विभिन्न भाषाओं के बीच अनुवाद का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। अनुवाद ने ही हमें विश्व के विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक मूल्यों से परिचित कराया है। आज हम अलग-अलग सभ्यताओं को एक-दूसरे के करीब पाते हैं, तो उसके पीछे अनुवाद की अदृश्य लेकिन अनिवार्य भूमिका रही है। भारत जैसे बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश में, जहाँ 453 जीवित भाषाएँ, 270 मातृभाषाएँ और 1369 बोलियाँ प्रचलित हैं - वहाँ अनुवाद केवल भाषा नहीं, बल्कि संस्कृति, भाव और विचार का भी आदान-प्रदान है। वेद, उपनिषद, पुराण, पंचतंत्र, हितोपदेश जैसे भारतीय ग्रंथों की कथाएँ विभिन्न भाषाओं में अनुवादित होकर वैश्विक धरोहर बन गईं। वहीं ईसप की कथाओं जैसी पश्चिमी लघुकथाएँ भारतीय भाषाओं में लोकप्रिय हुईं।
लघुकथा अपनी संक्षिप्तता और सामाजिक तीव्रता के कारण आज के समय की माँग बन गई है। अनुवादक के माध्यम से यह विधा देश-विदेश में पहचानी जा रही है। तेजी से बदलते समय में कई भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं। ऐसे में अनुवादित लघुकथाएँ भाषाई धरोहरों को संरक्षित कर रही हैं। भारत में अब तक 42 भाषाएँ लुप्त हो चुकी हैं और 147 संकट में हैं।
जब देश में भाषा-आधारित राजनीति और टकराव बढ़ रहे हों, तब अनुवादित लघुकथाएँ भाषाओं के बीच संवाद का पुल बनती हैं। जैसे महाराष्ट्र में हिन्दी विरोध के बीच हिन्दी भाषी क्षेत्रों में मराठी और अन्य भाषाओं की लघुकथाओं का अनुवाद हो रहा है। अशोक भाटिया ने “रूसी लघुकथाओं का पुनर्पाठ”—टॉलस्टॉय, चेखव, गोर्की आदि—को हिन्दी में प्रस्तुत किया है। कल्पना भट्ट और संतोष सुपेकर ने हिन्दी लघुकथाओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। बेबी कारफोमा और हीरालाल मिश्र ने बांग्ला लघुकथाओं का हिन्दी में अनुवाद किया है; वहीं हिन्दी लघुकथाओं का मराठी में अनुवाद मंजूषा मूले, डॉ. वसुधा गाडगिल, संतोष सुपेकर, उज्ज्वला केलकर और अंतरा करवड़े ने किया है। हिन्दी से नेपाली और नेपाली से हिन्दी में अनुवाद डॉ. पुष्कर राज भट्ट, रचना शर्मा और किशन पौडेल ने किया है। आशीष श्रीवास्तव ‘अश्क’ ने हिन्दी लघुकथाओं का उर्दू में, डॉक्टर रीना ने हिन्दी लघुकथाओं का मलयालम में, श्यामसुन्दर अग्रवाल और जगदीश राय कुलरियाँ ने हिन्दी लघुकथाओं का पंजाबी में, रजनीकांत एस. शाह ने हिन्दी लघुकथाओं का गुजराती में, मिन्नी मिश्रा ने हिन्दी लघुकथाओं का मैथिली में, रेखा शाह आर.बी. ने भोजपुरी में और हेमलता शर्मा ‘भोली बेन’ ने मालवी बोली में अनुवाद किया है।
योगराज प्रभाकर का अनुवाद के क्षेत्र में सराहनीय योगदान रहा है। वे हिन्दी लघुकथाओं का पंजाबी और उर्दू में अनुवाद करते ही हैं, साथ ही पंजाबी और उर्दू लघुकथाओं का हिन्दी में अनुवाद करने की दक्षता भी रखते हैं। हाल ही में योगराज जी का प्रकाशित “पंजाबी लघुकथा-संग्रह” चर्चा में है।
इन अनुवादकों की विशेषता यह है कि वे केवल शब्दों का अनुवाद नहीं करते, बल्कि मूल भाषा के भाव, उद्देश्य और शैली को आत्मसात कर दूसरे पाठकों तक पहुँचाते हैं। इससे अनूदित लघुकथाएँ न केवल पठनीय होती हैं, बल्कि प्रभावशाली भी बनती हैं। अनुवाद से भाषाई सौहार्द और एकता, विविधताओं में एकरूपता का अनुभव, अंतर-भाषायी समझ का विकास, संस्कृति और साहित्य का साझा बोध तथा नई भाषाओं और विचारों का साक्षात्कार होता है। जैसे-जैसे पाठक विभिन्न भाषाओं की अनूदित लघुकथाएँ पढ़ते हैं, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि दुख–सुख, संघर्ष और संवेदनाएँ सार्वभौमिक होती हैं। यही अनुवाद का सार है - भिन्न भाषाओं में एक जैसी मानवता को पाना।
अनुवाद किसी रचना के अर्थ, भावना और सांस्कृतिक बारीकियों को एक भाषा से दूसरी भाषा में सटीक रूप से संप्रेषित करने की प्रक्रिया है, जिसमें मूल पाठ की निष्ठा और लक्ष्य भाषा में सहज प्रवाह—दोनों का संतुलन आवश्यक है। इसके मूल में ‘समतुल्यता’, ‘सटीकता’, ‘प्रवाह’, ‘सांस्कृतिक अनुकूलन’ और लेखक के मूल आशय की समझ शामिल है। एक कुशल अनुवादक को मूल लेखक की शैली, बारीकियों और दोहरे अर्थों को समझकर उन्हें लक्ष्य भाषा में स्वाभाविक रूप से संप्रेषित करना होता है।
अनुवाद प्रक्रिया में अनुवादक मूल पाठ की भावनाओं को समझकर उसे लक्ष्य भाषा के अनुकूल, स्वाभाविक और सुंदर रूप में प्रस्तुत करता है। अनुवाद विभिन्न साहित्यिक कृतियों तक पहुँच को सुगम बनाता है और उनके इर्द-गिर्द के संवाद को समृद्ध करता है। अनुवाद सांस्कृतिक आदान-प्रदान, लेखक की पहुँच बढ़ाने, सहानुभूति उत्पन्न करने और मूल भाषा की बारीकियों को बनाए रखने में सहायक है। अनुवादक की भूमिका केवल भाषा का रूपांतरण नहीं, बल्कि लेखक की शैली और आशय को संरक्षित रखना भी है, जिससे रचना लक्ष्य भाषा में स्वाभाविक लगे। अनुवादक सांस्कृतिक और वैचारिक अंतर्दृष्टि प्रदान करके साहित्यिक विमर्श को समृद्ध करते हैं।
लघुकथा में अनुवाद न केवल भाषाओं का सेतु है, बल्कि साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सौहार्द का माध्यम भी है। आज के वैश्विक युग में, जहाँ संचार का दायरा व्यापक है, वहाँ लघुकथा जैसी संक्षिप्त और प्रभावशाली विधा का अनुवाद एक मूल्यवान साहित्यिक साधना है। यह न केवल भाषाओं को बचाता है, बल्कि उन्हें नई पीढ़ियों और नई सीमाओं तक भी पहुँचाता है।
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भोपाल निवासी मनोरमा पंत समकालीन हिंदी साहित्य की सक्रिय और संवेदनशील रचनाकार हैं। उनका लघुकथा संग्रह "ज़िंदगी की अदालत में" और कविता संकलन "भाव सरिता" पाठकों द्वारा अत्यंत सराहा गया है। वे लघुकथा-संग्रह "उत्कर्ष" की सह-संपादक रही हैं और अब तक 15 से अधिक सांझा संकलनों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुकी हैं।
समीक्षा-लेखन में भी वे समान रूप से सक्रिय हैं। उन्होंने बेताल पच्चीसी, ऋषि रेणु, भज मन, गुलाबी गलियां, मन का फेर, कलम बोलती है, मैंने देखा है, सूर्य देव सहित कई महत्वपूर्ण कृतियों की समीक्षाएँ लिखी हैं।
आलेख, लघुकथाएँ, पर्यावरण विषयक लेख और व्यंग्य उनकी प्रमुख लेखन विधाएँ हैं जो विविध पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं। साहित्यिक रुचि और विचार-गहराई के कारण उनका साक्षात्कार वर्ल्ड पंजाबी टाइम्स, जन सरोकार मंच, कथा दर्पण और वरिष्ठ फोटोग्राफर जगदीश कौशल द्वारा लिया जा चुका है।
मनोरमा पंत को उनके निरंतर और गुणवत्तापूर्ण लेखन हेतु अनेक साहित्यिक सम्मान प्राप्त हुए हैं।
