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रविवार, 19 दिसंबर 2021

समीक्षा | लघुकथा:ऊँचाई लेखक: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आइए सबसे पहले लघुकथा पढ़ते हैं:

ऊँचाई /  रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

 

 

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, "लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?"

 

मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।

 

घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, "सुनो" - कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।

 

 वे बोले, "खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।"

 

उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- "रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।"

 

मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- "ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?"

 

"नहीं तो" - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

 

 - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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समीक्षा

कुछ वर्षों पूर्व मैंने एक कविता लिखी थी, 'पुरुष'। उस कविता की एक पंक्ति है, “मैंने हस्तरेखा की छाया में, गीता का कर्मज्ञान पढ़ा।कविता की इस पंक्ति को लिखते समय मेरे मस्तिष्क में जिनकी छवि आ रही थी, वे मेरे पिता ही थे। अपने पिता से यों तो अधिकतर व्यक्ति प्रभावित होते ही हैं। आखिर उन्हीं का डीएनए हमारे रक्त में मौजूद है। मैंने भी अपने अंतिम समय तक कर्म करने का ज्ञान अपने पिता ही से प्राप्त किया है। वे अपने अंतिम समय तक अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे थे और शायद दायित्वपूर्ण होने की संतुष्टि के कारण ही अंत समय में उनके होठों पर मुस्कान थी। चुंकि यह मेरा अपना अनुभव है, शायद इसीलिए, जैसे ही पिता सबंधी लघुकथाओं की चर्चा होती है, मुझे सबसे पहले रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की लघुकथा 'ऊँचाई' ही याद आती है। इस रचना में भी पिता अपने पितृ-धर्म का पालन करते हैं, पुत्र चाहे विचलित क्यों न हो रहा हो। बुढ़ापा आने पर अपनी आर्थिक कमजोरियों के कारण कई बच्चे अपने माता-पिता का भरण-पोषण करने में समर्थ नहीं होते। लेकिन पिता एक ऐसा आदर्श भी हैं, जो उस असमर्थता को समझते हुए स्वयं को और अधिक सशक्त करने की आंतरिक शक्ति भी रखते हैं। पुत्र की आर्थिक कमजोरी को उसका भाग्य मानते हुए स्वयं कर्म को प्रवृत्त हो उस अशक्तता को कम करने का प्रयास करते हैं। "मैंने हस्तरेखा की छाया में, गीता का कर्मज्ञान पढ़ा" की तरह। यह एक ऐसा संदेश है जो न केवल पिता के प्रति सम्मान का भाव जागृत करता है बल्कि उच्च आदर्शों एवं नैतिक मूल्यों को स्थापित भी कर रहा है।

 

पिता के अतुल्य त्याग और सुसमर्पण की महती भावना को दर्शाती इस रचना से मैं लघुकथा लिखना प्रारम्भ करने से पूर्व से परिचित हूँ। रचना के प्रारम्भ में पत्नी तमतमा कहती है कि, "लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?" यह संवाद ही इस लघुकथा के आधार को व्यक्त कर देता है। इस लघुकथा में इस संवाद के बाद किसी अतिरिक्त भूमिका की आवश्यकता है ही नहीं। पिता काफी समय के बाद अपने बेटे के घर पर आए हैं और बेटे की अर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।

 

पिता का सम्मान हर सम्प्रदाय में आवश्यक रूप से कहा गया है, हिंदू नीति में लिखा है कि "जनकश्चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति। अन्नदाता भयत्राता पश्चैते पितरः स्मृताः॥" अर्थात जन्मदाता, यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्या देने वाले, भोजन प्रदान करने वाले और भय से रक्षा करने वाले व्यक्ति पिता हैं। वहीं इस्लाम में सूरतुल इस्रा : 23 के अनुसार “...माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना, उनके बुढ़ापे में उनसे कुछ भी बुरा न कहते हुए विनम्र रहना, सिर झुकाये रखना, और कहना कि ऐ रब दया कर उन दोनों पर जिस तरह उन दोनों ने मेरे बचपन में मुझे पाला है।" सिखों के दशम गुरु श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के चार सुपुत्रों को सामूहिक रूप से संबोधित चार साहिबज़ादे किया जाता है, क्योंकि अपने पिता के लिए वे मिल कर एक ही शक्ति बने और इसाई धर्म में तो चर्च के पादरी को ही फादर जैसे महत्वपूर्ण शब्द से सम्बोधित किया जाता है।

 

इस लघुकथा में भी अंत में जब यह पंक्ति आती है कि //पिताजी ने प्यार से डाँटा- "ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?"// तब अंतर्मन में पिता के प्रति सम्मान स्वतः ही जागृत हो उठता है। क्योंकि उस समय वे अपने युवा पुत्र और उसके परिवार के लिए भी भोजन प्रदान करने वाले अन्नदाता बन जाते हैं। इसी प्रकार "रात की गाड़ी से ही वापस ... तभी ऐसा करते हो।" वाला अनुच्छेद पिता का भय से रक्षा करने वाला चरित्र उजागर कर रहा है।

 

इस रचना में पुत्र पहले तो यह सोचता है कि //बाबू जी को भी अभी आना था।// लेकिन जब पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, "सुनो" - कहकर उन्होंने पुत्र का ध्यान अपनी ओर खींचा तब वह सोचता है कि "मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा।" हालांकि उसे यह उम्मीद थी कि पिता कुछ मांगेंगे, लेकिन फिर भी चुपचाप उनकी बात सुनने को आतुर होता है यहां पुत्र के चरित्र का वही आदर्श स्थापित हो रहा है जैसा कि सूरतुल इस्रा : 23 में कहा गया है उनके बुढ़ापे में उनसे कुछ भी बुरा न कहते हुए विनम्र रहना, सिर झुकाये रखना।

 

पिता-पुत्र के संबंधों के आदर्शों की व्याख्या करती यह रचना केवल आदर्शों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इस लघुकथा की ऊँचाई इससे अधिक है। बड़े बेटे का जूता, पत्नी की दवाइयाँ और स्वयं की कमज़ोरी का कारण केवल अपनी पत्नी और अपने बच्चों को ही अपना आश्रित मानना है। (माता-)पिता को ऐसे समय में भुला देने का एक अर्थ उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियों से पलायन करना भी है। //बाबू जी को भी अभी आना था।// वाला वाक्य यह दर्शाने में पूरी तरह समर्थ है। इसके अतिरिक्त अंतिम पंक्ति इस रचना के शीर्षक को सार्थक करते पुत्र को पितृ-धर्म की ऊँचाई भी समझा रही है, जो वह पहले नहीं समझ पाया तो शर्मिंदा सा हुआ।

 

लघुकथा का शीर्षक श्रेष्ठ है, भाषा सभी के समझ में आ जाए ऐसी है। कुल मिलाकर श्री काम्बोज की विवेकी, गूढ़ और प्रबुद्ध सोच का प्रतिफल यह लघुकथा एक उत्तम और सभी के लिए पठनीय साहित्यिक कृति है।

 

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

लघुकथा लेखन

ये कुछ नियम लघुकथा लेखन में उपयोगी हैं। हालांकि, अन्य विधा के लेखक भी इन्हें अपना सकते हैं। 

1. प्रतिदिन कुछ न कुछ ज़रूर लिखें, चाहे कम या ज़्यादा।

2. हम लोग लघुकथा को सबसे पहले अपने मस्तिष्क में तैयार करते हैं, साथियों, उसे मस्तिष्क से बाहर लिखना प्रारम्भ करने के लिए इतना इंतजार न करें कि वह आपके मस्तिष्क में ही बासी हो जाए। अर्थात सोचें ज़रूर लेकिन अत्यधिक सोचने में समय बर्बाद न करें।

3. पात्रों के निर्माण में पर्याप्त समय दें।

4. भाषा और शब्दावली को निरंतर बेहतर करते रहें।

5. व्याकरण के ऑनलाइन/ऑफलाइन टूल्स पर अधिक विश्वास न करें। 

6. अपने दृष्टिकोण और नए विषयों की समझ को व्यापक बनाने और लघुकथा की संरचना को समझने के लिए निरंतर पढ़ते रहें।

7. यह भी ध्यान रखें कि सबसे पहला ड्राफ्ट ही सबसे बड़ी चुनौती है।

8. कोई भी बेहतरीन किताब बिना मेहनत के कभी नहीं लिखी गई।

9. यह एक ऐसा नियम है जिस पर आपको सबसे अधिक विश्वास रखना चाहिए, वह यह है कि कोई भी नियम आपके रचनाकर्म से उपर नहीं है। नए प्रयोग होते हैं, असफलता की परवाह किए बिना करते रहिये.


बुधवार, 8 दिसंबर 2021

लेख: 'लघुकथा : एक रोचक विधा' | नेतराम भारती

हर काल अपने पूर्वकाल से भिन्न होता है l हर काल की अपनी कुछ विशेषताएं तो कुछ समस्याएं होती हैं l उन विशेषताओं और समस्याओं को स्वर देने का कार्य साहित्य करता है l साहित्य ही उन्हें दिशा देता है, हवा देता है l और साहित्यकारों की जनमानस तक पहचान का माध्यम भी वही बनता है l इसके लिए हमेशा से ही कलमकारों ने अपने दायित्वों का निर्वहण कभी बेबाकी से, तो कभी, अत्यंत सतर्कता से किया है l और इसके लिए उन्होंने साहित्य की किसी न किसी विधा को अपने लेखन का आधार बनाया, फिर चाहे वह छन्दोबद्ध काव्य हो या पाठकों को झकझोरता गूढ़ गद्य l

वर्तमान समय में साहित्य की जिस विधा ने साहित्यकारों को सर्वाधिक आकर्षित और पाठकों के निकट पहुँचाया है और पहुँचा रही है, वह है लघुकथा l आज यदि यह कहा जाए कि सर्वाधिक साहित्य किस विधा में लिखा - छपा और पढ़ा जा रहा है तो निस्संदेह निस्संकोच रूप से कहा जा सकता है कि वह लघुकथा है l कारण, आकार में लघु होने के साथ ही कम समय में सुपाच्य और शीघ्र भाव - सम्प्रेषण हो जाता है l परिणामस्वरूप पाठक अथवा श्रोता को सहज ही रसानुभूति और भावानुभूति होती है जो एक नाटक, उपन्यास या लंबी कहानी में होती है l आज संचार और दृश्य - श्रव्य के रूप में मनोरंजन के साधनों की इतनी भरमार है कि पाठक, श्रोता अथवा दर्शक बस चैनल ही बदलता रहता है l वह ज्यादा समय एक स्थान पर रुकना ही नहीं चाहता l वह तो, कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा रोचक और उद्देश्य परक मनोरंजन जहाँ मिलता है, वहाँ जाकर रुकता है l और आज लघुकथा ने लुप्त होते जा रहे पाठकों को साहित्य की ओर मोड़ा है, रोका है तो इसके लिए वह बधाई की पात्र है l कुछ ही मिनटों में यदि वह कोई सीख, कोई तंज, कोई रहस्योद्घाटन, कोई विद्रूप यथार्थ, सभ्यता - संस्कृति अंधविश्वास, अनीति और भारतीयता की पहचान को उद्घाटित कर देती है तो, पाठक तो आकर्षित होगा ही l हाँ, विशेष बात यह है कि लघुकथा पढ़ने के बाद पाठक के मन में विचारों का एक सोता फूटता है जो उसे चिंतन - मनन के छींटों से भिगोकर तरो-ताजा करता है, क्योंकि एक अच्छी और प्रभावी लघुकथा जहाँ ख़त्म होती है वहीं से उसका अगला भाग पाठक के मानस में आकार लेने लगता है l

अब प्रश्न उठता है कि आख़िर यह लघुकथा है क्या? क्या यह एक छोटी-सी कहानी है?, क्या यह दादा-दादी की कहानियाँ हैं? लघु उपन्यास है, बोध - जातक कथाएँ हैं अथवा कुछ और?.. क्या हैं?

तो मैं बताता चलूँ कि लघुकथा उपर्युक्त वर्णित कथा - विधाओं से इतर अपने आप में एक स्वतंत्र पूर्ण विधा है जो क्षण - विशेष की घटना या प्रभाव को अभिव्यक्त करती है l यह कुछ वाक्यों से लेकर एक - डेढ़ पृष्ठ तक की हो सकती है l जहाँ तक इसके शब्द सीमा की बात है तो अभी तक लघुकथा के विशेषज्ञ - समीक्षक भी इसकी अंतिम और अधिकतम शब्द सीमा को लेकर एकमत नहीं हैं l फिर भी सामान्यतः जो एक राय बनती दिख रही है वह इसकी अधिकतम सीमा 350 से 500 शब्द तक होना मानती है l पर जिस तरह हर नाटक में उसका अपना रंगमंच निहित रहता है उसी प्रकार हर लघुकथा के कथानक में उसकी शब्द सीमा निहित रहती है l मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि किसी विसंगति पूर्ण क्षण - विशेष के प्रसंग या घटना या प्रभाव को कम से कम शब्दों में प्रभावी ढंग से कहना लघुकथा है, जिसमें लेखक को लेखकीय प्रवेश की अनुमति नहीं है, जिसमें कालखंड बदलने की इजाज़त नहीं है, जिसमें उपदेश देने की छूट नहीं है l छूट है तो उस 'अनकहे' की, जो कहा नहीं गया लेकिन लघुकथा में प्रतिध्वनित है l छूट है तो शब्दों की मितव्ययिता की, छूट है तो समस्या के समाधान की अनिवार्यता की l संवेदनाओं को झंकृत करना, थोड़े में अधिक कहना, सांकेतिकता, ध्वन्यात्मकता, बिम्बात्मकता, प्रतीकात्मकता आदि लघुकथा के प्रमुख तत्व कहे जा सकते हैं l संक्षेप में कहा जा सकता है कि कथानक, शिल्प, शैली, मारक पंक्ति (पंच), विसंगतिपूर्ण क्षण - विशेष, इकहरापन, भूमिकाविहीन, कालखंड दोष से रहित प्रेरक और सामाजिक महत्व को प्रकट करना लघुकथा के तत्व कहे जा सकते हैं l

इतना समझने के बाद इतना तो समझ आ ही जाता है कि लघुकथा - लेखन आम सामान्य लेखन नहीं है l लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसे लिखा ही न जा सके l सतत अभ्यास और सतर्कता बरती जाए और सिद्ध लघुकथाकारों की लघुकथाओं के अध्ययन - मनन किया जाए तो लघुकथा-लेखन में सफलता प्राप्त की जा सकती है l आजकल इन्टरनेट पर देश भर के अनेक लघुकथा को समर्पित पटल - मंच हैं, जो न केवल समय - समय पर लघुकथा-लेखन को प्रोत्साहित ही कर रहे हैं बल्कि देशभर के लब्धप्रतिष्ठ वरिष्ठ और प्रबुद्ध लघुकथाकारों के साथ लघुकथा पर गोष्ठियाँ आयोजित कर, नवोदित लघुकथाकारों को उनकी लघुकथाओं के वाचन, और उनकी समीक्षा द्वारा मार्गदर्शन, और प्रोत्साहन देने का मह्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं l कुछेक नाम देखें जा सकते हैं - ' लघुकथा के परिंदे', 'क्षितिज', 'कथा - दर्पण साहित्य मंच', ' साहित्य सम्वेद', 'लघुकथालोक' आदि आदि I

और जहाँ तक लघुकथा के वर्तमान प्रमुख हस्ताक्षरों की बात है तो श्री रमेश बत्रा जी, श्री जगदीश कश्यप जी, स्व. श्री सतीशराज पुष्करणा जी, श्री कृष्ण कमलेश जी, श्री भगीरथ परिहार जी, श्री सतीश दूबे जी, श्री योगराज प्रभाकर जी, श्री बलराम अग्रवाल जी, श्रीमती कांता राय जी, श्री संतोष सुपेकर जी, श्री चन्द्रेश छतलानी जी, श्री सुकेश साहनी जी, श्री कमल चोपड़ा जी, श्री सतीश राठी जी, श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी, डॉ. श्री अशोक भाटिया जी, श्री ओम नीरव जी, श्रीमती सुनीता मिश्रा जी आदि के नाम आदर के साथ लिए जा सकते हैं l और इनके लघुकथा पर विचार, इनके लघुकथा संग्रहों को पढ़कर लघुकथा को समझना - लिखना आसान होगा l

आख़िर में, इतना जरूर कहना चाहूँगा कि इक्कीसवीं सदी और आने वाली सदियों में लघुकथा एक स्थापित साहित्यिक विधा के रूप में और प्रतिष्ठा पायेगी, और प्रतिष्ठित होगी जिसकी शुभ शुरूआत हो भी चुकी है l हाल ही में अखिल भारतीय और प्रादेशिक स्तर पर मध्यप्रदेश साहित्य परिषद ने अकादमी पुरस्कारों में पहली बार लघुकथा को साहित्य के प्रतिष्ठित अकादमी पुरस्कारों की श्रेणी में शामिल किया है जिसके अंतर्गत अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार एक लाख रुपये राशि का और प्रादेशिक लघुकथा पुरस्कार इक्यावन हज़ार रुपये राशि का निश्चित कर भोपाल के श्री घनश्याम मैथिल 'अमृत' जी को उनके लघुकथा संग्रह "... एक लोहार की " पर पहला जैनेन्द्र कुमार जैन पुरस्कार देने की घोषणा की l आशा है देश की अन्य राज्यों की साहित्य परिषद भी प्रेरित हों अपने यहाँ भी लघुकथा को शीर्ष साहित्यिक पुरस्कारों की श्रेणी में शामिल करेंगी, क्योंकि अब लघुकथा की चमक को अनदेखा करना असंभव है l

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- नेतराम भारती

गाज़ियाबाद उत्तर प्रदेश


मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

लघुकथा: खेत | भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"

अपनी-अपनी चौहद्दी और सीमाओं से बंधे हुए खेत हरियाली समेटे फसलों से लहलहा रहे थे। 

छोटू अपने दादा के साथ खेत पर पहुंचा तो सरसों के पीले फूल देखकर हर्षित हो गया। 

दादा जी ये खेत किसका है? और ये जो पौधे लगे हैं ये क्या हैं? 

दादा जी बिना कुछ बोले आगे आगे चलते गए। 

अब उनके सामने गांव का आखिरी खेत और सामने दूसरे गांव की सीमा। 

पास ही में मेड़ के ऊपर कंटीले तारों का बार लगा हुआ था। 

दूसरी ओर गेंदे का फूल किसी दूसरे खेत में लहलहा रहा था। छोटू दादा जी देखो ना कितने अच्छे फूल खिले हैं। 

मन करता है ढ़ेर सारे फूल तोड़ लूं। दादा जी बच्चे को रोकते हुए ऐसा बिल्कुल नहीं करना नहीं तो दूसरे गांव के लोग हम लोगों का जीना हराम कर देंगे। 

बच्चा फूल तोड़ने के लिए हाथ बढ़ा रहा था लेकिन हाथ ठिठक गए।

बच्चा अगले ही क्षण ऐसा क्यों? बेटे ये खेत दूसरे गांव के लोगों की है। इस पर उनका मालिकाना हक है। मैं तुम्हें बाजार से इससे भी अच्छे अच्छे फूल लाकर दूंगा।

दादा जी बच्चे को बहलाने की कोशिश कर रहे थे। तभी फूल वाले खेत के पास किसी आदमी के आने की आहट सुनाई दी। 

बच्चे बूढ़े को एक साथ देखते हुए फूल वाले खेत के मालिक ने उन्हें नमस्ते किया। 

शायद वे उन्हें जानते थे। बहुत दिनों बाद दर्शन दिए मालिक अब तो खेत देखने भी नहीं आते।

दादा जी ने भी नमस्ते किया हां भई अब तो खेत बटाईदार के हाथों दे दिया है। 

कभी इन खेतों को अपने हाथों सींचते थे। अब बाल बच्चे नौकरी चाकरी वाले हो गए तो खेती किसानी छूट गई। 

दूसरे खेत वाले ये आपके साथ बच्चा कौन है? जी मेरा पोता है जिद करके मेरे साथ आ गया। 

अभी कुछ देर पहले ही फूल तोड़ने की जिद कर रहा था। मैंने साफ मना कर दिया। वो आदमी जो दूसरे खेत का मालिक था।

आ... हा हा । मालिक आप भी न कमाल करते हैं एकाध फूल तोड़ ही लेते तो क्या बिगड़ जाता।

 खेत भले बंट गए हैं। 

लेकिन हमलोग तो हैं अब भी एक दूसरे के पूरक ही। आपका खेत आपके पास नहीं है फिर भी खेत के मालिक तो हैं। 

दो चार फूल तोड़ भी लेते तो क्या बिगड़ जाता। एक साथ दस बारह फूल तोड़ कर बच्चे के हाथों में थमा दिया। 

लेउ बचबा जे फूल से जो कछु चाहो बनाय लियौ चाहे तो माला गूंथ लियौ या फिर खेल लियौ। 

तभी पहले खेत ने दूसरे खेत से चुटकी लेते हुए कहा देखो हमारे बीच 'मेड़़' रुपी दीवारें खींच दी गई है। लेकिन रहेंगे तो खेत ही!

हमारी एकता मनुष्यों से भिन्न है, लेकिन हमलोग फिर भी साथ रहते हैं। 

और मनुष्य क्या वे सिर्फ मिलकर रहने की वजह तलाशते हैं पर रहते अलग-अलग हैं।


- भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"

Village:- bajhai,khodawand pur, post:-meghaul, district:- begusarai

Bihar:-848202

Email-bhunesh1976@gmail.com

Mobile:-9910348176/8340797800


शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

लेख: क्या आप लघुकथा लेखक हैं? | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आप लघुकथा लेखक हैं! वाह! लेकिन कभी कोई कहानी या उपन्यास भी लिखा है? या सिर्फ आसान विधा तक ही...

इस तरह के या मिलते-जुलते प्रश्नों से, मेरे अनुसार, कई लघुकथाकार रूबरू हुए होंगे। इस प्रश्न के आधार में निहित प्रश्न यह भी है कि एक सुप्रसिद्ध विधा के लिए ऐसे प्रश्नों का उद्गम होता ही क्यों है? मेरे अनुसार शायद इसका एक कारण यह भी है कि लघुकथा जैसी श्रमसाध्य विधा में कितने ही व्यक्ति ऐसा (आसान) लेखन भी कर रहे हैं, जो लघुकथा होहो लेकिन उसे लघुकथा की संज्ञा ज़रूर मिल रही है। खैर, उन सभी को याद करने से अधिक आवश्यक यह है कि इस तरह के प्रश्नों का उन्मूलन आवश्यक है और आप एक लघुकथाकार हैं तो यह भी जानते हैं कि एक लघुकथा अपने पाठकों को रोमांचित कर सकती है, उन्हें वाह और आह कहने को विवश कर सकती है, सोचने के लिए प्रेरित भी कर सकती है, आक्रोश भी दिला सकती है और शांति भी। लेकिन अपवादों को छोकर, इस तरह के सृजन के लिए केवल कुछ घंटों की ब्रेनस्टॉर्मिंग पर्याप्त नहीं है। लघुकथा सहित किसी भी सृजन की सफलता जी कहो जी कहलाओ द्वारा या धन देकर प्रकाशित-प्रसारित होकर, यूट्यूब पर अपना ऑडियो-वीडियो डालकर ही नहीं है, बल्कि इस बात पर है कि सामान्य व्यक्तियों पर हमारी रचनाएँ कितना प्रभाव डाल सकती हैं? इस लेख में लघुकथा की सरंचना की बजाय एक अच्छी लघुकथा लिखने के लिए कुछ ऐसी युक्तियों पर बात की गयी है जो लघुकथाकारों के लिए उपयोगी हो सकती हैं, जिसे लघुकथाकार अपने सृजन को कुछ और बेहतर कर सकते हैं और प्रोत्साहित हो इस लेख की प्रथम पंक्ति में दर्शाये गये प्रश्न को उलट सकने का प्रयास भी कर सकते हैं

 

1. अवलोकन करते रहिए

 

किसी भी अन्य सृजन की तरह ही लघुकथा सृजन में भी लघुकथाकार की कल्पना-शक्ति की काफी बड़ी भूमिका है। सृजन के समय आपको पात्रों की कल्पना करनी होगी, उनकी व्यथा, उनके डर, उनकी जीत-हार, उनके चरित्र, उनकी भाषा, उनके हाव-भाव की कल्पना भी करनी होगी। वातावरण की कल्पना भी करें, कई बार वातावरण का संक्षिप्त विवरण ही बहुत कुछ कह जाता है। कल्पना-शक्ति उन्नत करने के लिए हमारा अवलोकन सूक्ष्म होना चाहिए। आप अपने आस-पास घट रही घटनाओं, चारों तरफ के व्यक्ति, बातें कर रहे लोग, खेल रहे बच्चे, इमारतें, लिफ्ट, सीढ़ियाँ, आदि-आदि का सूक्ष्म निरीक्षण नहीं करते हैं तो कृपया प्रारम्भ कर दीजिये, क्योंकि यही निरीक्षण शब्दों में ढल कर आपके सृजन को जीवंत बनाएगा।

 

प्रभावशाली बातों, हरकतों, संवादों आदि के बारे में नोट्स बना कर, उन्हें बाद में आप अपनी लघुकथाओं में शामिल कर सकते हैं। हालाँकि लघुकथा के मुख्य कथानक को अपने अवचेतन मन में ही तैयार होने  दें।

 

2. प्रेरणा प्राप्त करना

 

प्रेरणा कहीं से भी प्राप्त हो सकती है। एक उदाहरण देता हूँ, मैं मोबाईल फोन से कुछ समय दूर रहने के लिए अधिकतर बार बाग में घूमते वक्त फोन लेकर नहीं जाता। हालांकि बाग में घूम रहे अधिकतर लोग मोबाईल फोन पर या तो बातें करते हैं अथवा गाने सुनते हैंमुझे इस पर भी आश्चर्य होता है कि अन्य व्यक्ति मोबाइल की ध्वनी से परेशान न हों, इसलिए घूम रहे व्यक्ति ईयरफोन या ब्लूटूथ का इस्तेमाल क्यों नहीं करते! बहरहाल, एक दिन ऐसे ही घूमते समय पीपल के पेड़ से कुछ पत्तियां टूट कर मेरे सामने गिरीं और मुझे लघुकथा के इस प्लॉट का बोध करा गईं कि बाग़ में लगभग पूरे दिन कोई-न-कोई अपने फोन सहित आता रहता है। उनके मोबाईल फोन का (कु)प्रभाव पर्यावरण और वृक्षोँ आदि पर भी होता ही होगा, इस विषय पर रचना कही जा सकती हैइस लेख के लिखे जाने तक यह रचना फिलवक्त अवचेतन में ही हैइसी प्रकार प्रेरणा के लिए आवश्यक नहीं कि केवल मानवीय समाज से प्राप्त हो, सपनों से लेकर सुदूर सितारों की ऊर्जा प्रेरणा का स्त्रोत बन सकती है। इसके लिए ब्रह्माण्ड खुला है।

 

3. विषय का पर्याप्त अध्ययन

पाठकों को वही रचनाएँ प्रभावित करेंगी जो उनकी बुनियादी समस्याओं से जुड़ी हों। जिस समस्या अथवा विषय पर लघुकथा कहना चाह रहे हैं, उसका आपके पाठकों से कितना सम्बन्ध है, उसका पर्याप्त अध्ययन करें। हालांकि यह तुलना किस हद तक सही होगी यह विचारणीय है, लेकिन फिर भी, यह हम सभी को विदित है ही कि सुप्रसिद्ध कलाकार अमिताभ बच्चन की प्रथम सफलता का श्रेय आम व्यक्ति के आक्रोश को अपनी फिल्म में व्यक्त करना भी था।

 

विषय और समाज के सह-सम्बन्ध के अध्ययन के अतिरिक्त लघुकथा में तथ्यात्मक त्रुटि से बचने हेतु विषय से संबन्धित तथ्यों का अध्ययन ज़रूर कर लें। एक उदाहरण देता हूँ, 23 जनवरी 2020 को जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के पत्रकारिता विभाग में अखलाक अहमद उस्मानी ने "भारत के मुद्रित माध्यमों में अरब देशों से संबंधित समाचार समाचारों का विश्लेषणात्मक अध्ययन" विषय पर पीएच.डी. अर्जित की। उन्होंने कुछ देशों का भ्रमण तो केवल विषय की गंभीरता को समझने के लिये किया। हालांकि पीएच.डी. से एक लघुकथा सृजन की तुलना भी अतिशयोक्ति मानी जा सकती है, लेकिन मेरे अनुसार तथ्य और विषय समझने की गंभीरता इससे कम नहीं होनी चाहिए।

 

4. पर्याप्त लघुकथाओं को पढ़ना

 

सिक्खों के  दसवें गुरू गोबिंद सिंह जी ने कहा था कि, “आज्ञा भई अकाल दी, तबे चलायो पंथ, सब सिखन को हुक्म है गुरु मानयो ग्रंथउन्होंने ग्रन्थ को गुरु कहा। यही एक पुस्तक में लिखे की शक्ति है। अध्ययन करना और उस पर चिंतन करना कितना आवश्यक है, यह इस एक वाक्य से समझा जा सकता है। मूल रूप से पढ़ने का अर्थ पठन के अनुरूप अपना मस्तिष्क तीक्ष्ण करना और उचित मानसिक वातावरण तैयार करना है। प्रश्न यह है पर्याप्त पठन का अर्थ क्या? सांख्यिक तौर पर पर्याप्त की मात्रा ज्ञात करना असंभव है। यह लघुकथाकार और पढी जा रही लघुकथा पर निर्भर करता है। कभी सौ-पचास लघुकथाएं पढ़ कर भी उचित वातावरण नहीं बनता तो कभी एक-दो रचनाएं भी बहुत कुछ सिखा जाती हैं। सच यह है कि पठन कार्य ऐसा कार्य है जो लेखन से अधिक आवश्यक और अंतहीन है। जिस दिन आप पढ़ने से संतुष्ट हो गए, लेखन से विरक्ति होना शुरू हो जाएगी और यदि विरक्ति ना भी हुई तो भी लेखन धीरे-धीरे आत्मकेंद्रित होता जाएगा। लेखक अंतर्मुखी हो तो अच्छा लेकिन आत्मकेंद्रित हो तो ऊपर वाला ही मालिक है। एक और बात जिससे जितना अधिक बचा जाये उतना बेहतर कि, किसी भी लेखक को अधिक पढ़ने से उसकी शैली हमारे ऊपर हावी हो सकती है, अतः विविध साहित्य पढ़ें। प्रयास करें स्वयं की एक अलग ही शैली हो।

 

5. लघुकथा का एक रेखाचित्र तैयार करना

एक रेखाचित्र बना लें, चाहे मन में या चाहे लिख कर लघुकथा सृजन के किसी भी रेखाचित्र में निम्न तत्व हो सकते हैं (इनसे कम-अधिक भी हो सकते हैं, लेकिन न्यूनाधिक ये तो होंगे ही):

·        उद्देश्य

·        समस्या

·        परिदृश्य

·        मुख्य चरित्र एवं अन्य पात्र

·        कथानक

·        शैली

·        भाषा

·        प्रारंभ

·        समायोजन

·        समाधान (सीमित)

·        अंत

·        शीर्षक

रेखाचित्र के जिन तत्वों में आप सृजित हो रही लघुकथा से सम्बन्धित जो कुछ भर सकते हैं, भर दीजिए और जिनमें कुछ नहीं भर पा रहे, उन्हें छो दीजिए। जब लघुकथा अवचेतन में पक जाए, तब पहला ड्राफ्ट ही अपने इस रेखाचित्र के प्रति सचेत रहते हुए सृजित करें। हालाँकि कई बार सृजन के समय रचना कहीं और भटक सकती है। ध्यान रखिये कि यदि रचना प्राकृतिक रूप से कहीं और जा रही है तो जबरदस्ती रेखाचित्र के मार्ग पर लाना उचित नहीं लेकिन यदि अन्य किसी कारण से भटकाव हो रहा है, जैसे आपने रचना की शैली पत्र शैली सोची हो, लेखन के समय वह पत्र शैली से ही प्रारम्भ हो, लेकिन बाद में डायरी शैली जैसी होने लगे, तब उसे तय किये गए रेखाचित्र पर वापस लाने का प्रयास कीजिये।

 

चूँकि रेखाचित्र में वर्णित उपरोक्त तत्वों पर कई लेखों में कहा जा चुका है, यहाँ इन पर कु्छ और न कहते हुए, मैं आगे बढ़ता हूँ। हालांकि इनमें से कुछ तत्वों पर मेरे अनुसार कुछ टिप्स इस लेख में आगे बताई गयी हैं।

 

6. पास्ट/फ्यूचर लाईफ रिग्रेशन:

 

अपने पात्रों की पिछली ज़िंदगी का रिग्रेशन (प्रतीपगमन) कीजिए कि वे जैसे हैं वैसे क्यों हैं? उनके शरीर की बनावट, ज़ख़्मों के निशान, चश्मे की डंडी तक के बारे में सोचिए। उस समय यह भूल जाईये कि पात्र की किसी बात को अपनी लघुकथा में शामिल करना है अथवा नहीं। उनके बारे में गहराई से सोचने पर उनके सही चरित्र को उभारने में आपको मदद मिलेगी।

 

एक प्रयोग और है, अपने कंठ से पात्रों के लिए उनके भूतकाल, चरित्र, वातावरण आदि के अनुसार अलग-अलग स्वर में संवाद कह कर उन्हें महसूस करें। लेखन के समय पात्र के चरित्र के साथ न्याय करने के अलावा जब लघुकथा का एक ड्राफ्ट तैयार हो जाएगा और आप उसे कहने का प्रयास करेंगे, तब भी यह प्रयोग उपयोगी होगा।

 

और केवल पात्रों की ही नहीं, लघुकथा में जिस क्षण को उभार रहे हैं, उसके भूत और भविष्य के क्षणों को भी अपने मन में चित्रित कीजिये।

 

7. प्रारंभ

प्रारंभ दिलचस्प और दिलकश रखिए। पाठक को आकृष्ट करने के लिए ऐसे वाक्य कहिये, जो जिज्ञासा परक हों और कुछ अलग हों।

 

उदाहरणस्वरुप "आज मैं अकेला चाय पी रहा था" को यदि यों कहें कि "चाय की पहली चुस्की लेते ही मुझे समझ में आ गया ना तो मैं अच्छी चाय बना सकता हूँ और ना ही ये भरा हुआ कप मेरा खालीपन दूर कर सकता है।" दूसरे तरह की पंक्ति में शब्द ज़्यादा ज़रूर हैं, लेकिन कुछ कलात्मक हैं और पात्र के अकेलेपन व खालीपन को बेहतर दर्शा रहे हैं। अतः पाठकों का ध्यानाकर्षण कर सकते हैं।

 

8. संवाद टैग

 

लघुकथा में संवाद टैग्स यथा ज़ोर से कहा, ‘आँख चुराते हुए बोली, ‘उसके स्वर में जोश था आदि का प्रयोग करने भर से ही कई बातों को पाठकों को अधिक कुछ कहे बिना समझाया जा सकता है। हाँ! इन टैग्स को बहुत अधिक न भरें अन्यथा रचना बोझिल होने का खतरा है। 

 

9. अंत

कोशिश करें अंत प्राकृतिक हो लेकिन पाठकों के दिल तक पहुंचे। इसके लिए अलग-अलग अंत आजमाइए। भावनात्मक, आश्चर्यचकित करता, चौंकाता, रहस्योद्घाटन करता, सुखांत/दुखांत आदि आजमाएं और दृष्टिगोचर करें कि कैसा अंत आपकी रचना के साथ उचित प्रतीत हो रहा है। चाहे अंत में अनकहा हो लेकिन स्पष्टता अंत के साथ आवश्यक है।

 

किसी चुटकुले पर विचार करें तो उसके अंत में ही हास्य उत्पन्न होता है। चुटकुले और लघुकथा में एक अंतर यह भी है कि लघुकथा के अंत में हास्य नहीं बल्कि लघुकथा का वास्तविक दर्शन उत्पन्न होता है।

 

ऐसे अंत से बचें, जिसका अनुमान पाठक रचना पढ़ते हुए ही लगा लें, ना ही ऐसा अंत रखें जो एक झटके से लघुकथा को समाप्त कर दे और पाठक उलझते रहें कि इससे आगे कु्छ और होना चहिए। रचना की सफलता-असफलता अंत पर बहुत कुछ निर्भर करती है।

 

10. प्रयोग

बाइबल में कहा गया है कि आदम एक मशीन जैसा नहीं था, वह खुद चुनाव कर सकता था कि सही क्या है और गलत क्या और आदम ने परमेश्वर की आज्ञा न मानने का फैसला किया। उसने एक नई तरह की सृष्टि की रचना की, जिसमें वह खुद जीता भी और मरता भी। इस प्रयोग से मानव जाति को लाभ हुआ या हानि, यह एक अलग विषय है लेकिन बाइबल की मानें तो प्रयोग करना हमारे सबसे पहले पूर्वज का बताया हुआ मार्ग है।

 

पूरी लघुकथा में अपने पाठक का ध्यान न बंटने देने हेतु, उसे बेहतर और सामयिक बनाने हेतु अलग-अलग प्रयोग कीजिए। नए प्रयोगों से न केवल आप सीखेंगे अपितु रचना का शिल्प भी बेहतर होगा। शैली में प्रयोग करें। मधुदीप जी ने अपनी कुछ रचनाओं को पाठक के साथ परस्पर संवादात्मक बनाया है। मैंने एक लघुकथा में विभिन्न कालखंडों को दर्शाने हेतु पुलिस फाइल का सहारा लिया था। अंत के साथ भी प्रयोग करें। कभी अपनी कल्पना से भविष्य में आने वाले समय में जाएँ और वहां के बारे में लिखें। जिन क्षेत्रों में लघुकथा न लिखी गई हो, वहां कथा-तत्व ढूंढिए। किसी पौराणिक चरित्र का चित्रण कर देखिये कि लघुकथा में ढाल सकते हैं अथवा नहीं। इसी प्रकार अलग-अलग प्रयोग कीजिये।

 

प्रयोग करने के अनुशासन का ज़रूर ध्यान रखें। कुरान में एक स्थान पर लिखा है निराधार और अनजाने कामों से परहेज़ करो। हालाँकि प्रयोग ज़रूर कीजिये लेकिन निराधार नहीं। दूसरे कोई ऐसा प्रयोग आप कर रहे हैं जिसके विषय का आपको अधिक ज्ञान नहीं है तो प्रयोग से पूर्व उस विषय का अध्ययन कीजिये।

 

11. ओवरलोड

वाहन भरने के अतिरिक्त कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में भी ओवरलोडिंगका उल्लेख किया गया है। इसमें एक ही नाम से एक से अधिक कार्य किया जा सकता है। जैसे दो संख्याओं को जोड़ने के लिए जो प्रोग्राम (फंक्शन) लिखा गया है, उसी नाम से दो संख्याओं के गुणा आदि का फंक्शन भी लिखा जा सकता है। यहाँ यह फंक्शन एकांगी नहीं रहा। इस प्रकार की ओवरलोडिंग (एकांगी नहीं रहना) लघुकथा का मूल स्वरूप समाप्त कर देती है, इससे लघुकथा को बचा कर ही रखें।  लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में ओवरलोडिंग का अर्थ अनावश्यक विवरण भी है और पठन में बोझिलता भी है। इन्हें हटा कर लघुकथा को कसें। दृश्य, पात्र, विवरण जिन्हें हटाने के बाद भी लघुकथा की स्पष्टता और प्रवाह बरकरार रहता है, को हटा दें।

 

12. परिष्करण

 

अपनी लघुकथा को बोलकर देखिये, इसे दोहराइए भी। यदि वह स्वयं को समझा नहीं पा रही है अथवा बोलने के प्रवाह में भी कहीं अस्पष्ट है तो उस पर और कार्य करें।

 

ठेस लगे बुद्धि बढ़े वाली उक्ति लघुकथा सृजन में भी चारितार्थ होती है। अपनी लघुकथा अन्य लेखकों से पढ़ावें और उन्हें उचित व निष्पक्ष आलोचना करने को प्रेरित करें। उनसे यह भी पूछिए कि लघुकथा ने उन्हें किस हद तक प्रभावित/अप्रभावित किया। इसके लिए इन दिनों सोशल मीडिया उत्तम स्थान है। यह लेख लिखे जाने तक मुझे सोशल मीडिया पर इस तरह का कोई समूह ज्ञात नहीं है, जहां लघुकथा लेखक अपनी अप्रकाशित लघुकथा सुधार हेतु भेज कर अन्य रचनाकारों की प्रतिक्रिया प्राप्त सकें। लेकिन मुझे विश्वास है कि निकट भविष्य में ऐसे समूह सोशल मीडिया पर अवश्य ही होंगे। इसे कार्यशाला का रूप भी दिया जा सकता है।

 

अंत में योगराज प्रभाकर जी के लेख 'लघुकथा विधा : तेवर और कलेवर'  का एक महत्वपूर्ण अंश, उन्होंने लिखा है कि "जल्दबाज़ी: काम शैतान का

 

जो विचार मन में आए उसको परिपक्व होने का पूरा समय दिया जाना चाहिए, पोस्ट अथवा प्रकाशन की जल्दबाज़ी से लघुकथा अपनी सुंदरता खो सकती है।"

 

जल्दबाज़ी न करने का अर्थ निरुत्साहित होना भी नहीं है। वाल्मीकि रामायण में एक श्लोक है:

उत्साह-उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्। सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम्॥

जिसका भावार्थ यह है कि 'यदि आप उत्साहपूर्वक किसी भी कार्य को करते हैं तो आपके लिए उसका संपन्न होना दुर्लभ नहीं है।' अतः उत्साहपूर्वक बिना जल्दबाज़ी के अपना रचनाकर्म कीजिये।

 

मैं यह दावा नहीं करता कि आपकी लघुकथा को बेहतर बनाने के लिए सभी युक्तियों को इस लेख में स्थान दे दिया है, किसी एक लेख में यह सम्भव भी नहीं। न सिर्फ ऐसी बल्कि इनसे बेहतर कई और युक्तियाँ आपको अन्य लेखों में, चर्चा से, साक्षात्कारों से और अपने स्वयं के मस्तिष्क-मंथन से प्राप्त हो सकती हैं। सबसे बड़ी युक्ति मैं यही मानता हूँ कि धैर्यपूर्वक अध्ययन करते रहिए, मस्तिष्क मथते रहिए और अभ्यासी बनिए।

 

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डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

346, प्रभात नगर

सेक्टर-5, हिरण मगरी

उदयपुर - 313 002  - राजस्थान

चलभाष: 9928544749

ईमेल: chandresh.chhatlani@gmail.com


(मूल रूप से 'सेतु: कथ्य से तत्व तक 'पुस्तक स. शोभना श्याम व मृणाल आशुतोष में प्रकाशित)