वह मीठे पानी की नदी थी। अपने रास्ते पर प्रवाहित होकर दूसरी नदियों की तरह ही वह भी समुद्र से जा मिलती थी। एक बार उस नदी की एक मछली भी पानी के साथ-साथ बहते हुए समुद्र में पहुँच गई। वहां जाकर वह परेशान हो गई, समुद्र की एक दूसरी मछली ने उसे देखा तो वह उसके पास गई और पूछा, “क्या बात है, परेशान सी क्यों लग रही हो?”
नदी की मछली ने उत्तर
दिया, “हाँ! मैं परेशान हूँ क्योंकि यह पानी कितना
खारा है, मैं इसमें कैसे जियूंगी?”
समुद्र की मछली ने हँसते
हुए कहा, “पानी का स्वाद तो ऐसा ही होता है।”
“नहीं-नहीं!” नदी की मछली
ने बात काटते हुए उत्तर दिया, “पानी तो मीठा
भी होता है।“
“पानी और मीठा! कहाँ पर?” समुद्र की मछली आश्चर्यचकित थी।
“वहाँ, उस तरफ। वहीं से
मैं आई हूँ।“ कहते हुए नदी की मछली ने नदी की दिशा की ओर इशारा किया।
“अच्छा! चलो चल कर देखते हैं।“ समुद्र की
मछली ने उत्सुकता से कहा।
“हाँ-हाँ चलो, मैं वहीं ज़िंदा रह पाऊंगी, लेकिन क्या तुम मुझे वहां तक ले
चलोगी?“
“हाँ ज़रूर, लेकिन तुम क्यों नहीं तैर पा रही?”
नदी की मछली ने समुद्र की
मछली को थामते हुए उत्तर दिया,
“क्योंकि नदी की धारा के
साथ बहते-बहते मुझमें अब विपरीत धारा में तैरने की शक्ति नहीं बची।“
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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यह लघुकथा राजस्थान पत्रिका में भी प्रकाशित हुई है. (11 जुलाई 2021)
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