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शुक्रवार, 1 मई 2020

लघुकथा वीडियो: मुआवज़ा | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी





लघुकथा: मुआवज़ा 

शाम ढले वह दलित महिला अपने पांच साल के बेटे को लेकर गाँव के ठाकुर के घर के दरवाज़े के बाहर खड़ी थी। चेहरे ही से लग रहा था कि वह बहुत क्षुब्ध है। नौकर के बुलाने पर ठाकुर बाहर आया और उसे घूर कर देखा।

 उस महिला ने तीक्ष्ण स्वर में कहा, "साब, मेरे इत्ते से बेटे को चोर कह कर माँ-बाप की गाली क्यों दी?"

 "तो चोर को चोर नहीं कहूं, यह कुत्ते का पि... मेरे बाग़ के अमरुद चोरी कर रहा था... " ठाकुर की आवाज़ से साफ़ प्रतीत हो रहा था कि वह नशे में था।

 "इत्ता सा बच्चा कुछ समझता है क्या?" महिला भी चुप रहने के मानस में नहीं थी।

 "तुम जैसे छोटी जात के लोग हमारे घर की दहलीज़ के अंदर भी नहीं आ सकते हैं, और इसकी यह मजाल कि हमारे बाग़ में घुस गया..." ठाकुर की आँखें तमतमा उठी।

 महिला ने भी ठाकुर को तीक्ष्ण नज़रों से देखा, और शब्द चबाते हुए, स्वयं की तरफ इशारा करते हुए कहा,

"जब जबरदस्ती इसकी इज्जत की दहलीज लांघी थी...तब?"

 ठाकुर चौंका, लेकिन उसने संयत होकर कहा, "उस बात का हमने तुझे मुआवज़ा अदा कर दिया है।"

 "यह भी तो उसी मुआवजे में ही मिला है..." महिला ने बच्चे की तरफ इशारा करते हुए भर्राये स्वर में कहा।

और ठाकुर की नज़रें उस बच्चे को ऊपर से नीचे तक तौलने लगीं।

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चित्रः साभार गूगल

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: खरीदी हुई तलाश | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा: खरीदी हुई तलाश | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उस रेड लाइट एरिया में रात का अंधेरा गहराने के साथ ही चहल-पहल बढती जा रही थी। जिन्हें अपने शौक पूरे करने के लिये रौशनी से बेहतर अंधेरे लगते हैं, वे सभी निर्भय होकर वहां आ रहे थे।

वहीँ एक मकान के बाहर एक अधेड़ उम्र की महिला पान चबाती हुई खोजी निगाहों से इधर-उधर देख रही थी कि सामने से आ रहे एक आदमी को देखकर वह चौंकी और उसके पास जाकर पूछा,

"क्या हुआ साब, आज यहाँ का रास्ता कैसे भूल गए? तीन दिन पहले ही तो तुम्हारा हक़ पहुंचा दिया था।"

सादे कपड़ों में घूम रहे उस पुलिस हवलदार को वह महिला अच्छी तरह पहचानती थी।

“कुछ काम है तुमसे।” पुलिसकर्मी ने थकी आवाज़ में कहा।

“परेशान दिखाई दे रहे हो साब, लेकिन तुम्हें देखकर हमारे ग्राहक भी परेशान हो जायेंगे, कहीं अलग चलकर बात करते है।”

वह उसे अपने मकान के पास ले गयी और दरवाज़ा आधा बंद कर इस तरह खड़ी हो गयी कि पुलिसकर्मी का चेहरा बंद दरवाजे की तरफ रहे।

पुलिसकर्मी ने फुसफुसाते हुए पूछा,
"आज-कल में कोई नयी लड़की... लाई गयी है क्या?"

"क्यों साब? कोई अपनी है या फिर..." उस महिला ने आँख मारते हुए कहा।

"चुप... तमीज़ से बात कर... मेरी बीवी की बहन है, दो दिनों से लापता है।" पुलिसकर्मी का लहजा थोड़ा सख्त था।

उस महिला ने अपनी काजल लगीं आँखें तरेर कर पुलिसकर्मी की तरफ देखा और व्यंग्य से मुस्कुराते हुए कहा,

"तुम्हारे जैसों के लालच की वजह से कितने ही भाई यहाँ आकर खाली हाथ लौट गए, उनकी बहनें किसी की बीवी नहीं बन पायीं और तुम यहीं आकर अपनी बीवी की बहन को खोज रहे हो!"

और वह सड़क पर पान की पीक थूक कर अपने मकान के अंदर चली गयी।

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चित्रः साभार गूगल

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: धर्म-प्रदूषण | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: धर्म-प्रदूषण |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उस विशेष विद्यालय के आखिरी घंटे में शिक्षक ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए, गिने-चुने विद्यार्थियों से कहा, "काफिरों को खत्म करना ही हमारा मक़सद है, इसके लिये अपनी ज़िन्दगी तक कुर्बान कर देनी पड़े तो पड़े, और कोई भी आदमी या औरत, चाहे वह हमारी ही कौम के ही क्यों न हों, अगर काफिरों का साथ दे रहे हैं तो उन्हें भी खत्म कर देना। ज़्यादा सोचना मत, वरना जन्नत के दरवाज़े तुम्हारे लिये बंद हो सकते हैं, यही हमारे मज़हब की किताबों में लिखा है।"

"लेकिन हमारी किताबों में तो क़ुरबानी पर ज़ोर दिया है, दूसरों का खून बहाने के लिये कहाँ लिखा है?" एक विद्यार्थी ने उत्सुक होकर पूछा।

"लिखा है... बहुत जगहों पर, सात सौ से ज़्यादा बार हर किताब पढ़ चुका हूँ, हर एक हर्फ़ को देख पाता हूँ।"

"लेकिन यह सब तो काफिरों की किताबों में भी है, खून बहाने का काम वक्त आने पर अपने खानदान और कौम की सलामती के लिए करना चाहिए। चाहे हमारी हो या उनकी, सब किताबें एक ही बात तो कहती हैं..."

"यह सब तूने कहाँ पढ़ लिया?"

वह विद्यार्थी सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा, उसके चेहरे पर असंतुष्टि के भाव स्पष्ट थे।

"चल छोड़ सब बातें..." अब उस शिक्षक की आवाज़ में नरमी आ गयी, "तू एक काम कर, अपनी कौम को आगे बढ़ा, घर बसा और सुन, शादीयां काफिरों की बेटियों से ही करना..."

"लेकिन वो तो काफिर हैं, उनकी बेटियों से हम पाक लोग शादी कैसे कर सकते हैं?"

शिक्षक उसके इस सवाल पर चुप रहा, उसके दिमाग़ में यह विचार आ रहा था कि “है तो नहीं लेकिन फिर भी कल मज़हबी किताबों में यह लिखा हुआ बताना है कि, ‘उनके लिखे पर सवाल उठाने वाला नामर्द करार दे दिया जायेगा’।”

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चित्रः साभार गूगल

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

लघुकथा समाचार: क्षितिज की ऑनलाइन सार्थक लघुकथा ऑडियो गोष्ठी

लॉकडाऊन में रचनाधर्मिता को नवीन आयामलघुकथा प्रवासी और टेक दुनिया के अंतरंग का हिस्सा- श्री बीएल आच्छा

तकनीक के इस युग में कुछ भी असम्भव नहीं है। कोरोना वायरस के कारण लाकडाउन के मध्य  क्षितिज साहित्य मंच, इंदौर द्वारा शनिवार 25 अप्रैल 2020 सांय 4:00 बजे एक ऑनलाइन ऑडियो सार्थक लघुकथा गोष्ठी का आयोजन किया गया । क्षितिज साहित्य मंच द्वारा आयोजित ऑनलाइन सार्थक लघुकथा ऑडियो गोष्ठी सचमुच प्रशंसनीय थी। बलराम अग्रवाल अध्यक्ष और विशेष अतिथि बी.एल.आच्छा थे। संचालन किया वरिष्ठ लघुकथाकार अंतरा करवड़े और वसुधा गाडगिल ने। 

कोरोना वायरस के कारण किए गए लॉकडाऊन को देखते हुए क्षितिज साहित्य मंच, इंदौर द्वारा दिनांक 25 अप्रैल 2020 शनिवार शाम 4:00 बजे एक ऑनलाइन ऑडियो सार्थक लघुकथा गोष्ठी का क्षितिज साहित्य मंच के पटल पर आयोजन किया गया। इस गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार, लघुकथाकार, कथाकार, आलोचक श्री बलराम अग्रवाल (दिल्ली) ने की और इस समारोह के प्रमुख अतिथि थे मूर्धन्य साहित्यकार, समीक्षक, आलोचक श्री बी. एल. आच्छा (चैन्नई)। गोष्ठी के आरम्भ में क्षितिज संस्था के अध्यक्ष वरिष्ठ साहित्यकार, लघुकथाकार, समीक्षक श्री सतीश राठी द्वारा स्वागत भाषण दिया गया और अतिथियों का स्वागत करते हुए श्री राठी ने कहा कि आज हमारे लिए बड़ी ख़ुशी कि बात है कि इस ऑनलाइन कार्यक्रम में आदरणीय श्री बलराम अग्रवाल (दिल्ली) और श्री बी. एल. आच्छा (चैन्नई) के साथ देश के वरिष्ठ साहित्यकार और लघुकथाकार आदरणीय सर्वश्री अशोक भाटिया (चंडीगढ़), सुभाष नीरव (दिल्ली), भागीरथ (रावतभाटा), माधव नागदा (नाथद्वारा), रामकुमार घोटड़ (चूरू, राजस्थान), अशोक जैन, मुकेश शर्मा, (गुरुग्राम), ओम मिश्रा (बीकानेर), योगराज प्रभाकर, जगदीश कुलारिया (पंजाब), हीरालाल मिश्रा (कोलकाता) लता चौहान चौहान (बेंगलुरु) पवन शर्मा (छत्तीसगढ़), पवन जैन (जबलपुर), संध्या तिवारी (पीलीभीत), अरूण धूत, संतोष श्रीवास्तव, अशोक गुजराती (भोपाल), मनीष वैद्य (देवास), राजेंद्र काटदारे (मुम्बई), अंजना अनिल (अलवर), देवेन्द्र सोनी (इटारसी), पवित्रा अग्रवाल (हैदराबाद), गोविन्द गुंजन (खंडवा), कुलदीप दासोत (जयपुर), धर्मपाल महेंद्र जैन (टोरंटो), सत्यनारायण व्यास सूत्रधार, व्यंग्यकार कांतिलाल ठाकरे, राकेश शर्मा संपादक वीणा, अश्विनी कुमार दुबे, पुरुषोत्तम दुबे, ब्रजेश कानूनगो, चंद्रा सायता, वन्दना पुणताम्बेकर, पदमा राजेंद्र, संगीता भारूका, रजनी रमण शर्मा, जगदीश जोशी, सुषमा व्यास, राजनारायण बोहरे, अर्जुन गौड़, नंदकिशोर बर्वे, सुभाष शर्मा, उमेश नीमा, ललित समतानी, सीमा व्यास, चेतना भाटी, मंजुला भूतड़ा, निधि जैन, राममूरत राही, (इंदौर), नई दुनिया के हमारे साथी श्री अनिल त्रिवेदी, दैनिक भास्कर के हमारे साथी श्री रविंद्र व्यास, पत्रिका से रूख़साना जी, बैंक के साथी गोपाल शास्त्री, गोपाल कृष्ण निगम (उज्जैन) भी उपस्थित हैं, मैं इन सभी का स्वागत करता हूँ और ह्रदय से अभिनन्दन करता हूँ।

इसके पश्चात लघुकथा विधा को लेकर वर्ष 1983 से क्षितिज संस्था द्वारा किए गए कार्यों की जानकारी एवं क्षितिज के विभिन्न प्रकाशनों की जानकारी श्री सतीश राठी द्वारा दी गई। इस गोष्ठी में हमारे इंदौर शहर से बाहर के क्षितिज के सदस्य लघुकथाकारों सर्वश्री संतोष सुपेकर, दिलीप जैन, कोमल वाधवानी, आशा गंगा शिरढोनकर (उज्जैन), सीमा जैन (ग्वालियर), कांता राय (भोपाल ), अनघा जोगलेकर, विभा रश्मि (गुरुग्राम), अंजू निगम, सावित्री कुमार( देहरादून), कनक हरलालका (धुबरी, आसाम), हनुमान प्रसाद मिश्रा (अयोध्या) ने लघुकथाओं का पाठ किया गया, स्व पारस दासोत की लघुकथा का पाठ उनकी बहू द्वारा किया गया। इन रचनाओं पर श्री बलराम अग्रवाल ने अपने उद्बोधन में कहा दिलीप जैन की लघुकथा 'गिनती की रोटी' में पात्र का चरित्र उसके दादाजी से प्राप्त संस्कार के रूप में आकार ग्रहण करता है और एक विशेष प्रकार का मनोविकार बन जाता है। कुल मिलाकर यह लघुकथा पद प्रतिष्ठा और स्थिति के अनुरूप भारतीय स्त्री भारतीय स्त्री के संस्कार पूर्ण मनोविज्ञान को सफलतापूर्वक हमारे सामने प्रस्तुत करती है। अंजू निगम की लघुकथा 'मां' के केंद्र में सौतेली मां की प्रचलित छवि को बदलने का प्रयास नजर आता है। विषय नया न होकर भी अच्छा है, लेकिन इस लघुकथा का शिल्प अभी कमजोर है। इस सदी में लघुकथा लेखन में कुछ सधी हुई कलम भी आई हैं। उनमें सीमा जैन ऐसा नाम है जिनका जो व्यक्ति जीवन के संवेदनशील क्ष‌‌णों को पकड़ने और प्रस्तुत करने के प्रति बहुत सचेत रहती हैं। उनकी प्रस्तुति जाने पहचाने विषय को भी नयापन दे देती है। उनकी लघुकथा 'उड़ान' सकारात्मक सरोकारों से लबालब है।

कांता राय की लघुकथा 'मां की नजर'! इस पूरी लघुकथा में पात्रों के चरित्र के साथ न्याय होता मुझे नजर नहीं आता है! कोमल वाधवानी लघुकथा 'गुहार'! यह संस्मरणात्मक शैली में लिखी कथा है। कथा का अंत इस अर्थ में अति नाटकीय हो गया है कि दीवारें अपने गिरने का पूर्वाभास नहीं देती हैं। वे गिर ही जाती हैं, बूढ़ी काकी की तरह किसी को बचा लेने का अवसर भी वे नहीं देतीं। सावित्री कुमार की लघुकथा 'भ्रम का संबल' कथ्य की दृष्टि से एक सुंदर लघुकथा है। इसका आधार एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। इस लघुकथा में, मुझे लगता है कि अनु का डॉक्टर के पास हर बार पहले जाना जरूरी नहीं है। आशा गंगा प्रमोद शिरढोणकर की लघुकथा 'उसके बाद'। बढी उम्र में जीवनसाथी से बिछोह के बाद त्रस्त जीवन की भावपूर्ण झांकी इस लघुकथा में बड़ी सहजता से सफलतापूर्वक प्रस्तुत की गई है। अनघा जोगलेकर की लघुकथा 'जुगनू'। उन्होंने किसान के जीवन में आशा की एक किरण को 'जुगनू' की संज्ञा दी है! लघुकथा के इस कथानक में कई बातें अस्पष्ट सी छूट गई हैं। 'वेरी गुड' संतोष सुपेकर की लघुकथा है। मेरा विश्वास है कि बालमन को समझना और बालक का मान रखना हंसी खेल नहीं है। विपरीत परिस्थिति में भी इस लघुकथा का मुख्य पात्र जिस तरह अपने बेटे का मान रखता है वह हमें दूर तक फैले खुशियों के उपवन में ले जाता है। विभा रश्मि की एंटीवायरस स्त्री मनोविज्ञान की बेहतरीन लघुकथा है! हनुमान प्रसाद मिश्र अपेक्षाकृत कम लिखने वाले वरिष्ठ लेखक हैं। क्षितिज के इस ऑनलाइन लघुकथा गोष्ठी कार्यक्रम में उनकी उपस्थिति उत्साह बढ़ाने वाली है। दृष्टांत शैली की यह रचना प्रभावित करती है। कनक हरलालका की 'इनसोर' लघु कथा में एक मजदूर की पीड़ा को उभारने की भरपूर कोशिश है। शिल्प की दृष्टि से इसे अभी और कसा जा सकता था फिर भी इस भाव संप्रेषण के कारण कि मजदूर की पहली जरूरत उसके आज की पूर्ति होना है, यह एक प्रभावशाली लघुकथा कही जा सकती है।

कुल मिलाकर देखा जाए तो वर्तमान लघु कथा लेखन नवीन विषयों को लेकर तो कुछ नवीन प्रस्तुतियों को लेकर साहित्य मार्ग पर अग्रसर है और उसकी यह अग्रसारिता संतुष्ट करती है।

श्री बी. एल. आच्छा ने ऑनलाइन सार्थक लघुकथा ऑडियो गोष्ठी पर अपनी प्रतिक्रया देते हुए कहा “हिंदी लघुकथा नई विधा है, पर अल्पकाल में इस विधा ने जितने संघर्षों को समेटा है, विमर्शों को अंतरंग बनाया है, मानव मन के अंतर्जाल को उकेरा है, उससे लगता है कि अन्य विधाओं की लंबी काल यात्रा लघुकथा में उतर आई है। यही नहीं लघुकथा ने आज की टेक दुनिया के साथ प्रवासी दुनिया तक विस्तार किया है। बड़ी बात यह इसका एक सिरा चूल्हे- चौके या मजदूर किसान जीवन से सिरजा है, उतना ही बुर्जुआ और बोल्ड संस्कृति से भी। प्रयोग के लिए न केवल अनेक नई पुरानी शैलियों को आजमाया है, बल्कि अन्य विधाओं से इसे संवादी नाट्यपरक और विजुअल बनाया है। आज की लघुकथा यद्यपि मोटे तौर पर मध्यमवर्गीय जीवन के घेरे में ज्यादा है, पर प्रवासी और टेक दुनिया भी उसका अंतरंग हिस्सा बनी है। आज की संगोष्ठी में इसकी झलक देखी जा सकती है।

अनघा जोगलेकर की लघुकथा किसानी व्यथाओं में पत्नी के जीवट में जुगनू की चमक दिखाती है, तो विभा रश्मि की 'एंटीवायरस 'आँखों के स्क्रीन में एंटीवायरस प्रोग्राम से हमउम्र के मनोविकारों को धोकर रख देती है। दिलीप जैन की लघुकथा 'गिनती की रोटी 'में पीढ़ियों की समझ का फेर भले ही हो पर ह्रदय कल्मश नहीं है। सावित्री कुमार की लघुकथा 'भ्रम का संबल' में नारी की उदात्त पारिवारिक भूमिका मन को छू लेती है। कोमल वाधवानी की 'गुहार' और आशा गंगा शिरढोणकर की 'उसके बाद 'लघुकथा में पारिवारिक रिश्तो में वृद्धावस्था की बेचैनियों के नुकीले सिरे चुभनदार बन जाते हैं ।अंजू निगम की 'मां' लघुकथा अपने उद्देश्य में बिखरती हुई भी समझ को विकसित करती है। सीमा जैन की 'उड़ान 'में जेंडर असमानता के बीच लड़की की उड़ान नारी चेतना के पंखों में गति ला देती है। संतोष सुपेकर दो मनोभूमियों के कंट्रास्ट को 'व्हेरी गुड 'में बखूबी मुखर कर देते हैं। हनुमानप्रसाद मिश्र दायित्व बोध लघुकथा में मानवेतर के माध्यम से सांस्कारिकता का संदेश देते हैं। कनक हरलालका की लघुकथा 'इनसोर 'में कारपोरेट बचत की बाजारवादी सोच में भूख की पीड़ा असरदार है। कांता राय की 'माँ की नजर में' लघुकथा पतित्व की स्वामी- सत्ता का घुलता हुआ अंदाज है। स्व.पारस दासोत की लघुकथा 'भारत 'में तमाम फटेहाली के बावजूद गरीब की जीत का जज्बा है। पठित रचनाओं में कथाभूमियाँ विविधता के क्षेत्रफल में बुनी हुई है। वे सामाजिक -पारिवारिक सरोकारों को जितनी वास्तविकताओं के साथ बुनती हैं,उतना ही बदलती दुनिया से भी।नरेटिव से संवादी बनती हैं और अंतर्वृत्तियों को सामने लाती हैं।

इस गोष्ठी की एक प्रमुख विशेषता रही है कि 1 घंटे के इस कार्यक्रम में देश के वरिष्ठ साहित्यकार और लघुकथाकार श्रोताओं के रूप में उपस्थित रहकर प्रथम ऑनलाइन लघुकथा संगोष्ठी के सहभागी और साक्षी बने। क्षितिज ऑनलाईन सार्थक लघुकथा ऑडियो गोष्ठी जो कि क्षितिज संस्था का एक महत्वपूर्ण आयोजन था, ऐतिहासिक रूप से सफल रही। क्षितिज संस्था ने इस अनूठे साहित्यिक समारोह द्वारा लघुकथा विधा में नये आयाम स्थापित किए। इस गोष्ठी का संचालन जानी मानी मंच संचालक अंतरा करवड़े और डॉ. वसुधा गाडगिल ने किया। कार्यक्रम के अंतिम चरण में ऑनलाइन उपस्थित सहभागियों ने अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं पोस्ट की और क्षितिज संस्था के सचिव श्री दीपक गिरकर द्वारा आभार व्यक्त किया गया।

नई दुनिया में इसका समाचारः




लघुकथा वीडियो: इंसान जिन्दा है | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा: इंसान जिन्दा है |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वह अपनी आत्मा के साथ बाहर निकला था, आत्मा को इंसानों की दुनिया देखनी थी।

वे दोनों एक मंदिर में गये, वहां पुजारी ने पूछा, "तुम हिन्दू हो ना!" आत्मा हाथ जोड़ कर चल दी।

और एक मस्जिद में गये, वहां मौलवी ने पूछा, "तुम मुसलमान हो ना!" आत्मा ने मना कर दिया।

फिर एक गुरूद्वारे में गये, वहां पाठी ने पूछा, "तुम सिख तो नहीं लगते" आत्मा वहां से चल दी।

और एक चर्च में गये, वहां पादरी ने पूछा, "तुम इसाई हो क्या?" आत्मा चुपचाप रही।

 वे दोनों फिर घर की तरफ लौट गये। रास्ते में उसकी आत्मा ने कहा, "इंसान मर गया, सम्प्रदाय ज़िन्दा है।"

 उसने कहा, "नहीं! "इंसान जिंदा है। सभी जगह सम्प्रदाय नहीं होते।"

अपनी बात को साबित करने के लिए वह अपनी आत्मा को पहले एक हस्पताल में लेकर गया, जहाँ बहुत सारे 'रोगी' ठीक होने आये थे।

और फिर एक जेल में लेकर गया, जहाँ बहुत सारे 'कैदी' थे।

और मदिरालय लेकर गया, जहाँ सब के सब 'शराबी' थे।

और एक विद्यालय लेकर गया, जहाँ 'विद्यार्थी' पढने आये थे।

अब आत्मा ने कहा, "इंसान ज़िन्दा तो है, लेकिन कुछ और बनने के बाद।"

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चित्रः साभार गूगल

रविवार, 26 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: जानवरीयत | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा: जानवरीयत |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वृद्धाश्रम के दरवाज़े से बाहर निकलते ही उसे किसी कमी का अहसास हुआ, उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को टटोला और फिर पीछे पलट कर खोजी आँखों से वृद्धाश्रम के अंदर पड़ताल करने लगा। उसकी यह दशा देख उसकी पत्नी ने माथे पर लकीरें डालते हुए पूछा, "क्या हुआ?"

उसने बुदबुदाते हुए उत्तर दिया, "अंदर कुछ भूल गया..."

 पत्नी ने उसे समझाते हुए कहा, "अब उन्हें भूल ही जाओ, उनकी देखभाल भी यहीं बेहतर होगी। हमने फीस देकर अपना फ़र्ज़ तो अदा कर ही दिया है, चलो..." कहते हुए उसकी पत्नी ने उसका हाथ पकड़ कर उसे कार की तरफ खींचा।

 उसने जबरन हाथ छुड़ाया और ठन्डे लेकिन द्रुत स्वर में बोला, "अरे! मोबाइल फोन अंदर भूल गया हूँ।"

 "ओह!" पत्नी के चेहरे के भाव बदल गए और उसने चिंतातुर होते हुए कहा, "जल्दी से लेकर आ जाओ, कहीं इधर-उधर हो गया तो? मैं घंटी करती हूँ, उससे जल्दी मिल जायेगा।"

वह दौड़ता हुआ अंदर चला गया। अंदर जाते ही वह चौंका, उसके पिता, जिन्हें आज ही वृद्धाश्रम में दाखिल करवाया था, बाहर बगीचे में उनके ही घर के पालतू कुत्ते के साथ खेल रहे थे। पिता ने उसे पल भर देखा और फिर कुत्ते की गर्दन को अपने हाथों से सहलाते हुए बोले, "बहुत प्यार करता है मुझे, कार के पीछे भागता हुआ आ गया... जानवर है ना!"

 डबडबाई आँखों से अपने पिता को भरपूर देखने का प्रयास करते हुए उसने थरथराते हुए स्वर में उत्तर दिया, “जी पापा, जिसे जिनसे प्यार होता है... वे उनके पास भागते हुए पहुँच ही जाते हैं...”

 और उसी समय उसकी पत्नी द्वारा की हुई घंटी के स्वर से मोबाइल फोन बज उठा। वो बात और थी कि आवाज़ उसकी पेंट की जेब से ही आ रही थी।

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चित्रः साभार गूगल