहली लेखकीय प्रति निःशुल्क भेजी जाएगी और उनके द्वारा इस संकलन की अन्य प्रतियां खरीदने पर 50% स्पेशल डिस्काउंट (+डाक खर्च अतिरिक्त) पर उपलब्ध कराई जाएगी ।
  • कृपया अपने चुनिंदा एवं बेहतरीन 10 लघुकथाएं निम्न ईमेल पर 25 मार्च 2019 तक भेजें.


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ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'
संपादक (बोलती लघुकथाएं)
📲: 942-407-9675
📧: opkshatriya@gmail.com
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डाॅ. प्रमोद सागर
(चेयरमैन)
किताबगंज प्रकाशन
📲: 8750-660-105
📧: kitabganj@gmail.com

लघुकथा: मधुर मिलन | किरण बरनवाल

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"ऊपर वाले ने सबको एक जैसा बनाया है, हम इंसान ही धर्म के आधार पर बंट कर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं।"
खुद से बातें करती बूढ़ी काकी कस्बे में हुए दंगे से व्यथित थी। 

जिस मोहल्ले में दिवाली की मिठाई और ईद की सेवइयों को मिल-बाँट कर खाया जाता था, वहीं की स`ड़कें आज खून के छींटों से पटी हुई है। लेकिन किसे पता था कि कौनसा छींटा हरे वाले का है, कौनसा केसरिया वालों का?


हुआ यूं था, नसीर का बेटा लापता हो गया। उसे अंतिम बार साह जी के बेटे के साथ देखा गया था। वर्ग विशेष के ठेकेदारों  ने यह अंदाजा लगवा लिया कि दोस्ती की आड़ में धर्म पर प्रहार किया गया है। फिर क्या! धार्मिक उन्माद में भला-बुरा सोचे बिना प्रतिशोध की ज्वाला जलने लगी।


बदले की भावना से हरे और केसरिये झंडे हवा की बजाय तलवार की नोक पर लहरा रहे थे। दोनों संप्रदाय एक बार फिर उन्मादी होकर एक-दूसरे के सामने आ गए कि तभी बूढ़ी काकी नसीर के बेटे को गोद में लिए बीच में आ गई, और चिल्ला कर बोली, "बच्चा खेलते हुए जंगल की तरफ चला गया और रास्ता भटक गया था। मैं ढंग से चल नहीं सकती हूँ फिर भी इसे ढूंढ कर लाई और तुम लोग... दौड़ सकते हो... लेकिन..." कहते हुए वह फफकने लगी।


तलवारों की चमक धूमिल हो गयी। तेज़ चलती हवा से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो हरे और केसरिया झंडों के बीच खड़ी काकी अपनी श्वेत धवल साड़ी के उड़ते आँचल से दोनों रंगों का मधुर मिलन करा रही हो।


किरण बरनवाल 

जमशेदपुर

लघुकथा वीडियो : वरिष्ठ लघुकथाकार शोभा रस्तोगी के साथ साहित्यिक गोष्ठी

वरिष्ठ लघुकथाकार शोभा रस्तोगी जी पेशे से शिक्षिका हैं। इनकी लघुकथा कैनवास के लिए इन्हें प्रतिलिपि लघुकथा सम्मान 2017 से सम्मानित किया गया था।


लघुकथा: मृत्युभोज | मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

रजुआ बीच जंगल में अपनी भेड़-बकरियों को टिटकारी देता हुआ चरा रहा था, कि तभी उसकी नजर सज्जन सिंह पर पड़ गयी । सज्जन सिंह को सभी गाँव वाले दादा कह कर बुलाते थे। स्वभाव से अच्छे थे इसीलिए औरत - मर्द, बूढे - बच्चे सभी बस दादा - दादा की रट लगाये रहते।

पास जाकर रजुआ ने पूछा, “दादा आज अकेले जंगल में और इतनी दूर कैसे आ गये, किसी जड़ी-बूटी की जरूरत आन पड़ी थी क्या? मुझे बोल देते, मैं ले आता।”

दादा ने रजुआ को धीरे से पलट कर देखा और धीमी आवाज में बोले, “बेटा रजुआ तू! कलेऊ लाया है क्या?  दो दिन से यहीं भूखा पड़ा हूँ, घर छोड़ आया हूँ मैं।”

रजुआ ने अपना खाना दादा की तरफ बढ़ाते हुए कहा, “लो दादा खा लो, पर ये बताओ घर क्यों छोड़ा? पाँच-पाँच बेटे हैं, भरा पूरा परिवार है। सब अच्छा क्माते हैं... फिर?”

“बेटा रजुआ, सब अपने-अपने काम में व्यस्त हैं। मुझे परसों बुखार आ गया था, तो मैंने बड़े लड़के से कुछ रूपये दवा के लिए मांगे, उसने दुत्कार कर भगा दिया, उससे छोटे के पास गया तो उसने भी डांट दिया, इस तरह बारी-बारी से सबने मना कर दिया। फिर मैंने सोच वहाँ रहना बेकार है, कोई किसी का नहीं इस दुखिया संसार में और मैं यहाँ मरने जंगल में चला आया... लेकिन मुई भूख!... सहन नहीं होती।” रोते-बिलखते दादा सज्जन सिंह ने रजुआ को अपनी व्यथा सुना दी ।

रजुआ फिर भी मान-मनुहार कर जबरदस्ती दादा को उनके घर छोड़ आया। चार दिन बाद पता चला दादा इस दुनिया में नहीं रहे ।

और ठीक तैरह दिनों के बाद दादा सज्जन सिंह के पांचों लड़कों ने उनका मृत्युभोज (बृह्मभोज) बारह कुन्तल आटे का किया। माल-पुआ, खीर-सब्जी बनाई गई और आसपास के सभी गाँव वालों को भरपेट खाना खिलाया गया - ताकि उनकी आत्मा तृप्त रह सके।

- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 
ग्राम रिहावली डाक तारौली, 
फतेहाबाद, आगरा, 283111


पुस्तक समीक्षा । हौंसलों की लघुकथाएँ । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



दिव्यांगों के जीवट को दिखाती हुई लघुकथाएँ

पुस्तक - हौंसलों की लघुकथाएँ
संपादक – राजकुमार निजात
प्रकाशन – धर्मदीप प्रकाशन
पृष्ठ - 144
कीमत – 450 /- ( सजिल्द )

साहित्य का उद्देश्य है, कि वह दबे-कुचलों की आवाज बने । सामान्यत: दिव्यांग-जन समाज की उपेक्षा का शिकार होते आए हैं । ऐसे में साहित्यकार का कर्त्तव्य है, कि वह उनको साहित्य का विषय बनाकर उनकी स्थिति में सुधार लाने का प्रयास करे । ऐसा ही प्रयास किया है, डॉ. राजकुमार निजात ने संपादित कृति “हौसलों की लघुकथाएं” द्वारा । यह कृति तीन भागों में विभक्त है । पहले भाग में आलेख हैं, दूसरे भाग में लघुकथाएँ हैं और तीसरे भाग में लघुकथाकारों का परिचय दिया गया है ।

आलेख खंड में पांच आलेख हैं । राजकुमार निजात ने अपने आलेख ‘दिव्यांग जन साहित्य में इस संकलन की यात्रा’ के द्वारा इस संकलन की स्थिति को स्पष्ट किया है । वे दिव्यांग जन के प्रति साहित्यकार के कर्त्तव्य के बारे में लिखते हैं –
“मैं समझता हूँ, दिव्यांग जन की पीड़ा को साहित्यकार अपने लेखन के माध्यम से अभिव्यक्त करें तो यह एक नई साहित्यधारा की पहल होगी ।” ( पृ. – 17 )
डॉ. सतीशराज पुष्करणा अपने आलेख ‘हिंदी लघुकथाओं में दिव्यांगता का चित्रण’ में दिव्यांग जन को लेकर साहित्य में हुए कार्य का वर्णन करते हैं । वे दृढ इच्छाशक्ति पर भरोसा करते हुए लिखते हैं –
“यदि कोई व्यक्ति जीवन में कुछ करना चाहता है, तो वह अपने आत्मबल एवं इच्छाशक्ति के बल पर कर गुजरता है । दिव्यांगता ऐसी स्थिति में आड़े नहीं आती ।” ( पृ. - 21)
डॉ. पुष्पा जमुआर अपने आलेख “दिव्यांगता के प्रति सामाजिक चेतना की दशा और दिशा” में दिव्यांगता पर लिखती हैं –
“दिव्यांगता को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है । शारीरिक दिव्यांगता, मानसिक दिव्यांगता और आध्यात्मिक दिव्यांगता । शारीरिक दिव्यांगता भी दो कारणों से होती है । प्राकृतिक और अप्राकृतिक ।” ( पृ. - 28 )
इस आलेख में वे विश्व और भारत में दिव्यांग-जन के लिए हुए कार्यों का उल्लेख करती हैं । डॉ. अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’ अपने आलेख “समाज की विकलांग सोच को बदलना जरूरी” में लिखते हैं-
“इतिहास में दिव्यांगों द्वारा किए गए कार्यों की गाथा अनेक रूपों में है । आवश्यकता है अवसर प्रदान करने की ।” ( पृ. – 37 )
वे सूरदास, मिल्टन, रूज वेल्ट के उदाहरण देते हैं । सयुंक्त राष्ट्र संघ के कार्यों और विभिन्न राज्य सरकारों के नजरिये का वर्णन करते हैं । डॉ. प्रद्युम्न भल्ला अपने आलेख “बढ़ रहा लघुकथा के कथ्यों का दायरा” में लघुकथा के बदलते विषयों का वर्णन करते हैं । वे लिखते हैं –
“पिछले कुछेक वर्षों से दिव्यांगता को लेकर भी लघुकथाकारों ने अनेक रचनाएं लिखी हैं ।” ( पृ. – 46 )

पुस्तक के दूसरे भाग में 26 लघुकथाकारों की 105 लघुकथाएं हैं, जिनमें डॉ. अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’, पारस दासोत, डॉ. मधुकांत, डॉ. राजकुमार निजात की दस-दस लघुकथाएं हैं । हरनाम शर्मा की छह; डॉ. प्रद्युम्न भल्ला, डॉ. रामकुमार घोटड, लक्ष्मी रूपल, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, सतीश राठी की पाँच-पाँच लघुकथाएँ हैं । आलोक भारती, प्रतापसिंह सोढ़ी, पुष्पलता कश्यप की तीन-तीन; डॉ. कुंवर प्रेमिल, ज्योति जैन, पुष्पा जमुआर, बी.एल. आच्छा, डॉ. भगवानसिंह भास्कर, डॉ. मिथिलेश कुमारी, डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ला, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बन्धु, संतोष श्रीवास्तव, संतोष सुपेकर, सूर्यकांत नागर, सुरेश शर्मा की दो-दो लघुकथाएँ और मंगत कुलजिंद की एक लघुकथा है ।

डॉ अब्ज की लघुकथाओं का पात्र ईश्वर में आस्था व विश्वास से जीवन की संजीवनी पाता है, दिव्यांग होकर भी अनुशासित और समय का पाबन्द है, कडक है, स्वाभिमानी है, उर्जावान है, शिष्य का पूजनीय है । एक पात्र कहता है –
“स्वाभिमानी स्वाभिमानी होता है, चाहे वह दिव्यांग ही क्यों न हो ।” ( पृ. – 54 )
वे गणतन्त्र दिवस के भीतर अपाहिज को रेंगता भी दिखाते हैं ।

आलोक भारती मंदबुद्धि को पढाने का रास्ता बताते हैं, दिव्यांग होने का कारण बताते हैं और दिव्यांग को देखकर आतंकवादी तक को दया आ जाती है । कुंअर प्रेमिल की लघुकथाएँ संकेतात्मक हैं और स्वस्थ लोगों की विकलांग सोच को दिखाती हैं । ज्योति जैन भी दहेज लोभी को ही विकलांग कहती है और उसकी पात्र पायल दिव्यांग से शादी करने को तैयार है । मैडम जब स्वस्थ थी, तब दिव्यांगों को मंच पर बुलाने से परहेज करती थी, अब खुद वह इसको भुगत रही है । प्रतापसिंह सोढ़ी दिव्यांग यात्री के हौसले और मानवता को दिखाते हैं, जिससे अन्य यात्री शर्मसार हो उठते हैं । रिंग रोड चौराहे पर हुई दुर्घटना के समय भी दिव्यांग की ललकार लोगों को फर्ज अदा करने के लिए उकसाती है । दिव्यांग की पत्नी पति का प्रेम पाकर खुद को खुशनसीब समझती है ।

डॉ. प्रद्युम्न भल्ला उस दिव्यांग सोच से बचना चाहते हैं, जिसके कारण औलाद माँ-बाप को त्याग देती है । दिवाकर जिन्दादिली से कहता है –
“नहीं...अपंगता शरीर में नहीं सोच में होती है...मेरी सोच स्वस्थ है ।” ( पृ. – 66 )
ऐसी ही स्वस्थ सोच का पात्र भीख लेने से इंकार कर देता है । अधिकारियों की दिव्यांग दिवस के नाम पर मौज मस्ती को भी दिखाया गया है ।

पारस दासोत का दिव्यांग पात्र खुद को बेचारा और दिव्यांग नहीं मानता । एक सूरदास दूसरे सूरदास को खुद को अँधा न कहने का सबक सिखाता है । मिलकर कहानी बनाने की बात कहता है । एक दिव्यांग दूसरे दिव्यांग को कंधे से कंधा मिलाकर चलने को कहता है । दिव्यांग औरत के प्रति समाज की बुरी दृष्टि को दिखाया है और दिव्यांग औरत का स्वाभिमान भी । डॉक्टर फूल के माध्यम से दिव्यांग हुए बच्चे को हौसला देता है । पुष्पलता कश्यप विकलांगता सर्टिफिकेट बनाने के भ्रष्टाचार को उजागर करती है । उसका विकलांग पात्र स्वाभिमानी है और हमदर्दी नहीं चाहता । विधवा और प्रेम विवाह को न मानने वाले चाचा जी को वे विकलांग मानती हैं । डॉ. पुष्पा जमुआर दिव्यांगों की वीरता को दिखाती है । बी.एल.आच्छा झूठा दिव्यांग सर्टिफिकेट बनाने और बनवाने को लघुकथा का विषय बनाते हैं, विकलांग यात्री की सहृदयता को दिखाकर सकलांग यात्रियों की विकलांगता को दिखाते हैं । डॉ. भगवानसिंह भास्कर दिव्यांग जनसेवक की सेवा भावना को दिखाते हैं, दिव्यांग अपनी हिम्मत से अध्यापक बनता है और अन्य दिव्यांगों के लिए प्रेरणा स्रोत बनता है ।

मधुकांत अपनी लघुकथाओं में दिव्यांगों की हिम्मत की बात करते हैं, उनकी बहादुरी को दिखाते हैं । दिव्यांग रक्तदान देकर समाज की उदारता से उऋण होता है । वे दिव्यांग बनाए जाने की बात उठाते हैं, दिव्यांग कुतिया अपने बच्चों के प्रति चिंतित है । बच्चा आँख पर पट्टी बांधकर सूरदास की पीड़ा को समझ जाता है, रेआंश लंगड़ी चिड़िया की पीड़ा को महसूस करता है । डॉ. अंजना दिव्यांग बच्ची को काम देने के साथ पढने के लिए कहती है । डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र अपनी लघुकथाओं में ऐसे साहसिक कदम की बात करती हैं, जिसमें स्वस्थ लड़की अंधे से शादी करने को तैयार है । एक पिता की ख़ुशी की सीमा नहीं रहती जब बेकार हाथों वाला बेटा पैर में पैन फंसाकर लिखना शुरू करता है । मंगत कुलजिंद अपनी एकमात्र लघुकथा में दिव्यांग के माध्यम से लंगर व्यवस्था का हाल दिखाते हैं । डॉ. योगेन्द्रनाथ शुक्ल दिव्यांगों के प्रति आमजन के पूर्वाग्रहों को दिखाते हुए सूरदास के स्वाभिमान को दिखाते हैं । दिव्यांग अपनी दिव्यांगता के कारण शातिर औरत से बच जाता है ।

राजकुमार निजात अपनी लघुकथाओं में हिम्मती और स्वाभिमानी दिव्यांगों का चित्रण करते हैं । दिव्यांग पात्र उस मेहमान से सम्मान लेने से इंकार कर देता है जो उसको दिव्यांग बनाए जाने के वक्त चुप था । उसके पात्र को लंगड़ा कहलवाना गवारा नहीं –
“लेकिन मुझे कोई लंगड़ा नहीं कहेगा । मैं पाँव से दिव्यांग जरूर हूँ, मगर काम से लंगड़ा नहीं हूँ ।” ( पृ. – 98 )
उनके पात्र ईमानदार और कर्मठ हैं, वे मिलजुल कर रहने में विश्वास रखते हैं । दिव्यांग बच्चों के प्रति माँ के स्नेह को दिखाया गया है । राजेंद्र मोहन त्रिवेदी बन्धु इलाहाबाद से कन्याकुमारी पहुंचकर थोक विक्रेता बने दिव्यांग के जीवट को दिखाते हैं । अंधा लंगड़े के स्वाभिमान को जगाता है । डॉ. रामकुमार घोटड उन दिव्यांगों का चित्रण करते हैं जो दूसरों के लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगा देते हैं । नेत्रदान जैसा महादान करने को तैयार हैं । दिव्यांग मिलकर धंधा करने का मन बनाते हैं । लेखक ने दिव्यांगों में हीन भावना को भी दिखाया हैं और उसे दिव्यांग के माध्यम से ही दूर करवाया है । लक्ष्मी रूपल समाज की दकियानूस सोच को भी दिखाती है और दयालु लोगों को भी । डॉ. सतीशराज पुष्करणा समाज के सहयोगी रवैये को दिखता है । दिव्यांग पात्र दूसरे दिव्यांग को देखकर आत्मविश्वास हासिल करता है । उनके पात्र स्वाभिमानी हैं, आत्मविश्वास से भरे हैं । एक पात्र कहता है –
“बाबू ! मुझे सहानुभूति नहीं, श्रम और ईमान का पैसा चाहिए ।” ( पृ. – 119 )

सतीश राठी दिव्यांग की बेबसी को दिखाते हैं । रिश्ते स्वार्थी हैं । वे विकलांगता को संकेत रूप में भी प्रस्तुत करते हैं । संतोष श्रीवास्तव आशा को दिखाती हैं, साथ ही वे अन्याय का विरोध न करने को अपंगता कहती हैं । संतोष सुपेकर का दिव्यांग पात्र खुद को बेचारा नहीं कहलवाना चाहता । वहीं वे समाज के दोहरे चेहरे को उजागर करते हैं । सूर्यकांत नागर की लघुकथाएँ संकेतात्मक हैं । सुरेश शर्मा दिव्यांग सैनिक की खुद्दारी को दिखाते हैं । हरनाम शर्मा अपनी लघुकथाओं में दिव्यांगों के लिए आरक्षित सीट पर यात्रा करने वाले को मानसिक दिव्यांग कहते हैं । दिव्यांग पिता का सच छुपाने वाले पात्र से दूसरा पात्र दूरी बना लेता है । वे पद्मश्री तारानाथ की कथा कहते हैं । रोशन अली के माध्यम से गाय का प्रसंग उठाते हैं ।

विषयों के आधार पर कहा जा सकता है, कि अधिकाँश लघुकथाएँ दिव्यांगों के जीवट को दिखाती हुई लघुकथाएँ हैं । दिव्यांगता के कारणों का जिक्र है । समाज का नजरिया दिखाया गया है । स्वस्थ समाज की दिव्यांगता को दिखाती लघुकथाएँ भी हैं । शैली के दृष्टिकोण से अलग-अलग लघुकथाकारों ने अलग-अलग शैली को अपनाया है । संवाद की प्रधानता है । अनेक लघुकथाओं में पात्रों का नामकरण नहीं किया गया । संकेतात्मक लघुकथाएँ भी हैं ।

संक्षेप में, राजकुमार निजात जी के कुशल संपादन में यह दिव्यांगों के जीवट को दिखाता उत्कृष्ट लघुकथा-संग्रह है, जिसके लिए संपादक और लेखक बधाई के पात्र हैं ।

- दिलबागसिंह विर्क

साभार:
https://dsvirk.blogspot.com

रविवार, 17 मार्च 2019

लघुकथा वीडियो : लिखे जो ख़त तुझे | अर्विना गहलोत | आरजे अमित वधवा

लघुकथा - लिखे जो ख़त तुझे - कहानी एक अलग दृष्टिकोण को दिखाती है जो ख़त लिखने वालों, ख़त पढने वालों से अलग ख़त पहुँचाने वाले की ज़िन्दगी और .... और किस छिपे हुए भाव के बारे में है.. जानने के लिए सुनिए , लिखे जो ख़त तुझे । - आरजे अमित वधवा


पुस्तक समीक्षा । हरियाणा की बाल-लघुकथा । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क



बालमन के विविध पहलुओं को उद्घाटित करता लघुकथा-संग्रह

लघुकथा-संग्रह - हरियाणा की बल लघुकथाएँ
संपादक - डॉ. राजकुमार निजात
प्रकाशक - एस.एन.पब्लिकेशन
पृष्ठ - 176
कीमत - 550 / - ( सजिल्द )

बच्चों को ईश्वर का रूप कहा जाता है, क्योंकि वे बड़े भोले और साफ़-दिल होते हैं । बालमन को समझने के लिए बड़ी पारखी नजर की जरूरत होती है । “हरियाणा की बाल-लघुकथा ” एक ऐसा लघुकथा-संग्रह है, जिसमें एक-दो नहीं, अपितु ऐसे बाईस पारखी लघुकथाकार शामिल हैं, जिन्होंने बालमन का बड़ी बारीकी से विश्लेषण किया है और बड़ी सटीकता से इसको ब्यान किया है । इन लघुकथाकारों का संबंध भले ही हरियाणा से है, लेकिन इनकी ख्याति वहां तक फैली हुई है, जहाँ तक लघुकथा की ख्याति है । इन लब्धप्रतिष्ठ लघुकथाकारों को एक विषय पर एक साथ लाने का महत्ती कार्य किया है राजकुमार निजात जी ने ।

इस संग्रह को तीन भागों में बांटा गया है । प्रथम खंड में 21 लघुकथाकारों की  लघुकथाएं हैं, दूसरे खंड में संपादक राजकुमार निजात की चालीस लघुकथाएँ हैं । तीसरे खंड में सभी लघुकथाकारों का परिचय है । पहला और दूसरा खंड दो संकलनों का आभास देता है, क्योंकि दोनों की भूमिका अलग-अलग है । पहले खंड से पूर्व राजकुमार निजात का संपादकीय और माधवराज सप्रे का आलेख है, जबकि दूसरे खंड से पूर्व हरनाम शर्मा का आलेख है ।

प्रथम खंड में 21 लघुकथाकारों की 92 लघुकथाएं हैं, जिनमे 22 प्रो. अशोक भाटिया जी की हैं । डॉ. मधुकांत जी 9, प्रो. रूप देवगुण, डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल, डॉ. शील कौशिक और नवलसिंह की 5-5 लघुकथाएँ, डॉ. कृष्णलता यादव और डॉ. आरती बंसल की 4-4, प्रो. जितेन्द्र सूद, प्रो. इंदिरा खुराना, हरनाम शर्मा, डॉ. मुक्ता, डॉ. कमलेश भारतीय, डॉ. उषा लाल, सुरेखा शर्मा और डॉ. अनिलकुमार गोयल सवेरा जी की 3-3, डॉ. रामनिवास मानव, सत्यप्रकाश भारद्वाज, डॉ. अनिल शूर आज़ाद और रघुविन्द्र यादव की 2-2 और डॉ. सुरेन्द्र गुप्त जी की एक लघुकथा शामिल है ।

प्रो. जितेन्द्र सूद ने समाज के बालमन पर पड़ते हुए प्रभाव को रेखांकित करते हुए ‘यह गीत न गाना’ और ‘मैं फिर यह न देखूँ’ लघुकथाएँ लिखी हैं । दहेज़ के कारण जलाई जाने वाली दुल्हनों की बात सुनकर गुडिया कह उठती है –
“मैं कभी दुल्हन नहीं बनूंगी, दादी ।” ( पृ. – 38 )

इसी प्रकार पुवी जीवहत्या को देख दहल जाती है । बंतो भेड़िया बने पिता की हवस की शिकार पात्रा है, लेकिन वह छोटी बहन संतो को बचा लेती है । तीनों लघुकथाएँ मार्मिक अंत लिए हुए हैं । आकार में लघु होते भी लेखक इनमें वातावरण चित्रण करने में सफल रहता है –
“पिंजौर का बाग़ प्रकृति और मानव द्वारा निर्मित मनोहर रंगशाला है ।” ( पृ. -39 )
वह महत्त्वपूर्ण सूक्तियां भी कहता है, यथा –
“व्यक्ति कहीं भी चला जाए, उसका घर-परिवार उसे निरंतर पुकारता रहता है।” ( पृ. - 40 )

डॉ. सुरेन्द्र गुप्त की एकमात्र लघुकथा ‘माँ...मैंने ही खाए थे काजू’ आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई है, हालाँकि इसमें मैं पात्र का नामकरण नहीं है, लेकिन यह बालमन को बड़ी बखूबी से ब्यान करती है । जिस काम पर प्रतिबन्ध हो, बच्चे उस काम को करने के लिए लालायित रहते हैं, फिर बात जब खान-पीन की हो, तो यह प्रवृति बढ़ जाती है । मैं पात्र भी चोरी से काजू खाता है, लेकिन भाई को पिटते देख सच उगल देता है । वास्तव में बच्चे ऐसे ही तो होते हैं ।

प्रो. इंदिरा खुराना की लघुकथाएँ बताती हैं, कि बच्चे स्टेट्स नहीं देखते, प्यार देखते हैं । ‘स्टेट्स का फर्क’ और ‘इंसानी पिल्ला’, दोनों लघुकथाओं में बच्चा माँ को आईना दिखाता है । ‘सामाजिक सरोकार’ में बच्चा मजबूरीवश बैग चुराता है, जो समाज के कुरूप चेहरे को दिखाता है । इस लघुकथा का अंत आदर्शात्मक है ।

प्रो. रूप देवगुण की लघुकथाएँ बच्चों के प्रेमिल स्वभाव को भी दिखाती हैं और हालातों का सटीक चित्रण भी करती हैं । पुलिया दादी से दरवाजा खुलवा लेती है, जबकि अब्बू अपनी जेब खर्ची से चाची के लिए सूट, चूडियां आदि लाने की बात करता है । बच्चे जब प्यार करते हैं तो वह आदमी-जानवर का फर्क नहीं जानते । रिशु का यह कहना –
“ले तो आओगे नया पिल्ला पर वह टफी तो नहीं होगा ।”  ( पृ. – 50 )
यहाँ रिशु का टफी के प्रति प्रेम दिखाता है, वहीं बालमन का सजीव चित्र भी प्रस्तुत करता है । ‘नदारद’ लघुकथा बताती है, कि पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद बच्चे कैसे परिपक्व हो जाते हैं । ‘तो दिशु ऐसे कहता’ घर के बंटवारे का बालमन पर प्रभाव रेखांकित करती हुई लघुकथा है ।

मधुकांत जिन्न और सैंटा क्लॉज़ जैसे पात्रों के माध्यम से बच्चों पर होमवर्क का बोझ और माँ की फ़िक्र को दिखाते हैं । सैंटा क्लॉज़ का कथानक ईमानदार लकडहारे से प्रभावित लगता है जबकि ईदी का कथानक प्रेमचन्द की कहानी ईदगाह से । ईदी लघुकथा में साबिया ईदी के दस रूपये खाने पर न खर्च कर भाई के लिए खिलौना खरीदती है । गांधी लघुकथा अपना काम स्वयं करने और सफाई का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए भंगी शब्द की नई परिभाषा भी गढ़ती है –
“भंगी तो गंदगी फैलाने वाला होता है ।” ( पृ. – 54 )
सफाई विषय को लेकर ही एक अन्य लघुकथा ‘विद्या-मन्दिर’ है । बालक का तर्क पिता को अनुत्तरित कर देता है । मेरा विद्यालय और मेरा अध्यापक निबन्ध लिखवाकर लेखक ने आदर्श और वास्तविकता के अंतर को दिखाया है । वहीँ प्यासा बचपन की अध्यापिका आदर्श अध्यापिका है । बच्चे प्यार न मिलने के कारण ही स्कूल से घबराते हैं, इस संदेश को लेखक ने बड़ी सरलता से बयाँ किया है । ‘प्यासा बचपन’ लघुकथा आत्मकथात्मक शैली की लघुकथा है, लेकिन इसमें मैं पात्र का नामकरण नहीं किया गया । पारो छोटे मुंह से बड़ी बात करके दादी को हैरान कर देती है ।

हरनाम शर्मा की लघुकथाएँ बच्चों के भीतर मौजूद संवेदना को उद्घाटित करती हैं । नेहा गाय का दर्द नहीं देख पाती, जबकि सेठ का पोता उस मजदूर को पानी पिलाता है जिसकी उसका दादा उपेक्षा करता है । ‘आदमी और आदमी’ लघुकथा का अंत इस व्यंग्योक्ति से किया गया है –
“साहब, कुछ देर के लिए आप ही आदमी हो जाते ।” ( पृ. – 62 )
‘अधिकार’ लघुकथा में जहाँ बालक की मासूमियत दिखाई गई है, वहीं एक बुजुर्ग की भलमनसाहत भी दिखाई है । लघुकथा का आरंभ भी बड़ा आकर्षक है –
“अति प्रतिष्ठित बस्ती की वह अति सुंदर बाल-वाटिका थी । तरू-पल्लवों की ताज़गी तथा विभिन्न पुष्पों की सुगंध से युक्त मंद समीर धीरे-धीरे बह रही थी ।” ( पृ. – 60 )

डॉ. मुक्ता की लघुकथा ‘गुफ्तगू’ दुनियादारी का सच दिखाती लघुकथा है, लेकिन थोड़ी कम विश्वसनीय है, क्योंकि चोर कभी चोरी की वस्तु लौटाने नहीं जाता और लौटाने वाले को ही चोर समझने वाले कम ही होंगे । ‘सीमा रेखा’ लघुकथा में बच्चे के मन में उठते प्रश्न को उठाया गया है –
“जब भगवान ने सबको एक समान बनाया है तो यह अमीर-गरीब की सीमा रेखा क्यों ?” ( पृ. – 64 )
तीसरी लघुकथा में मैं पात्र की बेटी गरीब बच्चों को देखकर प्रश्न उठाती है । तीनों लघुकथाएँ गरीब वर्ग के बच्चों से संबंधित हैं और उनकी मजबूरियों का सटीक चित्रण करती हैं ।

कमलेश भारतीय की लघुकथा ‘कसक’ पिता से दूर रहते बच्चे की कसक को बड़ी सटीकता से ब्यान करती है । ‘स्वाभिमान’ लघुकथा बच्चे के स्वाभिमान को दिखाती है, जो काम करके कमाता है, मदद लेना उसे स्वीकार्य नहीं । ‘चुभन’ लघुकथा बाल सुलभ ईर्ष्या को दिखाती है ।

बच्चों को हमेशा ये लगता है कि दूसरे को ज्यादा हिस्सा दिया गया है और उन्हें कम, यही दिखाया है रामनिवास मानव ने अपनी लघुकथा ‘कथनी-करनी’ में, जबकि दूसरी लघुकथा में मैं पात्र बच्चों को खेलते देखकर महसूस करता है कि सृष्टि का नियंता भी कोई बच्चा ही है । लेखक ने बच्चों के तोतले शब्दों का प्रयोग कर भाषा को सजीव बनाया है ।

बच्चों को अक्सर उनके लिंग के अनुसार कार्य बांटे जाते हैं, लेकिन आजकल के बच्चे इस भेदभाव से ऊपर उठकर सब कार्य करना चाहते हैं, उन्हें सब कार्य करने भी चाहिए । घमंडीलाल अग्रवाल की लघुकथा ‘जीने के लिए’ यही संदेश देती है । ‘गति और क्षति’ लघुकथा में लेखक ने गिलहरी के माध्यम से महत्त्वपूर्ण संदेश दिया है –
“आवश्यकता से अधिक खाद्य-पदार्थ ग्रहण करना अथवा नष्ट करना बुरी बात होती है ।” ( पृ. -72 )
‘योजना’ लघुकथा योजनाबद्ध तरीके से पढाई करने का उपदेश देती है, ‘निश्चय’ लघुकथा में चिड़िया के माध्यम से निरर्थक घूमने-फिरने को व्यर्थ बताया गया है । ‘उपहास’ लघुकथा में गुलाब को नकचढ़ा दिखाया गया है । सभी लघुकथाओं के अंत में सीख दी गई है, यथा –
“दूसरों का उपहास करना हमेशा हानिकारक होता है ।” ( पृ. -74 )

प्रो. अशोक भाटिया की इस संग्रह में 22 लघुकथाएँ हैं और एक को छोड़कर शेष सभी शीर्षक विहीन हैं । लेखक ने प्रतीकात्मक शैली को अपनाया है । ये लघुकथाएँ तीन भागों में हैं । पहले भाग में सपना और सात लघुकथाएँ हैं । पहली लघुकथा में एक तरफ चिड़िया है, एक तरफ बच्चा है । दोनों के क्रियाकलाप और बच्चे की आकांक्षा बच्चों पर पढ़ाई के बोझ का ब्यान करती है । भव्या, मिंकू, रिंकू, चिंटू, सुशील, छोटे के क्रियाकलाप से बच्चों के मन को समझने का प्रयास किया गया है । लेखक के सभी पात्र तोतले हैं अर्थात उनकी आयु छोटी है । लेखक ने बच्चे और माँ की बात करने की बजाए बच्चे और उसकी चाची की बात की है, जो लुप्त हो रहे सांझे परिवारों के दौर में बड़ी संकेतात्मक बात है । दूसरी सात लघुकथाओं में बच्चों में माँ-बाप के दूसरे बच्चे या खिलौने से प्यार करने पर उत्पन्न होने वाले ईर्ष्या भाव को दिखाया है । वे प्यार के बदले प्यार देते हैं । बच्चे चालाक भी होते हैं । तीसरी सात लघुकथाओं में दूसरे भाग से बड़े बच्चों की लघुकथाएँ हैं । इसमें ज्यादातर बच्चे स्कूल जाने वाले हैं और पढ़ाई इन लघुकथाओं का विषय है । बच्चे मासूम भी हैं और उनकी हाजिर जवाबी और तेज तर्रारी सामने वाले को शर्मिंदा भी करती है । बच्चों को शिशुवस्था में दिखाया डर देर तक कायम रहता है । लेखक ने उसी प्रकार की खिचड़ी भाषा का प्रयोग किया है, जैसी कि बच्चे करते हैं –
“मेरा होम-वर्क बिलकुल ठीक था । यह नया होमवर्क ‘रब’ कर दो ।” ( पृ. – 87 )
लेखक ने लघुकथाओं के अंत में बच्चे की बात का दूसरे पर प्रभाव भी दिखाया है और बच्चे पर भी । कुछ अंत कथा का निचोड़ भी हैं, यथा –
“वह दुनिया का सबसे सुंदर, सबसे सुगन्धित फूल था ।” ( पृ. – 83 )

उषालाल की लघुकथाएँ बताती हैं कि बच्चे भोले भी होते हैं और बात को मन पर भी लगा लेते हैं । ऋषभ भोले बच्चों का प्रतिनिधित्व करता है, तो गगन पिता की बात को दिल पर लगाकर दृढ निश्चय करता है और सफल होता है । मुग्धा के माध्यम से लेखिका बताती है कि बच्चे जो सुनते हैं, वही कह देते हैं ।

सत्यप्रकाश भारद्वाज की लघुकथा ‘सवेरा’ स्वाभिमानी बालक की कथा है, जो न सिर्फ खुद भीख मांगने का काम छोड़ता है, अपितु अपने बाबा से भी यह काम छुडवा लेता है । ‘विषैला’ लघुकथा में मच्छर मारने के प्रसंग को लेकर लेखक व्यंग्य कसता है –
“तो क्या आदमी मच्छर से भी विषैला है ।” ( पृ. – 93 )

डॉ. कृष्णलता यादव पक्षियों के माध्यम से मानवता का संदेश देती हैं, खरबूजों के माध्यम से नकलीपन से बचने का संदेश देती हैं । सतीश का बेटा नैतिक शिक्षा की पुस्तक के माध्यम से पिता को सीधी राह पर लाता है, जबकि अखिल के कृत्य उसके बेटे को भी अच्छे कृत्य करने का इरादा देते हैं ।

सुरेखा शर्मा पूजा के नाम पर होते ढोंग को दिखाती हैं । शिवा एक परोपकारी बालक है । रानी मास्टरनी जी की सलाह पर पटाखे न चलाने की बात करती है, लेकिन कहानी की पहली पंक्ति में वह पटाखे खरीदना चाहती है, इस प्रकार कथ्य विरोधाभासी है ।

डॉ. शील कौशिक ने दो बच्चियों के माध्यम से बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में छोड़े जाने के उन पर पड़ने वाले प्रभाव को दिखाया है, वहीं दो बहनों के माध्यम से बच्चों की निश्च्छलता को दिखाया है । टिंकू अपनी मासूमियत के कारण परीक्षा में वो नहीं लिखता जो उसे याद करवाया गया है, अपितु वो लिखता है जो घर में होता है । इस लघुकथा के माध्यम से लेखिका ने कामकाजी महिलाओं की विवशता भी दिखाई है । नए स्कूल में परायापन महसूस करना, एक सामान्य बात है; लेखिका ने इसे ‘मुझसे दोस्ती करोगी’ में दिखाया है, साथ ही संदेश दिया है कि बच्चे सहजता से दोस्त बन जाते हैं । दादी-पोती लघुकथा भी पोती की मासूमियतता को दिखाती है ।

डॉ. अनिलकुमार गोयल ‘सवेरा’ जी की लघुकथाएँ स्कूल पर केन्द्रित हैं । पहली दो लघुकथाएँ सफाई पर हैं, जबकि तीसरी लघुकथा में पतंग उड़ाने के माध्यम से दोस्ती का संदेश दिया गया है ।

डॉ. अनिल शूर आज़ाद ने बाल मनोविज्ञान पर आधारित ‘डर’ लघुकथा लिखी है तो ‘डंडा’ लघुकथा घर के माहौल का बच्चे पर प्रभाव दिखाती है । रघुविन्द्र यादव अपनी लघुकथाओं में बच्चों के भोलेपन के साथ उनकी अच्छाई को उद्घाटित करते हैं ।

डॉ. आरती बंसल की लघुकथाओं में दो तरह के अमीर लोगों का वर्णन है । पहले जो कुत्तों को तो गुलगुले खिला सकते हैं, मगर गरीब बच्चों को नहीं । दूसरी तरफ ऐसी मालकिन भी है जो नौकरानी की बेटी को स्कूल दाखिल करवाती है । रिभव उन बच्चों का प्रतिनिधि है, जो सच्ची बात मुंह पर कह देते हैं । लेखिका ने बातूनी बालकों के पालन-पोषण की विधि भी बताई है । आदिक अच्छे संस्कारों वाला बालक है, जो दूसरों को भी प्रेरित करता है ।

नवलसिंह बच्चों की पारखी नज़र को ‘बड़ी सीख’ लघुकथा में दिखाते हैं । ‘रात और सपने’ लघुकथा में बच्चों के नए-नए सवाल पूछने की प्रवृति को दिखाया गया है । अन्य लघुकथाएँ बताती हैं, कि बच्चे बड़ों से हमदर्दी भी रखते हैं और प्यार भी करते हैं । उनका मन साफ़ होता है ।

पुस्तक का दूसरा भाग डॉ. राजकुमार निजात जी लघुकथाओं पर केन्द्रित है । इसमें ओस नामक लड़की पात्र को लेकर 40 लघुकथाएँ लिखी गई हैं । पिता-बेटी का संवाद कथा को कहने का सशक्त माध्यम बना है । ये सभी लघुकथाएँ यहाँ अलग-अलग वजूद रखती हैं, वहीं समग्र रूप से ओस के विविध पहलुओं को दिखाती हुई एक लघु आख्यान का आभास भी देती हैं । ओस को चार साल से सात वर्ष तक दिखाया गया है । लेखक लिखता है –
“ओस बहुत छोटी है । चार साल की नन्हीं बच्ची । वह तो सुबह की ओस की भांति एक नन्हीं ओस है ।” ( पृ. – 132 )
ओस की अध्यापिका कहती है –
“ओस जो कुछ भी करती है, वह भीतर से स्वाभाविक रूप से ही करती है । वह विलक्षण है । वह जहां भी जाती है, सब कुछ जगमग-जगमग हो जाता है ।” ( पृ. – 144 )
लेखक ने ओस के चरित्र के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया गया है । वह बहुत अच्छी चित्रकार है । वह हर देखी, सुनी चीज का चित्र बना देती है, जिसमें बादल, वर्षा, कार्टून, पहाड़, बारिश आदि के चित्र हैं । वह कविता भी लिख लेती है । वह आशावादी है । वह जो देखती है, वही करना चाहती है । वह सबकी दोस्त है, सब उसके दोस्त हैं । पुरानी बातों को याद रखती है और उन्हें नए सन्दर्भों के साथ जोड़ लेती है । वह अपना काम खुद करने में विश्वास रखती है और दूसरों की मदद भी करती है । वह दयालु है । दोस्त को बीमार देखकर विचलित हो उठती है । वह दूसरों के दर्द को समझती है –
“मुझे लगा, उसने मेरे दर्द को अपने भीतर तक महसूस किया, मेरी ही तरह ।” ( पृ. – 136 )
बाल भिखारी उसकी मन:स्थिति को झिंझोड़ देता है । गणेश की गर्दन काटने के कारण वह भगवान शिव से नाराज है । उसका दया भाव कुत्ते के लिए भी है । वह चिड़ियों से बातें करती है । स्कूल वह पैदल ही जाना पसंद करती है । वह और उसके दोस्त टोली बनाकर स्कूल जाते हैं । स्कूल उसका नया संसार है । वह सबक जल्दी सीखती है और सीखी हुई बातें दूसरों को भी बताती है । वह जिज्ञासु है, प्रश्न पूछती रहती है । जहाँ का अर्थ समझकर ‘सारे जहाँ से अच्छा गीत’ को बड़े विश्वास के साथ गाती है । वह रावण को मारना चाहती है । आसमान में सैर करना चाहती है, पहाड़ देखना चाहती है, नदियों में नहाना चाहती है । उसके पापा उसे कहते हैं कि वह फूल जैसी है, उसके चेहरे पर सारे फूलों के रंग उतर आए हैं । लेखक को लगता है कि वह पिछले जन्म में फूल रही होगी । उसके पिता जी उसे ईमानदार, जिम्मेदार और सच्चा नागरिक बनाना चाहते हैं । वे उसे कुछ सच बताते हैं तो कुछ सच छुपा भी लेते हैं ताकि बालमन को कुरूप दुनिया न दिखे । एक बेटी जैसे तोहफे लेकर खुश होती है, वैसे ही पिता तोहफे देकर खुश होते हैं । पिता जी बेटी से प्रेरणा भी लेते हैं कि एकांत बाहर नहीं मिलता, अपितु यह मन की स्थिति है ।

लेखक ने ओस के माध्यम से यह बताया है कि बच्चे भरपूर खाते, खेलते, पढ़ते हैं अर्थात भरपूर जीते हैं । बच्चे गिरने पर कब रोते हैं, कब नहीं रोते इस मनोविज्ञान को उद्घाटित किया गया है । लेखक ने अनेक जगहों पर काव्यात्मक भाषा का प्रयोग किया है –
“उसने कमल के फूलों को जी भरकर निहारा और फिर आसमान की और देखकर कमल हो उठी ।” ( पृ. – 150 )

संक्षेप में, यह संकलन बालकों को समझने का एक अनूठा प्रयास है । बाल मन की विविध स्थितियों को विभिन्न लेखकों ने अलग-अलग नजरिये से देखा है । इस संग्रह से गुजरते समय बालकों के विविध रूप आँखों के सामने तैरने लगते हैं, जो इस संग्रह की सफलता का सूचक है । डॉ. निजात जी इस संग्रह के संपादन के लिए बधाई के पात्र हैं ।

- दिलबागसिंह विर्क

Source:
http://dsvirk.blogspot.com/2019/01/blog-post.html