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शनिवार, 5 अक्टूबर 2019
शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2019
गुरुवार, 3 अक्टूबर 2019
साहित्य संगम संस्थान की 'संगम सवेरा' (मासिक ई पत्रिका) के वर्ष 3 अंक 3 | अक्टूबर 2019 अंक में मेरी दो लघुकथाएं
1)
धर्म-प्रदूषण / डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी
उस विशेष विद्यालय के आखिरी घंटे में शिक्षक ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए, गिने-चुने विद्यार्थियों से कहा, "काफिरों को खत्म करना ही हमारा मक़सद है, इसके लिये अपनी ज़िन्दगी तक कुर्बान कर देनी पड़े तो पड़े, और कोई भी आदमी या औरत, चाहे वह हमारी ही कौम के ही क्यों न हों, अगर काफिरों का साथ दे रहे हैं तो उन्हें भी खत्म कर देना। ज़्यादा सोचना मत, वरना जन्नत के दरवाज़े तुम्हारे लिये बंद हो सकते हैं, यही हमारे मज़हब की किताबों में लिखा है।"
"लेकिन हमारी किताबों में तो क़ुरबानी पर ज़ोर दिया है, दूसरों का खून बहाने के लिये कहाँ लिखा है?" एक विद्यार्थी ने उत्सुक होकर पूछा।
"लिखा है... बहुत जगहों पर, सात सौ से ज़्यादा बार हर किताब पढ़ चुका हूँ, हर एक हर्फ़ को देख पाता हूँ।"
"लेकिन यह सब तो काफिरों की किताबों में भी है, खून बहाने का काम वक्त आने पर अपने खानदान और कौम की सलामती के लिए करना चाहिए। चाहे हमारी हो या उनकी, सब किताबें एक ही बात तो कहती हैं..."
"यह सब तूने कहाँ पढ़ लिया?"
वह विद्यार्थी सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा, उसके चेहरे पर असंतुष्टि के भाव स्पष्ट थे।
"चल छोड़ सब बातें..." अब उस शिक्षक की आवाज़ में नरमी आ गयी, "तू एक काम कर, अपनी कौम को आगे बढ़ा, घर बसा और सुन, शादीयां काफिरों की बेटियों से ही करना..."
"लेकिन वो तो काफिर हैं, उनकी बेटियों से हम पाक लोग शादी कैसे कर सकते हैं?"
शिक्षक उसके इस सवाल पर चुप रहा, उसके दिमाग़ में यह विचार आ रहा था कि “है तो नहीं लेकिन फिर भी कल मज़हबी किताबों में यह लिखा हुआ बताना है कि, ‘उनके लिखे पर सवाल उठाने वाला नामर्द करार दे दिया जायेगा’।”
2)
उस विशेष विद्यालय के आखिरी घंटे में शिक्षक ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए, गिने-चुने विद्यार्थियों से कहा, "काफिरों को खत्म करना ही हमारा मक़सद है, इसके लिये अपनी ज़िन्दगी तक कुर्बान कर देनी पड़े तो पड़े, और कोई भी आदमी या औरत, चाहे वह हमारी ही कौम के ही क्यों न हों, अगर काफिरों का साथ दे रहे हैं तो उन्हें भी खत्म कर देना। ज़्यादा सोचना मत, वरना जन्नत के दरवाज़े तुम्हारे लिये बंद हो सकते हैं, यही हमारे मज़हब की किताबों में लिखा है।"
"लेकिन हमारी किताबों में तो क़ुरबानी पर ज़ोर दिया है, दूसरों का खून बहाने के लिये कहाँ लिखा है?" एक विद्यार्थी ने उत्सुक होकर पूछा।
"लिखा है... बहुत जगहों पर, सात सौ से ज़्यादा बार हर किताब पढ़ चुका हूँ, हर एक हर्फ़ को देख पाता हूँ।"
"लेकिन यह सब तो काफिरों की किताबों में भी है, खून बहाने का काम वक्त आने पर अपने खानदान और कौम की सलामती के लिए करना चाहिए। चाहे हमारी हो या उनकी, सब किताबें एक ही बात तो कहती हैं..."
"यह सब तूने कहाँ पढ़ लिया?"
वह विद्यार्थी सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा, उसके चेहरे पर असंतुष्टि के भाव स्पष्ट थे।
"चल छोड़ सब बातें..." अब उस शिक्षक की आवाज़ में नरमी आ गयी, "तू एक काम कर, अपनी कौम को आगे बढ़ा, घर बसा और सुन, शादीयां काफिरों की बेटियों से ही करना..."
"लेकिन वो तो काफिर हैं, उनकी बेटियों से हम पाक लोग शादी कैसे कर सकते हैं?"
शिक्षक उसके इस सवाल पर चुप रहा, उसके दिमाग़ में यह विचार आ रहा था कि “है तो नहीं लेकिन फिर भी कल मज़हबी किताबों में यह लिखा हुआ बताना है कि, ‘उनके लिखे पर सवाल उठाने वाला नामर्द करार दे दिया जायेगा’।”
2)
विरोध का सच / डॉ .चंद्रेश कुमार छतलानी
"अंग्रेजी नववर्ष नहीं मनेगा....देश का धर्म नहीं बदलेगा..." जुलूस पूरे जोश में था। देखते ही वह राष्ट्रभक्त समझ गया कि जुलूस का उद्देश्य देशप्रेम और स्वदेशी के प्रति जागरूकता फैलाना है और वह भी उसमें शामिल होकर नारे लगाते हुए चलने लगा।
उसके साथ के दो व्यक्ति बातें कर रहे थे,
"बच्चे को इस वर्ष विद्यालय में प्रवेश दिलाना है। कौनसा ठीक रहेगा?"
"यदि अच्छा भविष्य चाहिये तो शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवा दो।"
उसने उन्हें तिरस्कारपूर्वक देखा और नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां भी दो व्यक्तियों की बातें सुनीं,
"शाम का प्रोग्राम तो पक्का है?"
"हाँ! मैं स्कॉच लाऊंगा, चाइनीज़ और कोल्डड्रिंक की जिम्मेदारी तुम्हारी।"
उसे क्रोध आ गया, वह और जोर से नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां उसे फुसफुसाहट सुनाईं दीं,
"बेटी नयी जीन्स की रट लगाये हुए है..."
"तो क्या आजकल के बच्चों को ओल्ड फेशन सलवार-कुर्ता पहनाओगे?"
उत्तर सुनते ही वह हड़बड़ा गया। अब वह सबसे आगे पहुँच गया था, जहाँ खादी पहने एक हिंदी विद्यालय के शाकाहारी प्राचार्य जुलूस की अगुवाई कर रहे थे। वह उनके साथ और अधिक जोश में नारे लगाने लगा।
तभी प्राचार्य का फ़ोन बजा, एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फ़ोन पर वह बात करने लगे। उसने सुना वह कह रहे थे, "हाँ हुज़ूर, सब ठीक है, लेकिन इस बार रुपया नहीं डॉलर चाहिये, बेटे से मिलने अमेरिका जाना है।"
सुनकर वह चुपचाप वहीँ खड़ा हो गया। जुलूस आगे निकल गया, लेकिन उसके मन में नारों की आवाज़ बंद नहीं हो रही थी। उसने अपनी जेब से बुखार की अंग्रेजी दवाई निकाली, उसे कुछ क्षणों तक देखा फिर उसके चेहरे पर मजबूरी के भाव आये और उसने फिर से दवाई अपनी जेब में रख दी।
"अंग्रेजी नववर्ष नहीं मनेगा....देश का धर्म नहीं बदलेगा..." जुलूस पूरे जोश में था। देखते ही वह राष्ट्रभक्त समझ गया कि जुलूस का उद्देश्य देशप्रेम और स्वदेशी के प्रति जागरूकता फैलाना है और वह भी उसमें शामिल होकर नारे लगाते हुए चलने लगा।
उसके साथ के दो व्यक्ति बातें कर रहे थे,
"बच्चे को इस वर्ष विद्यालय में प्रवेश दिलाना है। कौनसा ठीक रहेगा?"
"यदि अच्छा भविष्य चाहिये तो शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवा दो।"
उसने उन्हें तिरस्कारपूर्वक देखा और नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां भी दो व्यक्तियों की बातें सुनीं,
"शाम का प्रोग्राम तो पक्का है?"
"हाँ! मैं स्कॉच लाऊंगा, चाइनीज़ और कोल्डड्रिंक की जिम्मेदारी तुम्हारी।"
उसे क्रोध आ गया, वह और जोर से नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां उसे फुसफुसाहट सुनाईं दीं,
"बेटी नयी जीन्स की रट लगाये हुए है..."
"तो क्या आजकल के बच्चों को ओल्ड फेशन सलवार-कुर्ता पहनाओगे?"
उत्तर सुनते ही वह हड़बड़ा गया। अब वह सबसे आगे पहुँच गया था, जहाँ खादी पहने एक हिंदी विद्यालय के शाकाहारी प्राचार्य जुलूस की अगुवाई कर रहे थे। वह उनके साथ और अधिक जोश में नारे लगाने लगा।
तभी प्राचार्य का फ़ोन बजा, एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फ़ोन पर वह बात करने लगे। उसने सुना वह कह रहे थे, "हाँ हुज़ूर, सब ठीक है, लेकिन इस बार रुपया नहीं डॉलर चाहिये, बेटे से मिलने अमेरिका जाना है।"
सुनकर वह चुपचाप वहीँ खड़ा हो गया। जुलूस आगे निकल गया, लेकिन उसके मन में नारों की आवाज़ बंद नहीं हो रही थी। उसने अपनी जेब से बुखार की अंग्रेजी दवाई निकाली, उसे कुछ क्षणों तक देखा फिर उसके चेहरे पर मजबूरी के भाव आये और उसने फिर से दवाई अपनी जेब में रख दी।
बुधवार, 2 अक्टूबर 2019
दो पुस्तकें: लघुकथा रचना-प्रक्रिया तथा पल-पल बदलती ज़िन्दगी’ (पंजाबी लघुकथा संग्रह) | योगराज प्रभाकर
वरिष्ठ लघुकथाकार श्री योगराज प्रभाकर की फेसबुक पोस्ट से
Yograj Prabhakar is with Ravi Prabhakar.
लघुकथा रचना-प्रक्रिया
संपादक: योगराज प्रभाकर
पृष्ठ संख्या: 264
आकार: डिमाई
प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला.
अंकित मूल्य: 400 रुपये
-
‘लघुकथा रचना-प्रक्रिया’ का विमोचन दिनांक 6 अक्टूबर को सिरसा के आखिल भारतीय लघुकथा सम्मलेन में होगा. यह पुस्तक लघुकथा रचना-प्रक्रिया से सम्बंधित एक परिचर्चा पर आधारित है जिसमे मुझ द्वारा पूछे गए 20 प्रश्नों पर नई व पुरानी पीढ़ी के निम्नलिखित 55 मर्मज्ञों के विशद उत्तर शामिल किए गए है:
पृष्ठ संख्या: 264
आकार: डिमाई
प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला.
अंकित मूल्य: 400 रुपये
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‘लघुकथा रचना-प्रक्रिया’ का विमोचन दिनांक 6 अक्टूबर को सिरसा के आखिल भारतीय लघुकथा सम्मलेन में होगा. यह पुस्तक लघुकथा रचना-प्रक्रिया से सम्बंधित एक परिचर्चा पर आधारित है जिसमे मुझ द्वारा पूछे गए 20 प्रश्नों पर नई व पुरानी पीढ़ी के निम्नलिखित 55 मर्मज्ञों के विशद उत्तर शामिल किए गए है:
डॉ० अनिल शूर 'आज़ाद, डॉ० अनीता राकेश, डॉ० अशोक भाटिया, श्री अशोक वर्मा, सुश्री आभा सिंह, डॉ० उमेश महादोषी, श्री एकदेव अधिकारी, डॉ० कमल चोपड़ा, श्री कमलेश भारतीय, सुश्री कल्पना भट्ट, डॉ० कुँवर प्रेमिल, श्री कुमार नरेंद्र, कृष्णा वर्मा (कनाडा), श्री खेमकरण सोमन, डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी, डॉ० जगदीश कुलरियाँ, डॉ० जसबीर चावला, श्री तारिक असलम तसनीम, श्री त्रिलोक सिंह ठकुरेला, डॉ० धर्मपाल साहिल, डॉ० ध्रुव कुमार, सुश्री पवित्रा अग्रवाल, डॉ० पुरुषोत्तम दुबे, स० प्रताप सिंह सोढी, डॉ० प्रद्युम्न भल्ला, श्री प्रबोध कुमार गोविल, डॉ० बलराम अग्रवाल, श्री बालकृष्ण गुप्ता 'गुरुजी', प्रो० बी.एल आच्छा, श्री भागीरथ परिहार, श्री मधुदीप, श्री माधव नागदा, श्री मार्टिन जॉन, डॉ० योगेन्द्र शुक्ल, श्री रवि प्रभाकर, श्री राजेन्द्रमोहन बंधु त्रिवेदी, डॉ० राधेश्याम भारतीय, स्व० रामकुमार आत्रेय, डॉ० रामकुमार घोटड़, डॉ० रामनिवास मानव, श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, प्रो० रूप देवगुण, सुश्री विभारानी श्रीवास्तव, डॉ० वीरेन्द्र भारद्वाज, डॉ० शील कौशिक, श्री श्यामसुंदर अग्रवाल, डॉ० श्यामसुन्दर दीप्ति, श्री सतीश राठी, डॉ० सतीशराज पुष्करणा, श्री सिद्धेश्वर, श्री सुकेश साहनी, सुश्री सुदर्शन रत्नाकर, श्री सुभाष नीरव, श्री सूर्यकांत नागर व स० हरभजन खेमकरनी.
लघुकथा प्रेमियों के लिए यह पुस्तक मात्र 300 रूपये में उपलब्ध होगी. पुस्तक प्राप्ति हेतु कृपया पे.टी.एम नम्बर 7340772712 पर भुगतान करके मुझे सूचित करें.
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(2). पुस्तक का नाम:
‘पल-पल बदलती ज़िन्दगी’ (पंजाबी लघुकथा संग्रह)
मूल लेखक: निरंजन बोहा
हिंदी अनुवाद: योगराज प्रभाकर
पृष्ठ संख्या: 104
आकार: डिमाई
प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला.
अंकित मूल्य: 150 रुपये
हिंदी अनुवाद: योगराज प्रभाकर
पृष्ठ संख्या: 104
आकार: डिमाई
प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला.
अंकित मूल्य: 150 रुपये
‘पल-पल बदलती ज़िन्दगी’ पंजाबी के मूर्धन्य साहित्यकार निरंजन बोहा द्वारा लघुकथा संग्रह है. इस संग्रह में लेखक की 62 प्रतिनिधि लघुकथाएँ शामिल हैं.
लघुकथा प्रेमियों के लिए यह पुस्तक मात्र 100 रूपये में उपलब्ध होगी. पुस्तक प्राप्ति हेतु कृपया पे.टी.एम नम्बर 7340772712 पर भुगतान करके मुझे सूचित करें.
Source:
समाज्ञा में आज गांधी जयंती पर मेरी एक लघुकथा
सत्याग्रह नहीं सत्यादेश / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
सौलह-सत्रह वर्ष की एक लड़की दौड़ती हुई उस बाग़ में गांधी जी की प्रतिमा के पीछे जा छिपी। कुछ क्षणों तक हाँफने के बाद उसने गांधीजी प्रतिमा की तरफ देखा, लाठी के सहारे खड़े गांधीजी मुस्कुरा रहे थे। अपनी चुन्नी को सीधे करते हुए उसने उसी से अपने चेहरे को ढका और मन ही मन बुदबुदाई, "गांधीजी, पूरे देश को बचाया... आज मुझे भी बचा लो।"
उसका बुदबुदाना था कि गांधीजी की प्रतिमा में जैसे प्राण आ गए और वह प्रतिमा बोली,
"क्या हुआ बेटी?"
आवाज़ सुनते ही वह घबरा गयी, उसने चारों तरफ नजरें दौड़ाई और देखा कि उस प्रतिमा के होंठ हिल रहे थे, वह आश्चर्यचकित हो उठी, उसी स्थिति में उसने कहा, "कुछ दरिन्दे मेरी इज्ज़त..."
वह आगे नहीं कह पाई, फिर प्रतिमा ने पूछा "कहाँ रहती हो?
"यहीं पास में।"
"कौन-कौन है घर में?"
"पिताजी, भाई, माँ और मैं।"
"घर से बाहर कितना निकलती हो?"
"बहुत कम, आज महीनों बाद अकेली निकली थी और ये..."
"घर में क्या करती हो?"
"खाना बनाना, सफाई करना, पानी भरना..."
"कुछ खेलती हो?"
"घर के कामों से समय ही नहीं मिलता।"
"क्या तुम से और तुम्हारे भाई से अलग-अलग व्यवहार होता है?"
"वो तो लड़का है इसलिए..."
"कभी मार पड़ती है?"
"बहुत बार, जनम होने से पहले से... मुझे मारना चाहा था... लेकिन बच गयी।"
"कभी विरोध किया?"
"नहीं..."
"अहिंसात्मक विरोध करो बेटी, कितनी पढ़ी हो?” प्रतिमा के होंठ मुस्कुरा रहे थे।
"आठवीं तक, फिर घरवालों ने नहीं भेजा... अब घर पर ही थोड़ा-बहुत..."
यह सुनते ही गांधीजी की प्रतिमा के होंठ भींच गए और उसने अपनी लाठी लड़की की तरफ बढ़ा कर कहा,
“इसे लो... पहले पढ़ो... तुम्हें गांधी की नहीं लाठी की ज़रूरत है।"
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विजय 'विभोर' की एक लघुकथा : पसंद अपनी अपनी
पसंद अपनी अपनी /
विजय 'विभोर'
विजय 'विभोर'
"अरे मैं अभी अख़बार पढ़ रहा हूँ, तुम्हारी कोई बात नहीं सुन सकता।" अख़बार में फिल्मी कौना पढ़ रहे पतिदेव ने कहा, तो पत्नी रसोई का काम छोड़कर वहीं कमरे में आ गयी।
"क्या इम्पोर्टेन्ट है देखूँ तो सही, जो मेरी बात भी नहीं सुन सकते।"
"मेरी फेवरेट हीरोइन का इंटरव्यू है उसकी आकर्षक फोटो सहित।" पति ने अख़बार में ही नज़रें गड़ाए हुए उत्सुकता पूर्वक कहा।
"मैं भी देखूँ तो सही...." कहते हुए पत्नी ने अख़बार में सेंध मारी। "....अरे वाह, आज तो मेरे भी फेवरेट हीरो का सिक्स पैक्स वाला फोटो छपा है।"
जैसे ही पति के कानों में पत्नी के ये शब्द घुसे पति के दाएँ हाथ में कंपन हुई पत्नी के बाएं गाल पर आवाज़ आयी और अंधेरा-सा छा गया।
मंगलवार, 1 अक्टूबर 2019
पूनम झा की लघुकथा - कमली
कमली / पूनम झा
"आईये, आईये डाक्टर साहब ।" ठाकुर जी ये कहते हुए उन्हें शयनकक्ष में ले गए जहाँ उनकी पत्नी सुनयना बिस्तर पर लेटी हुई थीं ।
सुनयना रात से ही बुखार से तप रही थी । कमजोरी से खड़ी भी नहीं हो पा रही थी इसीलिए डाक्टर साहब को घर पर ही बुलाया गया है ।
बिस्तर के बगल में कुर्सी पर बैठकर डाक्टर साहब सुनयना की जांच करने लगे ।
"आपको ठंड भी लगती है ?"
"हाँ डाक्टर साहब बहुत ठंड लगती है ।"
तभी डोर बेल बजी । शांता ( कामवाली ) जो वहीं खड़ी थी, घंटी की आवाज सुनकर दरवाजे की तरफ जाने लगी तो सुनयना ने कहा कि "अरे वो कमली आयी होगी । पीछे वाला गेट खोल देना । आंगन की नाली की सफाई करेगी ।"
शांता चली गयी, लेकिन तभी शांता की आवाज आयी "अरे रेsss...........तुम इधर अंदर क्यों जा रही हो ss...........?"
"वो डाक्टर आयल है न ?"
"हाँ तो ?"
"कोई बीमार हो गईल का ?"
"हाँ ! मेमसाब बीमार हैं ।"
"ओहो ......"
"तुम पीछे चलो । मैं पीछे का गेट खोलती हूँ । नाली साफ करना है ।" शांता उसे अंदर आगे बढने से रोकते हुए बोली ।
"जाई ही ऊ तनी डाक्टर से कुछ कहे के हई । ऊ हमर भतीजा हई न ।"
सुनयना के कानों में सारी बातें साफ-साफ सुनाई दे रही थी ।
उसे याद है जब भी कमली को कुछ देती है तो ऊपर से उसके हाथ पर ऐसे रखती है जिससे स्पर्श नहीं हो या नीचे रख देती है जो उसे वह स्वयं उठा ले ।
इधर डाक्टर साहब उसका नब्ज देख रहे थे कि बुखार है या नहीं ।
सुनयना ने ठाकुर जी को इशारा किया कि कमली को अंदर बुला लें ।
कमली कमरे में आते ही "मेमसाब का होई गवा ?" और डाक्टर की तरफ देखते ही "बबुआ ! बढ़िया दवाई दे द हमार मेमसाब जल्दी से ठीक हो जाई ।"
"हाँ बूआ ! जरूर । बहुत जल्दी ठीक हो जाएंगी ।" मुस्कुराते हुए डाक्टर साहब ने कहा ।
"हम तोहार गाड़ी से पहिचान गईली , जे बाबुआ हिंया आयल हई । केतना दिन हो गईली तूं घरे काहे नहीं अयली ?" डाक्टर ( भतीजा ) से मीठी मीठी शिकायत करती हुई कमली बोली ।
सुनयना शांता से "शांता जाओ सबके लिए चाय बनाकर ले आओ " और कमली की तरफ देखते हुए "बैठ जा कमली तू भी चाय पी ले ।"
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पूनम झा
कोटा राजस्थान
मोबाइल वाट्सएप 9414875654
Email: poonamjha14869@gmail.com
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