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शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

लघुकथा : हवा | सुरेश सौरभ

     दरवाजा खुला। 

    "इतनी रात कहां कर दी।" अब्बू गुस्से से आगबबूला थे। 

      "कार्यक्रम ही लंबा खिंचा। क्या करती ?"

      "क्या था कार्यक्रम? "

      "राम भजन संध्या।" तसल्ली से बैठते हुए बेटी बोली। 

      "अरे! तुमने गया राम भजन? 

      "हां हां...फिर पर्स से नोट निकालते हुए वह गिनने लगी, एक दो तीन.....नोटों की चमक से,अब्बू की आंखें चुधिंया गईं, "तू तो नात-ए-पाक कव्वाली गाती थी, फिर राम भजन....?" 

       वह नोट गिरने में तन्मय थी।

       "वाह! पूरे सोलह हजार, इनाम मिलाकर। इतने कम समय में इतने कभी न मिले। हां अब्बू अब बताओ क्या कह रहे थे आप ?"

      "यही कि तू तो कुछ और ही गाती थी। फिर अचानक राम भजन.."

       "हवा का रुख देखकर पंछी भी परवाज भरते हैं, फिर मैं तो इंसान हूं...हा हा हा....हंसते हुए आंखें नचाकर, "अब्बू आप भी कुछ समझा करो।"

        अब अब्बू भी मुस्करा कर प्यार से बोले-"सलमा बेटी अगली भजन संध्या कब है।"

        "परसो।"


    -सुरेश सौरभ

      स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

       निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश

        मो-7860600355


सोमवार, 8 जनवरी 2024

नैतिक मूल्यहीनता पर वैश्विक विमर्श की ओर उन्मुख लघुकथाएँ - सुरेश सौरभ

आज हर क्षेत्र में हम बढ़ रहे हैं, किन्तु चरित्र के मामले गिरते जा रहे हैं। आज पढ़े-लिखे ही नित रोज भ्रष्टाचार में संलिप्त दिखाई देते हैं, जो एक रुपया ऊपर से चलता है, नीचे तक आते-आते वह 15 पैसे ही रह जाता है, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी कभी ऐसा कहते थे। हर क्षेत्र में नैतिक मूल्यों की गिरावट आयी है, फिर चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या राजनीति का। शिक्षालयों  में जहाँ देश के भविष्य का निर्माण होता है, वहाँ आज नैतिक मूल्यों में गिरावटें दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं, जो विद्यार्थी जिस विषय में टॉप करता है, वहीं पत्रकारों के सवाल के जवाब में अपना सही विषय नहीं बता पाता है। अनामिका शुक्ला जैसी शिक्षक-शिक्षिकाएँ फर्जी तरीके से करोड़ों का कैसेे गबन कर रहे हैं, यह प्रतिदिन अखबारों में खुलासे हो रहे हैं। ऐसे में भ्रष्ट चरित्रहीन शिक्षक-शिक्षिकाएँ क्या बच्चों को शिक्षा देंगे? यह सवालिया विषय है। आज दशा ये है, जिसे नकल रोकने की जिम्मेदारी दी गई है, वही नकल कराने की तरतीब बताता है, जिसे बिजली चोरी रोकने की जिम्मेदारी दी गई, वही बिजली चोरी के नये तरीके बता रहा है। जिसे  अपराध रोकने की जिम्मेदारी दी गई, वही अपराधियों को बचाने का ठेका लिए बैठा है। माँ-बाप के पास बच्चों के लिए समय नहीं, बच्चे मोबाइल देख-देख कर जवान हो रहे हैं। व्यवसायिकता की आँधी में संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। परिवार जैसी संस्था का, संस्कारों का, रोज जनाजा निकल रहा है। नैतिक मूल्यों पर चर्चा कहीं नहीं होती, चर्चा सिर्फ माँ-बाप अपने बच्चों से यही करते है कि कैसे अधिक से अधिक पैसे कमाए जाए, कैसे अमीर बन कर शोहरत हासिल की जाए। युवा लेखक नृपेन्द्र अभिषेक ‘नृप’ की  पुस्तक ’ऊर्जस्वी’ अभी जल्दी ही आयी है, जिसमें वह लिखते हैं-पृथ्वी का सबसे बुद्धिमान प्राणी इंसान होता है। लेकिन इंसान की फितरत होती है कि वह कभी संतुष्ट नहीं होता। उसे जितना प्राप्त हुआ, उससे ज्यादा पाने की चाह में निराश होते रहता है।’’ 

गिरते नैतिक मूल्यों पर वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज जी कहते हैं-
होठों पर मुस्कान सजा कर आए हैं/चंद लुटेरे वेश बना कर आए हैं 

वहीं खीरी के वरिष्ठ कवि नंदी लाल जी कहते हैं।
सभ्यता पर नग्नता के जो कलैंडर टँग गए/प्यार के किस्से सभी  अखबार वाले पूछते,

संजीव जायसवाल ‘संजय’ का बाल कहानी संग्रह ‘सोशल मीडिया का राजकुमार’ तथा राजेन्द्र वर्मा का लघुकथा संग्रह ‘विकल्प’ अभी जल्द ही प्रकाशित हुए हैं, जिनकी लघुकथाओं में गिरते नैतिक-शैक्षिक मूल्यों पर दोनों लेखकों का विशद चिंतन-मनन पाठकों के मन की ग्रंथियों को पर्त दर पर्त खोलने, बहुत कुछ विचार करने को विवश करता है। मेरी पसंद में जो मैंने लघुकथाएँ योगराज प्रभाकर और चित्तरंजन गोप की ली हैं, वह कुछ ऐसी ही चिंतन और चेतना को झंकृत करती हैं। मानवीय संवेदनाओं को संजोती हैं, गिरते सामाजिक मूल्य, चारित्रिक मूल्य पर एक वैश्विक विमर्श पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करतीं हैं। 

आज हम अपने बच्चों को शिक्षित करने और पैसा कमाने के लिए मोटीवेशन की क्लास खूब करा रहे हैं, पर चरित्र की गिरावट और इससे हो रहे प्रतिदिन अपराधों को कैसे रोकें, उनमें संस्कारों का बीजारोपण कैसे करें, यह दीक्षा हम नहीं दे पा रहें हैं। स्त्रियों और पुरूषों को अंधविश्वासों, रूढ़ियों, लिंग भेद और साम्प्रदायिकता से आजादी चाहिए, न कि उन्हें अशिष्ट यौनाचार की। अगर उन्हें प्रगतिशीलता के नाम से यौनाचार की पूरी आजादी दे जायेगी, तो हममें और पशुओं में कोई फर्क नहीं रहेगा और यह आजादी कभी भी व्यसायिक रूप ले सकती है, आपराधिक रूप ले सकती है, यानि काफी हद तक ले भी चुकी है। ऐसा ही विमर्श को, योगराज जी की लघुकथा 'आँच' प्रस्तुत करती है। शिक्षा के मंदिरों में गिरते नैतिक मूल्यों पर डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाएँ ‘डर के दायरे’ 'मैं टीचर नहीं' आदि भी सार्थक संदेश देती हैं। वहीं अपनी लघुकथाओं को जन-मन की शिराओं तक पहुँचने वाले लघुकथा के कुशल कलाकार सुकेश साहनी की 'नपुसंक' जैसी कई लघुकथाएँ, शिक्षा के मंदिरों में गिरते नैतिक मूल्यों पर गहन  चिन्तन और चेतना को जन-जन तक पहुँचाने में सफल रही हैं। लघुकथा कलश के माध्यम से योगराज प्रभाकर जी, लघुकथाओं को वैश्विक पहचान दिलाने में महती योगदान दे रहे हैं। उनकी अनेक लघुकथाएँ समाज को वह आईना दिखती हैं, जिसे देखने से दिम्भ्रमित समाज को सही रास्ता ही नहीं, सही मंजिल भी मिल सकती है। योगराज जी के बारे में डॉ.  पुरूषोत्तम दूबे लिखते हैं। "पंजाब प्रांत में बहने वाली पाँच नदियों का पवित्र आचमन शिरोधार्य कर पंजाब प्रांत के शहर पटियाला का ‘पंजाबी पुत्तर‘ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर हिंदी लघुकथा के क्षेत्र में पंजाब में प्रवाहमान पाँच नदियों का आब अंजुरी में भरकर हिंदी लघुकथा के मस्तक को अभिषिक्त करने आया है। यह एक हिंदीतर प्रांत से, हिंदी लेखन के क्षेत्र में हिंदी की सेवा का भाव लेकर उतरे, इस रचनाकार का भाषागत सौहार्द का मणि-काँचन संयोग जैसा है।’’
योगराज जी की लघुकथा ‘आँच’ आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में आ रही गिरावट को न सिर्फ रेखांकित करती है, बल्कि सुसुप्त हो रही हमारी प्रज्ञा को, मेधा को, चेतना को जाग्रत करने  का सद्कार्य करती है।
चित्तरंजन गोप आज लघुकथा के क्षेत्र मे काफी शोहरत हासिल कर चुके है। अभी तक उनका कोई एकल लघुकथा संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है। अपनी अनोखे कहन, अद्भुत शिल्प और दमदार कथ्य के द्वारा पाठको में देर तक और दूर तक अपनी पहचान बना चुके हैं। आज आदिवादी विमर्श बहुत तेजी से हिन्दी साहित्य में विमर्श का महत्वपूर्ण हिस्सा बनता जा रहा है।मीरा जैन, पूरन सिंह, मार्टिन जॉन, जैसे अनेक लघुकथाकार आदिवासी विमर्श को निरंतर अपनी लघुकथाओं से आगे बढ़ा रहे हैं। आदिवासियों की दुश्वारियों पर, समस्याओ पर तो चर्चा विमर्श बहुत होते रहते हैं, फिर भी उन्हें  सदियों से वह हक-हुकूक नहीं मिल पाये, जिसकी उन्हें आज भी दरकार है। गोप जी आदिवासी क्षेत्र में रहते हैं, जो देखते हैं वह लिखते हैं। यह होना भी चाहिए। लघुकथा ‘एक ठेला स्वप्न’ में अदिवासी विमर्श को उन्होंने नई धार दी है। प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है कि जो आप लिखना चाहते हैं, जब तक उसे देखेंगे नहीं महसूस नहीं करेंगे, तब तक आप बेहतरीन नहीं लिख सकते।'
प्रसिद्ध पत्रकार अजय बोकिल लिखते हैं, ‘‘लघुकथा अपने आप में बहुत मारक और पिन पॉइंटेड होती है। वर्णनात्मकता की बजाए संक्षिप्तता, सूक्ष्मता और सांकेतिकता लघुकथा के प्रभावी औजार हैं। अगर इसमें सोद्देश्यता भी जुड़ जाए तो सोने पे सुहागा होता है।’’
निश्चित रूप से आज लघुकथा अपनी इसी गति-मति से, अपने इसी उद्देश्यपूर्ण ढंग से, अपनी मंजिल की ओर सदानीरा गंगा की तरह प्रवाहमान  है। 
बकौल गोप साहित्य का उद्देश्य अन्त्योदय होना चाहिए। हर उस अंतिम व्यक्ति की समस्या तक पहुँचे, जिसकी बात सत्ता, सियासत और उसके पहरूए न सुन रहे हो, न कह रहे हो।
सदियाँ बीत गयीं, आज भी करोड़ों आदिवासी मूलभूत, अधिकारों, सुविधाओं से वंचित हैं। उन्हें उनकी दशा में छोड़ने वाले कहते हैं कि वह अपनी संस्कृति अपनी कला को संजो रहे हैं, इसलिए वह जंगल नहीं छोड़ रहे हैं, अपनी मूल प्रवृत्ति नहीं छोड़ रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि तमाम समान्तवादी और वर्णवादी व्यवस्थाएँ, ऐसी साजिशें बदस्तूर जारी रखें हैं, जिससे, वह जहाँ हैं वहीं रहें। संविधान ने सबको काम का, शिक्षा का, समानता का अधिकार दिया है। आंबेडकर जी के संविधान से बहुत कुछ बदल रहा है, असमानता की दीवारें धराशायी हो रहीं हैं, पर आज भी करोड़ों आदिवासी घुमन्नू जातियों के आपत्तिजनक,भदेस वीडियो बना कर लोग शोसल मीडिया पर अपलोड कर रहे हैं, जिस कारण अदिवासी समाज कौतूहल और मनोरंजन का विषय बना हुआ है। प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह घोर चिंता और विमर्श का विषय है। दोनों लघुकथाएँ उपर्युक्त, विचारों को भावों को प्रस्तुत कर रहीं हैं। लघुकथा मेरी प्रिय विधा है। अनेक लघुकथाकार बेहतरीन लिख रहे हैं। फिलहाल अपनी पसंद की दो लघुकथाएं प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
  
योगराज प्रभाकर

आँच

सस्ते-से होटल का एक छोटा-सा कमरा।
बंद बत्ती जली।
कमरे में एक अधेड़ मर्द, उम्र पचास के आसपास।
एक जवान लड़की, उम्र बीस से अधिक नहीं।
मर्द के ऊपरी भाग पर कोई कपड़ा नहीं और लड़की का निचला भाग वस्त्रहीन।
मर्द के निर्लज्ज चेहरे पर पाशविक संतुष्टि के भाव और लड़की के चेहरे पर निर्लिप्तता और निश्चिंतता की गहरी पर्त।
लड़की को खींचकर अपनी गोद में बिठाते हुए मर्द ने कुछ नोट उसके टॉप में खोंस दिए।
“थैंक्यू!” कहते हुए वह उठी और फर्श पर पड़ी जीन्स उठाकर उसमें धँसने लगी।
मर्द ने इत्मीनान से सिगरेट सुलगाई, और कहा,
“एक बात पूछूँ स्वीटी?”
“बोलो जानू!”
“आज तुम इतना लेट हो गई हो, घर जाकर क्या कहोगी?”
जीन्स का जिपर चढ़ाते हुए लड़की ने बहुत ही बेपरवाही से उत्तर दिया।
“कहना क्या है यार, कह दूँगी कि ट्यूशन से लेट हो गई।”
मर्द के चेहरे पर एक कमीनी-सी मुस्कान फैल गई।
पर अगले ही क्षण ट्यूशन शब्द उसके मस्तिष्क पर हथौड़ा-सा बनकर बरसा। उसकी मुस्कराहट काफूर हो गई. माथे पर पसीने की बूँदें चमकने लगीं। वह तेजी से कमरे के बाहर आया, जलती हुई सिगरेट फर्श पर फेंककर उसे जूते से मसला। बहुत ही बेचैनी से अपनी घड़ी की ओर देखते हुए पत्नी को फोन लगाया और चिंतित-से स्वर में बोला,
“गुड्डी ट्यूशन से लौट आई क्या?”


चित्तरंजन गोप ‘लुकाठी‘

एक ठेला स्वप्न

आज खूब ठूंस-ठूंसकर खाना खा लिया था। पेट भारी हो गया था। इसलिए पलंग पर लेट गया। लेटे-लेटे खिड़की से बाहर का नजारा देखने लगा।
एक फेरीवाला आया था। वह एक बड़े ठेले पर एक ठेला स्वप्न लाया था। उसका साथी माइक पर घोषणा कर रहा था-- ले लो, ले लो ! अच्छे-अच्छे स्वप्न ले लो। चौबीस घंटे पानी-बिजली का स्वप्न। हर घर में ए.सी. का स्वप्न। घर-घर मोटर कार का स्वप्न। ...ले लो भाई, ले लो !
देखते-देखते कॉलोनी वालों की भीड़ लग गई। औरत-मर्द, जवान-बूढ़े सब ठेले के चारों तरफ जमा हो गए। माइक पर घोषणा जारी थी-- ले लो भाइयों, ले लो ! बेटे-बेटियों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का स्वप्न। उन्हें डॉक्टर-इंजीनियर बनाने का स्वप्न। आई.ए.एस.-आई.पी.एस. बनाने का स्वप्न। हजारों तरह के स्वप्न हैं। अच्छे-अच्छे स्वप्न हैं। ले लो भाइयों, ले लो !
माइक की आवाज बगल के आदिवासी गांव चोड़ईनाला तक पहुंच रही थी। आदिवासी महिला-पुरुषों का एक झुंड दौड़ा-दौड़ा आया। वे ठेले से कुछ दूरी पर खड़े हो गए। एक बूढ़ा जो लाठी के सहारे चल रहा था, सामने आया। उसने फेरीवाले से पूछा, ‘‘ भूखल लोकेकेर खातिर किछु स्वप्न होय कि बाबू? (भूखे लोगों के लिए कोई स्वप्न है?)‘‘
‘नहीं।‘‘ फेरीवाले ने कहा, ‘‘भूखे लोगों के लिए भोजन के दो-चार स्वप्न हैं जो काफी नीचे दबे पड़े हैं। अगली बार जब आऊंगा, ऊपर करके लाऊंगा। तब तक इंतजार कीजिए।‘‘
‘‘इंतजार करैत-करैत त आज उनसत्तइर बछर  (69 वर्ष) उमर भैय गेले। आर कते...?‘‘ कहते-कहते बूढ़े को खांसी आ गई और खांसते-खांसते वह अपने झुंड के पास चला गया। कॉलोनी वाले अपनी-अपनी पसंद के स्वप्न खरीद रहे थे। हो-हुल्लड़, हंसी-ठहाका भी चल रहा था। आदिवासियों ने कुछ देर तक इस नजारे को खड़े-खड़े देखा और अपने गांव की ओर चल दिए। इसी बीच मेरी नींद टूट गई।

-सुरेश  सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश पिन-262701
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित। 
मो-7860600355