लघुकथा - लिखे जो ख़त तुझे - कहानी एक अलग दृष्टिकोण को दिखाती है जो ख़त लिखने वालों, ख़त पढने वालों से अलग ख़त पहुँचाने वाले की ज़िन्दगी और .... और किस छिपे हुए भाव के बारे में है.. जानने के लिए सुनिए , लिखे जो ख़त तुझे । - आरजे अमित वधवा
यह ब्लॉग खोजें
रविवार, 17 मार्च 2019
पुस्तक समीक्षा । हरियाणा की बाल-लघुकथा । डॉ. राजकुमार निजात । समीक्षाकार: दिलबागसिंह विर्क
बालमन के विविध पहलुओं को उद्घाटित करता लघुकथा-संग्रह
लघुकथा-संग्रह - हरियाणा की बल लघुकथाएँ
संपादक - डॉ. राजकुमार निजात
प्रकाशक - एस.एन.पब्लिकेशन
पृष्ठ - 176
कीमत - 550 / - ( सजिल्द )
बच्चों को ईश्वर का रूप कहा जाता है, क्योंकि वे बड़े भोले और साफ़-दिल होते हैं । बालमन को समझने के लिए बड़ी पारखी नजर की जरूरत होती है । “हरियाणा की बाल-लघुकथा ” एक ऐसा लघुकथा-संग्रह है, जिसमें एक-दो नहीं, अपितु ऐसे बाईस पारखी लघुकथाकार शामिल हैं, जिन्होंने बालमन का बड़ी बारीकी से विश्लेषण किया है और बड़ी सटीकता से इसको ब्यान किया है । इन लघुकथाकारों का संबंध भले ही हरियाणा से है, लेकिन इनकी ख्याति वहां तक फैली हुई है, जहाँ तक लघुकथा की ख्याति है । इन लब्धप्रतिष्ठ लघुकथाकारों को एक विषय पर एक साथ लाने का महत्ती कार्य किया है राजकुमार निजात जी ने ।
इस संग्रह को तीन भागों में बांटा गया है । प्रथम खंड में 21 लघुकथाकारों की लघुकथाएं हैं, दूसरे खंड में संपादक राजकुमार निजात की चालीस लघुकथाएँ हैं । तीसरे खंड में सभी लघुकथाकारों का परिचय है । पहला और दूसरा खंड दो संकलनों का आभास देता है, क्योंकि दोनों की भूमिका अलग-अलग है । पहले खंड से पूर्व राजकुमार निजात का संपादकीय और माधवराज सप्रे का आलेख है, जबकि दूसरे खंड से पूर्व हरनाम शर्मा का आलेख है ।
प्रथम खंड में 21 लघुकथाकारों की 92 लघुकथाएं हैं, जिनमे 22 प्रो. अशोक भाटिया जी की हैं । डॉ. मधुकांत जी 9, प्रो. रूप देवगुण, डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल, डॉ. शील कौशिक और नवलसिंह की 5-5 लघुकथाएँ, डॉ. कृष्णलता यादव और डॉ. आरती बंसल की 4-4, प्रो. जितेन्द्र सूद, प्रो. इंदिरा खुराना, हरनाम शर्मा, डॉ. मुक्ता, डॉ. कमलेश भारतीय, डॉ. उषा लाल, सुरेखा शर्मा और डॉ. अनिलकुमार गोयल सवेरा जी की 3-3, डॉ. रामनिवास मानव, सत्यप्रकाश भारद्वाज, डॉ. अनिल शूर आज़ाद और रघुविन्द्र यादव की 2-2 और डॉ. सुरेन्द्र गुप्त जी की एक लघुकथा शामिल है ।
प्रो. जितेन्द्र सूद ने समाज के बालमन पर पड़ते हुए प्रभाव को रेखांकित करते हुए ‘यह गीत न गाना’ और ‘मैं फिर यह न देखूँ’ लघुकथाएँ लिखी हैं । दहेज़ के कारण जलाई जाने वाली दुल्हनों की बात सुनकर गुडिया कह उठती है –
“मैं कभी दुल्हन नहीं बनूंगी, दादी ।” ( पृ. – 38 )
इसी प्रकार पुवी जीवहत्या को देख दहल जाती है । बंतो भेड़िया बने पिता की हवस की शिकार पात्रा है, लेकिन वह छोटी बहन संतो को बचा लेती है । तीनों लघुकथाएँ मार्मिक अंत लिए हुए हैं । आकार में लघु होते भी लेखक इनमें वातावरण चित्रण करने में सफल रहता है –
“पिंजौर का बाग़ प्रकृति और मानव द्वारा निर्मित मनोहर रंगशाला है ।” ( पृ. -39 )
वह महत्त्वपूर्ण सूक्तियां भी कहता है, यथा –
“व्यक्ति कहीं भी चला जाए, उसका घर-परिवार उसे निरंतर पुकारता रहता है।” ( पृ. - 40 )
डॉ. सुरेन्द्र गुप्त की एकमात्र लघुकथा ‘माँ...मैंने ही खाए थे काजू’ आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई है, हालाँकि इसमें मैं पात्र का नामकरण नहीं है, लेकिन यह बालमन को बड़ी बखूबी से ब्यान करती है । जिस काम पर प्रतिबन्ध हो, बच्चे उस काम को करने के लिए लालायित रहते हैं, फिर बात जब खान-पीन की हो, तो यह प्रवृति बढ़ जाती है । मैं पात्र भी चोरी से काजू खाता है, लेकिन भाई को पिटते देख सच उगल देता है । वास्तव में बच्चे ऐसे ही तो होते हैं ।
प्रो. इंदिरा खुराना की लघुकथाएँ बताती हैं, कि बच्चे स्टेट्स नहीं देखते, प्यार देखते हैं । ‘स्टेट्स का फर्क’ और ‘इंसानी पिल्ला’, दोनों लघुकथाओं में बच्चा माँ को आईना दिखाता है । ‘सामाजिक सरोकार’ में बच्चा मजबूरीवश बैग चुराता है, जो समाज के कुरूप चेहरे को दिखाता है । इस लघुकथा का अंत आदर्शात्मक है ।
प्रो. रूप देवगुण की लघुकथाएँ बच्चों के प्रेमिल स्वभाव को भी दिखाती हैं और हालातों का सटीक चित्रण भी करती हैं । पुलिया दादी से दरवाजा खुलवा लेती है, जबकि अब्बू अपनी जेब खर्ची से चाची के लिए सूट, चूडियां आदि लाने की बात करता है । बच्चे जब प्यार करते हैं तो वह आदमी-जानवर का फर्क नहीं जानते । रिशु का यह कहना –
“ले तो आओगे नया पिल्ला पर वह टफी तो नहीं होगा ।” ( पृ. – 50 )
यहाँ रिशु का टफी के प्रति प्रेम दिखाता है, वहीं बालमन का सजीव चित्र भी प्रस्तुत करता है । ‘नदारद’ लघुकथा बताती है, कि पिता का साया सिर से उठ जाने के बाद बच्चे कैसे परिपक्व हो जाते हैं । ‘तो दिशु ऐसे कहता’ घर के बंटवारे का बालमन पर प्रभाव रेखांकित करती हुई लघुकथा है ।
मधुकांत जिन्न और सैंटा क्लॉज़ जैसे पात्रों के माध्यम से बच्चों पर होमवर्क का बोझ और माँ की फ़िक्र को दिखाते हैं । सैंटा क्लॉज़ का कथानक ईमानदार लकडहारे से प्रभावित लगता है जबकि ईदी का कथानक प्रेमचन्द की कहानी ईदगाह से । ईदी लघुकथा में साबिया ईदी के दस रूपये खाने पर न खर्च कर भाई के लिए खिलौना खरीदती है । गांधी लघुकथा अपना काम स्वयं करने और सफाई का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए भंगी शब्द की नई परिभाषा भी गढ़ती है –
“भंगी तो गंदगी फैलाने वाला होता है ।” ( पृ. – 54 )
सफाई विषय को लेकर ही एक अन्य लघुकथा ‘विद्या-मन्दिर’ है । बालक का तर्क पिता को अनुत्तरित कर देता है । मेरा विद्यालय और मेरा अध्यापक निबन्ध लिखवाकर लेखक ने आदर्श और वास्तविकता के अंतर को दिखाया है । वहीँ प्यासा बचपन की अध्यापिका आदर्श अध्यापिका है । बच्चे प्यार न मिलने के कारण ही स्कूल से घबराते हैं, इस संदेश को लेखक ने बड़ी सरलता से बयाँ किया है । ‘प्यासा बचपन’ लघुकथा आत्मकथात्मक शैली की लघुकथा है, लेकिन इसमें मैं पात्र का नामकरण नहीं किया गया । पारो छोटे मुंह से बड़ी बात करके दादी को हैरान कर देती है ।
हरनाम शर्मा की लघुकथाएँ बच्चों के भीतर मौजूद संवेदना को उद्घाटित करती हैं । नेहा गाय का दर्द नहीं देख पाती, जबकि सेठ का पोता उस मजदूर को पानी पिलाता है जिसकी उसका दादा उपेक्षा करता है । ‘आदमी और आदमी’ लघुकथा का अंत इस व्यंग्योक्ति से किया गया है –
“साहब, कुछ देर के लिए आप ही आदमी हो जाते ।” ( पृ. – 62 )
‘अधिकार’ लघुकथा में जहाँ बालक की मासूमियत दिखाई गई है, वहीं एक बुजुर्ग की भलमनसाहत भी दिखाई है । लघुकथा का आरंभ भी बड़ा आकर्षक है –
“अति प्रतिष्ठित बस्ती की वह अति सुंदर बाल-वाटिका थी । तरू-पल्लवों की ताज़गी तथा विभिन्न पुष्पों की सुगंध से युक्त मंद समीर धीरे-धीरे बह रही थी ।” ( पृ. – 60 )
डॉ. मुक्ता की लघुकथा ‘गुफ्तगू’ दुनियादारी का सच दिखाती लघुकथा है, लेकिन थोड़ी कम विश्वसनीय है, क्योंकि चोर कभी चोरी की वस्तु लौटाने नहीं जाता और लौटाने वाले को ही चोर समझने वाले कम ही होंगे । ‘सीमा रेखा’ लघुकथा में बच्चे के मन में उठते प्रश्न को उठाया गया है –
“जब भगवान ने सबको एक समान बनाया है तो यह अमीर-गरीब की सीमा रेखा क्यों ?” ( पृ. – 64 )
तीसरी लघुकथा में मैं पात्र की बेटी गरीब बच्चों को देखकर प्रश्न उठाती है । तीनों लघुकथाएँ गरीब वर्ग के बच्चों से संबंधित हैं और उनकी मजबूरियों का सटीक चित्रण करती हैं ।
कमलेश भारतीय की लघुकथा ‘कसक’ पिता से दूर रहते बच्चे की कसक को बड़ी सटीकता से ब्यान करती है । ‘स्वाभिमान’ लघुकथा बच्चे के स्वाभिमान को दिखाती है, जो काम करके कमाता है, मदद लेना उसे स्वीकार्य नहीं । ‘चुभन’ लघुकथा बाल सुलभ ईर्ष्या को दिखाती है ।
बच्चों को हमेशा ये लगता है कि दूसरे को ज्यादा हिस्सा दिया गया है और उन्हें कम, यही दिखाया है रामनिवास मानव ने अपनी लघुकथा ‘कथनी-करनी’ में, जबकि दूसरी लघुकथा में मैं पात्र बच्चों को खेलते देखकर महसूस करता है कि सृष्टि का नियंता भी कोई बच्चा ही है । लेखक ने बच्चों के तोतले शब्दों का प्रयोग कर भाषा को सजीव बनाया है ।
बच्चों को अक्सर उनके लिंग के अनुसार कार्य बांटे जाते हैं, लेकिन आजकल के बच्चे इस भेदभाव से ऊपर उठकर सब कार्य करना चाहते हैं, उन्हें सब कार्य करने भी चाहिए । घमंडीलाल अग्रवाल की लघुकथा ‘जीने के लिए’ यही संदेश देती है । ‘गति और क्षति’ लघुकथा में लेखक ने गिलहरी के माध्यम से महत्त्वपूर्ण संदेश दिया है –
“आवश्यकता से अधिक खाद्य-पदार्थ ग्रहण करना अथवा नष्ट करना बुरी बात होती है ।” ( पृ. -72 )
‘योजना’ लघुकथा योजनाबद्ध तरीके से पढाई करने का उपदेश देती है, ‘निश्चय’ लघुकथा में चिड़िया के माध्यम से निरर्थक घूमने-फिरने को व्यर्थ बताया गया है । ‘उपहास’ लघुकथा में गुलाब को नकचढ़ा दिखाया गया है । सभी लघुकथाओं के अंत में सीख दी गई है, यथा –
“दूसरों का उपहास करना हमेशा हानिकारक होता है ।” ( पृ. -74 )
प्रो. अशोक भाटिया की इस संग्रह में 22 लघुकथाएँ हैं और एक को छोड़कर शेष सभी शीर्षक विहीन हैं । लेखक ने प्रतीकात्मक शैली को अपनाया है । ये लघुकथाएँ तीन भागों में हैं । पहले भाग में सपना और सात लघुकथाएँ हैं । पहली लघुकथा में एक तरफ चिड़िया है, एक तरफ बच्चा है । दोनों के क्रियाकलाप और बच्चे की आकांक्षा बच्चों पर पढ़ाई के बोझ का ब्यान करती है । भव्या, मिंकू, रिंकू, चिंटू, सुशील, छोटे के क्रियाकलाप से बच्चों के मन को समझने का प्रयास किया गया है । लेखक के सभी पात्र तोतले हैं अर्थात उनकी आयु छोटी है । लेखक ने बच्चे और माँ की बात करने की बजाए बच्चे और उसकी चाची की बात की है, जो लुप्त हो रहे सांझे परिवारों के दौर में बड़ी संकेतात्मक बात है । दूसरी सात लघुकथाओं में बच्चों में माँ-बाप के दूसरे बच्चे या खिलौने से प्यार करने पर उत्पन्न होने वाले ईर्ष्या भाव को दिखाया है । वे प्यार के बदले प्यार देते हैं । बच्चे चालाक भी होते हैं । तीसरी सात लघुकथाओं में दूसरे भाग से बड़े बच्चों की लघुकथाएँ हैं । इसमें ज्यादातर बच्चे स्कूल जाने वाले हैं और पढ़ाई इन लघुकथाओं का विषय है । बच्चे मासूम भी हैं और उनकी हाजिर जवाबी और तेज तर्रारी सामने वाले को शर्मिंदा भी करती है । बच्चों को शिशुवस्था में दिखाया डर देर तक कायम रहता है । लेखक ने उसी प्रकार की खिचड़ी भाषा का प्रयोग किया है, जैसी कि बच्चे करते हैं –
“मेरा होम-वर्क बिलकुल ठीक था । यह नया होमवर्क ‘रब’ कर दो ।” ( पृ. – 87 )
लेखक ने लघुकथाओं के अंत में बच्चे की बात का दूसरे पर प्रभाव भी दिखाया है और बच्चे पर भी । कुछ अंत कथा का निचोड़ भी हैं, यथा –
“वह दुनिया का सबसे सुंदर, सबसे सुगन्धित फूल था ।” ( पृ. – 83 )
उषालाल की लघुकथाएँ बताती हैं कि बच्चे भोले भी होते हैं और बात को मन पर भी लगा लेते हैं । ऋषभ भोले बच्चों का प्रतिनिधित्व करता है, तो गगन पिता की बात को दिल पर लगाकर दृढ निश्चय करता है और सफल होता है । मुग्धा के माध्यम से लेखिका बताती है कि बच्चे जो सुनते हैं, वही कह देते हैं ।
सत्यप्रकाश भारद्वाज की लघुकथा ‘सवेरा’ स्वाभिमानी बालक की कथा है, जो न सिर्फ खुद भीख मांगने का काम छोड़ता है, अपितु अपने बाबा से भी यह काम छुडवा लेता है । ‘विषैला’ लघुकथा में मच्छर मारने के प्रसंग को लेकर लेखक व्यंग्य कसता है –
“तो क्या आदमी मच्छर से भी विषैला है ।” ( पृ. – 93 )
डॉ. कृष्णलता यादव पक्षियों के माध्यम से मानवता का संदेश देती हैं, खरबूजों के माध्यम से नकलीपन से बचने का संदेश देती हैं । सतीश का बेटा नैतिक शिक्षा की पुस्तक के माध्यम से पिता को सीधी राह पर लाता है, जबकि अखिल के कृत्य उसके बेटे को भी अच्छे कृत्य करने का इरादा देते हैं ।
सुरेखा शर्मा पूजा के नाम पर होते ढोंग को दिखाती हैं । शिवा एक परोपकारी बालक है । रानी मास्टरनी जी की सलाह पर पटाखे न चलाने की बात करती है, लेकिन कहानी की पहली पंक्ति में वह पटाखे खरीदना चाहती है, इस प्रकार कथ्य विरोधाभासी है ।
डॉ. शील कौशिक ने दो बच्चियों के माध्यम से बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में छोड़े जाने के उन पर पड़ने वाले प्रभाव को दिखाया है, वहीं दो बहनों के माध्यम से बच्चों की निश्च्छलता को दिखाया है । टिंकू अपनी मासूमियत के कारण परीक्षा में वो नहीं लिखता जो उसे याद करवाया गया है, अपितु वो लिखता है जो घर में होता है । इस लघुकथा के माध्यम से लेखिका ने कामकाजी महिलाओं की विवशता भी दिखाई है । नए स्कूल में परायापन महसूस करना, एक सामान्य बात है; लेखिका ने इसे ‘मुझसे दोस्ती करोगी’ में दिखाया है, साथ ही संदेश दिया है कि बच्चे सहजता से दोस्त बन जाते हैं । दादी-पोती लघुकथा भी पोती की मासूमियतता को दिखाती है ।
डॉ. अनिलकुमार गोयल ‘सवेरा’ जी की लघुकथाएँ स्कूल पर केन्द्रित हैं । पहली दो लघुकथाएँ सफाई पर हैं, जबकि तीसरी लघुकथा में पतंग उड़ाने के माध्यम से दोस्ती का संदेश दिया गया है ।
डॉ. अनिल शूर आज़ाद ने बाल मनोविज्ञान पर आधारित ‘डर’ लघुकथा लिखी है तो ‘डंडा’ लघुकथा घर के माहौल का बच्चे पर प्रभाव दिखाती है । रघुविन्द्र यादव अपनी लघुकथाओं में बच्चों के भोलेपन के साथ उनकी अच्छाई को उद्घाटित करते हैं ।
डॉ. आरती बंसल की लघुकथाओं में दो तरह के अमीर लोगों का वर्णन है । पहले जो कुत्तों को तो गुलगुले खिला सकते हैं, मगर गरीब बच्चों को नहीं । दूसरी तरफ ऐसी मालकिन भी है जो नौकरानी की बेटी को स्कूल दाखिल करवाती है । रिभव उन बच्चों का प्रतिनिधि है, जो सच्ची बात मुंह पर कह देते हैं । लेखिका ने बातूनी बालकों के पालन-पोषण की विधि भी बताई है । आदिक अच्छे संस्कारों वाला बालक है, जो दूसरों को भी प्रेरित करता है ।
नवलसिंह बच्चों की पारखी नज़र को ‘बड़ी सीख’ लघुकथा में दिखाते हैं । ‘रात और सपने’ लघुकथा में बच्चों के नए-नए सवाल पूछने की प्रवृति को दिखाया गया है । अन्य लघुकथाएँ बताती हैं, कि बच्चे बड़ों से हमदर्दी भी रखते हैं और प्यार भी करते हैं । उनका मन साफ़ होता है ।
पुस्तक का दूसरा भाग डॉ. राजकुमार निजात जी लघुकथाओं पर केन्द्रित है । इसमें ओस नामक लड़की पात्र को लेकर 40 लघुकथाएँ लिखी गई हैं । पिता-बेटी का संवाद कथा को कहने का सशक्त माध्यम बना है । ये सभी लघुकथाएँ यहाँ अलग-अलग वजूद रखती हैं, वहीं समग्र रूप से ओस के विविध पहलुओं को दिखाती हुई एक लघु आख्यान का आभास भी देती हैं । ओस को चार साल से सात वर्ष तक दिखाया गया है । लेखक लिखता है –
“ओस बहुत छोटी है । चार साल की नन्हीं बच्ची । वह तो सुबह की ओस की भांति एक नन्हीं ओस है ।” ( पृ. – 132 )
ओस की अध्यापिका कहती है –
“ओस जो कुछ भी करती है, वह भीतर से स्वाभाविक रूप से ही करती है । वह विलक्षण है । वह जहां भी जाती है, सब कुछ जगमग-जगमग हो जाता है ।” ( पृ. – 144 )
लेखक ने ओस के चरित्र के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया गया है । वह बहुत अच्छी चित्रकार है । वह हर देखी, सुनी चीज का चित्र बना देती है, जिसमें बादल, वर्षा, कार्टून, पहाड़, बारिश आदि के चित्र हैं । वह कविता भी लिख लेती है । वह आशावादी है । वह जो देखती है, वही करना चाहती है । वह सबकी दोस्त है, सब उसके दोस्त हैं । पुरानी बातों को याद रखती है और उन्हें नए सन्दर्भों के साथ जोड़ लेती है । वह अपना काम खुद करने में विश्वास रखती है और दूसरों की मदद भी करती है । वह दयालु है । दोस्त को बीमार देखकर विचलित हो उठती है । वह दूसरों के दर्द को समझती है –
“मुझे लगा, उसने मेरे दर्द को अपने भीतर तक महसूस किया, मेरी ही तरह ।” ( पृ. – 136 )
बाल भिखारी उसकी मन:स्थिति को झिंझोड़ देता है । गणेश की गर्दन काटने के कारण वह भगवान शिव से नाराज है । उसका दया भाव कुत्ते के लिए भी है । वह चिड़ियों से बातें करती है । स्कूल वह पैदल ही जाना पसंद करती है । वह और उसके दोस्त टोली बनाकर स्कूल जाते हैं । स्कूल उसका नया संसार है । वह सबक जल्दी सीखती है और सीखी हुई बातें दूसरों को भी बताती है । वह जिज्ञासु है, प्रश्न पूछती रहती है । जहाँ का अर्थ समझकर ‘सारे जहाँ से अच्छा गीत’ को बड़े विश्वास के साथ गाती है । वह रावण को मारना चाहती है । आसमान में सैर करना चाहती है, पहाड़ देखना चाहती है, नदियों में नहाना चाहती है । उसके पापा उसे कहते हैं कि वह फूल जैसी है, उसके चेहरे पर सारे फूलों के रंग उतर आए हैं । लेखक को लगता है कि वह पिछले जन्म में फूल रही होगी । उसके पिता जी उसे ईमानदार, जिम्मेदार और सच्चा नागरिक बनाना चाहते हैं । वे उसे कुछ सच बताते हैं तो कुछ सच छुपा भी लेते हैं ताकि बालमन को कुरूप दुनिया न दिखे । एक बेटी जैसे तोहफे लेकर खुश होती है, वैसे ही पिता तोहफे देकर खुश होते हैं । पिता जी बेटी से प्रेरणा भी लेते हैं कि एकांत बाहर नहीं मिलता, अपितु यह मन की स्थिति है ।
लेखक ने ओस के माध्यम से यह बताया है कि बच्चे भरपूर खाते, खेलते, पढ़ते हैं अर्थात भरपूर जीते हैं । बच्चे गिरने पर कब रोते हैं, कब नहीं रोते इस मनोविज्ञान को उद्घाटित किया गया है । लेखक ने अनेक जगहों पर काव्यात्मक भाषा का प्रयोग किया है –
“उसने कमल के फूलों को जी भरकर निहारा और फिर आसमान की और देखकर कमल हो उठी ।” ( पृ. – 150 )
संक्षेप में, यह संकलन बालकों को समझने का एक अनूठा प्रयास है । बाल मन की विविध स्थितियों को विभिन्न लेखकों ने अलग-अलग नजरिये से देखा है । इस संग्रह से गुजरते समय बालकों के विविध रूप आँखों के सामने तैरने लगते हैं, जो इस संग्रह की सफलता का सूचक है । डॉ. निजात जी इस संग्रह के संपादन के लिए बधाई के पात्र हैं ।
- दिलबागसिंह विर्क
Source:
http://dsvirk.blogspot.com/2019/01/blog-post.html
शनिवार, 16 मार्च 2019
लघुकथा समाचार: शहर के लेखक की लघुकथाओं पर बनाई टेली फिल्मों का प्रदर्शन 18 मार्च को
Bhaskar News Network Mar 16, 2019
इंदौर। शहर के साहित्यकार सदाशिव कौतुक की दो लघुकथा परिंदे और चल जमूरे पर बनाई गई दो टेलीफिल्मों का प्रदर्शनी 18 मार्च को जाल सभागृह में शाम 6 बजे किया जाएगा। ये फिल्में इंदौर की लोकेशंस पर फिल्माई गई हैं और इसमें इंदौर-उज्जैन के कलाकारों ने काम किया है। इसमें गृहमंत्री बाला बच्चन और उच्च शिक्षा मंत्री जीतू पटवारी मुख्य अतिथि होंगे। साहित्यकार राकेश शर्मा उद्बोधन देंगे।
source:
https://www.bhaskar.com/mp/indore/news/mp-news-performing-tele-films-on-the-short-stories-of-the-city39s-author-on-march-18-025157-4133773.html
इंदौर। शहर के साहित्यकार सदाशिव कौतुक की दो लघुकथा परिंदे और चल जमूरे पर बनाई गई दो टेलीफिल्मों का प्रदर्शनी 18 मार्च को जाल सभागृह में शाम 6 बजे किया जाएगा। ये फिल्में इंदौर की लोकेशंस पर फिल्माई गई हैं और इसमें इंदौर-उज्जैन के कलाकारों ने काम किया है। इसमें गृहमंत्री बाला बच्चन और उच्च शिक्षा मंत्री जीतू पटवारी मुख्य अतिथि होंगे। साहित्यकार राकेश शर्मा उद्बोधन देंगे।
source:
https://www.bhaskar.com/mp/indore/news/mp-news-performing-tele-films-on-the-short-stories-of-the-city39s-author-on-march-18-025157-4133773.html
श्री कस्तूरीलाल तागरा की दो लघुकथाएं
1)
गुलाब के लिए
माली ने जैसे ही बगीचे में प्रवेश किया , कुछ पौधे उल्लास से तो कुछ तनाव से भर गये ।
माली ने अपनी खुरपी संभाली । गुलाब के इर्द-गिर्द उग आई घास को खोद-खोद कर क्यारी के बाहर फेंकने लगा । उसके बाद उसने मिटटी में खाद डाली और क्यारी को पानी से भर दिया ।
क्यारी के बाहर एक तरफ घायल पड़े घास को माली इस समय जल्लाद जैसा लग रहा था । पर वह बेचारा कर क्या सकता था ।
ठीक इसी समय घास को बगीचे के बाहर वाली सड़क से ऊँची-ऊँची आवाज़ें सुनाई देने लगी –मजदूर एकता ज़िंदाबाद... मजदूर एकता ज़िंदाबाद ...
आवाज़ें और ऊँची होती चली गईं । थोड़ी देर में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज शुरू कर दिया । आंदोलनकारी इधर-उधर भागने लगे । चीख पुकार मच गई । चोट खाये कुछ लोग बचने के लिए बगीचे की ओर भागे । पुलिस लाठियां भांजते हुए वहां भी पहुँच गई ।
गुलाब ने कोलाहल सुना तो पास पड़ी घास से इठलाते हुए पूछा –" अबे घास ! यह सब क्या हो रहा है ? "
घास ने तिलमिला कर जवाब दिया –" कुछ ख़ास नहीं , बस किसी गुलाब के लिए घास उखाड़ी जा रही है "
-0-
2)
लेकिन ज़िन्दगी
पहले वह माफिया डॉन था । बाद में नेता बन गया । बीती रात वह किराये पर लाये गए एक अद्भुत सौंदर्य के साथ जम कर सोया । महंगी विदेशी शराब भी पिलाई उसे । खुद भी छक के पी । सुबह जब थकान से आँखें भारी होने लगी तो सौंदर्य से पूछा--' कैसे आई तुम इस धंधे में ? '
वह पहले उदास हो गई। फिर आँखों में खून भर कर बोली-- 'अपना मर्द ही नीच निकला ...'
माहौल में चुप्पी छा गई।
कुछ देर बाद नेता ने सवाल किया -- 'एजेंट को कितना परसेंट देना पड़ता है ?'
वह फट पड़ी -' कमाई का आधा ही मिलता है मुझे । कभी-कभी तो उसमें भी बेईमानी कर जाता है कमीना दलाल ।'
नेता गुस्से से बोला- ' ये दल्ले साले होते ही ऐसे हैं । लो बताओ , ऐसे काम में भी डंडी मार जाते हैं ...कीड़े पड़ेंगे इन हरामिओं के शरीर में । '
नेता के इस नैतिक भाषण पर वह व्यंग से मुस्कुराने लगी। नेता झेंप गया । और झेंप मिटाने के लिए नकली हँसी हँसने लगा । फिर बात बदलते हुए बोला- ' मैंने तुम से तुम्हारा नाम तो पूछा ही नहीं '
'अब याद आई आपको मेरे नाम की । क्या करेंगे नाम जान के साहब ?... रात आप बहुत से नामों से प्यार कर रहे थे मुझे । उन्हीं में से कोई एक नाम समझ लो ।' और वह अपना निचला होंठ रोमांटिक अंदाज़ से काटने लगी।
नेता उसकी इस अदा पर बौरा-सा गया । लरजती आवाज़ में बोला --' बेबी डॉल ! तुम तो हमें मार ही डालोगी ।'
वह तुरन्त बोली -- 'अरे हां ! याद आया , बेबी डॉल ही तो है मेरा नाम '
नेता ने जोर से ठहाका लगाया और उसे अपने और नजदीक कर लिया ।
थोड़ी देर बाद वह पेशवर चतुराई से पलंग से उठी । तुरंत कपड़ों को व्यवस्थित किया और दरवाजे की चिटकनी खोलते हुये बोली --' मेरा टाइम हो गया साहब ... अब चलती हूँ ... सलाम '
नेता ने चौंक कर पूछा --' तुम मुसलमान हो ? '
जवाब में वह बोली -- ' जय राम जी की '
और कमरे से बाहर निकल गई ।
- कस्तूरीलाल तागरा
गुलाब के लिए
माली ने जैसे ही बगीचे में प्रवेश किया , कुछ पौधे उल्लास से तो कुछ तनाव से भर गये ।
माली ने अपनी खुरपी संभाली । गुलाब के इर्द-गिर्द उग आई घास को खोद-खोद कर क्यारी के बाहर फेंकने लगा । उसके बाद उसने मिटटी में खाद डाली और क्यारी को पानी से भर दिया ।
क्यारी के बाहर एक तरफ घायल पड़े घास को माली इस समय जल्लाद जैसा लग रहा था । पर वह बेचारा कर क्या सकता था ।
ठीक इसी समय घास को बगीचे के बाहर वाली सड़क से ऊँची-ऊँची आवाज़ें सुनाई देने लगी –मजदूर एकता ज़िंदाबाद... मजदूर एकता ज़िंदाबाद ...
आवाज़ें और ऊँची होती चली गईं । थोड़ी देर में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज शुरू कर दिया । आंदोलनकारी इधर-उधर भागने लगे । चीख पुकार मच गई । चोट खाये कुछ लोग बचने के लिए बगीचे की ओर भागे । पुलिस लाठियां भांजते हुए वहां भी पहुँच गई ।
गुलाब ने कोलाहल सुना तो पास पड़ी घास से इठलाते हुए पूछा –" अबे घास ! यह सब क्या हो रहा है ? "
घास ने तिलमिला कर जवाब दिया –" कुछ ख़ास नहीं , बस किसी गुलाब के लिए घास उखाड़ी जा रही है "
-0-
2)
लेकिन ज़िन्दगी
पहले वह माफिया डॉन था । बाद में नेता बन गया । बीती रात वह किराये पर लाये गए एक अद्भुत सौंदर्य के साथ जम कर सोया । महंगी विदेशी शराब भी पिलाई उसे । खुद भी छक के पी । सुबह जब थकान से आँखें भारी होने लगी तो सौंदर्य से पूछा--' कैसे आई तुम इस धंधे में ? '
वह पहले उदास हो गई। फिर आँखों में खून भर कर बोली-- 'अपना मर्द ही नीच निकला ...'
माहौल में चुप्पी छा गई।
कुछ देर बाद नेता ने सवाल किया -- 'एजेंट को कितना परसेंट देना पड़ता है ?'
वह फट पड़ी -' कमाई का आधा ही मिलता है मुझे । कभी-कभी तो उसमें भी बेईमानी कर जाता है कमीना दलाल ।'
नेता गुस्से से बोला- ' ये दल्ले साले होते ही ऐसे हैं । लो बताओ , ऐसे काम में भी डंडी मार जाते हैं ...कीड़े पड़ेंगे इन हरामिओं के शरीर में । '
नेता के इस नैतिक भाषण पर वह व्यंग से मुस्कुराने लगी। नेता झेंप गया । और झेंप मिटाने के लिए नकली हँसी हँसने लगा । फिर बात बदलते हुए बोला- ' मैंने तुम से तुम्हारा नाम तो पूछा ही नहीं '
'अब याद आई आपको मेरे नाम की । क्या करेंगे नाम जान के साहब ?... रात आप बहुत से नामों से प्यार कर रहे थे मुझे । उन्हीं में से कोई एक नाम समझ लो ।' और वह अपना निचला होंठ रोमांटिक अंदाज़ से काटने लगी।
नेता उसकी इस अदा पर बौरा-सा गया । लरजती आवाज़ में बोला --' बेबी डॉल ! तुम तो हमें मार ही डालोगी ।'
वह तुरन्त बोली -- 'अरे हां ! याद आया , बेबी डॉल ही तो है मेरा नाम '
नेता ने जोर से ठहाका लगाया और उसे अपने और नजदीक कर लिया ।
थोड़ी देर बाद वह पेशवर चतुराई से पलंग से उठी । तुरंत कपड़ों को व्यवस्थित किया और दरवाजे की चिटकनी खोलते हुये बोली --' मेरा टाइम हो गया साहब ... अब चलती हूँ ... सलाम '
नेता ने चौंक कर पूछा --' तुम मुसलमान हो ? '
जवाब में वह बोली -- ' जय राम जी की '
और कमरे से बाहर निकल गई ।
- कस्तूरीलाल तागरा
शुक्रवार, 15 मार्च 2019
लेख: लघुकथा क्षेत्र बुद्धि वंचित बौनों का कैसे बना अभयारण्य | श्याम बिहारी श्यामल
हिन्दी में लघुकथा की भी बुनियाद हमारे भाषा-साहित्य के जनक भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के साहित्य में ही खोजी गई है। बाद के दौर में अनेक बड़े नामों के खाते में भी लघुकथाएं दर्ज हैं। इनमें प्रतिनिधि तौर पर अयोध्या प्रसाद गोयलीय, रामधारी सिंह 'दिनकर', जानकी वल्लभ शास्त्री, दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी, भवभूति मिश्र, विष्णु प्रभाकर, कमलेश्वर, रावी, राजेंद्र यादव से लेकर संजीव और बलराम आदि जैसे कथाकार यहां तत्काल याद आ रहे हैं किंतु अस्सी के दशक में इसे विधा के रूप में उगाने और सींचने का श्रेय ' सारिका ' के तत्कालीन संपादक प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर को जाता है।
अपने समय की सबसे महत्वपूर्ण कथा पत्रिका ( सारिका ) में तरजीह और कमलेश्वर जैसे रचनाकार व्यक्तित्व का संरक्षण पाकर लघुकथा बेशक खूब पनपी-फैली। नए-नए रचनाकार आए तो कई महत्वपूर्ण पुराने भी आकृष्ट हुए। 'सारिका' ने तब से लेकर बाद में अवध नारायण मुद्गल के संपादन-काल तक इस विधा के लिए खास तवज्जो जारी रखी। यहां लघुकथा फीलर के रूप में नहीं, बल्कि विधा के तौर पर अपने नियत फॉर्मेट में प्रतिष्ठित तरीके से छापी जाती रही। उसके कई 'लघुकथा विशेषांक' आए जिन्होंने इसे बतौर विधा बार-बार प्रस्तावित किया। इससे अनेक लघु पत्रिकाओं की भी दृष्टि बदली और 'लघु आघात' ( संपादक : विक्रम सोनी ), 'पुन:' ( संपादक : कृणानंद कृष्ण ), ' साम्प्रत ' व 'लघुकथा टाइम्स' ( दोनों का संपादक इन्हीं पंक्तियों का लेखक ) और 'लघुकथा साहित्य' ( प्रधान संपादक : अशोक लव, संपादक : सुरेश अशोक लव जांगिड़ 'उदय' ) जैसी कुछ लघुकथा केंद्रित पत्रिकाएं भी निकलीं। शंकर पुणतांबेकर, रमेश बत्तरा, कमल चोपड़ा, भगवती प्रसाद द्विवेदी, जगदीश कश्यप, सतीश दूबे, अशोक लव, बलराम अग्रवाल, कमलेश भारतीय, सतीश राठी, अशोक मिश्र, विक्रम सोनी, कमलेश भारतीय, सत्यनारायण नाटे और सुरेंद्र मंथन आदि जैसे कथाकारों की पहचान कायम हुई तो डा. व्रजकिशोर पाठक और चंद्रेश्वर कर्ण जैसे आलोचक सामने आए। महत्वपूर्ण लेखन का माहौल अभी बन ही रहा था कि इसी बीच एक अजीब स्थिति पैदा हो गई।
अचानक देखते ही देखते संजीदा लेखकों ने 'लघुकथा' से किनाराकशी शुरू कर दी। उन्होंने इस ओर से ऐसा मुंह मोड़ा कि फिर किसी ने मुड़कर व्रज किशोर पाठक पीछे ताकना तक मुनासिब नहीं समझा। क्यों ? कारण हैं इस क्षेत्र में पैठे कुछ अगंभीर तत्वों की बेजा हरकतें। 'लघुकथा' को कुछ अर्द्धार्द्ध लेखक-धंधेबाजों की नजर लग गई। एक तो उन्होंने इसे आसान विधा मानकर -लघुकथा के नाम पर ताबड़तोड़ उल्टी-उबकाई शुरू कर दी, दूसरे अपने छापने-बेचने के मंदे धंधे को गति पकड़ाने के लिए औने-पौने लेखकों से रुपये ऐंठ-ऐंठकर उनकी जैसी-तैसी रचनाएं छापने और अपना धंधा चलाने में जुट गए। इस क्रम में वे कचरे का पहाड़ खड़ा करने लगे। जाहिरन उनकी ऐसी तिजारती और शरारती गतिविधियां सृजनधर्मिता के सामान्य मानक-मूल्यों तक की धज्जियां उड़ाने वाली थीं। साथ-साथ यह व्यक्त करने वाली भी कि ऐसे तत्व वस्तुत: कलम-कागज प्रदेश के बुद्धि-जीवी नागरिक नहीं, बल्िक हेराफरी और उलटफेर वाले इलाकों के शातिर 'बुद्धि-वंचित बौने' थे। ऐसे तत्व जिनका लक्ष्य ही था लेखन-प्रकाशन के नाम पर भोंडा आत्मरंजन और सहयोगी आधार पर प्रकाशन करने व हर साल उल्टे-सीधे दावों के साथ अंट-शंट सम्मेलन के बहाने उन्मुक्त उगाही और मुद्रामोचन। उनकी तिजारत कैसी चली या पटना-मेरठ में छापने-बेचने का उनका लड़खड़ाता धंधा किस गति को प्राप्त हुआ यह तो नहीं पता चला किंतु दशकों बाद हिन्दी के कथा-साहित्य में किसी सर्जनात्मक आंदोलन के रूप में उगने वाली अपार सृजन-संभावनाओं वाली 'लघुकथा' उनकी हरकतों से कौड़ी का तीन होकर रह गई।
तभी से वे अपने नकार-डकार में तल्लीन हैं। तीन तिलंगे जुटकर कभी पटना में कोई 'राष्ट्रीय सम्मेलन' ठोंक देते हैं तो कभी चार चौकड़ी एकत्र हो अन्यत्र कोई 'अन्तर्राज्यीय सम्मेलन'। ऐसी हरकतों से जो हश्र स्वाभाविक है, वही सामने है। लघुकथा क्षेत्र अंतत: हिन्दी साहित्य का एक ऐसा इलाका होकर रह गया है जिसे अब 'बुद्धि वंचित बौनों का अभयारण्य' माना जाने लगा है। यहां आम तौर पर न कोई प्रयोगधर्मी लेखन दिख रहा है, न सतत् रचनारत कोई संजीदा नाम। दो दशकों से यह विधा संदिग्ध होने का संताप झेल रही है। इस बीच हास्यास्पद ढंग से बार-बार 'सम्मेलन' की कोई न कोई निष्प्रभ सूचना अक्सर कहीं झलक जाती है, जो वैधव्य-सिसकन जैसा आभास देती है। ले-देकर एक अकेला शख्स सुकेश साहनी है जिसके कुछ प्रयास उम्मीद की लौ को जिलाए हुए हैं। पुस्तक प्रकाशन और वेबदुनिया में 'लघुकथा डॉट कॉम' साइट के रूप में वह सतत् अलख जलाए हुए है, किंतु वह भी करें तो क्या ! लघुकथा में ऐसा कोई लेखन प्रयास ही संभव नहीं हो पा रहा जो एक चमक-कौंध के साथ पूरे हिन्दी साहित्य का ध्यान अपनी ओर खींच और इस विधा को विश्वसनीय आधार प्रदान कर सके।
Source:
http://shyambiharishyamal.blogspot.com/2012/10/blog-post.html
अपने समय की सबसे महत्वपूर्ण कथा पत्रिका ( सारिका ) में तरजीह और कमलेश्वर जैसे रचनाकार व्यक्तित्व का संरक्षण पाकर लघुकथा बेशक खूब पनपी-फैली। नए-नए रचनाकार आए तो कई महत्वपूर्ण पुराने भी आकृष्ट हुए। 'सारिका' ने तब से लेकर बाद में अवध नारायण मुद्गल के संपादन-काल तक इस विधा के लिए खास तवज्जो जारी रखी। यहां लघुकथा फीलर के रूप में नहीं, बल्कि विधा के तौर पर अपने नियत फॉर्मेट में प्रतिष्ठित तरीके से छापी जाती रही। उसके कई 'लघुकथा विशेषांक' आए जिन्होंने इसे बतौर विधा बार-बार प्रस्तावित किया। इससे अनेक लघु पत्रिकाओं की भी दृष्टि बदली और 'लघु आघात' ( संपादक : विक्रम सोनी ), 'पुन:' ( संपादक : कृणानंद कृष्ण ), ' साम्प्रत ' व 'लघुकथा टाइम्स' ( दोनों का संपादक इन्हीं पंक्तियों का लेखक ) और 'लघुकथा साहित्य' ( प्रधान संपादक : अशोक लव, संपादक : सुरेश अशोक लव जांगिड़ 'उदय' ) जैसी कुछ लघुकथा केंद्रित पत्रिकाएं भी निकलीं। शंकर पुणतांबेकर, रमेश बत्तरा, कमल चोपड़ा, भगवती प्रसाद द्विवेदी, जगदीश कश्यप, सतीश दूबे, अशोक लव, बलराम अग्रवाल, कमलेश भारतीय, सतीश राठी, अशोक मिश्र, विक्रम सोनी, कमलेश भारतीय, सत्यनारायण नाटे और सुरेंद्र मंथन आदि जैसे कथाकारों की पहचान कायम हुई तो डा. व्रजकिशोर पाठक और चंद्रेश्वर कर्ण जैसे आलोचक सामने आए। महत्वपूर्ण लेखन का माहौल अभी बन ही रहा था कि इसी बीच एक अजीब स्थिति पैदा हो गई।
अचानक देखते ही देखते संजीदा लेखकों ने 'लघुकथा' से किनाराकशी शुरू कर दी। उन्होंने इस ओर से ऐसा मुंह मोड़ा कि फिर किसी ने मुड़कर व्रज किशोर पाठक पीछे ताकना तक मुनासिब नहीं समझा। क्यों ? कारण हैं इस क्षेत्र में पैठे कुछ अगंभीर तत्वों की बेजा हरकतें। 'लघुकथा' को कुछ अर्द्धार्द्ध लेखक-धंधेबाजों की नजर लग गई। एक तो उन्होंने इसे आसान विधा मानकर -लघुकथा के नाम पर ताबड़तोड़ उल्टी-उबकाई शुरू कर दी, दूसरे अपने छापने-बेचने के मंदे धंधे को गति पकड़ाने के लिए औने-पौने लेखकों से रुपये ऐंठ-ऐंठकर उनकी जैसी-तैसी रचनाएं छापने और अपना धंधा चलाने में जुट गए। इस क्रम में वे कचरे का पहाड़ खड़ा करने लगे। जाहिरन उनकी ऐसी तिजारती और शरारती गतिविधियां सृजनधर्मिता के सामान्य मानक-मूल्यों तक की धज्जियां उड़ाने वाली थीं। साथ-साथ यह व्यक्त करने वाली भी कि ऐसे तत्व वस्तुत: कलम-कागज प्रदेश के बुद्धि-जीवी नागरिक नहीं, बल्िक हेराफरी और उलटफेर वाले इलाकों के शातिर 'बुद्धि-वंचित बौने' थे। ऐसे तत्व जिनका लक्ष्य ही था लेखन-प्रकाशन के नाम पर भोंडा आत्मरंजन और सहयोगी आधार पर प्रकाशन करने व हर साल उल्टे-सीधे दावों के साथ अंट-शंट सम्मेलन के बहाने उन्मुक्त उगाही और मुद्रामोचन। उनकी तिजारत कैसी चली या पटना-मेरठ में छापने-बेचने का उनका लड़खड़ाता धंधा किस गति को प्राप्त हुआ यह तो नहीं पता चला किंतु दशकों बाद हिन्दी के कथा-साहित्य में किसी सर्जनात्मक आंदोलन के रूप में उगने वाली अपार सृजन-संभावनाओं वाली 'लघुकथा' उनकी हरकतों से कौड़ी का तीन होकर रह गई।
तभी से वे अपने नकार-डकार में तल्लीन हैं। तीन तिलंगे जुटकर कभी पटना में कोई 'राष्ट्रीय सम्मेलन' ठोंक देते हैं तो कभी चार चौकड़ी एकत्र हो अन्यत्र कोई 'अन्तर्राज्यीय सम्मेलन'। ऐसी हरकतों से जो हश्र स्वाभाविक है, वही सामने है। लघुकथा क्षेत्र अंतत: हिन्दी साहित्य का एक ऐसा इलाका होकर रह गया है जिसे अब 'बुद्धि वंचित बौनों का अभयारण्य' माना जाने लगा है। यहां आम तौर पर न कोई प्रयोगधर्मी लेखन दिख रहा है, न सतत् रचनारत कोई संजीदा नाम। दो दशकों से यह विधा संदिग्ध होने का संताप झेल रही है। इस बीच हास्यास्पद ढंग से बार-बार 'सम्मेलन' की कोई न कोई निष्प्रभ सूचना अक्सर कहीं झलक जाती है, जो वैधव्य-सिसकन जैसा आभास देती है। ले-देकर एक अकेला शख्स सुकेश साहनी है जिसके कुछ प्रयास उम्मीद की लौ को जिलाए हुए हैं। पुस्तक प्रकाशन और वेबदुनिया में 'लघुकथा डॉट कॉम' साइट के रूप में वह सतत् अलख जलाए हुए है, किंतु वह भी करें तो क्या ! लघुकथा में ऐसा कोई लेखन प्रयास ही संभव नहीं हो पा रहा जो एक चमक-कौंध के साथ पूरे हिन्दी साहित्य का ध्यान अपनी ओर खींच और इस विधा को विश्वसनीय आधार प्रदान कर सके।
Source:
http://shyambiharishyamal.blogspot.com/2012/10/blog-post.html
सदस्यता लें
संदेश (Atom)