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सोमवार, 3 जून 2019

लघुकथाकार परिचय: डॉ. सतीशराज पुष्करणा

5 अक्टूबर 1946 को लाहौर, पंजाब (अब पाकिस्तान में) जन्मे डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपनी शिक्षा सहारनपुर और तत्पश्चात देहरादून से प्राप्त की। 1962 से साहित्य-साधना में रत डॉ. पुष्करणा लघुकथा के अतिरिक्त उपन्यास, कहानी, ग़ज़ल, कविता, हाइकु, निबंध, श्रद्धांजलि साहित्य, आलोचना, जीवनी लेखन सहित साहित्य की अन्य कई विधाओं में भी पारंगत हैं। अपने महती कार्यों के फलस्वरूप आप राष्ट्रीय स्तर की अनेक सरकारी, गैर सरकारी लब्ध-प्रतिष्ठ संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत हो चुके हैं और अनेक मानद उपाधियाँ भी प्राप्त कर चुके हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. पुष्करणा ने लघुकथा लेखक के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर कीर्ति अर्जित की है। एक समीक्षक के रूप में आपने लघुकथा के समीक्षा-मानदण्डों पर भी महत्वपूर्ण कार्य किये है। वर्ष 1988 से पटना में प्रति वर्ष अंतर्राज्यीय प्रगतिशील लघुकथा लेखक सम्मेलन का आयोजन भी आपके द्वारा किया जा रहा है।

एक कवि के रूप में डॉ. पुष्करणा अपनी संवेदनाओं की विविधता, भावबोध और यथार्थ को अपने बहुआयामी अनुभव के जरिये दर्शा पाने में भी पूर्ण सफल रहे हैं, एक कविता में वे कहते हैं,
चट्टानों को तोड़ो / शीतल पानी / तुम्हारी प्रतीक्षा में है।

और इस कविता की तरह उन्होंने भी लघुकथा की शिल्प सम्बन्धी बहुत सी भ्रान्तियों को तोड़ कर लघुकथा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया और विधा को वहां तक पहुंचाने का पूरा प्रयास किया है जहाँ लघुकथा का प्राकृतिक अस्तित्व लघुकथाकारों की प्रतीक्षा कर रहा है। आपकी लघुकथाओं में मानव की मानसिकता, दायित्वबोध, संघर्ष, अहंकार, नैतिक मूल्य, लीडरशिप, वैचारिक टकराव आदि सहज ही परिलक्षित होते हैं। आपकी कुछ लघुकथाओं के बारे में विचार करें तो, आपकी एक लघुकथा है ‘पुरुष’ जिसमें बस में बैठा हुआ एक व्यक्ति अपनी पीछे की सीट पर बैठी महिलाओं की तरफ आकर्षित होता है, और उन्हें देखने के लिए परेशान होता रहता है। रचना के अंत में जब पीछे बैठी महिलाओं में से एक कहती है कि, "अंकल! प्लीज खिड़की बन्द कर दीजिए न!" तो उसके विचारों की सुनामी एकदम शांत झील में तब्दील हो जाती है और उसके मुँह से सहज ही निकल जाता है,"अच्छा बेटा!"। यह लघुकथा एक प्रौढ़ होते हुए व्यक्ति की मानसिकता को दर्शाने में पूर्ण सफल है।

इसके अतिरिक्त उनकी एक रचना मुझे बहुत अच्छी लगती है, वह है - 'सहानुभूति', अधिकारी से डांट खाता हुआ कर्मचारी स्वयं को अपमानित महसूस करता है और अधिकारी से कहता है कि "आप मुझे इस प्रकार डाँट नहीं सकते, आपको जो कहना या पूछना हो, लिखकर कहें या पूछें। मैं जवाब दे दूंगा।" जिसका उत्तर अधिकारी कुछ इस तरह देता है कि, "मैं लिखित कार्रवाई करके तुम्हारे बीवी-बच्चों के पेट पर लात नहीं मारूँगा। गलती तुम करते हो। डाँटकर प्रताड़ित भी तुम्हें ही करूँगा। तुम्हें जो करना हो… कर लेना। समझे?" यह बात उस कर्मचारी के हृदय को बेध जाती है और अंत में वह पात्र अपनी एक बात से पाठकों को भी झकझोर देता है, वह कहता है कि, "वह सिर्फ अपना अफसर ही नहीं, बाप भी है, जिसे मुझसे भी ज्यादा मेरे बच्चों की चिन्ता है।" नैतिक मूल्यों को उभारती हुई और कार्यालयों में हावी होती राजनीति की चट्टानों को तोड़ कर शीतल जल उभारती हुई अपनी ही कविता को इस लघुकथा में डॉ. पुष्करणा जी ने जीवित किया है।

रचनाओं के इसी क्रम में डॉ. पुष्करणा ने अपनी एक रचना 'वर्ग-भेद' में विषमबाहु त्रिभुज की तीन रेखाओं आधारभुजा, मध्यम और छोटी भुजा को लेकर प्रतीकों का बहुत ही सुंदर इस्तेमाल भी किया है। इसी प्रकार आपने 'पिघलती बर्फ' लघुकथा में नारी शक्ति को दर्शाया है। सहज ही अपने भीतर शक्ति का संचयन करते हुए एक नारी दहेज-प्रथा की धज्जियाँ उड़ाते हुए अपना पक्ष दृढ़ता से रखती है। हालांकि चार-पांच रचनाओं के द्वारा डॉ. पुष्करणा के लेखन को अधिक नहीं समझ सकते, यह केवल उदाहरण मात्र हैं।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 2 जून 2019

लघुकथा वीडियो: "जेवर" | लेखक- सुरेश सौरभ | स्वर: शिव सिंह सागर | समीक्षा: डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी

सुरेश सौरभ जी द्वारा लिखी गयी और शिव सिंह सागर  जी द्वारा दिये गए स्वर में यह लघुकथा "जेवर" एक ऐसी मानसिकता को इंगित करती है जो महिलाओं ही नहीं बल्कि पुरुषों में भी अक्सर पाई जाती है। यह मानसिकता है - स्वयं को श्रेष्ठ साबित करनी की।

यह रचना एक विशेष शैली में कही गयी है, जब कभी भी समाज के विभिन्न वर्गों के विचार बताने होते हैं तो लघुकथा में वर्गों को संख्याओं में कहकर भी दर्शाया जा सकता है। इस रचना में भी वर्गों को जेवरों की संख्या के अनुसार विभक्त किया गया है। पहली महिला एक झुमके की, दूसरी झुमके से बड़े एक हार की, तीसरी अपने मंगलसूत्र की, चौथी पायल सहित तीन-चार जेवरों की बात करती है और उनके जेवरों की कीमत पहली महिला से प्रारम्भ होकर चौथी तक बढ़ती ही जाती है। पाँचवी स्वयं असली जेवर पहन कर नहीं आई थी लेकिन उसने भी अपने जेवरों की कीमत सबसे अधिक बताई और साथ में समझदारी की एक बात भी की कि वह उन्हें हर जगह नहीं पहनती है। एक झुमके से लेकर कई जेवरों से लदा होना महिलाओं के परिवार की आर्थिक दशा बता रहा है, जिससे वर्गों का सहज ही अनुमान हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह लघुखा एक बात और बताने में सक्षम है कि यदि जेवर खरीदे हैं तो कब पहना जाये और कब नहीं इसका भी ज्ञान होना चाहिए। हालांकि पांचवी महिला के अनुसार केवल घर में ही नहीं बल्कि मेरा विचार है कि विशेष आयोजनों में भी जेवर पहने जा सकते हैं।  आखिर जेवर हैं तो पहनने के लिए ही। लेखक जो संदेश देना चाहते हैं वह भी स्पष्ट है कि जेवरों की सुरक्षा भी ज़रूरी है। कई महिलाएं ट्रेन आदि में भी असली जेवर पहन लेती हैं जो कि सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं है।

आइये सुनते हैं सुरेश सौरभ जी की लघुकथा "जेवर", शिव सिंह सागर जी के स्वर में।

-  डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी


शनिवार, 1 जून 2019

विजेता लघुकथा : गूंगा कुछ तो करता है | स्टोरी मिरर में "लघुकथा के परिंदे" प्रतियोगिता के तहत | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

कुछ व्यक्तियों की तरह उसने मुस्कुराने के लिए अपना फेसबुक खोला। पहली पोस्ट देखी, उसमें एक कार्टून बना था कि एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल का प्रमुख दूसरे दल के प्रमुख की हँसी उड़ा रहा था। यह देखकर उसका चेहरा बिगड़ने लगा।

फिर उसने उसी पोस्ट की टिप्पणियाँ पढ़ीं।

पहली टिप्पणी ‘अ’ की थी जिसमें लिखा था, "मूर्ख तो मूर्ख ही रहेगा।" और उसे महसूस हुआ कि वह स्वयं एक मूर्ख व्यक्ति है।

दूसरी टिप्पणी ‘ब’ ने की, "गधों को सब मूर्ख ही दिखाई देते हैं।" यह पढ़कर उसे स्वयं में एक गधा दिखाई देने लगा।

तीसरी टिप्पणी फिर ‘अ’ ने की, "जिसे गधा कह रहे हो उसने देश की लोकतांत्रिक परंपरा को बढ़ाने के लिए बहुत कार्यक्रम चला रखे हैं।"

चौथी टिप्पणी फिर ‘ब’ की थी, "तो तुम भी जिसे मूर्ख कह रहे हो उसने और उसके दल ने भी कई वर्षों देश की भलाई के लिए बहुत कार्यक्रम चलाए हैं।"

पाँचवी टिप्पणी ‘स’ ने की, "एक-दूसरे को कोसना छोड़िये, यह बताइये आप दोनों ने किन-किन कार्यक्रमों या परियोजनाओं में भाग लिया है ?"

छठी टिप्पणी ‘अ’ ने की, "लो आज गूंगे भी बोल रहे हैं, देशद्रोही ! तुमने क्या किया है देश के लिए ? "इस टिप्पणी को ‘ब’ ने पसंद किया हुआ था, लेकिन पढ़कर उसकी भवें तन गयीं।

सातवीं टिप्पणी दस मिनट बाद की थी, जो ‘स’ ने की थी, "मैनें फेसबुक पर अपना प्रचार नहीं किया लेकिन हर दल की सरकार के विकास के कार्यों में हर संभव भाग लिया है..."

उसने और टिप्पणियाँ नहीं पढ़ीं, उसकी आँखों में चमक आ गयी थी और उसने ‘स’ को मित्रता अनुरोध भेज दिया।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शुक्रवार, 31 मई 2019

लघुकथा: दहन किसका | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



"जानते हो रावण की भूमिका करने वाला असली जिंदगी में भी रावण ही है, ऐसा कोई अवगुण नहीं जो इसमें नहीं हो।" रामलीला के अंतिम दिन रावण-वध मंचन के समय पांडाल में एक दर्शक अपने साथ बैठे व्यक्ति से फुसफुसा कर कहने लगा।

दूसरे दर्शक ने चेहरे पर ऐसी मुद्रा बनाई जैसे यह बात वह पहले से जानता था, वह बिना सिर घुमाये केवल आँखें तिरछी करते हुए बोला, "इसका बाप तो बहुत सीधा था, लेकिन पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी की भूल कर बैठा, दूसरी ने  दोनों बाप-बेटे को घर से निकाल दिया...”

“इसकी हरकतें ही ऐसी होंगी, शराबी-जुआरी के साथ किसकी निभेगी?"

"श्श्श! सामने देखो।" पास से किसी की आवाज़ सुनकर दोनों चुप हो गये और मंच की तरफ देखने लगे।

मंच पर विभीषण ने राम के कान में कुछ कहा, और राम ने तीर चला दिया, जो कि सीधा रावण की नाभि से टकराया और अगले ही क्षण रावण वहीँ गिर कर तड़पने लगा, पूरा पांडाल दर्शकों की तालियों से गूँजायमान हो उठा।

तालियों की तेज़ आवाज़ सुनकर वहां खड़ा लक्ष्मण की भूमिका निभा रहा कलाकार भावावेश में आ गया और रावण के पास पहुंच कर हँसते हुआ बोला, "देख रावण... माँ सीता और पितातुल्य भ्राता राम को व्याकुल करने पर तेरी दुर्दशा... इस धरती पर अब प्रत्येक वर्ष दुष्कर्म रूपी तेरा पुतला जलाया जायेगा..."

नाटक से अलग यह संवाद सुनकर रावण विचलित हो उठा, वह लेटे-लेटे ही तड़पते हुआ बोला, "सिर्फ मेरा पुतला! मेरे साथ  उसका क्यों नहीं जिस कुमाता के कारण तेरे पिता मर गये और तुम तीनों को...."

उसकी बात पूरी होने से पहले ही पर्दा सहमते हुए नीचे गिर गया।


- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

गुरुवार, 30 मई 2019

लघुकथा: दुरुपयोग | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


एक बूढ़ा आदमी जिसने सिर्फ धोती पहनी हुई थी, धीरे-धीरे चलता हुआ, महात्मा गांधी की प्रतिमा के पास पहुंचा। वहां उसने अपनी धोती में बंधा हुआ एक सिक्का निकाला, और जिस तरफ ‘सत्यमेव जयते’ लिखा था, उसे ऊपर कर, सिक्के को महात्मा गांधी के पैरों में रख दिया।

अब उसने मूर्ति के चेहरे को देखा, उसकी आँखों में धूप चुभने लगी, लेकिन उसने नज़र हटाये बिना दर्द भरे स्वर में कहा,
"गांधीजी, तुम तो जीत कर चले गये, लेकिन अब यहाँ दो समुदाय बन गये हैं, एक तुम्हारे नाम की जय-जयकार करता है तो दूसरा तुम्हें दुष्ट मानता है... तुम वास्तव में कौन हो, यह पीढ़ी भूल ही गयी।" कहते-कहते उसकी गर्दन नीचे झुकती जा रही थी।

उसी समय उसके हृदय में जाना-पहचाना स्वर सुनाई दिया, "मैं जीता कब था?अंग्रेजों के जाने के बाद आज तक मेरे भाई-बहन पराधीन ही हैं, मुट्ठी भर लोग उन्हें बरगला कर अपनी विचारधारा के पराधीन कर रहे हैं... और सत्य की हालत..."

"क्या है सत्य की हालत?" वह बूढ़ा आदमी अपने अंदर ही खोया हुआ था।

उसके हृदय में स्वर फिर गूंजा, "सत्य तो यह है कि दोनों एक ही काम कर रहे हैं – मेरे नाम को बेच रहे हैं..."

और उसी समय हवा के तेज़ झोंके से मूर्ति पर रखा हुआ सिक्का नीचे गिर गया, शायद उसका आधार कमज़ोर था।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 29 मई 2019

लघुकथा: मैं पानी हूँ | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"क्या... समझ रखा है... मुझे? मर्द हूँ... इसलिए नीट पीता हूँ... मरद हूँ... मुरद...आ"
ऐसे ही बड़बड़ाते हुए वह सो गया। रोज़ की तरह ही घरवालों के समझाने के बावजूद भी वह बिना पानी मिलाये बहुत शराब पी गया था।

कुछ देर तक यूं ही पड़ा रहने के बाद वह उठा। नशे के बावजूद वह स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रहा था, लेकिन कमरे का दृश्य देखते ही अचरज से उसकी आँखें फ़ैल गयीं, उसके पलंग पर एक क्षीणकाय व्यक्ति लेटा हुआ तड़प रहा था।

उसने  उस व्यक्ति को गौर से देखा, उस व्यक्ति का चेहरा उसी के चेहरे जैसा था। वह घबरा गया और उसने पूछा, "कौन हो तुम?"

उस व्यक्ति ने तड़पते हुए कहा, "...पानी..."

और यह कहते ही उस व्यक्ति का शरीर निढाल हो गया। वह व्यक्ति पानी था, लेकिन अब मिट्टी में बदल चुका था।

उसी समय कमरे में उसकी पत्नी, माँ और बच्चों ने प्रवेश किया और उस व्यक्ति को देख कर रोने लगे। वह चिल्लाया, "क्यों रो रहे हो?"

लेकिन उसकी आवाज़ उन तक नहीं पहुंच रही थी।

वह और घबरा गया, तभी पीछे से किसी ने उसे धक्का दिया, वह उस मृत शरीर के ऊपर गिर कर उसके अंदर चला गया। वहां अँधेरा था, उसे अपना सिर भारी लगने लगा और वह तेज़ प्यास से व्याकुल हो उठा। वह चिल्लाया "पानी", लेकिन बाहर उसकी आवाज़ नहीं जा पा रही थी।

उससे रहा नहीं गया और वह अपनी पूरी शक्ति के साथ चिल्लाया, "पा...आआ...नी"

चीखते ही वह जाग गया, उसने स्वप्न देखा था, लेकिन उसका हलक सूख रहा था। उसने अपने चेहरे को थपथपाया और पास रखी पानी की बोतल को उठा कर एक ही सांस में सारा पानी पी लिया।

और उसके पीछे रखी शराब की बोतल नीचे गिर गयी थी, जिसमें से शराब बह रही थी... बिना पानी की।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

मंगलवार, 28 मई 2019

पुस्तक समीक्षा | परिंदे पूछते हैं | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"परिंदे पूछते हैं" - जिज्ञासु लघुकथाकारों के प्रश्नों के उत्तर
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

"परिंदे पूछते हैं" लघुकथा विधा पर सार्थक विमर्श का एक ऐसा आउटपुट है, जो ना केवल नवोदित रचनाकारों के लिए बल्कि उनसे कुछेक कदम आगे बढ़े लघुकथाकारों के लिए भी उपयोगी विषय-वस्तु समेटे है। इस पुस्तक में लघुकथा सम्बन्धी लगभग सभी विषयों पर डॉ. अशोक भाटिया जी द्वारा चर्चा कर जिज्ञासु लघुकथाकारों के प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं। अपनी पारखी दृष्टि से आपने ऐसी लघुकथाओं को उदाहरणस्वरूप भी प्रस्तुत किया है, जिन्हें प्रश्न के साथ जोड़कर लघुकथाकार खुद-ब-खुद उत्तर को अधिक आसानी से समझ सकें। मेरे लिए एक बहुत बड़ी बात यह रही कि यह पुस्तक स्वयं डॉ. अशोक भाटिया जी ने मुझे आशीर्वाद स्वरूप प्रदान की। तब से इसे तीन-चार बार पढ़ चुका हूँ और अपने कुछ मित्रों को पढ़ा भी चुका हूँ।

इस पुस्तक के कुछ कथन ऐसे हैं, जिनकी गंभीरता पर ध्यान देना मैं ज़रूरी समझता हूँ जैसे,

1. लघुकथा की शब्द संख्या को लेकर गद्य और पद्य के अंतर को दर्शाते हुए अशोक भाटिया जी सर ने बताया कि छंदबद्ध दोहों, कविताओं आदि में मात्राओं, गणों और क्रम का महत्व होता है, लेकिन गद्य में ऐसा नहीं है, हाँ! उपन्यास से छोटी कहानी और कहानी से छोटी लघुकथा होनी चाहिए, क्यूंकि लघुकथा एक आयामी होती है।

2. लघुकथा और कहानी में अंतर को स्पष्ट करते हुए डॉ. भाटिया ने यह बताया कि कहानी चाहे बड़ी हो छोटी वह "कहानी" ही कहलाएगी। किसी भी रचनाकार को यह सोचने से पहले कि उनकी लिखी रचना लघुकथा है या कहानी, यह सोचना चाहिए कि रचना अपने सभी पहलुओं यथा कथानक, उद्देश्य, संवाद, भाषा आदि की पूर्णता की ओर जाकर कुछ न कुछ सन्देश अवश्य दे और पाठक के लिए आकर्षक (रुचिकर) होकर उसकी चेतना पर प्रहार करने का सामर्थ्य रखे।

3. लेखक के मन में समाज का एक सुंदर स्वप्न होता है, इसलिए विसंगतियों के प्रति आक्रोश का भाव उत्पन्न हो ही जाता है, लेकिन इसके बावजूद भी अपनी रचनाओं को विसंगतियों की सीमाओं में बाँध कर रखना ठीक नहीं। समाज का सही चित्रण हो यह आवश्यक है।

4. लघुकथा सहित कोई भी रचना काल्पनिक भी हो सकती है, पूर्ण यथार्थपरक भी और दोनों का मिश्रण भी। लेकिन कल्पना हवाई नहीं होनी चाहिए। इसके उदाहरण में आपने बताया कि "स्वाति नक्षत्र से गिरी हुई बूँद मोती बन गयी", यह एक कल्पना है। उसी तरह ब्रह्मा के तीन मुख, माँ दुर्गा के आठ हाथ कल्पना है। लेकिन ये सारी कल्पनाएं इसी दुनिया से आई हैं। सीप से मोती एक प्रक्रिया के तहत बनता ही है, हाथ-पैर-सिर होते ही हैं। ये कल्पनाएं कहीं न कहीं यथार्थ से जुडी हुई हैं।

5.रचना में जिस क्षेत्र के लिए कहा जा रहा है, पात्रों के नाम उसी अनुसार हों। कोशिश यह हो कि पात्रों के नाम अनावश्यक जाती सूचक ना हों और केवल ग्लैमर के लिए ना हों।

6. लघुकथा में सन्देश सीधे-सीधे दिया जाये, यह कोई आवश्यक नहीं। सतही सन्देश देना कई बार रचना को कमजोर करता है। समकालीन हिंदी लघुकथाएं यथार्थ पर टिकी हैं और बोधकथा वाली शैली पीछे छूट गयी है। सीधे सन्देश देने की बजाय कलात्मक तरीके से सन्देश देने पर पाठक पर अधिक प्रभाव पड़ेगा।

7. लघुकथा के शीर्षक पर खुले मन से विचार करें। शीर्षक रोचक भी हो सकता है, जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला भी, व्यंग्यात्मक भी और प्रतीकात्मक भी। कई बार शीर्षक पूरी लघुकथा को ही एक नया आयाम प्रदान कर देता है।

8. विचारहीन, भावहीन, रचनात्मकताहीन, दिशाहीन लघुकथाओं के गोदाम गलतफहमियां पैदा कर रहे हैं।

9. गद्य विधा में मानकों की सूची नहीं होती, केवल विधागत मर्यादाएं होती हैं।

10. प्रतीक रचना में गहरा अर्थ भरते हैं। इनके प्रयोग से कई बार रचना को नयी ऊंचाई भी प्राप्त हो सकती है।

मेरे अनुसार वैसे तो सभी लघुकथाकारों को अपना रास्ता खुद ही चुन कर आगे बढ़ना है, लेकिन "परिंदे पूछते हैं" सरीखी उपयोगी पुस्तकें पढ़नी ही चाहिए। ऐसी पुस्तकें, आलेख आदि रचनाकर्म का मार्ग प्रशस्त करने में महती भूमिका का निर्वाह करते हैं।

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पुस्तक : परिंदे पूछते हैं
लेखक : डॉ. अशोक भाटिया 
प्रकाशक : लघुकथा शोध केन्द्र, भोपाल 
पृष्ठ संख्या: 144
मूल्य : रु.100/-
समीक्षाकार: - डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी