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बुधवार, 6 जून 2018

लघुकथा विधा : तेवर और कलेवर - श्री योगराज प्रभाकर

योगराज प्रभाकर जी, प्रधान संपादक, ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम ने लघुकथा विधा पर एक लेख अपनी वेबसाइट openbooksonline.com पर साझा किया हुआ है। लघुकथा के अनुशासन, शिल्प, नियम एवं संरचना  को समझने के लिए आसान भाषा में लिखा यह एक महत्वपूर्ण लेख है, जिसे  लघुकथाकारों को अवश्य पढ़ना चाहिए। 

यह लेख निम्न लिंक पर उपलब्ध है, पढ़ने के लिए लेख के शीर्षक (निम्नानुसार) पर क्लिक कीजिये:
लघुकथा विधा : तेवर और कलेवर -  श्री योगराज प्रभाकर

शुक्रवार, 1 जून 2018

मेरी याद (लघुकथा)

रोज़ की तरह ही वह बूढा व्यक्ति किताबों की दुकान पर आया, आज के सारे समाचार पत्र खरीदे और वहीँ बाहर बैठ कर उन्हें एक-एक कर पढने लगा, हर समाचार पत्र को पांच-छः मिनट देखता फिर निराशा से रख देता।

आज दुकानदार के बेटे से रहा नहीं गया, उसने जिज्ञासावश उनसे पूछ लिया, "आप ये रोज़ क्या देखते हैं?"

"दो साल हो गए... अख़बार में मेरी फोटो ढूंढ रहा हूँ...." बूढ़े व्यक्ति ने निराशा भरे स्वर में उत्तर दिया।

यह सुनकर दुकानदार के बेटे को हंसी आ गयी, उसने किसी तरह अपनी हंसी को रोका और व्यंग्यात्मक स्वर में पूछा, "आपकी फोटो अख़बार में कहाँ छपेगी?"

"गुमशुदा की तलाश में..." कहते हुए उस बूढ़े ने अगला समाचार-पत्र उठा लिया।

-0-

- डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी    

रविवार, 6 मई 2018

जानवरीयत (लघुकथा)

वृद्धाश्रम के दरवाज़े से बाहर निकलते ही उसे किसी कमी का अहसास हुआ, उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को टटोला और फिर पीछे पलट कर खोजी आँखों से वृद्धाश्रम के अंदर पड़ताल करने लगा। उसकी यह दशा देख उसकी पत्नी ने माथे पर लकीरें डालते हुए पूछा, “क्या हुआ?”

उसने बुदबुदाते हुए उत्तर दिया, “अंदर कुछ भूल गया…”

पत्नी ने उसे समझाते हुए कहा, “अब उन्हें भूल ही जाओ, उनकी देखभाल भी यहीं बेहतर होगी। हमने फीस देकर अपना फ़र्ज़ तो अदा कर ही दिया है, चलो…” कहते हुए उसकी पत्नी ने उसका हाथ पकड़ कर उसे कार की तरफ खींचा।

उसने जबरन हाथ छुड़ाया और ठन्डे लेकिन द्रुत स्वर में बोला, “अरे! मोबाइल फोन अंदर भूल गया हूँ।”

“ओह!” पत्नी के चेहरे के भाव बदल गए और उसने चिंतातुर होते हुए कहा,

“जल्दी से लेकर आ जाओ, कहीं इधर-उधर हो गया तो? मैं घंटी करती हूँ, उससे जल्दी मिल जायेगा।”

वह दौड़ता हुआ अंदर चला गया। अंदर जाते ही वह चौंका, उसके पिता, जिन्हें आज ही वृद्धाश्रम में दाखिल करवाया था, बाहर बगीचे में उनके ही घर के पालतू कुत्ते के साथ खेल रहे थे। पिता ने उसे पल भर देखा और फिर कुत्ते की गर्दन को अपने हाथों से सहलाते हुए बोले, “बहुत प्यार करता है मुझे, कार के पीछे भागता हुआ आ गया… जानवर है ना!”

डबडबाई आँखों से अपने पिता को भरपूर देखने का प्रयास करते हुए उसने थरथराते हुए स्वर में उत्तर दिया, “जी पापा, जिसे जिनसे प्यार होता है… वे उनके पास भागते हुए पहुँच ही जाते हैं…”

और उसी समय उसकी पत्नी द्वारा की हुई घंटी के स्वर से मोबाइल फोन बज उठा। वो बात और थी कि आवाज़ उसकी पेंट की जेब से ही आ रही थी।


रविवार, 15 अप्रैल 2018

छुआछूत (लघुकथा)


'अ' पहली बार अपने दोस्त 'ब' के घर गया, वहां देखकर उसने कहा,  "तुम्हारा घर कितना शानदार है - साफ और चमकदार"

"सरकार ने दिया है, पुरखों ने जितना अस्पृश्यता को सहा है, उसके मुकाबले में आरक्षण से मिली नौकरी कुछ भी नहीं है, आओ चाय पीते हैं"

चाय आयी, लेकिन लाने वाले को देखते ही 'ब' खड़ा हो गया, और दूर से चिल्लाया, "चाय वहीँ रखो...और चले जाओ...."

'अ' ने पूछा, "क्या हो गया?"

"अरे! यही घर का शौचालय साफ़ करता है और यही चाय ला रहा था!"

-- डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

मंगलवार, 6 मार्च 2018

पुस्तक समीक्षा: देश-विदेश से कथाएं - संपादन : अशोक भाटिया

देश-विदेश से कथाएं : गिने-चुने शब्दों में दीन-दुनिया की अनगिनत बातें
अगर आपके पास वक्त की कमी है, लेकिन कुछ अच्छा साहित्य पढ़ना चाहते हैं तो आपको ये लघुकथाएं जरूर पढ़नी चाहिए
Satyagrah | 05 मार्च 2017 |

संपादन : अशोक भाटिया
प्रकाशन : साहित्य उपक्रम
कीमत : 80 रुपये


कहने का अंदाज क्या हो, अक्सर खुद बात ही यह तय करती है. कभी कोई बात कविता में कही जाती है, तो कभी कहने के लिए कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध,लेख या फिर लघुकथा का सहारा लिया जाता है. इन विधाओं में लघुकथा को भले ही बाकियों जितना महत्व न मिला हो लेकिन यह साहित्य में आज भी जिंदा है. न सिर्फ भारत बल्कि दुनियाभर के साहित्य में लघुकथा ने अपनी उपस्थिति दर्ज की है.

‘देश-विदेश से कथाएं’ में अशोक भाटिया ने दुनियाभर के 66 लेखकों और 18भाषाओं की बहुत अच्छी लघुकथाएं संकलित की हैं. अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, स्पेनिश, जापानी, अरबी, फारसी, चीनी आदि विदेशी भाषाओं की लघुकथाएं इस किताब में शामिल हैं तो वहीं हिन्दी-उर्दू के साथ दूसरी भारतीय भाषाओं की लघुकथाएं भी यहां मिलेंगी.

इन लघुकथाओं में जहां एक तरफ सामाजिक विसंगतियों और नैतिकता पर व्यंग्य है, वहीं दूसरी तरफ मानवीय मूल्यों को समाज में स्थापित करने की तीव्र इच्छा भी है. ऐसी ही बहुत अच्छी अरबी लघुकथा है, ‘पागलखाना’. खलील जिब्रान इस लघुकथा में सभ्य समाज के उन मूल्यों और अपेक्षाओं पर तंज कसते हैं, जिसमें खुद को श्रेष्ठ मानने वाला हर व्यक्ति दूसरे को अपने जैसा बनाने पर अमादा है. खलील जिब्रान तर्कसंगत तरीके से आदर्शां से भरी दुनिया को असली पागलखाना साबित कर देते हैं-

‘उस पागलखाने के बगीचे में एक युवक से मेरी भेंट हो गई... मैं उसकी बगल में ही बेंच पर जा बैठा और उससे पूछा, ‘अरे, तुम यहां कैसे आए?’...‘मेरे शिक्षक और तर्कशास्त्र के अध्यापक, सब के सब इस बात पर आमादा हैं कि वे मुझमें दर्पण की तरह अपना प्रतिबिम्ब देखें. इसलिए मुझे यहां आना पड़ा. यहां मैं अधिक सहज हूं. कम से कम यहां मेरा अपना व्यक्तित्व तो है.’अचानक मेरी ओर घूमकर वह बोला, ‘लेकिन यह बताइए, आप यहां कैसे आए ? क्या आपको भी आपकी शिक्षा और सद्बुद्धि ने यहां आने के लिए प्रेरित किया ?’

मैंने उत्तर दिया, ‘नहीं, मैं तो यहां एक दर्शक के रूप में आया हूं.’ उसने कहा, ‘समझा! आप इस चहारदीवारी के बाहर के विस्तृत पागलखाने के निवासी हैं.’

भारत-पाकिस्तान के प्रमुख प्रगतिशील कथाकार जोगिंदर पाल को इस विधा में खासा ऊंचा मुकाम हासिल है. इस किताब में उनकी दो लघुकथाएं शामिल हैं और दोनों ही दिल को बेहद छूने वाली हैं. ‘जागीरदार’ नाम की लघुकथा का अंत तो सुन्न कर देने वाला है. इसमें एक पिता अपनी 12-13 साल की बेटी के हाथ में एक चिठ्ठी देकर लेखक के पास भेजता है. चिठ्ठी में माली हालत का जिक्र करते हुए, कम से कम पांच रुपये देने की बात लिखी होती है. लेखक पांच रुपये दे देता है. फिर और भी कई बार वह लड़की ऐसी ही चिठ्ठी लेकर आती है, लेकिन अब लेखक उसे दो रुपये देकर भेज देता है. यह घटना कई बार दोहराई जाती है. फिर कई महीनों के बाद एक दिन वह व्यक्ति स्वयं लेखक के पास आता है और कहता है (लघुकथा की पंक्तियां) –

‘इस बार लड़की को चिठ्ठी देकर नहीं भेजा. आप ही हाजिर हो गया हूं. मुझे आपसे यह निवेदन करना है कि... ‘मैंने उसे दो रुपये देने के लिए जेब में हाथ डाला. ‘नहीं, ठहरिए, पहले मेरी विनती सुन लीजिए - मैं अपनी चिठ्ठियों में जो रकम लिखूं, कृपया आप वही भेजा करें.’
मैं उसकी तरफ हैरत और गुस्से से देखने लगा.

‘मेरी बेटी अब पूरी जवान हो चुकी है जनाब. आपको अब तो पूरे ही पैसे चुकाने होंगे.’

इस किताब में शामिल चीनी भाषा की लघुकथा ‘नींद’ पति-पत्नी के रिश्ते की बहुत ही प्यारी कहानी है. इसमें एक पति द्वारा अपनी पत्नी के लिए किए गए त्याग-भाव का छू लेने वाला वर्णन है. लियो टॉल्सटॉय की लघुकथा ‘बोझ’ एक घोड़े के माध्यम से मालिक की झूठी चिंता पर तंज करती है –

‘कुछ फौजियों ने दुश्मन के इलाके पर हमला किया तो एक किसान भागता हुआ खेत में अपने घोड़े के पास गया और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा, पर घोड़ा था कि उसके काबू में ही नहीं आ रहा था.

किसान ने उससे कहा, ‘मूर्ख कहीं के, अगर तुम मेरे हाथ न आये तो दुश्मन के हाथ पड़ जाओगे.’

‘दुश्मन मेरा क्या करेगा ?’ घोड़ा बोला.

‘वह तुम पर बोझ लादेगा और क्या करेगा’

‘तो क्या मैं तुम्हारा बोझ नहीं उठाता?’ घोड़े ने कहा, ‘मुझे क्या फर्क पड़ता है कि में किसका बोझ उठाता हूं.’

इस किताब में अशोक भाटिया ने काफी अच्छी लघुकथाओं को संकलित किया है. अपवाद छोड़कर लगभग सभी अनुवादकों ने अच्छा अनुवाद किया है. अरबी लघुकथाएं ‘पागल खाना’, ‘आजादी’, ‘वह पवित्र नगर; उर्दू भाषा की ‘जागीरदार, ‘नहीं रहमान बाबू; चीनी की ‘नींद’; रूसी की ‘बोझ; जर्मन की ‘कानून के मुहाने पर’; अंग्रेजी की ‘पिछले बीस वर्ष’, ‘ईसा के चित्र’, ‘रंग-भेद’; स्पेनिश की ‘आखिरी स्टेशन’; बांग्ला की ‘नीम का पेड़’; ‘हिंदी की ‘पेट का कछुआ‘, ‘पेट सबके हैं’, ‘बयान’, ‘बिना नाल का घोड़ा’, ‘कपों की कहानी’, ‘कसौटी’, ‘आग’; पंजाबी की ‘भगवान का घर’, ‘प्रताप’; तेलुगु की ‘स्पर्श’, ‘भोज्येषु माता’, ‘टैस्ट’; मलयाली की ‘उपनयन’; मराठी की ‘बकरी’, ‘सत्कार’; गुजराती की ‘विदाई’; कश्मीरी की ‘फाटक’ आदि लघुकथाएं पाठक की सीरत पर असर डालने वाली लगती हैं.

किताब की कीमत इसमें संकलित सामग्री के हिसाब से बहुत कम है. साहित्य उपक्रम इस मामले में साहित्य को समर्पित सच्चा प्रकाशन लगता है जो लोगों की जेब का ख्याल करके उन तक उत्कृष्ट साहित्य को पहुंचाने की दिशा में सराहनीय काम कर रहा है. किताब में सभी लेखकों के बारे में संक्षेप में बताया गया है. इतने सारे लेखकों का परिचय पढ़ना और साथ में उनके कृतित्व की बानगी देखना अपने आप में बेहद रोचक है. विश्व और हिंदी से इतर दूसरी भाषाओं की लघुकथाओं को एक साथ संकलित करना, इस संग्रह को और भी समृद्ध बनाता है. भागादौड़ी की दिनचर्या में पाठकों को साहित्य से जोड़े रखने को ये लघुकथाएं प्रेरित करती हैं. लगता है जैसे कहती हों, ‘हमें आपकी लंबी सिटिंग नहीं चाहिए, कभी भी, कहीं भी...आपका स्वागत है.’


Source:
https://satyagrah.scroll.in/article/105298/book-review-desh-videsh-se-kathayen-ashok-bhatiya

शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

मैं पानी हूँ (लघुकथा)

"क्या... समझ रखा है... मुझे? मर्द हूँ... इसलिए नीट पीता हूँ... मरद हूँ... मुरद...आ"
ऐसे ही बड़बड़ाते हुए वह सो गया. रोज़ की तरह ही घरवालों के समझाने के बावजूद भी वह बिना पानी मिलाये बहुत शराब पी गया था.

कुछ देर तक यूं ही पड़ा रहने के बाद वह उठा. नशे के बावजूद वह स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रहा था, लेकिन कमरे का दृश्य देखते ही अचरज से उसकी आँखें फ़ैल गयीं, उसके पलंग पर एक क्षीणकाय व्यक्ति लेटा हुआ तड़प रहा था.

उसने  उस व्यक्ति को गौर से देखा, उस व्यक्ति का चेहरा उसी के चेहरे जैसा था. वह घबरा गया और उसने पूछा, "कौन हो तुम?"
उस व्यक्ति ने तड़पते हुए कहा, "...पानी..."

और यह कहते ही उस व्यक्ति का शरीर निढाल हो गया. वह व्यक्ति पानी था, लेकिन अब मिट्टी में बदल चुका था.

उसी समय कमरे में उसकी पत्नी, माँ और बच्चों ने प्रवेश किया और उस व्यक्ति को देख कर रोने लगे. वह चिल्लाया, "क्यों रो रहे हो?"

लेकिन उसकी आवाज़ उन तक नहीं पहुंच रही थी.
वह और घबरा गया, तभी पीछे से किसी ने उसे धक्का दिया, वह उस मृत शरीर के ऊपर गिर कर उसके अंदर चला गया. वहां अँधेरा था, उसे अपना सिर भारी लगने लगा और वह तेज़ प्यास से व्याकुल हो उठा. वह चिल्लाया "पानी", लेकिन बाहर उसकी आवाज़ नहीं जा पा रही थी.

उससे रहा नहीं गया और वह अपनी पूरी शक्ति के साथ चिल्लाया, "पा...आआ...नी"

चीखते ही वह जाग गया, उसने स्वप्न देखा था, लेकिन उसका हलक सूख रहा था. उसने अपने चेहरे को थपथपाया और पास रखी पानी की बोतल को उठा कर एक ही सांस में सारा पानी पी लिया.

और उसके पीछे रखी शराब की बोतल नीचे गिर गयी थी, जिसमें से शराब बह रही थी... बिना पानी की

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

शह की संतान (लघुकथा)


तेज़ चाल से चलते हुए काउंसलर और डॉक्टर दोनों ही लगभग एक साथ बाल सुधारगृह के कमरे में पहुंचे। वहां एक कोने में अकेला खड़ा वह लड़का दीवार थामे कांप रहा था। डॉक्टर ने उस लड़के के पास जाकर उसकी नब्ज़ जाँची, फिर ठीक है की मुद्रा में सिर हिलाकर काउंसलर से कहा, "शायद बहुत ज़्यादा डर गया है।"

काउंसलर के चेहरे पर चौंकने के भाव आये, अब वह उस लड़के के पास गया और उसके कंधे पर हाथ रख कर पूछा, "क्या हुआ तुम्हें?"

फटी हुई आँखों से उन दोनों को देखता हुआ वह लड़का कंधे पर हाथ का स्पर्श पाते ही सिहर उठा। यह देखकर काउंसलर ने उसके कंधे को धीमे से झटका और फिर पूछा, "डरो मत, बताओ क्या हुआ?"

वह लड़का अपने कांपते हुए होठों से मुश्किल से बोला, "सर... पुलिस वालों के साथ...  लड़के भी मुझे डराते हैं... कहते हैं बहुत मारेंगे... एक ने मेरी नेकर उतार दी... और दूसरे ने खाने की थाली..." 

सुनते ही बाहर खड़ा सिपाही तेज़ स्वर में बोला, "सर, मुझे लगता है कि ये ही ड्रामा कर रहा है। सिर्फ एक दिन डांटने पर बिना डरे जो अपने प्रिंसिपल को गोली मार सकता है वो इन बच्चों से क्या डरेगा?"

सिपाही की बात पूरी होने पर काउंसलर ने उस लड़के पर प्रश्नवाचक निगाह डाली, वह लड़का तब भी कांप रहा था, काउंसलर की आँखें देख वह लड़खड़ाते स्वर में बोला,

"सर, डैडी ने मुझे कहा था कि... प्रिंसिपल और टीचर्स मुझे हाथ भी लगायेंगे तो वे उन सबको जेल भेज देंगे... उनसे डरना मत.... लेकिन उन्होंने... इन लड़कों के बारे में तो कभी कुछ नहीं..." 

कहते हुए उस लड़के को चक्कर आ गए और वह जमीन पर गिर पड़ा।



- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी