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शुक्रवार, 15 मार्च 2019

लेख: लघुकथा क्षेत्र बुद्धि वंचित बौनों का कैसे बना अभयारण्‍य | श्‍याम बिहारी श्‍यामल

हिन्‍दी में लघुकथा की भी बुनियाद हमारे भाषा-साहित्‍य के जनक भारतेंदु बाबू हरिश्‍चंद्र के साहित्‍य में ही खोजी गई है। बाद के दौर में अनेक बड़े नामों के खाते में भी लघुकथाएं दर्ज हैं। इनमें प्रतिनिधि तौर पर अयोध्‍या प्रसाद गोयलीय, रामधारी सिंह 'दिनकर', जानकी वल्‍लभ शास्‍त्री, दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी, भवभूति मिश्र, विष्‍णु प्रभाकर, कमलेश्‍वर, रावी, राजेंद्र यादव से लेकर संजीव और बलराम आदि जैसे कथाकार यहां तत्‍काल याद आ रहे हैं किंतु अस्‍सी के दशक में इसे विधा के रूप में उगाने और सींचने का श्रेय ' सारिका ' के तत्‍कालीन संपादक प्रख्‍यात कथाकार कमलेश्‍वर को जाता है।

अपने समय की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा पत्रि‍का ( सारिका ) में तरजीह और कमलेश्‍वर जैसे रचनाकार व्‍यक्तित्‍व का संरक्षण पाकर लघुकथा बेशक खूब पनपी-फैली। नए-नए रचनाकार आए तो कई महत्‍वपूर्ण पुराने भी आकृष्‍ट हुए। 'सारिका' ने तब से लेकर बाद में अवध नारायण मुद्गल के संपादन-काल तक इस विधा के लिए खास तवज्‍जो जारी रखी। यहां लघुकथा फीलर के रूप में नहीं, बल्कि विधा के तौर पर अपने नियत फॉर्मेट में प्रतिष्ठित तरीके से छापी जाती रही। उसके कई 'लघुकथा विशेषांक' आए जिन्‍होंने इसे बतौर विधा बार-बार प्रस्‍तावित किया। इससे अनेक लघु  पत्रिकाओं की भी दृष्टि बदली और 'लघु आघात' ( संपादक : विक्रम सोनी ),  'पुन:' ( संपादक : कृणानंद कृष्‍ण ), ' साम्‍प्रत ' व 'लघुकथा टाइम्‍स' ( दोनों का संपादक इन्‍हीं पंक्तियों का लेखक ) और 'लघुकथा साहित्‍य' ( प्रधान संपादक : अशोक लव, संपादक : सुरेश अशोक लव जांगिड़ 'उदय' ) जैसी कुछ लघुकथा केंद्रित पत्रिकाएं भी निकलीं। शंकर पुणतांबेकर, रमेश बत्‍तरा, कमल चोपड़ा, भगवती प्रसाद द्विवेदी, जगदीश कश्‍यप, सतीश  दूबे, अशोक लव, बलराम अग्रवाल, कमलेश भारतीय, सतीश राठी, अशोक मिश्र, विक्रम सोनी, कमलेश भारतीय, सत्‍यनारायण नाटे और सुरेंद्र मंथन आदि जैसे कथाकारों की पहचान कायम हुई तो डा. व्रजकिशोर पाठक और चंद्रेश्‍वर कर्ण जैसे आलोचक सामने आए।  महत्‍वपूर्ण लेखन का माहौल अभी बन ही रहा था कि इसी बीच एक अजीब स्थिति पैदा हो गई।

अचानक देखते ही देखते संजीदा लेखकों ने 'लघुकथा' से किनाराकशी शुरू कर दी। उन्‍होंने इस ओर से ऐसा मुंह मोड़ा कि फिर किसी ने मुड़कर व्रज किशोर पाठक पीछे ताकना तक मुनासि‍ब नहीं समझा।  क्‍यों ? कारण हैं इस क्षेत्र में पैठे कुछ अगंभीर तत्‍वों की बेजा हरकतें। 'लघुकथा' को कुछ अर्द्धार्द्ध लेखक-धंधेबाजों की नजर लग गई। एक तो उन्‍होंने इसे आसान विधा मानकर -लघुकथा के नाम पर ताबड़तोड़ उल्‍टी-उबकाई शुरू कर दी, दूसरे अपने छापने-बेचने के मंदे धंधे को गति पकड़ाने के लिए औने-पौने लेखकों से रुपये ऐंठ-ऐंठकर उनकी जैसी-तैसी रचनाएं छापने और अपना  धंधा चलाने में जुट गए। इस क्रम में वे कचरे का पहाड़ खड़ा करने लगे। जाहिरन उनकी ऐसी तिजारती और शरारती गतिविधियां सृजनधर्मिता के सामान्‍य मानक-मूल्‍यों तक की धज्जियां उड़ाने वाली थीं। साथ-साथ यह व्‍यक्‍त करने वाली भी कि ऐसे तत्‍व वस्‍तुत: कलम-कागज प्रदेश के बुद्धि-जीवी नागरिक नहीं, बल्‍िक हेराफरी और उलटफेर वाले इलाकों के शातिर 'बुद्धि-वंचित बौने' थे। ऐसे तत्‍व जिनका लक्ष्‍य ही था लेखन-प्रकाशन के नाम पर भोंडा आत्‍मरंजन और सहयोगी आधार पर प्रकाशन करने व हर साल उल्‍टे-सीधे दावों के साथ अंट-शंट सम्‍मेलन के बहाने उन्‍मुक्‍त उगाही और मुद्रामोचन। उनकी तिजारत कैसी चली या पटना-मेरठ में छापने-बेचने का उनका लड़खड़ाता धंधा किस गति को प्राप्‍त हुआ यह तो नहीं पता चला किंतु दशकों बाद हिन्‍दी के कथा-साहित्‍य में किसी सर्जनात्‍मक आंदोलन के रूप में उगने वाली अपार सृजन-संभावनाओं वाली 'लघुकथा' उनकी हरकतों से कौड़ी का तीन होकर रह गई।

तभी से वे अपने नकार-डकार में तल्‍लीन हैं। तीन तिलंगे जुटकर कभी पटना में कोई 'राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन' ठोंक देते हैं तो कभी चार चौकड़ी एकत्र हो अन्‍यत्र कोई 'अन्‍तर्राज्‍यीय सम्‍मेलन'। ऐसी हरकतों से जो हश्र स्‍वाभाविक है, वही सामने है। लघुकथा क्षेत्र अंतत: हिन्‍दी साहित्‍य का एक ऐसा इलाका होकर रह गया है जिसे अब 'बुद्धि वंचित बौनों का अभयारण्‍य' माना जाने लगा है। यहां आम तौर पर न कोई प्रयोगधर्मी लेखन दिख रहा है,  न सतत् रचनारत कोई संजीदा नाम। दो दशकों से यह विधा संदिग्‍ध होने का संताप झेल रही है। इस बीच हास्‍यास्‍पद ढंग से बार-बार 'सम्‍मेलन' की कोई न कोई निष्‍प्रभ सूचना अक्‍सर कहीं झलक जाती है, जो वैधव्‍य-सिसकन जैसा आभास देती है। ले-देकर एक अकेला शख्‍स सुकेश साहनी है जिसके कुछ प्रयास उम्‍मीद की लौ को जिलाए हुए हैं। पुस्‍तक प्रकाशन और वेबदुनिया में 'लघुकथा डॉट कॉम' साइट के रूप में वह सतत् अलख जलाए हुए है, किंतु वह भी करें तो क्‍या ! लघुकथा में ऐसा कोई लेखन प्रयास ही संभव नहीं हो पा रहा जो एक चमक-कौंध के साथ पूरे हिन्‍दी साहित्‍य का ध्‍यान अपनी ओर खींच और इस विधा को विश्‍वसनीय आधार प्रदान कर सके।

Source:
http://shyambiharishyamal.blogspot.com/2012/10/blog-post.html

गुरुवार, 14 मार्च 2019

लघुकथा वीडियो: जरूरत | महेश शर्मा


महेश शर्मा जी के स्वर में


NIOS कक्षा 12वीं के हिन्दी पाठ्यक्रम में तीन लघुकथाएं

डा. बलराम द्वारा संपादित विश्व लघुकथा कोश के आठ खंडों में से दूसरे खंड से NIOS पाठ्यक्रम के लिए चयनित तीन लघुकथाएँ अन्य भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनुवादित की गई है। पहली तमिल लघुकथा ’’कवि और लोहार‘‘, दूसरी लघुकथा ’’क्या नहीं कर सकता‘‘ मणिपुरी तथा तीसरी लघुकथा ’’सड़क का आदमी‘‘ बांग्ला भाषा से हिन्दी में अनूदित की गयी है। आइये पढ़ते हैं:



Source:
http://visionpointnios.co.in/courses/301/33.pdf

मंगलवार, 12 मार्च 2019

लघुकथा | नेक काम | राजकुमार कांदु

गाँव में एक बार फिर हड़कंप मचा हुआ था । मुखिया के बेटे ने आज फिर एक शिकार किया था 'मुनिया' का । दबी जुबान से चर्चा शुरू थी मुनिया से हुए बलात्कार की लेकिन किसकी मजाल थी कि मुखिया या उसके लड़के के खिलाफ कोई शिकायत करता?

कुछ दिनों बाद कल्लू  के यहाँ आयी उसके दूर के एक रेिश्तेदार की लड़की ' रूबी ' शौच के लिए जाते हुए मुखिया के बेटे और उसके साथियों को दिखी। गाँव के बाहर शौच से वापस आते हुए रूबी का घात लगाकर बैठे मुखिया के बेटे और उसके तीन साथियों ने शिकार कर लिया। चारों ने जमकर अपनी मर्दानगी दिखाई उस अबला पर। लेकिन यह क्या ? इतने अत्याचार के बावजूद वह हँस रही थी। उन दरिंदों की उम्मीद के विपरीत उसका हँसना उन्हें अखर गया। एक लड़के ने पूछ ही लिया इसका कारण और जवाब सुनकर उनके पैरों तले जमीन खिसक गई । जवाब था
"मैं कल्लू की कोई रिश्तेदार विश्तेदार नहीं, सोनागाछी से आई एक वेश्या हूँ। एड्स की वजह से मेरा अंत नजदीक है, सोचा जाते-जाते कोई नेक काम करती जाऊँ। तुमने मेरा नहीं, मैंने तुम लोगों का शिकार करके इन गाँववालों को तुम्हारे अत्याचारों से मुक्ति दिला दी है। अब तुम सब अपनी जिंदगी के दिन गिनना शुरू कर दो।"


- राजकुमार कांदु

समीक्षा ब्लेसिंग: | मनोज कुमार | समीक्षाकार: परशुराम राय


रचनाकार के अन्दर धधकती संवेदना को पाठक के पास और पाठक की अनुभूति की गरमी को रचनाकार के पास पहुँचाना आँच का उद्धेश्य है। आँच के इस अंक में लघुकथा विधा पर विचार किया गया है। आँच के इस अंक के लिए लिया गया है- मनोज कुमार की लघुकथा ‘ब्लेसिंग’।

लघुकथा कथा-साहित्य की अर्वाचीनतम विधा है। लघुकथा का साहित्यशास्त्रीय विवेचन कम ही देखने को मिलता है। कहानी विधा के अंगों की तरह इसके भी अंग समान है, यथा कथावस्तु, पात्र, संवाद, संदेश आदि। इसकी कथावस्तु की भी चार अवस्थाएँ होती हैं- प्रारम्भ, विकास, चरमोत्कर्ष और अन्त। सीमित पात्रों की उपस्थिति, उनके चरित्र का मूल्यांकन या चरित्र-चित्रण कहानी की भाँति ही है। संवाद का पैनापन और संदेश की मुखरता आदि बिल्कुल कहानी-साहित्य की तरह ही हैं। तो अब विचारणीय प्रश्न यह है कि कहानी से लघुकथा को अलग कैसे किया जाय अथवा आधुनिकता के नाम का टीका लगाकर इति श्री कर दी जाय।

जहाँ तक साहित्यविदों से बातचीत हुई है और मैंने समझा है, उसके अनुसार कहानी और लघुकथा में केवल अन्तर काल का है, अर्थात् जो अन्तर कहानी और उपन्यास में है, वही अन्तर लघुकथा और कहानी में है। कहानी की अपेक्षा उपन्यास में घटनाओं की बहुलता होती है, और यह मुख्य पात्र के जीवन के आदि से अन्त तक की प्रमुख घटनाओं के तान-बाने से बना होता है। जब कि कहानी में जीवन की एक घटना और उससे जुड़े तारों को उपन्यास की अपेक्षाकृत कम पात्रों के माध्यम से अभीप्सित संदेश दिया जाता है। वैसे ही, लघुकथा में एक क्षणिक घटना के द्वारा कहानी की अपेक्षा काफी कम समय की घटना को पैने और पात्रानुकूल संवाद द्वारा सीमित और उचित पात्रों के माध्यम से संदेश सम्प्रेषित करना होता है।

आँच के इस भाग में इस ब्लाग पर प्रकाशित ‘ब्लेसिंग’ नामक लघुकथा पर समीक्षात्मक चर्चा की गयी है। यदि उपर्युक्त दूसरे अनुच्छेद में वर्णित को लघुकथा के लिए यार्ड स्टिक मान लें तो ‘ब्लेसिंग’ एक आदर्श लघुकथा है। जो कार्यालय में अधिकारी और उसी कार्यालय के मातहत कर्मचारी के बीच 15 मिनट से आधे घंटे के बीच हुई बातचीत के दौरान समाप्त हो जाती है।

‘ब्लेसिंग’ की भाषा बड़ी ही स्वाभाविक और पात्रों के अनुकूल है। हिन्दी और मिश्रित भाषा के संवाद है जैसे कि आजकल कार्यालयों में सुनने को मिलते हैं।

लघुकथा के लिया चुना गया परिवेश कोई बहुत खास नहीं है, बहुत सामान्य है। अधिकारी अपने कार्यलय में बैठे हुए फाइलों को निपटा रहा है। इसी बीच उसका एक अधीनस्थ कर्मचारी उसके कार्यलय में प्रवेश करता है, जिसे देखते ही अधिकारी बोल पड़ता है- ‘क्या बात है? आपके ट्रांसफर के बारे में मुझे कुछ नहीं सुनना है।’ यहीं से कथानक का प्रारंभ होता है। इतना सुनते ही कर्मचारी बताता है कि वह ट्रांसफर के बारे मे बात करने नहीं, बल्कि उनकी कार (खटारा) बीस हजार रूपये में खरीद कर, उसमें अपने पिता को कोलकाता शहर घुमाने के लिए उनकी ब्लेसिंग लेने आया है। यहीं से कथानक विकास की ओर अग्रसर होता है। थोड़ी बातचीत गाड़ी की कंडीशन के बारे में होती है और अन्त में बात पट जाती है। अधिकारी भी समझता है कि कबाड़ी के यहाँ किलो के भाव बिकने वाली केवल शो पीस बनी खटारा गाड़ी के बीस हजार रूपये मिल रहे हैं, बहुत हैं। कर्मचारी वस्तुपरक है। पांच हजार की भी न बिकने वाली गाड़ी की कीमत बीस हजार उसने यों ही नही लगाई है। अन्ततः वह अपने मन्तव्य में सफल होता है, वांछित ब्लेसिंग पाकर। बॉस खुश होकर उससे कहता है कि जाते समय ट्रांसफर वाली फाइल भिजवा दे। यहीं कथानक चरमोत्कर्ष पर भी पहुँचता है और पाठक को चमकृत करता हुआ यहीं अन्त भी हो जाता है।

इसे पढ़कर लगा है कि किसी बड़े ही मजे हुए लघुकथाकार के द्वारा लिखी गयी लघुकथा है। खटारा गाड़ी खरीदकर ट्रांसफर की ब्लेसिंग लेना और गाड़ी बेचकर ट्रांसफर की ब्लेसिंग देना व्यंजित करती ब्लेसिंग्स लघुकथा शब्द-संयम, समय-संयम, घटना-संयम, संवाद-संयम और पात्र-संयम समेटे पाठक को चमत्कृत करने का शॉक देकर आनन्दित करती है। ब्लेसिंग वास्तव में पाठक के लिए भी ब्लेसिंग है।

इस लघुकथा में कथानक का उत्कर्ष और अन्त अंतिम एक वाक्य में होने से एक प्रेरणा मिली, लघुकथा को पुनः परिभाषित करने की और कहानी से अलग करने की कि कथानक के उत्कर्ष और अन्त का एक बिन्दु होना लघुकथा के आवश्यक अंग के रूप में लिया जाय।

- परशुराम राय

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लघुकथा: ब्लेसिंग | मनोज कुमार


“में आई कम-इन सर?”

“यस कम इन।”

“गुड मार्निंग सर।”

“मार्निंग”

“कैन आई सिट सर?”

“ओह यस-यस प्लीज ।..................अरे तुम ? अगर तुम अपने ट्रांसफर की बात करने आए हो, तो सॉरी, तुम जा सकते हो।”

“नहीं सर मैं तो...आपके...........।”

“देखो तुम जब से इस नौकरी में हो, यहीं, इसी मुख्यालय में ही काम करते रहे हो। तुम्हारे कैरियर के भले के लिए तुम्हें अन्य कार्यालय में भी काम करना चाहिए। और गोविन्दपुर में जो हमारा नया ऑफिस खुला है , उसके लिए हमें एक अनुभवी स्टाफ की आवश्यकता थी। हमें तुमसे बेहतर कोई नहीं लगा।”

“सर मैं तो इस विषय पर बात ही नहीं करने आया। मैं तो उसी दिन समझ गया था जिस दिन ट्रांसफर ऑर्डर निकला था – कि आपने जो भी किया है मेरी भलाई के लिए ही किया है। मैं तो कुछ और ही बात करने आया हूँ।”

“ओ.के. देन ... बोलो...............।”

“सर वो,.............थोड़ा लाल बत्ती जला देते । कोई बीच में न आ जाए। ”

“देखो तुम घूम-फिर कर कहीं ट्रांसफर वाली बात तो नहीं करोगे। ”

“नहीं सर। बिल्कुल नहीं। कुछ पर्सनल है सर।”

“क्या?”

“सर मेरे पिता जी काफी बूढ़े हो गए हैं। उनकी इच्छा थी कि मैं एक गाड़ी खरीदूँ और उन्हें उस गाड़ी में इस पूरे महानगर में घुमाऊँ।”

“तो इसमें मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ ?”

“सर ! बस आपकी ब्लेसिंग चाहिए। आप तो इसी महीने के अन्त में सेवानिवृत होकर चले जाएंगे। सुना है आपके पास एक गाड़ी है।”

“हां है तो। वो 80 मॉडल गाड़ी हमेशा गराज में पड़ी रहती है।”

“सर उसे .....आप ............।”

“अरे बेवकूफ वो तुम्हारे किस काम आएगी। पिछले चार सालों में उसकी झाड़-पोछ भी नहीं की गई है। उसे तो कोई पांच हजार में भी नहीं खरीदेगा। उससे ज़्यादा तो उसे मुझे अपने होमटाउन ले जाने का भाड़ा लग जाएगा। मैं तो उसे यहीं छोड़................।”

“सर मैं खरीदूंगा सर। आप बीस हजार में उसे मुझे बेच दीजिए।”

“पर...................लेकिन .......गराज..........नहीं ...नहीं।”

“सर। प्जीज सर। नई गाड़ी तो मेरी औकात के बाहर है। कम से कम इससे मैं अपने माता-पिता का सपना उनके प्राण-पेखरू उड़ने के पहले पूरा तो कर लूंगा।”

“यू आर टू सेंटिमेंटल टूवार्डस योर पैरेंट्स। आई शुड रिस्पेक्ट इट। ओ.के. ... डन। आज से, नहीं-नहीं अभी से गाड़ी तुम्हारी।”

“थैंक्यू सर।... पर एक प्रॉब्लम है सर।”

“क्या?”

“आपकों तो मालूम है कि मैं गाड़ी चलाना ठीक से नहीं जानता। नया-नया सीखा हूं। अब मेरे घर, माधोपुर से तो इस ऑफिस तक का रास्ता बड़ा ठीक-ठाक है, भीड़-भाड़ भी नहीं रहती, किसी तरह आ जाऊंगा। पर सर आप तो जानते ही हैं कि गोविन्दपुर का रास्ता....................... वहां तो शायद मैं इस कार को नहीं ले जा पाऊँगा।”

“दैट्स ट्रू। ब्लडी दैट एरिया इज भेरी बैड। पूरा रास्ता टूटा-फूटा है। उस पर से भीड़ भाड़, .... यू हैव ए प्वाईंट।...............मिस जुली.......जरा इस्टेब्लिशमेंट के बड़ा बाबू को ट्रांसफर ऑर्डर वाली फाईल के साथ बुलाइए।”

“थैंक्यू सर। गुड डे सर।”

Source:
http://manojiofs.blogspot.com/2010/02/blog-post_11.html