लघुकथा का महाकुंभ
क्षितिज द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन
Lokayat | August 12, 2018 | Indore
कोई भी आयोजन अपने आप में एक सृजन होता है या कहें कि मंच पर दी जा रही किसी शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुति से इसकी बखूबी तुलना हो सकती है। कंठ कितना सुरीला था से लेकर वाद्यों के तार कितने सुरों में कसे थे, तबला या मृदंग की संगति हो या पाश्र्व से आती तानपूरे की तान, जब तक सब कुछ सही स्वर-लय में न हो, शुद्ध बेला का राग न चुना गया हो, कलाकारों में रियाज़ का तपा सोना न हो, तब तक मंच धन्य नही होता। इसमें बराबरी से सहयोग चाहिए होता है, गुणी श्रोताओं के हर तिहाई पर ताली बजा देने की बजाय क्लिष्ट और साधनापूर्वक प्राप्त की गई कला की बारीकियों को समझ सकंे। इसी के साथ जब बात साहित्य सम्मेलनों की होती है, तब अमूमन समानांतर सत्र, प्रसिद्ध लेखकों का सेलिब्रिटी अंदाज और कुछ पाने वालों की ओर तारीफें और चूक जाने वालों की ओर से इसे धन फूंकने जैसी उपमाओं का लंबा दौर चलता है। अंग्रेजी से परे जाकर सम्मेलन की बात सोचना, उसमें भी हिन्दी की किसी विधा विशेष पर केन्द्रित सम्मेलन की संकल्पना, तिस पर लघुकथा विधा को लेकर भारत भर के विद्वान, मनीषी, शब्द साधक, लेखक और विद्यार्थियों को जोड़कर उस पर मंथन, चिंतन और पोषण जैसे सुर लगाना वास्तव में किसी अप्रचलित राग को नामचीन मंच पर प्रस्तुत करने का जोखिम उठाने जैसा है , लेकिन वास्तविकता यह है कि इंदौर की प्रसिद्ध संस्था ‘क्षितिज ने न केवल यह अप्रचलित राग गाया-बजाया, इस पर संगति की, अपने साथ पाश्र्व स्वर के रूप में लेखकों, विद्वानों, विचारकों, आलोचकों की पूरी बिरादरी को मंच पर अपनी साधना प्रस्तुति के लिए आमंत्रित किया और सबने श्रवणीय, मधुर, अविस्मरणीय और अभूतपूर्व प्रस्तुतियां दीं। पिछले दिनों
क्षितिज द्वारा अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन आयोजित किया गया। आयोजन की पाश्र्वभूमि में स्पष्ट उद्देश्य था-लघुकथा विधा को लेकर किये जा रहे संस्था के प्रयासों का रेखांकन, लघुकथा बिरादरी को एक छत के नीचे लाकर सार्थक चिंतन करना, जिससे विधा का विकास और पोषण सुनिश्चित किया जा सके, स्थापित रचनाकारों, आलोचकों और चिंतक के प्रति आदर भाव के साथ उनसे मार्गदर्शन पाकर इस विधा के साथ चल रहे लेखकों की नई पौध में ऊर्जा का संचार करना।
लघुकथा स्थापना के लिए भगीरथ के अनथक प्रयास और श्यामसुंदर दीप्ति की आभा काम करती रही
लघुकथा विधा पर इससे पहले भी अनेकानेक आयोजन होते रहे हैं। पंजाबी की पत्रिका ‘मिन्नी द्वारा छब्बीस वर्षों से गरिमामय रूप में किये गये कामों का इस विधा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसके अलावा अनेक संस्थान, समूह और व्यक्तिगत प्रयत्नों का आधार इस विधा की मजबूत इमारत को अपना स्वरूप दे पाने के लिए मौजूद रहा है।
क्षितिज के लघुकथा सम्मेलन को लेकर प्रारंभिक चर्चाओं के दौरान इसे कसावट भरा, अनुशासित, एकरसता से परे और सकारात्मक बनाने का लक्ष्य रहा। इसी के आधार पर पूर्व में सम्मेलनों के साक्षी और आयोजन में सहभागी रहे वरिष्ठों के मार्गदशर्न से यह यात्रा प्रारंभ हो सकी। तय समय में सुनिश्चित कामों को पूरा करते हुए जब आयोजन आकार लेने लगा, तब स्वाभाविक था कि कुछ यक्ष प्रश्न उभरे। इसमें उपस्थिति की सुनिश्चितता से लेकर अर्थ प्रबन्धन और आयोजन पर कूटनीति की आशंकाओं को लेकर भी सुगबुगाहटों का सामना संस्था ने किया, पर जब आप उदार सत्य के साथ होते हैं, तब हवा में छूटने वाले तीर भी आपसे बचकर निकलते हैं। इसी भाव पर ‘क्षितिज लघुकथा लेखकों को परिवार के रूप में मंच पर लाने में सफल रहा।
वरिष्ठ साहित्यकार
सतीश राठी और 'मिन्नीÓ के संपादक
श्यामसुंदर अग्रवाल की भूमिका भी महत्वपूर्ण
अनेक भावनात्मक, संवेदनशील और विचारात्मक मंथनों से गुणवत्ता जांच करने के बाद इस आयोजन के रूप को अंतिम आकार दिया गया। मेहमानों के साथ प्रतिभागियों को भी बेहतर सुविधा, सम्मान और अपनापन मिल सके, इस पर संस्था के सभी सदस्य एकमत रहे। इस तरह इन्दौर शहर की सांस्कृतिक विरासत को साक्षी मानते हुए अपने ही कुटुंब के किसी मांगलिक कार्य को पूरा करने का जिम्मा अपने-अपने मन में रखते हुए क्षितिज के सदस्य इस आयोजन के लिए तैयार थे।
प्रारंभिक स्वागत, निवास व्यवस्था, आहार आदि के आवश्यक पायदानों को पार करने के बाद माहेश्वरी भवन के मंच से मां सरस्वती के समक्ष जो दीप प्रज्वलित हुआ, उसका उजास दूर-दूर तक फैल गया। आयोजन का शुभारंभ ‘क्षितिज के स्तंभ पुरुष सतीश राठी द्वारा सभी के मध्य सम्मेलन की घोषणा, स्वागत और डॉ. पुरुषोत्तम दुबे को समारोह की कमान थमाकर किया गया। मंच पर श्रीमध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर के प्रधानमंत्री प्रो. सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी की अध्यक्षता एवं वरिष्ठ कथाकार बलराम के मुख्य आतिथ्य में बलराम अग्रवाल, बी.एल. आच्छा, सतीशराज पुष्करणा, श्यामसुंदर दीप्ति और सूर्यकांत नागर की उपस्थिति में अत्यंत गरिमामय वातावरण निर्मित हुआ। मंचासीन अतिथियों द्वारा मां सरस्वती की मूर्ति पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्वलन के साथ वर्षा टावरी द्वारा कर्णप्रिय सरस्वती वंदना की गई।
मंचासीन अतिथियों के यथोचित स्वागत के पश्चात मंच पर आयी प्रतिनिधि सृजन स्वरूप पुस्तकें, जिनकी उपस्थिति से उद्घाटन की बेला के भाल पर चटकीला कुमकुम और अक्षत लगाने जैसा सुखद दृश्य सामने आया। इस प्रतिष्ठित मंच से सर्वप्रथम विमोचित की गई स्मारिका ‘क्षितिज सफर पैंतीस बरस का, जिसमें ‘क्षितिज के पैंतीस बरस की यात्रा को संजोया गया है। इस सम्मेलन के प्रभावी और सफल हो जाने से अब यह स्मारिका अधिक उल्लेखनीय जान पड़ती है। इसके पश्चात ‘क्षितिज का ताजा अंक सभी लघुकथा प्रेमियों के समक्ष लोकार्पित किया गया। ‘क्षितिज के इस अंक में सन् 2011 से 2017 के बीच की लघुकथाओं को स्थान मिला है।
इसके पश्चात
बलराम अग्रवाल की बहुचर्चित पुस्तक ‘परिंदों के दरमियां के विमोचन का साक्षी यह सभागार बना। उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक में शामिल अनेक परिंदे सशरीर कार्यक्रम की शोभा बढ़ा रहे थे। इसके आगे मंच को समृद्ध किया
रामकुमार घोटड़ की पुस्तक ‘स्मृति शेष लघुकथाकार ने। यह पुस्तक लघुकथा विधा को समृद्ध कर चुके, लेकिन अब हमारे बीच न रहने वाले लघुकथा लेखकों पर केन्द्रित है। इसके बाद मंच पर आया सभी के कौतुहल का विषय बन चुका लघुकथा टाइम्स। लघुकथा विधा के लिए एक मासिक अखबार का होना अपने आप में गौरव की बात है।
कान्ताराय और
मालती बसंत इसके संपादन में लंबी पारी खेलें, यह शुभकामना है। अपना प्रकाशन, भोपाल द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘ठहराव में सुख कहां(विजय जोशी), जो विमोचन की कड़ी में अगला मोती रहा। इसके बाद विमोचन हुआ अपनी कृति से सम्मेलन में उपस्थिति दर्ज कराने वाले लेखक
जॉन मार्टिन की ‘सब खैरियत है (लघुकथा संग्रह) का। अगली कृति थी बांगला में लघुकथा अनुवाद का एक प्रयोग बनी ‘शिप्रा से गंगा तक (बांग्ला लघुकथा संकलन : संपादक-
हीरालाल मिश्र)।
लघुकथा विधा को इन सभी कृतियों से संपन्न करने के पश्चात अब मौका था इस विधा को एक नया स्वरूप देने का, जिसके चलते मंचासीन अतिथियों को आयोजन स्थल के उस विशेष स्थान पर ले जाया गया, जहां पर कलाकार किशोर बागरे एवं युवा लघुकथाकार और कलाकर्मी
अनघा जोगलेकर द्वारा सृजित किये गये लघुकथा पोस्टरों की प्रदर्शनी उद्घाटन की बाट जोह रही थी। दीप प्रज्ज्वलन, कलाकारों के स्वागत-सम्मान और बारीकी से पोस्टर प्रदर्शनी का अवलोकन करने और विधा को एक नया आयाम देने के लिए सभी उपस्थित जनों द्वारा कलाकार द्वय का अभिनंदन किया गया। महीनों की मेहनत, लंबी दूरी से इस स्थान तक की पोस्टर यात्रा, सृजन का अलहदा अन्दाज और विधा को लेकर समर्पण बरबस सभी का ध्यान खींच रहे थे।
इसके पश्चात पुस्तक प्रदर्शनी एवं बिक्री का स्टॉल सुसज्जित होकर अपने उद्घाटित होने की प्रतीक्षा में था। इसमें उपस्थित लघुकथा लेखकों और भारत भर के अनेक रचनाकारों की रचनाएं, पुरानी पत्रिकाएं, आयोजन में विमोचित होने वाली कृतियों समेत अनेकानेक पुस्तकें शामिल थीं। अतिथियों द्वारा यहां भी दीप प्रज्ज्वलन करने के साथ इस रचना संसार को अपने प्रिय पाठकों तक पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त किया गया।
इस उद्घाटन फेरी के पश्चात जब अतिथियों को मंच की ओर मोड़ा गया, तब वहां पर दृश्य कुछ और ही था। प्रोजेक्टर के साथ एक प्रशस्त स्क्रीन मंच की शोभा बढ़ा रही थी। यह समय था ‘क्षितिज और अनुध्वनि स्टूडियो की साझा दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति ‘इन्दौर के क्षितिज पर लघुकथा वृत्तचित्र के प्रदर्शन का। तैंतीस मिनट के इस वृत्तचित्र में इन्दौर शहर, यहां की सांस्कृतिक विरासत, खान-पान व पोशाक संबंधी चलन के साथ ही परंपरा और सामाजिक रीति-रिवाज़ों, आतिथ्य तथा सौम्य स्नेह के माहौल का प्रभाव। लघुकथा विधा और इसके पोषण में शहर की भूमिका को साथ जोड़कर दिखाया गया था। ‘क्षितिज के लगभग सभी मील के पत्थर इसमें शामिल रहे। संस्था की लघुकथा यात्रा और सम्मेलन को लेकर उत्साह इस वृत्तचित्र के द्वारा सभी रचनाकारों तक आसानी से पहुंच रहा था। सदस्यों के अलावा
अंतरा करवड़े द्वारा इसके निर्माण, लेखन और पाश्र्व स्वर के रूप में विशेष सहयोग दिया गया, जिसे उचित सराहना मिली।
इसके बाद सम्मेलन के मुख्य अतिथि लोकायत के प्रधान संपादक कथाकार
बलराम ने उद्घाटन भाषण में खुशी जाहिर की कि साहित्य अकादेमी और दिल्ली की हिंदी अकादमी द्वारा लघुकथा को विधा की मान्यता देकर कथाकारों से लघुकथा पाठ की शुरुआत कर दी गई है। लघुकथा पाठ हेतु देश भर से प्रमुख लघुकथा लेखकों को आमंत्रित किया जा रहा है, जो लघुकथा की स्वीकार्यता के लिए मील के एक और पत्थर के समान है।
आगे उन्होंने कहा कि प्रेमचंद द्वारा इसे गद्य काव्य और कहानी के बीच की विधा कहा गया तो अज्ञेय ने इसे छोटी कहानी कहा। कुछ लोगों ने लघुकहानी और लघुव्यंग्य का राग भी अलापा, लेकिन अंत में लघुकथा नाम ही बचा। काव्यात्मक और कथात्मक लघुकथा लिखने वाले रचनाकारों की महत्वपूर्ण लघुकथाओं का उल्लेख करते हुए एक ओर
बलराम ने चैतन्य त्रिवेदी के लघुकथा संग्रह ‘उल्लास का जिक्र किया तो दूसरी ओर यह भी कहा कि लघुकथा में गद्य और काव्य दोनों का समावेश स्वीकार्य है। लघुकथा लिखने के लिए भी परकाया प्रवेश आवश्यक है। लघुकथा यदि लघुकहानी-छोटी कहानी के रूप में भी आती है, तब भी कोई समस्या नहीं है।
बी.एल. आच्छा, बलराम अग्रवाल और
अशोक भाटिया की लघुकथा आलोचना ने बड़ी जिम्मेदारी से खर-पतवार साफ किए तो विचार के महत्वपूर्ण मुद्दे भी उठाए।
नई पीढ़ी में
दीपक मशाल,
संध्या तिवारी,
संतोष सुपेकर,
अनघा जोगलेकर और
शोभना श्याम की लघुकथा को दूर तक ले जाने की क्षमता पर
बलराम ने आश्वस्ति व्यक्त की। साथ ही
रमेश बतरा, सतीश दुबे, सुरेश शर्मा, जगदीप कश्यप और
कुलदीप जैन आदि की लघुकथाएं पढ़े जाने की आवश्यकता पर जोर दिया।
बलराम ने कहा कि लघुकथा को स्थापित किए जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह तो पहले से ही स्थापित है। प्रेमचंद और परसाई जैसे सर्जक इसे पहले ही स्थापित कर चुके हैं।
माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरी भर मिटटी पहली लघुकथा है, जिसे कुछ लोग हिंदी की पहली कहानी कहते हैं।
बलराम ने बताया कि राजेंद्र यादव लघुकथा को विधा ही नहीं मानते थे, लेकिन उन्होंने भी अंतत: खाकसार के ‘भारतीय लघुकथा कोश की भूमिका लिखी और ‘हंस में लघुकथाओं को स्थान देने लगे। उन्होंनेे लघुकथा लेखकों को अन्य विधाओं की महत्वपूर्ण लेखकों की किताबें पढऩे और उन विधाओं में भी लिखने पर जोर दिया। अन्य विधाओं में स्थापित लेखकों-नरेंद्र कोहली, विष्णु नागर, चित्रा मुद्गल, सतीश दुबे, सुभाष नीरव, असगर वजाहत, सुरेश उनियाल, हरीश नवल, रामेरश्वर काम्बोज हिमांशु, नासिरा शर्मा और दामोदरदत्त दीक्षित आदि ने अन्य विधाओं में भी बहुत कुछ लिखने के साथ अनेक अच्छी लघुकथाएं भी हिंदी पाठकों को दी हैं।
इस अवसर पर अपने अध्यक्षीय संबोधन में श्रीमध्यभारत हिंदी साहित्य समिति के प्रधानमंत्री
सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी ने कहा कि कोई भी विधा छोटी नहीं होती। इसके रचनाकार ही इसे ऊंचाई तक ले जाते हैं। उन्होंने लघुकथा पर हो रहे अखिल भारतीय सम्मेलन के लिए अपनी शुभकामनाएं देते हुए इसे इंदौर शहर के लिए एक बड़ी उपलब्धि बताया।
प्रसिद्ध आलोचक
बी.एल. आच्छा ने कहा कि लम्बे समय से लघुकथा विधा के लिए आवश्यक हो चुका इस प्रकार का आयोजन करने में ‘क्षितिज सफल हुआ है। इस सत्र के दौरान ही इन्दौर से संबद्ध और वर्तमान में अंबाला शहर में कहानी लेखन महाविद्यालय और शुभ तारिका पत्रिका का संपादन कर रही वरिष्ठ लेखिका
उर्मि कृष्ण का सन्देश वाचन भी किया गया। इस सफल सत्र के समापन पर सभी मंचासीन अतिथियों को स्मृति चिन्ह से सम्मानित किया गया। आभार
वसुधा गाडगिल ने ब्यक्त किया।
इस समय तक सभी आगंतुक लगभग घराती बन चुके थे। सभी लेखक, विद्वान, अतिथि और विचारक आपस में चर्चा करते हुए सहज ही आयोजन का एक भाग हो चले थे। अपनी निवास व्यवस्था से आश्वस्त होकर अब सभी प्रतिभागी वास्तविक तौर पर सम्मेलन से लघुकथा विधा को लेकर सारतत्व ग्रहण करने की स्थिति में आ चुके थे। भोजनावकाश के तुरंत बाद प्रारंभ हुआ नियत प्रथम चर्चा सत्र, जिसका विषय था, लघुकथा, कितनी पारम्परिक, कितनी आधुनिक (भाषा शिल्प, विषयवस्तु और शैली)। सारगर्भित विषय पर उतना ही समृद्ध बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया प्रसिद्ध लघुकथा लेखक
बलराम अग्रवाल ने।
उनके वक्तव्य का सार यह रहा कि साहित्य में हर विधा का अपना महत्व है। लघुकथा की यात्रा जारी रहनी
चाहिए। लघुकथा एक मजबूत विधा है। वर्तमान समय में लघुकथा विधा का महत्व बढ़ता जा रहा है। लघुकथा तो पूर्व से ही अस्तित्व में थी, लेकिन एक विधा के रूप में इसका विकास 20 वीं सदी में अधिक हुआ। प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिशंकर परसाई, राजेंद्र यादव जैसे साहित्यकारों ने इस विधा में काम किया। लघुकथा में शीर्षक का बहुत महत्व है। शीर्षक ऐसा होना चाहिए, जो लघुकथा के अंत तक जिज्ञासा बनाए रखे। लघुकथा में शीर्षक एक खूंटी की तरह होता है, जिस पर पूरी लघुकथा लटकी रहती है। लघुकथा विधा हाथ मांजने की नहीं, मंजे हाथों की विधा है। लघुकथा का छोटा होना उसकी कमी नहीं है, बल्कि यह तो लघुकथा की ताकत है। जब तक आप कथाकार नहीं बनेंगे तब तक लघुकथाकार नहीं बन सकते हैं। प्रेमचंद का कहना था कि लघुकथा में कहानी और कथ्य दोनों ही होने चाहिए। कुछ साहित्यकारों का कहना है कि हमें लघुकथा को स्थापित करना है। मेरा मानना है कि लघुकथा तो पहले सेे स्थापित है।
इसके बाद
चैतन्य त्रिवेदी ने मंच से अपने विचार साझा करते हुए कहा कि कोई भी विधा छोटी या बड़ी नहीं होती है। समकालीन सच्चाइयों के साथ चलते हुए लघुकथा लिखी जानी चाहिए। लघुकथा के अनेक विधान तय करने की वजह से लघुकथा पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पायी है। रचना की आलोचना किसी भी रचना को नकार नहीं सकती है। लघुकथा को नकारने या स्वीकारने का अधिकार सिर्फ पाठकों को है।
अगले वक्ता के रूप में
पुरुषोत्तम दुबे द्वारा विचार व्यक्त किये गये। उनके मतानुसार वर्तमान समय में लघुकथा लेखन के क्षेत्र में लेखकों की संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन गिने-चुने लघुकथाकार ही सटीक और सार्थक लघुकथाएं लिख रहे हैं। परम्परा कभी मरती नहीं है, लेकिन परम्परा भी आधुनिकता के साथ कब तक खड़ी रहेगी? परिवर्तन की प्रक्रिया परम्परा की एक स्थिति है। आधुनिकता तो हर युग में रही है। इसके बाद इस सत्र में आमंत्रित लघुकथाकारों द्वारा लघुकथाओं का वाचन किया गया।
कपिल शास्त्री ने ‘पंगत,
नयना कानिटकर ने ‘बापू का भात,
शोभना श्याम ने ‘इंसानियत का स्वाद,
मधूलिका सक्सेना ने ‘अगली पीढ़ी,
मधु जैन ने ‘अंतिम पंक्ति,
डॉ. लीला मोरे धुलधोए ने ‘श्रवण कुमार,
डॉ. मालती बसंत ने ‘भाग्यशाली,
कविता वर्मा ने ‘नालायक और
अंतरा करवड़े ने ‘शाश्वत का पाठ किया। इन लघुकथाओं की समीक्षा
श्यामसुंदर दीप्ति एवं
संतोष सुपेकर ने की। इस सत्र का संचालन
ज्योति जैन ने किया।
इसके पश्चात आयोजन अपनी परिपक्वता को परिलक्षित कर चुका था और यह स्पष्ट रूप से महसूस किया जा रहा था कि जिस प्रकार से इसकी रूपरेखा तैयार की गई थी और अब तक जिस अनुशासनबद्ध तरीके से संचालन जारी है, इसमें सभी का बिना शर्त सहयोग मिलेगा और आगे चलकर यह तथ्य सत्य सिद्ध हुआ।
पोस्टर प्रदर्शनी और पुस्तक प्रदर्शनी के कार्यकर्ता एक बार फिर से थोड़े व्यस्त हो चले थे और फिर मंच पर वरिष्ठ साहित्यकार
ब्रजेश कानूनगो ने समय पर कमान संभाल ली। अगले सत्र का विषय था ‘हिन्दी लघुकथा : बुनावट और प्रयोगशीलता। बीज वक्तव्य में प्रख्यात लघुकथाकार और समीक्षक
अशोक भाटिया ने कहा कि लघुकथा के साथ पात्रों की वेशभूषा, चाल-ढाल, भाषा आदि देशकाल और वातावरण के अनुरूप होनी चाहिए। वातावरण और देशकाल का सीमित अंश लेकर ही लघुकथा में गहराई पैदा की जा सकती है। आगे उन्होंने कहा कि संकेतात्मक ढंग से लिखी गयी लघुकथा विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करती हैं। लघुकथाओं में विषय तो वही है आयाम अलग-अलग हो सकते हैं। एक विषय पर अनेक आयामों से लघुकथाएं लिखी जा सकती हैं। नये लघुकथाकारों को अपने अध्ययन का दायरा बढ़ाना होगा। अपने संकट को नहीं पहचान पाना ही सबसे बड़ा संकट हैं। हम घटनाओं की गुलामी करना कब छोड़ेंगे? अपने में सामथ्र्य पैदा करने की आवश्यकता है। लघुकथा में लघुकथा का प्रबंध ही लघुकथा की आत्मा है। कम शब्दों में अधिक कहने की प्रवृत्ति होनी चाहिए।
इसके बाद मंच पर पधारे
योगराज प्रभाकर। उन्होंने अपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि कथ्य व कथा का आपस में गहरा संबंध है। कथ्य के बिना कथा कोरी कल्पना है। कथा कथ्य से गुजऱती है। कथा लेखक का चिंतन होती है, जिसे वह कथ्य के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। लघुकथा को नये विषयों और नये दृष्टिकोण की तलाश है। लघुकथा को विषयों की पुनरावृत्ति से बचना चाहिए। लघुकथा में रोचकता होनी चाहिए। इसके बाद सिद्धहस्त लघुकथाकार सीमा जैन ने मंच सम्हाला और विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हम मौलिक तो बने रहें, लेकिन साथ में नये-नये प्रयोग भी करते रहें, क्योंकि प्रयोग के बिना जीवन अधूरा है। प्रयोग से ही नदी की नई धारा बनेगी।
विद्वानों द्वारा अपने विचार साझा करने के पश्चात इस सत्र में आमंत्रित लघुकथाकारों द्वारा लघुकथाओं का वाचन किया गया।
डॉ. रंजना शर्मा ने ‘ममत्व,
सीमा भाटिया ने ‘आईना बोल उठा,
कोमल वाधवानी ने ‘खाली थाल,
उषा लाल मंगल ने ‘संस्कार,
सविता मिश्रा ने ‘श्वास,
वर्षा ढोबले ने ‘ढोल,
संध्या तिवारी ने ‘चिडिय़ा उड़,
मनोज सेवलकर ने ‘नियति और
पवन जैन ने ‘वैवाहिक' लघुकथा का पाठ किया। इन लघुकथाओं की समीक्षा
अश्विनीकुमार दुबे एवं
राजेंद्र वामन द्वारा की गई। इस सत्र को बेहतरीन संचालन से
ब्रजेश कानूनगो ने संवारा।
चाय के एक और सत्र के बाद जो आवश्यक था, क्योंकि मौसम करवट बदल रहा था और सत्रों के मध्य अनुशासन के चलते फेसबुक पर ही मित्र के रूप में चेहरा देखने वाले अनेक प्रतिभागी एक-दूसरे से रूबरू भी होना चाह रहे थे। तुरंत
कविता वर्मा ने अनुशासनप्रिय लहजे में मंच पर आमद दर्ज की।
इस सत्र का विषय था-लघुकथा आलोचना, मापदंड और अपेक्षाएं। अपने बीज वक्तव्य में प्रसिद्ध लघुकथा आलोचक
बी.एल.आच्छा ने विचार व्यक्त किये। उन्होंने ‘लघुकथा आलोचना, मापदंड और अपेक्षाएं विषय पर अपने विचार रखते हुए कहा कि वर्तमान समय में कई बेहतरीन कथाकार श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिख रहे हैं। लघुकथा को लाउड होने से बचाने की जरूरत है। आज के समय में लघुकथाकार समाज में आए हर एक बदलाव को अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहा है। वह संकटों को पहचान भी रहा है और अपनी प्रयोगशीलता से वैविध्यपूर्ण ढंग से लघुकथा में अभिव्यक्त कर रहा हैं। समकालीन लघुकथा अपनी लोकप्रियता के शीर्ष पर है।
उन्होंने अपने वक्तव्य में लघुकथाकारों से कहा कि नये विषयों की ओर जाएं और जासूसी करें। जिस शब्द को लघुकथा में लिख रहे हैं, उसकी ताकत क्या है यह पहचाने। वर्तमान समय में हर जगह बाजारीकरण आ गया है, बाजार मनोविज्ञान के रूप में भी सामने आता है, जिसे समझे जाने की आवश्यकता है। सूर्यकांत नागर ने कहा कि जब भी साहित्य का मूल्यांकन हो, उसे विश्वसनीय होना चाहिए। लघुकथा की समीक्षा में प्रशंसा अधिक और आलोचना कम होती है। आलोचना रचना का सफर तय करती है। आलोचक तभी न्याय कर सकता है, जब वह रचनाकार की पीर को समझे। काशीनाथ सिंह का कथन है कि आलोचना भी रचना है। कई लघुकथाएं सांकेतिक और बौद्धिक होती हैं, पर इनमें भी कथानक में प्रासंगिकता होनी चाहिए। कथानक में यथार्थ का होना आवश्यक है।
विषय को आगे बढ़ाते हुए मूर्धन्य लघुकथाकार
भगीरथ परिहार ने कहा कि आलोचना अलग-अलग रूपों में होती है। पाठक आलोचना नहीं पढ़ता। रचना सार्थक या निरर्थक है, पाठक ही बता सकता है। आलोचना शोधार्थी के लिए सार्थक है और कुछ हद तक लेखक के आगे होने वाले सृजन के लिए मार्गदर्शन है। लघुकथा एक सुगठित विधा है, वह कसी हुई होनी चाहिए। उसमें अनावश्यक विस्तार नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह लघुकथा के सौंदर्य में रुकावट डालता है। लघुकथा में उपसंहार नहीं होना चाहिए और जो घटनाएं ले रहे हैं, वे संक्षिप्त होनी चाहिए। लघुकथा में छोटे वाक्य अधिक आकर्षक होते हैं। लघुकथा में कथ्य सशक्त होना चाहिए और वह अभिव्यंजनात्मक और सटीक हो। लघुकथा की वर्तमान स्थिति ठीक नहीं और आलोचना का अर्थ सबको खुश करना नहीं है।
यह सत्र अत्यंत सारगर्भित, विषयानुरूप और सफल रहा। मौसम की परिस्थिति और समय को देखते हुए तय किया गया कि इस सत्र के लघुकथा वाचन और समीक्षा सत्र को अगले दिन सुबह रखा जाए। इसके बाद मंच पर अवतरित हुआ रंगकर्म को समर्पित समूह ‘पथिक। प्रसिद्ध कथाकार एवं रंगकर्मी
नंदकिशोर बर्वे के नेतृत्व में व निदेर्शक
श्री सतीश श्रोती के कुशल मार्गदर्शन में कलाकारों द्वारा मंच पर लघुकथा विधा को अभिनय से साकार रूप दिया गया। इस दौरान कलाकारों की तैयारी, विषय चयन, अभिनय में कम से कम वस्तुओं के उपयोग से भी कलाकारों द्वारा आश्चर्यजनक सत्रह प्रस्तुतियां दी गईं। ‘मुखौटे शीर्षक से प्रस्तुत यह कला अभिव्यक्ति रंगकर्म और लघुकथा विधा के मध्य एक सेतु के समान प्रभाव छोड़ गई। व्यावसायिक रंगकर्म के प्रदर्शनों के समान न तो यहां पर नेपथ्य था, न प्रकाश व्यवस्था और न ही मूलभूत सुविधाएं। इसके आगे मौसम की मार के चलते बिजली भी नदारद, परंतु वीडियो कैमरा की बैटरी का प्रकाश भी इन कलाकारों के लिए किसी प्रकाश स्तंभ से कम न था। उन्होंने अपना प्रदर्शन जारी रखा और दर्शकों की वाहवाही लूट ले गये।
प्रथम दिवस अनेकानेक आयोजनों का सम्मिश्र प्रभाव प्रतिभागियों और विद्वानों पर छोडऩे में कामयाब रहा। नाटक प्रदर्शन के पश्चात आयोजन स्थल पर बिजली की आमद के चलते सभी सुस्वादु भोजन के साथ दिन भर के आयोजन, बीते समय के संपर्क और नवीन मित्रता के विविध झूलों पर झूलते, इन्दौर में मानसून की आमद दशार्ती आद्र्र हवाओं का आनंद ले रहे थे।
जहां पोस्टर प्रदर्शनी सभी के लिए बेहतर प्रकाश और रोचकता के कारण फोटो और सेल्फी का अधिकृत स्थान बन चुकी थी, वहीं सभी प्रतिभागी और आमंत्रितों के मध्य मंच सज्जा में उपयोग किये गये मालवी सजावट के मांडणा, सूप, पंखी और जूट के प्रभाव व इसके कारण उत्पन्न हो चुके गरिमामय उत्साह की भी खासी चर्चा रही। अस्सी फुट की जूट की दीवार को जहां पोस्टर प्रदर्शनी के लिये विशेष रूप से तैयार किया गया था, वहीं पुस्तक प्रदर्शनी भी जूट और मांडणा के खूबसूरत संयोजन से दर्शनीय थी। प्रवेश द्वार और मंच की सज्जा विशेष रूप से पर्यावरण मित्र प्रकार के सामान से की गई थी, जिसका पूरा जिम्मा संस्कृतिकर्मी भगिनी द्वय भारती-आरती सरवटे और उनके समूह द्वारा उठाया गया था। इस खुशनुमा वातावरण में, अगले दिन के लिए स्वयं को और बेहतर तरीके से तैयार करने का वादा करते कुछ प्रतिभागी अपने कमरों को चल दिये तो कुछ ने मित्रता सत्र पूरे किये, कहीं सुमधुर गीतों की बानगियां बिखरीं तो कहीं पहले की मित्रता और भी मजबूत हो गई।
सम्मेलन का दूसरा दिन तय कार्यक्रम और समय से पूर्व शुरू किया गया। पूर्व संध्या पर आखिरी सत्र के दौरान लघुकथा वाचन और समीक्षा के सत्र इस समय के लिए तय किये गये थे, प्रतिभागी अनुशासन के साथ मंच पर अपनी प्रस्तुतियां देने को तत्पर दिखे। इस सत्र में
कल्पना भट्ट ने ‘धरती पुत्र,
अनघा जोगलेकर ने ‘जज्बा,
कुमकुम गुप्ता ने ‘फूलों का झरना,
सेवा सदन प्रसाद ने ‘बेशर्मी,
शेख शहजाद उस्मानी ने ‘भूख की सेल्फी,
मधु सक्सेना ने ‘माँ ही तो हैं ना,
नीना सोलंकी ने ‘पछतावा,
आशा सिन्हा कपूर ने ‘प्रीत पराई,
अनन्या गौड़ ने ‘शक्ति और
गरिमा संजय दुबे ने ‘घर की मुर्गी लघुकथाओं का पाठ किया, जिनकी समीक्षा
मालती बसंत और
सतीश राठी ने की। संचालन
कविता वर्मा ने किया।
सत्र के पूर्ण होने तक सम्मान सत्र हेतु आमंत्रित अतिथि सभागार में अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे। यह वह प्रमुख सत्र था, जिसके इर्द-गिर्द लघुकथा सम्मेलन की संकल्पना को बुना गया था। समय था, लघुकथा को लेकर अपने समर्पण के चलते विधा को विस्तार और विकास देते चुनिंदा सर्जकों का सम्मान।
इस अवसर पर अध्यक्ष के रूप में मंचासीन रहे
डॉ. शैलेन्द्र कुमार शर्मा (कुलानुशासक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन), मुख्य अतिथि के रूप में
बलराम (कथाकार और ‘लोकायत के संपादक), विशेष अतिथि के रूप में
श्रीराम दवे (कार्यकारी संपादक ‘समावर्तन,उज्जैन) और
राकेश शर्मा (संपादक वीणा, इंदौर)। सभी ने मां सरस्वती की मूर्ति पर माल्यार्पण और दीप प्रज्जवलन किया। मां शारदा की वंदना और संपूर्ण आयोजन के लिए शुभाशीर्वाद स्वरूप
महेन्द्र पंडित द्वारा स्वस्ति वाचन करते हुए मंचासीन तथा उपस्थित जनों को आशीर्वाद दिया गया।
‘क्षितिज के विविध पदाधिकारियों द्वारा इस दौरान मंचासीन अतिथियों का स्वागत किया गया। इसके पश्चात प्रारंभ हुआ, लघुकथा लेखकों को सम्मानित करने का सिलसिला। प्रमुख सम्मानों से लेकर प्रतिभागी सम्मान तक कार्यक्रम में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोगियों से लेकर व्यवस्थापकों तक, सभी को ‘क्षितिज ने आतिथ्य की छांव में सहेजा।
शुरुआत हुई कार्यक्रम के अध्यक्ष
डॉ. शैलेन्द्र कुमार शर्मा द्वारा ‘क्षितिज लघुकथा शिखर सम्मान 2018
बलराम अग्रवाल, दिल्ली को लघुकथा के क्षेत्र में उनके समग्र अवदान के लिए प्रदान किया गया। तालियों की गडग़ड़ाहट के मध्य पुष्पगुच्छ, शाल, अंगवस्त्र, स्मृति चिन्ह, श्रीफल और नकद राशि जब बलराम अग्रवाल को अर्पित की जा रही थी, तब उनके मुखमंडल पर थी विधा की गरिमा और ‘क्षितिज के हर सदस्य के मुख पर थी सौजन्यशीलता। सभी मंचासीन अतिथि भी इस क्षण के साक्षी होकर धन्य हुए।
‘क्षितिज लघुकथा समालोचना सम्मान 2018 आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए
बी.एल. आच्छा, चेन्नई को प्रदान किया गया। मूलत: उज्जैन के निवासी आच्छा वर्तमान में चेन्नई में निवास करते हैं। उनके प्रत्येक शब्द, कृति और व्यवहार में आज भी यहीं का सोंधापन मिलता है। यही असर उनकी आलोचना और नवीन पीढ़ी को अपनेपन से आगे ले जाने के जज़्बे में दिखाई देता है। अपनी परिपक्वता का परिचय देते हुए अपने मार्गदर्शन का मुक्त हस्त से वितरण पूरे आयोजन के दौरान किया। इस सम्मान के दौरान जाने माने लघुकथाकार
स्व. श्री सुरेश शर्मा के परिवार से
वर्षा शर्मा द्वारा मंच पर उपस्थिति दर्ज करवाई गई। उल्लेखनीय है कि इस पुरस्कार की नकद राशि का सौजन्य ‘क्षितिज को इसी परिवार से प्राप्त हुआ।
इसके पश्चात तालियों की गडग़ड़ाहट के मध्य कथाकार
बलराम (दिल्ली) को ‘क्षितिज लघुकथा विशिष्ट सम्मान और
सतीश दुबे की स्मृति में ‘क्षितिज नवलेखन पुरस्कार 2018 भोपाल के युवा लघुकथाकार
कपिल शास्त्री को प्रदान किया गया। मंच पर अपनी पत्नी
आभा शास्त्री के साथ अपने अनोखे अंदाज में उपस्थित कपिल को नवलेखन पुरस्कार प्रदान किये जाने के दौरान लघुकथाकार
स्व. सतीश दुबे के सुपुत्र
परेश दुबे मंच पर उपस्थित थे। इस पुरस्कार की नकद राशि उनके परिवार द्वारा प्रदान की गई।
इसी के साथ ‘क्षितिज लघुकथा कला सम्मान
संदीप राशिनकर और
नंदकिशोर बर्वे को दिया गया। ‘दैनिक भास्कर के पत्रकार
रवीन्द्र व्यास को उनके योगदान के लिए ‘क्षितिज साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान-2018 से नवाजा गया। शाल, श्रीफल, प्रशस्ति पत्र और स्मृति चिन्ह से इन विभूतियों को सम्मानित किया गया।
इसके साथ
योगराज प्रभाकर, सतीशराज पुष्करणा, भगीरथ परिहार, सुभाष नीरव, अशोक भाटिया, कांता रॉय को ‘लघुकथा विशिष्ट सम्मान दिया गया।
अनघा जोगलेकर और
किशोर बागरे को उनके बनाये पोस्टर और चित्रकारी के लिए ‘क्षितिज कला सम्मान से सम्मानित किया गया। उल्लेखनीय है कि सम्मान के समय क्षितिज संस्था के सदस्यों द्वारा सम्मानित लघुकथाकारों का परिचय एवं उनके द्वारा साहित्य में किए गये योगदान के लिये अभिनंदन पत्र का वाचन किया गया। सम्मान के समय सभी सहभागियों ने अपने स्थान पर खड़े होकर करतल ध्वनि से सम्मानित अतिथियों का अभिनंदन किया।
इस दौरान सभी सम्मानित लघुकथाकारों और कलाकारों की ओर से प्रातिनिधिक उद्बोधन देते हुए बलराम अग्रवाल ने कहा कि साहित्य का मूल कर्म जिज्ञासा पैदा करना है। परकाया प्रवेश कर लेखक वह कर सकता है, जो वह करना चाहता है। लघुकथा की छोटी काया है, उसमें और संकोचन नहीं हो सकता। लेखन व्यवसाय नहीं, व्यसन है। अग्रवाल के भावुक उद्बोधन की सब लोगों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। कार्यक्रम के दौरान कुछ और बेहतरीन कृतियां इस मंच से पाठकों के मध्य विमोचन के द्वारा पहुंचीं। इनमें सर्वप्रथम था
अनघा जोगलेकर का उपन्यास ‘अश्वत्थामा। अनघा ने इस अवसर पर उपन्यास के पीछे अपनी सोच और अवधारणा को स्पष्ट किया।
श्याम सुन्दर दीप्ति के नेतृत्व वाली पंजाबी पत्रिका ‘मिन्नी का अंक भी पाठकों के मध्य प्रस्तुत किया गया। इसके साथ ही विविध भाषाओं में अपना सुवास फैलाती लघुकथा का एक लघु स्वरूप ‘भाषा सखी के रूप में विमोचित हुआ। इसमें
अंतरा करवड़े और
वसुधा गाडगिल द्वारा महत्वपूर्ण लघुकथा हस्ताक्षरों की चुनिंदा हिन्दी लघुकथाओं को मराठी अनुवाद के साथ प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार इस आयोजन में बांग्ला, पंजाबी और मराठी भाषा तक लघुकथा का जगमग प्रकाश फैल गया।
इसके पश्चात प्रारंभ हुआ लघुकथाकार प्रतिभागियों, ‘क्षितिज के कार्यकर्ताओं, मूर्धन्य साहित्यकारों और कार्यक्रम के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद करने वाले विविध का सम्मान। उल्लेखनीय है कि सभी लघुकथाकारों द्वारा इस विशेष अवसर के लिए संक्षिप्त परिचय अग्रिम प्राप्त किये गए थे, ताकि वे भी इस गरिमामय समारोह के दौरान अपनी पहचान सभी के समक्ष बना सकें। इस सत्र में अनेक साहित्यकार और लघुकथाकार उपस्थित थे। इसके अलावा कार्यक्रम में सहयोग हेतु विविध व्यक्तियों का सम्मान इस दौरान किया गया, जिनमें प्रमुख हैं,
ललित समतानी, दौलतराम आवतानी और
राधेश्याम मन्डोवरा।
शैलेन्द्र कुमार शर्मा ने अपने संबोधन में कहा कि लघुकथा को आंदोलनधर्मिता से नव विमर्श तक ले जाने में ‘क्षितिज का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसके संस्थापक-अध्यक्ष वरिष्ठ कथाकार
सतीश राठी ने कई वर्षों पहले खुली आंखों से लघुकथा सर्जकों के संगम का जो सपना देखा था, वह इस अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन के माध्यम से साकार हुआ। बयान दर्ज करते समय रचनाकार का संवेदनशील होना जरूरी है। जब हम घंटा बजाते हैं तो उसकी गूँज लंबे समय तक रहती है। इसी प्रकार हमारी रचना इस प्रकार की होनी चाहिए कि वह पाठकों के दिल को झिंझोड़कर रख दे और वह उन्हें लंबे समय तक याद रहे। अधिकांश लघुकथाकार मध्य वर्ग से आते हंै। इसलिए उन्हें अपनी सोच का दायरा बढ़ाना होगा। कथाकार भी ईश्वर के समांतर शिल्पी है। कुछ लघुकथाकारों ने प्रयोग किए हैं, पर अब कथाएँ खास पैटर्न पर लिखी जा रही हैं।
फार्मूलाबद्ध लेखन से मुक्त होने की जरूरत पर बल देते हुए
शैलेंद्र ने कहा कि समाज में बदलते हुए यथार्थ लेखकों को अपनी प्रयोगधर्मिता में स्थान देना होगा। तभी लघुकथा एक मजबूत विधा के रूप में स्थापित हो सकेगी। लघुकथा में मशीनीकृत संवेदनाओं का चित्रण न हो, बल्कि मानवीय संवेदनाओं का यथार्थ चित्रण हो। लघुकथा में मानवीय संवेदनाओं से जुड़ाव न हो तो उसका प्रभाव ही खत्म हो जाता है।
इस अवसर पर विशेष अतिथि
श्रीराम दवे (कार्यकारी संपादक ‘समावर्तन) ने अपने वक्तव्य में कहा कि लघुकथाओं का निष्पक्ष आकलन होना आवश्यक है। इस सदी में लघुकथा विधा और आगे विकास करेगी। इस विधा का भविष्य उज्जवल है।
विशेष अतिथि
राकेश शर्मा (संपादक ‘वीणा, इंदौर) ने अपने वक्तव्य में कहा कि इंदौर लघुकथाकारों का शहर है। लिखना आसान काम नहीं है। आजकल नये लेखकों की पठनीयता समाप्त हो रही है। यदि उन्हें सार्थक लघुकथा लिखनी है तो उन्हें अधिक पढऩा होगा।
गरिमामय सम्मान के साथ संपन्न यह सत्र लघुकथा विधा के विकास में एक नवीन पृष्ठ जोड़ गया। विधा को लेकर सम्मान, अनुशासन और प्रबन्धन इस सत्र की खासियत रही। कहीं से भी बधाइयों में कंजूसी नही दिखी, वरिष्ठों द्वारा अपरिमित स्नेह लुटाया गया और उनकी आंखों में आने वाली पीढ़ी को लेकर विश्वास की जो चमक दिख रही थी, वह किसी भी सम्मान से परे है। अन्त में श्री ब्रजेश कानूनगो ने आभार प्रदर्शन किया। सत्र का संचालन
अंतरा करवड़े ने किया।
एक बार फिर भोजन का स्नेहिल आमंत्रण सभी को एकत्र चर्चा का अवसर दे गया। अब तक आयोजन अपने चरम पर पहुंच चुका था और इसमें दो राय नहीं कि अब तक यदि सब कुछ अपेक्षित हुआ, तो आगे के सत्र भी इसी राह पर होंगे। एक दिन पहले के वृत्तचित्र का असर था या ‘क्षितिज की महिला मेजबानों द्वारा तय स्वरूप में धारण की गई माहेश्वरी साड़ी, अनेक महिला प्रतिभागी आने वाले सत्र से प्राप्त होने वाली विधा संबंधी जानकारी और इंदौर में खरीदारी, इन दोनो ंपलड़ों में झूल रहे थे। सम्मान प्राप्त शब्द साधकों के आसपास बधाइयां देते शुभचिन्तक और उनके साथ इस क्षण को कैमरे में कैद कर लेने की होड़ के कारण भोजन में हो रहा विलंब भी खला नहीं।
अगले सत्र की संचालिका
गरिमा संजय दुबे मंच पर स्थान ग्रहण कर चुकी थीं। इस सत्र का विषय था- ‘लघुकथा लोकप्रियता और गुणवत्ता के बीच अन्तर्सम्बन्ध एवं पाठकों के मध्य सेतु निर्माण। बीज वक्तव्य देते हुए वरिष्ठ कथाकार
बलराम ने लघुकथा के विविध आयामों पर अपने दृष्टिकोण से लघुकथाकारों को अवगत कराया कि पहली लघुकथा
माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरी भर मिट्टी मानी जाती है। हालांकि उस समय इसे लघुकथा का दर्जा नहीं दिया गया था। इसे छोटी कहानी कहा गया था। फिर धीरे-धीरे लघुकथा को मान्यता मिली। आज लघुकथा विधा को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
उन्होंने आगे कहा कि नये लघुकथाकारों को बहुत पढऩा होगा। आपके पास भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों की किताबें होंगी तो उन्हें बस छू भर लेने से ही आप तर जाएंगे। कला की साधना से ही आप प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं। जब तक आपकी रचना कलात्मक ऊंचाइयों को नहीं छूती, तब तक आपको प्रतिष्ठा भले ही मिल जाए, लेकिन उसका कोई अर्थ नहीं है। वीणा के तार तो हमारे ह्रदय से ही निकलते हैं। लघुकथा में सौंदर्य होना चाहिए। सौंदर्य और कला से ही आपकी रचना में निखार आ सकता है। अपने आपमें अपना आलोचक पैदा करें। आलोचना से ही आपका विकास होगा। यदि आप लघुकथा लिखते हैं तो इसे स्वीकारने में शर्म कैसी? लघुकथा लेखन केवल शौक पूर्ति का माध्यम नहीं है। साहित्य पठन-लेखन व्यसन है।
संध्या तिवारी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि हमारे समकालीन लघुकथाकार बहुत अच्छा और विविध विषयों पर लिखते हुए संवेदनाओं के जरिये पाठकों से जुड़ रहे हैं। लघुकथाकारों को हीन भावना से ग्रस्त नहीं होना चाहिए। यह लघुकथा का विकास काल है और इन दिनों बेहतरीन लघुकथाएं लिखी जा रही हैं।
दूसरे वक्ता और समीक्षक
सतीश राठी ने कहा कि यदि लघुकथा के संप्रेषण में भोथरापन है तो वह पाठकों से सेतु नहीं बना सकती। तुलसी की चौपाइयां अनपढ़ व्यक्ति भी सुनाता है और यही उसकी लोकप्रियता है, गुणवत्ता है, जो पाठकों से उसका संबंध स्थापित करता है। इसके पश्चात लघुकथाकारों द्वारा लघुकथा पाठ किया गया।
विजय जोशी शीतांशु ने ‘बोलती खामोशी,
सीमा जैन ने ‘इंद्रधनुष,
श्यामसुंदर दीप्ति ने ‘ताजी हवा,
राजेंद्र वामन काटदरे ने ‘अंधेरे के खिलाफ,
जया आर्य ने ‘माँ है ये,
ओजेंद्र तिवारी ने ‘श्रम की पुकार,
पद्मा राजेंद्र ने ‘मातृधन,
भीमराव रामटेके ने ‘नंबर वन,
डॉ. अखिलेश शर्मा ने ‘आसमानी साजिश और
वसुधा गाडगिल ने ‘फफाका लघुकथा का पाठ किया। इन लघुकथाओं की समीक्षा
सतीशराज पुष्करणा एवं
ज्योति जैन ने की। सत्र का संचालन
गरिमा दुबे ने किया। इस समय तक लघुकथा का यह आयोजन स्थानीय मीडिया में भी अपनी छाप छोड़ चुका था। पहले दिन की रिपोर्ट और आज के दिन के लिये साक्षात्कार आदि के दौर चल रहे थे। चाय और नाश्ते के साथ ही सबकी चर्चाएं आयोजन की विविधता
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http://www.lokayatindia.com/%E0%A4%B2%E0%A4%98%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%AD/