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मंगलवार, 30 नवंबर 2021

लघुकथा अनुवाद: हिन्दी से उड़िया | अनुवादक: श्री शिवाशीष | लघुकथा: एक गिलास पानी | मूल लेखक: चंद्रेश कुमार छतलानी

मूल लघुकथा हिन्दी में पढने के लिए क्लिक करिए: एक गिलास पानी

(अनुवाद में भाषा के अनुसार अल्प परिवर्तन किए गए हैं.)

Translation By:

Shibashis Padhee
Hemgir, Sundargarh
Odhisha

ଗୋଟିଏ ଗ୍ଲାସ ପାଣି 

ଆଜି ବ୍ୟାଙ୍କ ରେ ଲମ୍ବା ଧାଡି ଲାଗିଛି !KYC ଫାର୍ମ ଦାଖଲ ର ଶେଷ ତାରିଖ ନିକଟ କୁ ଆସି ଗଲାଣି !କ୍ଲାର୍କ ଦୀନେଶ ବାବୁ ଯେ କି  ଫର୍ମ ତଦାରଖ କରୁଛନ୍ତି ଭାରି ବିରକ୍ତି ହୋଇ ଗଲେଣି !ଲୋକଙ୍କ ଭିଡ ଧୀରେ ଧୀରେ ବଢୁଛି !ସମସ୍ତେ ତରତର ରେ କେହି ଟିକିଏ ଅପେକ୍ଷା କରିବା ସ୍ଥିତି ରେ ନାହାନ୍ତି !ଠେଲା ପେଲା ଅବସ୍ଥା ରେ କାଉଣ୍ଟର ପଟେ ମାଡି ଯାଉଛନ୍ତି !
ଦୀନେଶ ବାବୁ  ବି ଭାରି ରାଗିକି ଜଣକୁ କହୁଥାନ୍ତି 
""ଏ କଣ ଲେଖି ଛନ୍ତି ମାଡାମ ପୁରା ଭୁଲ ହୋଇଗଲା ଯଦି ନିଜେ ନ ଜାଣୁଛନ୍ତି କାହାକୁ ପଚାରିବା କଥା ଯାଆନ୍ତୁ ନୂଆ ଫର୍ମ ଲେଖିକି ଆଣିବେ 
ଯେ ଯାହା ପାରିଲା ଧରି କି ଆସିଲା ଫ୍ରି ମିଳୁଛି ତ ଯଦି ଗୋଟାକୁ ଦଶ ଟଙ୍କା ପଡନ୍ତା ତା ହେଲେ ଜଣା ପଡନ୍ତା ""

ବହୁ ସମୟ ଧରି ଏ ସବୁ ଲକ୍ଷ୍ୟ କରୁଥିବା ବୃଦ୍ଧ ଜଣେ ଲାଇନ ରୁ ବାହାରି ପାଖରେ ଥିବା ଫିଲଟର ରୁ ଗୋଟିଏ ଗ୍ଲାସ ପାଣି ନେଇ କାଉଣ୍ଟର ପାର୍ଶ୍ଵ ରୁ ତାଙ୍କ ପାଖକୁ ବଢ଼ାଇ ଦେଲେ !

କ୍ଲାର୍କ ଜଣକ ପାଣି ଗ୍ଲାସ ଦେଖି ପଚାରିଲେ 
""କଣ ହେଲା ""
""ନାଇଁ ଆପଣ ବହୁ ସମୟ ହେଲା କଥା କହି କହି ଥକି ଯାଇଥିବେ ତଣ୍ଟି ଶୁଖି ଆସିବନି ପାଣି ଟିକେ ପି ଦିଅନ୍ତୁ ଭଲ ଲାଗିବ ""ବୁଝେଇଲା ଭଳି କହିଲେ ବୃଦ୍ଧ ଜଣକ !

ଅନ୍ୟ ଗ୍ରହ ରୁ ଆସିଥିବା ଲୋକ ଭଳିଆ କିଛି ସମୟ ଅନାଇ ରହି ପାଣି ପିଇ ଦୀନେଶ ବାବୁ କହିଲେ 
""ମୁଁ ସବୁବେଳେ ଅପ୍ରିୟ ସତ କହେ ତ ଏଥିପାଇଁ ସମସ୍ତେ ମତେ ରାଗନ୍ତି ଏଠି ପିଅନ ବି ମତେ ପାଣି ପଚାରୁନି ""

ଅଳ୍ପ ହସି ବୃଦ୍ଧ ଜଣକ ପୁଣି ଯାଇ ନିଜ ଜାଗା ରେ ଠିଆ ହୋଇ ଯାଇଥିଲେ !ଦୀନେଶ ବାବୁ  ପାଣି ପିଇ ନିଜ କାମ ଆରମ୍ବ କରି ଦେଇଥିଲେ କିନ୍ତୁ ତାଙ୍କ ବ୍ୟବହାର ବଦଳି ଯାଇଥିଲା ସେ ନ ରାଗି କି ଲୋକ ଙ୍କୁ ବୁଝାଇ କହୁଥିଲେ !

ସନ୍ଧ୍ୟା ରେ ବୃଦ୍ଧ ଜଣକ ଙ୍କ ପାଖକୁ ଏକ ଫୋନ ଆସିଲା ଆର ପଟେ ଥିଲେ ସେହି ବ୍ୟାଙ୍କ କ୍ଲାର୍କ ଦୀନେଶ ବାବୁ, ସେ କହୁଥିଲେ ""ସାର ଆପଣ ଙ୍କ ଫର୍ମ ରୁ ନମ୍ବର ନେଇଛି ଓ ଧନ୍ୟବାଦ ଦେବା ପାଇଁ ଫୋନ କରିଛି ଆଜି ଅପଣଂକ ଗୁରୁ ମନ୍ତ୍ର ମୋର ବହୁ କାମ ରେ ଆସିଛି !
ବୃଦ୍ଧ ଚମକି କହିଲେ କି ଗୁରୁ ମନ୍ତ୍ର?? 

ଦୀନେଶ ବାବୁ କହୁଥିଲେ, ମୁଁ ଘର କୁ ଆସିଲା ବେଳେ ଘରେ ଜୋରସୋର ରେ  ଶାଶୁ ବହୁ ଙ୍କ ଝଗଡା ଚାଲି ଥିଲା ମୁଁ ଆପଣ ଙ୍କ ମନ୍ତ୍ର ପ୍ରୟୋଗ କରି ମା କୁ ଗ୍ଲାସେ ଓ ପତ୍ନୀ ଙ୍କୁ ଗ୍ଲାସେ ଲେଖାଏଁ ପାଣି ଦେଇ କହିଲି ତଣ୍ଟି ଶୁଖି ଯାଇ ଥିବ ଏଣୁ ପାଣି ଟିକିଏ ପି ଦେଇ ଟିକିଏ ବିଶ୍ରାମ ନିଅ ପରେ ଲଢ଼ିବ !
ଯାଦୁ ପରି ଲଢ଼ିବା ବନ୍ଦ କରି ଦେଲେ ସେମାନେ """

ବୃଦ୍ଧ ହସି ହସି କହୁଥିଲେ ରାଗ ର ସାମ୍ନା ଯଦି ରାଗ ସହ ହୁଏ ସେତେବେଳେ ରାଗ ବହୁ ଗୁଣିତ ହୁଏ  ଆସେ କିନ୍ତୁ ରାଗ ର ସାମ୍ନା ଯଦି ନମ୍ରତା, ବିନୟତା  ସହ ହୂଏ ତେବେ ରାଗ କୁ ପରିବର୍ତନ କରି ଦିଏ !

ମୃଦୁ ହସି ସମ୍ମତି ଦେଉଥିଲେ ଦୀନେଶ ବାବୁ !!!
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सोमवार, 29 नवंबर 2021

लघुकथा अनुवाद: हिन्दी से उड़िया | अनुवादक: श्री शिवाशीष | लघुकथा: शक्तिहीन | मूल लेखक: चंद्रेश कुमार छतलानी

हिन्दी में पढने लिए क्लिक कीजिए: शक्तिहीन (लघुकथा) : हिन्दी

अनुवाद में भाषा के अनुसार अल्प परिवर्तन किए गए हैं.

Translation By:

Shibashis Padhee
Hemgir, Sundargarh
Odhisha

ଶକ୍ତିହୀନ

ମୂଳଲେଖା -Chandresh Kumar Chhatlani
ଅନୁସୃଜନ -ଶିବାଶିଷ ପାଢ଼ୀ
ଅନୁକୂଳ ସ୍ରୋତରେ ପହଁରି ପହଁରି ଦିନେ ସମୁଦ୍ରରେ ପହଞ୍ଚି ଯାଇଥିଲା ମଧୁର ଜଳର ମାଛଟିଏ ! ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ହେଉଥିଲା ସେ ! ଭାବୁଥିଲା
ଏ ପାଣି ଏତେ ଲୁଣି କାହିଁକି?
ଏଇଠି କେମିତି ବଞ୍ଚିବି ମୁଁ?
ବ୍ୟସ୍ତ ବିବ୍ରତ ହୋଇ ଏପଟ ସେପଟ ହେଉଥିବା ବେଳେ ପାଖକୁ ଆସିଥିଲା ଲୁଣିଜଳ ମାଛ ଟିଏ !
ପଚାରିଥିଲା --କଣ ହେଲା?
ଭାଇ,ଏ ପାଣି ଏତେ ଲୁଣି କାହିଁକି ମୁଁ ତ ଏଇଠି ବଂଚି ପାରିବି ନାହିଁ ? ପଚାରିଥିଲା ଏ ମାଛ
ହାଁ ଲୁଣି ମାନେ? ପାଣି ତ ଏମିତି ହିଁ ଥାଏ --ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ହୋଇ କହିଥିଲା ସେ ସମୁଦ୍ର ମାଛ !
ନାଁ ନାଁ ପାଣି ତ ମଧୁର ବି ଥାଏ --ପୁଣି ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ହେଉଥିଲା ଏ ମାଛ
କେଉଁଠି ପାଣି ମଧୁର ଥାଏ? ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ହୋଇ ପାଖକୁ ଆସିଯାଉଥିଲା ଲୁଣିମାଛ କହିଥିଲା ଚାଲ ତ ଯିବା !ମୋତେ ଦେଖେଇବୁ...
ହଁ ହଁ... ଚାଲ --କହି ମୁହାଁଣ ଦିଗକୁ ପହଁରିବାର ଚେଷ୍ଟା କରୁଥିଲା ମଧୁରଜଳ ମାଛ !ହେଲେ କେବଳ ହଲୁଥିଲା ଡେଣା !ଜମା ଆଗକୁ ଯାଇପାରୁ ନଥିଲା ସେ !
ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ହେଉଥିଲା ସମୁଦ୍ର ମାଛ - ପଚାରିଲା
--କଣ ହେଲା ଭାଇ
ନିସ୍ତେଜ ହୋଇ ଯାଉଥିଲା ମଧୁରଜଳ ମାଛ ! ବହୁତ କଷ୍ଟରେ କହିଥିଲା --ଭାଇ ଦୀର୍ଘଦିନ ଧରି ସ୍ରୋତ ଅନୁକୂଳ ସ୍ରୋତରେ ପହଁରି ପହଁରି ମୋର ଅଭ୍ୟାସ ଖରାପ ହୋଇଯାଇଛି ! ସାମାନ୍ୟ ପ୍ରତିକୂଳ ସ୍ରୋତରେ ପହଁରି ପାରୁନାହିଁ ମୁଁ !
କିଛି ବୁଝୁ ନଥିଲା ସମୁଦ୍ର ମାଛ କେବଳ ତାଟକା ହୋଇ ଚାହିଁ ରହିଥିଲା ସେ!!!!!!!!!!!!!

शनिवार, 27 नवंबर 2021

लघुकथा समाचार | साहित्यकारों ने शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम में लघुकथा की अनदेखी करने को लेकर उठाए सवाल | magbook.in

पटना में कुछ साहित्यकारों ने लघुकथा की उपेक्षा को लेकर एक अहम सवाला उठाया है. उनका कहना है कि " समकालीन साहित्य की सर्वाधिक पठनीय और संप्रेषणीय विधा  लघुकथा है, तो फिर वह आज बच्चों और युवाओं के लिए  शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से अपेक्षित संख्या में उनके पाठ्यक्रमों में क्यों नहीं शामिल की जा रही है ? इसी के साथ यह सवाल भी प्रासंगिक है कि" शिक्षक संस्थानों से लघुकथा बेदखल क्यों?"

 भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में  फेसबुक के  "अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका "  पेज पर ऑनलाइन आयोजित " हेलो फेसबुक लघुकथा सम्मेलन " का विषय प्रवर्तन करते हुए सम्मेलन के संयोजक  एवं संस्था के अध्यक्ष सिद्धेश्वर ने उपरोक्त उद्गार व्यक्त किये !

 लघुकथा की शैक्षणिक प्रासंगिकता" विषय पर  विस्तार से प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि -" हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि किसी भी विधा की किसी भी रचना के चयन में हमेशा साहित्य की राजनीति चलती रही है। ऐसी स्थिति में  निष्पक्षता पूर्वक हमें निर्णय लेना  होगा और लघुकथा की  शैक्षणिक पृष्ठभूमि तैयार करनी होगी l हां, इतना जरूर है कि पाठ्यक्रमों में लघुकथाओं का हस्तक्षेप हो गया है l यह बात  संतोषजनक और सुखद तो है ही l  अब  जरूरत   है कि  व्यापक स्तर पर देश-विदेश के लघुकथाकारों द्वारा लिखी गई या लिखी  जा रही श्रेष्ठ, सामाजिक, उद्देश्यपूर्ण,  नैतिकपूर्ण और बच्चों तथा युवाओं के सर्वांगीण विकास वाली  लघुकथाओं को  अधिक से अधिक उनके पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए और  ऐसी लघुकथाएं और लघुकथाकार ही  शोध का विषय बनें ! "

लघुकथा सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध लेखिका पूनम कतरियार  ने कहा कि  सबसे अच्छी बात यह है कि  संस्था के अध्यक्ष सिद्धेश्वर जी जिस मुद्दे को लेकर गोष्ठी आयोजित करते रहे हैं,  वह साहित्यिक विधाओं को व्यापक स्वरूप देने में पूर्ण सक्षम  साबित होती रही है l लघुकथा प्रेमियों के मन में बहुधा यह बात घुमड़ती रही है कि "लघुकथा की क्या है शैक्षणिक प्रासंगिकता ? " लघुकथा अपने दम पर अपना एक मुकाम बना चुकी है। लघुकथा के समीक्षक एवं पुरोधा इसके मापदंड निर्धारित  कर इसे इसके अनुरूप कलेवर दे रहे हैं l  लघुकथा का उच्च स्तर के पाठ्यक्रमों में नहीं होना निराश जरूर  करता है।जब उपन्यास, कहानी, संस्मरण, नाटक,यात्रा-वृतान्त, और रिपोर्ताज़  स्कूल और कॉलेजों में पढ़ाए जाते हैं,  तब फिर  सर्वाधिक चर्चित विधा लघुकथा क्यों नहीं ? मेरे विचार से लघुकथा को भी एक स्वतंत्र विधा के रूप में पाठ्यपुस्तकों में शामिल करना उचित होगा। यह समय की माँग और साहित्य के प्रति हमारी जवाबदेही है कि हम लघुकथा का  संवर्द्धन,संरक्षण  एवं संचयन कर इसे पाठ्यपुस्तकों से लेकर आम-पाठक तक वह गौरवपूर्ण जगह दिलायें जिसकी यह हकदार है।"

लघुकथा सम्मेलन के मुख्य अतिथि विजयानंद  विजय ने कहा कि - " इंटरनेट, सोशल मीडिया समूहों और नयी तकनीकी सुविधाओं ने उस विरासत को खंगालना और उनमें से अनमोल मोतियों को तलाशना हमारे लिए और सुगम कर दिया है।जरूरी है कि इस खजाने से बेहतरीन से बेहतरीन लघुकथाएँ चुनकर पाठ्यक्रमों में शामिल की जाएँ, ताकि नयी पीढ़ी भी इनसे वाकिफ हो सके और इन लघुकथाओं में निहित संदेशों और संकेतों को समझ सके और एक सुदृढ़ समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सके।"

विशिष्ट अतिथि डॉ शरद  नारायण खरे ( म.पप्र. ) ने कहा कि-" लघुकथाओं को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना इसलिए उचित होगा,क्योंकि लघुकथाएँ जीवन के आसपास होने के कारण हमें जीने की कला सिखाती हैं,तथा हमारे व्यक्तितत्व का विकास करती हैं।लघुकथाओं की विषयवस्तु चूंकि हमारे ही आसपास से ली गई होती है,इसलिए लघुकथाएँ हमारे चिंतन को सकारात्मक दिशा देती हैं।वास्तव में,लघुकथाओं को पाठ्यक्रमों में शामिल करके उनका नैतिक शिक्षा के रूप में प्रयोग किया जाना पूर्णत: विवेकपूर्ण होगा।लघुकथाएँ लघु होते हुए भी बहुत कुछ कह जाती हैं,इसलिए उनको विद्यार्थियों के शिक्षण से जोड़ना पूर्णत: समीचीन होगा।

विषय से संदर्भित चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अपूर्व  कुमार (वैशाली ) ने कहा कि-लघुकथा साहित्य की वह विधा है, जो जिस सुगमता से विद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्थान पा लेने की क्षमता रखती है, उसी सुगमता से विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी। लघुकथा साहित्य की बगिया का गुलाब है। सीबीएसई के कक्षा नवम्  के हिंदी भाषा के  नवीनतम पाठ्यक्रम में लघुकथा लेखन को भी सम्मिलित कर लिया गया है। हिंदी अकादमी, दिल्ली एवं साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा लघुकथा को एक साहित्यिक विधा के रूप में स्वीकार कर लेने के बाद मैंगलोर विश्वविद्यालय ने लघुकथा की एक पुस्तक ही पाठ्यक्रम में लगा दी है। ऐसा पहली बार हुआ है।कुछ विश्वविद्यालयों में लघुकथा संकलन भी पढ़ाये जा रहे हैं। निकट भविष्य में अन्य विश्वविद्यालय भी इसका अनुसरण करेंगे ही। जरूरत है निष्पक्षतापूर्वक अधिक से अधिक  श्रेष्ठ लघुकथाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने की l "

नरेंद्र कौर छाबड़ा ने अपने वक्तव्य में कहा "बदलते समय के दौर को देखते हुए लघु कथाओं को भी पाठ्यक्रम में शामिल करने पर विचार करना चाहिए। इससे बच्चों में लघु कथा के प्रति रुचि जागेगी तथा एक महत्वपूर्ण बात को किस तरह कम शब्दों में कहा जा सकता है यह तरीका भी बच्चे सीखेंगे।

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए राज प्रिया रानी ने कहा कि -" पाठ्यक्रम में लघुकथा कि प्रासंगिकता आज एक ज्वलंत मुद्दा बनता जा रहा है । पाठ्यक्रमों में लघुकथाओं को शामिल किया जाना चुनौतीपूर्ण एवं एक महत्वपूर्ण कदम है जो निरंतर छात्रों के साथ साथ सर्व शैक्षणिक विकास के लिए एक  सार्थक और सकारात्मक प्रयास होगा  !"

इंदौर के डॉ. योगेंद्र नाथ शुक्ल ने अपनी एक लघुकथा का हवाला देते हुए कहा कि सिद्धेश्वर जी, मैं आपकी पीड़ा समझता हूं। आजकल  पाठ्यक्रमों में रचनाओं का चयन करने के लिए भी जोड़-तोड़ चल रही है l पाठ्यक्रम की इस नयी किताब में तुलसी ,सूर, मीरा ,माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर जैसे महान साहित्यकार अपने साथ जोड़ तोड़ से हो रहे हैन। अंशु कुमार, मोनिका सिंह, लवलीन आदि जैसे रचनाकारों की रचनाओं को देखकर, पाठक  और छात्रवृंद आंसू ही तो बहाएँगे ?"

डॉ. पुष्पा जमुआर ने कहा कि - " वस्तुतः लघुकथा फिर से पाठ्यक्रम में शामिल होने हेतु संघर्षरत होने लगी है।आप लोगों का यह सार्थक प्रयास है और इस विषय पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है  कि वर्तमान शैक्षणिक संस्थान में पाठ्यपुस्तक में शामिल हो ।"  इसके अतिरिक्त  दुर्गेश मोहन,  संतोष मालवीय, निवेदिता, सरकार, सुनील कुमार उपाध्याय, रज्जू सिन्हा, कनक, बिहारी,  राम नारायण यादव आर्य ने भी अपने संक्षिप्त विचार व्यक्त किए l

चर्चा परिचर्चा के बीच एक  दर्जन से अधिक लघुकथाकारों ने अपनी ताजातरीन लघुकथाओं का पाठ किया l डॉ. शरद नारायण खरे (म.प्र. ) ने " सरहद पर उजाला "/ डॉ. योगेंद्रनाथ शुक्ल (इंदौर) ने  " रोती हुई किताब "/जवाहरलाल सिंह  (जमशेदपुर) ने  "श्राद्ध कर्म "/डॉ. पुष्पा जमुआर ने " आत्महत्या" / ऋचा वर्मा ने "हिसाब "/मीना कुमारी परिहार ने   /पूनम कतरियार ने (इलाज )/ मधुरेश नारायण ने "काम और आराम "/ राजा रानी ने " गुनाह "/पुष्प रंजन ने -" पापी "/संतोष सुपेकर(उज्जैन ) ने "कैसे कहूं ?"/  शराफत अली खान( बरेली ) ने-" विद्रोह "/ रशीद गौरी (राज ) ने-" समय "/ गजानन पांडे(हैदराबाद) ने "विधि का विधान"/ विजयानन्द विजय ने " ग़ली ", सिद्धेश्वर ने "मान सम्मान"  के अतिरिक्त नरेंद्र कौर छाबड़ा ( महाराष्ट्र) / डॉ. मीना कुमारी परिहार आदि ने भी लघुकथाओं का पाठ किया,  जिसे देश भर के 300 से अधिक लोगों ने स्वागत किया l  लघुकथा के विकास की दिशा में यह एक अभिनव और  ऐतिहासिक प्रयास रहा,  जो लघुकथा को शिक्षण संस्थान  से जोड़ने में  सकारात्मक भूमिका का निर्वाह कर सकेगा !

 प्रस्तुति :ऋचा वर्मा  और सिद्धेश्वर

Source:

साहित्यकारों ने शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम में लघुकथा की अनदेखी करने को लेकर उठाए सवाल

URL:

https://www.magbook.in/ArticleView.aspx?ArtID=191514&ART_TITLE=%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A3-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%B2%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%96%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%B0-%E0%A4%89%E0%A4%A0%E0%A4%BE%E0%A4%8F-%E0%A4%B8%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

लघुकथा | ज़हर आदमी का | अनिल गुप्ता


ज़हर आदमी का 


साँप के बिल में मातम पसरा हुआ था। 

दूर-दूर के जंगलों से उसके रिश्तेदार यानि नाग नागिन, उसके पास सांत्वना देने आए हुए थे। 

उनमें से एक ने पूछा कि "यह कोबरा मरा कैसे?"

डरते-डरते उन्ही में से एक ने उत्तर दिया, "इसने शहर जाकर एक आदमी को काट लिया था।"

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अनिल गुप्ता

कोतवाली रोड़ उज्जैन

बुधवार, 24 नवंबर 2021

लघुकथा का अर्थ एवं विशेषताएँ | mpgkpdf.com

Original URL / accessed from: https://www.mpgkpdf.com/2021/11/laghu-katha-ka-arth.html 

लघुकथा किसे कहते हैं ?

गल्प साहित्य के अनेक रूप हिंदी में प्रचलित हैं, जिनमें से एक है लघुकथा । ऊपर से देखने पर "लघुकथा" "शार्ट स्टोरी" का अनुवाद प्रतीत होता है, पर हिंदी लघुकथा से वही ध्वनि नहीं निकलती जो अंग्रेजी "शार्ट स्टोरी" से निकलती है । अंग्रेजी में कहानियों को उपन्यास की तुलना में आकार की दृष्टि से लघु होने के कारण "शार्ट स्टोरी" कहा गया, पर हिंदी की. "लघुकथा" कहानी से भी आकार में छोटी है ।

लघुकथा भारतीय साहित्य और उसकी परंपरा से जुड़ी है । इसके विकास में जातक कथाओं, बोष कथाओं, दृष्टांतों आदि का योगदान स्वीकार किया गया है । कुछ लघुकथाकारों ने बौद्ध कथाओं का उपयोग आधुनिक लघुकथा लेखन के लिए किया भी है ।

लघुकथा की विशेषताओं को समझें 

"लघुकथा" हिंदी-साहित्य की आधुनिक विधा है। लघुकथा की विशेषताओं को समझने के लिए उदाहरण-रूप में आप श्री अरविंद ओझा की 'अभिनय' शीर्षक निम्नलिखित लघुकथा को पढ़िए :

अभिनय-लघुकथा को पढ़िए :

शहर के खुले मैदान में नेताजी आए हैं। 

भीड़-भीड़ लोग सुन रहे हैं उनका भाषण 

कि वर्तमान नीतियाँ खराब हैं ।

कि हमें कुर्सी से मोह नहीं । 

कि हम यह बदलेंगे, वह बदलेंगे। 

कि हम यह मिटाएँगे, हम वह मिटाएँगे । 

दो बहरे पेड़ पर चढ़े हैं 

एक ने बताया- "यह पहले से अच्छा अभिनय करता है।" 

दूसरे ने हाँ में गरदन हिलाई। 

फिर अपार भीड़ की तरफ आँख फैलाकर समझाया-"तभी तो भीड़ ज्यादा है ।”

इस लघुकथा को पढ़कर आप समझ सकते हैं कि लघुकथा आकार में लघु अर्थात् संक्षिप्त होती है । यह लघुता लघुकथा की एक प्रमुख विशेषता है। इस लघुकथा में न कोई भारी-भरकम घटना है, न विस्तृत विवरण (ब्यौरे) और न प्रत्यक्ष रूप से कोई उपदेश; फिर भी इसमें नेताओं पर करारा व्यंग्य है। इससे स्पष्ट है कि लघुकथा में घटनाविहीनता और विवरणविहीनता के गुण होते हैं। 

लघुकथाकार की दृष्टि अपने उद्देश्य पर टिकी होती है और वह तीव्र गति से अंत की ओर बढ़ता है। वह सीधे-सीधे उपदेश तो नहीं देता पर व्यंग्य का सहारा लेकर एक दूसरे ढंग से अपनी बात को कह सकता है । जैसे इस लघुकथा में प्रकारांत से लघुकथाकार ने यह बता दिया है कि नेताओं की कथनी और करनी में अंतर होता है—वे केवल अभिनय (दिखावा) करते हैं और जो जितना अच्छा अभिनय करता है वह उतनी ही ज्यादा भीड़ जुटा लेता है, उतना ही लोकप्रिय हो जाता है । 

लेखक ने पाठकों को ऐसे नेताओं से सावधान रहने की नेक सलाह भी दे दी है। जब लेखक किसी और बहाने से किसी और को उपदेश देता है तो इसे अन्योक्तिपरकता कहते हैं। यहाँ दो बहरे व्यक्तियों के माध्यम से लघुकथाकार ने यही किया है। बहरा व्यक्ति दूसरे की बात नहीं सुन सकता। बात न सुनने के प्रतीक रूप में लेखक ने दो बहरे व्यक्तियों को रखा है। उन्हें रखकर मानो उनके बहाने से लेखक ने पाठकों को यह उपदेश दे दिया है कि नेताओं की बात मत सुनो उनके कहे का विश्वास मत करो। इस प्रकार इस लघुकथा की विशेषताओं के जरिए हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि लघुता, घटनाविहीनता, विवरणविहीनता, प्रतीकात्मकता, व्यंग्य और अन्योक्तिपरकता लघुकथा की विशेषताएँ है ।

विद्वानों के बीच "लघुकथा" को लेकर मतभेद है कि यह कहानी का ही एक रूप है या स्वतंत्र विधा है। एक बात आपके सामने स्पष्ट हो जानी चाहिए कि जिस प्रकार कहानी उपन्यास का संक्षिप्त रूप नहीं है, उसी प्रकार "लघुकथा" कहानी का संक्षिप्त रूप नहीं है। यह एक नयी विधा के रूप में उभर रही है।

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पूरी पोस्ट पढने के लिए निम्न लिंक पर जाएं:

Original URL / accessed from: https://www.mpgkpdf.com/2021/11/laghu-katha-ka-arth.html 


मंगलवार, 23 नवंबर 2021

वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. उमेश महादोषी जी द्वारा रचनाऍं और आलेख आमंत्रित

अविराम साहित्यिकी के वर्ष 2022 में लघुकथा से जुड़े दो विशेषांक


अविराम साहित्यिकी का अप्रैल-जून 2022 अंक सुप्रसिद्ध लघुकथा मर्मज्ञ डॉ. बलराम अग्रवाल जी के लघुकथा साहित्य में योगदान पर केंद्रित होगा। इस अंक के लिए डॉ. बलराम अग्रवाल जी के लघुकथा में योगदान पर संक्षिप्त आलेख एवं सारगर्भित टिप्पणियां 15 जनवरी 2022 तक ईमेल (aviramsahityaki@gmail.com) पर टाइप रूप में यूनिकोड या कॄतिदेव 010 फॉन्ट में सादर आमंत्रित हैं।

इस अंक के बाद एक अंक सुप्रसिद्ध लघुकथाकार श्री रामेश्वर काम्बोज हिमान्शु के लघुकथा में योगदान पर केंद्रित होगा। इसके लिए भी संक्षिप्त आलेख/सारगर्भित टिप्पणियां उपरोक्तानुसार 15 फरवरी 2022 तक उक्त ईमेल पर सादर आमंत्रित हैं।

उपरोक्त दोनों विशेषांकों में कुछ पृष्ठ पत्रिका के आजीवन सदस्यों की लघुकथाओं के लिए भी निश्चित किये जायेंगे। अतः जो आजीवन सदस्य मित्र लघुकथाएँ लिखते हैं, अपनी तीन-तीन श्रेष्ठ लघुकथाएँ उक्त ईमेल द्वारा भेजने का कष्ट करें। जो आजीवन सदस्य लघुकथाएँ नहीं लिखते हैं, उनके लिए अक्टूबर-दिसम्बर 22 में स्थान दिया जाएगा, जिसके लिए आमंत्रण सूचना जल्दी ही दी जाएगी।

 विषय/कंटेंट का चुनाव मोबाइल 09458929004 पर उमेश महादोषी से बात करके निश्चित कर सकते हैं।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

मेरी एक लघुकथा "मेरा घर छिद्रों में समा गया" focus24news में

 

मेरा घर छिद्रों में समा गया / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

माँ भारती ने बड़ी मुश्किल से अंग्रेज किरायेदारों से अपना एक कमरे का मकान खाली करवाया था। अंग्रेजों ने घर के सारे माल-असबाब तोड़ डाले थे, गुंडागर्दी मचा कर खुद तो घर के सारे सामानों का उपभोग करते, लेकिन माँ भारती के बच्चों को सोने के लिए धरती पर चटाई भी नसीब नहीं होती। खैर, अब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सब ठीक हो जायेगा।
लेकिन…
पहले ही दिन उनका बड़ा बेटा भगवा वस्त्र पहन कर आया साथ में गीता, रामायण, वेद-पुराण शीर्षक की पुस्तकें तथा भगवान राम-कृष्ण की तस्वीरें लाया।
उसी दिन दूसरा बेटा पजामा-कुरता और टोपी पहन कर आया और पुस्तक कुरान, 786 का प्रतीक, मक्का-मदीना की तस्वीरें लाया।
तीसरा बेटा भी कुछ ही समय में पगड़ी बाँध कर आया और पुस्तकें गुरु ग्रन्थ साहिब, सुखमणि साहिब के साथ गुरु नानक, गुरु गोविन्द की तस्वीरें लाया।
और चौथा बेटा भी वक्त गंवाएं बिना लम्बे चोगे में आया साथ में पुस्तक बाइबल और प्रभु ईसा मसीह की तस्वीरें लाया।
चारों केवल खुदकी किताबों और तस्वीरों को घर के सबसे अच्छे स्थान पर रख कर अपने-अपने अनुसार घर बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आपस में लड़ना भी शुरू कर दिया।
यह देख माँ भारती ने ममता के वशीभूत हो उस एक कमरे के मकान की चारों दीवारों में कुछ ऊंचाई पर एक-एक छेद करवा दिया। जहाँ उसके बेटों ने एक-दूसरे से पीठ कर अपने-अपने प्रार्थना स्थल टाँगे और उनमें अपने द्वारा लाई हुई तस्वीरें और किताबें रख दीं।
वो बात और है कि अब वे छेद काफी मोटे हो चुके हैं और उस घर में बदलते मौसम के अनुसार बाहर से कभी ठण्ड, कभी धूल-धुआं, कभी बारिश तो कभी गर्म हवा आनी शुरू हो चुकी है… 
और माँ भारती?... 
अब वह दरवाज़े पर टंगी नेमप्लेट में रहती है।


मंगलवार, 16 नवंबर 2021

अविरामवाणी । 'समकालीन लघुकथा स्वर्ण जयंती पुस्तक चर्चा' । मधुदीप जी के लघुकथा संग्रह 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ' पर डॉ. उमेश महादोषी द्वारा चर्चा


कनक हरलालका जी के लघुकथा संग्रह की मेरे द्वारा की गई समीक्षा "साहित्य हंट" में.

समीक्षा को  टेक्स्ट में पढने के लिए निम्न पर क्लिक कीजिए.







 







शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री उमेश महदोषी की फेसबुक वॉल से

 लघुकथा के पुरोधा डॉ. सतीश दुबे साहब को नमन!



आज का दिन लघुकथा के लिए बहुत बड़ा दिन होता है। हाँ, बहुत बड़ा। क्योंकि आज के दिन ही लघुकथा के व्यास श्रद्धेय डॉ. सतीश दुबे साहब इस दुनिया में अवतरित हुए थे। समकालीन लघुकथा के सबसे बड़े हस्ताक्षर ही नहीं, वह लघुकथा के पर्याय हैं। नियमित और समर्पित लघुकथा लेखकों की सूची में उनका नाम सबसे पहले तो आता ही है, वे ऐसे प्रथम हस्ताक्षर भी हैं, जिनकी लघुकथाओं का प्रकाशन सबसे पहले आरम्भ हुआ। जीवन-भर वह लघुकथा के लिए समर्पित रहे और अंतिम श्वाँस भी उन्होंने लघुकथा के नाम की ही ली। अंतिम वर्ष में किसी एक विषय पर संग्रह भर लघुकथाओं का सृजन (लघुकथा संग्रह ़‘प्रेम के रंग’) उनके समर्पण भाव की गहराई को दर्शाता है।

श्रद्धेय दुबे साहब को नमन करते हुए उनके सुप्रसिद्ध लघुकथा संग्रह ‘ट्वीट’ से उनकी एक महत्वपूर्ण लघुकथा मित्रों के लिए प्रस्तुत है। हमारी सामाजिक और कानून व्यवस्था पर इस लघुकथा में तीखी टिप्पणी है। आजादी से लेकर आज तक हमने जिस व्यवस्था को खड़ा किया है, उस पर इससे बड़ी टिप्पणी और क्या हो सकती है!


जन सुनवाई/डॉ. सतीश दुबे


     ‘‘नाम रमणलाल वल्द आनंदीलाल, निवासी ग्राम कस्बा भाटखेड़ी तहसील असरावदा और ये मेरी औरत याने पत्नी दुर्गेश...’’ आत्म-परिचय के साथ उसने अपनी अर्जी जन-सुनवाई के लिए बैठे आला अफसरों के सामने पेश कर दी।

      आवेदन पर सरसरी नजर डालकर, बीच वाली कुर्सी पर बैठे बड़े साब ने आँखें उठाकर आवेदक की ओर देखा- ’’इसमें जो लिखा है, उसके बारे में मुँहजबानी कुछ बताइए।’’

     प्रत्युत्तर में पुरुष की बजाय भाल तक घूँघट निकालकर साथ में खड़ी महिला आक्रोश भरे स्वर में बोली- ‘‘साब, ऑफिस, थाना, लोग-बाग सबसे कहते-कहते जुबान को भी अब तो शरम आने लगी किन्तु सुनने वालों को नहीं। न न्याय न धरम...।’’ अंतिम लब्ज बोलते हुए महिला का आक्रोशी कंठ भावावेग में बदलकर रुँध गया।

     बड़े साब की ‘‘आप बताइए’’ प्रश्नवाचक सांकेतिक मुद्रा के प्रत्युत्तर में पुरुष का क्षणिक मौन एकदम बुलंद-स्वरों में फूट पड़ा- ‘‘साब, लोग-बाग कहते हैं कि लड़कियों-औरतों को चटक-भटक, चुहुलबाजी के कारण छेड़छाड़ और...। मेरी लड़की तो बिचारी एकदम गाय से भी सीधी। सलवार-कुरता का कपड़ा देने टेलर की दुकान पर जा रही थी। रास्ते में नशे की दवाई रुमाल में सुँघाकर वो खानदानी गुंडा उसे उठा ले गया... और...।’’

     ‘‘वो मुंजला अपने कमीने दोस्तों के साथ हिजड़ों जैसी मूँछों पर ताव देकर घूम रहा है।’’

     ‘‘हाँ साब, पुलिस में रिपोर्ट लिखाई थी। पर पुलिस हाथ पर हाथ धरे इसलिए बैठ गई कि उसने प्रमाण देकर यह सफाई दे दी कि वारदात वाले दिनों वह उदयपुर-जयपुर था...।’’

     ‘‘साब, लड़की महीने भर में मरी हत्या हो गई है। उसकी छोटी बेन ही नहीं गाँव-कस्बे की सब लड़कियाँ घर से बाहर निकलने में डरती हैं।’’

      दोनों की समवेत कथा सुनकर अफसरों ने एक-दूसरे की ओर देखा तथा फुसफुसाए- ‘‘यह तो पेचीदा मामला है।’’

      ‘‘साब, मालूम था कि यहाँ भी कुछ होना-जाना नहीं, पर ये औरत दूसरों के कहने में नी मानी...।’’ कहते हुए पुरुष ने औरत की ओर देखा तथा- ‘‘सुन लिया ना, चल अब’’ शब्दों के साथ उसे धकेलकर जोरों से झकझोरा तथा जनसुनवाई बैठक में आशा की ललक से आई जन की भीड़ को चीरता हुआ बाहर निकल गया। उसे न जाने क्यों कानों में प्रतिध्वनि हो रही, ‘‘अरे आप लोग सुनिए तो...’’ आवाज में आस्था नहीं रही थी।

बुधवार, 10 नवंबर 2021

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर द्वारा अशोक लव जी के लघुकथा संग्रह की समीक्षा

 तीन सौ साठ डिग्री विश्लेषण करती लघुकथाओं का संग्रह: 'एकांतवास में ज़िंदगी'


लघुकथा आज लोकप्रियता की बुलंदियों को छूने का प्रयास कर रही है। उसे इस स्थान तक पहुँचाने का श्रेय जिन मनीषियों को जाता है, अशोक लव का नाम भी उनमें शामिल है। आज की लघुकथाएँ काफ़ी सीमा तक आदमी के जीवन में का प्रतिनिधित्त्व कर रही हैं। यही कारण है कि लघुकथा जीवन से सीधे जुड़ी हुई है। इसमें जीवन के किसी एक तथ्य को अपनी संपूर्ण संप्रेषणता के साथ उभारा जाता है। जिसका जितना अधिक अनुभव होगा, जितनी अधिक व्यापक दृष्टि होगी, समझ जितनी अधिक विस्तृत होगी, चिंतन-मनन जितना अधिक स्पष्ट होगा तथा शब्दार्थ और वाक्य विधान का जो मितव्ययी एवं निपुण साधक होगा वह उतनी सटीक लघुकथा रच सकता है।

 आज पूरा विश्व एक भयानक महामारी की चपेट में हैं। यह महामारी प्राकृतिक है या मानव-निर्मित, इसका पता तो शायद ही कभी चल पाए। लेकिन इसके चलते उद्योग, व्यापार और रोज़गार की स्थिति बद-से-बदतर हुई। लगता है कि सब कुछ थम-सा गया है। भयंकर आर्थिक मंदी मुँह बाये खड़ी है, यह किस-किस देश की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करेगी, इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ में ही छुपा है। यह स्थिति हमारे देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए क़तई लाभकारी नहीं है।संभवत: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इस महामारी में सब से अधिक लोगों ने अपनी जान गँवाई है। विद्वानों के मतानुसार हर काल का साहित्य उस युग की सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक वैधानिक और आर्थिक स्थितियों-परिस्थितियों से निर्लिप्त नहीं रहा है। साहित्य ने युग का प्रतिनिधित्त्व किया है या उसे प्रतिबिंबित, काल-संसर्ग सदैव अपेक्षित प्रभावी रहे हैं- किसी भी विधा के स्वरूप निर्धारण, अपितु यहाँ तक कि उसके अस्तित्त्वनिरूपण में भी युग की महती भूमिका रही है।

वस्तुत: किसी विषय विशेष पर एक पूरा एकल संग्रह तैयार करना जहाँ चुनौतीपूर्ण है वही एक जोखिमभरा कार्य भी है। क्योंकि विविधता का अभाव प्राय: एकरसता और ऊब पैदा कर देता है। किंतु 'एकांतवास में ज़िंदगी' के साथ बिल्कुल नहीं है। इसकी साठ लघुकथाएँ कम-से-कम पचास अलग-अलग विषयों पर आधारित हैं। विषय भी ऐसे जो घर में क़ैद आमजन की व्यथा से लेकर अंतरराष्ट्रीय चिंतन तक को अपने अंदर समोए हुए हैं। इस संग्रह की रचनाओं से गुज़रते हुए मैंने पाया कि अशोक लव सरीखा समर्थ व अनुभवी रचनाकार ही किसी समस्या का तीन सौ साथ डिग्री विश्लेषण करके ही किसी एकल विषय पर भी अद्वितीय प्रस्तुति दे सकता है।

 अशोक लव स्वयं एक प्रखर भाषाविद हैं जो हिंदी व्याकरण पर अनेक ग्रंथ रच चुके हैं। एक सामान्य पाठक लघुकथा के लघु आकार के कारण लघुकथा की ओर आकर्षित होता है, किंतु मेरा मानना है कि लघु अकार के अलावा जो बात पाठकों को अपनी ओर खींचती है, वह है- लघुकथा की आम-फहम भाषा। स्व० जगदीश कश्यप ने कहा था कि अच्छा लेखक वही है जिसे क्लिष्ट शब्दों से परिचय हो परंतु सरल शब्दों में अभिव्यक्ति दे। भाषा-प्रयोग के बारे में प्रेमचंद की लोकप्रियता सर्वविदित है जबकि जयशंकर प्रसाद इसी शुद्ध भाषा प्रयोग के कारण कहानी में उतने सफल नहीं हो सके जितने कि प्रेमचंद। प्रेमचंद ने आम आदमी की भाषा को प्रतिष्ठित किया। ठीक यही बात लघुकथा में लानी चाहिए। आप देखेंगे कि अशोक लव की भाषा एकदम सरल, आमफ़हम, आडम्बरहीन एवं बोलचाल की है, जो आम आदमी को स्वीकार्य हैं। सोद्देश्यता इनकी लघुकथाओं की विशेषता है, साथ ही इसमें शिल्पगत, कथ्यगत, विचारगत, शाब्दिक, भाषिक एवं संवेदनात्मक-गंभीरता, गहनता, तीक्ष्णता, शब्द मितव्ययिता, कलात्मकता कूट-कूटकर भरी हुई है। यही कारण है कि इनकी लघुकथाएँ अत्यंत कम शब्दों में ही अन्तःकरण को झकझोरकर उन्हें मानवीय तथ्यों के प्रति सोचने को बाध्य कर देती हैं। इनकी लघुकथाएँ लघुकथा के मानदंड का पालन करती हैं। इन लघुकथाओं में लघुकथा की प्रत्येक हर कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता और व्यंजना आदि का भली-भाँति निर्वाह किया है, जिसका कथ्य अत्यंत आधुनिक एवं यथार्थपूर्ण है। भाव और शिल्प प्रभावोत्पादक है।

यूँ तो इस संग्रह में एक से बढ़कर एक लघुकथाएँ संग्रहीत हैं; किंतु यहाँ केवल उन लघुकथाओं का उल्लेख करना ही समीचीन होगा जिनका क़द बाकियों से बुलंद है। ‘बड़- बड़ दादी’ कोरोना के चलते लोगों के बदलते हुए स्वभाव की बहुत ही प्यारी-सी बानगी जिसमें हर समय बड-बड करने वाली बूढ़ी दादी अपना कठोर स्वभाव त्यागकर हनुमान चालीसा पढ़ने लगती है। ‘मेरे शहर के बच्चे’ एक अन्य उत्कृष्ट लघुकथा है। जो कोरोना के चलते उद्दंड बच्चों के स्वभाव बदलने और परिवार के एकजुट होने की कथा है। इसी प्रकार ‘आशाएँ’ में लॉकडाउन के चलते समाचारों में मौत की ख़बरें सुन-सुनकर रीतिका के पति सुधीर के ठहाके बंद हो जाते हैं। उपर्युक्त तीनों लघुकथाएँ यथार्थ का सटीक और अर्थगर्भित चित्रण हैं। ‘स्वप्नों पर ग्रहण’ एक भावपूर्ण और मार्मिक लघुकथा है जिसमें कोरोना भयग्रस्त दंपती एक की मृत्यु की सूरत में दूसरे को शादी करने की सलाह देते। ऐसी परिस्थिति किसी का भी दिल चीरने में सक्षम हैं। इसी तरह की एक और लघुकथा ‘स्व-आहुति’ कोरोना महासंकट ने किस तरह आम जनमानस की सोच को प्रभित किया कैसे उनमें असुरक्षा की भावना पैदा की, इसका साक्षात्कार इस रचना में होता है। इस रचना की नायिका रश्मि अपने पति को बाज़ार जाने से रोकती है, और स्वयं सब्ज़ी लेने चलती जाती है। दिमाग़ में यही चल रहा है कि ‘अगर उनको कुछ हो गया तो? यह मानवीय संबंधों की ऊँचाई की पराकाष्ठ नहीं तो और क्या है? कुछ ऐसा ही ‘उपचार’ में देखने को मिलता है जिसमें कोरोना पर इलाज के ख़र्चे की बात सुनकर पति-पत्नी अपनी पति को हिदायत देता है कि यदि वह कोरोनाग्रस्त हो जाए तो उसका इतना महँगा उपचार मत करवाना और वही पैसा भविष्य के लिए अपने लिए रख लेना। ‘और क्या जीना’ में वृद्धों की संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। इस लघुकथा में एक वृद्ध पत्नी एक युवा को संक्रमण से सुरक्षित रखने के लिए अपने पति को बाज़ार भेजने का निर्णय लेती है। इस संग्रह की एक सार्थक लघुकथा है ‘और अलमारी खुली’- लॉकडाउन के चलते अवसाद से बाहर निकालने में पुस्तकें किस प्रकार सहायक हो सकती है, इस लघुकथा में यह संदेश दिया गया है।

हर रचनाकार का कर्तव्य है कि वह अपने अपनी संस्कृति पर गर्व करें और अपने समाज के मूल्यों को अक्षुण रखने का प्रयास करें। अशोक लव को भी अपनी संस्कृति पर गर्व है। जिसकी बानगी उनकी बहुत-सी लघुकथाओं में देखने को मिलेगी। लेकिन यहाँ दो-तीन अति-महत्त्पूर्ण लघुकथाओं का उल्लेख करना ही समीचीन होगा। पहली लघुकथा है ‘संकटमोचन’ इसमें एक महिला की मौत पर उसके सगे संबंधियों ने भी आने समाना कर दिया। लेकिन पड़ोसियों ने पड़ोसी-धर्म क पालन करते हुए उसे सहारा दिया और उसके अंतिम संस्कार में मदद की। यह लघुकथा यथार्थ का सफल चित्रण है। इसके विपरीत ‘कूड़ा बन जाना’ एक तथाकथित विकसित देश की कहानी है जहाँ घरों के आगे ताबूत पड़े हैं, उनको लेने वाला कोई नहीं। परिवारजनों का अपने परिजनों की मृत देहों को लेने से इनकार करना और नगरपालिका द्वारा लावारिसों की तरह उनका अंतिम संस्कार करना दो सभ्यताओं का तुलनात्मक विश्लेषण है। इसी की अगली कड़ी है, ‘न लकड़ी न अग्नि’। यह लघुकथा एक तीर से कई-कई निशाने लगाने में सफल हुई है। इस लघुकथा में अंतिम संस्कार के भारी ख़र्चा के बारे में जानकर लोगों द्वारा अपने मृत परिवारजनों का अंतिम संस्कार नदी किनारे रेत में दबाकर करने की बात हुई है। हम यह भी पढ़ सुन चुके हैं कि सैकड़ों लोग अपने परिजनों की लाशें नदी में बहाने पर भी विवश हुए जोकि स्वाभाविक है कि बेहद दुखद है, किंतु ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी विकसित पश्चिमी राष्ट्रों की तरह अपने परिजनों को लावारिस नहीं छोड़ा।

 भारतीय संस्कृति में दया और दान का बहुत महत्त्व है। ‘मात्र रूपा’ इसी विचारधारा का प्रतिनिधित्त्व करती है। जहाँ लॉकडाउन के चलते बंगाल से आए और नॉएडा में फँसे एक परिवार दयाभाव दिखाए हुए एक घर में आश्रय दे-दिया जाता है। इसका दूसरा उदाहरण है ‘भगवान् सुनते हैं’, यह सैकड़ों मील दूर पैदल अपने गाँव लौट रहे थके-हारे और भूखे-प्यासे प्रवासी श्रमिकों की गाथा है। लेकिन कुछ सिख लोग फ़रिश्ते बनकर वहाँ पहुँचते हैं और उन्हें खाना (लंगर) देते हैं। ‘श्रद्धा’ में लॉकडाउन के कारण भुखमरी की कगार तक पहुँचे एक कर्मकांडी पंडित को धनवंती अपने ससुर की बरसी के बहाने भोजन पहुँचाती है। दयाभाव के इससे बड़े उदाहरण और क्या हो सकते हैं?

 कोरोना विषय पर अनेक रचनाएँ मेरी दृष्टि से गुज़री हैं, किंतु वे डॉक्टरों की लापरवाही अथवा भ्रष्टाचार से आगे नहीं जा पाईं और कोई प्रभाव छोड़ने में असफल रहीं। किंतु अशोक लव ने इन कोरोना योद्धाओं का वह पक्ष उजागर किया है, किसे उजागर करना वांछित भी था और अनिवार्य भी। पहली लघुकथा है ‘पश्चाताप’, इसमें कोरोना योद्धा डॉक्टरों पर हुए हमले की कहानी है। जिसमें दिन-रात रोगियों का उपचार कर रहे लोगों की डॉक्टरों के प्रति असंवेदनशीलता को शब्दांकित किया गया है। कोरोना संक्रमितों की सहायता करने गए चिकित्सा दल पर कुछ सिरफिरे हमला कर देते है जिससे डॉ अवधेश घायल हो जाते हैं। हालाँकि हमला करने वाला युवक अंत में उस डॉक्टर से क्षमा भी माँग ल्रता है। ऐसी ही असंवेदनशीलता ‘निर्लज्ज’ में भी रेखांकित की गई है। इसमें रिहायशी सोसाइटी के लोग एक डॉक्टर दंपती पर ही सवाल उठा देते हैं कि क्योंकि वे हर समय कोरोना संक्रमितों के बीच रहते हैं इसलिए सोसाइटी को उनसे ख़तरा है। लेकिन इस लघुकथा का जुझारू डॉक्टर मल्होत्रा उनसे प्रतिप्रश्न करते हुए पूछता है कि हम डॉक्टर लोग तो दिन-रात लोगों की ज़िंदगियाँ बचने में लगे हुए हैं, पर हम पर उँगलियाँ उठाने वाले क्या कर रहे हैं? ‘जीवन स्पंदन’ भी एक बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा है। इस में जीवन की आशा गँवा चुके रोगी में अचानक आए जीवन स्पंदन का बहुत ही सारगर्भित चित्रांकन किया गया है। इसमें न केवल रोगी के परिजन ही राहत की साँस लेते हैं बल्कि स्वयं डॉक्टर भी भी सतही भी वही होती है। यह रचना न केवल डॉक्टरों के बल्कि स्वयं लेखक के संवेदनशील व्यक्तित्त्व को भी उजागर करती है। ऐसा नहीं कि लेखक ने चिकित्सा क्षेत्र के नकारात्मक पक्ष पर क़लम न चलाई हो। ‘दो ईमानदार’ कोरोनाकाल में दवाइयों की ब्लैक मार्केटिंग करने वालों की ख़ूब ख़बर ली गई है। लेकिन यहाँ भी डॉक्टरों को भ्रष्टाचार में लिप्त न दिखाकर अशोक लव ने अपने नैतिक कर्तव्य का निर्वाह किया है।

मेरा मानना है कि अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का सफ़र जितना लंबा होगा, रचना उतनी ही परिपक्व व प्रभावोत्पादक होगी। क्योंकि किसी कृति को कलाकृति में परिवर्तित करने हेतु यह लंबा सफ़र अनिवार्य है। इसी अलोक में अब मैं बात करना चाहूँगा उन दो लघुकथाओं की जो अपनी बनावट बुनावट और कथानक के विलक्षण ट्रीटमेंट के कारण दीर्घजीवी सिद्ध होंगी। इन श्रेणी में सबसे पहले आती है ‘चलें गाँव’ यह लीक से हटकर एक बेहतरीन लघुकथा है। लॉकडाउन के करण बेकार हो चुके मज़दूर कुणाल के पास अपने गाँव लौट जाने के अलावा और कोई चारा नहीं। अब यहीं से उसके मन में द्वंद्व शुरू हो जाता है कि यदि तो वह कोरोना पीड़ित होकर शहर में ही मर गया तो उसकी लाश का क्या होगा। इससे बेहतर होगा कि वह अपने गाँव जाकर ही मरे। लेकिन फिर उसे अपने घर की ख़राब आर्थिक स्थिति का भी ध्यान आता है। वह जाने के लिए बस में बैठ जाता है। किंतु वह नहीं चाहता कि वह अपने घर वालों पर अतिरिक्त बोझ डाले क्योंकि शहर में कम-से-कम उसे एक समय का भोजन तो सरकार की ओर से उपलब्ध करवाया जा रहा है। किंतु इन सभी बातों के अलावा जो बात इस लघुकथा में अनकही है, वह है कुणाल का जुझारूपन और जीवत। अत: वह इस ऊहापोह को झटकर संघर्ष के इरादे से बस से उतर जाता है। क्योंकि वह घर वालों पर बोझ नहीं बनना चाहता है। वस्तुत: कुणाल ‘सलाम दिल्ली’ का नायक अशरफ़ ही है। केवल परिदृश्य बदला है, न तो परिस्थितियाँ ही बदली हैं और न ही कुणाल उर्फ़ अशरफ़ का संघर्ष और उनके अंदर का जुझारूपन। ऐसी लघुकथा को सौ-सौ सलाम!

 ‘असहाय न्यायालय’ को इस संग्रह का 'हासिल' कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी। जिसकी हर पंक्ति सौ-सौ प्रश्नचिह्न खड़े करती है। इस लघुकथा की नायिका जो एक अधिवक्ता है, अपने भाई को अस्पताल में बेड न मिलने के कारण बहुत व्यथित है। उसे विश्वास था कि न्याय-व्यवस्था उसके भाई को बेड और ऑक्सीजन अवश्य उपलब्ध करवा देगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दुर्भाग्य से उसके भाई की मृत्यु हो गई। वह निराशा में इसे अपनी पराजय मानती है। लेकिन माननीय न्यायाधीश कहते हैं कि- तुम नहीं हारी, हम हारें हैं, हमारा देश हारा है और व्यवस्थ हारी है। कोरोनाकाल में जो कुछ भी हुआ, यह पंक्ति सब कुछ बयान कर देती है। मुझे लगता है कि इस लघुकथा पर आधारित एक सफल टेलीफिल्म बन सकती है।

हिंदी-लघुकथा में सार्वभौमिकता का अभाव इस विधा की एक कमज़ोर कड़ी है। इसका एक कारण है लघुकथाकारों का अप-टू-डेट न होना और दूसरा अपने खोल से बाहर न निकलना। आचार्य जानकीवल्लभ शात्री ने कहा था कि आज के लघुकथाकारों क्या सभी साहित्यकारों को सबसे पहले अप-टू-डेट होना चाहिए। आज विश्व स्तर पर कितनी उथल-पथल मची हुई है। उस स्तर पर देखना चाहिए कि वहाँ के साहित्यकार कितने जागरूक या उत्तेजक, आग उगलते या बर्फ़ीले शब्दों में वाणी दे रहे हैं या उन बातों को लोगों के सामने प्रकट कर रहे हैं। यह देखना-पढ़ना चाहिए। दुनिया हर रोज़ बदल रही है। कल के मित्र राष्ट्र आज शत्रु बन रहे हैं और शत्रु राष्ट्र मित्र। और मज़े की बात यह है कि बाहर से शत्रु दिखने वाले राष्ट्र अपने-अपने स्वार्थ और लाभ के लिए ये आपस में हाथ मिलाने से भी गुरेज़ नहीं करते और अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों में भागीदार बनते हैं। केवल एक सचेत और अप-टू-डेट रचनाकार ही इन बातों की तह तक पहुँच सकता है। इस संदर्भ में 'चीनी फोबिया' एक अति-उत्तम लघुकथा है। यह रचना अमेरिका में रहने वाली अनुभूति और उसकी माँ के मध्य हुई फोन वार्ता पर आधारित है। यह रचना कोरोना फैलाने के चीनी षड्यंत्र से पर्दा उठाती है। अनुभूति की माँ को पूरा विश्वास है कि चीन अपने यहाँ हुई मौतों का सही आँकड़ा नहीं बता रहा। विश्व का निष्पक्ष मीडिया बता रहा है कि कोरोना वायरस चीन की वुहान प्रयोगशाला से निकला, यह बात भले ही अफ़वाह मान ली जाए लेकिन धुआँ कभी भी बे वजह नहीं उठता। वैसे इस चीनी षड्यंत्र को आज तक झुठलाया भी तो नहीं गया है। भारतवर्ष चीन के विरुद्ध कुछ भी करने में सक्षम नहीं, कम्युनिस्ट रूस भला चीन के विरुद्ध क्यों बोलेगा? अब ले देकर दुनिया को आशा है कि अमरीका इस मामले में कुछ-न-कुछ अवश्य करेगा। लेकिन पूरा विश्व जानता है कि वुहान लैब को अमरीकी फंडिंग थी। फिर भी अनुभूति की माँ को विश्वास है कि अमेरिका कुछ ज़रूर करेगा और यह बात उसको सुकून देती है। फोन पर अदिति का अपनी माँ को टोकते हुए कहना कि ऐसी बातें फोन पर नहीं किया करते, किस ओर इशारा कर रहा है? क्या अमेरिका को भी अपना पर्दाफ़ाश होने का डर सता रहा है? मुझे लगता है कि ऐसी सार्वभौमिक लघुकथाओं की आज बहुत आवश्यकता है।

 इस संग्रह की मेरी पसंदीदा एक अन्य सार्वभौमिक लघुकथा है, 'देश बचना चाहिए'। यह एक बिल्कुल ही नवीन विषय को लेकर रची गई लघुकथा है जिसमें कथानक की ट्रीटमेंट देखते ही बनती है। ऐसा कथानक शायद ही हिंदी-लघुकथा में इससे पहले कभी प्रयोग किया गया हो। इस लघुकथा के केंद्र में संभवत: संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रप्ति व राष्ट्रपति हैं। दोनों के मध्य देशव्यापी लॉकडाउन हटाने के विषय में विचार-विमर्श चल रहा है। विमर्श किसी की लोकतांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग होता है। उपराष्ट्रप्ति लॉकडाउन हटाने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि इससे मौतों का आँकड़ा बढ़ने की आशंका है। जबकि राष्ट्रपति लॉकडाउन बढ़ाने के विरुद्ध हैं, उनका मत है कि इससे देश की अर्थव्यवस्था और भी चरमरा जाएगी। दोनों के तर्क अपने-अपने स्थान पर सही लगते हैं। लघुकथा अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ती है। उपराष्ट्रपति अपने राष्ट्राध्यक्ष के तर्क से सहमत हो जाते हैं और उन्हें सलाह देते हैं कि वे एक संदेश के माध्यम से लोगों को कोरोना से सुरक्षित रहने संबंधी दिशा-निर्देश दें। लोकतांत्रिक व्यवस्था की सुंदरता देखें कि राष्ट्रपति भी उपराष्ट्रपति के इस सुझाव से सहमत हो जाते हैं। अंत में राष्ट्रपति कहते हैं कि यह स्थिति किसी युद्ध से कम नहीं, यदि देश को बचने के लिए कुछ जानों का बलिदान करना भी पड़ा तो हम तैयार हैं क्योंकि हमें देश बचाना है। इस लघुकथा में भी उपराष्ट्रपति महोदय कोरोना वायरस के पीछे दुश्मन राष्ट्र के षड्यंत्र की ओर इशारा करते हैं। हमारे देश में जिस तरह बिना किसी पूर्वसूचना के लॉकडाउन लागू किया गया और बिना किसी तैयारी के हटाया गया, यह लघुकथा अप्रतयक्ष रूप से उस ओर भी इशारा करती है। कहते हैं कि एक लेखक भगवान की तरह होना चाहिए, जो अपनी रचना में मौजूद तो हो किंतु दिखाई नहीं दे। अशोक लव अपनी रचनाओं में कहते तो सब स्वयं हैं लेकिन बोलते उनके पात्र हैं। यह बात आज की पीढ़ी के लिए सीखने योग्य है। अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर अशोक लव का उच्च-स्तरीय ज्ञान और पैनी दृष्टि इस लघुकथा से परिलक्षित होती है। यदि इस स्तर की लघुकथाएँ हिंदी में लिखी जाने लगें तो हमारी लघुकथा भी विश्व की अन्य लघुकथाओं के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चलने में सक्षम हो जाएगी।

बलराम अग्रवाल के अनुसार लघुकथा किसी भी अर्थ में दनदनाती हुइ गोली नहीं है। यह इस प्रकार ‘सर्र’ से आपके सीने के निकट से कभी नहीं गुज़रेगी कि बदहवास से आप देखते ही रह जाएँ। पढ़ते-पढ़ते आप देखेंगे कि यह आपको झकझोर रही है। आपके ज़ेहन में कुछ बोल रही है - धीरे-धीरे आपको अहसास दिलाती है कि एक जंगल है आपके चारों ओर, और आप उसके बाहर निकल आने के लिए बेचैन हो उठते हैं। जंगल के बाहर निकल आने के समस्त निश्चयों-प्रयासों के दौरान लघुकथा आपको अपने सामने खड़ी दिखाई देती है- हर घड़ी-हर लम्हा। इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ उपर्युक्त कथन के निकष पर खरी उतरती हैं। इनकी लघुकथाएँ लघुकथा के मानदंड का पालन करती हैं। इन लघुकथाओं में लघुकथा की प्रत्येक हर कसौटी लघुता, तीक्ष्णता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, कलात्मकता, गहनता और व्यंजना आदि का भली-भाँति निर्वाह किया है, जिसका कथ्य अत्यंत आधुनिक एवं यथार्थपूर्ण है। भाव और शिल्प प्रभावोत्पादक है।

 'सलाम दिल्ली' के प्रकाशन के तीन दशक पश्चात् प्रस्तुत लघुकथा संग्रह 'एकांतवास में ज़िंदगी' का प्रकाश में आना एक शुभ संकेत है। इसका कुछ श्रेय श्री अशोक लव ने हमारी पत्रिका 'लघुकथा कलश' को भी दिया है। बहरहाल, यह संग्रह हिंदी-लघुकथा को और समृद्ध करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। अत: ऐसी कृति का भरपूर स्वागत होना चाहिए।

- समीक्षक: योगराज प्रभाकर

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

क्षितिज संवादात्मक लघुकथा अंक

सतीश राठी जी और दीपक गिरकर जी के सम्पादन में क्षितिज का संवादात्मक लघुकथा अंक प्राप्त हुआ। पढ़ना प्रारम्भ किया है। मेरी एक लघुकथा भी इसमें सम्मिलित है।



एक औरत / लघुकथा / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"काजल लगाने के बाद तुम्हारी आँखें कितनी सुंदर हो जाती हैं?"
"जी, मेरे बॉस भी यही कहते हैं।"
"अच्छा, तुम्हारे कपड़ों का चयन भी बहुत अच्छा है, तुम पर एकदम फिट!"
"बॉस को भी यही लगता है"
"ओह, तुम जो मेकअप करती हो उससे तुम्हारा रूप कितना खिल उठता है।"
"बॉस भी बिलकुल यही शब्द कहते हैं..."
"उफ़.... तुम्हारा पति मैं हूँ या बॉस?"
"आपकी नज़रें पति जैसी नहीं, बॉस जैसी हैं। वर्ना इस सुंदरता के पीछे एक औरत भी है।"
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सोमवार, 8 नवंबर 2021

समीक्षा: लघुकथा संग्रह: ज़िंदा मैं | लेखक: अशोक जैन | समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

लघुकथा की सहजता का ध्वजावाहक: ज़िंदा मैं

भगवान श्रीराम ने वनवास के कई वर्ष पंचवटी में व्यतीत किए थे। पंचवटी अर्थात पांच वृक्ष। ये पांच पेड़ थे - पीपल, बरगद, आँवला, बेल तथा अशोक। इन पर एक शोध के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि इन पाँचों के आस-पास रहने से बीमारियों की आशंका कम हो जाती है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है। आज कोरोना और अन्य कई संक्रमणों के बीच में जीवित रह रहे हम सभी के लिए इन पांच वृक्षों में से एक के नाम वाले लेखक-कवि-सम्पादक श्री 'अशोक' जैन का लघुकथा संग्रह  "ज़िंदा मैं" का आवरण पृष्ठ मेरे अनुसार प्रकृति और जलवायु के सरंक्षण का प्रतिनिधित्व करता हुआ इसी बात को इंगित करता है कि उचित रहन-सहन हेतु वृक्षों द्वारा प्रदान की जा रही ऊर्जा का सही दिशा में उपयोग होना चाहिए। यह किताब खोलने से पहले ही मुझे इसके आवरण चित्र ने मुझे यों प्रभावित किया। वृक्षों की कटाई की आँधियों के बीच कोई 'बूढा बरगद' (इस संग्रह की एक रचना) अपनी हिलती जड़ों के बावजूद आज भी सरंक्षण देता है और कोई नन्ही कोंपल इस परम्परा की संवाहक बन जाती है। इस संग्रह की भूमिका उदीयमान व प्रभावोत्पादक रचनाओं  के लेखक श्री वीरेंदर 'वीर' मेहता ने लिखी है, जो संग्रह का सही-सही प्रतिनिधित्व कर रही है। एक उदीयमान रचनाकार से भूमिका लिखवाने का यह प्रयोग मुझ सहित कई नवोदितों को ऊर्जावान करने में सक्षम है।

भारतवर्ष के इतिहास में उदारता, प्रेम, भय, स्वाभाविकता, सहजता, गरिमा, उन्नति, लक्ष्मी, सरस्वती, स्वास्थ्य, विज्ञान आदि गुण श्रेष्ठतम स्तर पर हैं। ऐसा ही पुरातन साहित्य भी है। इतिहास और पुरातन साहित्य हमें हिम्मत प्रदान करता है, लेकिन जब हम अपने समय का हाल देखते हैं तो उपरोक्त गुणों को तलाशने में ही हाथ-पैर फूल जाते हैं। साहित्य का दायित्व तब बढ़ ही जाता है। महाकवि जयशंकर प्रसाद की कामायनी के मनु की तरह, “विस्मृति का अवसाद घेर ले, नीरवता बस चुप कर दे।” 41 लघुकथाओं के इस संग्रह "ज़िंदा मैं" में भी उपरोक्त गुणों को समय के साथ विस्मृत नहीं होने देने की रचनाएं निहित हैं। यह साहित्य का धर्म भी है ताकि साहित्य सनातन के साथ सतत बना रहे लेकिन सतही न हो। इस संग्रह की भी अधिकतर लघुकथाएं सहज हैं। शून्य को शून्य रहने तक भय नहीं रहता है लेकिन जब वह किसी संख्या के पीछे लग जाता है तो उसका मूल्य तो बढ़ता ही है, मूल्यवान के दिल में किसी भी शून्य के हटने का डर भी बैठ जाता है और वह स्वयं के प्रति भी सजग हो उठता है। संग्रह की पहली रचना 'डर' भी इसी प्रकार के एक भय का प्रतिनिधित्व कर रही है। 'मुक्ति-मार्ग' एक ऐसी रचना है जो सतही तौर पर पढी ही नहीं जा सकती, यदि कोई ऐसे पढ़ता भी है तो वह अच्छा पाठक नहीं हो सकता। 'गिरगिट' यों तो कथनी-करनी के अंतर जैसे विषय पर आधारित है, लेकिन यह भी सत्य है कि अतीत की इस कथा का वर्तमान से कई जगह गहरा सम्बन्ध है। कुछ लघुकथाओं में पात्रों के नाम समयानूकूल नहीं हैं जैसे, 'हरी बाबू', 'हरखू'। हालांकि ये लघुकथाएं समाज के विभिन्न वर्गों की परिस्थितियों का उचित वर्णन कर रही हैं।

कुछ लघुकथाओं में प्रतीकों का इस तरह प्रयोग किया गया है, जो विभिन्न पाठकों में भिन्न-भिन्न विचारों को उत्पन्न कर सकते हैं, उदाहरणस्वरूप, 'टूटने के बाद' व 'दाना पानी'। पुस्तक की शीर्षक रचना मैं-बड़ा के भाव, अहंकार, भोगवादी संस्कृति, पारिवारिक बिखराव के साथ-साथ स्वाभिमान जैसे गुणों-अवगुणों की नुमाइंदगी करती है। इसी प्रकार 'आरपार' में लालटेन को लेकर, 'खुसर-पुसर' में चित्र के द्वारा, 'बोध' में कदमताल व 'माहौल' में  बादलों के जरिए संवेदनाओं को दर्शाया गया है, जो इन रचनाओं को उच्च स्तर पर ले जाता है। 'जेबकतरा' इस संग्रह की श्रेष्ठतम रचनाओं में से एक है, एक गोल्ड मेडलिस्ट परिस्थितिवश जेबकतरा बन अपने ही शिक्षक की जेब काट लेता है, उसकी मानसिकता का अच्छा मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है। 'पोस्टर' भी ऐसी रचना है जो एक से अधिक संवेदनाओं की ओर संकेत कर रही है। कुछ लघुकथाओं जैसे 'गिरगिट' में कहीं-कहीं लेखकीय प्रवेश भी दिखाई दिया। अधिकतर लघुकथाएँ सामयिक हैं जैसे 'मौकापरस्त'। ज़्यादातर रचनाओं की भाषा चुस्त है, लाघवता विद्यमान है, शिल्प और शैली भी अच्छी व सहज है। कथ्य का निर्वाह भी बेहतर तरीके से किया गया है और सबसे बड़ी बात अधिकतर रचनाएं पठनीय हैं। अशोक जैन जी की कलम कई मुद्दों पर बराबर स्याही बिखेरने की कूवत रखती है। अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लघुकथा संग्रह "ज़िंदा मैं" साहित्य के सन्मार्ग पर पंचवटी की तरह ऐसे वृक्षों का न केवल बीजारोपण कर रहा है, बल्कि उन वृक्षों के लिए खाद-पानी भी है, जिनसे लघुकथाएँ खुलकर श्वास ले सकती हैं।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
928544749
chandresh.chhatlani@gmail.com
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लघुकथा संग्रह: ज़िंदा मैं
लेखक: अशोक जैन
प्रकाशक: अमोघ प्रकाशन,गुरूग्राम
मूल्य: ₹80/-

शनिवार, 6 नवंबर 2021

लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा | लेखिका: कनक हरलालका | समीक्षा: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




"जब व्यक्ति व समाज की विसंगतियों से भरी कोई समस्या हृदय पर आघात कर उसका समाधान खोजने के लिए विवश कर देती है तो कलम स्वतः ही अपने उद्गार प्रकट करने के लिए विवश हो उठती है।"

- कनक हरलालका (अपने लघुकथा संग्रह के लेखकीय वक्तव्य में)

कनक हरलालका जी न केवल एक समर्थ लघुकथाकारा हैं बल्कि एक अच्छी कवयित्री भी हैं। दो विधाओं में महारथ हासिल करने से पहले किसी भी व्यक्ति को  शब्दों का धनी होना होता ही है, जो प्रतिभा श्रीमती हरलालका में विद्यमान है।

लघुकथा विधा में यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि लघुकथा विसंगतियों की कोख से जन्म लेती हैं। अपने प्रथम लघुकथा संग्रह में हरलालका कहती हैं कि, "विसंगतियाँ मुझे हमेशा से व्यथित करती रही हैं, इसीलिए मैंने विभिन्न विषयों को अपनी लघुकथाओं का माध्यम बनाया है। धरती के प्राय: सभी रंगो को मैंने इन लघुकथाओं में उतारने की कोशिश की है।"

आज का साहित्यकार नैतिक, राजनैतिक दर्शन के मूल्यों को दर्शाने से पिंड छुड़ाता दिखाई नहीं देता वरन इन्हें दर्शा कर अपनी रचनाओं के सौन्दर्य में वृद्धि करता है। इस संग्रह में भी इसी तरह की सत्तासी लघुकथाएं संग्रहित हैं। पहली लघुकथा 'प्यास' से लेकर अंतिम लघुकथा 'भेड़िया आया' कुछ न कुछ प्रभाव ज़रूर छोड़ जाती है। किसी रचना की भाषा तो किसी का शिल्प, कथ्य, विषय, संवेदना और/या शीर्षक प्रभावोत्पादक हैं। लघुकथाओं में मानव सम्बन्धी मूल्यों की वृद्धि का भाव यदि विद्यमान हो तो न केवल रचना उत्तम बल्कि कालजयी बनने का सामर्थ्य भी रखती हैं। इस संग्रह की 'गांधी को किसने मारा' भी एक ऐसी रचना है जो गांधी जी के आदर्श और मूल्यों के ह्वास को दर्शा रही है। 'इनसोर' लघुकथा का शीर्षक कलात्मक और उत्सुकता पैदा करने वाला है। इसी प्रकार 'वयसन्धि', 'कठपुतलियाँ', 'दरकन', 'पुनर्जीवी', 'असूर्यम्पश्या', आदि लघुकथाओं के शीर्षक भी उत्तम हैं।

मज़दूरों के इन्श्योरेंस पर आधारित लघुकथा 'इनसोर' की यह पंक्ति झकझोर देती है कि //"साहब... भूख से मरने पर भी इनसोर का रुपिया मिलेगा क्या...?"// लघुकथा 'सगाई की अंगूठी' का अनकहा आकर्षित करता है। 'वयसन्धि' की भाषा और यह पंक्ति कि // गरीबों की लड़कियां  बचपन से सीधे बड़ी हो जाती हैं// प्रभावित करती है। जहाँ “भीड़” की पंचलाइन उद्वेलित करती है वहीं 'अनुदान' का विषय और उसका निर्वाह काफी बढ़िया है। 'दरकन' लघुकथा का सौन्दर्य इस बात में है कि हर पंक्ति में नायिका विद्यमान होकर भी कहीं नहीं है। पुराने विषय की होकर भी इस रचना का शिल्प महत्वपूर्ण है। 'जंगली', 'उन्होंने कहा था', 'भेड़िया आया' व 'एकलव्य' भी प्रभावित करती रचनाएं हैं। कहीं-कहीं उपदेशात्मकता ज़रूर प्रतीत हुई, जिसे कम किया जा सकता था।

नैतिक, सामजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि मानवीय मूल्यों के संक्रमण को दर्शाती इस संग्रह की अधिकतर रचनाएं पैनी हैं, परिपक्व हैं और अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के कहने में समर्थ हैं। समग्रतः यह संग्रह न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय भी है।

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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

chandresh.chhatlani@gmail.com

9928544749


लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा

लेखिका: कनक हरलालका

प्रकाशन : दिशा प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य : ₹३००

पृष्ठ : १२०

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

Five key elements of a Short-Story, can also be applied on Hindi Laghukatha

What makes the authors such remarkable short story writers? They are true masters at combining the five key elements that go into every great short story: character, setting, conflict, plot and theme.

A character is a person, or sometimes even an animal, who takes part in the action of a short story or other literary work.

The setting of a short story is the time and place in which it happens. Authors often use descriptions of landscape, scenery, buildings, seasons or weather to provide a strong sense of setting.

A plot is a series of events and character actions that relate to the central conflict.

The conflict is a struggle between two people or things in a short story. The main character is usually on one side of the central conflict.

On the other side, the main character may struggle against another important character, against the forces of nature, against society, or even against something inside himself or herself (feelings, emotions, illness).

The theme is the central idea or belief in a short story.


Source:

https://users.aber.ac.uk/jpm/ellsa/ellsa_elements.html

बुधवार, 3 नवंबर 2021

फेसबुक समूह साहित्य संवेद में लघुकथा प्रतियोगिता

 श्री मृणाल आशुतोष द्वारा प्रसारित।

नमस्कार साथियो,

शुभ संध्या!!!

आपका अपना समूह साहित्य संवेद साहित्यिक आयोजन के प्रति सतत कटिबद्ध  है। अगली कड़ी में लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन 26-27 नवम्बर 2021 को सुनिश्चित हुआ है। प्रतियोगिता का फलक विस्तृत हुआ है और प्रतिष्ठित पत्रिका किस्सा-कोताह भी इसमें सहभागी बनी है।

प्रतियोगिता को बेहतर बनाने हेतु कुछ नियम निर्धारित किए हैं। सभी रचनाकारों से अनुरोध है कि प्रतियोगिता को सफल बनाने के लिए दिये गये नियमों का पालन करें। प्रतिभागियों से नवीन व ज्वलंत विषयों पर लेखनी चलाने की अपेक्षा रहेगी।

प्रतियोगिता के नियम इस प्रकार हैं:

1. रचना मौलिक, स्वरचित और पूर्णतः अप्रकाशित (न केवल पत्र-पत्रिका वरन फेसबुक, व्हाट्सएप, वेबसाइट और ब्लॉग आदि  पर भी प्रकाशित न हो) होनी चाहिए।

2. एक प्रतिभागी एक और केवल एक ही रचना प्रतियोगिता में भेज सकते हैं।

3.प्रतियोगिता में भेजी हुई रचना प्रतियोगिता के परिणाम आने तक कहीं और न भेजें और न ही पोस्ट करें। अन्यथा यह पुरस्कार की दौड़ से बाहर मानी जायेगी।

4. भाषा की शुद्धता का ध्यान रखें। रचना भेजने से पहले अशुद्धियों को ठीक कर लें। पोस्ट करने के बाद संपादित (एडिट) करना अमान्य होगा।

5. प्रतिभागी रचना निर्धारित तिथि(26-27 नवम्बर 2021) को साहित्य संवेद समूह में कर सकते हैं या अपने वाल पर।

अगर अपने वाल पर पोस्ट करते हैं तो पोस्ट करने के पश्चात लघुकथा, लघुकथा का लिंक, पूरा पता मोबाइल नंबर के साथ sahitya.samved@gmail.com पर मेल भी कर दें।

6. कृपया रचना के शीर्ष में #साहित्य_संवेद_किस्सा_कोताह_लघुकथा_प्रतियोगिता अवश्य अंकित करें। रचना के अंत में ई मेल आईडी अवश्य अंकित करें।

 एडमिनगण भी पुरस्कार के इतर इस प्रतियोगिता में हिस्सा ले सकते हैं।

प्रतियोगिता के प्रथम और द्वितीय विजेता को भवभूति मिश्र रचित लघुकथा संग्रह 'बची-खुची सम्पत्ति'+मधुदीप संपादित पड़ाव और पड़ताल का कोई एक खण्ड+ संतोष सुपेकर सम्पादित 'उत्कंठा के चलते'

तृतीय पुरस्कार विजेता को भवभूति मिश्र रचित लघुकथा संग्रह 'बची-खुची सम्पत्ति'+मधुदीप संपादित पड़ाव और पड़ताल का कोई एक खण्ड दिए जाएंगे।

इसके अतिरिक्त दो प्रोत्साहन पुरस्कार भी दिए जाएंगे जिन्हें भवभूति मिश्र रचित लघुकथा संग्रह 'बची-खुची सम्पत्ति' प्रदान किया जाएगा।

प्रथम तीन विजेता रचनाओं का प्रकाशन किस्सा कोताह पत्रिका में किया जाएगा और प्रथम पांच विजेताओ को डिजिटल सर्टिफिकेट प्रदान किये जायेंगे

इस प्रतियोगिता हेतु किसी भी सुझाव का हार्दिक स्वागत है। निस्संकोच अभिव्यक्त करें।

◆समय सीमा: भारतीय समयानुसार बुधवार 26/11/21 प्रातः 7 बजे से गुरुवार 27/11/21 सायं 11 बजे तक।

(आप सब तो प्रतियोगिता में शामिल होंगे ही, साथ में अपने लघुकथाकार मित्रों को भी शामिल होने के लिये प्रेरित करें।)

◆◆मित्रगण से इस पोस्ट को कॉपी/शेयर कर अपने वाल पर स्थान देने का आग्रह है  ताकि अधिकाधिक लघुकथाकार इस आयोजन में सहभागी बन सकें।

◆◆◆अनेक मित्र टैग होने से रह गए हैं। कृपया सभी साहित्यप्रेमी अपने आपको इस पोस्ट में टैग समझें।

मंगलवार, 2 नवंबर 2021

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर की फेसबुक वॉल से

 डॉ० रामकुमार घोटड़ द्वारा संपादित लघुकथा संकलन 'विभाजन त्रासदी की लघुकथाएँ' दिनांक 31 अक्तूबर 2021 को सिरसा में उन्हीं के कर-कमलों द्वारा प्राप्त हुआ। इसमें विभाजन की त्रासदी का हौलनाक चित्रांकन करती 47 लघुकथाकारों की 75 लघुकथाएँ शामिल हैं। 47 की संख्या वर्ष 1947 में हुए विभाजन तथा 75 की संख्या स्वतंत्रता की हीरक जयंती का प्रतिनिधित्त्व करती है। भारत विभाजन के विषय को लेकर यह सर्वप्रथम लघुकथा संकलन है। इसमें एक-से-बढ़कर एक लघुकथाएँ हैं। किंतु मुझे जिस लघुकथा ने बेहद प्रभावित किया है सुश्री पवित्रा अग्रवाल की लघुकथा 'जलन'। इस लघुकथा में पात्र का कोई नाम नहीं, वह किस धर्म है उसका कोई उल्लेख नहीं. वह भारत का है या पकिस्तान का, इसका भी कोई ज़िक्र नहीं. लेकिन मानववादी दृष्टिकोण से लिखी इस लघुकथा में जो संदेश है वह उस साझा दुख को बख़ूबी उभारने में सफल रहा है, जो दोनों तरफ़ के लोगों ने भोगा था. यह होता है लेखकीय कौशल जो एक तीर से कई-कई निशाने लगाने की क्षमता रखता है।

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जलन / पवित्रा अग्रवाल

"दादा आप उन लोगों से इतने खफा क्यों रहते हैं ?"

"बेटा मैंने बँटवारे का दर्द भोगा है। अपनी ज़मीन, जायदाद, जमा हुआ व्यापार सब छोड़कर रातों-रात वहाँ से भागना पड़ा था। रास्ते में माँ, दादा, दादी, बहन, भाई, बुआ, चाचा सभी छूटते गए।"

"कहाँ छूटते गए दादा?"

"मार दिए गए, उठा लिए गए या भीड़ में छूट गए।"

"तब आप कितने बड़े थे दादा?"

"मैं तो बहुत छोटा था, उतना याद भी नहीं रहता पर पूरी उम्र पिता को तिल-तिल कर मरते देखता रहा, माँ को तो तस्वीर में भी नहीं देखा। जब यह सब याद आता है तो दिल जलने लगता है।"

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