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मंगलवार, 4 जून 2019

मेरी लघुकथा लेखन प्रक्रिया- चंद्रेश छतलानी | ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'



कुछ वर्षों पूर्व की मेरी लघुकथा लेखन प्रक्रिया 

मार्च 2016 में ओम प्रकाश क्षत्रिय जी सर द्वारा लिया गया मेरा साक्षात्कार, वर्ष 2019 में साहित्यकुंज में पुनः प्रकाशित।

मुझे लगता है पूर्ण रूप से नए लघुकथा लेखकों के लिए यह पोस्ट कुछ लाभप्रद होनी चाहिए। मेरा यह भी मानना है कि प्रत्येक लेखक की रचना प्रक्रिया अलग होती है, किसी से तुलना करना उचित नहीं। केवल प्रारम्भ में एक स्टार्ट चाहिए होता है जो अन्य लेखकों की लेखन प्रक्रिया को जानने के बाद समझा जा सकता है। अपने अंतर में बैठे लेखक से पूछ कर अपनी लेखन प्रक्रिया स्वयं ही बनाई जाये तो उससे बेहतर कुछ भी नहीं। इसके अतिरिक्त लेखन प्रक्रिया भी समय के साथ बदलती रहती है, 2016 में जो मेरी रचना प्रक्रिया थी, आज उससे अलग है। हो सकता है बेहतर हो, हो सकता है बदतर भी हो, लेकिन समय के साथ जिस परिवर्तन की आवश्यकता होती है, मेरी लेखन प्रक्रिया में वह परिवर्तन स्वाभाविक रूप से हुआ है। इसके अलावा लेखन पर समय और परिस्थिति का भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। 


मेरी लघुकथा लेखन प्रक्रिया- चंद्रेश छतलानी

ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'


आज हम आप का परिचय एक ऐसे साहित्यकार से करवा रहे है जो लघुकथा के क्षेत्र में अपनी अनोखी रचना प्रक्रिया के लिए जाने जाते हैं। आप की लघुकथाएँ अपने-आप में पूर्ण तथा सम्पूर्ण लघुकथा के मापदंड को पूरा करने की कोशिश करती हैं। हम ने आप से जानना चाहा कि आप अपनी लघुकथा की रचना किस तरह करते है? ताकि नए रचनाकार आप की रचना प्रक्रिया से अपनी रचना प्रक्रिया की तुलना कर के अपने लेखन में सुधार ला सकें।

लघुकथा के क्षेत्र में अपना पाँव अंगद की तरह ज़माने वाले रचनाकार का नाम है आदरणीय चंद्रेश कुमार छतलानी जी। आइए जाने आप की रचना प्रक्रिया-

-ओमप्रकाश क्षत्रिय

ओमप्रकाश क्षत्रिय
चंद्रेश जी! आप की रचना प्रक्रिया किस की देन है? या यूँ कहे कि आप किस का अनुसरण कर रहे हैं? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
आदरणीय सर! हालाँकि मुझे नहीं पता कि मैं किस हद तक सही हूँ। लेकिन आदरणीय गुरूजी (योगराज जी प्रभाकर) से जो सीखने का यत्न किया है और उन के द्वारा कही गई बातों को आत्मसात कर के और उन की रचनाएँ पढ़ कर जो कुछ सीखा-समझा हूँ, उस का ही अनुसरण कर रहा हूँ।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
लघुकथा लिखने के लिए आप सब से पहले क्या-क्या करते हैं?

चंद्रेश कुमार छतलानी
सब से पहले तो विषय का चयन करता हूँ। वो कोई चित्र अथवा दिया हुआ विषय भी हो सकता है। कभी-कभी विषय का चुनाव स्वयं के अनुभव द्वारा या फिर विचारप्रक्रिया द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करता हूँ।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
विषय प्राप्त करने के बाद आप किस प्रक्रिया का पालन करते हैं? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
सब से पहले विषय पर विषय सामग्री का अध्ययन-मनन करता हूँ। कहीं से भी पढ़ता अवश्य हूँ। जहाँ भी कुछ मिल सके- किसी पुस्तक में, इन्टरनेट पर, समाचार पत्रों में, धार्मिक ग्रन्थों में या पहले से सृजित उस विषय की रचनाओं आदि को खोजता हूँ। इस में समय तो अधिक लगता है। लेकिन लाभ यह होता है कि विषय के साथ-साथ कोई न कोई संदेश मिल जाता है। 

इस में से जो अच्छा लगता है उसे अपनी रचना में देने का दिल करता है उसे मन में उतार लेता हूँ। यह जो कुछ अच्छा होता है उसे संदेश के रूप में अथवा विसंगति के रूप में जो कुछ मिलता है, जिस के बारे में लगता है कि उसे उभारा जाए तो उसे अपनी रचना में ढाल कर उभार लेता हूँ। 

ओमप्रकाश क्षत्रिय
मान लीजिए कि इतना करने के बाद भी लिखने को कुछ नहीं मिल पा रहा है तब आप क्या करते हैं?

चंद्रेश कुमार छतलानी
जब तक कुछ सूझता नहीं है, तब तक पढ़ता और मनन करता रहता हूँ। जब तक कि कुछ लिखने के लिए कुछ विसंगति या सन्देश नहीं मिल जाता। 

ओमप्रकाश क्षत्रिय
इस के बाद? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
इस विसंगति या संदेश के निश्चय के बाद मेरे लिये लिखना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है। तब कथानक पर सोचता हूँ। कथानक कैसे लिखा जाए? उस के लिए स्वयं का अनुभव, कोई प्रेरणा, अन्य रचनाकारों की रचनाएँ, नया-पुराना साहित्य, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, आदि से कोई न कोई प्रेरणा प्राप्त करता हूँ। कई बार अंतरमन से भी कुछ सूझ जाता है। उस के आधार पर पंचलाइन बना कर कथानक पर कार्य करता हूँ।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
इस प्रक्रिया में हर बार सफल हो जाते हैं?

चंद्रेश कुमार छतलानी
ऐसा नहीं होता है, कई बार इस प्रक्रिया का उल्टा भी हो जाता है। कोई कथानक अच्छा लगता है तो पहले कथानक लिख लेता हूँ और पंचलाइन बाद में सोचता हूँ। तब पंचलाइन कथानक के आधार पर होती है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
आप अपनी लघुकथा में पात्र के चयन के लिए क्या करते हैं? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
पहले कथानक को देखता हूँ। उस के आधार पर पात्रों के नाम और संख्या का चयन करता हूँ। पात्र कम से कम हों अथवा न हों। इस बात का विशेष ध्यान रखता हूँ। 

ओमप्रकाश क्षत्रिय
लघुकथा के शब्द संख्या और कसावट के बारे में कुछ बताइए? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
मैं यह प्रयास करता हूँ कि लघुकथा 300 शब्दों से कम की हो। हालाँकि प्रथम बार में जो कुछ भी कहना चाहता हूँ उसे उसी रूप में लिख लेता हूँ। वो अधिक बड़ा और कम कसावट वाला भाग होता है, लेकिन वही मेरी लघुकथा का आधार बन जाता है। कभी-कभी थोड़े से परिवर्तन के द्वारा ही वो कथानक लघुकथा के रूप में ठीक लगने लगता है। कभी-कभी उस में बहुत ज़्यादा बदलाव करना पड़ता है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
लघुकथा को लिखने का कोई तरीक़ा है जिस का आप अनुसरण करते हैं? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
प्रारूप यदि देखें तो लघुकथा सीधी ही लिखता हूँ। हाँ, दो अनुच्छेदों के बीच में एक खाली पंक्ति अवश्य छोड़ देता हूँ, ताकि पाठकों को पढ़ने में आसानी हो। यह मेरा अपना तरीक़ा है। इस के अलावा जहाँ संवाद आते हैं वहाँ हर संवाद को उद्धरण चिन्हों के मध्य रखा देता हूँ। साथ ही प्रत्येक संवाद की समाप्ति के बाद एक खाली पंक्ति छोड़ देता हूँ। यह मेरा अपना तरीक़ा है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
इस के बाद आप लघुकथा पर क्या काम करते हैं ताकि वह कसावट प्राप्त कर सके?

चंद्रेश कुमार छतलानी
इस के बाद लघुकथा को अंत में दो-चार बार पढ़ कर उस में कसावट लाने का प्रयत्न करता हूँ। मेरा यह प्रयास रहता है कि लघुकथा 300 शब्दों में पूरी हो जाए। (हालाँकि हर बार सफलता नहीं मिलती)। इस के लिए कभी किसी शब्दों/वाक्यों को हटाना पड़ता है। कभी उन्हें बदल देता हूँ। दो-चार शब्दों/वाक्यों के स्थान पर एक ही शब्द/वाक्य लाने का प्रयास करता हूँ।

कथानक पूरा होने के बाद उसे बार-बार पढ़ कर उस में से लेखन/टाइपिंग/वर्तनी/व्याकरण की अशुद्धियाँ निकालने का प्रयत्न करता हूँ। उसी समय में शीर्षक भी सोचता रहता हूँ। कोशिश करता हूँ कि शीर्षक के शब्द पंचलाइन में न हों और जो लघुकथा कहने का प्रयास कर रहा हूँ, उसका मूल अर्थ दो-चार शब्दों में आ जाए। मुझे शीर्षक का चयन सबसे अधिक कठिन लगता है।

ओमप्रकाश क्षत्रिय
अंत में कुछ कहना चाहेंगे? 

चंद्रेश कुमार छतलानी
इस के पश्चात प्रयास यह करता हूँ कि कुछ दिनों तक रचना को रोज़ थोड़ा समय दूँ, कई बार समय की कमी से रचना के प्रकाशन करने में जल्दबाज़ी कर लेता हूँ, लेकिन अधिकतर 4 से 7 दिनों के बाद ही भेजता हूँ। इससे बहुत लाभ होता है।

यह मेरा अपना तरीक़ा है। मैं सभी लघुकथाकारों से यह कहना चाहता हूँ कि वे अपनी लघुकथा को पर्याप्त समय दें, उस पर चिंतन-मनन करें। उन्हें जब लगे कि यह अव पूरी तरह सही हो गई है तब इसे पोस्ट/प्रकाशित करें। 





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सोमवार, 3 जून 2019

लघुकथाकार परिचय: डॉ. सतीशराज पुष्करणा

5 अक्टूबर 1946 को लाहौर, पंजाब (अब पाकिस्तान में) जन्मे डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपनी शिक्षा सहारनपुर और तत्पश्चात देहरादून से प्राप्त की। 1962 से साहित्य-साधना में रत डॉ. पुष्करणा लघुकथा के अतिरिक्त उपन्यास, कहानी, ग़ज़ल, कविता, हाइकु, निबंध, श्रद्धांजलि साहित्य, आलोचना, जीवनी लेखन सहित साहित्य की अन्य कई विधाओं में भी पारंगत हैं। अपने महती कार्यों के फलस्वरूप आप राष्ट्रीय स्तर की अनेक सरकारी, गैर सरकारी लब्ध-प्रतिष्ठ संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत हो चुके हैं और अनेक मानद उपाधियाँ भी प्राप्त कर चुके हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. पुष्करणा ने लघुकथा लेखक के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर कीर्ति अर्जित की है। एक समीक्षक के रूप में आपने लघुकथा के समीक्षा-मानदण्डों पर भी महत्वपूर्ण कार्य किये है। वर्ष 1988 से पटना में प्रति वर्ष अंतर्राज्यीय प्रगतिशील लघुकथा लेखक सम्मेलन का आयोजन भी आपके द्वारा किया जा रहा है।

एक कवि के रूप में डॉ. पुष्करणा अपनी संवेदनाओं की विविधता, भावबोध और यथार्थ को अपने बहुआयामी अनुभव के जरिये दर्शा पाने में भी पूर्ण सफल रहे हैं, एक कविता में वे कहते हैं,
चट्टानों को तोड़ो / शीतल पानी / तुम्हारी प्रतीक्षा में है।

और इस कविता की तरह उन्होंने भी लघुकथा की शिल्प सम्बन्धी बहुत सी भ्रान्तियों को तोड़ कर लघुकथा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया और विधा को वहां तक पहुंचाने का पूरा प्रयास किया है जहाँ लघुकथा का प्राकृतिक अस्तित्व लघुकथाकारों की प्रतीक्षा कर रहा है। आपकी लघुकथाओं में मानव की मानसिकता, दायित्वबोध, संघर्ष, अहंकार, नैतिक मूल्य, लीडरशिप, वैचारिक टकराव आदि सहज ही परिलक्षित होते हैं। आपकी कुछ लघुकथाओं के बारे में विचार करें तो, आपकी एक लघुकथा है ‘पुरुष’ जिसमें बस में बैठा हुआ एक व्यक्ति अपनी पीछे की सीट पर बैठी महिलाओं की तरफ आकर्षित होता है, और उन्हें देखने के लिए परेशान होता रहता है। रचना के अंत में जब पीछे बैठी महिलाओं में से एक कहती है कि, "अंकल! प्लीज खिड़की बन्द कर दीजिए न!" तो उसके विचारों की सुनामी एकदम शांत झील में तब्दील हो जाती है और उसके मुँह से सहज ही निकल जाता है,"अच्छा बेटा!"। यह लघुकथा एक प्रौढ़ होते हुए व्यक्ति की मानसिकता को दर्शाने में पूर्ण सफल है।

इसके अतिरिक्त उनकी एक रचना मुझे बहुत अच्छी लगती है, वह है - 'सहानुभूति', अधिकारी से डांट खाता हुआ कर्मचारी स्वयं को अपमानित महसूस करता है और अधिकारी से कहता है कि "आप मुझे इस प्रकार डाँट नहीं सकते, आपको जो कहना या पूछना हो, लिखकर कहें या पूछें। मैं जवाब दे दूंगा।" जिसका उत्तर अधिकारी कुछ इस तरह देता है कि, "मैं लिखित कार्रवाई करके तुम्हारे बीवी-बच्चों के पेट पर लात नहीं मारूँगा। गलती तुम करते हो। डाँटकर प्रताड़ित भी तुम्हें ही करूँगा। तुम्हें जो करना हो… कर लेना। समझे?" यह बात उस कर्मचारी के हृदय को बेध जाती है और अंत में वह पात्र अपनी एक बात से पाठकों को भी झकझोर देता है, वह कहता है कि, "वह सिर्फ अपना अफसर ही नहीं, बाप भी है, जिसे मुझसे भी ज्यादा मेरे बच्चों की चिन्ता है।" नैतिक मूल्यों को उभारती हुई और कार्यालयों में हावी होती राजनीति की चट्टानों को तोड़ कर शीतल जल उभारती हुई अपनी ही कविता को इस लघुकथा में डॉ. पुष्करणा जी ने जीवित किया है।

रचनाओं के इसी क्रम में डॉ. पुष्करणा ने अपनी एक रचना 'वर्ग-भेद' में विषमबाहु त्रिभुज की तीन रेखाओं आधारभुजा, मध्यम और छोटी भुजा को लेकर प्रतीकों का बहुत ही सुंदर इस्तेमाल भी किया है। इसी प्रकार आपने 'पिघलती बर्फ' लघुकथा में नारी शक्ति को दर्शाया है। सहज ही अपने भीतर शक्ति का संचयन करते हुए एक नारी दहेज-प्रथा की धज्जियाँ उड़ाते हुए अपना पक्ष दृढ़ता से रखती है। हालांकि चार-पांच रचनाओं के द्वारा डॉ. पुष्करणा के लेखन को अधिक नहीं समझ सकते, यह केवल उदाहरण मात्र हैं।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 2 जून 2019

लघुकथा वीडियो: "जेवर" | लेखक- सुरेश सौरभ | स्वर: शिव सिंह सागर | समीक्षा: डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी

सुरेश सौरभ जी द्वारा लिखी गयी और शिव सिंह सागर  जी द्वारा दिये गए स्वर में यह लघुकथा "जेवर" एक ऐसी मानसिकता को इंगित करती है जो महिलाओं ही नहीं बल्कि पुरुषों में भी अक्सर पाई जाती है। यह मानसिकता है - स्वयं को श्रेष्ठ साबित करनी की।

यह रचना एक विशेष शैली में कही गयी है, जब कभी भी समाज के विभिन्न वर्गों के विचार बताने होते हैं तो लघुकथा में वर्गों को संख्याओं में कहकर भी दर्शाया जा सकता है। इस रचना में भी वर्गों को जेवरों की संख्या के अनुसार विभक्त किया गया है। पहली महिला एक झुमके की, दूसरी झुमके से बड़े एक हार की, तीसरी अपने मंगलसूत्र की, चौथी पायल सहित तीन-चार जेवरों की बात करती है और उनके जेवरों की कीमत पहली महिला से प्रारम्भ होकर चौथी तक बढ़ती ही जाती है। पाँचवी स्वयं असली जेवर पहन कर नहीं आई थी लेकिन उसने भी अपने जेवरों की कीमत सबसे अधिक बताई और साथ में समझदारी की एक बात भी की कि वह उन्हें हर जगह नहीं पहनती है। एक झुमके से लेकर कई जेवरों से लदा होना महिलाओं के परिवार की आर्थिक दशा बता रहा है, जिससे वर्गों का सहज ही अनुमान हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह लघुखा एक बात और बताने में सक्षम है कि यदि जेवर खरीदे हैं तो कब पहना जाये और कब नहीं इसका भी ज्ञान होना चाहिए। हालांकि पांचवी महिला के अनुसार केवल घर में ही नहीं बल्कि मेरा विचार है कि विशेष आयोजनों में भी जेवर पहने जा सकते हैं।  आखिर जेवर हैं तो पहनने के लिए ही। लेखक जो संदेश देना चाहते हैं वह भी स्पष्ट है कि जेवरों की सुरक्षा भी ज़रूरी है। कई महिलाएं ट्रेन आदि में भी असली जेवर पहन लेती हैं जो कि सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं है।

आइये सुनते हैं सुरेश सौरभ जी की लघुकथा "जेवर", शिव सिंह सागर जी के स्वर में।

-  डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी


शनिवार, 1 जून 2019

विजेता लघुकथा : गूंगा कुछ तो करता है | स्टोरी मिरर में "लघुकथा के परिंदे" प्रतियोगिता के तहत | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

कुछ व्यक्तियों की तरह उसने मुस्कुराने के लिए अपना फेसबुक खोला। पहली पोस्ट देखी, उसमें एक कार्टून बना था कि एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल का प्रमुख दूसरे दल के प्रमुख की हँसी उड़ा रहा था। यह देखकर उसका चेहरा बिगड़ने लगा।

फिर उसने उसी पोस्ट की टिप्पणियाँ पढ़ीं।

पहली टिप्पणी ‘अ’ की थी जिसमें लिखा था, "मूर्ख तो मूर्ख ही रहेगा।" और उसे महसूस हुआ कि वह स्वयं एक मूर्ख व्यक्ति है।

दूसरी टिप्पणी ‘ब’ ने की, "गधों को सब मूर्ख ही दिखाई देते हैं।" यह पढ़कर उसे स्वयं में एक गधा दिखाई देने लगा।

तीसरी टिप्पणी फिर ‘अ’ ने की, "जिसे गधा कह रहे हो उसने देश की लोकतांत्रिक परंपरा को बढ़ाने के लिए बहुत कार्यक्रम चला रखे हैं।"

चौथी टिप्पणी फिर ‘ब’ की थी, "तो तुम भी जिसे मूर्ख कह रहे हो उसने और उसके दल ने भी कई वर्षों देश की भलाई के लिए बहुत कार्यक्रम चलाए हैं।"

पाँचवी टिप्पणी ‘स’ ने की, "एक-दूसरे को कोसना छोड़िये, यह बताइये आप दोनों ने किन-किन कार्यक्रमों या परियोजनाओं में भाग लिया है ?"

छठी टिप्पणी ‘अ’ ने की, "लो आज गूंगे भी बोल रहे हैं, देशद्रोही ! तुमने क्या किया है देश के लिए ? "इस टिप्पणी को ‘ब’ ने पसंद किया हुआ था, लेकिन पढ़कर उसकी भवें तन गयीं।

सातवीं टिप्पणी दस मिनट बाद की थी, जो ‘स’ ने की थी, "मैनें फेसबुक पर अपना प्रचार नहीं किया लेकिन हर दल की सरकार के विकास के कार्यों में हर संभव भाग लिया है..."

उसने और टिप्पणियाँ नहीं पढ़ीं, उसकी आँखों में चमक आ गयी थी और उसने ‘स’ को मित्रता अनुरोध भेज दिया।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शुक्रवार, 31 मई 2019

लघुकथा: दहन किसका | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



"जानते हो रावण की भूमिका करने वाला असली जिंदगी में भी रावण ही है, ऐसा कोई अवगुण नहीं जो इसमें नहीं हो।" रामलीला के अंतिम दिन रावण-वध मंचन के समय पांडाल में एक दर्शक अपने साथ बैठे व्यक्ति से फुसफुसा कर कहने लगा।

दूसरे दर्शक ने चेहरे पर ऐसी मुद्रा बनाई जैसे यह बात वह पहले से जानता था, वह बिना सिर घुमाये केवल आँखें तिरछी करते हुए बोला, "इसका बाप तो बहुत सीधा था, लेकिन पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी की भूल कर बैठा, दूसरी ने  दोनों बाप-बेटे को घर से निकाल दिया...”

“इसकी हरकतें ही ऐसी होंगी, शराबी-जुआरी के साथ किसकी निभेगी?"

"श्श्श! सामने देखो।" पास से किसी की आवाज़ सुनकर दोनों चुप हो गये और मंच की तरफ देखने लगे।

मंच पर विभीषण ने राम के कान में कुछ कहा, और राम ने तीर चला दिया, जो कि सीधा रावण की नाभि से टकराया और अगले ही क्षण रावण वहीँ गिर कर तड़पने लगा, पूरा पांडाल दर्शकों की तालियों से गूँजायमान हो उठा।

तालियों की तेज़ आवाज़ सुनकर वहां खड़ा लक्ष्मण की भूमिका निभा रहा कलाकार भावावेश में आ गया और रावण के पास पहुंच कर हँसते हुआ बोला, "देख रावण... माँ सीता और पितातुल्य भ्राता राम को व्याकुल करने पर तेरी दुर्दशा... इस धरती पर अब प्रत्येक वर्ष दुष्कर्म रूपी तेरा पुतला जलाया जायेगा..."

नाटक से अलग यह संवाद सुनकर रावण विचलित हो उठा, वह लेटे-लेटे ही तड़पते हुआ बोला, "सिर्फ मेरा पुतला! मेरे साथ  उसका क्यों नहीं जिस कुमाता के कारण तेरे पिता मर गये और तुम तीनों को...."

उसकी बात पूरी होने से पहले ही पर्दा सहमते हुए नीचे गिर गया।


- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

गुरुवार, 30 मई 2019

लघुकथा: दुरुपयोग | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


एक बूढ़ा आदमी जिसने सिर्फ धोती पहनी हुई थी, धीरे-धीरे चलता हुआ, महात्मा गांधी की प्रतिमा के पास पहुंचा। वहां उसने अपनी धोती में बंधा हुआ एक सिक्का निकाला, और जिस तरफ ‘सत्यमेव जयते’ लिखा था, उसे ऊपर कर, सिक्के को महात्मा गांधी के पैरों में रख दिया।

अब उसने मूर्ति के चेहरे को देखा, उसकी आँखों में धूप चुभने लगी, लेकिन उसने नज़र हटाये बिना दर्द भरे स्वर में कहा,
"गांधीजी, तुम तो जीत कर चले गये, लेकिन अब यहाँ दो समुदाय बन गये हैं, एक तुम्हारे नाम की जय-जयकार करता है तो दूसरा तुम्हें दुष्ट मानता है... तुम वास्तव में कौन हो, यह पीढ़ी भूल ही गयी।" कहते-कहते उसकी गर्दन नीचे झुकती जा रही थी।

उसी समय उसके हृदय में जाना-पहचाना स्वर सुनाई दिया, "मैं जीता कब था?अंग्रेजों के जाने के बाद आज तक मेरे भाई-बहन पराधीन ही हैं, मुट्ठी भर लोग उन्हें बरगला कर अपनी विचारधारा के पराधीन कर रहे हैं... और सत्य की हालत..."

"क्या है सत्य की हालत?" वह बूढ़ा आदमी अपने अंदर ही खोया हुआ था।

उसके हृदय में स्वर फिर गूंजा, "सत्य तो यह है कि दोनों एक ही काम कर रहे हैं – मेरे नाम को बेच रहे हैं..."

और उसी समय हवा के तेज़ झोंके से मूर्ति पर रखा हुआ सिक्का नीचे गिर गया, शायद उसका आधार कमज़ोर था।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 29 मई 2019

लघुकथा: मैं पानी हूँ | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"क्या... समझ रखा है... मुझे? मर्द हूँ... इसलिए नीट पीता हूँ... मरद हूँ... मुरद...आ"
ऐसे ही बड़बड़ाते हुए वह सो गया। रोज़ की तरह ही घरवालों के समझाने के बावजूद भी वह बिना पानी मिलाये बहुत शराब पी गया था।

कुछ देर तक यूं ही पड़ा रहने के बाद वह उठा। नशे के बावजूद वह स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रहा था, लेकिन कमरे का दृश्य देखते ही अचरज से उसकी आँखें फ़ैल गयीं, उसके पलंग पर एक क्षीणकाय व्यक्ति लेटा हुआ तड़प रहा था।

उसने  उस व्यक्ति को गौर से देखा, उस व्यक्ति का चेहरा उसी के चेहरे जैसा था। वह घबरा गया और उसने पूछा, "कौन हो तुम?"

उस व्यक्ति ने तड़पते हुए कहा, "...पानी..."

और यह कहते ही उस व्यक्ति का शरीर निढाल हो गया। वह व्यक्ति पानी था, लेकिन अब मिट्टी में बदल चुका था।

उसी समय कमरे में उसकी पत्नी, माँ और बच्चों ने प्रवेश किया और उस व्यक्ति को देख कर रोने लगे। वह चिल्लाया, "क्यों रो रहे हो?"

लेकिन उसकी आवाज़ उन तक नहीं पहुंच रही थी।

वह और घबरा गया, तभी पीछे से किसी ने उसे धक्का दिया, वह उस मृत शरीर के ऊपर गिर कर उसके अंदर चला गया। वहां अँधेरा था, उसे अपना सिर भारी लगने लगा और वह तेज़ प्यास से व्याकुल हो उठा। वह चिल्लाया "पानी", लेकिन बाहर उसकी आवाज़ नहीं जा पा रही थी।

उससे रहा नहीं गया और वह अपनी पूरी शक्ति के साथ चिल्लाया, "पा...आआ...नी"

चीखते ही वह जाग गया, उसने स्वप्न देखा था, लेकिन उसका हलक सूख रहा था। उसने अपने चेहरे को थपथपाया और पास रखी पानी की बोतल को उठा कर एक ही सांस में सारा पानी पी लिया।

और उसके पीछे रखी शराब की बोतल नीचे गिर गयी थी, जिसमें से शराब बह रही थी... बिना पानी की।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी